Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अन्तकृद्दशा ऐसा सोचकर तुमने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-"शीघ्रगामी यानप्रवर-[समान रूप वाले, समान खुर और पूंछ वाले, समान सींग वाले, स्वर्ण-निर्मित कण्ठ के आभूषणों से युक्त, उत्तम गति वाले, चाँदी की घंटियों से युक्त, स्वर्णमय नासारज्जु से बंधे हुए, नील-कमल के सिरपेच वाले दो उत्तम युवा बैलों से युक्त, अनेक प्रकार की मणिमय घण्टियों के समूह से व्याप्त उत्तम काष्ठमय धोंसरा (जुआ) और जोत की दो उत्तम डोरियों से युक्त, प्रवर (श्रेष्ठ) लक्षण युक्त धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) तैयार करके यहाँ उपस्थित करो और आज्ञा का पालन कर निवेदन करो अर्थात् कार्य सम्पूर्ण हो जाने की सूचना दो।" देवकी देवी की इस प्रकार की आज्ञा होने पर वे सेवक पुरुष प्रसन्न यावत् आनन्दित हृदय वाले हुए और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले - आपकी आज्ञा हमें मान्य है' ऐसा कहकर विनयपूर्वक आज्ञा को स्वीकार किया और आज्ञानुसार शीघ्र चलने वाले दो बैलों से युक्त यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ को शीघ्र] उपस्थित किया।
तब देवानन्दा ब्राह्मणी की तरह देवकी देवी ने भी [अंत:पुर में स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (मषि-तिलक) किया। फिर पैरों में पहनने के सुंदर नूपुर, मणियुक्त मेखला (कन्दोरा) हार, उत्तम कंकण, अंगूठियाँ, विचित्र मणिमय एकावलि (एक लड़ा) हार, कण्ठ-सूत्र, ग्रैवेयक (वक्षस्थल पर रहा हुआ गले का लम्बा हार), कटिसूत्र और विचित्र मणि तथा रत्नों के आभूषण, इन सब से शरीर को सुशोभित करके, उत्तम चीनांशुक (वस्त्र) पहनकर शरीर पर सुकुमाल रेशमी वस्त्र ओढकर, सब ऋतुओं के सुगन्धित फूलों से अपने केशों को गूंथकर, कपाल पर चन्दन लगा कर, उत्तम आभूषणों से शरीर को अलंकृत कर, कालागुरु के धूप से सुगन्धित होकर, लक्ष्मी के समान वेष वाली यावत् अल्प भार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, बहुत सी कुब्जा दासियों, चिलात देश की दासियों, यावत् अनेक देश विदेशों से आकर एकत्रित हुई दासियों, अपने देश के वेष धारण करने वाली, इंगितआकृति द्वारा चिन्तित और इष्ट अर्थ को जाननेवाली कुशल और विनयसम्पन्न दासियों के परिवार संहित तथा स्वदेश की दासियों, खोजा पुरुष, वृद्ध कंचुकी और मान्य पुरुषों के समूह के साथ वह देवकी देवी अपने अन्त:पुर से निकली और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहाँ धार्मिक श्रेष्ठ रथ खड़ा था वहाँ आई और उस धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढी।
(जहाँ अरिष्टनेमि भगवान् थे वहाँ आई, आकर, तीर्थंकर के अतिशयों को देखकर) धार्मिक रथ से नीचे उतरी और अपनी दासियों आदि परिवार से परिवृत्त होकर भगवान् अरिष्टनेमि के पास पांच प्रकार के अभिगमों से युक्त होकर जाने लगी। वे अभिगम इस प्रकार हैं -(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग करना, (२) अचित्त द्रव्यों का त्याग नहीं करना, (३) विनय से शरीर को अवनत करना (नीचे की ओर झुका देना), (४) भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ना और (५) मन को एकाग्र करना। इन पाँच अभिगमों के साथ देवकी देवी जहाँ अरिष्टनेमि भगवान् थे वहाँ आई और भगवान् को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके शुश्रूषा करती हुई, विनयपूर्वक हाथ जोड़कर] उपासना करने लगी।
तदनन्तर अरिहंत अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले - "हे देवकी! क्या इन छह अनगारों को देखकर तुम्हारे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित , मनोगत और संकल्पित विचार उत्पन्न हुआ है कि -पोलासपुर नगर में अतिमुक्तकुमार ने तुम्हें एक समान, नलकूबरवत् आठ पुत्रों को जन्म देने का और भरतक्षेत्र में अन्य माताओं द्वारा इस प्रकार के पुत्रों को जन्म नहीं देने का