Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ ! प्राकृत सीखें Guide Book लेखक : परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सोमचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. संपादक : परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. अशुद्धि शोधन भाग-2 शब्द रूप मात्रा-ज्ञान घटना वर्णन हेल्प लाइन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ ! प्राकृत सीखें !! (भाग-II) Guide Book प्राकृतविज्ञान पाठमाला के रचयिता विद्वद्वर्य प्राकृत विशारद पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराजा गुजराती मार्गदर्शिका के कर्ता शासन प्रभावक पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय अशोकचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न शासन प्रभावक पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय सोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हिन्दी अनुवाद के संपादक बीसवीं सदी के महान्योगी, नवकार साधक पूज्य पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य के चरम शिष्यरत्न प्रवचन प्रभावक, हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. 165 प्रकाशक दिव्य संदेश प्रकाशन 205, सोना चेंबर्स 507-509, जे.ओस.ओस. रोड, चीरा बझार, सोनापुर गली के सामने, मरीन लाइंस (E), मुंबई-400 002. Tel. 022-2203 4529 Mobile: 9892069330 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवृत्ति : प्रथम • मूल्य : 85/- रुपये विमोचन : दि. 17-11-2013 कार्तिक पूनम सं. 2070 • प्रतियाँ : 1000 स्थल : सेसली पार्श्वनाथ तीर्थ, बाली (राज.) | आजीवन सदस्ययोजना प्राप्ति स्थान आजीवन सदस्यता शुल्क - 2500/- रु. 1. चंदन एजेंसी M. 9820303451 आप जैन धर्म के रहस्य - जैन इतिहास - | 607, चीरा बाजार, ग्राउंड फ्लोर, जैन तत्त्वज्ञान - जैन आचार मार्ग, मुंबई-400002. प्रेरणादायी कथाएँ आदि का अध्ययन O R.:220606740.22056821 करना चाहते हो तो आज ही आप दिव्य | 2. चेतन हसमुखलालजी मेहता संदेश प्रकाशन मुम्बई की आजीवन | पवनकुंज, 303, A Wing, सदस्यता प्राप्त कर लें। आजीवन नाकोड़ा हॉस्पिटल के पास, भायंदर-401101.028140706 सदस्यों को अध्यात्मयोगी निःस्पृह M.9867058940 शिरोमणि स्व. पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री | 3. सुरेन्द्र गुरुजी भद्रंकर विजयजी गणिवर्यश्री एवं उन्हीं C/o. गुरुगौतम एंटरप्राइज, के चरम शिष्यरत्न प्रवचन प्रभावक परम ____14, रुक्मिणी बिल्डींग, पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय | आदिनाथ जैन मंदिर, रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा चिकपेट, बेंगलुर-560 053. लिखित उपलब्ध १० पुस्तके का प्रतिमास M.08050911399,धीरज 934122279 प्रकाशित अर्हद् दिव्य संदेश, एवं भविष्य 14. श्री आदिनाथ जैन श्वेतांबर संघ में प्रकाशित हिन्दी साहित्य घर बैठे श्री सुरेशगुरुजी M. 9844104021 नं.4, Old No. 38, फ्लोर, पहुँचाया जाएगा । आप मुंबई या बेंगलोर के | रंगराव रोड, शंकरपुरम्, पते पर दिव्य संदेश प्रकाशन-मुंबई के नाम | बैंगलुर-560 004. (कर्नाटक) से चेक, ड्राफ्ट से रकम भर सकोगे। राजेश मो. 9241672979 आजीवन सदस्यता शुल्क Rs. 2500/- भिजवाने का पता एवं पुस्तक प्राप्ति स्थान : (1) दिव्य संदेश प्रकाशन C/o. सुरेन्द्र जैन, 205, सोना चेंबर्स, 507-509, जे .अस अस. रोड, चीरा बझार, सोनपुर गली के सामने, मुंबई-2. Tel. 022-2203 4529, Mobile : 9892069330 (2) दिव्य संदेश प्रचारक प्रकाश बड़ोल्ला , 52, 3rd Cross, शंकरमाट रोड, शंकरपुरा, बेंगलोर-560 004. © (O.) 41247478 M. 8971230600 (3) राहुल वैद, C/o. अरिहंत मेटल कं., 4403, लोटन जाट गली, पहारी धीरज, सदर बाजार, दिल्ली-110 006. M. 9810353108 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की कलम स प्राकृतविशारद, शासनप्रभावक स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा विरचित प्राकृत विज्ञान पाठमाला जो गुजराती भाषी वर्ग के लिए प्राकृत भाषा सीखने के लिए अति उपयोगी प्रकाशन है । उसकी गाइड बुक-मार्गोपदेशिका का सर्जन प.पू. आचार्य श्रीमद् विजय सोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने आज से 23 वर्ष पूर्व गुजराती भाषा में किया था । हिन्दी भाषी विशाल वर्ग भी प्राकृत भाषा का अध्ययन कर पूर्वाचार्य महर्षियों के सदुपदेश से लाभान्वित हो सके, इसी पवित्र भावना से मरुधररत्न, हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. ने इस गुजराती प्रकाशन के हिन्दी अनुवाद का संपादन किया है | वर्तमान में गुजराती भाषाविद् साधु-साध्वीजी भगवंत इसी प्राकृत विज्ञान पाठमाला एवं मार्गदर्शिका के आधार पर प्राकृत भाषा का अध्ययन करते है। हिन्दी भाषी वर्ग के लिए इस प्रकार के प्रकाशन की बहुत बडी कमी थी । अपने संयम जीवन के प्रारंभिक काल में पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. ने भी इसी प्राकृत विज्ञान पाठमाला के आधार पर प्राकृत भाषा का अभ्यास किया था । गुजराती भाषा से अनभिज्ञ विद्यार्थियों के लिए इस साहित्य की कमी पूज्यश्री को अखरती थी। इस कमी की पूर्ति के लिए उनका पूरा पूरा लक्ष्य था । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री की प्रेरणा से विदूषी पू.सा. श्री निर्वेदरेखाश्रीजी की सुशिष्या पू. सा. श्री अध्यात्मरेखाश्रीजी ने 'प्राकृत विज्ञान पाठमालामार्गोपदेशिका' के हिन्दी अनुवाद के लिए प्रयास किया । तत्पश्चात् पूज्य आचार्य श्री ने अतिव्यस्तता के बीच भी समय निकालकर उस प्रेस कॉपी का. परिमार्जन किया । इसी के फलस्वरुप आज हम पाठकों के कर कमलों में 'आओ ! प्राकृत सीखें' भाग-2 पुस्तक अर्पण करते हुए परम आनंद का अनुभव कर रहे है । हमारे हिन्दी पाठकों को गोडवाड के गौरव, मरुभूमि के रत्न पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म. सा. का परिचय देने की हमें कोई आवश्यकता नही है क्योंकि उनका साहित्य ही उनका 'परिचय' बन गया है ! हिन्दी साहित्यकार के रुप में वे जगमशहुर है। 36 वर्षों के उनके निर्मल संयम जीवन में प्रथम बार ही उनका चातुर्मास गोडवाड की धन्यधरा उनकी जन्मभूमि बाली नगर में होने जा रहा है और उसी धरा पर उनके द्वारा हिन्दी भाषा में संपादित 165 वीं पुस्तक 'आओ ! प्राकृत सीखे' भाग-2 का विमोचन होने जा रहा है, जो हमारे लिए गर्व की बात है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास हैं कि पूज्यश्री के पूर्व प्रकाशनों की भांति यह प्रकाशन भी लोकोपयोगी और उपकारक सिद्ध होगा | निवेदक दिव्यसंदेश प्रकाशन ट्रस्ट मंडल मिलापचंद सूरचंदजी चौहान - पिंडवाडा सागरमल भभूतमलजी सोलंकी-लुणावा रमेशकुमार ताराचंदजी (C.A.)- खिवांदी प्रकाशचंद हरकचंदजी राठोड - बाली सुरेन्द्रकुमार सोहनराजजी राठोड - बाली ललितकुमार तेजराजजी राठोड - बाली Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत विद्यार्थियों को सूचनाएँ प्राकृत विज्ञान पाठमाला की गाइडबुक Guide Book के सर्जन का मुख्य उद्देश्य प्राकृत भाषा के ज्ञान में विशेष वृद्धि करने का ही है । इस मार्गदर्शिका में प्राकृत विज्ञान पाठमाला में जो जो प्राकृत वाक्य हैं, उनका संस्कृत और गुजराती अनुवाद किया गया है तथा जो जो गुजराती वाक्य है, उनका प्राकृत और संस्कृत अनुवाद किया गया है | हमारा उद्देश्य होशियार विद्यार्थी को कमजोर बनाने का नहीं है, बल्कि कमजोर विद्यार्थी को होशियार बनाने का है। प्राकृत विज्ञान पाठमाला का अभ्यास करते समय विद्यार्थी स्वयं अपनी बुद्धि से प्राकृत का संस्कृत-गुजराती और गुजराती वाक्यों का प्राकृत-संस्कृत अनुवाद कर इस गाइड से check कर अपनी बुद्धि विकसित कर सकेगा । प्राकृत विज्ञान पाठमाला की उपयोगिता प्रातः स्मरणीय परम आदरणीय पुनः पुनः वंदनीय, धर्मराजा पूज्यपाद दादा गुरुदेव आचार्य देव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी म.सा. के हृदय में यह बात हमेशा रहती थी कि न्याय, व्याकरण और साहित्य के अभ्यास के कारण संस्कृत भाषा का विकास तो खूब हुआ है और हो रहा हैं, परंतु श्री वीरप्रभु के मुखारविंद से निकली अमृत समान अर्धमागधी प्राकृत भाषा जो जैनों की 'मातृभाषा' कहलाती है, फिर भी उसका विकास क्यों नहीं ? उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है ? इसी बात को लक्ष्य में रखकर उन्होंने प्राकृत भाषा को आत्मसात् कर, प्राकृत भाषा के रसिक बाल जीव भी इस भाषा का ज्ञान सरलता से कर सके, इसके लिए 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की रचना की थी। _ वि.सं. १९९९ में इस पाठमाला की प्रथम आवृत्ति, वि. सं. २००४ में द्वितीय और वि.सं. २०१४ में इसकी तृतीय आवृत्ति प्रकाशित हई । प्रत्येक आवृत्ति के प्रकाशन समय में अपने विशाल अनुभव के आधार पर विद्यार्थियों के अभ्यास में सरलता रहे, इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर जहां-तहां सुधार भी किया । इसी के फल स्वरुप प्राकृत भाषा के विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक एक आदर्श पुस्तक बनी है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक की विशेषताएं • पाठमाला जो प्राकृत वाक्य हैं, उनका संस्कृत और गुजराती अनुवाद एवं गुजराती वाक्यों का प्राकृत और संस्कृत अनुवाद किया है, जिससे विद्यार्थियों को सुगमता रहेगी । • 'पाठमाला' के पीछे परिशिष्ट में जो 'गद्य-पद्यमाला' दी है, जो-जो गाथाएं दी हैं, उनकी भी संस्कृत व प्राकृत छाया दी है । प्राकृत शब्दकोष और धातु कोष भी परिशिष्ट में संग्रहित किए है । पूज्यों का उपकार संयम जीवन में जिस शुभ कार्य का प्रारंभ करते है, उसमें मेरे जीवन के प्राणसमा परम कृपालु पूज्यपाद दादा गुरुदेवश्री की पूर्ण कृपा साथ में ही होती है परंतु उन्ही के ग्रंथ का संपादन करना हो तो उनकी कृपा विशेष हो, यह स्वाभाविक है । जिन शासन के नभो मंडल में सूर्य-चंद्र की तरह प्रकाशमान बंधु युगल दीर्घदृष्टा परमोपकारी परम पूज्य आचार्यश्री चन्द्रोदयसूरीश्वरजी महाराज साहब तथा भवोदधि तारक, समता के भंडार पूज्यपाद गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय अशोकचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब की अंतर की भावना थी कि पूज्य श्रीमान् धर्मराजा गुरुदेव श्री के प्रत्येक ग्रंथ सरल बने और अभ्यासी उसका ज्यादा उपयोग करे, इस प्रकार प्रयत्नशील रहे, अतः उन दोनों पूज्यों के मंगल आशीर्वाद पूर्वक का प्रेरणास्त्रोत ही इस संपादन में निमित्त बना है । प्राकृत भाषा के अभ्यासियों के लिए यह 'मार्गदर्शिका' खूब सहायक बनेगी, इसके साथ ही इसमें संकलित कई गाथाएं, श्लोक एवं कथाओं के अंश भी जीवन में उपयोगी बन सकते हैं, अतः उसका पठन पठन कर प्राकृत के अनुरागी बनकर अपना जीवन सफल बनाए, इसी शुभेच्छा के साथ ! २०४७ वि. सं. आसो पूर्णिमा बरवाला (गुज.) परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय चंद्रोदयसूरीश्वरजी म. के गुरुबंधु परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय अशोकचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणरेणु पं. सोमचन्द्रविजय गणि (वर्तमान में प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय सोमचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक (हिन्दी आवृत्ति) की कलम से विश्व में जितने भी धर्म है, उन धर्मों का मौलिक साहित्य किसी न किसी भाषा से जुड़ा हुआ है । क्रिश्चियन धर्म का मूलभूत साहित्य Bible अंग्रेजी भाषा में है । इस्लाम धर्म का मूलभूत साहित्य उर्दु भाषा में है । हिन्दुओं के मुख्य गुंथ वेद-पूराण-उपनिषद् आदि संस्कृत भाषा में है । बौद्धों के त्रिपीटक पाली भाषा में हैं, उसी प्रकार जैनों के मूल आगम वर्तमान में विद्यमान आचारांग आदि ग्यारह अंग प्राकृत भाषा में है, जबकि बारहवां अंग दृष्टिवाद संस्कृत भाषा में था । वर्तमान में श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ को सर्वमान्य 45 आगम प्राकृत भाषा में ही है । उन आगमों पर उपलब्ध निर्युक्तियाँ-भाष्य-चूर्णि आदि भी प्राकृत भाषा में ही है। हाँ ! उन आगमों के गंभीर रहस्यों को जानने समझने के लिए पूर्वाचार्य महर्षियों ने संस्कृत भाषा में टीकाओं की भी रचनाएं की है । वर्तमान में दो अंगों पर शीलांकाचार्य और नौ अंगों पर अभयदेवसूरिजी म. की टीकाएं संस्कृत भाषा में विद्यमान है । श्रावक जीवन के आचारप्रधान ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही है। सुबहशाम करने योग्य प्रतिक्रमण के सभी सूत्रों की भाषा प्राकृत ही है । छ आवश्यक के सभी सूत्र प्राकृत भाषा में है । भागवती दीक्षा अंगीकार करने के बाद जिन आवश्यक और दशवैकालिक सूत्रौं के योगोद्वहन किए जाते है, उनकी भी भाषा प्राकृत ही है । बड़े ही दुःख की बात है कि जैनों के प्रधान सूत्र प्राकृत भाषा में होने पर भी उस भाषा को जानने समझनेवाले, श्रावक वर्ग में तो नहींवत् ही है । इस प्रकार प्राकृत भाषा का बोध साधु-साध्वी वर्ग तक सीमित हो गया है । भाषा के यथार्थ बोध के अभाव में जब वे सूत्र कंठस्थ किए जाते है तो या तो उनका सही उच्चारण नहीं हो पाता है- अथवा सही उच्चारण होने पर भी उनको बोलने में विशेष आनंद नहीं आता है । भाषा बोध के अभाव में प्रतिक्रमण आदि की क्रियाएं निरस बनती जा रही है । कहीं-कहीं क्रियाएं हो रही हैं, परंतु उसका आनंद चेहरे पर नजर नहीं आ रहा हैं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर परमात्मा की वाणी स्वरुप ये सूत्र शाश्वत सत्यों का बोध करानेवाले होने पर भी भाषाबोध के अभाव में उन शाश्वत सत्यों के लाभ से वंचित रहे है। जैन दर्शन का मौलिक साहित्य संस्कृत और प्राकृत भाषा में हैं, अतः जैन दर्शन के मर्म को जानना समझना हो तो संस्कृत और प्राकृत भाषा का बोध होना ही चाहिये । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी ने सिद्धहेमशब्दानुशासनम् के आठवें अध्याय के रुप में प्राकृत व्याकरण की रचना की थी, परंतु उस व्याकरण को जानने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना जरुरी है | __संस्कृत भाषा को जाननेवाला ही उस व्याकरण को समझ सकता है, उसी व्याकरण के आधार पर स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी महाराजा ने गुजराती माध्यम से प्राकृत भाषा सीखने के लिए 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' की रचना की थी । उसी पाठमाला के आधार पर पू. आचार्य श्री अशोकचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य रत्न पू.पंन्यास श्री सोमचंद्रविजयजी (वर्तमान में आचार्यश्री) ने मार्गदर्शिका की रचना की थी । उस पुस्तक के आधार पर आज तक हजारों साधुसाध्वीजी भगवंतों ने प्राकृत भाषा का अभ्यास किया है। गुजराती भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति भी प्राकृत भाषा सीख सके, इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही 'प्राकृत विज्ञान पाठमाला' मार्गदर्शिका की हिन्दी आवृत्ति 'आओ ! प्राकृत सीखें' भाग-2 के नाम से प्रकाशित हो रही है | प्राकृत भाषा में जैन धर्म का अमूल्य खजाना है, उस खजाने से लाभान्वित होने के लिए प्राकृत भाषा का अभ्यास खूब जरुरी है। प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषी वर्ग को प्राकृत सीखने के लिए खूब उपयोगी बन सकेगी। सभी भव्यात्माएँ प्राकृत भाषा का अध्ययन कर वीर प्रभु के बताएं शाश्वत सत्यों को अपने जीवन में आत्मसात् कर आत्मकल्याण के मार्ग में खूब खूब आगे बढे, इसी शुभ कामना के साथ ! निवेदक : सुमेरपूर (राज.) अध्यात्मयोगी पूज्यपाद प्रतिष्ठा शुभदिन पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य दि. 4-5-2013 शनिवार कृपाकांक्षी रत्नसेनसूरि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रजी म.सा. का संक्षिप्त परिचय गृहस्थ नाम : राजु (राजमल चोपडा) माता का नाम : चंपाबाई पिता का नाम : छगनराजजी गेनमलजी चोपडा जन्मभूमि : बाली (राज.) जन्म तिथि : भादो सुद-3, संवत् 2014 दि. 16-9-58 बचपन में धार्मिक अभ्यास : पंच प्रतिक्रमण-नवस्मरण आदि दीक्षा संकल्प (ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार): 18 जुन 1974 व्यवहारिक अभ्यास : 1st year B.Com. (पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज फालना-राज.) दीक्षा दाता : पू.पं. श्री हर्षविजयजी गणिवर्य गुरुदेव : अध्यात्मयोगी पू. पंन्यास श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य दीक्षा दिन : माघ शुक्ला 13, संवत् 2033 दिनांक 2-2-1977 समुदाय : शासन प्रभावक पू.आ. श्री रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दीक्षा दिन विशेषता : भारत भर में लगभग 50 ऊपर दीक्षाएँ 108 मुमुक्षु वरघोडा :9 जनवरी 1977, मुंबई दीक्षा स्थल : न्याति नोहरा-बाली राज दीक्षा समय उम्र : 18 वर्ष बडी दीक्षा : फागुण सुदी-12, संवत् 2033 दिनांक 1-3-1977 घाणेराव (राज.) प्रथम चातुर्मास : संवत् 2033 पाटण पू.पं. श्री हर्षविजयजी के सानिध्य में • अभ्यास : प्रकरण, भाष्य, 6 कर्मग्रंथ, कम्मपयडी, पंचसंग्रह, न्याय, काव्य, कोश, संस्कृत-प्राकृत व्याकरण, संस्कृत-प्राकृत साहित्य वाचन, ज्योतिष आगम वाचन आदि. • भाषा बोध : हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, मराठी आदि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रवचन प्रारंभ : फागुण सुदी 14, संवत् 2034 पाटण (गुजरात) • चातुर्मासिक प्रवचन प्रारंभ : बाली संवत् 2038 (पू.आ. श्री राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में) • चातुर्मासिक प्रवचन : बाली, पाली (दो बार) रतलाम, अहमदाबाद (ज्ञानमंदिर), पाटण, सुरेन्द्रनगर, रानीगांव, पिंडवाडा, उदयपूर, जामनगर, अहमदाबाद (गिरधरनगर), थाणा, कल्याण, दादर (मुंबई), सायन (मुंबई), धूलिया, कराड, चिंचवड भायंदर, पूना, येरवडा, दीपक ज्योति टॉवर, श्रीपाल नगर, कर्जत, भिवंडी (दो बार) कल्याण (दो बार) रोहा, भायंदर, पालीताणा, बाली आदि विहार क्षेत्र : राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि ★ (छ 'री पालित संघ में मार्गदर्शन-प्रवचन) : बरलूट से शत्रुंजय, गोदन से जैसलमेर, वल्लभीपुर से पालीताणा, लुणावा से राणकपूर पंचतीर्थी • छ 'री पालक निश्रादाता : उदयपुर से केशरीयाजी, गिरधनगर से शंखेश्वर, धूलिया से नेर, कराड से कुंभोज, सोलापूर से बार्शी, भिवंडी से महावीर धाम, कर्जत से मानस मंदिर, हस्तगिरि से शत्रुंजय गिरनार आदि • प्रथम पुस्तक आलेखन : "वात्सल्य के महासागर" संवत् 2038 • प्रकाशित पुस्तकें : (175) लगभग • गणि पदवी : वैशाख वदी - 6, संवत् 2055, दिनांक 7-5-1999, चिंचवड गांव-पूना. • पंन्यास पदवी : कार्तिक वदी-5, संवत् 2061, दि. 2-12-2004 श्रीपाल नगर-मुंबई. • आचार्य पदवी : पोष वदी - 1, संवत 2067, दि. 20-1-2011, टेंभी नाका-थाणा. • संस्कृत साहित्य संपादन-सह संपादन : सिद्ध हैमशब्दानुशासनम्-बृहदवृत्ति लघु न्यास सह, पांडवचरित्र आदि अन्य संपादन : भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास भाग 1-2-3 • अनुवाद संपादन : श्राद्धविधि, शांतसुधारस तथा पूज्य गुरूदेवश्री की 15 पुस्तकें, मंत्राधिराज आदि तथा विजयानंदसूरिजी कृत 'नवतत्व' । शिष्य-प्रशिष्य : स्व. मु. श्री उदयरत्नविजयजी, मुनि केवलरत्नविजयजी, मुनि कीर्तिरत्नविजयजी, मुनि शालिभद्रविजयजी म., प्रशिष्य मुनि प्रशांतरत्नविजयजी • उपधान निश्रा दाता : कुर्ला, धुले, येरवडा, आदीश्वर धाम (दो), कर्जत, विक्रोली, मोहना, पालीताणा, सेसली आदि... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन प्रभावक मरुधररत्न-हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय श्री रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. का बहुरंगी वैविध्यपूर्ण साहित्य 137 138 148 159 S.No. तत्त्वज्ञान विषयक 1. जैन विज्ञान 2. चौदह गुणस्थान 3. आओ ! तत्त्वज्ञान सीखें 4. कर्म विज्ञान 5. नव तत्त्व - विवेचन 6. जीव विचार विवेचन 7. तीन-भाष्य 8. दंड़क- विवेचन 9. ध्यान साधना प्रवचन साहित्य 1. मानवता तब महक उठेगी 2. मानवता के दीप जलाएं 3. महाभारत और हमारी संस्कृति-भाग-118 4. महाभारत और हमारी संस्कृति-भाग-219 5. रामायण में संस्कृति का अमर संदेश-भाग-1 6. रामायण में संस्कृति का अमर संदेश- भाग-2 7. आओ ! श्रावक बने ! 8. सफलता की सीढ़ियाँ 9. नवपद प्रवचन 10. श्रावक कर्तव्य-भाग-1 11. श्रावक कर्तव्य-भाग-2 12. प्रवचन रत्न 13. प्रवचन मोती 14. प्रवचन के बिखरे फूल 15. प्रवचनधारा 16. आनन्द की शोध 17. भाव श्रावक 18. पर्युषण अष्टाह्निका प्रवचन 19. कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन 20. संतोषी नर-सदा सुखी 21. जैन पर्व-प्रवचन S.No. 38 96 79 102 122 123 127 135 153 S.No. 22. गुणवान् बनों 23. विखुरलेले प्रवचन मोती 8 9 27 28 45 53 56 74 75 78 72 103 67 33 85 97 104 87 115 126 117 24. सुखी जीवन की चाबियाँ 25. पांच प्रवचन 26. जीवन शणगार प्रवचन 27. तीर्थ यात्रा धारावाहिक कहानी 1. कर्मन् की गत न्यारी 2. जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है 3. 4. 5. 6. प्रेरक कहानियाँ 7. सरस कहानियाँ 8. मधुर कहानियाँ 9. सरल कहानियाँ 10. तेजस्वी सितारें 11. जिनशासन के ज्योतिर्धर 12. महासतियों का जीवन संदेश 13. आदिनाथ शांतिनाथ चरित्र आग और पानी भाग-1-2 मनोहर कहानियाँ ऐतिहासिक कहानियाँ 14. पारस प्यारो लागे 15. शीतल नहीं छाया रे (गुज.) 16. आवो ! वार्ता कहुं (गुज.) 17. महान् चरित्र 18. प्रातः स्मरणीय महापुरुष-1 19. प्रातःस्मरणीय महापुरुष-2 20. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ-1 21. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ-2 युवा-युवति प्रेरक 1. युवानो ! जागो 2. जीवन की मंगल यात्रा 3. तब चमक उठेगी 'युवा पीढी 4. युवा चेतना 5. युवा संदेश 6. जीवन निर्माण (विशेषांक) 7. The Message for the Youth 8. How to live true life? 9. The Light of Humanity 10. Youth will Shine then 6 10 34-35 50 57 91 111 98 142 58 81 93 105 99 25 63 129 149 150 151 152 S.No. 12 17 20 23 26 30 31 40 21 121 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 Duties towards Parents 12. यौवन- सुरक्षा विशेषांक 13. सन्नारी विशेषांक 14. माता-पिता 15. आहार: क्यों और कैसे ? 16. आहार विज्ञान 17. ब्रह्मचर्य 18. अमृत की बुंदे 19. क्रोध आबाद तो जीवन बरबाद 20. राग म्हणजे आग (मराठी) 21. आई वडीलांचे उपकार 22. अध्यात्माचा सुगंध अनुवाद-विवेचनात्मक 1. सामायिक सूत्र विवेचना 2. चैत्यवंदन सूत्र विवेचना 3. आलोचना सूत्र विवेचना 4. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र विवेचना 5. चेतन ! मोहनींद अब त्यागो 6. आनन्दघन चौबीसी विवेचना 7. अंखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 8. श्रावक जीवन-दर्शन 9. भाव सामायिक 10. श्रीमद् आनंदघनजी पद विवेचन 11. भाव-चैत्यवंदन 12. विविध-पूजाएँ 13. भाव प्रतिक्रमण-भाग-1 14. भाव प्रतिक्रमण-भाग-2 15. श्रीपाल - रास और जीवन-चरित्र 16. आओ संस्कृत सीखें भाग 1 17. आओ संस्कृत सीखें भाग 2 18. श्रावक आचार दर्शक 19. आओ ! प्राकृत सीखें भाग 1 20. आओ ! प्राकृत सीखें भाग 2 विधि-विधान उपयोगी 1. भक्ति से मुक्ति 2. आओ ! प्रतिक्रमण करें 3. आओ ! श्रावक बने 4. हंस श्राद्धव्रत दीपिका 5. Chaitya-Vandan Sootra 6. विविध देववंदन 95 32 59 77 82 39 106 64 80 108 92 155 S.No. 23451 11 7 22 29 107 94 120 125 132 133 134 144 145 154 164 165 S.No. 41 42 45 48 52 55 7. आओ ! पौषध करें 8. प्रभु दर्शन सुख संपदा 9. आओ ! पूजा पढाएँ ! 10. Panch Pratikraman Sootra 11. शत्रुंजय यात्रा 12. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 13. आओ ! उपधान-पौषध करें 14. विविध तपमाला 15. आओ ! भावायात्रा करें 16. आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें अन्य प्रेरक साहित्य 1. वात्सल्य के महासागर 2. रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे 3. अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव 4. बीसवीं सदी के महान् योगी 5. महान ज्योतिर्धर 6. मिच्छामि दुक्कडम् 7. क्षमापना 8. सवाल आपके जवाब हमारे 9. शंका और समाधान-1 10. शंका-समाधान भाग-2 11. शंका-समाधान-भाग-3 12. जैनाचार विशेषांक 13. जीवन ने तुं जीवी जाण 14. धरती तीरथ 'री 15. चिंतन रत्न 16. बीसवीं सदी के महान योगी की अमर वाणी 17. महावीरवाणी 18. जैन शब्द कोश 19. नयादिन नयासंदेश 20. महामंत्र की साधना वैराग्यपोषक साहित्य 1. मृत्यु-महोत्सव 2. श्रमणाचार विशेषांक 3. सद्गुरु-उपासना 4. चिंतन-मोती 71 84 88 61 36 73 109 128 130 136 S.No. 5. मृत्यु की मंगल यात्रा 6. प्रभो ! मन-मंदिर पधारो 1 15 44 100 86 60 69 37 66 118 147 47 62 68 114 51 54 113 90 16 110 7. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचन भाग-1 13 7. शांत सुधारस-हिन्दी विवेचन भाग-2 14 9. भव आलोचना 124 10. वैराग्य शतक 11. इन्द्रिय पराजय शतक 101 112 157 158 160 S.No. 140 156 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका क्र. क्या ? पृष्ट नं. पाठ4. पाठ 1. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 2. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 3. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 5. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 6. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 7. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 8. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 9. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 10. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 11. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 12. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 13. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 15. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 16. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 17. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 14. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका क्र. पृष्ठ नं. क्या ? पाठ 18. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 19. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 20. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 21. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 22. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 23. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य पाठ 25. प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी वाक्य 115 पाठ 24. 127 137 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदना जैन शासन के महान् ज्योतिर्धर पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराज सा. बीसवीं सदी के महान् योगी, पूज्यपाद पंन्यासप्रवरश्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य मरुधररत्न हिन्दी साहित्यकार पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनसम्राट् पूज्य आचार्यदिव श्रीमद् विजय नेमीसूरीश्वरजी महाराज सा. शासन प्रभावक पूज्य आचार्यदिव श्रीमद् विजय विज्ञानसूरीश्वरजी म.सा. 12605250202555ASHODHRIODOTOSC0003083200202000 प्राकृत विशारद प्राकृतिविज्ञान पाठभाला के लेखक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कस्तुरसूरीश्वरजी म.सा. