Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४४]
[अन्तकृद्दशा अर्थात् उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिये जीव-प्रदेशों को बाहर निकालता है। जीव-प्रदेशों को बाहर निकालकर संख्यात योजन का दंड बनाता है। वह इस प्रकार -(१) कर्केतन रत्न, (२) वज्र रत्न, (३) वैडूर्य रत्न, (४) लोहिताक्ष रत्न, (५) मसारगल्ल रत्न, (६) हंसगर्भ रत्न, (७) पुलक रत्न, (८) सौगंधिक रत्न, (९) ज्योतिरस रत्न, (१०) अंक रत्न, (११) अंजन रत्न, (१२) रजत रत्न, (१३) जातरूप रत्न, (१४) अंजनपुलक रत्न, (१५) स्फटिक रत्न, (१६) रिष्ट रत्न - इन रत्नों के यथाबादर अर्थात् असार पुद्गलों का त्याग करता है और यथासूक्ष्म अर्थात् सारभूत पुद्गलों को ग्रहण करता है। ग्रहण करके (उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है) फिर कृष्ण वासुदेव पर अनुकंपा करते हुए उस देव ने अपने रत्नों के उत्तम विमान से निकलकर पृथ्वीतल पर जाने के लिये शीघ्र ही गति का प्रचार किया, अर्थात् वह शीघ्रतापूर्वक चल पड़ा। उस समय चलायमान होते हए निर्मल स्वर्ण के प्रतर जैसे कर्णपूर और मुकुट के उत्कट आडम्बर से वह दर्शनीय लग रहा था। अनेक मणियों, सुवर्ण और रत्नों के समूह से शोभित और विचित्र रचना वाले पहने हुए कटिसूत्र से उसे हर्ष उत्पन्न हो रहा था। हिलते हुए श्रेष्ठ और मनोहर कुंडलों से उज्ज्वल मुख की दीप्ति से उसका रूप बड़ा ही सौम्य हो गया। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में, शनि और मंगल के मध्य में स्थित और उदयप्राप्त शारद-निशाकर के समान वह देव दर्शकों के नयनों को आनन्द दे रहा था। तात्पर्य यह है कि शनि और मंगल ग्रह के समान चमकते हुए दोनों कुण्डलों के बीच में उसका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था। दिव्य ओषधियों (जड़ी-बूटियों) के प्रकाश के समान मुकुट आदि के तेज से देदीप्यमान, रूप में मनोहर, समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी से वृद्धिंगत शोभावाले तथा प्रकृष्ट गंध के प्रसार से मनोहर मेरु पर्वत के समान वह देव अभिराम प्रतीत होता था। उस देव ने ऐसे विचित्र वेष की विक्रिया की। वह असंख्य-संख्यक और असंख्य नामों वाले द्वीपों और समुद्रों के मध्य में होकर जाने लगा। अपनी विमल प्रभा से जीवलोक को तथा नगरवर द्वारका नगरी को प्रकाशित करता हुआ दिव्य रूपधारी देव कृष्ण वासुदेव के पास आ पहुँचा।
तत्पश्चात् दश के आधे अर्थात् पाँच वर्णवाले तथा धुंघरूवाले उत्तम वस्त्रों को धारण किया हुआ वह देव आकाश में स्थित होकर [कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोला -(यह एक प्रकार का गम (पाठ) हैं। इसके स्थान पर दूसरा भी पाठ है जो इस प्रकार है -] वह देव उत्कृष्ट त्वरावाली, कायिक चपलता वाली, अति उत्कर्ष के कारण उद्धृत, शत्रु को जीतने वाली होने से जय करने वाली, निपुणता वाली और दिव्य देवगति से जहाँ जंबूद्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था और जहाँ दक्षिणार्ध भरत था, वहीं आता है, आकर के आकाश में स्थित होकर पाँच वर्णवाले एवं धुंघरूवाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहने लगा - हे देवानुप्रिये ! मैं महान् ऋद्धिधारक हरिणैगमेषी देव हूँ। क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टम भक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो, इस कारण हे देवानुप्रिय! मैं शीघ्र यहाँ आया हूँ। हे देवानुप्रिय! बताओ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ? तुम्हें क्या दूँ? तुम्हारे किसी सम्बन्धी को क्या दूँ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है? तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने आकाशस्थित उस हरिणैगमेषी देव को देखा, और देखकर वह हृष्ट तुष्ट हुआ। पौषध को पाला-पूर्ण किया, फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय! मेरे एक सहोदर लघुभ्राता का जन्म हो, यह मेरी इच्छा है।