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श्रावक (जिनवाणी) सुनकर ही अपना श्रेय = संयम जानता है, सुनकर ही पाप को पहिचानता है, सुनकर ही उभय पुण्य और पाप को जानता है, उसके बाद जो श्रेयस्कर लगे उसका आचरण करना चाहिए । (234)
प्राकृत
'तं 2 रूवं ' जत्थ 'गुणा, 'तं 'मित्तं 'जं 'निरंतरं 'वसणे ।
10 सो 11 अत्थो 12 जो हत्थे, 14तं 15 विन्नाणं " जहिं 17 धम्मो | 1235 ।।
पइन्नगगाहा
'तावच्चिअ ' होइ 'सुहं, 'जाव न 'कीरइ 'पिओ 'जणो 'को वि । 11पिअसंगो "जेण 12कओ, "दुक्खाण "समप्पिओ 13 अप्पा ।। 236 ।। 'न हु 'होइ 'सोइअव्वो, 'जो 'कालगओ 'दढं 'समाहीए । 1°सो 12होइ "सोइअव्वो, 'तवसंजमदुब्बलो 'जो उ ।। 237 ।।
प्रकीर्णकगाथाः
संस्कृत अनुवाद
तद् रूपं यत्र गुणाः, तन्मित्रं यद् व्यसने निरन्तरम् । सोऽर्थो यो हस्ते, तद् विज्ञानं यत्र धर्मः ||235||
तावदेव सुखं भवति यावत् कोऽपि जनः प्रियो न क्रियते । येन प्रियसङ्गः कृतः, आत्मा दुःखानां समर्पितः ।।236।। यो दृढं समाधिना कालगतः, न खलु शोचितव्यो भवति । यस्तु तपःसंयमदुर्बलः स शोचितव्यो भवति ||237 ||
हिन्दी अनुवाद
अतः
वही रूप है जहाँ गुण रहे हैं, वही मित्र है जो संकट में साथ में रहता है, वही धन है जो अपने हाथ में है और वही सम्यग्ज्ञान है जहाँ धर्म है । (235) तब तक ही सुख है जब तक कोई भी व्यक्ति प्रिय नहीं बनता है, जिसने प्रिय (प्रेम) का संबंध किया, उसने अपनी आत्मा को दुःखो को सौंप दिया है । (236)
जिस व्यक्ति ने उत्तम समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की है, वह शोक करने योग्य नहीं हैं, परन्तु जो तप और संयमपालन में दुर्बल है वही वास्तव में शोक करने योग्य है । (237)
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