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन सहयोगी स्व. पिताजी जवेरचंदजी पू. माताजी सेकुबाई जवेरचंदजी निवेदक पुत्र : उदयराज, जयंतिलाल, बाबुलाल पौत्र : रवीन्द्र, राकेश, भूपेन्द्र, तरुण, संजय, अमित, विक्रम कोसेलाव- राज. निवासी भायखला शा. रतनचंदजी वागाजी गोलंक परिवार लुणावा (राज.) मुंबई शाश्वत परिवार - दीपक ज्योति टॉवर कालाचोकी, मुंबई-४०० ०३३. एक सद्गृहस्थ तरफथी शा. वनेचंदजी पनेचंदजी श्रीश्रीमाल (पूना - साचोडी) आयोजित चातुर्मास आराधक (साधारण खाते में से) वि.सं. २०६८, कस्तुरधाम, पालीताणा, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन सहयोगी शा. फूटरमलजी भीकमचंदजी श्रीमती मेताबाई फूटरमलजी निवेदक : डॉ. बस्तीमल, सुमेरमल, प्रकाश, मनोहर लाल पत्ता : मनोहरलाल फूटरमलजी पालरेचा रेनबो फार्मा, 13, M.T. Road, Opp. ESI Hospital, अपनावरम, चेन्नाई-600012. M. 9840868500 OTG: प्रकाशन सहयोगी शा. सरेमलजी जावंतराजजी श्रीमती चंपाबाई सरेमलजी निवेदक पुत्र : अशोककुमार सरेमलजी, पौत्र परेश दीपक, प्रपौत्र: ध्वज, नव्या फर्म : वी. मेलो एपेरल्स, 93, गोविंदप्पा स्ट्रीट, 1st Floor, चेन्नाई-600001. M. 9381008666 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 | - io +o oo op FNO +9 O P PAN प्राकृत मार्गदर्शिका पाठ - 1 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत हिन्दी कहामि कथयामि मैं कहता हूँ। हसामु हसामः हम हँसते हैं। गच्छेमि गच्छामि मैं जाता हूँ। वसामो वसामः हम रहते हैं। चलेम चलामः हम चलते हैं। रोवामि रोदिमि मैं रोता हूँ। पीलेमि पीडयामि मैं दुःख देता हूँ। जाणमो जानीमः हम जानते हैं। जेमामि भुजे मैं भोजन करता हूँ। देखेमो पश्यामः हम देखते हैं। भणमु भणाम: हम पढ़ते हैं। नमामि नमामि मैं नमस्कार करता हूँ। मैं नमन करता हूँ। भणामि भणामि मैं पढ़ता हूँ। वसेम वसामः हम रहते हैं। मुणेमु जानीमः हम जानते हैं। मुंजामो भुमहे हम भोजन करते हैं। नवामु नमामः हम नमस्कार (नमन) करते हैं। पडेमो पतामः हम गिरते हैं। रोवेमु रुदिमः हम रोते हैं। बोहामि बोधामि मैं समझता हूँ। नमेमि नमामि मैं नमस्कार करता हूँ। बोल्लेमि कथयामि मैं बोलता हूँ। बीहेमि बिभेमि । मैं डरता हूँ। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिबामः RI || - + क्र. | प्राकृत । संस्कृत हिन्दी 24. || पुच्छामि पृच्छामि मैं पूछता हूँ। पीडेमु पीडयामः हम दुःख देते हैं। 26. बोल्लिमु कथयामः हम कहते हैं। पिवामो हम पीते हैं। रुविमो रुदिमः हम रुदन करते हैं। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत-संस्कृत अनुवाद हिन्दी प्राकृत संस्कृत मैं पूछता हूँ। पुच्छामि पृच्छामि मैं दबाता हूँ। पीलेमि पीडयामि हम डरते हैं। बीहेमो बिभीमः मैं पीता हूँ। पिज्जमि पिबामि हम समझते हैं। बोधामः मैं गिरता हूँ। पडमि पतामि मैं पढ़ता हूँ। भणेमि भणामि हम नमस्कार करते हैं। नविमो नमामः मैं भ्रमण करता हूँ। भमामि भ्राम्यामि मैं देखता हूँ। देक्खामि . पश्यामि हम भोजन करते हैं । जेमिमो भुज्महे मैं जानता हूँ। जाणेमि जानामि हम रोते हैं। रोविमो रुदिमः मैं रहता हूँ। वसामि 15. | हम चलते हैं। चालिमो चलामः हम जाते हैं। गच्छिमो गच्छामः मैं हँसता हूँ। हसमि हसामि हम कहते हैं। कहामु कथयामः हम बोलते हैं। बोल्लिमो हम रहते हैं। वसाम वसामः बोहामु - o • FNP वसामि व Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | - ल + o op FNo +9 OF PRFNR & पाठ - 2 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत । हिन्दी - इच्छित्था इच्छथ तुम इच्छा करते हो। करेसि करोषि तू करता है। चिंतसे चिन्तयसि तू विचार करता है। पासेइत्था पश्यथ तुम देखते हो। मुज्झह मुह्यथ तुम मोहित होते हो। गच्छेसि गच्छसि तू जाता है। मुणह जानीथ तुम जानते हो। देक्खेइत्था पश्यथ तुम देखते हो। पडेह पतथ तुम गिरते हो। सीससे कथयसि, तू कहता है। । शिनक्षि तू भेद करता है। रमेह रमध्ये तुम विलास करते हो। वन्देइत्था वन्दध्वे तुम वंदन करते हो। रूसेसि रुष्यसि तू क्रोध करता है। दूसेह दुष्यथ तुम दूषित करते हो। सीसित्था शिंष्ठ तुम भेद करते हो।। कथयथ तुम कहते हो। दूसेसि दुष्यसि तू दोष देता है। रूसेइत्था रुष्यथ तुम गुस्सा करते हो। वन्दसे वन्दसे तू वंदन करता है। रमित्था रमध्ये तुम क्रीड़ा करते हो। मुज्झसे मुह्यसे तू मुंझाता है। कहित्था कथयथ तुम कहते हो। चलसे चलसि तू चलता है। जेमेह भुध्वे तुम खाते हो। 24. | नमह नमत तुम नमन करते हो। - 3 - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a | RRRRR ल ल ल ल ल ल ल ल ल 8 भणथ प्राकृत संस्कृत हिन्दी पिज्जसि पिबसि तू पीता है। पासह पश्यथ तुम देखते हो। करित्था कुरुध्वे तुम करते हो। पासित्था पश्यथ तुम दर्शन करते हो। नमेइत्था नमथ तुम नमस्कार करते हो। वन्दह वन्दध्वे तुम वंदन करते हो। पुच्छेइत्था पृच्छथ तुम पूछते हो। बोल्लह कथयथ तुम बोलते हो। भणेह भणथ तुम कहते हो। रोवसे रोदिसि तू रोता है। हसित्था हसथ तुम हँसते हो। भणित्था तुम पढ़ते हो। मुज्झेह मुह्यथ तुम मोहित होते हो। करसे करोषि तू करता है। देक्खह पश्यथ तुम देखते हो। दूसित्था दुष्यथ तुम दूषित करते हो। । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत-संस्कृत अनुवाद हिन्दी प्राकृत संस्कृत तू काँपता है। कंपसे कम्पसे तू कहता है। सीसेसि कथयसि तू चलता है। चलसि चलसि तुम चलते हो । चलेइत्था चलथ तुम निन्दा करते हो। निन्देह निन्दथ तू भोजन करता है। जेमसि तू नमन करता है। नवसि नमसि तू मुंझाता है। मुज्झसि मुह्यसि तुम पीते हो। पिज्जेइत्था पिबथ | || - क्र. | +o भुक्षे oo Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्राकृत तू खेलता है। तू पूछता है। तू बोलता है। तू वंदन करता है। तू पढ़ता है। तुम क्रोध करते हो। तुम रोते हो। तू निन्दा करता है। तू हँसता है। तुम दुःख देते हो। तू डरता है। तुम पढ़ते हो । तू देखता है। तू भ्रमण करता है।' रमेसि पुच्छेसि बोल्लसि वन्देसि भणसि कुज्झह रोवित्था निंदसि हससि पीलेइत्था बीहसि भणेइत्था देक्खसे भमेसि संस्कृत रमसे पृच्छसि ब्रवीषि वन्दसे भणसि क्रुध्यथ रुदिथ निन्दसे हससि पीडयथ बिभेषि भणथ पश्यसि भ्राम्यसि BA Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ -3 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत हिन्दी आदरेइ आद्रियते वह आदर करता है। (आ + दृ 6 ला गण आ.) जम्मंति जायन्ते वे उत्पन्न होते हैं। निज्झरए क्षयति वह नष्ट होता है। बविरे ब्रुवन्ति वे बोलते हैं। वडिरे वर्धन्ते वे बढ़ते हैं। हक्कन्ते (निषेधन्ति (1ला गण) वे निषेध करते हैं। निषिध्यन्ति (4था गण) जिणेह जयथ तुम जीतते हो। धुणन्ते धुन्वन्ति वे हिलाते हैं। सरित्था स्मरथ तुम याद करते हो। लुणिरे लुनन्ति वे काटते हैं। हुणन्ति जुह्वति वे होम करते हैं। धुणेइ धुनाति वह हिलाता है। फरिसिरे स्पृशन्ति वे स्पर्श करते हैं। रवेइ रौति वह आवाज करता है। सुमरेन्ति स्मरन्ति वे याद करते हैं। चिणए चिनोति वह इकट्ठा करता है। थुणेइरे स्तुवन्ति वे स्तुति करते हैं। पुणेइ पुनाति वह पवित्र करता है। सुणंति शृण्वन्ति वे सुनते हैं। बुवेइ ब्रवीति वह बोलता है। कहेन्ति कथयन्ति वे कहते हैं। जाणन्ते | जानन्ति वे जानते हैं। देक्खेइरे पश्यन्ति वे देखते हैं। पीडेइ । पीडयति वह दुःख देता है। - - ६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 27. 31. | 52. 34. हन्ति 36 37. 22 39. प्राकृत संस्कृत हिन्दी बीहए बिभेति वह भयभीत होता है। भणए भणति वह पढ़ता है। वसन्ते वसन्ति वे रहते हैं। इच्छन्ति इच्छन्ति वे इच्छा करते हैं। करिरे कुर्वन्ति वे करते हैं। चिंतइ चिन्तयति वह विचार करता है। हवइ भवति वह होता है। बुज्झए बोधति वह बोध पाता है। रक्खेन्ति रक्षन्ति वे रक्षण करते हैं। लज्जन्ते लज्जन्ते वे शर्मिन्दा होते हैं। हणए वह मारता है। तूसेइ तुष्यति वह सन्तोष रखता है। रुसन्ते रुष्यन्ति वे रोष करते हैं। थुणइ स्तौति वह स्तुति करता है। रोविमो रुदिमः हम रोते हैं। जिणसे जयसि तू जीतता है। थुणित्था स्तुवीथ तुम स्तुति करते हो। बवेमि ब्रवीमि मैं बोलता हूँ। धुणेमि धुनोमि मैं हिलाता हूँ। जिणेमि जयामि मैं जीतता हूँ। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत-संस्कृत अनुवाद हिन्दी __प्राकृत संस्कृत वह खरीदता है। किणइ क्रीणाति वे हिलाते हैं। धुणन्ति धूनयन्ति वह स्पर्श करता है। फासइ स्पर्शति वे शब्द करते हैं। रवन्ति रुवन्ति वह स्मरण करता है। सुमरए स्मरति वे इकट्ठा करते हैं। चिणन्ते चिन्वन्ति 41. क्र. - 10 - समान Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. हिन्दी वह स्तुति करता है । वे पवित्र करते हैं । वह सुनता है । वे आदर करते हैं । वह उत्पन्न होता है । वे क्षय होते हैं । वह बोलता है । वह बढ़ता है । वह निषेध करता है । वे जीतते हैं । वह हिलाता है । वह काँपता है । वह क्रीड़ा करता है । वह होम करता है । वह जाता है । वह खाता है । वह नमन करता है । वे पूछते हैं । वे पढ़ते हैं । वे वन्दन करते हैं । वह रोता है । वे हँसते हैं । वे काँपते हैं । वह घूमता है । वह निन्दा करता है । वे मोहित होते हैं । वह पोषण करता है । प्राकृत थुइ पुणेइरे सुणइ आदरेइरे जम्मइ निज्झरेइरे बोल्लइ वड्ढए हक्कइ जिणेइरे धुणइ कम्पए रमइ हुणइ गच्छेइ जेमइ नवइ पुच्छेइरे भणेन्ति वन्देइरे रोवइ हसिरे कम्पेइरे चरेइ निंदए मुज्झेइरे पूसइ संस्कृत स्तौति पुनन्ति शृणोति आद्रियन्ते जायते क्षयन्ति ब्रवीति वर्धते निषिध्यति जयन्ति धुवति कम्पते रमते जुहोति गच्छति भुङ्क्ते नमति पृच्छन्ति भणन्ति वन्दन्ते रोदिति सन्ि कम्पन्ते चरति निन्दति मुह्यन्ति पुष्यति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || - No Foooo पाठ - 4 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद प्राकृत | संस्कृत हिन्दी | अहं वन्देमि । अहं वन्दे | मैं वंदन करता हूँ। तुम्हे दोण्णि वट्टित्था । | युवां द्वौ वर्तेथे । तुम दो वर्तन करते हो। ते कुप्पेन्ति । ते कुप्यन्ति । वे कोप करते हैं। सो पडए। स पतति । वह गिरता है। ते पिविरे । ते पिबन्ति । वे पीते हैं। तुम्हे कहेइत्था । यूयं कथयथ । तुम कहते हो। | ते नमिरे । ते नमन्ति । वे नमन करते हैं। अम्हे वन्दिमो । वयं वन्दामहे । हम वन्दन करते हैं। तुज्झे वन्देइत्था । यूयं वन्दध्वे । तुम वन्दन करते हो। 10.| तं वंछसे । त्वं वाञ्छसि । तू इच्छा करता है। 11.| सो इच्छइ । स इच्छति । वह इच्छा करता है। 12.| अम्हे बीहेमु । वयं बिभीमः । हम डरते हैं। 13.| ते चरेन्ति । ते चरन्ति । वे घूमते हैं। 14. अम्हे अच्छामो । वयमास्महे । हम बैठते हैं। 15. तुम्हे दुवे रुवेह । युवां द्वौ रुदिथः । . तुम दो रोते हो। 16. अम्हो फासामो । वयं स्पृशामः । हम स्पर्श करते हैं। 17. तुज्झे चुक्केइत्था । यूयं भ्रश्यथ । तुम भ्रष्ट होते हो। 18.) ते दो फासेइरे। तौ द्वौ स्पृशतः । वे दो स्पर्श करते हैं। 19. हं चिडेमि । अहं तिष्ठामि । मैं खड़ा रहता हूँ। 20.| अम्हे दुवे चयामो । आवां द्वौ त्यजावः । हम दो त्याग करते हैं। 21. तुब्मे बीहेह । यूयं बिभीथ । तुम डरते हो। 22.| तुं भणेसि । त्वं भणसि । तू पढ़ता है। | स अप्पेइ । सोऽर्पयति । वह भेट देता है। 24.| अम्हो अस्थि । वयं स्मः । हम हैं। अम्हे थक्किमु । वयं तिष्ठामः । हम खड़े रहते हैं। 26.| स वट्टइ। स वर्तते । वह है। 27.| हं वोसिरामि । अहं व्युत्सृजामि । | मैं त्याग करता हूँ। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत 28. तं उज्झसे । 29. ते दो किणेइरे । 30. हं म्हि । 31 ते दुण्ण रक्खति । 32. | तुम्हे वे अत्थि । 33. तुं सलहेसि । 34. ते तूसंति । 35. अम्हे चिट्ठेमु | 36. | तुम्हे वंछेह | 37. तुम्हे पूसेह | 38. ते साहिन्ति । यूयं वाञ्छथ । यूयं पुष्यथ । कथयन्ति । ते साध्नुवन्ति हिन्दी वाक्यों का प्राकृत संस्कृत क्र. हिन्दी 1. तुम चाहते हो । 2. हम देखते हैं । 3. वह सहन करता है । 4. तुम सिद्ध करते हो । 5. हम दो रक्षण करते हैं । 6. तुम देते हो । 7. संस्कृत त्वम् उज्झसि । तौ द्वौ क्रिणीतः । अहम् अस्मि । तौ द्वौ रक्षतः । युवां द्वौ स्थः । त्वं श्लाघसे । ते तुष्यन्ति । वयं तिष्ठामः । हम त्याग करते हैं । 8. तुम दोनों विचार | करते हो । 9. वे दो कहते हैं । 10. तुम बैठते हो । 11. तुम खड़े रहते हो । 12. हम हँसते हैं । 13. | वे चुपड़ते हैं । } प्राकृत तु छिथा । अम्हे देखेो । स सहेइ । तुब्भे साहेइत्था अम्हे दो रक्खिमो । ते दुवे कह । तुझे अच्छेह । तुभे थक्केह । अम्हे हसि । ते चोप्पडेइरे । १० हिन्दी तू छोड़ता है । वे दो खरीदते हैं / मैं हूँ । दो रक्षण करते हैं । तुम दो हो । तू प्रशंसा करता है । वे संतोष रखते हैं । हम खड़े रहते हैं । तुम इच्छा करते हो । तुम पोषण करते हो । वे कहते हैं । वे सिद्ध करते हैं । अनुवाद संस्कृत यूयं वाञ्छथ । वयं पश्यामः । सहते । तुभे अप्पिया । अम्हे चयामो । वयं त्यजामः । तु वे चिंतेइत्था । युवां द्वौ चिन्तयथ । यूयं साध्नुथ | आवां द्वौ रक्षावः । यूयमर्पयथ । तौ द्वौ कथथ | यूयमाध्वे । यूयं तिष्ठथ । वयं हसामः । ते म्रक्ष्यन्ति । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी 14. मैं भोजन करता हूँ । 15. तुम दोनों पीते हो । 16. क्र. तुम नमस्कार करते हो । 19. | मैं त्याग करता हूँ । 20. वह देखता है । 17. तू सिलाई करता है । तुं सिव्वसि । 18. हम दो हैं । अम्हे वे अस्थि । हं चयामि । सो देक्खइ | तुं स । ते सलहेइरे । 21. तू है । 22. वे प्रशंसा करते हैं । 23. | तुम भटकते हो । गुस्सा करते हैं । 24. वे 25. | वे निन्दा करते हैं 26. | तुम समझते हो । । 27. तुम दो विघ्न करते हो । संस्कृत हं जेमामि । अहं भुजे । तुब्भे दोणि पिज्जेइत्था । युवां द्वौ पिबथः । तु वह । यूयं नमथ | 28. तुम दोनों हो । 29. | वह चुपड़ता है । 30. | हम भोजन करते हैं 31. तुम बाँधते हो । 32. | तुम क्षीण होते हो । 33. वे दो काँपते हैं । 34. तू दुःख देता है । प्राकृत भमित्था । ते रूसन्ति । ते निन्दन्ति । तुब्भे बुज्झह । तुम्हे दोणि बाहेह | तुभे वेणि अत्थि । सो चोप्पडेइ | । अम्हे जेमेमो । तुम्हे बंधइत्था । तुं निज्झरसि । तुम्हे वे कंपित्था तुं बाहसे | ११ त्वं सीव्यसि । आवां द्वौ स्वः । अहं त्यजामि पश्यति । त्वमसि । ते श्लाघन्ते । यूयं भ्राम्यथ । रुष्यन्ति । ते निन्दन्ते । यूयं बुध्यथ । युवां द्वौ बाधेथे । युवां द्वौ स्थः । सम्रक्ष्यति । वयं भुञ्ज्महे । यूयं बध्नीथ | त्वं क्षयसि । तौ द्वौ कम्पे | त्वं बाधसे । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 5 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत हिन्दी 1. | अम्हे दोण्णि ठाएमो || आवां द्वौ तिष्ठावः ।। हम दो खड़े रहते हैं। अम्हो जेएमु । वयं जयामः । हम जीतते हैं। 3. | हं ठामि । अहं तिष्ठामि । मैं खड़ा रहता हूँ। अम्हे होएमो । वयं भवामः । हम हैं। अम्हे दुवे झामु । आवां द्वौ ध्यायावः हम दो ध्यान करते हैं। 6. | हं होमि । अहं भवामि । मैं होता हूँ। हं पामि । अहं पिबामि । मैं पान करता (पीता) हूँ। | अहं झाएमि अहं ध्यायामि । मैं ध्यान करता हूँ। 9. | सो होइ। स भवति । वह होता है। तुम्हे दोण्णि युवां द्वौ ध्यायथः । | तुम दोनों ध्यान करते झाएइत्था । हो। | ते होइरे । ते भवन्ति । वे होते हैं। ते पान्ति । ते पिबन्ति । वे पीते हैं। 13. तुं झासि । त्वं ध्यायसि । तू ध्यान करता है। 14. हं पहाअमि । अहं स्नामि । मैं स्नान करता हूँ। | तुज्झे ठाएइत्था । यूयं तिष्ठथ । तुम खड़े रहते हो। 16.| तुम्हे विण्णि नेइत्था युवां द्वौ नयथः । तुम दो ले जाते हो। 17.| तुं पाअसे । त्वं पिबसि । तू पीता है। 18. ते चवेइरे । ते च्यवन्ते ।. वे गिरते हैं। (1 ला.ग.आ.) 19. हं जरेमि । अहं जीर्यामि । मैं जीर्ण (पुराना) होता हूँ। 20.| अहं गामि । अहं गायामि । मैं गीत गाता हूँ। 21.| अम्हे वे ण्हाम । आवां द्वौ स्नावः । हम दो स्नान करते हैं। 22.| सो ण्हवेइ । स हनुते । वह छुपाता है। (2रा ग. आ.) - १२ - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 | - क्र. प्राकृत संस्कृत हिन्दी 23. अम्ह हवेमो वयं भवामः । (1ला ग.)। हम होते हैं । क्यं जुहुमः । हम होम करते हैं। 24. तुम्हे हरेह । यूयं हरथ । तुम हरण करते हो। 25. स ण्हाएइ । स स्नाति । वह स्नान करता है। 26. हं जामि । अहं यामि । मैं जाता हूँ। 27. अम्हे वरामो । । वयं वृणुमः । हम पसंद करते हैं। 28.| अम्हे वे जाएमो || आवां द्वौ यावः । हम दो जाते हैं। 29. अम्हे दो गाइमु । | आवां द्वौ गायावः । हम दो गाते हैं। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत-संस्कृत अनुवाद हिन्दी . प्राकृत संस्कृत हम दो खड़े रहते हैं। | ते वे ठाएन्ति । । तौ द्वौ तिष्ठतः । | तू जाता है। तुं जाएसि । त्वं यासि । वे दो गाते हैं । ते वे गाइन्ति । तौ द्वौ गायतः । वे उद्वेग करते हैं। ते गिलाएन्ति । ते ग्लायन्ति । वह खड़ा रहता है। सो ठाअए । स तिष्ठति । वह जाता है। सो जाएइ । स याति । | वह गाता है । सो गाएइ । स गायति । | मैं मुरझाता हूँ। हं मिलाएमि । अहं म्लायामि । | वह ले जाता है। स नेअइ । स नयति । 10. वे दो जाते हैं। ते वे गच्छेइरे । तौ द्वौ गच्छतः । 11. हम दो पीते हैं। अम्हे दो पाएमु । आवां द्वौ पावः । 12. वे दो हरण करते हैं। ते दो हरन्ति । तौ द्वौ हरतः । 13. तू स्नान करता है। तुं बहाएसि । त्वं स्नासि । 14. तुम दोनों पीते हो। तुब्भे वे पाइत्था । युवां द्वौ पिबथः । 15. तू खाता है। तुं खाअसे । त्वं खादसि । 16. वे देते हैं। ते दाएइरे । ते ददति । 17. हम दो धारण करते हैं । अम्हे वे धरिमो । आवां द्वौ धरावः । ल + oo F - १३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्राकृत संस्कृत 18. तुम दो देते हो। तुब्भे दो दाअइत्था || युवां द्वौ दत्थः । 19. हम च्युत होते हैं।। | अम्हे चविमो । वयं च्यवामः । हम गिरते हैं। 20.| तुम दो खिसकते हो । तुम्हे दो सरित्था । युवां द्वौ सस्थः । 21.| तू होता है। तुं होएसि । त्वं भवसि । 22.| तुम स्नान करते हो । | तुज्झे ण्हाएह । यूयं स्नाथ । 23.| हम खेद करते हैं। अम्हे गिलाएमो । वयं ग्लायामः । | वे ध्यान करते हैं। ते झाएइरे । ते ध्यायन्ति । 25. हम दो प्रकाशित होते हैं । अम्हे दो भाएमो । आवां द्वौ भावः । 26.| तुम होते हो। तुज्झे होइत्था । यूयं भवथ । 27.| तुम दो उद्वेग करते हो। तुम्हे दो गिलाएह । युवां द्वौ ग्लायथः। 28. तुम छुपाते हो। तुज्झे एहवित्था । | यूयं हनुध्वे । | हम तैरते हैं । अम्हे तरिमो । वयं तरामः । | तुम कोप करते हो। तुब्भे कुप्पइत्था । यूयं कुप्यथ । वह प्रकाशित होता है। सो भाअइ । स भाति । 32. तुम उत्पन्न होते हो । तुम्हे जाअह । यूयं जायध्वे । 33. मैं उत्पन्न होता हूँ। हं जाएमि । अहं जाये। L १४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 6 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत हिन्दी सो अच्छेज्जा। स आस्ते । वह बैठता है। 2. | स पिवेज्ज। स पिबति । वह पीता है। | स चुक्केज्जा। स भ्रंशते । वह भ्रष्ट होता है। (1ला ग. आ.) स भृश्यति (4था ग. प.) 4. | तुं चिढेज्जा । त्वं तिष्ठसि । तू खड़ा रहता है। 5. हं मिलाएज्जामि । युवां द्वौ म्लायथः । | तुम दो मुरझाते हो । तं गरिहेसि । त्वं गर्हसे । तू निंदा करता है। अम्हे जीवेज्ज। वयं जीवामः । हम जीते हैं। तुं जाएज्जसे । त्वं यासि । तू जाता है। तुज्झे वे युवां द्वौ म्लायथः । तुम दो मुरझाते हो। मिलाज्जाइत्था । | अम्हे दो होज्जामो । आवां द्वौ भवावः । हम दो होते हैं। | स बुज्झेज्जा। | स बोधति । वह बोध पाता है। अम्हे दोण्णि | आवां द्वौ ध्यायावः ।। हम दो ध्यान करते हैं। झाएज्जिमो। 13.| ते दुवे नेएज्जेइरे । | तौ द्वौ नयतः । वे दो ले जाते हैं। 14. तुम्हे नेएज्जाह । । | यूयं नयथ । तुम ले जाते हो। 15.| अम्हे सोल्लेज्जा । | वयं पचामः । हम पकाते हैं। | तुज्झे छड्डेज्ज । यूयं मुञ्चथ । तुम छोड़ते हो। 17. | सो पाएज्जइ । स पिबति । वह पीता है। 18.| तुब्भे ठाज्ज | यूयं तिष्ठथ । तुम खड़े रहते हो। | अम्हे बे मिलाज्जेम् । आवां द्वौ म्लायावः || हम दो मुरझाते हैं। 20. | अहं करेज्जा । अहं करोमि । मैं करता हूँ। 21.| अहं ठाज्जेमि । | अहं तिष्ठामि । मैं खड़ा रहता हूँ। 16. - १५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत संस्कृत हिन्दी . 23. 24 27. सो पाज्जइ । स पिबति । वह पीता है। तुं गाज्जेसि । त्वं गायसि । तू गाता है। तुम्हे नच्चेज्जा । यूयं नृत्यथ । तुम नृत्य करते हो। अहं छज्जेज्जा। अहं राजे । मैं सुशोभित होता हूँ। ते नस्सेज्ज । ते नश्यन्ति । वे नष्ट होते हैं। तुज्झे पाएज्जाह । यूयं पिबथ । तुम पीते हो। अम्हे सडेज्जा । वयं शीयामहे । हम क्षीण होते हैं। तुम्हे दुवे डहेह । । युवां द्वौ दहथः । | तुम दो जलाते हो । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद क्र. | हिन्दी । प्राकृत संस्कृत | वे दो सिद्ध होते हैं। | ते वे सिज्झेज्जा । | तौ द्वौ सिध्यतः । 2. | वह विस्तार करता है । | सो तड्डेज्जा । स तनुते । | हम पूजा करते हैं। | अम्हे अच्चेज्जे । वयमर्चयामः । तुम दो छिड़कते हो। तुज्झे दो सिंचेज्जा । युवां द्वौ सिञ्चथः । तुम उत्पन्न होते हो । । तुम्हे जाएज्जाह । यूयं जायध्वे । वे खाते हैं। ते खाएज्जइरे । ते भुअते । तू खेद करता है। तुं मिलाएज्जसि । त्वं म्लायसि । 8. | तू जीता है। तुं जीवेज्ज । त्वं जीवयसि । | तुम दो युद्ध करते हो || तुब्भे दो जुज्झेज्ज । युवां द्वौ युध्येथे । तू बोध पाता है। तुं बुज्झेज्जा । त्वं बुध्यसि । 11. तू खड़ा रहता है। तुं ठाएज्जसि । त्वं तिष्ठसि । 12.| तुम सब ध्यान करते हो । तुब्भे झाएज्जह । यूयं ध्यायथ । 13. | मैं उत्पन्न होता हूँ। | हं जाएज्जामि । अहं जाये। 14.| वह देता है। सो दाएज्जइ । स ददाति । 15.| मैं भूलता हूँ। हं भुल्लेज्ज । अहं भ्रश्यामि । 16.| वह ग्लानि पाता है ।। | सो गिलाएज्जह । स ग्लायति । वह खेद करता है। NRRRRRRRI | | - No + ७ Go o PF - १६ - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. | हिन्दी प्राकृत | संस्कृत तुम (सब) खड़े रहते हो। तुम्हे ठाएज्जह । यूयं तिष्ठथ । तुम (सब) प्रकाशित होते हो। तुब्भे भाएज्जह | यूयं भाथ । वे ले जाते हैं। ते नेएज्जन्ति । ते नयन्ति । तुम (सब) हरण करते हो। तुम्हे हरेज्ज । यूयं हरथ । हम पीते हैं। अम्हे पाएज्जिमो । वयं पामः । वे गाते हैं। ते गाएज्जेइरे । ते गायन्ति । वे धारण करते हैं। ते धरेज्जा । ते धरन्ति । तुम (सब) विचार करते हो। तुम्हे चिंतेज्ज । यूयं चिन्तयथ । हम दो मुरझाते हैं। | अम्हे गिलाएज्जिमु ।। वयं ग्लायामः । । | 6 | - उपसर्ग प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्राकृत | संस्कृत हिन्दी 1. | अम्हे विण्णि आवां द्वौ हम दो अभिलाषा रखते अहिलसेज्जा। अभिलष्याव: । हैं। 2. | सो निण्हवेइ । स निनुते । वह छुपाता है। 3. | ते दो वाहरेज्ज । तौ द्वौ व्याहरतः । | वे दो कहते हैं। 4. | हं पविसेज्जा । अहं प्रविशामि । मैं प्रवेश करता हूँ। 5. | अम्हे परावट्टिमो। वयं परावर्तामहे । हम परावर्तन करते हैं। तुज्झे वेण्णि युवां द्वौ तुम दो दोष लगाते हो। | अइयरेह । अतिचरथंः । 7. | तुं अणुजाणेसि । त्वमनुजानासि । तू अनुज्ञा देता है। |तुम्हे दुण्णि युवां द्वौ निर्गच्छथः । तुम दो निकलते हो । निगच्छेइत्था । | तुब्मे दोणि विलसेह । युवां द्वौ विलसथः । तुम दो विलास करते हो । 10. ते परावट्टिरे । ते परावर्तन्ते । वे परिवर्तन करते हैं। 11. ते विउब्वेन्ति । | ते विकुर्वन्ति । | वे बनाते हैं। 17 - १७ - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत संस्कृत - हिन्दी 12. हं पावेज्ज । अहं प्राप्नोमि । मैं प्राप्त करता हूँ। ते वे वियसेज्ज। | तौ द्वौ विकसतः । वे दो विकसित होते हैं। 14. तुज्झे अणुसरेह । । यूयम् अनुसरथ । तुम सब अनुकरण करते हो। 13./ al - ल हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद | हिन्दी प्राकृत संस्कृत 1. हम आनंद करते हैं। अम्हे विहरेमो । वयं विहरामः । तू मिलता है। तुं संगच्छेसि । त्वं सङ्गच्छसे। तुम दो बुलाते हो। तुब्भे वे वाहरेज्ज । युवां द्वौ व्याहस्थः । तुम प्रवेश करते हो। तुम्हे पविसेह । यूयं प्रविशथ । 5. तू अभ्यास करता है । तुं अहिज्जेसि । त्वमधीषे । हम बनाते हैं। अम्हे विउव्वेमो । वयं विकुर्मः। तू पुनरावर्तन करता है। सो परावट्टए । स परावर्तते 8. | वे दो आज्ञा करते हैं। | ते वे अणुजाणिन्ति ।। तौ द्वावनुजानीतः । 9. तुम प्राप्त करते हो। तुज्झे पावेह । यूयं प्राप्नुथ । 10. वे दो अतिचार लगाते हैं || ते वे अइयरेन्ति । तौ द्वावतिचरतः। 11. तुम अभिलाषा करते हो । | तुम्हे अहिलसेह । यूयमभिलष्यथ । 12. वे आते हैं। ते आगच्छन्ति । ते आगच्छन्ति । 13. तू निकलता है। तुं निग्गच्छेसि । त्वं निर्गच्छसि। 14. हम दो आज्ञा करते हैं। अम्हे वे आवां अणुजाणिमो । द्वावनुजानीवः । 15. तू अनुसरता है। तुं अणुसरसि । त्वमनुसरसि। 16. हम मिलते हैं। अम्हे संगच्छिमो । वयं सङ्गच्छामहे । 17. तुम छुपाते हो । तुब्भे निण्हवित्था । यूयं निहनुध्वे । १८ - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . | 6 | - ल o पाठ -7 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्र. प्राकृत . संस्कृत हिन्दी 1. | देवा वि तं नमसंति । | देवा अपि तं | देव भी उनको नमस्यन्ति । नमस्कार करते हैं। 2. | मुरुक्खो बुहं निंदइ । मूर्यो बुधं निन्दति । मूर्ख पण्डित की निन्दा करता है। देवा तित्थयरं देवास्तीर्थकरं देव तीर्थंकर को जाणिन्ति । जानन्ति । जानते हैं। 4. | समणे नयरं विहरेइ । श्रमणो नगरं साधु नगर में विहरति । विहार करते हैं। आयरियो सीसे आचार्यः शिष्यान् आचार्य शिष्यों को उवदिसइ। उपदिशति । उपदेश देते हैं। 6. | सो तं धरिसेइ । स तं धृष्णोति । वह उसके विरुद्ध होता है। | अब्भं वरिसेइ । | अभं वर्षति । बादल बरसता है। 8. | मोरो नट्टं कुणेइ। । | मयूरो नृत्यं करोति । | | मयूर नृत्य करता है। 9. | पुरिसा जिणे वंदेइरे ।| पुरुषाः जिनान् । पुरुष जिनेश्वरों को वन्दन्ते । वंदन करते हैं। 10. दाणं तवो य भूसणं । | दानं तपश्च भूषणम् । दान और तप आभूषण हैं। 11. तुम्हे पवयणं किं । यूयं प्रवचनं किं क्या तुम सिद्धान्त जाणेह ? जानीथ. ? को जानते हो ? 12. घरं धणं रक्खेइ। गृहं धनं रक्षति । घर धन का रक्षण करता है। 13. सव्वो जणो सर्वो जनः सभी लोग कल्याण कल्लाणमिच्छइ । । | कल्याणमिच्छति । की इच्छा रखते हैं। o - १९ - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत 14. रामो सिवं लहेइ । 15. पावा सुहं न पावेन्ति 16. मयणो जणं बाहए । 17. पुत्ता पुप्फाणि चिति । 18. मुक्खो वत्थाइं उज्झे । 19. पण्णाइं पडेइरे । 20. एसो मुहं पमज्जेइ । 21. पयासेइ आइरियो । 22. धणं चोरेइ चोरो । 23. आयवो जणे पीडेइ । 24. देवा अब्भं विउव्विरे, जलं च सिंचेन्ति । 25. रामो पण्णाइं डहेइ । 26. स पोत्थयं गिण्हेइ, अहं च भूसणं गिमि । 27. अहं पावं निंदेमि । संस्कृत रामः शिवं लभते । पापाः सुखं न प्राप्नुवन्ति । मदनो जनं बाधते । पुत्राः पुष्पाणि चिन्वन्ति । पर्णानि पतन्ति । एषः मुखं प्रमार्ष्टि । प्रकाशते आचार्यः । इकट्ठा करते हैं । मूर्खो वस्त्राण्युज्झति । मूर्ख वस्त्रों का त्याग करता है । पत्ते गिरते हैं । यह मुँह धोता है । आचार्य प्रकाशते हैं - कहते हैं । चोर धन की चोरी = करता है । धूप लोगों को पीड़ा करता है । धनं चोरयति चौरः । आतपो जनान् पीडयति । देवा अभ्रं विकुर्वन्ति, जलं च सिञ्चन्ति । रामः पर्णानि दहति । स पुस्तकं गृह्णाति, अहं च भूषणं गृणामि । अहं पापं निन्दामि । हिन्दी राम मोक्ष प्राप्त करता है । पापी (मनुष्य) सुख को प्राप्त नहीं करते हैं । 