Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम वर्ग]
[१५ ही उपस्थित नहीं होता।
आचार्य अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की व्याख्या में स्कन्धक कुमार के प्रसंग को लेकर ऐसी ही आशंका उठाकर उसका जो समाधान प्रस्तुत किया है, वह मननीय एवं प्रस्तुत प्रकरण में उत्पन्न शंका के समाधान के लिये पठनीय है
एक्कारस अंगाई अहिज्जइ'- इह कश्चिदाह-नन्वनेन स्कन्धकचरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते, पंचमांगान्तर्भूतं च स्कन्धकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः? उच्यते-श्रीमन्महावीर-तीर्थ किल नव वाचनाः। तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्धक-चरितात् पूर्वकाले ये स्कन्धकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते, स्कन्धकचरितोत्पतौ च सुधर्मस्वामिना जंबूनामानं स्वशिष्यमंगीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्धकचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः अथवा सातिशयादित्वात् गणधराणामनागतकाल-भाविचरित-निबन्धनमदुष्टमिति। भाविशिष्य सन्तानापेक्षया अतीतकालनिर्देशोऽप्युदुष्ट इति।
अर्थात्-यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्कन्धकचरित से पहले ही ११ अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्धकचरित पंचम अंग (भगवती सूत्र) में उपलब्ध होता है। तब स्कन्धक ने ११ अंग पढ़े, इसका क्या अर्थ हआ? क्या उसने अपना ही जीवन पढा? इसका उत्तर इस प्रकार है
भगवान् महावीर के तीर्थशासन में नौ वाचनाएं थी। प्रत्येक वाचना में स्कन्धक के जीवन का अर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समानरूप से अवस्थित रहता था। अन्तर केवल इतना होता था कि जीवन के नायक के सभी साथी भिन्न-भिन्न होते थे। भाव यह है कि जो शिक्षा स्कन्धक के जीवन से मिलती है उसी शिक्षा को देने वाले अन्य जीवन-चरितों का संकलन तत्कालीन वाचनाओं में मिलता था। सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जंबूस्वामी को लक्ष्य करके अपनी इस वाचना में स्कन्धक के जीवनचरित से ही उस अर्थ की प्ररूपणा की है, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था, अत: यह स्पष्ट है कि स्कन्धक ने जो अंगादि शास्त्र पढ़े थे, वे सुधर्मास्वामी की वाचना के नहीं थे।
दसरी बात यह भी हो सकती है कि गणधर महाराज अतिशय (ज्ञान विशेष) के धारक होते हैं. इसलिये उन्होंने भविष्य में होने वाले चरितों का भी संकलन कर दिया। इसके अतिरिक्त भावी शिष्य परम्परा की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषयुक्त नहीं कहा जा सकता।
'चउत्थं जाव भावेमाणे' में उपयुक्त चतुर्थ शब्द व्रत-एक उपवास का बोधक है, तथा 'जाव' अर्थात् यावत् और भावेमाणे का अर्थ है-भावयन्-वासयन्-अर्थात् अपने जीवन में उसका प्रयोग करता हुआ।
'मासियं भिक्खुपडिम' का अर्थ है मासिकी भिक्षुप्रतिमा। प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा। भिक्षु की प्रतिज्ञा को भिक्षु-प्रतिमा कहते हैं। ये प्रतिमाएं बारह होती हैं। उनका विस्तृत विवेचन दशाश्रुतस्कन्ध में किया गया है।
इस प्रतिमा का धारक साधु एक अन्न की और एक पानी की दत्ति (दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और पानी की अखण्डधारा दत्ति कहलाती है। लेता है। जहां एक व्यक्ति के लिये भोजन बना है, वहां से भोजन लेता है, गर्भवती या छोटे बच्चे की मां के लिये बनाया गया भोजन वह नहीं लेता है। दुग्धपान छुड़वाकर भिक्षा देने वाली स्त्री तथा अपने आसन से उठकर भोजन देने वाली आसन्नप्रसवा स्त्री से भोजन नहीं लेता। जिसके दोनों पैर देहली के भीतर हों या बाहर हों उससे आहार नहीं लेता। दिन के आदि, मध्य
और चरम इन तीन भागों में से एक भाग में वह भिक्षा को जाता है। परिचित स्थान पर वह एक रात रहता १. भगवतीसूत्र-शतक-२, उद्देशक-१, सूत्र ९३