Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम वर्ग] कालचक्र का बोधक है और समय शब्द उस कालचक्र में हुए व्यक्ति के समय का बोधक है। यहाँ पर उस "काल" का यह अर्थ हुआ कि इस अवसर्पिणी के चतुर्थ आरे में इस आगम की वाचना दी गई थी। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं कि चतुर्थ आरे में किस समय वाचना दी गई थी? क्योंकि चतुर्थ आरा ४२ हजार वर्ष कम एक कोटा-कोटी सागरोपम का है। अतः इस बात को "तेणं समएणं" ये पद देकर स्पष्ट किया है। उस समय का यह अर्थ है कि जिस समय आर्य सुधर्मा स्वामी विचरण करते हुए चंपा नगरी में पधारे, उस समय उन्होंने जम्बू स्वामी को प्रस्तुत आगम की वाचना दी। इससे यह ध्वनित होता है कि प्रस्तुत आगम की वाचना भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद दी गई थी। वृत्ति में अभयदेवसूरिजी ने काल से अवसर्पिणी का चतुर्थ विभाग अर्थात् चौथा आरा और 'समएणं' का विशेष काल अर्थ किया है।
इसके पश्चात् यह बताया गया है कि उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी चंपा नगरी में पधारे और नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में ठहरे। उनकी शरीर-संपदा, उनके कुल एवं उनके गुणों का वर्णन प्रस्तुत आगम में नहीं किया गया है, क्योंकि नायाधम्मकहाओ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। अतः यहाँ केवल संकेत कर दिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत आगम के प्रतिपादक भगवान् महावीर के पंचम गणधर एवं प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा स्वामी थे और उनके शिष्य आर्य जम्बू स्वामी प्रश्न-कर्ता थे।
प्रस्तुत विवरण से ऐसा प्रश्न होता है कि आर्य सुधर्मा स्वामी का विचरण प्रस्तुत करने वाले उत्क्षेप-उपोद्घात के कर्ता कौन हैं? इसका समाधान यह है कि जैसे सुधर्मा स्वामी ने गौतमादि गणधरों का उल्लेख किया है, उसी तरह आर्य जंबू स्वामी के बाद होने वाले प्रभवादि आचार्यों ने इस उत्क्षेप में आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन किया है। अतः ऐसा ही परिलक्षित होता है कि इस उपोद्घात के कर्ता आचार्य प्रभवादि ही हों।
इस प्रकार 'तेणं समएणं' शब्द का उपलक्षण-अर्थ यह होता है कि-चतुर्थ आरक के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी चंपा नगरी में पधारे और चंपा नगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य में ठहरे। उनके आगमन का शुभ-संदेश सुनकर नागरिक उनके दर्शनार्थ आए और धर्मोपदेश सुनकर वापस लौट गये। उस समय उनके शिष्य आर्य जंबू स्वामी विनय-भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में उपस्थित होकर विनम्र शब्दों में बोले। क्या बोले, यह आगे कहा जाएगा।
प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकर्ता ने वर्णन-क्षेत्र एवं वर्णन-कर्ता आदि के नाम का उल्लेख मात्र किया है। वर्णन-स्थान एवं वर्णन-कर्ता के सम्पर्ण स्वरूप को जानने के लिये अन्य आगमों को देखने का संकेत कर दिया है। अतः चंपा नगरी एवं उसमें रहे हुए पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन एवं उसमें पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी के जीवन-परिचय से लेकर परिषद् के आवागमन तक का वर्णन औपपातिक आदि आगमों से जानना चाहिए। उसमें चंपा नगरी एवं पूर्णभद्र चैत्य का विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसे स्थानों पर इन वर्णित विषयों का संसूचक शब्द है-"वण्णओ।"
"वण्णओ' यह पद वर्णक का बोधक है । वर्णन करने वाला प्रकरण वर्णक शब्द से व्यवहृत किया जाता है। आगे जहाँ-जहाँ जिस पद के आगे वर्णक पद का उल्लेख मिले, वहाँ-वहाँ पर उस पद से संसूचित पदार्थ का वर्णन करने वाले पाठ की ओर संकेत रहेगा।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि आगमों में अंग सूत्रों का ही स्थान प्रमुख होने पर भी यहाँ अंग सूत्रों में वर्णित पाठों के लिए पाठकों को अंगबाह्य आगमों पर क्यों अवलंबित किया जाता है? आगम