20 काम मनुष्य को दुःख देता है । पुत्र फूलों को देव बादल बनाते हैं और पानी छिड़कते हैं / राम पत्ते जलाता है । वह पुस्तक ग्रहण करता है और मैं आभूषण ग्रहण करता हूँ । मैं पाप की निन्दा करता हूँ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत 28. रहो चलेइ | 29. अम्हे नाणं इच्छामो 30. अम्हे वत्थाणि मज्जेमो | 31. जाइं जिणबिंबाई ताइं सव्वाइं वंदामि । क्र. हिन्दी 1. मूर्ख मुंझाते हैं । ज्ञान प्रकाशित 2. होता है । 3. कमल शोभा देते हैं । 4. दो नेत्र देखते हैं । 5. शिष्य ज्ञान पढ़ते हैं 6. दो वृक्ष गिरते हैं । 7. घोड़े पानी पीते हैं । 8. देव तीर्थंकरों को नमस्कार करते हैं । 9. दो बालक आभूषण ले जाते हैं । 10. उपाध्याय ज्ञान का उपदेश देते हैं । धन बढ़ता है । 11 हिन्दी रथ चलता है । हम ज्ञान की इच्छा करते हैं । वयं वस्त्राणि प्रमृज्मः । हम वस्त्रों को साफ करते हैं । जितनी जिनप्रतिमाएँ हैं उन सभी को वंदन करता हूँ । संस्कृत रथश्चलति । वयं ज्ञानमिच्छामः । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत प्राकृत मुरुक्खा मुज्झन्ति । नाणं पयासेइ । यानि जिनबिम्बानि तानि सर्वाणि वन्दे | कमलाई छज्जन्ते । दोणि नेत्ताइं पासन्ति । सीसा नाणं भणन्ति । | दुवे वच्छा पडन्ति । आसा जलं पिवन्ति । देवा तित्थयरे नमन्ति । दुवे बाला भूसणाई नेइरे । उवज्झाओ नाणं उवदिसइ । धणं वड्ढए । २१ संस्कृत मूर्खाः मुह्यन्ति । ज्ञानं प्रकाशते । कमलानि राजन्ते । । द्वे नेत्रे पश्यतः । शिष्याः ज्ञानं भणन्ति । द्वौ वृक्षौ पततः । अश्वाः जलं पिबन्ति । देवास्तीर्थकरान् नमन्ति । द्वौ बालौ भूषणानि नयतः । उपाध्यायो ज्ञानमुपदिशति । धनं वर्धते । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. हिन्दी . प्राकृत संस्कृत | पण्डित पुस्तकों को | पंडिआ पोत्थयाइं पण्डिताः चाहते हैं और अहिलसन्ते, पुस्तकान्यमिलष्यन्ति, मूर्ख चाँदी की इच्छा मुक्खा य रययं । मूर्खाश्च रखते हैं। | इच्छन्ति । रजतमिच्छन्ति । 13. वह सिद्ध होता है । | सो सिज्झइ । स सिध्यति । 14. पंडित मोक्ष को प्राप्त | बुहो मोक्खं लहइ ।। बुधो मोक्षं लभते । करते हैं। 15. मूर्ख शर्मिन्दा नहीं मुक्खा न लज्जंते । मूर्खाः न लज्जन्ते । होते हैं। | वियोग मनुष्यों को | विओगो जणे बाहए। वियोगो जनान् बाधते । दुःख देता है। 17. साधु तप करते हैं। | समणा तवं करेन्ति । | श्रमणास्तपः कुर्वन्ति । 18. बालक वस्त्र को । | बालो वत्थं करिसइ । | बालो वस्त्रं कृषति । खींचते हैं। 19. | हम सूत्र का विचार | अम्हो सुत्ताइं चिन्तेमो । वयं सूत्राणि चिन्तयामः । करते हैं। पुत्र पिता को पुत्ता जणयं नमसंति । | पुत्राः जनकं नमस्यन्ति । नमस्कार करते हैं। 21. पानी सूखता है। | जलं सूसइ । जलं शुष्यति । 22. बालक पानी बालो जलं पाएइ । बालो जलं पिबति ।. पीता है। 23. राम पापी को रामो पावं हणइ । रामः पापं हन्ति । मारता है। 24. पण्डित रक्षण बुहा रक्खेन्ति । बुधाः रक्षन्ति । करते हैं। 25. बालक भयभीत | वच्छा बीहेन्ति । वत्साः बिभ्यति । होते हैं। 26. अभिमान लोगों को | मओ जणे बाहए। मदो जनान् बाधते । दुःखी करता है। = Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 8 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्र. प्राकृत 1. जो एगं जाणेइ, सो सव्वं जाणेइ | 2. जो सव्वं जाणेइ, | सो एगं जाणेइ । 3. बुहा बुहे पिक्खन्ति किं मुरुक्खो ? 4. णाई करेमि रोसं । 5. धणं दाणेण सहलं होइ | 6 समणा मोक्खाय जएन्ते । 7. बहिरो किमवि न सुणेइ । 8. समणा नाणेण तवेण सीलेण य छज्जन्ते । 9. सावगो अज्जं पंकएहिं जिणे अच्चेज्ज | 10. जो कुढारेण | कट्ठाइं छिंदइ । 11. पावो वहाइ जणं संस्कृत य एकं जानाति, स सर्वं जानाति । य सर्वं जानाति, स एकं जो सब को जानता है, जानाति । वह एक को जानता है । पण्डित पण्डितों को देखते हैं, मूर्ख क्या ? (देखेगा ) ? मैं गुस्सा नहीं करता हूँ । बुधा बुधान् प्रेक्षन्ते किं मूर्ख : ? न करोमि रोषम् । धनं दानेन सफलं धन दान द्वारा सफल होता है । भवति । श्रमणाः मोक्षाय यतन्ते । साधु मोक्ष के लिए प्रयत्न करते हैं / | बधिरः किमपि न श्रृणोति । श्रमणाः ज्ञानेन तपसा, शीलेन च राजन्ते । श्रावकोऽद्य पङ्कजैर्जिनान् अर्चति । 1 जनः कुठारेण काष्ठानि छिनत्ति । पापः वधाय जनं धावति । हिन्दी जो एक को जानता है, वह सभी को जानता है । धाएइ । 12. आयरिआ सीसेहिं सह आचार्याः शिष्यैः सह विहरेइरे । विहरन्ति । २३ बहरा कुछ भी नहीं सुनता है । साधु ज्ञान से, तप से और शील से शोभते हैं । श्रावक आज कमलों द्वारा जिनेश्वरों की पूजा करता है । मनुष्य कुल्हाड़े से लकड़े काटता है । पापी वध हेतु मनुष्य की तरफ दौड़ता है । आचार्य शिष्यों के साथ विहार करते हैं । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.| प्राकृत संस्कृत हिन्दी 13./उज्जमेण सिज्झंति | उद्यमेन सिध्यन्ति प्रयत्न से कार्य कज्जाणि कार्याणि, सिद्ध होते हैं, न मणोरहेहिं । न मनोरथैः । | मनोरथों से नहीं। 14. रोगा ओसढेण रोगा औषधेन रोग औषध से नष्ट नस्सन्ते । नश्यन्ति । होते हैं। 15. सीसा आइरिए शिष्या आचार्यान् शिष्य आचार्यों को |विणएण वंदिरे । | विनयेन वन्दन्ते । विनयपूर्वक वंदन करते हैं। 16. सज्जणा कयाइ सज्जनाः कदाचिद् सज्जन कभी भी अपना अप्पकरं आत्मीयं सहावं न छड्डिरे । | स्वभावं न त्यजन्ति । | स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। 17. वाहो मिगे सरेहिं व्याधो मृगाञ् शरैः शिकारी हिरनों को बाणों पहरेहिं । प्रहरति । से प्रहार करता है। 18. सीलेण सोहए देहो शीलेन शोभते देहः, देह सदाचार से शोमित होता न वि भूसणेहिं। | नाऽपि भूषणैः । है, आभूषणों से नहीं। 19. धणेण रहिओ जणो धनेन रहितो जनः धनरहित मनुष्य सर्वत्र सव्वत्थ अवमाणं सर्वत्राऽपमानं प्राप्नोति । अपमानित होता है। पावेज्ज । 20. बुहो फरुसेहिं | बुधः परुषैर्वाक्यै :कमपि | समझदार व्यक्ति वक्केहिं कंपिन न पीडयति । कठोर रचनों से किसी को पीलेइ। भी पीड़ित नहीं करता है। 21. भावेण सव्वे सिद्धे | भावेन सर्वान् सिद्धान् । हम भावपूर्वक सभी नमिमो। नमामः । सिद्धों को नमस्कार करते हैं। 22. वीयरागा नाणेण वीतरागाः ज्ञानेन वीतराग ज्ञान द्वारा लोगमलोगं च | लोकमलोकं च लोक और अलोक को मुणेइरे । जानन्ति । जानते हैं। 23. संघो तित्थं अडइ । | सङ्घस्तीर्थमटति । संघ तीर्थ में जाता है। २४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. प्रा. आयारो परमो धम्मो, आयारो परमो तवो । आयारो परमं नाणं, आयारेण न होइ किं ! ||1|| सं. आचारः परमो धर्मः, आचारः परमं तपः । आचारः परमं ज्ञानम्, आचारेण किं न भवति ? 11111 हि. आचार श्रेष्ठ धर्म है, आचार उत्तम तप है, आचार उत्कृष्ट ज्ञान है, आचार से क्या नहीं होता है ! (1) हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद | | - कल हिन्दी प्राकृत . संस्कृत 1. काम मनुष्य को दुःख मयणो जणं बाहए । मदनो जनं बाधते । देता है। चन्द्रमा से आकाश चंदेण गयणं छज्जइ । चन्द्रेण गगनं शोभते । शोभा देता है। जन्म से ब्राह्मण जम्मेण बंभणो न होइ, जन्मना ब्राह्मणो न भवति, नहीं बनता है, लेकिन अवि आयारेण होइ । अप्याचारेण भवति । आचार से बनता है। | लोभ मनुष्य को लोहो जणं पीलइ । लोभो जनं पीडयति । दुःखी करता है। 5. | राजा न्यायपूर्वक निवा नायेण रज्जं नृपाः न्यायेन राज्यं | राज्य करते हैं। करेन्ति । कुर्वन्ति । | पाप से मनुष्य नरक पावेण जणो नरयं | पापेन जनो नरकं | में जाता है और धर्म |गच्छइ, धम्मेण य गच्छति, धर्मेण च से स्वर्ग में जाता है । | सग्गं गच्छइ । स्वर्गं गच्छति। | मयूर बादल से खुश | मोरो मेहेण तूसइ । मयूरो मेघेन तुष्यति । होता है। 8. | तुम (दो) नृत्य के साथ तुब्भे वे नच्चेण सह युवां नृत्येन सह | गायन करते हो। गाणं करेह । गायथः । 9. तुम (दो) हाथों से हत्थेहिं तुब्भे पुप्फाइं हस्ताभ्यां यूयं पुष्पाणि पुष्प ग्रहण करते हो । गिण्हइत्था । गृहणीथ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. हिन्दी । प्राकृत .. संस्कृत 10. साधु ज्ञान बिना सुख | समणा नाणं विणा सुहं श्रमणाः ज्ञानं विना सुखं प्राप्त नहीं करते हैं । | न पावेन्ति । |न प्राप्नुवन्ति । 11. हम स्तोत्रों द्वारा | अम्हे थोत्तेहिं जिणं वयं स्तोत्रैर्जिनं स्तुमः । जिनेश्वर की स्तुति थुणिमो । करते हैं। 12. दुर्जन सज्जनों की | सढो सज्जणे निंदेइ । शठः सज्जनान् निन्दति। निन्दा करता हैं। 13/उपाध्याय सूत्रों का । उवज्झायो सुत्ताई | उपाध्यायः उपदेश देते हैं। उवदिसइ । | सूत्राण्युपदिशति । 14 मूर्ख दीपक से वस्त्रों मुक्खो दीवेण वत्थाई मूर्यो दीपेन वस्त्राणि को जलाता है। दहइ । दहति । 15. हम फूलों द्वारा | अम्हे पुप्फेहिं जिणबिंबं वयं पुष्पैर्जिन|जिनप्रतिमा की पूजा | अच्चेमो । |बिम्बमर्चामः । करते हैं। 16. मनुष्य सर्वत्र धर्म | जणो धम्मेण सव्वत्थ |जनो धर्मेण सर्वत्र सुखं द्वारा सुख पाता है | | सुहं लहइ । लभते । 17. पंडित भी मूर्यो को | बुहा वि मुरुक्खे न बुधा अपि मूर्खान् न खुश नहीं कर सकते | पीणन्ति । प्रीणयन्ति । 18.साधु काम, क्रोध और समणा कामं, कोहं, श्रमणाः काम, क्रोध, लोभ को जीतते हैं। लोहं च जिणन्ति । लोभं च जयन्ति । 19. वीर शस्त्रों को | वीरो सत्याइं खिवइ । वीरश्शस्त्राणि क्षिपति । फेंकता है। 20. हम दो संघ के साथ | अम्हे दो संघेण सह आवां (द्वौ) सङ्घन सह तीर्थ तरफ जाते हैं । तित्थं गच्छिमो । तीर्थं गच्छावः । 21/ वाचाल (बातूनी) मुहरो जणो किमवि न मुखरो जनः किमपि मनुष्य कुछ भी | करेइ । न करोति । नहीं कर सकता है। 22. जो तत्त्व को जानता |जो तत्त्वं मुणइ, यस्तत्त्वं जानाति, स है, वह पंडित है। सो बुहो अस्थि । बुधोऽस्ति । - - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ -9 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत हिन्दी 1. नमो सिद्धाणं । नमः सिद्धेभ्यः | सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो। 2. नमो उवज्झायाणं । नम उपाध्यायेभ्यः । उपाध्याय भगवंतों को नमस्कार हो। 3. | समणा सब्बय च्चिअ श्रमणाः साधु हमेशा निश्चय आवासयं कम्म |सर्वदैवाऽऽवश्यकं आवश्यक क्रिया समायरति । कर्म समाचरन्ति । | करते हैं। 4.|जह छप्पआ उप्पलाणं | यथा षट्पदा उत्पलानां | जैसे भौंरे कमलों रसं पिविरे, ताइं रसं पिबन्ति, तानि । का रस पीते हैं और च न पीलंति, तह च न पीडयन्ति , | उनको पीड़ा नहीं करते समणा संति । तथा श्रमणाः सन्ति । | हैं, वैसे साधु होते हैं । 5. | जो खमइ, सो धम्म | यः क्षमते, स धर्मं सुष्ट | जो क्षमा करता है, वह सुङ आराहेइ । आराध्यति । अच्छी तरह धर्म की सेवा करता है। 6. बुहो नरिंदस्स बुधो नरेन्द्रस्य संतोषाय पण्डित राजा के संतोष | संतोसाय कव्वाई काव्यानि रचयति । | हेतु काव्यों की रचना रएइ । करता है। | अईव नेहो दुहस्स अतीवस्नेहो दुःखस्य | अतिस्नेह दुःख का मूलमत्थि । मूलमस्ति । मूल है। धम्मस्स फलमिच्छंति, धर्मस्य फलमिच्छन्ति , | मनुष्य धर्म के फल की | धम्मं नेच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मनुष्याः । इच्छा रखता है, धर्म मणूसा। की इच्छा नहीं रखता है। 9. समणो सावगाणं |श्रमण: श्रावकेभ्यो साधु श्रावकों को | जिणेसराणं चरितं |जिनेश्वराणां जिनेश्वरों का वक्खाणेइ। चरित्रं व्याख्याति । चरित्र कहते हैं। - २७ - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी बालक सर्प को देखने से डरता है, दंसणेण डरइ, पुण संफासेण ? तो स्पर्श से क्या ? 11. मुणिंदो सीसाणं आचार्य शिष्यों को सूत्रों सुत्ताणमट्ठे उवदिसइ । सूत्राणामर्थमुपदिशति । के अर्थ का उपदेश देते हैं । ज्ञान तत्त्वों का प्रकाशक होता है । धर्म किसको नहीं क्र. प्राकृत 10. बालो सप्पस्स किं 12. नाणं तत्ताणं पयासगं ज्ञानं तत्त्वानां प्रकाशकं होइ | भवति । धर्मः कस्मैचित् न 13. धम्मो कासइ न रोएइ ! 14. निडुरो पावेहिंतो धम्मं निष्ठुरः पापेभ्यो धर्मं रोचते ! | वंछइ । वाञ्छति । 15. आणंदो सावगो | दंसणत्तो न कया चलइ | 16. पव्वयाणं मंदरो | निच्चलो अत्थि | 17. सो पमाया सुत्तं पुत्तं पहरेइ | 18. अट्ठाए गामाओ गाममडंति बंभणा । 19. तस्स वच्छस्स संस्कृत बालः सर्पस्य दर्शनेन बिभेति, किं पुनः संस्पर्शेन ? मुनीन्द्रः शिष्येभ्यः | पक्काई फलाई अईव महुराणि संति । 20. धम्मिओ सइ दीणाणं | जणाणं धन्नाइ देइ । आनन्दः श्रावको | दर्शनान्न कदा चलति | पर्वतानां मन्दरो निश्चलोऽस्ति । स प्रमादात् सुप्तं पुत्रं प्रहरति । अर्थाय ग्रामाद् ग्राममटन्ति ब्राह्मणाः । तस्य वृक्षस्य पक्वानि फलान्यतीवमधुराणि सन्ति । धार्मिकः सदा दीनेभ्यो जनेभ्यो धान्यानि ददाति । २८ रुचता है ! निर्दय मनुष्य पापों से धर्म को चाहता है । आनंद श्रावक सम्यक्त्व । से कभी भी विचलित नहीं होता है । पर्वतों में मेरुपर्वत निश्चल है । वह भूल से सोये हुए पुत्र को मारता है । ब्राह्मण धन के लिए (एक) गाँव से (दूसरे) गाँव घूमते हैं । उस वृक्ष के पके फल अत्यंत मीठे हैं । धर्मिष्ठ व्यक्ति हमेशा गरीब व्यक्तियों को धान्य देता है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 21. जस्स धम्मो व अट्ठो अत्थि, तं नरं सव्वे | अवेक्खिरे । 22. सो नग्गो भमइ, जणेहिंतो विन क्र. लज्जइ । 23. धम्मो सुहाणं मूलं, दप्पो मूलं विणासस्स । 24. प्रा. सं. क्र. हि. 25. प्रा. सं. हि. संस्कृत हिन्दी यस्य धर्मो वाऽर्थोऽस्ति, जिसके पास धर्म अथवा तं नरं सर्वे अपेक्षन्ते । धन है, उस व्यक्ति की सभी अपेक्षा रखते हैं । वह नग्न घूमता है, लोगों से भी शरमाता नहीं है । धर्म सुखों का मूल है, अभिमान विनाश का मूल है । 1. सज्जन पुरुष पापियों का विश्वास नहीं करते हैं । स नग्नो भ्रमति, जनेभ्योऽपि न लज्जते । धर्मः सुखानां मूलं, दर्पो मूलं विनाशस्य | 'मणोरहे 'विविहे । 'धिद्धि मूढा 'जीवा, कुणंति 'गुरु 10न उ "जाणंति 'वराया, "झायइ "दइवं किमवि 14 अन्नं ||2|| धिग् धिक् मूढा जीवाः, विविधान् गुरुकान्, मनोरथान् कुर्वन्ति । वराकास्तु न जानन्ति, दैवं किमप्यन्यत् ध्यायति ||2|| धिक्कार है कि मूर्ख जीव अनेक प्रकार के बड़े मनोरथ करते हैं, लेकिन वे बिचारे जानते नहीं है कि भाग्य कुछ अलग विचारता है । 'विणया णाणं णाणाओ, 'दंसणं 'दंसणाहि 'चरणं च । चरणाहिंतो मुक्खो, मोक्खे "सोक्खं "अणाबाहं ||3|| विनयाज् ज्ञानं, ज्ञानाद् दर्शनं, दर्शनाच्चरणं च चरणान् मोक्षः, मोक्षे सौरव्यमनाबाधम् ||3|| विनय से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र और चारित्र से मोक्ष, मोक्ष में पीड़ारहित सुख है । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद हिन्दी प्राकृत सज्जणा पावे न वीससन्ति । २९ संस्कृत सज्जनाः पापान् न विश्वसन्ति । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.| हिन्दी । प्राकृत | संस्कृत 2. सिंह के शब्दों से सिंघस्स सद्देण जणाणं सिंहस्य शब्देन जनानां मनुष्यों के हृदय | हिययाइं कंपेन्ति । हृदयानि कम्पन्ते । काँपते हैं। 3. साधुओं का समुदाय | समणाणं संघो श्रमणानां सङ्घो जिनेश्वर के साथ जिणेण सह जिनेन सह मोक्ष में जाता है। मोक्खं गच्छइ । मोक्षं गच्छति । 4. मूर्ख चारित्र की श्रद्धा | मुरुक्खा चस्तिं न मूर्खाचारित्रं न नहीं रखते हैं। | सद्दहेन्ति । श्रद्दधति । 5. जीवों और अजीवों |जीवाणं अजीवाणं च जीवानामजीवानां च का प्रकाशक | पयासगं किं अत्थि ? |प्रकाशकं किमस्ति ? कौन है ? 6. | जो चारित्र की श्रद्धा |जो चास्तिं सद्दहेइ, सो | यश्चारित्रं श्रद्दधाति स करता है, वह भाव भावत्तो सावगो अस्थि । | भावतः श्रावकोऽस्ति । से श्रावक है। 7. वह घर से निकलता | सो घस्तो निग्गच्छइ, स ग्रहानिर्गच्छति, है और साधु बनता है || समणो य होइ । श्रमणश्च भवति । 8. पश्चाताप से पाप नष्ट | पच्छायावत्तो पावाइं पश्चातापतः पापानि होते हैं। नस्सन्ति । नश्यन्ति । 9. शिष्य उपाध्याय के । | सीसा उवज्झायाउ शिष्या पास अध्ययन | अज्झयणं भणेन्ति । | उपाध्यायादध्ययनं पढ़ते हैं। भणन्ति । 10.जो न्यायमार्ग का जो नायमग्गं उल्लंघन करता है, | अइक्कमइ, न्यायमार्गमतिक्राम्यति, वह दुःख पाता है। सो दुहं पावइ । स दुःखं प्राप्नोति । 11. राजा काव्यों द्वारा निवो कव्वेहिं विबुहे नृपः काव्यैर्विबुधान् पंडितों की परीक्षा । परिक्खइ । परीक्षते। करता है। 12. बाघ से मनुष्य वग्घत्तो जणो बिहेइ । | व्याघ्राज्जनो बिभेति । डरता है। यो - 30 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. हिन्दी प्राकृत संस्कृत 13. संघ धर्म के विरुद्ध संघो धम्मस्स विरुद्धं | सङ्घो धर्मस्य विरुद्धं न सहन नहीं करता है || न सहइ । सहते । 14/धार्मिक व्यक्ति पापों | धम्मिओ जणो धार्मिको जनः से डरता है। | पावेहिन्तो डरइ । | पापेभ्यस्त्रस्यति। 15. किसी का धन हरण | कासइ धणस्स हरणं | कस्यचिद् धनस्य हरणं करना पाप है। | पावं अत्थि । पापमस्ति। 16.जो जिनवचन का जो जिणस्स वयणं | ये जिनस्य उल्लंघन करते हैं, | अइक्कमेन्ति | वचनमतिक्रमन्ते, वे सुख नहीं पाते हैं । ते सुहं न पावेन्ति । ते सुखं न प्राप्नुवन्ति । 17/तू विनय से अच्छी |तुं विणएण सुट्ठ | त्वं विनयेन सुष्टु तरह शोभता है। | छज्जसे । शोभसे। .18./उसको धिक्कार हो |तं धिद्धि, सो सव्वं तं धिर धिक, सः सर्वान् क्योंकि वह सब की | निंदइ । निन्दति । निंदा करता है। 19. वह धान्य बेचता है | सो धन्नं विक्कइ, सः धान्यं विक्रीणाति, और बहुत द्रव्य बहुं च दव्वं विढवेइ । बहुं च द्रव्यमुपार्जयति । कमाता है। 20 तू निष्कारण उसकी | तुं तं मुहा निंदेसि । त्वं तं मिथ्या निन्दसे । निंदा करता है। 21, शिष्य हमेशा सूत्रों । | सीसा सया सुत्ताणं |शिष्याः सदा के अध्ययनों का । अज्झयणाई सूत्राणामध्ययनानि पुनरावर्तन करते हैं । | परावट्टन्ति । परावर्तन्ते । 22 बालक को दूध वच्छस्स दुद्धं रुच्चइ || वत्साय दुग्धं रोचते । पसंद है। - ३१ BA Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. . पाठ - 10 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्राकृत संस्कृत | हिन्दी हे खमासमण ! हे क्षमाश्रमण ! . | हे क्षमाप्रधान मुनि ! हं मत्थएण वंदामि । | अहं मस्तकेन वन्दे ।। मैं मस्तक से वंदन करता हूँ। | सव्वेसु धम्मेसु जत्थ | सर्वेषु धर्मेषु यत्र सभी धर्मों में जहाँ | पाणाइवाओ प्राणातिपातो न जीवहिंसा नहीं है, न विज्जइ, सो धम्मो | विद्यते, स धर्मः | वह धर्म सुंदर है। सोहणो होइ। शोभनो भवति । |जक्खो समणाणं यक्ष: श्रमणानां यक्ष साधुओं की | साहज्जं कुणेइ। साहाय्यं करोति । | सहायता करता है। वुड्डत्तणे वि मूढाणं वृद्धत्वेऽपि मूढानां वृद्धावस्था में भी मूर्ख नराणं विसया न नराणां विषया मनुष्यों के विषय उवसमन्ते । नोपशाम्यन्ति । | उपशांत नहीं होते हैं। 5. प्रा. पच्चूसे सो उज्जाणं जाइ, तत्थ थिआई पुप्फाइं जिणिंदाणमच्चणाय घरं आणेइ । सं. प्रत्यूषे स उद्यानं याति, तत्र स्थितानि पुष्पाणि जिनेन्द्राणामर्चनाय गृहमानयति । हि. वह सुबह बगीचे में जाता है, वहाँ रहे हुए फूलों को जिनेवरों की पूजा के लिए घर लाता है। प्रा. समणा चेइएसु निच्चं वच्चिरे, देवे य वंदति । सं. श्रमणाश्चैत्येषु नित्यं व्रजन्ति , देवांश्च वन्दन्ते । हि. मुनिगण हमेशा जिनालयों में जाते हैं और देवों को वंदन करते हैं। प्रा. देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो । सं. देवा अपि तं नमस्यन्ति , यस्य धर्मे सदा मनः । हि. जिसका मन सदा धर्म में जुड़ा हुआ है, उसे देव भी नमस्कार करते 3२ ३२ = Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. प्रा. मिच्छा तुं पुत्ताणं कुज्झसि । सं. मिथ्या त्वं पुत्रेभ्यः क्रुध्यसि । हि. तू पुत्रों पर निष्फल क्रोध करता है । 9. प्रा. जो धणस्स मएण मज्जइ, सो भवमडइ | सं. यो धनस्य मदेन माद्यति, स भवति । हि. जो धन के मद से मदोन्मत्त होता है, वह संसार में भटकता है । 10. प्रा. पावाणं कम्माणं खयाए ठामि काउसग्गं । सं. पापानां कर्मणां क्षयाय तिष्ठामि कायोत्सर्गम् । हि. मैं पाप कर्मों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग में रहता हूँ । 11. प्रा. मज्जम्मि मंसम्मि य पसत्ता मणुसा निरयं वच्चन्ति । सं. मद्ये मांसे च प्रसक्ताः मनुष्याः नरकं व्रजन्ति । हि. मदिरा और मांस में आसक्त मनुष्य नरक जाते हैं । 12. प्रा. नक्खत्ताणं मिअंको जोअइ | सं. नक्षत्राणां मृगाङ्को द्योतते । हि. नक्षत्रों में चन्द्र चमकता है । 13. प्रा. परोवयारो पुण्णाय, पावाय अन्नस्स पीलणं, इअ नाणं जस्स हिए सो धमिओत्ति | सं. परोपकारः पुण्याय पापायाऽन्यस्य पीडनम्, इति ज्ञानं यस्य हृदये सः धार्मिक इति । हि. परोपकार पुण्य के लिए, दूसरे को पीड़ा करनी यह पाप के लिए है, इस प्रकार का ज्ञान जिसके हृदय में है वह धार्मिक है । 14. प्रा. मूढो हं, तत्तो कत्थ गच्छामि ?, कहिं चिट्ठामि ?, कस्स कहेमि ?, कस्स रूसेमि ? | सं. मूढोऽहं, ततः कुत्र गच्छामि ?, कुत्र तिष्ठामि ?, कस्य कथयामि ?, कस्मै रुष्यामि ? । हि. मैं मूर्ख हूँ, इसलिए कहाँ जाऊँ ?, कहाँ खड़ा रहूँ ?, कहूँ ?, किस पर गुस्सा करूँ ? । 15. प्रा. जीवा पावेहिं कज्जेहिं निरयंसि उववज्जिरे । सं. जीवाः पापैः कार्यैर्नरके उपपद्यन्ते । हि. जीव पापकर्मों से नरक में उत्पन्न होते हैं । ३३ किसको Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. प्रा. चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु य अहियं पयासयरा तित्थयरा हुन्ति । सं. चन्द्रेभ्यो निर्मलतराः, आदित्येभ्यश्चाधिकं प्रकाशकरास्तीर्थकरा भवन्ति । हि. तीर्थंकर चन्द्र से ज्यादा निर्मल और सूर्य से अधिक प्रकाशक होते हैं। 17. प्रा. खमासमणा सव्वया नाणम्मि, तवंसि, झाणे य उज्जया संति । सं. क्षमाश्रमणाः सर्वदा ज्ञाने, तपसि, ध्याने चोद्यताः सन्ति । हि. क्षमाप्रधान मुनि हमेशा ज्ञान, तप और ध्यान में तत्पर होते हैं। 18. प्रा. जारिसो जणो होइ, तस्स मित्तो वि तारिसो विज्जइ । सं. यादृशो जनो भवति, तस्य मित्रमपि तादृशं विद्यते । हि. जैसा व्यक्ति होता है, उसका मित्र भी उसी प्रकार का होता है । 19. प्रा. जो पच्छं न भुंजइ, तस्स वेज्जो किं कुणइ ? | सं. यः पथ्यं न भुङ्क्ते, तस्य वैद्यः किं करोति ? हि. जो हितकारी वस्तु नहीं खाता है, उसका वैद्य क्या करे ? (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता है ।) 20. प्रा. अम्हेत्थ पुण्णाणं पावाणं च कम्माण फलं उवभुजिमो । सं. वयमत्र पुण्यानां पापानां च कर्मणां फलमुपभुज्मः । हि. हम यहाँ पुण्य और पाप कर्म के फल भुगतते हैं। 21. प्रा. नच्चइ गायइ पहसइ पणमइ परिच्चयइ वत्थं पि । तूसइ रूसइ निक्कारणं पि मइरामउम्मत्तो ||4|| सं. निष्कारणमपि मदिरामदोन्मत्तः, नृत्यति, गायति, प्रहसति, प्रणमति, वस्त्रमपि परित्यजति, तुष्यति, रुष्यति ||4|| हि. मदिरा के मद से उन्मत्त बिना कारण नाचता है, गाता है, खिलखिल हँसता है, प्रणाम करता है, वस्त्र को भी फेंक देता है, खुश होता है और गुस्सा करता है। 22. प्रा. सच्चिय सूरो सो चेव, पंडिओ तं-पसंसिमो निच्चं । इंदियचोरेहिं सया, न लुटिअं जस्स चरणधणं ।।5।। सं. स एव शूरः, स एव पण्डितः, तं-नित्यं प्रशंसामः । यस्य चरणधनं, सदा इन्द्रियचौरैर्न लुण्टितं ||5|| हि. वही शूरवीर है, वही पण्डित है, हम हमेशा उसी की प्रशंसा करते हैं, जिसका चारित्ररूपी धन हमेशा इन्द्रियरूपी चोरों द्वारा नहीं लूटा गया है। -३४ - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद हिन्दी प्राकृत | - 1. गुणों में द्वेष अनर्थ के गुणेसु मच्छरो गुणेषु मत्सरोऽनर्थाय लिए होता है। अणत्थाय होइ । भवति । 2. सुवर्ण का पर्याय निक्खस्स पज्जाओ | निष्कस्य पर्यायो आभूषण है। भूसणं अत्थि । भूषणमस्ति । 3. मंदिर के शिखर पर | मंदिरस्स सिहरम्मि मन्दिरस्य शिखरे मयूरो मयूर नाचता है। मोरो नच्चइ । | नृत्यति । 4. आनंद श्रावक सम्यक्त्व आणंदो सावगो आनन्दः श्रावकः में निश्चल है। सम्मत्तंमि निच्चलो | सम्यक्त्वे निश्चलोऽस्ति । अत्थि । 5. मनुष्य पाप का फल जणो पावस्स फलं | जनः पापस्य फलं देखता है, फिर भी पासइ, तहवि | पश्यति, तथापि धर्म न धर्म नहीं कर सकता धम्मं न करेइ, तत्तो | करोति, ततोऽन्यत् है, इससे दूसरा |अन्नं किं अच्छेरं ? || किमाश्चर्यम् ? | आश्चर्य क्या ? 6. बालक सुबह पिता को | बालो पहाए जणयं | बालः प्रभाते जनक नमस्कार करता है, नमइ, पच्छा य | नमति, और उसके बाद अपना | अप्पकेरं अज्झयणं पशाच्चाऽऽत्मीयमध्ययनं अध्ययन करता है। करेइ । करोति । 7. विह्वल मनुष्य को कार्य | विब्भलस्स जणस्स |विह्वलस्य जनस्य कार्ये में उत्साह नहीं होता | कज्जमि उच्छाहो न | उत्साहो न भवति । होइ । 8. इस बाग में वृक्ष पर | एयंमि उज्जाणंमि एतस्मिन्नुद्याने वृक्षेषु सुंदर फल हैं। | वच्छेसु सोहणाइं शोभनानि फलानि फलाइं सन्ति । | सन्ति । 9. वृद्धावस्था में शरीर | वुड्डत्तणे देहो जिण्णो | वृद्धत्वे देहो जीर्णो जीर्ण होता है। होइ । भवति । - ३५ ३५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. हिन्दी प्राकृत . संस्कृत 10जो पथ्य का सेवन जो पच्छं सेवइ, यः पथ्यं सेवते, करता है, वह बीमार |सो रुग्गो न होइ। | स रुग्णो न भवति । नहीं होता है। 11. आचार्य तीर्थंकर के आयरिया तित्थयरेण | आचार्यास्तीर्थकरेण समान है। |समा संति | | समाःसन्ति । 12. साधर्मिकों का वात्सल्य | साहम्मिआण वच्छल्लं साधर्मिकाणां इस लोक में धर्म और | एयंमि लोगम्मि धम्म, वात्सल्यमेतस्मिल्लोके परलोक में मोक्ष | परलोगम्मि य धर्म, परलोके च मोक्षं दिलाता है। | मोक्खं देइ । | ददाति । 13. मेघ पर्वत पर मेहो पव्वयम्मि मेघः पर्वते वर्षति । बरसता है। | वरिसइ । 14 साधु व्याख्यान में समणो वक्खाणे श्रमणो व्याख्याने जिनेश्वरों के चरित्र जिणेसराणं जिनेश्वराणां कहता है। चरिताई कहेइ । चरित्राणि कथयति । 15. मैं रास्ते में रीछ हं मग्गम्मि रिच्छं अहं मार्गे ऋक्षं देखता हूँ। देखेमि । पश्यामि। 16.हे मूर्ख ! तू गरीबों को हे मुक्ख ! तुं दीणे हे मूर्ख ! त्वं दीनान् किसलिए कष्ट देता है? | किमत्थं पीलेसि ? । किमर्थं पीडयसि ? | 17. तू दुर्जनों के वचन पर तुं दुज्जणाणं वयणेसुं | त्वं दुर्जनानां वचनेषु विश्वास रखता है, वीसससि, तत्तो दुहं | विश्वसिषि, ततो दुःखं इसलिए दुःख पाता है || पावेसि । प्राप्नोषि । ३६ यी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 11 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्राकृत । संस्कृत - हिन्दी अरिहंता सवण्णवो अर्हन्तः सर्वज्ञाः | अरिहंत भ. सब हवंति । | भवन्ति । जाननेवाले होते हैं। कयण्णुणा सह कृतज्ञेन सह संसर्गः उपकार को जाननेवाले संसग्गो सइ कायव्यो । | सदा कर्तव्यः । | के साथ संबंध करना चाहिए। 3. छप्पआ महुं षट्पदाःमध्वास्वादन्ते। भौंरे मधु का स्वाद चक्खेज्जा । लेते हैं। सूरओ जिणिंदस्स | सूरयो जिनेन्द्रस्य आचार्यगण जिनेश्वर के सासणस्स पहावगा शासनस्य प्रभावका : | शासन के प्रभावक हैं। संति । सन्ति । 5. गुरुणो सीसाणं |गुरवः शिष्येभ्यः गुरुजन शिष्यों को सूत्रों सुत्ताणमट्ठमुवदिसंति । सूत्राणामर्थमुपदिशन्ति || के अर्थ बताते हैं । 6. अहिण्णु सत्थाणमत्थेसु अभिज्ञाः शास्त्राणामर्थेषु पंडित शास्त्रों के अर्थ न मुज्झन्ति । न मुह्यन्ति । में मुंझाते नहीं हैं। 7. |साहवो तत्तेसुं विम्हयं साधवस्तत्त्वेषु विस्मयं | साधु तत्त्वों में आश्चर्य न पावेइरे। न प्राप्नुवन्ति । नहीं पाते हैं। 8. सूरी साहुहिं सह |सूरिः साधुभिः | आचार्य साधुओं के साथ आवासयाई | सहाऽऽवश्यकानि आवश्यक क्रिया कम्माइं कुणइ । कर्माणि करोति । करते हैं। 9. साहुणो पमाया साधवः प्रमादात् साधु प्रमाद से सूत्र सुत्ताणि वीसरेज्ज। सूत्राणि विस्मरन्ति । | भूल जाते हैं। 10. मुणी धम्मस्स तत्ताई | मुनयो धर्मस्य तत्त्वानि मुनिजन आचार्य को धर्म सूरिं पुच्छंति । | सूरिं पृच्छन्ति । के तत्त्व पूछते हैं। 