Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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४]
[ अन्तकृद्दशा
रचना के अनुसार पहले अंगों की और बाद में उपांगों की रचना हुई है। ऐसी स्थिति में इन अंगसूत्रों में 'वण्णओ' पाठ कैसे उचित बैठ सकते हैं? अंतकृद्दशांग अंगसूत्र है और औपपातिकसूत्र उपांग है, तो फिर अंतगड में औपपातिक सूत्र का सन्दर्भ कैसे अभीष्ट हो सकता है?
आगमों में अंगसूत्रों का स्थान सर्वोच्च है। उपांगों की रचना का आधार भी ये अंगसूत्र ही हैं, यह निर्विवाद सत्य है। फिर भी अंगसूत्रों में उपांगसूत्रों का निर्देश करने का मुख्य कारण आगमों को लिपिबद्ध करते समय इस क्रम का ध्यान नहीं रखना है। चार मूल, चार छेद, औपपातिकसूत्र, आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, इनमें किसी सूत्र का उद्धरण नहीं दिया। प्रतीत होता है कि इन को लिपिबद्ध प्रथम कर लिया गया था। तत्पश्चात् लिपिबद्ध करते समय जिस विषय का वर्णन विस्तारपूर्वक एक सूत्र में कर दिया गया, उस का पौनः पुन्येन वर्णन करना उचित नहीं समझा गया ।
२–‘“जइ णं भंते! समणेणं आइगरेणं, जाव [ तित्थयरेणं सयंसंबुद्धेणं, पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं, पुरिसवरगंधहत्थिणा, लोगुत्तमेणं, लोगनाहेणं, लोगहिएणं, लोगपईवेणं, लोगपज्जोयगरेणं, अभयदएणं, सरणदएणं, चक्खुदएणं, मग्गदएणं, बोहिदएणं, धम्मदएणं, धम्मदेसणं, धम्मनायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं, वियट्टछउमेणं, जिणेणं, जावएणं, तिन्नेणं, तारएणं, बुद्धेणं, बोहएणं, मुत्तेणं, मोअगेणं, सव्वन्नेणं, सव्वदरिसणेणं सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वा बाहमपुणरावत्तिअं सासयं ठाणं ] संपत्तेणं, १ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! अंगस्स अंतगडदसाणं समio के अट्टे पण्णत्ते?"
"एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठ वग्गा पण्णत्ता।"
"हे भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की आदि करने वाले तीर्थंकर, [गुरु के उपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रु का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में गंधहस्ती के समान, अर्थात् जैसे गंधहस्ती की गंध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, . लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता, श्रद्धा रूप नेत्र के दाता, धर्ममार्ग के दाता, बोधिदाता, देशविरति और सर्वविरतिरूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथि, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञानदर्शन के धारक, घातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रागादि को जीतने वाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जिताने वाले और संसार - सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं बोधप्राप्त और दूसरों को बोध देने वाले, स्वयं कर्म-बन्धनसे मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव – उपद्रव रहित, अचलचलन आदि क्रिया से रहित, अरुज - शारीरिक मानसिक व्याधि की वेदना से रहित, अनन्त अक्षय अव्याबाध और अपुनरावृत्ति - पुनरागमन से रहित सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को] प्राप्त श्रमण भगवान् ने सप्तम अंग उपासकदशाङ्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, जिस को अभी मैंने आपके मुखारविंद से सुना है। हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा करें कि श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अन्तकृद्दशाङ्ग का क्या अर्थ बताया है?"
१. नायाधम्मकहाओ
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- श्रुत. १, अ. १ - पृ. ५ में मूल पाठ " ठाणं संपत्तेणं" न होकर "ठाणमुवगएणं" है ।