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16. प्रा. चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु य अहियं पयासयरा तित्थयरा हुन्ति । सं. चन्द्रेभ्यो निर्मलतराः, आदित्येभ्यश्चाधिकं प्रकाशकरास्तीर्थकरा
भवन्ति । हि. तीर्थंकर चन्द्र से ज्यादा निर्मल और सूर्य से अधिक प्रकाशक होते हैं। 17. प्रा. खमासमणा सव्वया नाणम्मि, तवंसि, झाणे य उज्जया संति ।
सं. क्षमाश्रमणाः सर्वदा ज्ञाने, तपसि, ध्याने चोद्यताः सन्ति ।
हि. क्षमाप्रधान मुनि हमेशा ज्ञान, तप और ध्यान में तत्पर होते हैं। 18. प्रा. जारिसो जणो होइ, तस्स मित्तो वि तारिसो विज्जइ ।
सं. यादृशो जनो भवति, तस्य मित्रमपि तादृशं विद्यते ।
हि. जैसा व्यक्ति होता है, उसका मित्र भी उसी प्रकार का होता है । 19. प्रा. जो पच्छं न भुंजइ, तस्स वेज्जो किं कुणइ ? |
सं. यः पथ्यं न भुङ्क्ते, तस्य वैद्यः किं करोति ? हि. जो हितकारी वस्तु नहीं खाता है, उसका वैद्य क्या करे ? (अर्थात्
कुछ भी नहीं कर सकता है ।) 20. प्रा. अम्हेत्थ पुण्णाणं पावाणं च कम्माण फलं उवभुजिमो ।
सं. वयमत्र पुण्यानां पापानां च कर्मणां फलमुपभुज्मः ।
हि. हम यहाँ पुण्य और पाप कर्म के फल भुगतते हैं। 21. प्रा. नच्चइ गायइ पहसइ पणमइ परिच्चयइ वत्थं पि ।
तूसइ रूसइ निक्कारणं पि मइरामउम्मत्तो ||4|| सं. निष्कारणमपि मदिरामदोन्मत्तः, नृत्यति, गायति, प्रहसति,
प्रणमति, वस्त्रमपि परित्यजति, तुष्यति, रुष्यति ||4|| हि. मदिरा के मद से उन्मत्त बिना कारण नाचता है, गाता है, खिलखिल हँसता है, प्रणाम करता है, वस्त्र को भी फेंक देता है, खुश होता है
और गुस्सा करता है। 22. प्रा. सच्चिय सूरो सो चेव, पंडिओ तं-पसंसिमो निच्चं ।
इंदियचोरेहिं सया, न लुटिअं जस्स चरणधणं ।।5।। सं. स एव शूरः, स एव पण्डितः, तं-नित्यं प्रशंसामः ।
यस्य चरणधनं, सदा इन्द्रियचौरैर्न लुण्टितं ||5|| हि. वही शूरवीर है, वही पण्डित है, हम हमेशा उसी की प्रशंसा करते
हैं, जिसका चारित्ररूपी धन हमेशा इन्द्रियरूपी चोरों द्वारा नहीं लूटा गया है।
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