11. साहू गुरुहिं सह | साधवो गुरुभिः सह | साधु गुरु भ. के साथ गामाओ गामं विहरते । ग्रामाद् ग्रामं विहरन्ति । एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हैं। ३७ ro Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. प्राकृत संस्कृत - हिन्दी 12. कइणो नरिंदस्स गुणे कवयो नरेन्द्रस्य गुणान् कवि राजा के गुणों की वण्णेइरे। | वर्णयन्ति । प्रशंसा करते हैं। 13.दुक्खेसु साहेज्जं जे दःखेष साहाय्यं ये जो दुःखों में सहायता कुणंति, ते बंधवो कुर्वन्ति, ते बन्धवः करता है, वह बन्धु है। अस्थि । सन्ति । 14.तुं अंसूणि किं त्वमश्रूणि किं | तू आँसू क्यों निकालता मुंचसि ? | मुञ्चसि ? | 15. अजिण्णे ओसढं अजीर्णे औषधं वारि । | अजीर्ण में पानी वारि। औषध है। 16/भोयणस्स मज्झम्मि भोजनस्य मध्ये भोजन के बीच में पानी वारि अमयं । | वार्यमृतम् । अमृत है। 17 सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज सूत्रस्य मार्गेण साधुगण सिद्धान्त के भिक्खू । चरेयुर्भिक्षवः । मार्ग पर चलें। 18/पज्जुन्नो जणे डहइ । प्रद्युम्नो जनान् दहति ।। काम मनुष्यों को जलाता है। 19. प्रा. निवइ मंतीहिं सद्धिं रज्जस्स मंतं मंतेइ । सं. नृपतिर्मन्त्रिभिः सार्धं राज्यस्य मन्त्रं मन्त्रयति । हि. राजा मंत्रियों के साथ राज्य की मंत्रणा करता है। 20. प्रा. निवइणो मणोण्णेहिं कव्वेहिं तुसंति । सं. नृपतयो मनोज्ञैः काव्यैस्तुष्यन्ति । हि. राजागण सुंदर काव्यों से खुश होते हैं। प्रा. धन्नाणं चेव गुरुणो आएसं दिति । सं. धन्येभ्य एव गुरव आदेशं ददति । हि. गुरु प्रशंसनीय पुरुषों को ही आदेश देते हैं । 22. प्रा. धम्मो बंधू अ मित्तो अ, धम्मो य परमो गुरु । नराणं पालगो धम्मो, धम्मो रक्खइ पाणिणो ||6|| सं. धर्मो बन्धुश्च मित्रं च, धर्मश्च परमो गुरुः । नराणां पालको धर्मः, धर्मः प्राणिनो रक्षति |6।। हि. धर्म बन्धु है, मित्र है और धर्म उत्तम गुरु है, धर्म मनुष्यों का पालन करनेवाला है, धर्म जीवों का रक्षण करता है। D ३८ R - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. प्रा. दाणेण विणा न साहू, न हुंति साहूहिं विरहिअं तित्थं । दाणं दितेण तओ, तित्थुद्धारो कओ होइ ||7|| अतः सं. दानेन विना साधवो न भवन्ति, साधुभिर्विरहितं तीर्थं न । ततो दानं ददता, तीर्थोद्धारः कृतो भवति ||7|| हि. दान बिना साधु नहीं होते हैं, साधु बिना तीर्थ नहीं होता है, दान देने से तीर्थ का उद्धार किया हुआ होता है । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. मुनि शास्त्र के विषय में पण्डित होते हैं । प्रा. मुणओ सत्यम्मि अहिण्णवो हवन्ति । सं. मुनयः शास्त्रेऽभिज्ञ भवन्ति । 2. हि. तुम साधुओं के साथ हमेशा प्रतिक्रमण करते हो । प्रा. तुम्मे साहूहिं सह सया पडिक्कमणं करेह | सं. यूयं साधुभिः सह सदा प्रतिक्रमणं कु 3. हि. मैं मधु का त्याग करता हूँ । प्रा. हं महुं चयामि । सं. अहं मधु त्यजामि । 4. हि. योगी वन में रहते हैं और काम को जीततें हैं । प्रा. जोगिणो वणम्मि वसंति, कामं च जिणंति । सं. योगिनो वने वसन्ति, कामं च जयन्ति । 5. हि. मुनि उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य पालन करते हैं । प्रा. मुणओ उक्किट्ठे बंभचेरं पालिन्ति । सं. मुनयः उत्कृष्टं ब्रह्मचर्यं पालयन्ति । 6. हि. पंडित व्याधि से नहीं घबराते हैं । प्रा. अहिण्णवो वाहित्तो न मुज्झन्ति । सं. पण्डिताः व्याघौ न मुह्यन्ति 7. हि. वैद्य व्याधियों को दूर करते हैं । प्रा. वेज्जा वाहिणो हरेन्ति । सं. वैद्या: व्याधीन् हरन्ति । 8. हि. मैं स्तोत्रों द्वारा सर्वज्ञ भगवान की स्तुति करता हूँ । प्रा. हं थोत्तेहिं सव्वण्णुं थुणामि । सं. अहं स्तोत्रैः सर्वज्ञं स्तौमि । ३९ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. हि. ताराओं के मध्य में चन्द्र शोभता है । प्रा. तारगाणं मज्झे इंदू सोहइ । .. सं. तारकाणां मध्ये इन्दुः शोभते । 10. हि. राजा दुर्जनों को दण्ड करते हैं और सज्जनों का पालन करते हैं। __प्रा. निवइणो सढे दंडेन्ति, सज्जणे य पालेन्ति । सं. नृपतयः शठान् दण्डयन्ति, सज्जनांश्च पालयन्ति । हि. मधु भौरों को रुचता है । प्रा. महुं छप्पयाणं रुच्चइ । सं. मधु षट्पदेभ्यो रोचते । हि. वह सदा उद्यान में जाता है और आचार्यों तथा साधुओं को वंदन करता है। प्रा. सो निच्चं उज्जाणं गच्छइ, आयरिए मुणिणो य वंदए । सं. सः नित्यमुद्यानं गच्छति, आचार्यान् मुनींश्च वन्दते । 13. हि. साधु कभी भी पाप में प्रवृत्ति नहीं करते हैं। प्रा. साहवो कयावि पावम्मि न पवट्टन्ति । सं. साधवः कदापि पापे न प्रवर्तन्ते । हि. ऋषि मन्त्र द्वारा आकाश में उडता है। प्रा. रिसी मंतेण गयणं उड्डेइ । सं. ऋषिमन्त्रेण गगनमुड्डयते । 15. हि. मेघ पानी बरसाता है। प्रा. मेहो वारि वरिसइ । सं. मेघो वारि वर्षति । 16. हि. चन्द्र दिन में नहीं शोभता है । प्रा. दिणम्मि इंदू न सोहइ । सं. दिने इन्दुर्न शोभते । 17. हि. बालक दही खाते हैं। प्रा. बाला दहीं खाएन्ति । सं. बाला दधि खादन्ति । 18. हि. गुरु हमारे जैसे पापियों का भी उद्धार करते हैं। प्रा. गुरु अम्हारिसे पावे वि उद्धरेइ । सं. गुरुरस्मादृशान् पापानप्युद्धरति । - ४० - A Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 12 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद प्रा. सवण्णूणं अरिहंताणं भगवंताणं इक्को वि नमोक्कारो भवं छिंदेइ । सं. सर्वज्ञानामर्हतां भगवतामेकोऽपि नमस्कारो भवं छिनत्ति । हि. सर्वज्ञ अरिहंत भगवंतों को किया हुआ एक भी नमस्कार संसार को छेद डालता है। प्रा. जरागहिआ जंतुणो तं नत्थि, जं पराभवं न पावंति । सं. जरागृहीताः जन्तवस्तन्नाऽस्ति, यत् पराभवं न प्राप्नुवन्ति । हि. वृद्धावस्था द्वारा ग्रहण किये गये प्राणियों के समान कोई चीज नहीं है कि जो पराभव को प्राप्त न करे । प्रा. आणंदो संतिस्स चेइए नच्चं करेज्जा । सं. आनन्दः शान्तेश्चैत्ये नृत्यं करोति ।। हि. आनन्द श्रावक शान्तिनाथ के चैत्य में नृत्य करता है। 4. प्रा. पच्चूसे भाणुणो पयासो रत्तो होइ । सं. प्रत्यूषे भानोः प्रकाशो रक्तो भवति । हि. प्रभात में सूर्य का प्रकाश लाल होता है । प्रा. नमो पुज्जाणं केवलीणं गुरूणं च ।। सं. नमः पूज्येभ्यः केवलिभ्यो गुरूभ्यश्च । हि. पूज्य केवली भगवंतों और गुरु भगवंतों को नमस्कार हो । प्रा. पंडिआ मच्चुणो णेव बीहंति । सं. पण्डिता मृत्योर्नैव बिभ्यति । हि. पंडित मृत्यु से डरते नहीं हैं। 7. प्रा. तुम्हे गुरूओ विणा सुत्तस्स अट्ठाइं न लहेह । सं. यूयं गुरोविना सूत्रस्याऽर्थानि न लभध्वे । हि. तुम गुरु के बिना सूत्र के अर्थ प्राप्त नहीं कर सकते हो । 8. प्रा. जंतूण जीवाउं वारिमत्थि । सं. जंतूनां जीवातु वार्यस्ति । हि. प्राणियों का जीवन पानी है । 9. प्रा. रण्णे सिंद्याणं हत्थीणं च जुद्ध होइ । सं. अरण्ये सिंहानां हस्तीनां च युद्धं भवति । हि. जंगल में सिंहों और हाथियों का युद्ध होता है । - ४१ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. प्रा. केवली महुरेण झुणिणा पाणीणं धम्ममुवएसइ । सं. केवली मधुरेण ध्वनिना प्राणिभ्यो धर्ममुपदिशति । . हि. केवली भगवंत मधुर वाणी से प्राणियों को धर्म बताते हैं । 11. प्रा. सूरिणो अवराहेण साहूणं कुज्जंति । सं. सूरयोऽपराधेन साधुभ्यः क्रुध्यन्ति । हि. आचार्य अपराध के कारण साधुओं पर क्रोध करते हैं । 12. प्रा. अन्नाणिणो केवलिणो वयणं अवमन्नंति । सं. अज्ञानिनः केवलिनो वचनमवमन्यन्ते । हि. अज्ञानी केवली के वचन की अवज्ञा करते हैं । 13. प्रा. निवईहिन्तो कवओ बहुं धणं लहेइरे । सं. नृपतिभ्यः कवयो बहुधनं लभन्ते । हि. कवि राजाओं से बहुत धन प्राप्त करते हैं । 14. प्रा. अम्हे पहुणो पसाएण जीवामो । सं. वयं प्रभोः प्रसादेन जीवामः । हि. हम स्वामी की कृपा से जीते हैं । 15. प्रा. जइणो मणयं कासइ मन्नुं न कुणिज्जा । सं. यतयो मनागपि कस्मैचिन्मन्युं न कुर्वन्ति । हि. साधु किसी पर थोड़ा भी क्रोध नहीं करते हैं । 16. प्रा. अंगाराणं कज्जेण चंदणस्स तरुं को डहेइ ? । सं. अङ्गाराणां कार्येण चंदनस्य तरुं को दहति ? । हि. कोयले के कार्य के लिए चंदन के वृक्ष को कौन जलाये । 17. प्रा. मच्चुस्स सो पमाओ जं जीवो जियइ निमेसं पि । सं. मृत्योः स प्रमादो यज्जीवो जीवति निमेषमपि । हि. मृत्यु का वह प्रमाद है कि जिससे जीव पलक मात्र में भी जीते है । 18. प्रा. गिम्हस्स मज्झण्हे भाणुस्स तावो अईव तिक्खो होइ, पुव्वण्हे अवरण्हे य मंदो होइ । सं. ग्रीष्मस्य मध्याह्ने भानोस्तापोऽतीवतीक्ष्णो भवति, पूर्वाह्णेऽपराणे च मन्दो भवति । हि. ग्रीष्मकाल के दिन के मध्य भाग में सूर्य का ताप अत्यंत तीव्र होता है, दिन के पूर्व भाग और पिछले भाग में मंद होता है । ४२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. प्रा. गोयमाओ गणिणो पण्हाणमुत्तरं जाणिमो । सं. गौतमाद् गणिनः प्रश्नानामुत्तरं जानीमः । हि. गौतम गणधर से हम प्रश्नों के उत्तर जानते हैं। 20. प्रा. गुरुस्स विणएण मुरुक्खो वि पंडिओ होइ । सं. गुरोविनयेन मूर्योऽपि पण्डितो भवति । हि. गुरु के विनय से मूर्ख भी पण्डित बनते है। 21. प्रा. नत्थि कामसमो वाही, नत्थि मोहसमो रिऊ । नत्थि कोवसमो वण्ही, नत्थि नाणा परं सुहं ।।8।। सं. कामसमो व्याधिर्नास्ति, मोहसमो रिपुर्नास्ति ।। कोपसमो वह्निर्नास्ति, ज्ञानात् परं सुखं नास्ति ||8|| हि. काम समान व्याधि नहीं है, मोह समान दुश्मन नहीं है, क्रोध समान अग्नि नहीं है, ज्ञान से श्रेष्ठ सुख नहीं है । ।18।। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. शिष्य गुरु को प्रश्न पूछते हैं। प्रा. सीसा गुरुं पण्हाइं पुच्छंति । सं. शिष्या गुरून् प्रश्नानि पृच्छन्ति । हि. हम सर्वज्ञ भगवान के पास धर्म सुनते हैं। प्रा. अम्हे सवण्णुत्तो धम्मं सुणेमो । सं. वयं सर्वज्ञाद् धर्मं श्रृणुमः । हि. अज्ञानियों से पण्डित डरते हैं । प्रा. अन्नाणीसुतो अभिण्णु बीहेन्ति । -- सं. अज्ञानिभ्योऽभिज्ञाः बिभ्यति । हि. मैं हमेशा पुष्पों से शांति (जिन) की पूजा करता हूँ। प्रा. हं सब्बया पुप्फेहिं संतिं अच्चामि । सं. अहं सर्वदा पुष्पैः शान्तिमर्चयामि । .. हि. वह तीक्ष्ण शख से शत्रु को नष्ट करता है। प्रा. सो तिक्खेण सत्येण सत्तुं हणइ । सं. स तीक्ष्णेन शस्त्रेण शत्रु हन्ति । 6. हि. शान्ति (जिनेश्वर) के ध्यान से कल्याण होता है । प्रा. संतिस्स झाणेण कल्लाणं होइ । सं. शान्तेानेन कल्याणं भवति । श्री Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. हि. प्रमाद प्राणियों का परम शत्रु है लेकिन वीर पुरुष उसको जीतते हैं । प्रा. पमाओ पाणीणं परमो सत्तू अत्थि, किंतु वीरा पुरिसा तं जिणन्ति । सं. प्रमादः प्राणिनां परमः शत्रुरस्ति, किन्तु वीरास्तं जयन्ति । हि. केवली के वचन अन्यथा (विपरीत) नहीं होते हैं । 8. प्रा. केवलिणो वयणाइं अन्नहा न हवन्ति । सं. केवलिनो वचनान्यन्यथा न भवन्ति । 9. हि. कृष्ण नेमि (जिनेश्वर) के पास सम्यक्त्व प्राप्त करता है । प्रा. कण्हो नेमित्तो सम्मत्तं पावइ । सं. कृष्णो नेमेः सम्यक्त्वं प्राप्नोति । 10. हि. भौंरा मधु के लिए भ्रमण करता है । प्रा. छप्पओ महुणो अडइ । सं. षट्पदो मधुनेऽति । 11. हि. सैनिक राजा के पास द्रव्य की आशा रखता है । प्रा. जोहो निवइत्तो दव्वं आसंसइ । सं. योधो नृपतेर्द्रव्यमाशंसते । 12. हि. सिंह के शब्द से हिरनों का हृदय काँपता है । प्रा. सिंघस्स झुणिणा हरिणाणं हिययं कंपइ | सं. सिंहस्य ध्वनिना हरिणानां हृदयं कम्पते । 13. हि. चन्द्र का प्रकाश चित्त को आनंदित करता है । प्रा. इंदुस्स पयासो चित्तं आल्हाएइ । सं. इन्दोः प्रकाशश्चित्तमाल्हादयति । 14. हि. बंदर वृक्ष के पके फल खाते हैं । प्रा. कवओ तरुणो पक्काइं फलाई खाइज्जन्ति । सं. कपयस्तरोः पक्वानि फलानि खादन्ति । 15. हि. हम गुरु के पास धर्म सुनते हैं । प्रा. अम्हे गुरुतो धम्मं सुणेमो । सं. वयं गुरोर्धर्मं शृणुमः । 16. हि. मनुष्य व्याधियों से बहुत मुंझाते हैं । प्रा. जणा वाहिसुन्तो अईव मुज्झन्ति । सं. जना व्याधिभ्योऽतीव मुह्यन्ति । ४४ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. हि. बालकों को प्रभु का पूजन ( रुचता है) पसंद आता है । प्रा. बालाणं पहुस्स अच्चणं रुच्चइ । सं. बालेभ्यः प्रभोरर्चनं रोचते । 18. हि. सिंह हाथियों को फाड़ते हैं । प्रा. सिंघा हत्यिणो दारेन्ति । सं. सिंहाः हस्तिनो दारयन्ति । 19. हि. साधु शास्त्र का अपमान नहीं करते हैं । प्रा. साहवो सत्यं णाइं अवमन्नंति । सं. साधवः शास्त्रं नाऽवमन्यन्ते । 20. हि. हाथियों से सिंह डरते नहीं हैं । प्रा. हात्थित्तो सिंघा न बीहेन्ति । सं. हस्तिभ्यः सिंहाः न बिभ्यति । ४५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 13 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. जोहा सत्तूसु सत्थाणि मेल्लिन्ति । सं. योधाः शत्रुषु शस्त्राणि मुञ्चन्ति । हि. सैनिक शत्रुओं पर शस्त्र फेंकते हैं। 2. प्रा. विज्जत्थिणो प्रभाए पव्वं चिअ जग्गंति । सं. विद्यार्थिनः प्रभाते पूर्वमेव जाग्रति । हि. विद्यार्थी सुबह पहले ही जागते हैं। प्रा. सीसा गुरुम्मि वच्छला हवंति । सं. शिष्या गुरौ वत्सला भवन्ति । हि. शिष्य गुरु पर अनुरागवाले होते हैं। 4. प्रा. पक्खिणो तरुसुं वसंति । सं. पक्षिणस्तरुषु वसन्ति । हि. पक्षी वृक्षों पर रहते हैं। 5. प्रा. मुणिंसि परमं नाणमत्थि । सं. मुनौ परमं ज्ञानमस्ति । हि. मुनि में श्रेष्ठ ज्ञान है । 6. प्रा. जओ हरी पाणिम्मि वज्जं धरेइ, तओ लोआ तं वज्जपाणित्ति वयंति । सं. यतो हरिः पाणौ वज्रं धारयति, ततो लोकास्तं 'वज्रपाणिः' इति वदन्ति । हि. जिस कारण इन्द्र हाथ में वज्र धारण करता है, उस कारण लोक उसे 'वज्रपाणि' कहते हैं। 7. प्रा. सवण्णुणा जिणिंदेण समो न अन्नो देवो । सं. सर्वज्ञेन जिनेन्द्रेण समो नाऽन्यो देवः । हि. सर्वज्ञ जिनेश्वर समान अन्य कोई देव नहीं है। 8. प्रा. सिद्धगिरिणा समं न अन्नं तित्थं । सं. सिद्धगिरिणा समं नाऽन्यत् तीर्थम् । हि. सिद्धगिरि समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। -४६ - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. प्रा. मेरुम्मि असुरा असुरिंदा देवा देविन्दा य पहुणो महावीरस्स जम्मस्स महोसवं कुणन्ति । सं. मेरावसुरा असुरेन्द्रा देवा देवेन्द्राश्च प्रभोर्महावीरस्य जन्मनो महोत्सवं कुर्वन्ति । हि. मेरुपर्वत पर दानव, दानवेन्द्र, देव और देवेन्द्र प्रभु महावीर के जन्म का महोत्सव करते हैं। 10. प्रा. पक्खीसु के उत्तमा संति ? सं. पक्षीषु के उत्तमाः सन्ति ? हि. पक्षियों में कौन उत्तम हैं। 11. प्रा. अग्गिसि पाओ वरं, न उण सीलेण विरहियाणं जीविअं। सं. अग्नौ पातो वरं:रं, न पुनः शीलेन विरहितानां जीवितम् । हि. अग्नि में गिरना श्रेष्ठ (अच्छा), परन्तु शील से रहित (व्यक्ति) का जीवन अच्छा नहीं। 12. प्रा. साहूणं सच्चं सीलं तवो य भूसणमत्थि । सं. साधूनां सत्यं शीलं तपश्च भूषणमस्ति । हि. सत्य, शील और तप साधुओं का आभूषण है। प्रा. मूढा पाणिणो इमस्स असारस्स संसारस्स सरुवं न जाणिज्ज । सं. मूढाः प्राणिनोऽस्याऽसारस्य संसारस्य स्वरूपं न जानन्ति । हि. अज्ञानी जीव इस असार संसार के स्वरूप को नहीं जानते हैं। 14. प्रा. जं कल्ले कायलं, तं अज्जच्चिअ कायदं । सं. यत् कल्ये कर्तव्यं , तदद्यैव कर्तव्यम् । हि. जो (कार्य) आगामी दिन करना है, वह आज ही करना चाहिए । 15. प्रा. अमूसुं तरुसु कवी वसंति । सं. अमीषु तरुषु कपयो वसन्ति । हि. इन वृक्षों पर बंदर रहते हैं । 16. प्रा. हे सिसु ! तं दहिंसि बहुं आसत्तो सि । सं. हे शिशो ! त्वं दनि बवासक्तोऽसि । हि. हे बालक ! तू दही में बहुत आसक्त है । 17. प्रा. साहवो परोवयाराय नयराओ नयरंसि विहरेइरे । सं. साधवः परोपकाराय नगरान् नगरे विहरन्ति । हि. साधु परोपकार के लिए एक नगर से दूसरे नगर में विहार करते हैं। - -४७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. प्रा. वसहो वसहं पासेइ, ढिक्कइ अ। सं. वृषभो वृषभं पश्यति, गर्जति च । हि. बैल बैल को देखता है और गर्जना करता है। 19. प्रा. जणेसुं साहू उत्तमा संति ।। सं. जनेषु साधवः उत्तमाः सन्ति । हि. लोगों में साधु उत्तम हैं। 20. प्रा. हत्थिणो विंझम्मि वसंति । सं. हस्तिनो विन्ध्ये वसन्ति । हि. हाथी विन्ध्याचल पर्वत पर रहते हैं । 21. प्रा. हे सिसु ! तुं सम्मं अज्झयणं न अहिज्जेसि । सं. हे शिशो ! त्वं सम्यगध्ययनं नाऽधीषे । हि. हे बालक ! तू अच्छी तरह अध्ययन नहीं पढ़ता है । 22. प्रा. अन्नाणीसुं सत्ताणं रहस्सं न चिट्ठइ । सं. अज्ञानीषु सूत्राणां रहस्यं न तिष्ठति । हि. अज्ञानियों में सूत्र का रहस्य नहीं ठहरता है । 23. प्रा. गिम्हे दिग्धा दिवसा हुविरे । सं. ग्रीष्मे दीर्घा दिवसा भवन्ति । हि. ग्रीष्मकाल में दिन लम्बे होते हैं। 24. प्रा. सिसू ! तं जणए वच्छलो सि । सं. शिशो ! त्वं जनके वत्सलोऽसि । हि. हे बालक ! तू पिता पर स्नेहवाला है। 25. प्रा. जो दोषे चयइ, सो सव्वत्थ तरइ । सं. यो दोषांस्त्यजति, स सर्वत्र शक्नोति । हि. जो दोषों का त्याग करता है, वह सर्वत्र शक्तिमान होता है । 26. प्रा. गुणीसुं चेव गुणिणो रज्जंति नागुणीसु । सं. गुणिष्वेव गुणिनो रज्यन्ते, नाऽगुणिषु । हि. गुणवान पुरुष गुणी = गुणवान पर ही स्नेह रखते हैं, निर्गुण पर नहीं। 27. प्रा. सव्वेसु पाणीसु तित्थयरा उत्तमा संति । सं. सर्वेष प्राणीषु तीर्थकरा उत्तमाः सन्ति । हि. सभी प्राणियों में तीर्थंकर उत्तम हैं। - - ४८ ४८ - = Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. प्रा. जं पहूणं रोएइ, तं चेव कुणंति सेवगा निच्चं । सं. यत् प्रभुभ्यो रोचते, तदेव कुर्वन्ति सेवकाः नित्यम् । हि. जो स्वामी को पसन्द आता है, सेवक हमेशा वही करते हैं। 29. प्रा. सच्चं सुअं पि सीलं, विन्नाणं तह तवं पि वेरग्गं । वच्चइ खणेण सव्वं, विसयविसेण जइणं पि ।।9।। सं. विषयविषेण यतीनामपि सत्यं श्रुतमपि शीलं । विज्ञानं तथा तपोऽपि वैराग्यं सर्वं क्षणेन व्रजति ।।9।। हि. विषयरूपी जहर से साधुओं के भी सत्य, श्रुत, शील, विज्ञान, तप और वैराग्य ये सभी क्षणमात्र में चले जाते हैं ।।9।। 30. प्रा. जह जह दोसो विरमइ, जह जह विसएहि होइ वेरग्गं । तह तह वि नायवं, आसन्नंचिय परमपयं ||10|| सं. यथा यथा दोषो विरमति, यथा यथा विषयेभ्यो वैराग्यं भवति । तथा तथाऽपि परमपदमासन्नमेव ज्ञातव्यम् ||10|| हि. जैसे जैसे दोष दूर होते हैं, जैसे-जैसे विषयों से वैराग्य होता है, वैसे वैसे निश्चय मोक्ष (परमपद) नजदीक जानना । 31. प्रा. धन्नो सो जिअलोए, गुरवो निवसंति जस्स हिययंमि । धन्नाण वि सो धन्नो, गुरूण हियए वसइ जो उ ।।11।। सं. जीवलोके स धन्यः, यस्य हृदये गुरवो निवसन्ति । स धन्यानामपि धन्यः, यस्तु गुरूणां हृदये वसति ||11 ।। हि. जगत् में उसे धन्य है कि जिसके हृदय में गुरु रहते हैं, वह धन्यों (भाग्यशालियों) में भी भाग्यशाली है कि जो गुरु के हृदय में रहता है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. बालक कण्ठ में हार धारण करते हैं। प्रा. सिसवो कंठे हारे परिहाइरे । सं. शिशवः कण्ठे हारान् परिदधति । 2. हि. इन्द्र देवों को तीर्थंकर के अतिशय कहते हैं । प्रा. वज्जपाणी देवे तित्थयरस्स अइसए कहेइ । सं. वज्रपाणिर्देवान् तीर्थकरस्याऽतिशयान् कथयति । 3. हि. वह मद्य में बहुत आसक्त है। प्रा. सो महुम्मि बहु आसत्तो अत्थि । सं. स मधुनि बह्वासक्तोऽस्ति । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. हि. सर्वज्ञ में जो गुण होते हैं, वे गुण दूसरों में नहीं होते हैं। प्रा. सव्वणुम्मि जे गुणा हवन्ति, ते गुणा अन्नेसु न हवन्ति । सं. सर्वज्ञे ये गुणाः भवन्ति, ते गुणा अन्येषु न भवन्ति । 5. हि. उस पर्वत पर जहाँ गुरु रहते हैं, वहाँ मैं रहता हूँ। प्रा. तम्मि पव्वयंमि जहिं गुरु वसइ, तहिं अहं वसामि । सं. तस्मिन् पर्वते यस्मिन् गुरुर्वसति, तस्मिन्नहं वसामि । 6. हि. गुरुओं का विनय करने से विद्यार्थियों में ज्ञान बढ़ता है। प्रा. गुरूणं विणएण विज्जत्थीसुं नाणं वड्डए । सं. गुरुणां विनयेन विद्यार्थिषु ज्ञानं वर्धते । हि. जैसे पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, मनुष्यों में राजा और देवों में इन्द्र उत्तम है, उसी प्रकार सभी धर्मों में जीवों का रक्षण उत्तम है। प्रा. जहा पसूसुं सिंघो, पक्खीसु गरुलो, जणेसुं निवई, देवेसुं य हरी उत्तमो अत्थि, तहा सव्वेसुं धम्मेसुं पाणीणं रक्खणं उत्तमं अत्थि । सं. यथा पशुषु सिंहः, पक्षिषु गरुडः, जनेषु नृपतिः, देवेषु च हरिरुत्तमोऽस्ति, तथा सर्वेषु धर्मेषु प्राणिनां रक्षणमुत्तममस्ति । 8. हि. पक्षियों में उत्तम पक्षी कौन है ? प्रा. पक्खीसु उत्तमो पक्खी को अत्थि ? | सं. पक्षिषूत्तमः पक्षी कोऽस्ति ? । 9. हि. इस पानी में बहुत मछलियाँ हैं। प्रा. इमम्मि वारिम्मि बहवो मच्छा संति । सं. अस्मिन् वारिणि बहवो मत्स्याः सन्ति । 10. हि. अब मैं शत्रुओं के साथ लड़ता हूँ। प्रा. इयाणिं हं सत्तूहिं सह जुज्झामि । सं. इदानीमहं शत्रुभिस्सह युध्ये । 11. हि. प्राणियों को जीवन देनेवाला धर्म है। प्रा. जंतूणं जीवाऊ धम्मो अत्थि । सं. जन्तूनां जीवातुर्धर्मोऽस्ति । हि. पर्वतों में मेरु उत्तम है । प्रा. गिरीसु मेरु उत्तमो अस्थि । सं. गिरीषु मेरुस्तमोऽस्ति । G ५० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. हि. पण्डित अज्ञानियों का विश्वास नहीं करते हैं। प्रा. अभिण्णओ अन्नाणी न वीससन्ति । सं. अभिज्ञा अज्ञानिनो न विश्वसन्ति । 14. हि. मनुष्य तालाब में जल भरता है। प्रा. जणो तलायम्मि वारि भरइ । सं. जनस्तडागे वारि बिभर्ति । 15. हि. हे बालको ! तुम कहाँ जाते हो ? प्रा. हे सिसू ! तुब्भे कहिं गच्छह ? ___ सं. हे शिशवः ! यूयं कुत्र गच्छथ ? 16. हि. हम सिद्धाचल जाते हैं । प्रा. अम्हे सिद्धगिरिं गच्छेमो । सं. वयं सिद्धगिरिं गच्छामः । 17. हि. सरोवर के पानी में कमल हैं। प्रा. सरस्स वारिम्मि कमलाइँ सन्ति । सं. सरसो वारिणि कमलानि सन्ति । 18. हि. साधु शत्रुओं से नहीं डरते हैं । प्रा. साहवो सत्तुत्तो न बीहेइरे । सं. साधवः शत्रोर्न बिभ्यति । 19. हि. भिक्षु कृपण (कंजूस) के पास द्रव्य मांगता है। प्रा. भिक्खू किवणं दव्वं जाएइ । सं. भिक्षुः कृपणं द्रव्यं याचते । 20. हि. बालक चन्द्र के दर्शन से नेत्रों में सुख प्राप्त करता है। प्रा. सिसू इंदुस्स दंसणेण नेत्तेसुं सुहं लहइ । सं. शिशुरिन्दोर्दर्शनेन नेत्रयोः सुखं लभते । 21. हि. साधुओं को मृत्यु का भय नहीं होता है । प्रा. साहूणं मच्चुस्स भयं न होइ । सं. साधूनां मृत्योर्भयं न भवति । 22. हि. मुनियों में गौतम गणधर पर अत्यंत राग है। प्रा. मुणीणं गोयमे गणहरे अईव रागो अत्थि । सं. मुनीनां गौतमे गणधरेऽतीव रागोऽस्ति । - ५१ - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 14 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. गोयमो गणहरो पहुं महावीरं धम्मस्स अधम्मस्स य फलं पुच्छीय । सं. गौतमो गणधरः प्रभुं महावीरं धर्मस्याऽधर्मस्य च फलमपृच्छत् । हि. गौतम गणधर ने प्रभु महावीर को धर्म और अधर्म का फल पूछा। 2. प्रा. पच्चूसे साहुणो पुरिमं देववंदणं समायरीअ, पच्छा य सत्थाणि पढीअ । सं. प्रत्यूषे साधवः पूर्वं देववन्दनं समाचरन् पश्चाच्च शास्त्राण्यपठन् । हि. प्रभात में साधुओं ने पहले देववंदन किया और बाद में शास्त्र पढ़े। 3. प्रा. रायगिहे नयरे सेणिओ नाम नरवई होत्या, तस्स पुत्तो अभयकुमारो नाम आसि, सो य विन्नाणे अईव पंडिओ हुवीअ । सं. राजगृहे नगरे श्रेणिको नाम नरपतिरभवत्, तस्य पुत्रोऽभयकुमारो नामाऽसीत्, स च विज्ञानेऽतीवपण्डितोऽभवत् । हि. राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था, उसके अभयकुमार नामक पुत्र था और वह विज्ञान में अतिपण्डित था । 4. प्रा. गिम्हे काले विसमेण आयवेण हालिओ दुक्खिओ होसी । सं. ग्रीष्मे काले विषमेणाऽऽतपेन हालिको दुःखितोऽभवत् । हि. ग्रीष्मकाल में प्रचंड ताप से किसान दुःखी हुआ । 5. प्रा. अज्जच्च कुंभारो बहू घडे कासी । सं. अद्यैव कुम्भकारो बहून् घटानकरोत् । हि. आज ही कुंभार ने बहुत घड़े बनाये । 6. प्रा. सरए ससंको जणस्स हिए आणंदं काहिअ | . सं. शरदि शशाङ्को जनस्य हृदये आनन्दमकरोत् । हि. शरद ऋतु में चन्द्र ने लोगों के हृदय में आनंद किया । 7. प्रा. सीयाले मयंकस्य पयासो सीयलो अहेसि । सं. शीतकाले मृगाङ्कस्य प्रकाश: शीतल आसीत् । हि. शीतकाल में चन्द्र का प्रकाश शीतल था । 8. प्रा. बालो जणयस्स विओगेण दुहिओ अभू । सं. बालो जनकस्य वियोगेन दुःखितोऽभवत् । हि. बालक पिता के वियोग (विरह) से दुःखी हुआ । LI Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ 9. प्रा. नेहेण सो अच्चंतं दुक्खं पावीअ । __ सं. स्नेहेन सोऽत्यन्तं दुःखं प्राप्नोत् । हि. उसने स्नेह से अत्यंत दुःख पाया । 10. प्रा. तित्थयराणं उसहो पढमो होत्था । सं. तीर्थकराणामृषभः प्रथमोऽभवत् । हि. तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम हुए । 11. प्रा. नाणेण दंसणेण संजमेण तवेण य साहवो सोहिंसु । ___ सं. ज्ञानेन दर्शनेन संयमेन तपसा च साधवोऽशोभन्त । हि. साध ज्ञान, दर्शन, संयम और तप से शोभते थे। प्रा. ते जिणिंदं अदक्षु, दंसणमेत्तेण य सम्मत्तं चरितं च लहीअ | सं. ते जिनेन्द्रमद्राक्षुः, दर्शनमात्रेण च सम्यक्त्वं चारित्रं चाऽलभन्त । हि. उन्होंने जिनेश्वर को देखा और देखने (दर्शन) मात्र से सम्यक्त्व और चारित्र प्राप्त किया । 13. प्रा. जो जारिसं ववसेज्ज, फलं पि सो तारिसं लहेज्ज | सं. यो यादृग् व्यवस्यति , फलमपि स तादृग् लभते । हि. जो जैसा प्रयत्न करता है, वह फल भी वैसा ही पाता है । प्रा. निहुरो जणो सुत्तेवि जणे खग्गेण पहरीअ । सं. निष्ठुरो जनः सुप्तेऽपि जने खड्गेन प्राहरत् । हि. निर्दय मनुष्य ने सोये हुए भी मनुष्य पर तलवार से प्रहार किया । 15. प्रा. धम्मो धम्मिटुं परिसं सग्गं नेसी । सं. धर्मो धर्मिष्ठं पुरुषं स्वर्गमनयत् । हि. धर्म धार्मिक पुरुष को स्वर्ग में ले गया । 16. प्रा. नरिंदो देसस्स जएण तूसीअ । सं. नरेन्द्रो देशस्य जयेनाऽतुष्यत् । हि. राजा देश की जीत से खुश हआ। 17. प्रा. पक्खी उज्जाणे तरूसुं महुरं सदं कुणीअ । ___ सं. पक्षिण उद्याने तरुषु मधुरं शब्दमकुर्वन् । हि. पक्षियों ने बगीचे में वृक्षों पर मधुर ध्वनि की । 18. प्रा. स अवोच तुं अधम्मं काही, तेण दुहं लहीअ | सं. सोऽवोचत् त्वमधर्ममकरोः, तेन दुःखमलभथाः । हि. वह बोला, तूने अधर्म किया, इसलिए तूने दुःख पाया । - ५३ - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. प्रा. पुरा अम्हे दुवे बंधुणो आसिमो । सं. पुराऽऽवां द्वौ बन्धू आस्वः । हि. पहले हम दो भाई थे । 20. प्रा. अम्हो मग्गे साऊणि फलाई जेमीअ । सं. वयं मार्गे स्वादूनि फलान्यभुमहि । हि. हमने मार्ग में स्वादिष्ट फल खाये । 21. प्रा. स अपढणेण मुक्खो होत्था । सं. सोऽपठनेन मूर्खो अभवत् । हि. वह नहीं पढ़ने से मूर्ख बना । 22. प्रा. सतह नरिंदं सेवित्था, जहा बहुं दव्वं तस्स होही । सं. स तथा नरेन्द्रमसेवत, यथा बहु द्रव्यं तस्याऽभवत् । हि. उसने राजा की वैसी सेवा की कि जिससे उसको बहुत धन मिला । 23. प्रा. पारेवओ सडिअं धन्नं कयावि न खाएज्जा । सं. पारापतः शटितं धान्यं कदापि न खादति । हि. कबूतर सड़ा हुआ अनाज कभी भी नहीं खाता है । 24. प्रा. केसरी अज्ज उज्जाणे वसीअ, इअ सो अब्ववी । सं. केसरी अद्योद्यानेऽवसत् इति सोऽब्रवीत् । हि. 'सिंह आज उद्यान में रहा है', इस प्रकार वह बोला । 25. प्रा. गणहरा सुत्ताणि रइंसु । 7 सं. गणधरा सूत्राण्यरचयन् । हि. गणधर भ. ने सूत्रों की रचना की । 26. प्रा. जिणीसरो अटुं वागरित्था । सं. जिनेश्वरोऽर्थं व्याकरोत् । हि. जिनेश्वर भ. ने अर्थ कहा (बताया) । 27. प्रा. बंभचेरेण बंभणा जाइंसु । सं. ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणा अजायन्त । हि. ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण बने । 