Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम वर्ग]
[११ राजा की धारिणी नाम की रानी थी। कभी किसी समय वह धारिणी रानी अन्यत्र वर्णित (पुण्यवान् जन के योग्य) उत्तम शय्या पर शयन कर रही थी, जिसका वर्णन महाबल (के प्रकरण में वर्णित शय्या के) समान समझ लेना चाहिए। तत्पश्चात्
स्वप्न-दर्शन, पुत्रजन्म, उसकी बाल-लीला, कलाज्ञान, यौवन, पाणिग्रहण, रम्य प्रासाद एवं भोगादि-(यह सब वर्णन भी महाबल जैसा ही समझना)। विशेष यह कि उस बालक का नाम गौतम रखा गया, उसका एक ही दिन में आठ श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण करवाया गया तथा दहेज में आठ-आठ प्रकार की वस्तुएं दी गईं।
विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में गौतम कुमार के गर्भ में आने से लेकर विवाह तथा विषयभोगों के उपभोग तक का वर्णन किया गया है, अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में परमाराध्य भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँच कर गौतम कुमार के दीक्षित होने का वर्णन करते हैं -
८-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी आइगरे जाव [संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे ] विहरइ, चउव्विहा देवा आगया। कण्हे वि णिग्गए। धम्म सोच्चा 'जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि। देवाणुप्पियाणं [ अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि ] एवं जहा मेहे जाव (तहा गोयमे वि)[सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। करित्ता जेणामेव समणे भगवं अरिट्ठनेमी तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छिता समणं भगवं अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण य। से जहा नामए केई गाहावई आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमड, एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा परा हियाए सहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आया भंडे इट्टे कंते पिए मणुन्ने मणामे, एस मे णित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ।तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं।
तए णं समणे भगवं अरिट्ठनेमी सयमेव पव्वावेइ, सयमेव आयार० जाव धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं चिट्ठियव्वं णिसीयव्वं तुयट्टियव्वं भुंजियव्वं भासियव्वं, एवं उठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं, अस्सि च णं अटे णो पमाएयव्वं।
तए णं से गोयम कुमारे समणस्स भगवओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सोच्चा णिसम्म सम्म पडिवज्जइ। तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमइ] तए णं से गोयमे अणगारे जाए इणमेव णिग्गथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ।।
___ उस काल तथा उस समय श्रुत-धर्म का आरंभ करने वाले, धर्म के प्रवर्तक अरिष्टनेमि भगवान् यावत् [संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए] विचरण कर रहे थे। (जब वे द्वारका नगरी के १. सूत्र नं. २ में प्रस्तुत पाठ पूर्ण किया गया है। यहां विहरइ हेतु अपूर्ण पाठ ब्राकेट में पूर्ण किया गया है।