Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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८]
[अन्तकृद्दशा इस द्वारका नगरी को सूत्रकार ने "अलकापुरीसंकासा" अर्थात् अलकापुरी सदृश कहा है। वैश्रमणदेव की नगरी का नाम अलकापुरी है। यह अलकापुरी अद्वितीय सौन्दर्य वाली है। द्वारका नगरी का निर्माण स्वयं कुबेर ने किया है। वे अपनी नगरी की सभी विशेषताओं को द्वारका में ले आए थे, उसमें उन्होंने कोई न्यूनता नहीं रहने दी थी। अतः द्वारका को कुबेरनगरी से उपमित करना या उसे कुबेरनगरी के तुल्य बताना उचित ही है।
पासादीया आदि ४ शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं- हृदय में प्रमोद-प्रसन्नता पैदा करने वाली नगरी 'पासादीया' है। जिस नगरी को देख-देखकर आंखें श्रान्ति-थकावट अनुभव न करें, निरन्तर देखने की ही उनमें लालसा बनी रहे, उसे 'दर्शनीया' कहते हैं। जिस नगरी की दीवारों पर राजहंस, चक्रवाक सारस, हाथी, महिष, मृग आदि के तथा जल में स्थित (विहार करते हुए) मगरमच्छ आदि जलीय प्राणियों के सुन्दर चित्र बने हुए हों अथवा जिस नगरी को एक बार देख लेने पर भी, उसे पुनः देखने के लिये दर्शक की इच्छा बनी रहती हो, उस नगरी को 'अभिरूपा' कहते हैं। जिस नगरी को जब भी देखो तब ही उस में देखने वाले को कुछ नवीनता प्रतिभासित हो, उस नगरी को 'प्रतिरूपा' कहते हैं।
६-तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ। महया० रायवण्णओ।
से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, पन्जुण्णपामोक्खाणं अधुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुदंतसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवग्गसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एगवीसाए वीरसाहस्सीणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं सोलसण्हं देविसाहस्सीणं अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं, ईसर जाव [तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ ] सत्थवाहाणं बारवईए नयरीए अद्धभरहस्स य समत्थस्स आहेवच्चं जाव [पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं महयरत्तं आणाईसरसेणावंच्चं कारेमाणे पालेमाणे, महयाऽऽहय-णट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुयंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे] विहरइ।।
उस द्वारका नगरी में कृष्ण नाम के वासुदेव राजा राज्य करते थे, वे महान् थे। (इनका विशेष वर्णन उववाई सूत्र से जान लेना चाहिए।) वे (वासुदेव श्रीकृष्ण) समुद्रविजय की प्रधानता वाले दश दशाह, दश पूज्यजन, बलदेव की प्रधानता वाले पाँच महावीर, प्रद्युम्न की प्रधानता वाले साढ़े तीन करोड़ राजकुमार, शांब की प्रधानता वाले ६० हजार दुर्दान्त कुमार, महासेन की प्रधानता वाले छप्पन हजार शूरवीर सैनिक समूह, वीरसेन की प्रधानतावाले इक्कीस हजार वीर, उग्रसेन की प्रधानता वाले १६ हजार राजा, रुक्मिणी की प्रधानता वाली १६ हजार देवियां-रानियां, अनंगसेना की प्रधानता वाली हजारों गणिकाएं, तथा और भी अनेकों ऐश्वर्यशाली, यावत् [तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति], सार्थवाह-इन सब पर तथा द्वारका एवं आधे भारतवर्ष पर आधिपत्य यावत् [पुरोवर्तित्वं (आगेवानी), भर्तृत्त्व (पोषकता), स्वामित्व, महत्तरत्व (बड़प्पन) और आज्ञाकारक सेनापतित्त्व करते हुए-पालन करते हुए, कथा-नृत्य, गीतिनाट्य, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य, मृदंग को कुशल पुरुषों के द्वारा बजाये जाने से उठने वाली महाध्वनि के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए] विचरते थे। १. पाठान्तर-'समंतस्स'- अंगसुत्ताणि-भाग ३ पृ. ५४३.
'सम्मत्तस्स'-सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल-जयपुर संस्करण पृ. १२