28. प्रा. सोत्तं सुएणं न हि कुंडलेण, दाणेण पाणी न य भूसणेण । सहेइ देहो करुणाजुआणं, परोवयारेण न चंदणेण ||12|| सं. श्रोत्रं श्रुतेन कुण्डलेन न हि पाणिर्दानेन भूषणेन न च । , करुणायुतानां देहः, परोपकारेण राजते, चन्दनेन न ||12|| ५४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. कान श्रुत के श्रवण से शोभते हैं, कुंडल से नहीं, हाथ दान से शोभते हैं आभूषण से नहीं, दयालु मनुष्यों का देह परोपकार से शोभता है चन्दन से नहीं । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. अमृत पीया लेकिन अमर नहीं हुआ । प्रा. अमियं पासी, किन्तु अमरो न हवीअ । सं. अमृतमपिबत्, किन्त्वमरो नाऽभवत् । 2. हि. पराक्रम से शत्रुओं को जीता । प्रा. परक्कमेण सत्तू जिणीअ । सं. पराक्रमेण शत्रूनजयत् । हि. मुसाफिरों ने वृक्ष के नीचे विश्रान्ति ली । पावासुणो वच्छस्स अहो विस्समीअ । प्रा. सं. प्रवासिनो वृक्षस्याऽधो व्यश्राम्यन् । 3. 4. हि. राम ने गुरु के आदेश का अनुसरण किया इसलिए सुखी हुआ । प्रा. रामो गुरुस्स आएसं अणुसरीअ तत्तो सुही अभू । सं. रामो गुरोरादेशमन्वसरत्, ततः सुख्यभवत् । 5. हि. प्रवासी ने किसान को रास्ता पूछा 1 प्रा. पवासी हालिअं मग्गं पुच्छीअ । सं. प्रवासी हालिकं मार्गमपृच्छत् । 6. हि. दक्षिण दिशा का पवन बरसात लाया । प्रा. दाहिणिल्लो वाऊ वरिसं आणेसी । सं. दाक्षिणात्यो वायुर्वर्षामानयत् । ! 7. हि. सज्जन दुर्जन के जाल में पड़ा । प्रा. सज्जणो दुज्जणस्स जालंमि पडीअ । सं. सज्जनो दुर्जनस्य जालेऽपतत् । 8. हि. उसने प्राणान्ते भी अदत्त का ग्रहण नहीं किया । सो जीवितेवि अदत्तं न गिण्हीअ । प्रा. सं. स जीवितान्तेऽप्यदत्तं नाऽगृह्णात् । 9. हि. जैन धर्म में जैसा तत्त्वों का ज्ञान देखा, वैसा अन्य में नहीं देखा । प्रा. जइणधम्मे जारिस तत्ताणं नाणं देक्खीअ, तारिस अन्नंमि न पेक्खी । सं. जैनधर्मे यादृशं तत्त्वानां ज्ञानमपश्याम, तादृशमन्यस्मिन्नाऽपश्याम | ५५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. हि. सुख और दुःख इस संसारचक्र में जीव ने अनंतबार भुगता है, उसमें आश्चर्य क्या ? प्रा. सुहं दुहं च एयम्मि संसारचक्कंमि अणंतखुत्तो जीवो अणुहवीअ, तम्मि किं अच्छेरं ? | सं. सुखं दुःखं चैतस्मिन् संसारचक्रेऽनन्तकृत्वो जीवोऽन्वभवत् , तस्मिन् किमाश्चर्यम् ? | हि. तूने पाप से बचाया, इसलिए तेरे जैसा दूसरा कौन उत्तम होगा ? | प्रा. तुं पावत्तो रक्खीअ , तत्तो तुम्हारिसो अन्नो को उत्तमो होइ ? | सं. त्वं पापादरक्षः, ततस्त्वादृशोऽन्यः क उत्तमो भवति ? | 12. हि. रावण ने नीति का उल्लंघन किया, इस कारण वह मरण को प्राप्त हुआ । प्रा. रावणो नयं अइक्कमीअ, तत्तो सो मच्चुं पावीअ । सं. रावणो नयमत्यक्राम्यत्, ततः स मृत्युं प्राप्नोत् । 13. हि. पण्डित मृत्यु से नहीं डरे । प्रा. पंडिआ मच्चुत्तो न बीहीअ । सं. पण्डिताः मृत्योर्नाऽबिभयुः । 14. हि. शिष्यों ने गुरु के पास ज्ञान ग्रहण किया । प्रा. सीसा गुरुत्तो नाणं गिण्हीअ । सं. शिष्याः गुरोर्ज्ञानमगृह्णन् । 15. हि. भव्य जीवों ने तीर्थंकर की पूजा से नित्य सुख प्राप्त किया । प्रा. बहवो भव्वा जीवा तित्थयरस्स अच्चणेण सासयं सह लहीअ । सं. बहवो भव्या जीवास्तीर्थकरस्याऽर्चनेन शाश्वतं सुखमलभत । 16. हि. तुम दोनों प्रभात में कहाँ रहे ? प्रा. तुम्हे वे पच्चूसे कहिं वसीअ ? | सं. युवां द्वौ प्रत्यूषे कुत्राऽवसतम् ? | 17. हि. हमने प्रभु महावीर के पास धर्म प्राप्त किया । प्रा. अम्हे पहुत्तो महावीरत्तो धम्मं पावीअ | सं. वयं प्रभोर्महावीराद् धर्मं प्राप्नुम । 18. हि. यहाँ धर्म ही धन और सुख का कारण है। प्रा. एत्थ धम्मोच्चिअ धणस्स सुहस्स य कारणं अत्थि । सं. अत्र धर्म एव धनस्य सुखस्य च कारणमस्ति । ५६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. हि. उनमें ज्ञान था इसलिए उनकी पूजा की। प्रा. तेसुं नाणं हवीअ, तत्तो ते अच्चीअ । सं. तेषु ज्ञानमासीत्, ततस्तानार्चयन् । 20. हि. तू गुरु की वैयावच्च से एकदम होशियार बना । प्रा. तुं गुरुणो वेयावच्चेण सहसा निउणो हवीअ । सं. त्वं गुरोर्वैयावृत्येन सहसा निपुणोऽभवः । हि. वह नगर के बाहर गया और उसने रीछों का युद्ध देखा । प्रा. सो नयरत्तो बहिं गच्छीअ, रिक्खाणं च जुद्धं पासीअ । सं. स नगराद् बहिरगच्छत्, ऋक्षाणां च युद्धमपश्यत् । 22. हि. मैंने मंदिर के ध्वज पर मयूर देखा । प्रा. मंदिरस्स धयम्मि हं मोरं देक्खीअ । सं. मंदिरस्य ध्वजेऽहं मयूरमपश्यम् । - ५७ - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 1. प्रा. तुम्हे एत्थ चिठ्ठेह, वीरं जिणं अम्हे अच्चेमो । सं. यूयमत्र तिष्ठत, वीरं जिनं वयमर्चामः । हि. तुम यहाँ खड़े रहो, हम वीर जिनेश्वर की पूजा करते हैं । 2. प्रा. सच्चं बोल्लिज्जा । सं. सत्यं वदेत् । हि. सत्य बोलना चाहिए । 4. पाठ 15 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 5. - प्रा. धम्मं समायरे । सं. धर्मं समाचरेत् । हि. धर्म करना चाहिए । प्रा. उज्जमेण विणा धर्मं न लहेमु । सं. उद्यमेन विना धर्मं न लभेय । हि. मैं प्रयत्न किये बिना धर्म प्राप्त नहीं करूँ । प्रा. सुत्तस्स मग्गेण चरिज्ज भिक्खू । सं. सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्षुः । हि. साधु को सूत्र (शास्त्र) के अनुसार चलना चाहिए । 6. प्रा. जो गुरुकुले निच्चं वसेज्ज, सो सिक्खणं अरिहेइ । सं. यो गुरुकुले नित्यं वसेत्, स शिक्षणमर्हति । हि. जो हमेशा गुरुकुल में रहता है, वह शिक्षण (ज्ञान) के योग्य बनता है । 7. प्रा. मुषावायं न वएज्जसि । सं. मृषावादं न वदेः । हि. तुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए । 8. प्रा. तुं नयं न चयिज्जे । सं. त्वं नयं न त्यजेः । हि. तुझे नीति का त्याग नहीं करना चाहिए । 9. प्रा. जइ तुम्हे विज्जत्थिणो अत्थि, तया सुहं चएह, पढणे य उज्जमह । सं. यदि यूयं विद्यार्थिनः स्थ, तदा सुखं त्यजत, पठने चोद्यच्छत । हि. जो तुम विद्या के अर्थी हो, तो सुख का त्याग करो और पढ़ने में उद्यम करो । ५८ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. प्रा. अहं दुद्धं पासी, तुम्हे वि पिवेह । सं. अहं दुग्धमपिव्वम्, यूयमपि पिबत । हि. मैंने दूध पीया, तुम भी पीओ । प्रा. तुब्मे साहूणं समीवं हियाइं वयणाइं सुणिज्जाह, अहंपि सुणामु । सं. यूयं साधूनां समीपं हितानि वचनानि शृणुत, अहमपि शृणवानि । हि. तुम साधुओं के पास हितकारी वचन सुनो, मैं भी सुनूँ । प्रा. भवाओ विरत्ताणं पुरिसाणं गिहे वासो किं रोएज्ज ? सं. भवाद् विरक्तेभ्य: पुरुषेभ्यो गृहे वास: किं रोचेत ? हि. संसार से विरक्त पुरुषों को क्या घर में रहना पसंद आता है ? 13. प्रा. जइणं सासणं चिरं जयउ । सं. जैनं शासनं चिरं जयतु । - हि. जैन शासन चिरकाल तक जय पाये। 14. प्रा. आइरिया दीहं कालं जिणिंत । सं. आचार्या दीर्घ कालं जयन्तु । हि. आचार्य दीर्घकाल तक जय पायें। 15. प्रा. नायपुत्तो तित्थं पवट्टेउ । सं. ज्ञातपुत्रस्तीर्थं प्रवर्तताम् । हि. ज्ञातपुत्र = महावीर भ. तीर्थ प्रवर्तायें । 16. प्रा. तुं अकज्जं न कुणेज्जसु, सच्चं च वइज्जहि । सं. त्वमकार्यं न कुर्या:, सत्यं च वदेः । हि. तू अकार्य नहीं कर और सत्य बोल । प्रा. गुरूणं विणएण वेयावडिएण य नाणं पढे । सं. गुरूणां विनयेन, वैयावृत्येन च ज्ञानं पठेत् । हि. गुरु भगवंतों की विनय और सेवापूर्वक ज्ञान पढ़ना चाहिए । 18. प्रा. अत्थो च्चिअ परिवड्ढउ, जेण गुणा पायडा हुंति । सं. अर्थ एव परिवर्द्धताम् , येन गुणाः प्रकटा भवन्ति । हि. धन निश्चय बढ़े, जिससे गुण प्रगट होते हैं । 19. प्रा. जइ सिवं इच्छेह, तया कामेहिन्तो विरमेज्ज । ___ सं. यदि शिवमिच्छेत, तदा .कामेभ्यो विरमेत । हि. जो तुम मोक्ष की इच्छा रखते हो तो काम = इच्छाओं से विराम पाओ। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. प्रा. सज्जणे तुम्हे मा निन्देह । सं. सज्जनान् यूयं मा निन्दत । हि. तुम सज्जनों की निन्दा मत करो। 21. प्रा. पाणीणं अप्पकरं नाणं दंसणं चरितं च अत्थि, न अन्नं किंपि, तओ तेहिं चिय संसारा पारं वच्चेह । सं. प्राणीनामात्मीयं ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च सन्ति , नाऽन्यत् किमपि, ततस्तैरेव , संसारात् पारं व्रजत । हि. प्राणियों का ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही उनका अपना है, अन्य कुछ नहीं, इसलिए उसके द्वारा ही संसार से पार उतरो । 22. प्रा. सढेसं माइं वीससेज्जइ । सं. शठेषु मा विश्वस्यात् । हि. दुर्जनों पर विश्वास नहीं करना चाहिए । 23. प्रा. सज्जणेहिं सद्धिं विरोहं कया वि न कुज्जा । सं. सज्जनैः सार्धं विरोधं कदापि न कुर्यात् । हि. सज्जनों के साथ कभी भी विरोध नहीं करना चाहिए । 24. प्रा. हे ईसर ! अम्हारिसे पावे जणे रक्खरक्ख रक्खेहि । सं. हे ईश्वर ! अस्मादृशान् पापाञ् जनान् रक्ष रक्ष । हि. हे ईश्वर ! हमारे जैसे पापी मनुष्यों का रक्षण करो, रक्षण करो । प्रा. पाणिवहो धम्माय न सिया । सं. प्राणिवधो धर्माय न स्यात् । हि. जीवहिंसा धर्म के लिए न हो। . प्रा. सच्चं, पियं च परलोयहियं च वएज्जा नरा | __सं. सत्यं, प्रियं च परलोकहितं च वदेयुनराः । हि. मनुष्यों को सत्य, प्रिय और परलोक में हितकारी बोलना चाहिए । प्रा. जइ न हुज्जइ आयरिया, को तया जाणिज्ज सत्थस्स सारं ? । सं. यदि न भवेयुराचार्याः, कस्तदा जानीयाच्छास्त्रस्य सारम् ? | हि. जो आचार्य भ. न हों तो शास्त्र के सार को कौन जाने ?। 28. प्रा. 'होज्जा 'जले विजलणो, होज्जा खीरं पि गोविसाणाओ। 'अमयरसो वि विसाओ, "नय पाणिवहा "हवइ धम्मो ||13|| सं. जलेऽपि ज्वलनो भवेत्, गोविषाणात् क्षीरमपि भवेत् । विषादप्यमृतरसः, प्राणिवधाद् धर्मो न च भवति ||13|| स्यात् । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. कदाचित् पानी में से भी अग्नि हो, कदाचित् गाय के सींग में से दूध हो, कदाचित् विष में से भी अमृत हो किन्तु जीवहिंसा से धर्म नहीं होता है। 29. प्रा. स्वरिसंतु 'घणा मा वा, श्मरंतु "रिऊणो अहं निवो व्होज्जा । सो "जिणउ "परो 12भज्जउ, एवं "चिंतणमवज्झाणं ।।14|| सं. घना वर्षन्तु मा वा, रिपवो म्रियन्तां, अहं नृपो भवेयम् । स जयतु, परो भनक्तु, एवं चिंतनमपध्यानम् ।।14।। हि. बरसात (पानी की वृष्टि) हो अथवा न हो, शत्रु मरें, मैं राजा बनूँ, उसकी जीत हो, दूसरे हार जाये, इस प्रकार का चिंतन करना वह दुर्ध्यान है। 30. प्रा. 'गुणिणो गुणेहिं 'विहवेहि, विहविणो 'होंतु गविआ नाम । दोसेहि नवरि 10गव्वो, "खलाण 12मग्गो च्चि अ 13अउव्वो ||15।। सं. गुणिनो गुणैः, विभवैर्विभविनो गर्विता नाम भवन्तु । नवरं दोषैर्गर्वः, खलानां मार्गो अपूर्व एव ।।1511 हि. गुणवान पुरुष गुणों से, धनवान पुरुष धन से (कदाचित्) गर्वित बने, किन्तु दोषों से गर्व करना यह दुर्जनों का मार्ग अपूर्व ही है। 31. प्रा. 'जइ वि दिवसेण 'पयं, 11धरेह पक्खेण श्वा "सिलोगद्धं । उज्जोगं 13मा 1 मुंचह, 'जइ 'इच्छह सिक्खिउं नाणं ||16।। सं. यदि ज्ञानं शिक्षितुमिच्छत, यद्यपि दिवसेन पदं धारयत । पक्षेण वा श्लोकार्द्धम् , उद्योगं मा मुञ्चत ||16|| हि. जो तुम ज्ञान पढ़ने = प्राप्त करने की इच्छा रखते हो तो एक दिन में एक पद अथवा पक्ष = पन्द्रह दिन में आधा श्लोक याद करो, किन्तु प्रयत्न नहीं छोड़ो। 32. प्रा. कुणउ तवं पालउ, संजमं पढउ सयलसत्थाई । 'जाव न झायइ जीवो, "ताव उन 12मुक्खो "जिणो 15भणइ ।।17।। सं. तपः करोतु, संयमं पालयतु, सकलशास्त्राणि पठतु | यावज्जीवो न ध्यायति, तावन् मोक्षो न, जिनो भणति ||17।। हि. तप करो, संयम का पालन करो, सर्वशास्त्र पढ़ो, लेकिन जब तक जीव शुभ ध्यान नहीं करता है तब तक मोक्षप्राप्ति नहीं है, इस प्रकार श्रीजिनेश्वर परमात्मा कहते हैं। ६१ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. प्रभात में स्तोत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति करनी चाहिए और तत्पश्चात् अध्ययन करना चाहिए। प्रा. पच्चूसे थोत्तेहिं पहुं थुणेज्जा, पच्छा य अज्झयणं भणेज्जा । __सं. प्रत्यूषे स्तोत्रैः प्रभुं स्तुयात्, पश्चाच्चाऽध्ययनं भणेत् । हि. व्यापार की तरह मनुष्य को हमेशा धर्म में उद्यम करना चाहिए। प्रा. वावारंमि इव जणो सया धम्ममि वि उज्जमेउ । सं. व्यापार इव जनः सदा धर्मेऽप्युद्यच्छतु । हि. विद्याधर विमानों द्वारा गमन करो । प्रा. विज्जाहरा विमाणेहिं गच्छन्तु । सं. विद्याधराः विमानैर्गच्छन्तु । हि. इन्द्र ने कुबेर को हुक्म किया कि ज्ञातपुत्र के घर द्रव्य की वृष्टि करो। प्रा. हरी वेसमणं आदिसीअ, णायपुत्तस्स गेहम्मि दवं वरिसेज्जहि । सं. हरिर्वैश्रमणमादिशत्, ज्ञातपुत्रस्य गृहे द्रव्यं वर्ष । 5. हि. तुम धर्म से जीओ और सत्य से सुखी बनो । प्रा. तुब्भे धम्मेण जीवेह , सच्चेण य सुहिणो होएज्जाह | सं. यूयं धर्मेण जीवत, सत्येन च सुखिनो भवत । हि. गुरु भ. का आदेश नहीं उल्लंघना चाहिए । प्रा. गुरुणो आएसं माइ अइक्कमेज्ज | सं. गुरोरादेशं माऽतिक्रमेत । हि. हे बालक ! तू मिथ्या राख (भस्म) में घी नहीं डाल । प्रा. हे बाल ! तुं मुडा भस्सम्मि घयं मा पक्खिवसु । सं. हे बाल ! त्वं मुधा भस्मनि घृतं मा मुञ्चेः । हि. तुम्हें उपाध्याय के पास व्याकरण सीखना चाहिए । प्रा. तुम्हे उवज्झायस्स समीवे वागरणं पढेह । सं. यूयमुपाध्यायस्य समीपे व्याकरणं पठेत । 9. हि. युवानी में धर्म करना चाहिए। प्रा. जोवणंमि धम्मं करेज्जा । सं. यौवने धर्मं कुर्यात् । ६२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. हि. करने योग्य कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए । प्रा. कायव्वे कज्जे न पमज्जेज्ज । सं. कर्तव्ये कार्ये न प्रमाद्येत । 11. हि. साधुओं को दिन में ही विहार करना चाहिए । प्रा. साहवो दिणम्मि चेव विहरेन्तु । सं. साधवो दिने चैव विहरेयुः । सुन 12. हि. तू मिथ्या (झूठा) कोप न कर, हित को प्रा. तुं मिच्छा कोवं मा करसु, हियं च सुणसु । सं. त्वं मिथ्या कोपं मा कुरु, हितं च श्रृणु । प्रा. 13. हि. तुम पंडित हो इसलिए तत्त्व का विचार करो । तु पंडिआ अस्थि, तत्तो तत्ताइं चिन्तेह | सं. यूयं पण्डिताः स्थ, ततस्तत्त्वानि चिन्तयत । 14. हि. लोभ को संतोष द्वारा छोड़ । प्रा. लोहं संतोसेण मुंचहि । सं. लोभं संतोषेण मुञ्च । 15. हि. सभी तीर्थों में शत्रुंजय तीर्थ उत्तम है अतः तू वहाँ जा, और पापों का क्षय कर । / प्रा. सव्वेसुं तित्थेसुं सत्तुंजयं तित्थं उत्तिमं अत्थि, तत्तो तुं तहिं गच्छसु, कल्लाणं कुणसु, पावाइं च निज्जरसु । कल्याण कर सं. सर्वेषु तीर्थेषु शत्रुञ्जयं तीर्थमुत्तममस्ति, ततस्त्वं तत्र गच्छ, कल्याणं कुरु, पापानि च निर्घृणीहि । , 16. हि. संतोष में जैसा सुख है, वैसा सुख अन्य में नहीं है अतः संतोष धारण करना चाहिए । तत्तो प्रा. संतोसंमि जारिसं सुहं अत्थि, तारिसं सुहं अन्नंमि नत्थि, संतो धज्ज | सं. सन्तोषे यादृशं सुखमस्ति तादृशं सुखमन्यस्मिन् नाऽस्ति ततः सन्तोषं धारयेत । ६३ 17. हि. जीव वृद्धावस्था में धर्म करने हेतु समर्थ नहीं बनता है । प्रा. जीवो वुढत्तणंमि धम्मस्स करणाय समत्थो न होइ । सं. जीवो वृद्धत्वे धर्मस्य करणाय समर्थो न भवति । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. हि. ( अच्छी तरह) पका हुआ धान्य खाना चाहिए । प्रा. सुपक्कं धन्नं खाएज्ज । सं. सुपक्वं धान्यं खादेत् । 19. हि. प्रतिदिन जिनेश्वर का दर्शन और गुरु भ. का उपदेश सुनना चाहिए । प्रा. सया जिणस्स दंसणं (करेज्ज), गुरुणो य उवएस सुणेज्ज । सं. सदा जिनस्य दर्शनं (कुर्यात् ), गुरोरुपदेशं च श्रृणुयात् 20. हि. जो संसार से तारक है उस ईश्वर की निन्दा मत कर । प्रा. जो संसारत्तो तारगो अत्थि, तं ईसरं मा निंदहि | सं. यः संसारात्तारकोऽस्ति, तमीश्वरं मा निन्द | * Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 16 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. जस्स जओ आइच्चो उदेइ, सा तस्स होइ पुवा दिसा, जत्तो य अत्थमेइ सा उ अवरादिसा नायव्वा, दाहिणपासम्मि य दाहिणा दिसा, उत्तरा उ वामेण । सं. यस्य यत आदित्य उदेति, सा तस्य भवति पूर्वा दिग्, यतश्चाऽस्तमेति, सा त्वपरा दिग् ज्ञातव्या, दक्षिणपार्श्वे च दक्षिणा दिग्, उत्तरा तु वामेन | हि. जिसके जिस बाजू से सूर्य उगता है, वह उसकी पूर्व दिशा होती है, जिस तरफ अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा जाननी, दायीं तरफ दक्षिण दिशा और बायीं तरफ उत्तर दिशा जाननी । 2. प्रा. किवाए विणा को धम्मो ? | सं. कृपया विना को धर्म: ? | हि. दया बिना कौनसा धर्म है ? | 3. प्रा. पंडवाणं सेणाइ दुज्जोहणस्स सेणाए सह जुज्झं होत्या, तम्मि जुद्धे पंडवाणं जयो आसि । सं. पाण्डवानां सेनायाः दुर्योधनस्य सेनया सह युद्धमभवत्, तस्मिन् युद्धे पाण्डवानां जय आसीत् । हि. पाण्डवों की सेना का दुर्योधन की सेना के साथ युद्ध हुआ, उस युद्ध में पाण्डवों की जय (जीत) हुई। 4. प्रा. कोसा वेसा सब्बासु कलासु निउणा, नच्चम्मि उ विसेसेण कुसला । सं. कोशा वेश्या सर्वासु कलासु निपुणा, नृत्ये तु विशेषेण कुशला | हि. कोशा वेश्या सभी कलाओं में कुशल (थी), परन्तु नृत्य कला में विशेष कुशल (थी)। 5. प्रा. सव्वा कला धम्मकला जएइ। सं. सर्वाः कलाः धर्मकला जयति ।। हि. धर्मकला सभी कलाओं को जीतती है। प्रा. सबा कहा धम्मकहा जिणेइ । सं. सर्वाः कथाः धर्मकथा जयति । . हि. धर्मकथा सभी कथाओं को जीतती है। - - 3 - ६५ - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. प्रा. जस्स जीहा वसीहूआ, सो परमो पुरिसो । सं यस्य जिह्वा वशीभूता स परमः पुरुषः । हि. जिसकी जीभ वश में है, वह उत्तम पुरुष है । 8. प्रा. नारीओ जोण्हाए रमेन्ति । सं. नार्यो ज्योत्स्नायां रमन्ते । हि. नारियाँ चाँदनी में खेलती हैं / प्रा. छुहाए समाणा वेयणा नत्थि । सं. क्षुधया समाना वेदना नास्ति । हि. भूख समान कोई वेदना नहीं है । 10. प्रा. पंडवाणं भज्जा दोदई सव्वासु इत्थीसुं उत्तमा महासई अहेसि । सं. पाण्डवानां भार्या द्रौपदी सर्वासु स्त्रीषूत्तमा महासत्यासीत् । हि. पांडवों की पत्नी द्रौपदी सभी स्त्रियों में उत्तम महासती थी । 11. प्रा. वाणस्सईणं पि सन्ना अस्ति, तओ मट्टिआए रसं च आहरेज्जा । सं. वनस्पतीनामपि संज्ञाः सन्ति, तत उदकं मृत्तिकायाः रसं चाऽऽहरेयुः । हि. वनस्पतियों में भी संज्ञाएँ होती हैं अतः पानी और मिट्टी के रस का आहार करती हैं । 12. प्रा. सज्जणा पइण्णाहिंतो कहंपि न चलन्ति । 9. सं. सज्जनाः प्रतिज्ञाभ्यः कथमपि न चलन्ति । हि. उत्तम पुरुष प्रतिज्ञा से किसी भी प्रकार से विचलित नहीं होते हैं । 13. प्रा. इत्थीओ सज्जाहिन्तो उट्ठन्ति, आवासयाइं च किच्चाइं कुणन्ति । सं. स्त्रियः शय्याभ्यः उत्तिष्ठन्ति, आवश्यकानि च कृत्यानि कुर्वन्ति । हि. स्त्रियाँ शय्या में से उठती हैं और आवश्यक कार्य करती हैं । 14. प्रा. सासूए ण्हूसाए उवरि, वहूइ य सासूअ अवरिं अईव पीई अत्थि । सं. श्वश्र्वाः स्नूषायाः उपरि, वध्वाश्च श्वश्वा उपर्यतीव प्रीतिरस्ति । हि. सासू का पुत्रवधू (बहू) पर और बहू का सासू पर अतीव स्नेह है। 15. प्रा. दिवहो निसं, निसा य दिणं अणुसरेइ । सं. दिवसो निशां, निशा च दिनमनुसरति । हि. दिन रात्रि का, रात्रि दिन का अनुसरण करती है । 16. प्रा. जणा रिद्धीए गव्विट्ठा पाएण हवन्ति । सं. जना ऋद्ध्या गर्विष्ठाः प्रायो भवन्ति । हि. मनुष्य प्रायः ऋद्धि से अभिमानी बनते हैं । ६६ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. प्रा. जोवणं असारं, लच्छी वि असारा, संसारो असारो, तओ धम्मम्मि मई दढं कुज्जा । सं. यौवनमसारं, लक्ष्मीरप्यसारा, संसारोऽसारस्ततो धर्मे मतिं दृढां कुर्यात् । हि. यौवन असार है, लक्ष्मी भी असार है, संसार असार है इसलिए धर्म में दृढ़बुद्धि करनी चाहिए । 18. प्रा. थी एगाए बाहाए भारं नेहीअ | सं. स्त्र्येकेन बाहुना भारमनयत् । हि. स्त्री एक हाथ से भार को ले गयी। 19. प्रा. कामे सत्ताओ इत्थीओ कुलं सीलं च न रक्खंति । सं. कामे सक्ताः स्त्रियः कुलं शीलं च न रक्षन्ति । हि. काम (भोग) में आसक्त स्त्रियाँ कुल और शील का रक्षण नहीं करती 20. प्रा. उअ थीणं सरूवं संसारा य उबिवेसु । सं. पश्य स्त्रीणां स्वरूपं, संसाराच्चोविधि । हि. स्त्रियों के स्वरूप (चरित्र) को देख और संसार से वैराग्य पा । 21. प्रा. जो संघस्स आणं अइक्कमेइ, सो सिक्खं अरिहेइ । सं. यः संघस्याऽऽज्ञामतिक्राम्यति, स शिक्षामर्हति । हि. जो संघ की आज्ञा का उल्लंघन करता है, वह दंड का पात्र है। 22. प्रा. जउंणाए उदगं किण्हं, गंगाअ य दगं सुक्कमत्थि । सं. यमुनाया उदकं कृष्णं, गंगायाश्चोदकं शुक्लमस्ति । हि. यमुना का पानी काला और गंगा का पानी सफेद है। 23. प्रा. सिरिहेमचंदो सरस्सइं देविं आराहीअ । सं. श्रीहेमचन्द्र: सरस्वती देवीमाराधयत् । हि. श्री हेमचन्द्रसूरि ने सरस्वती देवी की आराधना की । 24. प्रा. सासू बहूणं देवालए गमणाय कहेइ । सं. श्वश्रूर्वधूभ्यो देवालये गमनाय कथयति । हि. सास बहुओं को मन्दिर जाने के लिए कहती है । 25. प्रा. जो हिरिं नीइं धिइं च धरेइ, सो सिरिं लहेइ । सं. यो ह्रियं नीतिं धृतिं च धारयति, सः श्रियं लभते । हि. जो लज्जा, नीति और धीरता को धारण करता है, वह लक्ष्मी को प्राप्त करता है। -६७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. प्रा. अहिणो दाढाए विसं झरेइ । सं. अहेर्दष्ट्राया विषं क्षरति ।। हि. सर्प की दाढ़ा में से जहर टपकता है । प्रा. तिण्हा आगासेण समा विसाला । सं. तृष्णाऽऽकाशेन समा विशाला । हि. तृष्णा आकाश के समान विशाल है। प्रा. तरुस्स छाहीए थीओ गाणं कुणन्ति । सं. तरोश्छायायां स्त्रियो गानं कुर्वन्ति । हि. वृक्ष की छाया में स्त्रियाँ गायन करती हैं । 29. प्रा. विक्कमो निवो पिच्छीए सुट्ट पालगो आसि । सं. विक्रमो नृपः पृथ्व्याः सुष्टु पालक आसीत् । हि. विक्रमराजा पृथ्वी का अच्छा पालक था। प्रा. कुमारो सव्वासु कलासु पहुप्पइ । सं. कुमारः सर्वासु कलासु प्रभवति । हि. कुमार सभी कलाओं में समर्थ है। प्रा. पहुणो महावीरस्स अतुल्लाए सेवाए गोयमो गणहरो संसारं तरीअ । सं. प्रभोर्महावीरस्याऽतुल्यया सेवया गौतमो गणधर: संसारमतरत् । हि. प्रभु महावीर की असाधारण सेवा द्वारा गौतम गणधर संसार को तिर गये। प्रा. धन्नाओ ताओ बालियाउ जाहिं सुमिणे वि न पत्थिओ अन्नो पुरिसो। सं. धन्यास्ताः बालिकाः, याभिः स्वप्नेऽपि न प्रार्थितोऽन्यः पुरुषः । हि. वे बालिकाएँ धन्य हैं कि जिनके द्वारा स्वप्न में भी अन्य पुरुष प्रार्थित नहीं हुआ । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. बड़ों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना । प्रा. गुरूणं मज्जायं न लंघेज्ज । सं. गुरूणां मर्यादां न ल त । 2. हि. चोर ने ब्राह्मण की लक्ष्मी छीन ली । प्रा. चोरो बंभणस्स लच्छि उद्दालीअ । सं. चौरो ब्राह्मणस्य लक्ष्मीमाच्छिनत् । 22 -६८ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. हि. पत्र की बहू सास के सभी कार्य विनयपूर्वक करती है। प्रा. ण्हूसा सासूअ सव्वाइं कज्जाइं विणएण करेइ । सं. स्नुषा श्वश्वाः सर्वाणि कार्याणि विनयेन करोति । हि. जब मनुष्य की ऋद्धि नष्ट होती है, तब उसके साथ बुद्धि और धीरता भी नष्ट होती हैं। प्रा. जया जणस्स इड्डी नस्सइ, तया ताए सह बुद्धी धिई य नस्सइ । सं. यदा जनस्यर्द्धिनश्यति, तदा तया सह बुद्धिधृतिश्च नश्यति । 5. हि. धार्मिक व्यक्ति धन की वृद्धि में धर्म का त्याग नहीं करता है। प्रा. धम्मिओ जणो धणस्स ड्डिए धम्मं न चयइ । सं. धार्मिको जनो धनस्य वृद्ध्यां धर्मं न त्यजति । 6. हि. सरस्वती और लक्ष्मी के विवाद में कौन जीते ? प्रा. सरस्सईए सिरीए य विवाए का जिणइ ? | सं. सरस्वत्याः लक्ष्म्याश्च विवादे का जयति ? | हि. मनुष्य वेदना = पीड़ा में बहुत मुंझाता है। • प्रा. लोगो वेयणाए अईव मुज्झइ। सं. लोको वेदनायामतीव मुह्यति । 8. हि. सभी जीव सुख की इच्छा करते हैं और दुःख की इच्छा नहीं करते हैं। प्रा. सब्वे जीवा सायं इच्छंति, असायं य न इच्छंति । सं. सर्वे जीवाः सातमिच्छन्ति, असातं च नेच्छन्ति । 9. हि. उत्तम पुरुष जिस कार्य का प्रारम्भ करते हैं, उसको अवश्य पूरा करते हैं। प्रा. उत्तमो पुरिसो जं कज्जं आढवेइ, तं अवस्सं पारं गच्छइ । सं. उत्तमः पुरुषो यत्कार्यमारभते , तदवश्यं पारं गच्छति । हि. ग्रीष्म काल में सभी पशु वृक्षों की छाया में विश्रान्ति लेते हैं। प्रा. गिम्हे सव्वे पसवो रुक्खाणं छाहीए विस्समन्ति । सं. ग्रीष्मे सर्वे पशवो वृक्षाणां छायायां विश्राम्यन्ति । हि. दक्षिण दिशा में चोर गये । प्रा. दाहिणाए दिशाए चोरा गच्छीअ । सं. दक्षिणस्यां दिशि चौरा अगच्छन् । - ६९ - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. हि. सभी जगह सुखियों को सुख और दुः :खियों को दुःख होता है । प्रा. सव्वत्थ सुहीणं सुहं, दुहीणं च दुहं होइ । सं. सर्वत्र सुखिनां सुखं दुःखिनां च दुःखं भवति । 13. हि. मैं जिनेश्वर भ. की प्रतिमाओं की स्तुतियों द्वारा स्तुति करता हूँ । " प्रा. हं जिणाणं पडिमाओ थुईहिं थुणामि । सं. अहं जिनानां प्रतिमाः स्तुतिभिः स्तवीमि । 14. हि. साँप जीभ से दूध पीते हैं । प्रा. सप्पा जिब्भाहिं दुद्धं पाएन्ति । सं. सर्पाः जिह्वाभिर्दुग्धं पिबन्ति । 15. हि. स्त्रियाँ बगीचे में घूमती हैं और पुष्पों को सूंघती हैं । प्रा. इत्थीओ उज्जाणंसि विहरेन्ति, पुप्फाइं च आइग्घंति । सं. स्त्रिय उद्याने विहरन्ति, पुष्पाणि चाऽऽजिघ्रन्ति । 16. हि. वह तीर्थंकरों की कहानियों से बोध पाया । सो तित्राणं कहाहिं बोहीअ । सं. सः तीर्थकराणां कथाभिरबोधत् । 17. हि. पहले पृथ्वी पर बहुत राक्षस थे । प्रा. प्रा. पुरा पिच्छीए बहवो रक्खसा अहेसि । सं. पुरा पृथिव्यां बहवो राक्षसा अभवन् । 18. हि. दुर्जन की जीभ में अमृत है, लेकिन हृदय में विष (जहर) है । प्रा. दुज्जणस्स जिब्भाए अमयमत्थि, हिययंमि उ विसमत्थि । सं. दुर्जनस्य जिह्वायाममृतमस्ति, हृदये तु विषमस्ति । 19. हि. मैंने बहनों को बहुत धन दिया । प्रा. अहं भइणीणं बहुधणं दाहीअ । सं. अहं भगिनीभ्यो बहुधनमददाम् । 20. हि. कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का पुत्र प्रद्युम्न है । प्रा. कण्हस्स भज्जाइ रुप्पिणीइ पुत्तो पज्जुन्नो अस्थि । सं. कृष्णस्य भार्यायाः रुक्मिण्याः पुत्रः प्रद्युम्नोऽस्ति । 21. हि. सास बहुओं पर कोप करती है । प्रा. सासू वहूणं कुप्पइ । सं. श्वश्रूर्वधूभ्यः क्रुध्यति । ७० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. हि. चातुर्मास में मुनि भ. एक ही स्थल में रहते हैं। प्रा. वासाए मुणओ एगाए च्चिअ वसहीए वसन्ति । सं. वर्षायां मुनय एकस्यां चैव वसत्यां वसन्ति । 23. हि. रात्रि में स्त्रियाँ चन्द्र के प्रकाश में नृत्य करती हैं। प्रा. रत्तीए इत्थीओ जोण्हाए नच्चन्ति | सं. रात्रौ स्त्रियो ज्योत्स्नायां नृत्यन्ति । 24. हि. प्रभु की सेवा और कृपा से कल्याण होता है। प्रा. पहुणो सेवाए किवाए य कल्लाणं होइ । सं. प्रभोः सेवया कृपया च कल्याणं भवति । 25. हि. साधु प्राणान्ते भी असत्य नहीं बोलते हैं। प्रा. साहवो जीवियंते वि असच्चं न भासन्ते । सं. साधवो जीविताऽन्तेऽप्यसत्यं न भाषन्ते । 26. हि. बालक पलंग में लोटता है। प्रा. बालो सेज्जाए पलोट्टइ । सं. बालः शय्यायां प्रलुट्यति । 27. हि. स्त्री, लता और पंडित आश्रय बिना शोभा नहीं देते हैं। प्रा. इत्थी, लया, पंडिया य आहारं विणा न छज्जंते । सं. स्त्री, लता, पण्डिताश्चाऽऽश्रयं विना न शोभन्ते । ७१ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 17 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. अज्ज साहवो नयराओ विहरिस्सन्ति । सं. अद्य साधवो नगराद् विहरिष्यन्ति । हि. आज साधु भ. नगर से विहार करेंगे । प्रा. गोवाला पए घेणूओ दोहिहिन्ति । सं. गोपालाः प्रगे धेनोक्ष्यन्ति । हि. गोपाल सुबह गायों को दोहेंगे । 