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संस्कृत अनुवाद यः केनाऽपि विविधेन नयेन संसारचारकगतं जीवं । धर्मे योजयति, स ननु कल्याणमित्रमिति 1284।।
जिनपूजा मुनिदानम्, एतावन्मात्रं गृहिणां सच्चरित्रम् । यद्येताभ्यां भ्रष्टः, ततः सर्वकार्याद् भ्रष्टः ||285।। नरस्याऽऽभरणं रूपम्, रूपस्याऽऽभरणं गुणः । गुणस्याऽऽभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याऽऽभरणं दया | 286 || अतिरोषोऽतितोषः, अतिहासो, दुर्जनैः संवासः । अत्युद्भटश्च वेषः, पञ्चापि गुरुकमपि लघुयन्ति ||287|| हिन्दी अनुवाद
"
जो अनेक प्रकार के नयों द्वारा संसारचक्र में रहे जीव को धर्ममार्ग में जोड़ता है, वह सचमुच उसका कल्याणमित्र है । (284)
जिनेश्वर प्रभु की पूजा और साधु भगवंतों को सुपात्रदान, यही गृहस्थ का सच्चारित्र है, जो इन दोनों से भ्रष्ट हुआ, उसे प्रत्येक कार्य से भ्रष्ट समझना चाहिए | (285)
मनुष्य का आभूषण रूप है, रूप की शोभा गुण है, गुण का आभूषण (शोभा) ज्ञान है और ज्ञान का भूषण दया है | (286)
अतिगुस्सा, अतिसंतोष, अतिहर्ष, दुर्जनों के साथ समागम और अति उद्भट वेशभूषा-ये पाँच अपने बडप्पन को भी कलंकित करते हैं । (287) प्राकृत 'अभूसणो 'सोहइ 'बंभयारी, अकिंचणो 'सोहइ 'दिक्खधारी बुद्धिजुओ 'सोहर रायमंती, " लज्जाजुओ 12 सोहइ 11 एगपत्ती ।। 288।। 'न 1 धम्मकज्जा 'पर' मत्थि कज्जं, 'न 'पाणिहिंसा 'परमं अकज्जं 13न 10 पेमरागा 11 पर 14 मत्थि 12 बंधो, 18न 15 बोहिलाभा "परमत्थि 19 17 लाभो ।।289।।
'जूए 2 पसत्तस्स ' धणस्स 'नासो, 'मंसे 'पसत्तस्स 7 दयाइनासो । 'मज्जे 'पसत्तस्स 'जसस्स "नासो, 12वेसापसत्तस्स 13 कुलस्स "नासो ।। 290 ।।
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