Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३८]
[ अन्तकृद्दशा
हाया जाव' पायच्छित्ता उल्लपडसाडया महरिहं पुप्फच्चणं करेड़, करेत्ता जण्णुपायपडिया पणामं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा आहारेइ वा नीहारेइ वा वरइ वा ।
तए णं तीसे सुलसाए गाहावइणीए भत्तिबहुमाणसुस्सूयाए हरिणेगमेसी देवे आराहि यावि होत्था । तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणट्टयाए सुलसं गाहावइणिं तुमं च दो वि समउउयाओ करेइ । तए णं तुब्भे दो वि सममेव गब्भे गिण्हह, सममेव गब्भे परिवहह, सममेव दारए पयायह। तए णं सा सुलसा गाहावइणी विणिहायमावण्णे दारए पयाय । तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए अणुकंपणट्टयाए विणिहायमावण्णे दारए करयलसंपुडेणं गेहड़, गेण्हित्ता तव अंतियं साहरइ । तं समयं च णं तुमं पि नवण्हं मासाणं सुकुमालदारए पसवसि । जे वि य णं देवाणुप्पिए! तव पुत्ता ते वि य तव अंतिआओ करयल-संपुडेणं गेण्हइ, गेण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरइ । तं तव चेव णं देवई ! एए पुत्ता । णो सुलसाए गाहावइणीए ।
T
अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा - 'देवानुप्रिये ! उस काल उस समय में भद्दिलपुर नामक नगर में नाग नाम का गाथापति रहता था । वह पूर्णतया सम्पन्न था। नागरिकों में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । उस नाग गाथापति की सुलसा नाम की भार्या थी । उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहा था - 'यह बालिका निंदू अर्थात् मृतवत्सा (मृत बालकों को जन्म देने वली ) होगी। तत्पश्चात् वह सुलसा बाल्यकाल से ही हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई। उसने हरिणैगमेषी देव की प्रतिमा बनवाई। प्रतिमा बनवा कर प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके यावत् दुःस्वप्न निवारणार्थ प्रायश्चित्त कर आर्द्र (गोली) साड़ी पहने हुए उसकी बहुमूल्य पुष्पों से अर्चना करती । पुष्पों द्वारा पूजा के पश्चात् घुटने टेककर पांचों अंग नमा कर प्रणाम करती, तदनन्तर आहार करती, निहार करती एवं अपनी दैनन्दिनी के अन्य कार्य करती ।
तत्पश्चात् उस सुलसा गाथापत्नी की उस भक्ति- बहुमानपूर्वक की गई शुश्रूषा से देव प्रसन्न हो गया। प्रसन्न होने के पश्चात् हरिणैगमेषी देव सुलसा गाथापत्नी को तथा तुम्हें -दोनों को समकाल में ही ऋतुमती (रजस्वला) करता और तब तुम दोनों समकाल में ही गर्भ धारण करती, समकाल में ही गर्भ का वहन करतीं और समकाल ही बालक को जन्म देतीं । प्रसवकाल में वह सुलसा गाथापत्नी मरे हुए बालक को जन्म देती । तब वह हरिणैगमेषी देव सुलसा पर अनुकंपा करने के लिये उसके मृत बालक को हाथों में लेता और लेकर तुम्हारे पास लाता। इधर उसी समय तुम भी नव मास का काल पूर्ण होने पर सुकुमार बालक को जन्म देतीं। हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे पुत्र होते उनको हरिणैगमेषी देव तुम्हारे पास से अपने दोनों हाथों में ग्रहण करता और उन्हें ग्रहण कर सुलसा गाथापत्नी के पास लाकर रख देता (पहुँचा देता) । अत: वास्तव में हे देवकी ! ये तुम्हारे ही पुत्र हैं, सुलसा गाथापत्नी के पुत्र नहीं हैं।'
विवेचन- भगवान् अरिष्टनेमि ने देवकी देवी के समाधान के लिये नाग की धर्मपत्नी सुलसा का निन्दू होना, उसका हरिणैगमेषी देव की आराधना करना, देव का प्रसन्न होकर देवकी देवी के पुत्रों को सुलसा के पास पहुंचाना तथा सुलसा के मृतपुत्रों को देवकी देवी के पास पहुंचाना आदि जो कथन किया १. देखिए पिछला सूत्र ।