3. प्रा. अहं सीसाणमुवएसं करिस्सं । सं. अहं शिष्याणामुपदेशं करिष्यामि । हि. मैं शिष्यों को उपदेश दूंगा | 4. प्रा. मक्खिआ महं लेहिस्सइ । सं. मक्षिका मधु लेक्ष्यति । हि. मक्खी मधु चाटेगी। प्रा. पारद्धिणो अरण्णे वच्चिहिन्ते, तहिं च वीणाए झुणिणा हरिणीओ वसीकरिस्सन्ते, पच्छा य ताओ हिंसिहिरे । सं. पापद्धयोऽरण्ये व्रजिष्यन्ति, तत्र च वीणाया ध्वनिना हरिणीर्वशीकरिष्यन्ति, पश्चाच्च ता हिंसिष्यन्ति ।। हि. शिकारी जंगल में जायेंगे और वहाँ वीणा की ध्वनि से हिरनों को वश में करेंगे और उसके बाद उनको मारेंगे । प्रा. तुं अरण्णे जाज्जाहिसे, तया सिंघो चवेडाए पहरेहिए । सं. त्वमरण्ये यास्यसि, तदा सिंहश्चपेटया प्रहरिष्यति । हि. तू जंगल में जायेगा, तब सिंह तमाचे से प्रहार करेगा । प्रा. लोद्धओ मोग्गरेण जणे हणीअ । सं. लुब्धको मुद्गरेण जनानहन् । हि. लोभी मनुष्य ने मुद्गर से लोगों को मारा । प्रा. तुम्हे गुरु भत्तीए सेवेह , ताणं किवाए कल्लाणं भविस्सइ । सं. यूयं गुरून् भक्त्या सेवध्वम्, तेषां कृपया कल्लाणं भविष्यति । हि. तुम भक्ति से गुरुओं (बड़ों) की सेवा करो, उनकी कृपा से कल्याण होगा। 55987 - ७२ - - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. प्रा. कन्नाओ अज्ज पहुणो पुरओ पुरतो नच्चिस्संति, गाणं च काहिन्ति । सं. कन्या अद्य प्रभोः पुरतो नर्तिष्यन्ति, गानं च करिष्यन्ति । हि. कन्याएँ आज स्वामी के आगे नृत्य करेंगी और गायन करेंगी। 10. प्रा. उज्जाणे अज्ज जाइस्सामो, तत्थ य सरंसि जायाइं सरोयाणि जिणिंदाणं अच्चणाए गिण्हिहिस्सा । सं. उद्यानेऽद्या यास्यामः तत्र च सरसि जातानि सरोजानि जिनेन्द्राणामर्चनाय ग्रहीष्यामः । हि. आज हम बगीचे में जायेंगे और वहाँ सरोवर में उगे हुए कमलों को श्री जिनेश्वर भगवंतों की पूजा हेतु ग्रहण करेंगे। 11. प्रा. अज्ज अहं तत्ताणं चिंताए रत्तिं नेस्सं । ___ सं. अद्य अहं तत्त्वानां चिन्तया रात्रिं नेष्यामि । हि. आज मैं तत्त्वों के चिन्तन द्वारा रात्रि पूर्ण करूंगा। प्रा. तं कज्जं काहिसि, तो दवं दाहं । सं. त्वं कार्यं करिष्यसि, ततो द्रव्यं दास्यामि । हि. तू काम करेगा, उसके बाद मैं द्रव्य (धन) दूंगा | प्रा. कलिम्मि नरिंदा धम्मेण पयं न पालिहिरे । __सं. कलौ नरेन्द्राः धर्मेण प्रजां न पालयिष्यन्ति । हि. कलियुग में राजा धर्म से (नीतिपूर्वक) प्रजा का पालन नहीं करेंगे। 14. प्रा. जइ सो दुज्जणो होहि, तया परस्स निंदाए तूसेहिइ । सं. यदि स दुर्जनो भविष्यति, तदा परस्य निन्दया तोक्ष्यति । हि. जो वह दुर्जन होगा, तो वह दूसरों की निन्दा से आनन्दित होगा। 15. प्रा. पुत्ताणं सलाहं न काहं ।। सं. पुत्राणां श्लाघां न करिष्यामि | हि. मैं पुत्रों की प्रशंसा नहीं करूंगा ।। प्रा. तीए मालाए सप्पो अत्थि, जई मालं फासिहिसे तया सो डंसिस्सइ । सं. तस्यां मालायां सोऽस्ति, यदि मालां स्प्रक्ष्यसि तदा स दंक्ष्यति । हि. उस माला में साँप है, जो तू माला का स्पर्श करेगा तो वह डंख देगा। 17. प्रा. कल्ले पुण्णिमाए मयंको अईव विराइहिइ । सं. कल्ये पूर्णिमायां मृगाङ्कोऽतीव विराजिष्यति । हि. कल पूर्णिमा को चन्द्रमा अत्यन्त शोभा देगा। . == - ७३ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब 18. प्रा. विज्जत्थिणो अज्झयणाय पाढसालं जाज्जाहिरे । सं. विद्यार्थिनोऽध्ययनाय पाठशालां यास्यन्ति । हि. विद्यार्थी पढ़ने के लिए पाठशाला में जायेंगे। 19. प्रा. अहुणा अम्हे पवयणस्स आलावे गणिहित्था । सं. अधुना वयं प्रवचनस्याऽऽलापान् गणयिष्यामः । हि. अब हम सिद्धान्त के आलापक गिनेंगे। 20. प्रा. अम्हे वाणिज्जेण धणिणो होइहियो, तुम्हे नाणेण पंडिआ होस्सह । सं. वयं वाणिज्येन धनिनो भविष्यामः, यूयं ज्ञानेन पण्डिता भविष्यथ । हि. हम व्यापार से धनवान बनेंगे, तुम ज्ञान से पण्डित बनोगे । 21. प्रा. धम्मेण नरा सग्गं सिवं वा लहिस्सन्ति । सं. धर्मेण नराः स्वर्गं शिवं वा लप्स्यन्ते । हि. धर्म से मनुष्य स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त करेंगे। 22. प्रा. अज्ज समोसरणे सिरिवद्धमाणो जिणिंदो देसणं काही, तत्थ य बहुणो भव्वा बोहिं अदुवा देसविरइं अदुवा सव्वविरइं च गिण्हेहिरे । सं. अद्य समवसरणे श्रीवर्धमानो जिनेन्द्रो देशनां करिष्यति, तत्र च बहवो भव्या बोधिमथवा देशविरतिमथवा सर्वविरतिं च ग्रहीष्यन्ति । आज समवसरण में श्रीवर्धमान जिनेन्द्र देशना देंगे और वहाँ बहत भव्यजीव सम्यक्त्व अथवा देशविरति अथवा सर्वविरति धर्म ग्रहण करेंगे। 23. प्रा. जइ तुम्हे सुत्ताणि भणिज्जा, तया गीयत्था होज्जाहित्था । सं. यदि यूयं सूत्राणि भणिष्यथ, तदा गीतार्थाः भविष्यथः । हि. जो तुम सूत्रों को पढ़ोगे, तो गीतार्थ बनोगे । 24. प्रा. कल्लम्मि धम्मं काहामि त्ति सुविणतुल्लम्मि जिवलोए को नु मन्नेइ ? | सं. कल्ये धर्मं करिष्यामि, इति स्वप्नतुल्ये जीवलोके को नु मन्यते ? | हि. मैं कल धर्म करूंगा, इस प्रकार स्वप्नसमान जीवलोक = जगत् में कौन मानेगा ?| 25. प्रा. जिणधम्माओ अन्नह सम्मं जीवदयं न पासेस्सह । सं. जिनधर्मादन्यत्र सम्यग् जीवदयां न द्रक्ष्यथ । हि. जिनधर्म से अन्यत्र सम्यक् जीवदया नहीं देखी जाती । 26. प्रा. कलिम्मि पविढे, मुणीणं आगमत्था गलिहिन्ति । आयरिया वि सीसाणं, सम्मं सुअं न दाहिन्ति ||18।। -७४ B Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. कलौ प्रविष्टे मुनीनामागमार्था गलिष्यन्ति । आचार्या अपि शिष्येभ्यः, सम्यक् श्रुतं न दास्यन्ति ||18|| हि. कलियुग प्रवेश करने पर मुनियों के आगम के अर्थ नष्ट हो जायेंगे, आचार्य भी शिष्यों को सम्यक् श्रुत नहीं देंगे। 27. प्रा. नरवइणो कुडुंबिणा सह जुज्झिस्सन्ति । सं. नरपतयः कुटुम्बिना सह योत्स्यन्ते । हि. राजा कुटुम्ब के साथ युद्ध करेंगे । 28. प्रा. जे जिणपडिमं सिद्धालयं वा पूइस्सन्ति ताण घरं थिरं होही । सं. ये जिनप्रतिमां सिद्धालयं वा पूजयिष्यन्ति, तेषां गृहं स्थिरं भविष्यति । हि. जो लोग जिनप्रतिमा अथवा सिद्धालय की पूजा करेंगे, उनका घर स्थिर होगा। प्रा. न वि अत्थि नवि होही, पाएण तिहयणम्मि सो जीवो । जो जोव्वणमणुपत्तो, वियाररहिओ सया होइ ।।19।। सं. प्रायस्त्रिभुवने स जीवो नाप्यस्ति नापि भविष्यति । यो यौवनमनुप्राप्तः, विकाररहितस्सदा भवति ||19।। हि. प्रायः तीन भुवन में वैसा कोई भी जीव नहीं है और होगा भी नहीं कि जो यौवन को प्राप्त करके हमेशा विकाररहित हो । __ हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. तू पापों की निन्दा करेगा तो सुखी होगा। प्रा. जइ तुंपावाइं निदिहिसि तया सुही होहिसि । सं. यदि त्वं पापानि निन्दिष्यसि, तदा सुखी भविष्यसि । हि. हम नाव में बैठेंगे और सरोवर में क्रीड़ा करेंगे । प्रा. अम्हे नावाए उवविसिस्सामो, सरंमि य कीलिस्सामो । सं. वयं नाव्युपविक्ष्यामः, सरसि च क्रीडिष्यामः । 3. हि. हम स्वामी के लिए माला गूंथेंगे (बनायेंगे)। प्रा. अम्हे पहुणो मालं गंठिस्सामो | . सं. वयं प्रभवे मालां ग्रन्थिष्यामः । हि. वह लोभी है इसलिए ब्राह्मणों को धन नहीं देगा । प्रा. स लोद्धओ अत्थि, तत्तो बंभणाणं धणं न दाहिइ । सं. स लुब्धकोऽस्ति, ततो ब्राह्मणेभ्यो धनं न दास्यति । 5. हि. स्वप्न में चन्द्रमा ने मुख में प्रवेश किया, इसलिए तू राज्य प्राप्त करेगा। प्रा. सुमिणम्मि चंदो मुहं पविसीअ, तत्तो तुं रज्जं पाविहिसि । १ - ७५ & Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. स्वप्ने चन्द्रो मुखं प्राविशत्, ततस्त्वं राज्यं प्राप्स्यसि । 6. हि. बोधि के लिए हम जिनेश्वर के चरित्र सुनेंगे । प्रा. बोहीए अम्हे जिणेसराणं चरिताई सोच्छामो । सं. बोधये वयं जिनेश्वराणां चरित्राणि श्रोष्यामः । 7. हि. गिरनार में बहुत वनस्पतियाँ हैं, जब मैं वहाँ जाऊँगा तब देखूँगा । प्रा. उज्जयंते बहूओ वणप्फईओ संति, जया हं तहिं गच्छिस्सं तया पासिस्सं । सं. उज्जयन्ते बहवो वनस्पतयः सन्ति, यदाहं तत्र गमिष्यामि तदा द्रक्ष्यामि 8. हि. वह त्यागी है, अतः गरीबों को दान देगा । प्रा. सोचाई अत्थि, तत्तो दीणाणं दाणं दाहिइ । सं. स त्यागी अस्ति, ततो दीनेभ्यो दानं दास्यति । 9. हि. वह तापस है, अतः फलों का आहार करेगा । प्रा. सो तावसो अत्थि, तत्तो फलाई आहरिस्सइ । सं. स तापसोऽस्ति, ततः फलान्याहरिष्यति । 10. हि. तू क्षमा धारण करेगा तो दुर्जन क्या करेगा ? | प्रा. तुं खंति धरिस्ससि, तया दुज्जणो किं काही ? | सं. त्वं शान्ति ग्रहीष्यसि तदा दुर्जनः किं करिष्यति ? । 11. हि. वसंतऋतु में नगरवासी उद्यान में घूमने जायेंगे, तब वह कन्या सखियों के साथ अवश्य आयेगी । प्रा. बसंते पउरा उज्जाणंसि गच्छिहिन्ति, तया सा कन्ना सहीहिं सह अवस्सं आगच्छिहिइ | सं. वसन्ते पौरा उद्याने गमिष्यन्ति तदा सा कन्या सखीभिः सहाऽवश्यमागमिष्यति । 12. हि. अरण्य में तापस उग्र तप करता है और तप के प्रभाव से इन्द्र की ऋद्धि प्राप्त करेगा । प्रा. वणंमि तावसो उग्गं तवं करेइ, तवस्स य पहावेण इंदस्स इड्डि पाविहिइ | 1 सं. वने तापस उग्रं तपः करोति, तपसश्च प्रभावेणेन्द्रस्यर्द्धिं प्राप्स्यति । 13. हि. तू बड़ों की सेवा करेगा, तो सुखी होगा । प्रा. तुं गुरूणं सेवं करिस्ससि, तया सुही होहिसि । सं. त्वं गुरूणां सेवां करिष्यसि तदा सुखी भविष्यसि । · ७६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. हि. तुम सार्थ के साथ विहार करोगे, तो जंगल में डर नहीं होगा (लगेगा)। प्रा. तुब्भे सत्येण सह विहरिस्सह, तया अरण्णे भयं न होस्सइ । ___सं. यूयं सार्थेन सह विहरिष्यथ, तदाऽरण्ये भयं न भविष्यति । 15. हि. मैं संसार के दुःखों से डरता हूँ, इसलिए दीक्षा ग्रहण करूँगा । प्रा. हं संसारस्स दुहेहिन्तो बीहेमि, तत्तो दिक्खं गहिस्सामि । सं. अहं संसारस्य दुःखेभ्यो बिभेमि, ततो दीक्षां ग्रहीष्यामि । 16. हि. तू जीवहिंसा मत कर, नहीं तो दुःखी होगा। प्रा. तुं जीवहिंसं मा कुणसु, अन्नहा दुही होस्ससि । सं. त्वं जीवहिंसां मा कुरु, अन्यथा दुःखी भविष्यसि । 17. हि. क्रोध प्रीति का नाश करता है, माया मित्रों का नाश करती है, मान विनय का नाश करता है और लोभ सभी गुणों का नाश करता है, इसलिए उनका त्याग करेंगे। प्रा. कोहो पीइं पणासेइ, माया मित्ताणि नासेइ, माणो विणयं नासेइ, लोहो य सब्वे गुणे नासइ, तत्तो ते चइस्सामु ।। सं. क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, माया मित्राणि नाशयति, मानो विनयं नाशयति, लोभश्च सर्वान् गुणान् नाशयति, ततस्तांस्त्यक्षामः । 18. हि. चोर दक्षिण दिशा में गये हैं, लेकिन उनकी अवश्य तलाश करूंगा। प्रा. चोरा दाहिणाए दिसाए गच्छीअ, किंतु ते अवस्सं मग्गिस्सामि । सं. चौराः दक्षिणस्यां दिश्यगच्छन्, किन्तु तानवश्यं मार्गयिष्यामि । 19. हि. तू सरोवर में जायेगा, तो जरूर डूबेगा । प्रा. तुं सरंमि गच्छिहिसि, तया अवस्सं णुमज्जिहिसि । ___सं. त्वं सरसि गमिष्यसि , तदाऽवश्यं निमड्क्ष्यसि । 20. हि. वह कुत्ता भौंकेगा, लेकिन काटेगा नहीं। प्रा. स साणो बुक्किहिइ, किंतु न डंसिहिइ । सं. स श्वा भषिष्यति, किन्तु न दंक्ष्यति । 21. हि. जीवदया समान धर्म नहीं और जीवहिंसा समान अधर्म नहीं है। प्रा. जीवदयाए समाणो धम्मो नत्थि, जीवहिंसाए य समाणो अहम्मो नत्थि । सं. जीवदयया समानो धर्मो नाऽस्ति, जीवहिंसया च समानोऽधर्मो नाऽस्ति । - ७७ & Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 18 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. हं वच्छाणं पण्णाणि छेच्छं । सं. अहं वृक्षाणां पर्णानि छेत्स्यामि । हि. मैं वृक्षों के पत्ते काढूँगा। 2. प्रा. अम्हे साहुणो सगासे तत्ताई सोच्छिस्सामो । सं. वयं साधोः सकाशे तत्त्वानि श्रोष्यामः । हि. हम साधु भ. के पास तत्त्व सुनेंगे। प्रा. जइ माया जत्ताए गच्छिइ, तो वच्छो दुहिया य रोच्छिहिन्ति । सं. यदि माता यात्रायै गमिष्यति, ततो वत्सो दुहिता च रोदिष्यतः । हि. जो माता यात्रा के लिए जायेगी, तो पुत्र और पुत्री रोयेंगे। 4. प्रा. अम्हे किर सच्चं वोच्छिस्सामो । सं. वयं किल सत्यं वक्ष्यामः । हि. हम सचमुच सत्य बोलेंगे । 5. प्रा. सव्वण्णू झत्ति सिवं गच्छिहिरे । सं. सर्वज्ञा झटिति शिवं गमिष्यन्ति । हि. सर्वज्ञ भ. जल्दी मोक्ष में जायेंगे । 6. प्रा. हं सत्तुजयं गच्छिस्सं, तहिं गिरिस्स सोहं दच्छं, तह सेत्तुंजीए नईए ण्हाहिस्सं, पच्छा य तित्थयराणं पडिमाओ चंदणेण पुप्फेहिं च अच्चिहिमि, गिरिणो य माहपं सोच्छिमि, पावाइंच कम्माइंछेच्छिहिमि, जीविअं च सहलं करिस्सं । सं. अहं शत्रुजयं गमिष्यामि, तत्र गिरेः शोभा द्रक्ष्यामि, तथा शत्रुजय्यां नद्यां स्नास्यामि, पञ्चाच्च तीर्थकराणां प्रतिमाश्चन्दनेन पुष्पैश्चाऽर्चिष्यामि, गिरेश्च माहात्म्यं श्रोष्यामि , पापानि च कर्माणि छेत्स्यामि, जीवितं च सफलं करिष्यामि । हि. मैं शत्रुजय जाऊँगा, वहाँ गिरिराज की शोभा को देखूगा, शेर्बुजी नदी में स्नान करूँगा, उसके बाद तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की चन्दन और पुष्पों द्वारा पूजा करूँगा, गिरिराज की महिमा सुनूँगा, पापकर्मों को छेदूंगा और जीवन सफल करूँगा । - ७८ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. प्रा. जइ असोगचंदो नरिंदो दिसासु परिमाणं कुणंतो, ता निरए नेव निवडन्तो। सं. यद्यशोकचंद्रो नरेन्द्रो दिक्षु परिमाणमकरिष्यत्, ततो नरके नैव न्यपतिष्यत् । हि. जो अशोकचन्द्र राजा ने दिशाओं का परिमाण किया होता, तो नरक में नहीं जाता। 8. प्रा. सो आयारंगं भणेज्जा, ता गीअत्थो होन्तो। सं. स आचाराङ्गमभणिष्यत्, ततो गीतार्थोऽभविष्यत् । हि. उसने आचारांग सूत्र पढ़ा होता तो गीतार्थ बन जाता । 9. प्रा. जइ हं सत्तुं निगिण्हन्तो, तया एरिसं दुहं अहुणा किं लहमाणो ? सं. यद्यहं शत्रु न्यग्रहीष्यम् तदेदृशं दुःखमधुना किमलप्स्ये ? हि. जो मैंने शत्रु का निग्रह किया होता, तो ऐसा दुःख अब क्यों पाता ? | 10. प्रा. जइ धम्मस्स फलं हविज्ज, तया परलोए सुहं लहेज्जा । सं. यदि धर्मस्य फलमभविष्यत्, तदा परलोके सुखमलप्स्यत । हि. जो धर्म का फल होगा, तो वह परलोक में सुख पायेगा । 11. प्रा. साहम्मिआणं वच्छल्लं सइ कुज्जत्ति वीयरायस्स आणा । सं. साधर्मिकानां वात्सल्यं सदा कुर्यादिति वीतरागस्याऽऽज्ञा । हि. साधर्मिकों की भक्ति हमेशा करनी चाहिए ऐसी वीतराग प्रभु की आज्ञा हैं। 12. प्रा. तिसलादेवी देवाणंदा य माहणी पहुणो महावीरस्स माऊओ आसि । सं. त्रिशलादेवी देवानंदा च ब्राह्मणी प्रभोर्महावीरस्य मातरावास्ताम् । हि. त्रिशलादेवी और देवानंदा ब्राह्मणी प्रभु महावीर की माताएँ थीं। 13. प्रा. सिरिवद्धमाणस्स पिआ सिद्धत्थो नरिंदो होत्था । सं. श्रीवर्धमानस्य पिता सिद्धार्थो नरेन्द्रोऽभवत् । हि. श्रीवर्धमान के पिता सिद्धार्थ राजा थे। 14. प्रा. पुदण्हे अक्कस्स तावो थोवो, मज्झण्हे य अईव तिक्खो, अवरण्हे य थोक्को अइथेवो वा । सं. पूर्वाणेऽर्कस्य तापः स्तोकः, मध्याह्ने चाऽतीवतीक्ष्णः, अपराणे च स्तोकोऽतिस्तोको वा । ॐ - ७९ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. दिन के पूर्व भाग में सूर्य का ताप अल्प, मध्याह्न में अति तीक्ष्ण और अपराहण में अल्प अथवा अत्यल्प होता है । 15. प्रा. सकम्मेहिं इह संसारे भमंताणं जंतूणं सरणं माआ पिआ भाउणो सुसा धूआ अ न हवन्ति, एक्को एव धम्मो सरणं । सं. स्वकर्मभिरिह संसारे भ्रमतां जन्तूनां शरणं माता पिता भ्रातरः स्वसा दुहिता च न भवन्ति , एक एव धर्मः शरणम् । हि. अपने कर्म से इस संसार में परिभ्रमण करते हए प्राणियों के शरण माता-पिता, भाई-बहन और पुत्र नहीं हैं (लेकिन) एक धर्म ही शरणभूत है। प्रा. जो बाहिरं पासइ, सो मूढो; अंतो पासेइ सो पंडिओ णेओ। सं. यो बाह्यं पश्यति स मूढः, अन्तः पश्यति स पण्डितो ज्ञेयः । हि. जो बाह्य देखता है वह मूढ़ है, अन्दर देखता है वह पंडित है। 17. प्रा. पिउणो ससा पिउसिअत्ति, तह माऊए य ससा माउसिआ इइ कहेइ। सं. पितुः स्वसा पितृश्वसेति, तथा मातुश्च स्वसा मातृश्वसेति कथयति । हि. पिता की बहन बूआ और माता की बहन मौसी, इस प्रकार कहते हैं। 18. प्रा. नणंदा भाउस्स जायाए सिणिज्झइ । सं. ननान्दा भ्रातुर्जायायां स्निह्यति । हि. ननन्द भाई की पत्नी = भाभी पर स्नेह रखती है । 19. प्रा. धूआ माअरं पिअरं च सिलेसइ । सं. दुहिता मातरं पितरं च श्लिष्यति । हि. पुत्री माता और पिता को आलिंगन करती है। 20. प्रा. रामस्स वासुदेवस्स य पिअरम्मि माऊसुं अ परा भत्ती अस्थि । सं. रामस्य वासुदेवस्य च पितरि मातृषु च परा भक्तिरस्ति । हि. बलदेव और वासुदेव की पिता और माता के प्रति श्रेष्ठ भक्ति है। 21. प्रा. सासू जामाऊणं पडिवयाए पाहुडं दाहिन्ति । सं. श्वश्वो जामातृभ्यः प्रतिपदि प्राभृतं दास्यन्ति । हि. सासुएँ दामादों को प्रतिपदा के दिन उपहार देंगी। 22. प्रा. जा नारी भत्तारम्मि पउस्सेइ, सा सुहं न पावेइ । सं. या नारी भर्तरि प्रद्वेष्टि, सा सुखं न प्राप्नोति । हि. जो स्त्री पति पर द्वेष करती है, वह सुख नहीं पाती है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. प्रा. कुलबालियाणं भत्तवो चेव देवा । सं. कुलबालिकानां भर्तार एव देवाः । हि. कुलांगनाओं को पति ही देव है । 24. प्रा. माआ धूआणं पुत्ताणं च बहुं धणं अप्पेइ । सं. माता दुहितृभ्यः पुत्रेभ्यश्च बहुधनमर्पयति । हि. माता पुत्रियों और पुत्रों को बहुत धन देती है। 25. प्रा. जे नरा भत्तूणमाएसे न वट्टन्ते, ते दुहिणो हवन्ति । सं. ये नराः भर्तृणामादेशे न वर्तन्ते, ते दुःखिनो भवन्ति । हि. जो लोग स्वामी के आदेशानुसार वर्तन नहीं करते हैं, वे दुःखी होते हैं। 26. प्रा. आवयासु जे सहेज्जा हुति, ते च्च भाऊणो । सं. आपत्सु ये साहाय्या भवन्ति, त एव भ्रातरः । हि. दुःख (आपत्ति) में जो सहायक बनते हैं, वे ही भाई हैं। 27. प्रा. धूआए माआए य परुप्परं अईव नेहो अस्थि । सं. दुहितुर्मातुश्च परस्परमतीव स्नेहोऽस्ति । हि. पुत्री और माता में परस्पर अत्यंत स्नेह है । 28. प्रा. सासूणं जामाउणो अईव पिआ हवन्ति । सं. श्वश्रूणां जामातरोऽतीवप्रियाः भवन्ति । हि. सासुओं को दामाद अत्यंत प्रिय होते हैं। प्रा. अहं माअराए य पिउणा य भायरेहिं च ससाहिं च सह सिद्धगिरिस्स जत्ताए जाएज्जा । सं. अहं मात्रा च पित्रा च भ्रातृभिश्च स्वसृभिश्च सह सिद्धगिरेर्यात्रायै यास्यामि । हि. मैं माता, पिता, भाइयों और बहनों के साथ सिद्धाचल की यात्रा हेतु जाऊँगा । 30. प्रा. दायाराणं मज्झे कण्णो निवो पढमो होत्या । ___ सं. दातृणां मध्ये कर्णो नृपः प्रथमोऽभवत् । हि. दाताओं में कर्ण राजा प्रथम हुआ । प्रा. रामस्स भाया लक्खणो निएण चक्केण रावणस्स सीसं छिन्दीअ | सं. रामस्य भ्राता लक्ष्मणो निजेन चक्रेण रावणस्य शीर्षमच्छिनत् । हि. राम के भाई लक्ष्मण ने अपने चक्र से रावण का मस्तक छेदा । - 19 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. प्रा. सतेसु जायते सूरो, सहस्सेसु य पंडिओ । वत्ता सयसहस्सेसु, दाया जायति वा न वा 11201 सं. शतेषु शूरो जायते, सहस्रेषु च पण्डितः । शतसहस्रेषु वक्ता, दाता जायते वा न वा ||20|| हि. सौ मनुष्यों में एक शूरवीर होता है, हजारों में एक पण्डित होता है, लाखों में एक वक्ता होता है, दाता तो होता है अथवा नहीं भी होता है । 33. प्रा. इंदियाणं जए सूरो, धम्मं चरति पंडिओ | वत्ता सच्चवओ होइ, दाया भूयहिए रओ ||21|| सं. इन्द्रियाणां जये शूरः, धर्मं चरति पण्डितः । सत्यवदो वक्ता भवति, भूतहिते रतो दाता ||21|| हि. इन्द्रियों का जय = इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे वह शूरवीर, धर्म का आचरण करे वह पण्डित, सत्यवादी हो वह वक्ता और प्राणियों के हित में रत हो वह दाता ( कहलाता) है । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. जो उसने जहरवाला भोजन खाया होता, तो वह मृत्यु पाता । प्रा. जइ सो विसमिसिअं अन्नं भुंजतो तया सो मरंतो । सं. यदि स विषमिश्रितमन्नमभोक्ष्यत तदा सोऽमरिष्यत् । 2. हि. जो तुमने जिनेश्वर के चरित्र सुने होते, तो धर्म पाते । प्रा. जइ तुब्भे जिणेसरस्स चरित्ताइं सुणंता, तया धम्मं पावंता । सं. यदि यूयं जिनेश्वरस्य चरित्राण्यश्रोष्यथ, तदा धर्मं प्राप्स्यथ । 3. हि. अभिमन्यु जिन्दा होता, तो कौरवों की पूरी सेना को जीत लिया होता । , प्रा. अहिमन्नू जीवंतो, तया कउरवाणं सव्वं सेणं जिणन्तों । सं. अभिमन्युरजीविष्यत्, तदा कौरवाणां सर्वां सेनामजेष्यत् । 4. हि. जो उसे तत्त्वों का ज्ञान होता तो वह धर्म प्राप्त करता । प्रा. जह तस्स तत्ताणं नाणं हुतं, तया सो धम्मं लहंतो । सं. यदि तस्य तत्त्वानां ज्ञानमभविष्यत्, तदा स धर्ममलप्स्यत । 5. हि. जो तुमने उस समय बन्धन में से मुक्त किया होता, तो मैं सत्य बोलता । प्रा. जइ तुब्भे तंमि समयंमि बंधणत्तो मुंचंता, तया हं सच्चं कहेन्तो । सं. यदि यूयं तस्मिन् समये बन्धनादमोक्ष्यत तदाऽहं सत्यमकथयिष्यम् । ८२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. हि. रावण ने परस्त्री का त्याग किया होता, तो वह मृत्यु नहीं पाता । प्रा. रावणो परनारिं चयंतो, तया सो मच्चु न पावन्तो । सं. रावणः परनारीमत्यक्ष्यत्, तदा स मृत्युं न प्राप्स्यत् । 7. हि. ज्ञाता से उसने तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया। प्रा. णायारत्तो सो तत्ताणं नाणं लहीअ । सं. ज्ञातुः स तत्त्वानां ज्ञानमलभत | हि. मैं तालाब में से कमल के फूल ग्रहण करूँगा तथा माता और बहन को दूंगा। प्रा. हं कासारत्तो कमलाइं गहिस्सामि, माआए ससाए य दाहिस्सं । सं. अहं कासारात् कमलानि ग्रहीष्यामि, मात्रे स्वस्रे च दास्यामि । 9. हि. माता और पिता के साथ जिनालय में जाऊँगा और चैत्यवंदन करूँगा। प्रा. माअराए पिअरेण य सह जिणालए गच्छिस्सामि, चिइवंदणं च करिस्सामि । सं. मात्रा पित्रा च सह जिनालये गमिष्यामि, चैत्यवन्दनं च करिष्यामि । 10. हि. लक्ष्मण के भाई राम ने दीक्षा ली और मोक्ष प्राप्त किया । . प्रा. लक्खणस्स भाऊ रामो पवज्जीअ, मोक्खं च लहीअ । सं. लक्ष्मणस्य भ्राता रामः प्राव्रजत्, मोक्षं चाऽलभत् । हि. बहू को ननन्द पर अतिस्नेह है। प्रा. वहूए नणंदाए अईव णेहो अत्थि । सं. वध्वा ननान्दर्यतीव स्नेहोऽस्ति । हि. गरीबों का पालन करनेवाले थोड़े ही होते हैं। प्रा. दीणाणं रक्खिआरा थेवा च्चिय हवन्ति । सं. दीनानां रक्षितारः स्तोका एव भवन्ति । हि. विधाता के लेख का कोई भी अतिक्रमण/(उल्लंघन) नहीं करता है। प्रा. धायारस्स लेहं को विन अइक्कमइ । सं. धातुर्लेखं कोऽपि नाऽतिक्राम्यति । 14. हि. कुरूप बालकों पर भी माता का अत्यंत स्नेह होता है। प्रा. विरुवेसुं बालेसुं वि माआए अईव णेहो होइ । सं. विरूपेषु बालेष्वपि मातुरतीव स्नेहो भवति । - ८३ - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. हि. जैसे बधिर के आगे गान निरर्थक होता है, उसी प्रकार मूर्ख के आगे तत्त्वों की बात निरर्थक होती है। प्रा. जहा बहिरस्स अग्गे गाणं निरत्ययं होइ, तहा मुरुक्खस्स अग्गे तत्ताणं वत्ता निरत्थया अस्थि । सं. यथा बधिरस्याऽग्रे गायनं निरर्थकं भवति, तथा मूर्खस्याऽग्रे तत्त्वानां वार्ता निरर्थकाऽस्ति । 16. हि. प्रतिदिन बहुत प्राणी मृत्यु पाते हैं, तो भी अज्ञानी हम नहीं मरेंगे ऐसा मानते हैं, इससे अन्य क्या आश्चर्य हो ? प्रा. पइदिणं बहवो पाणिणो मरेन्ति, तहवि अन्नाणिणो अम्हे न मरिस्सामो इइ मन्नन्ति, तत्तो अन्नं किं अच्छेरं होज्ज ? सं. प्रतिदिनं बहवः प्राणिनो म्रियन्ते, तथाप्यज्ञानिनो वयं न मरिष्याम इति मन्यन्ते, ततोऽन्यत् किमाश्चर्यं भवेत् ? | 17. हि. नैमित्तिक ने उसके ललाट में श्रेष्ठ लक्षण देखे और कहा कि तू राजा बनेगा। प्रा. नेमित्तिओ तस्स ललाडंमि सोहणाइं लक्खणाई देक्खीअ, कहीअ य तुं राया होहिसि । सं. नैमित्तिकस्तस्य ललाटे शोभनानि लक्षणान्यपश्यत् , अकथयच्च त्वं राजा भविष्यसि । 18. हि. वह वेश्या में आसक्त नहीं होता, तो धर्म से पतित नहीं होता । ___प्रा. सो वेसाए आसत्तो न हुँतो, तया सो धम्मत्तो न पडतो । सं. स वेश्यायामासक्तो नाऽभविष्यत्, तदा स धर्मान्नाऽपतिष्यत् । 19. हि. मूर्ख भी धीरे-धीरे उद्यम करने से होशियार बनता है । प्रा. मुरुक्खो वि सणियं सणियं उज्जमेण पउणो होइ । सं. मूर्योऽपि शनैः शनैरुद्यमेन प्रगुणो भवति । ८४ -- Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 19 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. जे भावा पुदण्हे दीसीअ, ते अवरण्हे न दीसन्ति । सं. ये भावा पूर्वाणेऽदृश्यन्त, तेऽपराहणे न दृश्यन्ते । हि. जो भाव (पदार्थ) दिन के पूर्वभाग में दिखाई दिये, वे दिन के पिछले भाग में दिखाई नहीं देते हैं। 2. प्रा. जह पवणस्स रउद्देहिं गुंजिएहिं मंदरो न कंपिज्जइ, तह खलाणं असब्भेहिं वयणेहिं सज्जणाणं चित्ताइं न कंपीइरे । सं. यथा पवनस्य रौद्रैर्गुञ्जितैर्मन्दरो न कम्प्यते , तथा खलानामसभ्यैर्वचनैः सज्जनानां चित्तानि न कम्प्यन्ते । हि. जिस तरह पवन के भयंकर गुंजारव से मेरुपर्वत कंपायमान नहीं होता है, उसी तरह दुर्जनों के असभ्य वचनों से सज्जनों के चित्त कंपायमान नहीं होते हैं। 3. प्रा. धम्मेण सुहाणि लब्मन्ति, पावाइं च नस्संति । सं. धर्मेण सुखानि लभ्यन्ते, पापानि च नश्यन्ते । हि. धर्म से सुख प्राप्त होते हैं और पाप नष्ट होते हैं। 4. प्रा. समणोवासएहिं चेइएसु जिणिंदाणं पडिमाओ अच्चिज्जीअ । सं. श्रमणोपासकैश्चैत्येषु जिनेन्द्राणां प्रतिमा आय॑न्त । हि. श्रावकों द्वारा चैत्यों में जिनेश्वरों की प्रतिमा पूजी गई। 5. प्रा. विउसाणं परिसाए मुरुक्खेहिं मउणं सेवीअउ, अन्नह मुक्खत्ति नज्जिहिन्ति । सं. विदुषां पर्षदि मूखैमौनं सेव्यताम् , अन्यथा मूर्खा इति ज्ञास्यन्ते । हि. विद्वानों की पर्षदा में मूरों द्वारा मौन रखा जाय, अन्यथा वे मूर्ख हैं, ऐसा सिद्ध होगा । (जाना जायेगा)। 6. प्रा. देवेहिं सीयलेण सुहफासेण सुरहिणा मारुएण जोयणपरिमंडला भूमी सवओ समंता संपमज्जिज्जइ । सं. देवैः शीतलेन सुखस्पर्शेण सुरभिणा मारुतेन योजनपरिमंडला भूमिः सर्वतः समन्तात् संप्रमृज्यन्ते । हि. देवों द्वारा शीतल, सुखदायी स्पर्शवाले, सुगन्धित पवन से एक योजन गोलाकार भूमि सर्वत्र चारों ओर से स्वच्छ की जाती है । - ८५ - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. प्रा. अग्गिणा नयरं डज्झीअ । सं. अग्निना नगरमदह्यत । हि. अग्नि द्वारा नगर जलाया गया । 8. प्रा. गुरूणं भत्तीए सत्थाणं तत्ताइं णविहिरे । सं. गुरूणां भक्त्या शास्त्राणां तत्त्वानि ज्ञास्यन्ते । हि. गुरु भगवंतों की भक्ति से शास्त्रों के तत्त्व जाने जायेंगे । प्रा. अज्जवि अउज्झाए परिसरे उच्चेसु रुक्खेसु ठिएहिं जणेहिं निम्मले नह्यले धवला सिहरपरंपरा तस्स गिरिणो दीसइ । सं. अद्याप्ययोध्यायाः परिसरे उच्चेषु वृक्षेषु स्थितैर्जनैर्निर्मले नभस्तले धवला शिखरपरंपरा तस्य गिरेःदृश्यते । हि. आज भी अयोध्या के परिसर में ऊँचे वृक्षों पर रहे लोगों द्वारा निर्मल आकाशतल में उस पर्वत की सफेद शिखरों की परंपरा देखी जाती 10. प्रा. गुरूणमुवएसेण संसारो तीरइ । सं. गुरूणामुपदेशेन संसारस्तीर्यते । हि. गुरु भगवंतों के उपदेश से संसार पार किया जाता है। प्रा. भद्दे का तुमं देविव्व दीससि ? सं. भद्रे ! का त्वं देवीव दृश्यसे ? हि. हे भद्रे ! क्या तुम देवी जैसी दिखाई देती हो ? 12. प्रा. सहा केरिसी वुच्चए ? सं. सभा कीदृशी उच्यते ? हि. सभा किस प्रकार की कहलाती है ? 13. प्रा. जत्थ थेरा अत्थि सा सहा । सं. यत्र स्थविराः सन्ति सा सभा । हि. जहाँ वृद्ध पुरुष होते हैं, वह सभा कहलाती है। 14. प्र प्रा. कलिम्मि अकाले मेहो वरिसइ, काले न वरिसेज्ज, असाहू पूइज्जन्ति, साहवो न पूइहिरे । सं. कलावकाले मेघो वर्षति, काले न वर्षति , असाधवः पूज्यन्ते, साधवो न पूज्यन्ते । हि. कलियुग में मौसम बिना मेघ बरसता है, मौसम में नहीं बरसता है, असाधु पूजे जाते हैं, साधू नहीं पूजे जाते हैं । ८६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. प्रा. वेसाओ धणं चिय गिण्हंति, न हु धणेण ताओ घिप्पन्ति । सं. वेश्या : धनमेव गृहणन्ति, न धनेन ताः गृह्यन्ते । - हि. वेश्याएँ धन को ही ग्रहण करती है, सचमुच वे धन से ग्रहण नहीं की जाती हैं। 16. प्रा. पूइज्जति दयालू जइणो, न हु मच्छवहगाइ । सं. पूज्यन्ते दयालवो यतयो न खु मत्स्यवधकादयः । हि. दयालु साधु पूजे जाते हैं, लेकिन मच्छीमार आदि नहीं । 