Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वर्ग]
[ ४९
अदंडिमकुडंडिमं अधरिमं अधारणिज्जं अणुद्धयमुइंगं अमिलायमल्लदामं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगताला - यराणुचरितं पमुझ्यपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह, करित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।
ते वि करेन्ति, करित्ता तहेव पच्चप्पिणंति ।
तणं से वसुदेवे राया बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य जाएहिं दाएहिं भोगेहिं दलयमाणे दलयमाणे पडिच्छेमाणे पडिच्छेमाणे एवं च णं विहरइ ।
तणं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करित्ता बितियदिवसे जागरियं करेन्ति, करित्ता ततिय दिवसे चंदसूरदंसणीयं करेंति, करित्ता एवामेव निव्वत्ते असूइजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेन्ति, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ - णियग-सयण-संबंधि-परिजणं बलं च बहवे गणणायग- दंडनायग जाव आमंतेइ ।
तओ पच्छा पहाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ० गणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा एवं च णं विहरइ ।
जिमियत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्त-नाइनियग-सयणसंबंधिपरिजण० गणणायग० विपुलेणं पुप्फगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति, संमाणेंति, सक्कारित्ता सम्माणित्ता एंव वयासी " जम्हा णं अम्हं इमे दारगे गयतालुसमाणे तं होउ ] णं अम्ह एयस्स दारगस्स नामधेज्जे गयसुकुमाले २ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरे नामं करेंति गयसुकुमालोत्ति सेसं जहा मेहे जाव' अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था ।
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तदनन्तर वह देवकी देवी अपने आवासगृह में शय्या पर सोई हुई थी। वह वासगृह ( शयनकक्ष) [ भीतर से चित्रित था, बाहर से श्वेत और घिसकर चिकना बनाया हुआ था । उसका ऊपरिभाग विविध चित्रों से युक्त था और नीचे का भाग सुशोभित था । मणियों और रत्नों के प्रकाश से उसका अंधकार नष्ट हो गया था। वह एकदम समतल सुविभक्त भाग वाला, पंचवर्ण के सरस और सुवासित पुष्प-पुंजों के उपचार से युक्त था। उत्तम कालागुरु, कुन्दरुक और तुरुष्क (शिलारस ) की धूप से चारों ओर सुगन्धित, सुगन्धी पदार्थों से सुवासित एवं सुगन्धित द्रव्य की गुटिका के समान था । उसमें जो शय्या थी वह तकिया सहित, सिरहाने और पायते दोनों ओर तकियायुक्त थी। दोनों ओर से उन्नत और मध्य में कुछ नमी (झुकी हुई थी । विशाल गंगा के किनारे की रेती के अवदाल (पैर रखने से फिसल जाने) के समान कोमल, क्षोमिक - रेशमी दुकूलपट से आच्छादित, रजस्त्राण (उड़ती हुई धूल को रोकने वाले वस्त्र) से ढंकी हुई, रक्तांशुक (मच्छरदानी) सहित, सुरम्य आजिनक (एक प्रकार का चमड़े का कोमल वस्त्र ) रुई, बूर, नवनीत, अर्कतूल (आक की रुई) के समान कोमल स्पर्श वाली, सुगन्धित उत्तम पुष्प, चूर्ण और अन्य शयनोपचार से युक्त थी । ऐसी शय्या पर सोई हुई देवकी देवी ने अर्द्धनिद्रित अवस्था में अर्द्धरात्रि के समय उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारक और शोभन महास्वप्न देखा और जागृत हुई ।
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मोतियों के हार, रजत, क्षीरसमुद्र, चन्द्रकिरण, पानी के बिन्दु और रजत- महाशैल (वैताढ्य पर्वत १. वर्ग, ३ सूत्र २.