Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
में पलने वाली सुकुमार रानियां इतना उग्र तपश्चरण करके आत्मा को कुन्दन की तरह चमका सकती हैं, यह इन दो वर्गों के अध्ययन से स्पष्ट होता है। इन महारानियों के छुट-पुट जीवन प्रसंग आगमों व आगमों के व्याख्या-साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। विस्तारभय से हम उन सभी प्रसंगों को यहां नहीं दे रहे हैं। इन महारानियों ने विभिन्न प्रकार की कठोर तपश्चर्या की, जिसका उल्लेख इन वर्गों में किया गया है। अन्त में सभी संलेखना-सहित आयु पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त करती हैं।
इस प्रकार अन्तकृद्दशांग सूत्र में अनेक प्रकार के साधकों और साधिकाओं की साधना का सजीव वर्णन है। एक ओर गजसुकुमार जैसे तरुणतपस्वी हैं, तो दूसरी ओर अतिमुक्त कुमार जैसे अल्पवयस्क तेजस्वी श्रमण नक्षत्र हैं। तीसरी ओर वासुदेव श्रीकृष्ण व सम्राट् श्रेणिक की महारानियों की जीवन-गाथाएं तप की उज्ज्वल किरणें विकीर्ण कर रही हैं। यही कारण है कि पर्युषण के पावन पुण्य पलों में स्थानकवासी परम्परा के वक्ता इस आगम का वाचन करते हैं। अंगों में यह आठवां अंग है, आठ वर्गों में विभक्त है और पर्युषण पर्व के आठ दिन होते हैं। आठकर्मों का आत्यन्तिक रूप से नष्ट करने वाले ९० साधकों का पवित्र चरित्र है। जो अष्टगुणोपेत सिद्धि को प्रदान करने में समर्थ है।
इस आगम को पर्युषण के सुनहरे अवसर पर कब से वांचने की परम्परा प्रारम्भ हुई, यह अन्वेषणीय है। सम्भव है वीर लौंकाशाह या उनके पश्चात् प्रारम्भ हुई हो! जिस किसी ने भी यह परम्परा प्रारम्भ करने का साहस किया होगा, वह बहुत ही तेजस्वी व्यक्ति रहा होगा!
अन्तकृद्दशा सूत्र पर संस्कृत में दो वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। एक आचार्य अभयदेव की और एक आचार्य घासीलालजी महाराज की। तीन-चार गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुए हैं और पांच हिन्दी अनुवाद प्रकट हुए हैं। इस तरह इस आगम के बारह संस्करण प्रकाश में आये हैं।५७ अंग्रेजी अनुवाद भी मुद्रित हुआ है।
प्रस्तुत संस्करण पूर्व संस्करणों की अपेक्षा अपनी कुछ अलग विशेषताएं लिए हुए है। शुद्ध मूल पाठ है, अर्थ है और यत्र-तत्र विवेचन है, जो कथा में आये हुए गम्भीर भावों को व्यक्त करता है। परिशिष्ट में आगम के रहस्य को व्यक्त करने के लिए टिप्पण आदि अत्यन्त उपयोगी सामग्री भी दी गई है।
इस आगम के सम्पादन का श्रेय है बहिन साध्वी दिव्यप्रभाजी को जो परमविदुषी साध्वीरत्न उज्ज्वलकुमारीजी की सुशिष्या हैं। विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुमारी जी एक प्रकृष्टप्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं। उनके नाम से सम्पूर्ण जैन समाज भली-भाँति परिचित हैं। महासती जी की प्रबल प्रतिभा के संदर्शन उनकी सुशिष्याओं में सहज रूप से किये जा सकते है। प्रस्तुत आगम में महासती श्री दिव्यप्रभाजी की प्रतिभा की दिव्य किरणें विकीर्ण हुई हैं। उनका यह प्रयास प्रशंसनीय है। आशा है वे लेखन के क्षेत्र में आगे बढ़कर सरस्वती के भण्डार में श्रेष्ठतम कृतियाँ समर्पित करेंगी!
___ जैन आगम भारतीय साहित्य की अनमोल सम्पदा हैं, जिस पर जैन शासन का भव्य प्रासाद अवलम्बित है। उसके प्रकाशन सम्पादन के सम्बन्ध में विभिन्न स्थानों से प्रयत्न हुए हैं। पर ऐसे संस्करणों की अपेक्षा चिरकाल से थी जो आगम के मूल हार्द को स्पष्ट कर सकें। आगम के व्याख्या-साहित्य के आलोक में आगम की गुरु ग्रन्थियों को खोल सकें। इसी दृष्टि से श्रमणसंघ के युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी ने इस महान कार्य को सम्पन्न करने का
५७. देखिए-जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा-ले. देवेन्द्रमुनि पृ. ७१३
[३१]