17. प्रा. होइ गरुयाण गरुयं वसणं लोयम्मि, न उण इयराणं । जं ससिरविणो घेप्पंति, राहुणा न उण ताराओ ||22।। सं. लोके गुरुकाणां गुरुकं, व्यसनं भवति पुनरितरेषां न ।। यच्छशिरवी राहुणा गृह्येते, पुनस्तारा न ||22।। हि. जगत् में बड़ों = महापुरुषों को ज्यादा दुःख (कष्ट) होता है, अन्य को नहीं, जिस कारण चन्द्र और सूर्य राहु द्वारा ग्रसित होते हैं लेकिन तारे नहीं। 18. प्रा. जलणो वि घेप्पइ सुहं, पवणो भुयगो वि केणइ नएण | महिलामणो न घेप्पइ, बहुएहिं नयसहस्सेहिं ।।23।। सं. ज्वलनोऽपि सुखं गृह्यते, पवनो भुजगोऽपि केनापि नयेन । बहकैर्नयसहस्रः, महिलामनो न गृह्यते ।।23।। हि. अग्नि भी सुखपूर्वक ग्रहण किया जाता है, पवन और साँप भी किसी उपाय द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, लेकिन हजारों उपायों द्वारा स्त्री का मन ग्रहण नहीं किया जाता है। 19. प्रा. को कस्स एत्थ जणगो ?, का माया ? बंधवो य को कस्स ? | कीरंति सकम्मेहिं, जीवा अन्नुन्नरूवेहिं ।।24।। सं. अत्र कः कस्य जनकः ? का माता ?, कः कस्य बान्धवश्च ? | जीवा: स्वकर्मभिरन्योन्यरूपैः क्रियन्ते ||24|| हि. इस जगत् में कौन किसका पिता, कौन माता, कौन किसका भाई है ? जीव अपने कर्मों से ही अलग-अलग स्वरुपवाले किये जाते हैं ।।24।। 20. प्रा. सव्वस्स उवयरिज्जइ, न पम्हसिज्जइ परस्स उवयारो । विहलो अवलंबिज्जइ, उवएसो एस विउसाणं ।।25।। सं. सर्वस्योपक्रियेत, परस्योपकारो न विस्मर्येत । विह्वलोऽवलम्ब्येत, एष विदुषामुपदेशः ।।25।। हिसा - ८७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. सब पर उपकार करना, अन्य के उपकार को नहीं भूलना, दुःखी व्यक्ति को आश्रय देना, यह विद्वानों का उपदेश है । 21. प्रा. रिउणो न वीससिज्जइ, कयावि वंचिज्जइ न वीसत्थो । न कयग्घेहि हविज्जइ, एसो नाणस्स नीसंदो ||26|| सं. रिपवो न विश्वस्येरन्, विश्वस्तः कदापि न वच्येत । कृतघ्नैर्न भूयेत, एष ज्ञानस्य निःष्यन्दः ||26|| हि. शत्रुओं का विश्वास नहीं करना, विश्वासु व्यक्ति को कभी भी ठगना नहीं, कृतघ्न नहीं बनना, यह ज्ञान का झरना = निचोड़ है । 22. प्रा. वन्निज्जइ भिच्चगुणो, न य वन्निज्जइ सुअस्स पच्चक्खे | महिलाओ नोभया वि हु, न नस्सए जेण माहाप्पं ||27|| सं. भृत्यगुणो वर्ण्येत, सुतस्य प्रत्यक्षे न च वर्ण्यत महिला नोभयादपि खु, येन माहात्म्यं न नश्येत ॥27॥ हि. सेवक के गुण की प्रशंसा करनी चाहिए, पुत्र के गुण उसके (पुत्र के) सामने नहीं कहने चाहिए, स्त्रियों की दोनों प्रकार से (प्रत्यक्ष या परोक्ष) प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, (क्योंकि) जिससे ( उसका = पुरुष का) माहात्म्य नष्ट न हो । 23. प्रा. जीवदयाइ रमिज्जइ, इंदियवग्गो दमिज्जइ सयावि । सच्चं चेव चविज्जइ, धम्मस्स रहस्समिणमेव ||28|| सं. जीवदयायां रम्येत, सदापीन्द्रियवर्गो दम्येत । सत्यमेव कथ्येत, इदमेव धर्मस्य रहस्यम् ||28|| हि. जीवदया में आनन्दित होना, हमेशा इन्द्रियों के समूह का दमन करना, सत्य ही बोलना, यही धर्म का रहस्य है । 24. प्रा. दीसइ विविहचरितं, जाणिज्जइ सुयणदुज्जणविसेसो । धुत्तेहिं न वंचिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ||29 || सं. विविधचरित्रं दृश्यते, सुजनदुर्जनविशेषो ज्ञायते । धूर्तैर्न वंच्यते, तेन पृथ्व्याम् हिण्ड्यते ||29|| हि. विविध प्रकार के चरित्र देखे जाँए सज्जन और दुर्जन का भेद जाना धूर्तों से न ठगा जाय इसलिए पृथ्वी पर घूमना चाहिए । जाय, ८८ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. लक्ष्मण द्वारा शत्रु का मस्तक काटा गया । प्रा. लक्खणेण सत्तुणो सिरं छिंदीअईअ । सं. लक्ष्मणेन शत्रोश्शिरोऽच्छिन्द्यत । हि. श्रावकों से गुरु भगवंतों के वचनों की श्रद्धा की जाती है । ___प्रा. सावगेहिं गुरूणं वयणाइं सद्दहिज्जन्ति । सं. श्रावकैर्गुरूणां वचनानि श्रद्धीयन्ते । हि. उपाध्याय के पास श्रद्धापूर्वक ज्ञान प्राप्त किया जाता है। प्रा. सद्धाए उवज्झायत्तो नाणं लब्भइ । सं. श्रद्धयोपाध्यायाज्ज्ञानं लभ्यते । 4. हि. योगियों द्वारा श्मशान में मन्त्रों का ध्यान किया जाता है। प्रा. जोगीहिं सुसाणे मंताई झाइज्जन्ति । सं. योगिभि: श्मशाने मन्त्राणि ध्यायन्ते । 5. हि. नृत्यकारों द्वारा दरवाजे पर नृत्य किया जाता है । प्रा. दुवारे नडेहिं नच्चिज्जइ । सं. द्वारे नटैर्नृत्यते । 6. हि. प्रजा राजा की आज्ञा का अपमान न करे । प्रा. पया निवस्स आणं न अइक्कमिज्जउ । सं. प्रजा नृपस्याऽऽज्ञां नाऽतिक्राम्यन्ताम् । 7. हि. चोर के ललाट में अग्नि से चिहन किया जाता है। प्रा. चोरस्स ललाडे अग्गिणा चिंधं कीरइ । सं. चौरस्य ललाटेऽग्निना चिह्नं क्रियते । हि. पहले कोई जल और वनस्पति में जीव नहीं मानते थे, लेकिन अब यन्त्र के प्रयोग से उसमें (जल + वनस्पति में) साक्षात् जीव दिखाई देते हैं। प्रा. पुरा केवि जलम्मि वणस्सईए य जीवा न मन्नीअ, किंतु अहुणा जंतस्स पओगेण सक्खं तेसु जीवा दीसंति । सं. पुरा केऽपि जले वनस्पतौ च जीवा नाऽमन्यन्त, अधुना तु यन्त्रस्य प्रयोगेण साक्षात्तेषु जीवा दृश्यन्ते । 9. हि. राजा के पुरुषों द्वारा चोर पकड़ा गया और दण्डित किया गया । B Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. रायपुरिसेहिं चोरो घेप्पीअ, दंडिज्जईअ य ।। सं. राजपुरुषैश्चौरोऽगृह्यताऽदण्ड्य त च । 10. हि. जो धन न्यायमार्ग से प्राप्त किया जाता है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता है। प्रा. जंधणं नायमग्गेण विढप्पइ, तं कयावि न नस्सइ । सं. यद् धनं न्यायमार्गेणाऽयंते, तत्कदापि न नश्यते । 11. हि. रात्रि में मुनियों द्वारा स्वाध्याय किया जायेगा। प्रा. रत्तीए मुणीहिं सज्झाओ करिहिइ । सं. रात्रौ मुनिभिः स्वाध्यायः करिष्यते । . 12. हि. शिष्यों को हमेशा आचार्य भगवंत की सेवा करनी चाहिए । प्रा. सीसा सया आयरियं सेवन्तु । सं. शिष्याः सदाऽऽचार्यं सेवन्ताम् । 13. हि. मैं दुष्टकर्मों द्वारा मुक्त किया जाता हूँ। प्रा. हं पावकम्मेहिं मुंचिज्जमि । सं. अहं पापकर्मभिर्मुच्ये । 14. हि. तुम मोह द्वारा मोहित नहीं होते हो । प्रा. तुब्भे मोहेण न मुज्झीअह । सं. यूयं मोहेन न मुह्यध्वे । 15. हि. धर्म से तुम्हारा रक्षण किया गया । प्रा. तुब्भे धम्मेण रक्खिज्जईअ । सं. यूयं धर्मेणाऽरक्ष्यध्वम् । 16. हि. तुम शत्रु द्वारा जीते गये । प्रा. तुमं सत्तुणा जिव्वईअ । सं. त्वं शत्रुणाऽजीयत । 17. हि. जो हमेशा धर्म का श्रवण किया जाय, दान दिया जाय, शील धारण किया जाय, गुरु भगवंतों को वन्दन किया जाय, विधिपूर्वक जिनेश्वर की पूजा की जाय और तत्त्वों की श्रद्धा की जाय तो इस संसार से पार उतरा जाए। प्रा. जइ सया धम्मो सुणिज्जइ, दाणं दिज्जइ, सीलं धरिज्जइ, गुरखो वंदिज्जेइरे, विहिणा जिणाणं पडिमाओ अच्चिज्जेइरे, तत्ताणि च सद्दहीअन्ते, तया अदम् संसारो तरिज्जइ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. यदि सदा धर्मः श्रूयते, दानं दीयते, शीलं ध्रियते, गुरवो वन्द्यन्ते, विधिना जिनेश्वराणां प्रतिमा अय॑न्ते , तत्त्वानि च श्रद्धीयन्ते, तदाऽयं संसारस्तीर्यते । 18. हि. थोड़ा भी उपकार किया जाए, तो परलोक में सुखी बनेंगे। प्रा. थेवो वि उवयारो करिज्जइ, तया परलोयम्मि सुही होहिइ । सं. स्तोकोऽप्युपकारः क्रियते, तदा परस्मिल्लोके सुखी भविष्यते । 19. हि. बालक द्वारा पिता की आज्ञा मानी गयी। ___प्रा. बालेण पिउणो आणा मन्निज्जईअ । सं. बालकेन पितुराज्ञाऽमन्यत । 20. हि. उत्तम पुरुषों द्वारा जो कार्य प्रारम्भ किया जाता है, उसमें वे अवश्य पार पाते हैं। प्रा. उत्तमेहिं पुरुसेहिंजं कज्जं विढप्पइ, तम्मि ते अवस्सं पारं गच्छन्ति । सं. उत्तमैः पुरुषैर्यत्कार्यमारभ्यते, तस्मिंस्तेऽवश्यं पारङ्गच्छन्ति । == — ९१ – Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 20 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. पाणाणमच्चए वि जीवेहिं अकरणिज्जं न कायव्वं, करणीयं च कज्जं न मोत्तव्वं । सं. प्राणानामत्ययेऽपि जीवैरकरणीयं न कर्तव्यं, करणीयं च कार्यं न मोक्तव्यम् । हि. प्राणान्ते (प्राणों के विनाश में) भी जीवों को अकार्य नहीं करना चाहिए और करने योग्य कार्य को छोड़ना नहीं चाहिए । 2. प्रा. धम्मं कुणमाणस्स सहला जंति राईओ । सं. धर्मं कुर्वतः सफला यान्ति रात्र्यः । हि. धर्म करनेवाले की रात्रियाँ सफल होती हैं । 3. प्रा. जेण इमा पुहवी हिंडिऊण दिट्ठा सो नरो नूणं वत्थूणं परिक्खणे विक्खणो हो । सं. येनेमा पृथ्वी हिण्डित्वा दृष्टा, स नरो नूनं वस्तूनां परीक्षणे विचक्षणो भवति । हि. जिसके द्वारा यह पृथ्वी भ्रमण करके देखी गई, वह मनुष्य सचमुच वस्तुओं की परीक्षा में चतुर = कुशल होता है । 4. प्रा. एगो जायइ जीवो, एगो मरिऊण तह उवज्जेइ | एगो भइ संसारे, एगो च्चिय पावई सिद्धिं ||30|| सं. जीवः एको जायते, तथैको मृत्वोत्पद्यते । एकः संसारे भ्राम्यति, एक एव सिद्धिं प्राप्नोति ||30|| हि. जीव अकेला उत्पन्न होता है तथा अकेला मरकर जन्म लेता है, अकेला संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही मोक्ष को प्राप्त करता है । 5. प्रा. कालसप्पेण खाइज्जन्ती काया केण धरिज्जइ ?, नत्थि तत्थ कवि उवाओ । सं. कालसर्पेण खाद्यमाना काया केन ध्रियेत ? नास्ति तत्र कोऽप्युपायः । हि. कालरूपी सर्प से भक्षण की जानेवाली काया किसके द्वारा धारण की जाय ?, वहाँ कोई भी उपाय नहीं है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. प्रा. सब्वे जीवा जीविउं इच्छन्ति, न मरित्तए, तओ जीवा न हंतवा । सं. सर्वे जीवा जीवितुमिच्छन्ति, न मर्तुम्, ततो जीवा न हन्तव्याः । हि. सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, इस कारण जीवों को नहीं मारना चाहिए। 7. प्रा. परस्स पीडा न कायव्वा, इइ जेण न जाणिअं, तेण पढिआए विज्जाए किं ? | सं. परस्य पीडा न कर्तव्या, इति येन न ज्ञातं, तेन पठितया विद्यया किं ? | हि. अन्य को पीड़ा नहीं करनी चाहिए, यह वचन जिसको (जिसके द्वारा) ज्ञात नहीं है, उसके द्वारा पढ़ी हुई विद्या से क्या ? | प्रा. मुक्खत्थीहिं जीवदयामओ धम्मो करेअब्बो । सं. मोक्षार्थिभिर्जीवदयामयो धर्मः कर्तव्यः । हि. मोक्षार्थियों द्वारा जीवदयामय धर्म करने योग्य है । 9. प्रा. नाणेणं चिय नज्जइ, करणिज्जं तहय वज्जणिज्जं च । नाणी जाणइ काउं, कज्जमकज्जं च वज्जेउं ||31|| सं. ज्ञानेनैव करणीयं तथा च वर्जनीयं ज्ञायते च । ज्ञानी कार्यं कर्तुम् , अकार्यं च वर्जयितुं जानाति ||31 ।। हि. ज्ञान द्वारा ही करने योग्य तथा न करने योग्य का बोध होता है, ज्ञानी करणीय को करने और अकरणीय को नहीं करने बाबत जानता है। 10. प्रा. जं जेण पावियलं, सुहमसुहं वा जीवलोयम्मि । तं पाविज्जइ नियमा, पडियारो नत्थि एयस्स ||32।। सं. जीवलोके येन यत् सुखमसुखं वा प्राप्तव्यम् । तन् नियमात् प्राप्यते, एतस्य प्रतिकारो नाऽस्ति ||32।। हि. जीवलोक में जिसके द्वारा सुख अथवा दुःख प्राप्त करने योग्य है वह नियम से प्राप्त होता है उसका प्रतिकार नहीं हो सकता है । 11. प्रा. जम्मंतीए सोगो, वड्डन्तीए य वड्डए चिंता । परिणीआए दंडो, जुवइपिया दुक्खिओ निच्चं ।।33।। सं. जायमानायां शोकः, वर्द्धमानायां च चिंता वर्द्धते । परिणीतायां दण्डः, युवतिपिता दुःखितो नित्यम् ।।33।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. (पुत्री) उत्पन्न होने पर शोक होता है, बड़ी होने पर चिन्ता बढ़ती है, विवाह होने पर दण्ड मिलता है, इस प्रकार स्त्री का पिता हमेशा दुःखी होता है। 12. प्रा. जं चिय खमइ समत्थो, धणवंतो जं न गम्विरो होइ । जं च सुविज्जो नमिरो, तिसु तेसु अलंकिया पुहवी ।।34।। सं. यदेव समर्थः क्षमते, धनवान् यन्न गर्ववान् भवति । यच्च सुविद्यो नमः, त्रिभिस्तैः पृथ्व्यलता ||34|| हि. जो व्यक्ति स्वयं समर्थ होते हुए भी सहन करता है, जो धनवान होते हुए भी अभिमानी नहीं होता है, जो ज्ञानी होते हुए भी नम्र है, इन तीनों द्वारा पृथ्वी सुशोभित है । 13. प्रा. का सत्ती तीए तस्स पुरओ ठाइउं ? | सं. का शक्तिस्तस्यास्तस्य पुरतः स्थातुम् ? । हि. उसके आगे खड़े रहने के लिए उसकी क्या ताकत है ? | 14. प्रा. लज्जा चत्ता सीलं च खंडिअं, अजसघोसणा दिण्णा । जस्स कए पिअसहि ! सो चेअ जणो अजणो जाओ ।।35।। सं. लज्जा त्यक्ता, शीलं च खंडितम् , अयशोघोषणा दत्ता । प्रियसखि ! यस्य कृते स एव जनोऽजनो जातः ||35।। हि. हे प्रियसखि ! जिसके लिए लज्जा छोड़ी, शील खण्डित किया और अपयश की घोषणा की, वही मनुष्य (अब) दुर्जन हुआ है । 15. प्रा. परिच्चइय पोरुसं, अपासिऊण निययकुलं, अगणिऊण वयणीअं, अणालोइऊण आयइं परिचत्तं तेण दवलिंगं । सं. परित्यज्य पौरुषमदृष्ट्वा निजककुलमगणयित्वा । वचनीयमनालोच्याऽऽयतिं परित्यक्तं तेन द्रव्यलिङ्गम् ।। हि. पुरुषार्थ का त्याग करके, अपना कुल देखे बिना, निंदा की परवाह किये बिना, भविष्य का विचार किये बिना उसके द्वारा साधुवेष का त्याग किया गया। 16. प्रा. जंजिणेहिं पन्नत्तं तमेव सच्चं, इअ बुद्धी जस्स मणे निच्चलं तस्स सम्मत्तं । सं. यज्जिनैः प्रज्ञप्तं तदेव सत्यमिति बुद्धिर्यस्य मनसि निश्चलं तस्य सम्यक्त्वम् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. जिनेवर भगवंतों ने जो कहा है वही सत्य है, ऐसी बुद्धि जिसके मन में है उसका सम्यक्त्व निचल है । 17. प्रा. चोरो धणिणो धणं हरित्तए घरे पविसीअ । ____ सं. चौरो धनिनो धनं हर्तुम् गृहे प्राविशत् । हि. चोर ने धनवान का धन हरण (चोरी) करने हेतु घर में प्रवेश किया । 18. प्रा. पच्चूसे जिणे अच्चिय गुरू य. वंदित्ता, पच्चक्खाणं च करित्तु पच्छा य भोयणं कुज्जा । सं. प्रत्यूषे जिनानर्चित्वा, गुरश्च वन्दित्वा, प्रत्याख्यानं च कृत्वा, पश्चाच्च भोजनं कुर्यात् । हि. प्रातःकाल में जिनेश्वर भगवंतों की पूजा करके, गुरु भगवन्तों को वन्दन करके, पच्चक्खाण कर बाद में भोजन करना चाहिए । 19. प्रा. गुरुणा धम्म कुणमाणाणं सावगाणं, समायरंतीणं साविगाणं उवएसो दिण्णो । सं. गुरुणा धर्मं कुर्वद्भ्यः श्रावकेभ्यः, समाचरन्तीभ्यश्च श्राविकाभ्यः उपदेशो दत्तः । हि. धर्म करते हुए श्रावकों और धर्म करती हुई श्राविकाओं को गुरु भगवन्त द्वारा उपदेश दिया गया । 20. प्रा. पिउणा सिक्खीअमाणो पुत्तो सिक्खिज्जन्ती य पुत्ती गुणे लहेज्ज । सं. पित्रा शिक्ष्यमाणः पुत्रः शिक्ष्यमाणा च पुत्री गुणान् लभेते । हि. पिता द्वारा हितशिक्षा दिया जाता पुत्र और हितशिक्षा दी जाती पुत्री गुणों को प्राप्त करते हैं। 21. प्रा. सा महादेवी सुराणं रमणीहिं सलहिज्जंती, किन्नरीहिं गाइज्जन्ती, बुहेहिं थुन्वन्ती, बंधुणा मित्तेण य अभिनंदिज्जंती गब्भमुबहइ । सं. सा महादेवी सुराणां रमणीभिः श्लाघ्यमाना, किन्नरीभिर्गीयमाना, बुधैः स्तूयमाना, बन्धुना मित्रेण चाभिनन्द्यमाना गर्भमुद्वहति । हि. वह महादेवी देवांगनाओं द्वारा प्रशंसा की जाती, किन्नरियों द्वारा गीतगान की जाती, पण्डितों द्वारा स्तुति की जाती, बन्धु और मित्र द्वारा अभिनन्दन की जाती गर्भ को वहन करती है । 22. प्रा. जत्थ रमणीण रूवं, रमणिज्जं पेच्छिऊण अमरीओ। लज्जन्तीओ व चिंताइ, कहवि निदं न पावंति ।।36।। - ९५ - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. यत्र रमणीनां रमणीयं रूपं प्रेक्ष्याऽऽमर्यः । लज्जमाना इव चिन्तया , कथमपि निद्रां न प्राप्नुवन्ति ।।36।। हि. जहाँ स्त्रियों के मनोहर रूप को देखकर मानों देवियाँ शर्मिन्दा होती हों वैसी चिन्ता द्वारा किसी भी प्रकार से निद्रा को प्राप्त नहीं करती 23. प्रा. गायंता सज्झायं झायंता धम्मझाणमकलंकं । जाणंता मुणियव्वं, मुणिणो आवस्सए लग्गा ||37|| सं. स्वाध्यायं गायन्तः, अंकलङ्क धर्मध्यानं ध्यायन्तः । जानन्तो ज्ञातव्यं, मुनय आवश्यके लग्नाः ।।37।। हि. स्वाध्याय करनेवाले, निष्कलंक धर्मध्यान करनेवाले, जानने लायक पदार्थों को जाननेवाले मुनि आवश्यक क्रिया में लग गये = (करने लगे) हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. जम्बूकुमार ने कुमारावस्था में अपनी सब ऋद्धि का त्याग करके चारित्र ग्रहण किया । प्रा. जंबूकुमारेण कुमरत्तंमि अप्परं सलं इड्डि चइत्ता चारित्तं गिण्हीअं । सं. जम्बूकुमारेण कुमारत्वे आत्मीयां सर्वामृद्धिं त्यक्त्वा चारित्रं गृहीतम । हि. मैं शास्त्र पढ़ने के लिए गुरु भगवन्त के पास जाता हूँ। प्रा. हं सत्थाई अहिज्जिउं गुरुं गच्छामि । सं. अहं शास्त्राण्यध्येतुं गुरु गच्छामि । हि. गुरुं प्रमाद करते हुए साधु को पढ़ने के लिए कहते है । प्रा. गुरुं प्रमज्जंतं मुणिं पढउं कहेइ । सं. गुरुः प्रमाद्यन्तं मुनिं पठितुं कथयति । हि. रात्रि के प्रथम प्रहर में सोकर और अन्तिम प्रहर में जागकर किया जानेवाला अभ्यास स्थिर बनता है। प्रा. रत्तीए पढमे जामे सुविऊण चरिमे य जामे जग्गिऊण कीरन्तो अब्भासो थिरो होइ। सं. रात्रेः प्रथमे यामे सुप्त्वा, चरमे च यामे जागरित्वा क्रियमाणोऽभ्यासः स्थिरो भवति । - ॐ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. हि. मनुष्यों में सुवर्णकार, पक्षियों में कौआ और पशुओं में सियार ठग = शठ होता है। प्रा. जणेसु सुवण्णगारो, पक्खीसु वायसो, पसुसुं च सियालो सढो होइ। सं. जनेषु सुवर्णकार:, पक्षिषु वायसः, पशुषु च शृगालः शठो भवति । हि. पाठशाला में अभ्यास करती कन्याओं को तुम इनाम दो । प्रा. पाढसालाए अज्झयणं कुणंतीणं कन्नाणं पाहुडं देह । सं. पाठशालायामभ्यासं कुर्वन्तीभ्यः कन्याभ्यः प्राभृतं दत्त । हि. मनुष्यों की आधि दूर करने हेतु शास्त्रों के श्रवण बिना अन्य कोई उपाय नहीं है। प्रा. जणाणं आहिं हरितु सत्थाणं सवणं विणा अन्नो को वि उवाओ नत्थि । सं. जनानामाधि हर्तुं शास्त्राणां श्रवणं विना कोऽप्युपायो नाऽस्ति । 8. हि. उसने अग्नि द्वारा जलती हुई स्त्री का रक्षण किया । प्रा. अग्गिणा डज्झन्ती इत्थी तेण रक्खिआ | ___ सं. अग्निना दह्यमाना स्त्री तेन रक्षिता । 9. हि. राम द्वारा कही जाती कथा सुनकर वैराग्य प्राप्त हुआ । प्रा. रामेण कहिज्जन्ति कहं सुणित्ता वेरग्गं पावीअ । सं. रामेण कथ्यमानां कथां श्रुत्वा वैराग्यं प्राप्नोत् । 10. हि. जानने योग्य भावों को तू जान । प्रा. जाणियब्वे भावे तुमं जाणसु । . सं. ज्ञातव्यान् भावांस्त्वं जानीहि । 11. हि. उन्मत्त (मूर्ख) व्यक्ति ने अपना वस्त्र अग्नि में डाला और वह जल गया । प्रा. उम्मत्तेण जणेण अप्परं वत्थं अग्गिसि खित्तं, तं च दद्धं । सं. उन्मत्तेण जनेनाऽऽत्मीयं वस्त्रमग्नौ क्षिप्तम् तच्च दग्धम् । 12. हि. साधु भगवंतों की सेवा द्वारा उसके दिन व्यतीत हुए । प्रा. साहूणं सेवाए तस्स दिणाई वोलीणाई । सं. साधूनां सेवया तस्य दिनान्यतिक्रान्तानि । 13. हि. जीवों का वध करता हुआ और मांस का भक्षण करता हुआ मनुष्य राक्षस कहलाता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. जीवाणं वहं कुणन्तो, मंसं च भक्खंतो जणो रक्खसो कहिज्जइ । सं. जीवानां वधं कुर्वन् मांसं च भक्षयन्नरो राक्षसः कथ्यते । 14. हि. वह पापों की आलोचना लेने के लिए गुरु भगवंत के पास जाते शरमाता है । प्रा. सो पावाणं आलोयणं गिण्हउं गुरुं वच्चन्तो लज्जइ । सं. स पापानामालोचनां गृहीतुं गुरुं व्रजन् लज्जते । 15. हि. वह समाधिपूर्वक मृत्यू पाकर स्वर्ग में देव हुआ । प्रा. सो समाहीए मच्चुं पावित्ता सग्गे देवो हवीअ । सं. स समाधिना मृत्युं प्राप्य स्वर्गे देवोऽभवत् । 16. हि. रोते हुए बालक को तू दुःख नहीं देना । प्रा. रुवन्तं बालं तुं मा पीलसु । सं. रोदन्तं बालं त्वं मा पीडय । 17. हि. हँसता हुआ बालक सब को प्रिय लगता है । प्रा. हसन्तो बालो सव्वस्स पिओ होइ | सं. हसन् बालः सर्वस्य प्रियो भवति । 18. हि. ग्रहण करने योग्य को ग्रहण कर, त्याग करने योग्य का त्याग कर । प्रा. घेत्तव्वं गिण्हसु, चइयव्वं चयसु । सं. गृहीतव्यं गृहाण, त्यक्तव्यं त्यज । ९८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 21 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. देविंदेहिं अच्चिअं सिरिमहावीरं सिरसा मणसा वयसा वंदे । सं. देवेन्द्ररर्चितं श्रीमहावीरं शिरसा मनसा वचसा वन्दे । हि. देवेन्द्रों द्वारा पूजित-पूजे हुए श्रीमहावीर को मस्तक से, मन से और वचन से मैं वन्दन करता हूँ। 2. प्रा. महासईए सीयाए अप्पाणं सोहन्तीए निअसीलबलेण अग्गी जलपूरीकओ। सं. महासत्या सीतयाऽऽत्मानं शोधयन्तया निजशीलबलेनाऽग्निजलपूरीकृतः । हि. स्वयं को शुद्ध करती महासती सीता द्वारा अपने शील के प्रभाव से अग्नि को जल से पूर्ण किया गया । 3. प्रा. गुरुया अप्पणो गुणे अप्पणा कयाइ न वण्णन्ति | सं. गुरुका आत्मनो गुणानात्मना कदापि न वर्णयन्ति । हि. महापुरुष अपने गुणों की स्वयं कभी भी प्रशंसा नहीं करते हैं । 4. प्रा. नराणं सुहं वा दुहं वा को कुणइ ?, अप्पणच्चिय कयाइं कम्माइं समयंमि परिणमंति । सं. नराणां सुखं वा दुःखं वा कः करोति ? आत्मनैव कृतानि कर्माणि समये परिणमन्ति । हि. मनुष्यों को सुख अथवा दुःख कौन देता है ? स्वयं किये हुए कर्म ही योग्य समयमें परिणमित होते हैं। प्रा. जइ उ तुम्हे अप्पणो रिद्धिं इच्छह, तो निच्चंपि जिणेसरं आराहह । सं. यदि तु यूयमात्मन ऋद्धिमिच्छथ, ततो नित्यमपि जिनेश्वरमाराधयत | हि. जो तुम अपनी ऋद्धि की इच्छा रखते हो तो सदा जिनेश्वर भगवन्त की आराधना करो। 6. प्रा. जो कोहेण अभिभूओ जीवे हणइ, सो इह जम्मे परम्मि य जम्मणे वि अप्पणो वहाइ होइ । सं. यः क्रोधेनाऽभिभूतो जीवान् हन्ति, स इह जन्मनि परस्मिंश्च जन्मन्यप्याऽऽत्मनो वधाय भवति । हि. क्रोध से पराभूत जो (जन) जीवों को मारता है, वह इस जन्म में और पर जन्म में भी अपने वध के लिए होता है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. प्रा. नायपुत्तो भयवं महावीरो सिद्धत्थस्स रण्णो अवच्चं होत्था । सं. ज्ञातपुत्रो भगवान् महावीरः सिद्ध र्थस्य राज्ञोऽपत्यमभवत् । हि. ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर सिद्धार्थ राजा के पुत्र थे । प्रा. अरिहंता मंगलं कुज्जा, अरिहंते सरणं पवज्जामि । सं. अर्हन्तो मङ्गलं कुर्युः, अर्हतः शरणं प्रपद्ये । 8. हि. अरिहन्त मंगल करें, अरिहन्तों की शरण स्वीकारता हूँ । प्रा. गयणे अच्छरसाणं नच्चं दीसइ | सं. गगने ऽप्सरसां नृत्यं दृश्यते । हि. आकाश में अप्सराओं का नृत्य दिखाई देता है । 10. प्रा. भिसया तणुस्स वाहिं अवणेन्ति, लोगोत्तमा य भगवंता सूरिणो य मणसो आहिणो हरन्ति । 9. सं. भिषजस्तनोःव्याधीनपनयन्ति, लोकोत्तमाश्च भगवन्तस्सूरयश्च मनस आधीन् हरन्ति । हि. वैद्य शरीर के रोग दूर करते हैं, लोक में उत्तम-पूज्य भगवान् और आचार्य मन की पीड़ाओं को दूर करते हैं । 11. प्रा. सरए इत्थीओ घराणं अंगणे अच्छरसाउव्व गाणं कुणन्ति नच्वंति य । सं. शरदि स्त्रियो गृहाणामङ्गणेऽप्सरस इव गानं कुर्वन्ति नृत्यन्ति च । हि. शरद् ऋतु में स्त्रियाँ घरों के आंगन में अप्सरा की भाँति गान करती हैं और नृत्य करती हैं । 12. प्रा. मुणओ पाउसे एगाए वसहीए चिट्ठन्ति । सं. मुनयः प्रावृष्येकस्यां वसत्यां तिष्ठन्ति । हि. मुनिजन वर्षाकाल में एक स्थान में रहते हैं । 13. प्रा. जए दयालवो जणा बहुआ न हवन्ति । सं. जगति दयालवो जना बहवो न भवन्ति । हि. जगत में दयालु व्यक्ति ज्यादा नहीं होते हैं । 14. प्रा. कलिम्मि सिरिमंता लोगा पाएण गव्विरा निद्दया य संति । सं. कलौ श्रीमन्तो लोकाः प्रायो गर्विष्ठाः निर्दयाश्च सन्ति । हि. कलियुग में धनवान लोग प्रायः अभिमानी और निर्दय होते हैं। 15. प्रा. दीनत्तणे वि जो उवयरेइ, सो धम्मवंतो जाणेयव्वो । सं. दीनत्वेऽपि य उपकरोति, स धर्मवान् ज्ञातव्यः । हि. दीनता (गरीब अवस्था) में भी जो उपकार करता है, उसे धार्मिक जानना । १०० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. प्रा. गामिल्लाणं तत्ताइं न रोएन्ति । सं. ग्राम्येभ्यस्तत्त्वानि न रोचते । हि. ग्राम्यजन को तत्त्व नहीं रूचते हैं । 17. प्रा. पुरिल्ला लोगा तत्ताणं नाणे कुसला संति । सं. पौराः लोकास्तत्त्वानां ज्ञाने कुशलास्सन्ति । हि. नगरवासी लोग तत्त्वों के ज्ञान में कुशल होते हैं । 18. प्रा. दुहिअएसु नरेसु सइ दयं कुज्जा । सं. दुःखितकेषु नरेषु सदा दयां कुर्यात् । हि. दुःखी व्यक्तियों पर हमेशा दया करनी चाहिए । 19. प्रा. धणवंताणं पि लच्छी पाउसस्स विज्जुव्व चवला नायव्वा । सं. धनवतामपि लक्ष्मी प्रावृषो विद्युदिव चपला ज्ञातव्या । हि. धनवानों की लक्ष्मी भी वर्षाकाल की बिजली की तरह चंचल जाननी । 20. प्रा. इमं भोयणं विसमइयं अत्थि, तओ मा खाएह । सं. इदं भोजनं विषमयमस्ति, ततो मा खाद । हि. यह भोजन विषमिश्रित है, इसलिए तुम न खाओ । 21. प्रा. राइक्कं दव्वं पयाए हिआय होइअव्वं । सं. राजकीयं द्रव्यं प्रजायाः हिताय भवितव्यम् । हि. राजा सम्बन्धी द्रव्य प्रजा के हित के लिए होना चाहिए । 22. प्रा. जीवाणं अप्पणयं नाणं दंसणं चरितं च अत्थि, अन्नं सव्वमणिच्चं, तत्तो ताणि चिय सेविज्जाह । सं. जीवानामात्मीयं ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च सन्ति, अन्यत् सर्वमनित्यं, ततस्तान्येव सेवध्वम् । हि. जीवों का ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही स्वयं का है, अन्य सब अनित्य है, इसलिए उनका ही सेवन करो । 23. प्रा. जे निरत्थयं पाणिवहं कुणंति, ताणं धिरत्थु । सं. ये निरर्थकं प्राणिवधं कुर्वन्ति तेषां धिगस्तु | हि. जो निरर्थक जीवहिंसा करते हैं, उनको धिक्कार हो । · 24. प्रा. गावीणं दुद्धं बालयाणं सोहणं ति जणा वयंति । सं. गवां दुग्धं बालकानां शोभनमिति जना वदन्ति । हि. गायों का दूध बालकों के लिए अच्छा है, इस प्रकार लोग कहते हैं । १०१ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. प्रा. तं एरिसेहिं कम्मेहिं अप्पं निरए माइं पक्खिवसु । सं. त्वमीदृशैः कर्मभिरात्मानं नरके मा प्रक्षिप | हि. तुम ऐसे कार्यों द्वारा आत्मा (स्वयं) को नरक में मत डालो । 26. प्रा. दुज्जणाणं गिराए अमयमत्थि, हियए उ विसं । सं. दुर्जनानां गिर्यमृतमस्ति, हृदये तु विषम् । हि. दुर्जनों की वाणी में अमृत है, लेकिन हृदय में जहर है । प्रा. पावा अप्पणो हि पि न पिच्छन्ति, न सुणंति य । सं. पापात्मानः स्व हितमपि न प्रेक्षन्ते, न श्रृण्वन्ति । हि. पापी व्यक्ति अपना हित देखते भी नहीं हैं और सुनते भी नहीं हैं। 28. प्रा. जो सीलवंतो जिइंदियो य होइ, तस्स तेओ जसो धिई य वड्डन्ते । सं. यः शीलवान् जितेन्द्रियश्च भवति, तस्य तेजो यशो धृतिश्च वर्धन्ते । हि. जो शीलवान और जितेन्द्रिय होता है, उसके तेज, यश और धैर्य बढ़ते हैं। 29. प्रा. नहस्स सोहा चंदो, सरोयाइं सरस्स य । तवसो उवसमो य, मुहस्स य चक्खू नक्को य ।।38।। सं. नभसः शोभा चन्द्रः, सरोजानि सरसश्च । . तपस उपशमश्च , मुखस्य च चक्षुषी नासिका च ।।38।। हि. आकाश की शोभा चन्द्र, सरोवर की (शोभा) कमल, तप की (शोभा) उपशम; मुख की शोभा आँख और कान हैं। 30. प्रा. राइणा वुत्तं-भयवं वेसासु मणं कयावि न करिस्सं । सं. राज्ञोक्तं-भगवन् वेश्यासु मनः कदापि न करिष्यामि । हि. राजा ने कहा, हे भगवन्त ! मैं कभी भी वेश्याओं में आसक्ति नहीं करूँगा। प्रा. अप्पस्स इव सव्वेसुं पाणीसुं जो पासइ, सच्चिय पासेइ । सं. आत्मन इव सर्वेषु प्राणीषु यः पश्यति, स एव पश्यति । हि. जो स्वयं की तरह सभी प्राणियों को देखता है, वह ही देखता है। 32. प्रा. जीवाणं अजीवाणं च सण्हं सरूवं जित्तियं जारिसं च जिणिंदस्स पवयणाए अत्थि, तेत्तिलं तारिसं च सरूवं न अन्नह दंसणे । सं. जीवानामजीवानां च सूक्ष्मस्वरूपं यावद् यादृशं च जिनेन्द्रस्य प्रवचनेऽस्ति, तावत् तादृशं च स्वरूपं नान्यत्र दर्शने । १०२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. जीवों और अजीवों का सूक्ष्म स्वरूप जितना और जैसा जिनेश्वर के सिद्धान्त में है, उतना और वैसा स्वरूप अन्य दर्शन में नहीं है। 