Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अन्तकृद्दशा "देवानुप्रिये! वास्तव में बात यह है कि हम भद्दिलपुर नगरी के नाग गाथापति के पुत्र और उनकी सुलसा भार्या के आत्मज छह सहोदर भाई हैं। पूर्णतः समान आकृति वाले यावत् नलकूबर के समान हम छहों भाइयों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के पास धर्म-उपदेश सुनकर संसार-भय से उद्विग्न एवं जन्म-मरण से भयभीत हो मुंडित होकर यावत् श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर हमने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार का यह अभिग्रह करने की आज्ञा चाही-“हे भगवन्! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले-बेले की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं।" यावत् प्रभु ने कहा-"देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख हो वैसा करो, प्रमाद न करो।"
उसके बाद अरिहंत अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवन भर के लिये निरंतर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे। तो इस प्रकार आज हम छहों भाई बेले की तपस्या के पारणा के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय कर, द्वितीय प्रहर में ध्यान कर, तृतीय प्रहर में अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर, तीन संघाटकों में उच्च-निम्न एवं मध्यम कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए तुम्हारे घर आ पहुंचे हैं। तो देवानुप्रिये ! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मुनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम ही हैं। वस्तुतः हम दूसरे हैं। उन मुनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये।
विवेचन- साधु-युगल की तीसरी टोली का भी देवकी के घर में भिक्षार्थ गमन के समय आकृति और रूप के साम्य के कारण देवकी को मुनियुगल जो पहले आये थे का तीसरी वार आना समझ लेने से शंका होती हैं, क्योंकि संयमशील मुनि विशिष्ट भिक्षा हेतु किसी गृहस्थ के घर में पुनः पुनः नहीं आते हैं। प्रस्तुत सूत्र में देवकी के मन में उठी शंका का मुनियुगल ने समाधान प्रस्तुत किया है। .
प्रस्तुत समाधान ने देवकी के मन में जो नयी उथल-पुथल मचाई, इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैंपुत्रों की पहचान
१०-तए णं तीसे देवईए देवीए अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणेगए संकप्पे समुप्पण्णे-एवं खलु अहं पोलासपुरे नयरे अइमुत्तेणं कुमारसमणेणं बालत्तणे वागरिआ-तुमण्णं देवाणुप्पिए! अट्ठ पुत्ते पयाइस्ससि सरिसए जाव नलकुब्बरसमाणे, नो चेव णं भरहे वासे अण्णाओ अम्मयाओ तारिसए पुत्ते पयाइस्संति। तं णं मिच्छा। इमं णं पच्चक्खमेव दिस्सइ-भरहे वासे अण्णाओ वि अम्मयाओ खलु एरिसए जाव [ सरिसए सरित्तए सरिव्वए नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासे, सिरिवच्छंकियवच्छे, कुसुम-कुंडल-भद्दालए नलकुब्बरसमाणे] पुत्ते पयायाओ। तं गच्छामि णं अरहं अरिट्ठणेमिं वंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता इमं च णं एयारूवं वागरणं पच्छिस्सामित्ति कटट एवं संपेहेड, संपेहेत्ता कोडंबियपरिसे सहावेड सद्दावित्ता एवं वयासी-लहु करणप्पवरं जाव [ जुत्त-जोइय-सम-खुर-वालिहाणसमालिहियसिंगेहिं, जंबूणया-मयकलावजुत्त-परिविसिझेहिं, रययामयघंटा-सुत्तरज्जुयपवरकंचणणत्थपग्गहोग्गहियएहिं, णीलुप्पलकयामेलएहिं, पवरगोणजुवाणएहिं णाणामणि-रयणघंटियाजाल-परिगयं सुजायजुग-जोत्तरज्जुयजुग-पसत्थसुविरि- चियणिम्मियं, पवरलक्खणोववेयं