33. प्रा. एवं जीवंताणं, कालेण कयाइ होइ संपत्ती । जीवाणं मयाणं पुण, कत्तो दीहमि संसारे ? ||39।। सं. एवं जीवतां जीवानां कालेन कदाचित् संपत्तिर्भवति । मृतानां जीवानां पुनः, दीघे संसारे कुतः ? ||39।। हि. इस प्रकार जिन्दे प्राणियों को कालक्रम से कदाचित् संपत्ति हो सकती है, लेकिन मरे हुए प्राणियों को पुनः इस दीर्घ संसार में (संपत्ति) कहाँ से हो। 34. प्रा. पाणेसु धरन्तेसु य, नियमा उच्छाहसत्तिममुयंतो । पावेइ फलं पुरिसो, नियववसायाणुरूवं तु ||40।। सं. प्राणेषु धरत्सु च, नियमादुत्साहशक्तिममुञ्चन् । पुरुषो निजव्यवसायानुरूपं तु फलं प्राप्नोति ||40।। हि. प्राण धारण करने पर निश्चय उत्साहशक्ति का त्याग नहीं करते हुए पुरुष अपने व्यवसाय के अनुरूप फल प्राप्त करता है। 35. प्रा. दारं च विवाहंतो, भममाणो मंडलाइ चत्तारि। सूएइ अप्पणो तह, वहूइ चउगइभवे भमणं ||41।। सं. दारांश्च विवाहयन्, चत्वारि मण्डलानि भ्रमन् । आत्मनस्तथा वध्वाश्चतुर्गतिभवे भ्रमणं सूचयति ।।41।। हि. स्त्री के साथ शादी करते हुए चार मण्डल (फेरा) घूमते हुए अपने तथा बहू के चार गतिरूप संसार में भ्रमण को सूचित करता है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. प्रभात में गोपाल गायों को दोहता है। प्रा. पच्चूसे गोवा गावीओ दोहेन्ति । सं. प्रत्यूषे गोपा गा दुहन्ति । हि. शुभ कर्मवाले जीव शुभकार्य करके परलोक में सुखी होते हैं। प्रा. सुकम्मा जीवा सुहाइं किच्चाई करित्ता, परलोए सुहिणो हवन्ति । सं. सुकर्माणो जीवाः शुभानि कृत्यानि कृत्वा , परलोके सुखिनो भवन्ति । 3. हि. हे भगवन् ! आप इस असार संसार में से हमारे जैसे दुःखियों का उद्धार करो। -१०३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. भयवं ! भवन्तो इमत्तो असारत्तो संसारत्तो अम्हारिसे दुहिणो उद्धरेइ । सं. भगवन् ! भवानस्मादसारात् संसारादस्मादृशान् दुःखिन उद्धरतु । 4. हि. शत्रुओं से प्रजा का रक्षण करने हेतु राजपुरुषों ने नगर के बाहर खाई बनाई। प्रा. सत्तुसुन्तो पयं रक्खिउं रायपुरिसा नयरत्तो बहिं परिहं करीअ । सं. शत्रुभ्यः प्रजां रक्षितुं राजपुरुषा नगराद् बहिः परिखामकुर्वन् । हि. पत्थर समान हृदय को धारण करनेवाले ये मनुष्य बैलों को कष्ट देते प्रा. गावव्व हिययवंता इमे जणा बइल्ले अईव पीलंति । सं. ग्रावाण इव हृदयवन्त इमे जना बलीवर्दानतीव पीडयन्ति । 6. हि. मनुष्य अन्धकार में चक्षु द्वारा देखने के लिए समर्थ नहीं होते हैं। प्रा. मणूसा तमंसि चक्खूहिं देक्खिउं पक्कला न हवन्ति । सं. मनुष्यास्तमसि चक्षुभ्यां द्रष्टुं समर्थाः न भवन्ति । 7. हि. लोग अचिन महीने में प्रतिपदा से प्रारम्भ कर पूर्णिमा पर्यन्त महोत्सव करते हैं। प्रा. जणा आसिणे मासे पाडिवयाए आरब्भ पुण्णमं जाव महूसवं कुणंति । सं. जना आश्विने मासे प्रतिपद आरम्य पूर्णिमां यावन् महोत्सवं कुर्वन्ति । 8. हि. विद्वान मनुष्य अपने गुणों द्वारा सर्वत्र पूजित बनते हैं। प्रा. विउसा जणा अप्पणो गुणेहिं सब्वत्थ पूइज्जेइरे । सं. विद्वांसो जना आत्मनो गुणैः सर्वत्र पूज्यन्ते । 9. हि. सोनी कसौटी पर सुवर्ण की परीक्षा करता है। . प्रा. सुवण्णगारो निहसंमि सुवण्णं परिक्खइ । सं. सुवर्णकारो निकषे सुवर्णं परीक्षते । 10. हि. कुशल वैद्य भी त्रुटित आयुष्य को जोड़ने हेतु समर्थ नहीं होते हैं। प्रा. सुविज्जो वि तुट्टि आउसं संधिउं पक्कलो न होइ । सं. सुवैद्योऽपि त्रुटितमायुः संधातुं पक्वलो न भवति । 11. हि. तुम्हारे जैसे स्नेहालु पुरुषों को हम जैसे गरीब पर प्रीति करनी चाहिए। प्रा. तुम्हारिसा नेहालवो पुरिसा अम्हारिसेसुं दीणेसुं पीइं कुज्जा । सं. युष्मादृशाः स्नेहालवः पुरुषा अस्मादृशेषु दीनेषु प्रीतिं कुर्यात् । १०४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. हि. सभी इन्द्र तीर्थंकरों के जन्म समय में मेरुपर्वत पर तीर्थंकरों को ले जाकर जन्म महोत्सव करते हैं । प्रा. सव्वे इंदा तित्थयराणं जम्मम्मि तित्थयरे मेरुम्मि नेऊण जम्ममहूसवं कुणन्ति । सं. सर्वे इन्द्रास्तीर्थङ्कराणां जन्मनि तीर्थंकरान् मेरौ नीत्वा जन्मोत्सवं कुर्वन्ति । हि. लोगों को सम्पत्ति में अभिमानी नहीं होना चाहिए और आपत्ति में (दुःख में) मुझाना नहीं चाहिए । प्रा. जणा संपयाए गविरा न हवेज्ज, आवयाए य णाई मुज्झेज्ज । सं. जनाः सम्पदि गर्विष्ठा न भवेयुः आपदि च न मुह्येयुः । 14. हि. जीव अपने ही कर्मों द्वारा सुख और दुःख प्राप्त करता है, दूसरा देता है, वह मिथ्या है। प्रा. जीवो अप्पस्स कम्मेहिं चिय सुहं च दुहं च पावइ, अन्नो देइ, तं मिच्छा अस्थि । सं. जीव आत्मनः कर्मणैव सुखं दुःखं च प्राप्नोति, अन्यो ददाति तन् मिथ्याऽस्ति । 15. हि. गुरु भगवंतों के आशीर्वाद से कल्याण ही होता है, अतः उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना । प्रा. गुरूणं आसीसा कल्लाणं चिय होइ, तत्तो तेसिं आणा न अवमण्णिअब्बा। सं. गुरूणामाशिषा कल्याणं चैव भवति, ततस्तेषामाज्ञा नाऽवमन्तव्या । 16. हि. तपश्चर्या से कर्मों की निर्जरा होती है और क्रोध से कर्मबन्ध होते हैं। प्रा. तवसा कम्माइं निज्जरेन्ति, कोहेण य कम्माइं बंधिज्जन्ति । सं. तपसा कर्माणि क्षीयन्ते, क्रोधेन च कर्माणि बध्यन्ते । 17. हि. शास्त्रपठित मूर्ख बहुत होते हैं, लेकिन जो आचारवान हैं वे ही पण्डित कहलाते हैं। प्रा. सत्यं पढिअवंता मुरुक्खा बहवो, किंतु जे आयारवंता संति ते च्चिय अहिण्णउ कहिज्जन्ति । सं. शास्त्रं पठितवन्तो मूर्खा बहवो भवन्ति, किं तु ये आचारवन्तः, ते एवाऽभिज्ञाः कथ्यन्ते ।। १०५ १०५ === Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. हि. बन्धु ने राजा को कहा कि-तू राज्य का त्याग कर और यहाँ खड़ा न रह । प्रा. बंधु रायं कहीअ, तुं रज्जं चयहि, इत्थ य मा चिट्ठसु । सं. बन्धुः राजानमकथयत्त्वं राज्यं त्यज, अत्र च मा तिष्ठ । 19. हि. व्यवस्थित पालन किया जाता राज्य राजा को अत्यधिक धन और कीर्ति अर्पण करता है। प्रा. सुट्ट पालिज्जंतं रज्जं रायाणस्स बहु धणं जसं च अप्पेइ । सं. सुष्टु पाल्यमानं राज्यं राज्ञो बहुं धनं यशश्चाऽर्पयति । 20. हि. वृद्धावस्था में शरीर की सुन्दरता नष्ट होती है । प्रा. वुड्डत्तणे सरीरस्स सुंदरत्तणं नस्सइ । सं. वृद्धत्वे शरीरस्य सुन्दरत्वं नश्यति । . 21. हि. दूसरों के दुःख सुनकर महान् आत्माओं (महात्माओं) का चित्त (मन) दयालु बनता है । प्रा. पारकेराइं दुक्खाइं सुणित्ता महप्पाणं चित्तं दयालु होइ । सं. परकीयानि दुःखानि श्रुत्वा महात्मनां चित्तं दयालु भवति । कश -१०६ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 22 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा | सं. पापकर्म नैव कुर्यात् न कारयेत् । हि. पापकर्म नहीं करना और नहीं कराना चाहिए । 2. प्रा. पाइयकळ लोए कस्स हिययं न सुहावेइ । सं. प्राकृतकाव्यं लोके कस्य हृदयं न सुखयति । हि. प्राकृतकाव्य लोक में किसके हृदय को सुख नहीं देता है ! बलवंता पंडिया य जे केवि नरा संति ते वि महिलाए अंगुलीहिं नच्चाविज्जंति । सं. बलवन्तः पण्डिताच ये केऽपि नरास्सन्ति, तेऽपि महिलाया अंगुलीभिर्नर्त्यन्ते । हि. बलवान और पण्डित जो कोई भी व्यक्ति हैं, वे भी स्त्री की अंगुलियों द्वारा नचाये जाते हैं। 4. प्रा. अहं वेज्जोम्हि, फेडेमि सीसस्स वेयणं, सुणावेमि बहिरं, अवणेमि तिमिरं, पणासेमि खसरं, उम्मूलेमि वाहिं, पसमेमि सूलं, नासेमि जलोयरं च । सं. अहं वैद्योऽस्मि, स्फेटयामि शीर्षस्य वेदनाम्, श्रावयामि बधिरम् , अपनयामि तिमिरम्, प्रणाशयामि कसरम्, उन्मूलयामि व्याधिम् , प्रशाम्यामि शूलम्, नाशयामि जलोदरं च ।। हि. मैं भिषक् वैद्य हूँ, मस्तक की वेदना को दूर करता हूँ, बधिर को सुनाता हूँ (सुनने योग्य करता हूँ), आँख का रोग दूर करता हूँ, विकार को नष्ट करता हूँ, व्याधि (पीड़ा) को उखेड़ता हूँ, मूल से नष्ट करता हूँ, शूल को शान्त करता हूँ और जलोदर का नाश करता हूँ। 5. प्रा. साहूणं दसणं पि हि नियमा दुरियं पणासेइ । . सं. साधूनां दर्शनमपि हि नियमाद दुरितं प्रणाशयति । हि. साधु भगवन्तों का दर्शन भी नियम से पाप का नाश करता है। 6. प्रा. रण्णा सुवण्णगारे वाहराविउण अप्पणो मउडम्मि वइराइं वेडुज्जाइं रयणाणि य रयावीअईअ । : - १०७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. राज्ञा सुवर्णकारान् व्याहार्याऽऽत्मनो मुकुटे वज्राणि वैडूर्याणि रत्नानि चाऽरच्यन्त । हि. राजा ने सुवर्णकारों को बुलाकर अपने मुकुट में वज्र और वैडूर्यरत्नों को मण्डित किया । 7. प्रा. संपइ नरिंदेण सयलाए पिच्छीए जिणेसराणं चेइयाइं कराविआइं । सं. सम्प्रति नरेन्द्रेण सकलायां पृथ्व्यां जिनेश्वराणां चैत्यानि कारितानि । हि. सम्प्रति राजा ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर जिनेश्वर भगवंतों के मन्दिर करवाये | 8. प्रा. तवस्सी भिक्खू न छिंदे, ण छिंदावए, ण पए, ण पयावए । सं. तपस्वी भिक्षुर्न छिन्द्यात्, न छेदयेत्, न पचेत्, न पाचयेत् । हि. तपस्वी भिक्षु (किसी का) छेद करे नहीं, (किसी के पास) छेद करवाये नहीं, (स्वयं) पकाये नहीं और (किसी के द्वारा भी) पकवाये नहीं । 9. प्रा. समणोवासगो पइट्ठाए महोच्छवे सव्वे साहम्मिए भुंजावेईअ । सं. श्रमणोपासकः प्रतिष्ठाया महोत्सवे सर्वान् साधर्मिकानभोजयत् । हि. श्रावक ने प्रतिष्ठा के महोत्सव में सभी साधर्मिकों को भोजन करवाया । 10. प्रा. जइ पिआ पुत्ते सम्म पढावतो, तो वुढत्तणे सो किं एवंविहं दुहं लहेन्तो ? | सं. यदि पिता पुत्रान् सम्यगपाठयिष्यत्, ततो वृद्धत्वे स किमेवंविधं दुःखमलप्स्यत् ? । हि. जो पिता ने पुत्रों को अच्छी तरह पढाया होता, तो वृद्धावस्था में वह क्या इस प्रकार के दुःख प्राप्त करता ? | 11. प्रा. नरिंदेण तत्थ गिरिम्मि चेइअं निम्मविअं । सं. नरेन्द्रेण तत्र गिरौ चैत्यं निर्मापितम् । हि. राजा द्वारा वहाँ पर्वत पर मन्दिर बनवाया गया । 12. प्रा. खमियव्वं खमावियव्वं, उवसमियव्वं उवसमावियव्वं, जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तओ अप्पणा चेव उवसमियव्वं । सं. क्षन्तव्यं क्षमितव्यम्, उपशान्तव्यमुपशमितव्यम्, य उपशाम्यति तस्यास्त्याराधना, यो नोपशाम्यति तस्य नास्त्याराधना, तत आत्मनैवोपशान्तव्यम् । १०८ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. क्षमा रखनी चाहिए और क्षमा करनी चाहिए, शान्त बनना चाहिए और शान्त करना चाहिए । जो उपशान्त बनता है उसकी आराधना है, जो उपशान्त नहीं बनता है उसकी आराधना नहीं है अतः स्वयं अवश्य उपशान्त बनना चाहिए। 13. प्रा. एरिसा कन्नगा परस्स दाउण अप्पणो गेहाओ किं निस्सारिज्जइ ? सव्वहा न जुत्तमेयं । सं. ईदृशी कन्या परस्मै दत्वाऽऽत्मनो गृहात् किं निस्सार्येत ? सर्वथा न युक्तमेतद् । हि. ऐसी कन्या दूसरे को देकर अपने घर से क्यों बाहर निकालें ? यह सर्वथा योग्य नहीं है। 14. प्रा. अहो कटुं कटुं वासुदेवपुत्तो होऊण सयलजणाणं मणवल्लहं कणिटुं भायरं विणासेहामि । सं. अहो कष्टं कष्टं वासुदेवपुत्रो भूत्वा सकलजनानां मनोवल्लभं कनिष्ठं भ्रातरं विनाशयिष्यामि ।। हि. अहो दुःख है दुःख है कि वासुदेव का पुत्र होकर सभी लोगों के मन को प्रिय छोटे भाई (लघु भ्राता) का मैं विनाश करूंगा। 15. प्रा. हेमचंदसूरिणो पासे देवाणं सरूवं मुणिउण हं सव्वत्थ वि तित्थयराणं मंदिराई कराविस्सामि त्ति पइण्णं कुमारवालनरिंदो कासी । सं. हेमचन्द्रसूरेः पार्श्वे देवानां स्वरूपं ज्ञात्वाऽहं सर्वत्रापि तीर्थकराणां मन्दिराणि कारयिष्यामीति प्रतिज्ञां कुमारपालनरेन्द्रोऽकार्षीत्) हि. श्रीहेमचन्द्रसूरि. जी के पास देवों का स्वरूप जानकर ''मैं सर्वत्र तीर्थंकरों के मन्दिर करवाऊँगा" ऐसी प्रतिज्ञा कुमारपाल राजा ने की। 16. प्रा. सो पइदिणं अब्मस्संतो जिणधम्मं, पज्जुवासंतो मुणिजणं, परिचिंततो जीवाजीवाइणो नव पयत्थे, रक्खन्तो रक्खाविन्तो य पाणिगणं, बहुमाणंतो साहम्मिए जणे, सव्वायरेण पभावंतो जिणसासणं कालं गमेइ । स प्रतिदिनमभ्यस्यन् जिनधर्म , पर्युपासमानो मुनिजनं, परिचिन्तयन् जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् , रक्षन् रक्षयन् च प्राणिगणं, बहुमानयन् साधर्मिकान् जनान्, सर्वादरेण प्रभावयन् जिनशासनं कालं गमयति । १०९ श्री Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. वह प्रतिदिन जिनधर्म का अभ्यास करता, मुनिजन की सेवा करता, जीव-अजीवादि नौ पदार्थों की विचारणा करता, जीवों के समूह की रक्षा करता और रक्षा करवाता, साधर्मिकों का बहुमान करता, सर्व आदरपूर्वक जिनशासन की प्रभावना करता हुआ काल व्यतीत करता है । 17. प्रा. एसो रज्जस्स जोग्गो ता झत्ति रज्जे ठविज्जउ, अलाहि निग्गुणेहिं अहिं सं. एष राज्यस्य योग्यस्तस्मात् झटिति राज्ये स्थाप्यतामलं निर्गुणैरन्यैः । हि. यह राज्य के योग्य है इसलिए शीघ्र राज्य पर स्थापित करो, गुणरहित अन्य से क्या ? 18. प्रा. गिहं जहा को वि न जाणइ तह पवेसेमि नीसारेमि य । सं. गृहं यथा कोऽपि न जानाति, तथा प्रवेशयामि निस्सारयामि च । हि. जैसे कोई न जाने उस तरह (वैसे ) मैं घर में प्रवेश कराता हूँ और बाहर निकालता हूँ । 19. प्रा. जो सावज्जे पसत्तो सरांपि अतरतो कहं तारए अन्नं ? सं. यः सावद्ये प्रसक्तः स्वयमप्यतरन् कथं तारयेदन्यम् ? हि. जो पाप में आसक्त है वह स्वयं नहीं तिरता (तो) दूसरे को कैसे तारेगा ? | 20. प्रा. गुरुणा पुणरुतं अणुसासिओ वि न कुप्पेज्जा । सं. गुरुणा पुनः पुनरनुशासितोऽपि न कुप्येत् । हि. गुरु द्वारा बारबार शिक्षा देने पर भी कोप नहीं करना । 21. प्रा. एक्कस्स चेव दुक्खं, मारिज्जंतस्स होइ खणमेक्कं । जावज्जीवं सकुडुंबयस्स पुरिसस्स धणहरणे ||421 सं. मार्यमाणस्यैकस्यैवैकं क्षणं दुःखं भवति । धणहरणे सकुटुम्बकस्य पुरुषस्य यावज्जीवम् ||42|| हि. पुरुष को मारनेवाले अकेले को ही एक क्षण दुःख होता है, लेकिन धनहरण (चोरी) करने से कुटुम्बसहित पुरुष को यावज्जीवनपर्यन्त दुःख होता है । 22. प्रा. दूसमसमएवि हु हेमसूरिणो निसुणिऊण वयणाई । सव्वजणो जीवदयं, कराविओ कुमरवालेण ||43॥ ११० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. सं. दुःषमसमयेऽपि खु, हेमसूरेर्वचनानि निश्रुत्य । कुमारपालेन सर्वजनो जीवदयां कारितः ।।43।। दुषमकाल में भी सचमुच श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी के वचन सुनकर कुमारपाल राजा द्वारा सभी लोगों के पास जीवदया करायी गयी। प्रा. रोवन्ति रुवावन्ति य, अलियं जपंति पत्तियावेन्ति । कवडेण य खंति विसं, मरन्ति न य जंति सब्भावं ||44|| सं. रुदन्ति रोदयन्ति च, अलीकं जल्पन्ति प्रत्याययन्ति । कपटेन च विषं खादन्ति, म्रियन्ते सद्भावं न च यान्ति ||44।। हि. (स्त्री) रोती है, रुलाती है, झुठ बोलती है, विश्वास दिलाती है, मायापूर्वक जहर खाती है, मरती है लेकिन सदभाव नहीं पाती है। 24. प्रा. मरणभयंमि उवगए, देवा वि सइंदया न तारेन्ति । धम्मो ताणं सरणं, गइत्ति चिंतेहि सरणत्तं ।।45।। सं. मरणभये उपगते, सेन्द्रा देवा अपि न तारयन्ति । धर्मस्त्राणं शरणं, गतिरिति शरणत्वं चिन्तय ||45।। मरण का भय प्राप्त होने पर इन्द्रसहित देव भी बचा नहीं सकते हैं, धर्म रक्षण, शरण, गति है इस प्रकार शरणत्व का विचार करे। 25. प्रा. हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए स णासेइ अप्पाणं ||46।। सं. परप्राणान् हत्वा य आत्मानं सप्राणं करोति ।। सोऽल्पानां दिवसानां कृते आत्मानं नाशयति ||46।। हि. जो अन्य के प्राणों का नाश करके स्वयं को प्राणवान् जीवित रखता है, वह थोड़े दिनों के (जीवन के लिए आत्मा का नाश करता है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. पिता ने उपाध्याय के पास पुत्रों को तत्त्वों का ज्ञान ग्रहण करवाया । प्रा. पिअरो उवज्झायत्तो पुत्ते तत्ताणं नाणं घेप्पाविईअ । सं. पितोपाध्यायात् पुत्रांस्तत्त्वानां ज्ञानमग्राह्यत् । हि. सिद्धराज ने श्रीहेमचन्द्रसूरी. जी के पास व्याकरण की रचना करवायी इसलिए उसका नाम सिद्धहेम रखा गया । प्रा. सिद्धराओ हेमचंद्रसूरिणा वागरणं रचाविईअ, तत्तो सिद्धहेमं ति तस्स णामं ठविज्जईअ । - १११ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. सिद्धराजो हेमचन्द्रसूरिणा व्याकरणमरचयत्, ततः सिद्धहैममिति तस्याऽभिधानमस्थापयत् ।। सुशिष्य गुरु भगवन्तों को अपनी भूलें सुनाते हैं और सुनाकर बाद में क्षमा माँगते हैं। प्रा. सुसीसा गुरूणं अप्पकेराइं खलिआई सुणावेन्ति, सुणावित्ता य पच्छा ते खामेन्ति । सं. सुशिष्या गुरुभ्य आत्मीयानि स्खलितानि श्रावयन्ति, श्रावयित्वा च पश्चात्ते क्षमयन्ति । हि. जो पुस्तकों का विनाश करते हैं, वे परलोक में मूक, अन्ध और बहरे होते हैं। प्रा. जे पोत्थयाइं विणासेन्ति, ते परलोए मूगा अंधा बहिरा य हवन्ति । सं. ये पुस्तकानि विनाशयन्ति, ते परलोके मूका अन्धा बधिराश्च भवन्ति । हि. आचार्य भगवन्त शिष्यों को रात्रि के अन्तिम प्रहर में उठाकर हमेशा स्वाध्याय करवाते हैं। प्रा. आयरियो सीसे स्तीए चरमे जामे उट्ठाविऊण सया सज्झायं करावेई । सं. आचार्यश्शिष्यान् रात्रेश्चरमे यामे उत्थाप्य सदा स्वाध्यायं कारयति । 6. हि. नृत्यकार ने राजा और सभाजनों को भरतराजा का नाटक दिखाया और वह (नाटक) दिखलाते नृत्यकार ने केवलज्ञान प्राप्त किया । प्रा. नडो राइणं परिसाए लोए य भरहरायस्स नाड्यं दक्खवीअ, तं च दावन्तो नट्टओ केवलनाणं पावीअ । सं. नटो राजानं पर्षदो लोकांश्च भरतराजस्य नाट्यमदर्शयत्, तच्च दर्शयन्नर्तकः केवलज्ञानं प्राप्नोत् । हि. पिता पुत्रों को विद्वान गुरु द्वारा शिक्षा (बोध) दिलाते हैं । प्रा. पिआ पुत्ते विउसेण गुरुणा अणुसासेइ । सं. पिता पुत्रान् विषा गुरुणाऽनुशासयति । हि. राजा के बुद्धिशाली मन्त्री ने अपनी बुद्धि से नगर के प्रति आते हुए शत्रुओं का नाश करवाया । प्रा. रण्णो धीमंतो मंती अप्पकेराए बुद्धीए नयरं पइ आगच्छंते सत्तुणो नासवीअ। सं. राज्ञो धीमान् मन्त्री आत्मीयया बुद्ध्या नगरं प्रत्यागच्छतः शत्रूननाशयत् । - ११२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. हि. राजा ने उपाध्याय भ. को बुलाकर कहा कि तुम राजपुत्रों को नीतिशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढाओ । प्रा. नरवई उवज्झायं बोल्लवित्ता कहीअ, तुब्भे रायपुत्ते नीइसत्थं वागरणसत्थं च पाढेह | सं. नरपतिरुपाध्यायमाह्वायाऽकथयद् यूयं राजपुत्रान् नीतिशास्त्रं व्याकरणशास्त्रं च पाठ्यत । 10. हि. राम ने उस समय उसको जहर खिलाया होता तो वह जरूर मर जाता । प्रा. रामो तया तं विसं भक्खावंतो, तया सो नूणं मरंतो । सं. रामस्तदा तं विषमभोजयिष्यत्, तदा स नूनममरिष्यत् । 11. हि. माता छोटे बालकों को नहीं डराए । प्रा. माआ कणिट्टे सिसुणो न बीहावेज्ज । सं. माता कनिष्ठान् शिशून् न भापयतु । 12. हि. तीर्थंकर परमात्मा भव्य जीवों को संसार के बन्धन में से मुक्तकर शाश्वत सुख दिलाते हैं । प्रा. तित्थयरा भव्वे जीवे संसारस्स बंधणत्तो मोयावित्ता सासयं सोक्खं अप्पावेन्ति । सं. तीर्थकरा भव्यान् जीवान् संसारस्य बन्धनान् मोचयित्वा शाश्वतं सौख्यमर्पयन्ति । 13. हि. जिनके द्वारा चोरी की गई उनको राजा ने शिक्षा करवाई । प्रा. जेहिं चोरियं कयं, ते निवई दंडावीअ । सं. यैश्चौर्यं कृतं तान् नृपतिरदण्डयत् । 14. हि. कुमार ने घर से निकलकर सब का त्याग करके उद्यान में आचार्य भगवन्त के पास संयम ग्रहण किया और बहुत कुमारों को (संयम ) ग्रहण करवाया । प्रा. कुमारो गेहत्तो अभिनिक्खमिऊण सव्वं चइत्ता उज्जाणे आयरियस्स समीवं संजम गिण्हीअ बहू य कुमारे घेप्पाविईअ । सं. कुमारो गृहादभिनिष्क्रम्य सर्वं त्यक्त्वोद्याने आचार्यस्य समीपं संयममगृह्णाद्, बहून् कुमारांश्चाऽग्राह्यत् । 15. हि. संयम में स्थित साधु भगवन्त सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते हैं । ११३ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. संजमंमि ठिआ साहवो सहेण दिणाइं जावेन्ति । सं. संयमे स्थिताः साधवः सुखेन दिनानि यापयन्ति । 16. हि. जो भाइयों और मित्रों को परस्पर लड़ाता है और समय आने पर व्यक्ति के पास अपना मस्तक भी कटाता है, वह अदृष्ट ही है। प्रा. जं भाऊणो मित्ताणि य परुप्परं जुज्झावेइ समयंमि य जणेण अप्पणो सीसंपि छिंदावेइ तं दइवं अत्थि । सं. यद् भ्रातन् मित्राणि च परस्परं योधयति, समये च जनेनाऽऽत्मनः शीर्षमपि छेदयति तद् दैवमस्ति । हि. सन्तुष्ट रानी ने चोर को अपने घर ले जाकर सुन्दर भोजन करवाया, उसके बाद वस्त्र और आभूषण देकर अनुज्ञा दी। प्रा. तुहा महिसी चोरं अप्पणो गेहम्मि नेऊण सुट्ट भोयणं करावीअ, तत्तो वत्थाइं भूसणाइं च दाऊण अणुजाणीअ । सं. तुष्टा महिषी चौरमात्मनो गेहे नीत्वा सुष्टु भोजनमकारयत्, ततो वस्त्राणि भूषणानि च दत्वाऽन्वजानात् । 18. हि. ज्ञातपुत्र समवसरण में बैठकर जन्म और मृत्यु का कारण मनुष्यों और देवताओं को समझाते हैं। प्रा. नायपुत्तो समोसरणंमि उवविसीय जम्मणो मरणस्स य कारणं मणूसे देवे य बोहावेइ । सं. ज्ञातपत्रः समवसरणे उपविश्य जन्मनो मरणस्य च कारणं मनुष्यान् देवांश्च बोधयति । हि. साधु पुरुष कहते हैं कि पापकर्म जीवों को सदा संसारचक्र में भ्रमण करवाते हैं। प्रा. साहवो पुरिसा कहेन्ति-पावकम्माइं जीवे सया संसारचक्कंमि भमाडेइरे। सं. साधवः पुरुषाः कथयन्ति-पापकर्माणि जीवान् सदा संसारचक्रे भ्रामयन्ति । हि. सब धर्म का त्याग करके एक वीतरागदेव को तू भज, वही तुझे सभी पापों से मुक्त करायेगा । प्रा. सवे धम्मे चइत्ता एगं वीयरागं तुं भजसु, सो च्चिय सव्वेसुन्तो मोयाविहिइ। सं. सर्वान् धर्मांस्त्यक्त्वैकं वीतरागं त्वं भज, स एव सर्वेभ्यः पापेभ्यः मोचयिष्यति । ११४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 23 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. साहवो मणसा वि न पत्थेन्ति बहुजीवाउलं जलारंभं । समास विग्रह :- बहुणो य एए जीवा बहुजीवा (कर्मधारयः) । बहुजीवेहिं आउलो बहुजीवाउलो तं बहुजीवाउलं (तृतीया तत्पुरुषः) जलाणं आरंभो जलारंभो तं जलारंभं (षष्ठी-तत्पुरुषः) सं. साधवो मनसापि न प्रार्थयन्ति बहुजीवाकुलं जलारम्भम् । हि. साधु भगवन्त बहत जीवों से व्याप्त पानी के आरम्भ की मन से भी इच्छा नहीं करते हैं। 2. प्रा. खंतिसूरा अरिहंता, तवसूरा अणगारा, दाणसूरे वेसमणे, जुद्धसूरे वासुदेवे । समास विग्रह :- खंतिए सूरा खंतिसूरा । तवम्मि सूरा तवसूरा । दाणे सूरो दाणसूरे । जुद्धमि सूरो जुद्धसूरे । (सर्वत्र सप्तमीतत्पुरुषः) । न अगारं जेसिं ते अणगारा (नार्थ बहुव्रीहिः)। सं. क्षान्तिशूरा अर्हन्तः, तपःशूरा अनगाराः, दानशूरो वैश्रमणः, युद्धशूरो वासुदेवः । हि. क्षमापना में शूरवीर अरिहन्त भगवन्त हैं, तप में शूरवीर साधु भगवन्त हैं, दान में शूरवीर कुबेर है, युद्ध में शूरवीर वासुदेव है। प्रा. ते सत्तिमन्ता पुरिसा जे अब्भत्थणावच्छला समावडियकज्जा न गणेइरे आयइं, अब्भुद्धरेन्ति दीणयं, पूरेन्ति परमणोरहे, रक्खंति सरणागमं । समास विग्रह :- अब्भत्थणाइ वच्छला अब्मत्थणावच्छला (सप्तमी तत्पुरुषः) । समावडियं कज्जं जेसिं ते समावडियकज्जा (षष्ठ्यर्थे बहुव्रीहिः)। मणाइंच्चिय रहा मणोरहा (अवधारणपूर्वपदकर्मधारयः) परेसिं मणोरहा परमणोरहा (षष्ठी तत्पुरुषः) । सरणं आगओ सरणागओ तं सरणागयं (द्वितीया तत्पुरुषः) । सं. ते शक्तिमन्तः पुरुषा येऽभ्यर्थनावत्सलाः समापतितकार्या न गणयन्ति आयतिम्, अभ्युद्धरन्ति दीनकम्, पूरयन्ति परमनोरथान्, रक्षन्ति शरणागतम् । -११५ 3. - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. वे शक्तिमान पुरुष हैं हि. जो प्रार्थना में प्रेम = स्नेहवाले हैं, कार्य आने पर भविष्य को नहीं गिनते हैं (भविष्य की चिन्ता नहीं करते हैं), गरीबों का उद्धार करते हैं, दूसरों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, शरण में आये हुए का रक्षण करते हैं। 4. प्रा. जे निहुज्जणाई तवोवणाई सेवंति ते जणा सुधन्ना । समास विग्रह - निग्गआ दुज्जणा जेहिन्तो ताइं निहुज्जणाइं ताणि (पञ्चम्यर्थे बहुव्रीहिः)। " तवसे वणाइं तवोवणाइं (चतुर्थ्यर्थे तत्पुरुषः)। सुट्ठ धन्ना सुधन्ना (कर्मधारयः)। सं. ये निर्दुर्जनानि तपोवनानि सेवन्ते, ते जनाः सुधन्याः । हि. जो दुर्जनरहित तपोवनों की सेवा करते हैं वे मनुष्य अतिधन्य हैं। 5. प्रा. अहोणु खलु नत्थि दुक्करं सिणेहस्स, सिणेहो नाम मूलं सव्वदुक्खाणं, निवासो अविवेयस्स, अग्गला निबुईए, बंधवो कुगइवासस्स, पडिवक्खो कुसलजोगाणं, देसओ संसाराडवीए, वच्छलो असच्चववसायस्स, एएण अभिभूआ पाणिणो न गणेन्ति आयइं, न जोयन्ति कालोइअं, न सेवन्ति धम्म , न पेच्छन्ति परमत्थं, महालोहपंजरगया केसरिणो विव समत्था वि विसीयंति त्ति । समास विग्रह :- सव्वाइं य ताइं दुक्खाइं सबदुक्खाई, तेसिं सव्वदुक्खाणं (कर्मधारयः) न विवेयो अविवेयो, तस्स अविवेयस्स (नञ् तत्पुरुषः) । कुच्छिआ गई कुगई, कुगइए वासो कुगइवासो, तस्स कुगइवासस्स (कर्मधारय-षष्ठी तत्पुरुषौ)। कुसला य एए जोगा कुसलजोगा, तेसिं कुसलजोगाणं (कर्मधारयः) नत्थि सच्चं जत्थ सो असच्चो, असच्चो य एसो ववसायो असच्चववसायो, तस्स असच्चववसायस्स (बहुव्रीहि-कर्मधारय)। कालम्मि उइअं कालोइअं, तं कालोइअं (सप्तमी तत्पुरुषः)। परमो य एसो अत्यो परमत्थो, तं परमत्थं (कर्मधारयः) लोहमयो पंजरो लोहपंजरो (उत्तरपदलोपि) महंतो य एसो लोहपंजरो महालोहपंजरो (कर्मधारय), महालोहपंजरं गआ महालोहपंजरगआ (द्वितीयातत्पुरुषः)। ११६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. अहो नु खलु नास्ति दुष्करं स्नेहस्य, स्नेहो नाम मूलं सर्वदुःखानाम् , निवासोऽविवेकस्य, अर्गला निर्वृत्याः, बान्धवः कुगतिवासस्य, प्रतिपक्षः कुशलयोगानाम्, देशकः संसाराटव्याः, वत्सलोऽसत्यव्यवसायस्य, एतेनाऽभिभूताः प्राणिनो न गणयन्त्यायतिम्, न पश्यन्ति कालोचितम्, न सेवन्ते धर्मम् , न प्रेक्षन्ते परमार्थम् , महालोहपञ्जरगताः केसरिण इव, समर्था अपि विषीदन्तीति । हि. अहो स्नेह को सचमुच कुछ दुष्कर नहीं है, स्नेह सभी दुःखों का मूल है, अविवेक का निवास है, मोक्ष के लिए शृंखला (अर्गला) है, कुगतिवास का बन्धु है, कुशल योगों का शत्रु है, संसाररूपी वन को बतानेवाला है, असत्य व्यवसाय का प्रेमी है, इससे (स्नेह से) पराभूत प्राणी भविष्य का विचार नहीं करते हैं, अवसरोचित को नहीं देखते हैं, धर्म का सेवन नहीं करते हैं, परमार्थ को नहीं देखते हैं, बड़े लोहे के पिंजर में रहे सिंह की तरह समर्थ होते हुए भी उद्वेग पाते हैं। 6. प्रा. उत्तमपुरिसा न सोवंति संझाए । समास विग्रह :- उत्तिमा य एए पुरिसा उत्तिमपुरिसा । (कर्मधारयः) । सं. उत्तमपुरुषाः न स्वपन्ति सन्ध्यायाम् । हि. उत्तम पुरुष सन्ध्याकाल में नहीं सोते हैं । 7. प्रा. नेव वसणवसगएण बुद्धिमया विसाओ कायवों । समास विग्रह :- वसणस्स वसो वसणवसो । वसणवसं गओ वसणवसगओ तेणं वसणवसगएण । (षष्ठी - द्वितीयातत्पुरुषौ) । सं. नैव व्यसनवशगतेन बुद्धिमत्ता विषादः कर्तव्यः । हि. संकट के वश रहे बुद्धिमान को खेद नहीं ही करना चाहिए । 8. प्रा. अम्हे पच्चोणिं गंतूण पिऊणं चरणेसुं पडिया । समास विग्रह :- माया य पिया य पियरा । तेसिं पिऊणं । (एकशेषः)। सं. वयं सम्मुखं गत्वा पित्रोः चरणयोः पतिताः । हि. हम सन्मुख जाकर माता-पिता के चरणों में गिरे । 9. प्रा. अह निण्णासिअतिमिरो, विओगविहराण चक्कवायाण | संगमकरणेक्करसो, वियंभिओ अरुणकिरणोहो ||47|| समास विग्रह :- निण्णासिओ तिमिरो जेण सो निण्णासिअतिमिरो । (तृतीयार्थे बहुव्रीहिः)। & -११७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विओगेण विहुरा विओगविहुरा, तेसिं विओगविहुराण । (तृतीयातत्पुरुषः)। चक्कवायी अ चक्कवाओ य चक्कवाया तेसिं चक्कवायाण । (एकशेषः) । संगमस्स करणं संगमकरणं । संगमकरणे एक्को रसो जस्स सो संगमकरणैक्करसो । (षष्ठी तत्पुरुषः, षष्ठ्यर्थे त्रिपदबहुव्रीहिच) । अरुणस्स किरणा अरुणकिरणा | अरुणकिरणाणं ओहो अरुणकिरणोहो (उभयत्र षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. अथ नि शिततिमिरो, वियोगविधुराणां चक्रवाकानाम् । संगमकरणैकरसोऽरुणकिरणौघो विजृम्भितः ।।47।। हि. अब नष्ट किया है अन्धकार जिसने, वियोग से दुःखी और चिड़ियाओं को इकट्ठे करने में एक रसवाले अरुण (सूर्य) की किरणों का समूह विस्तृत हो। 10. प्रा. पुत्ता ! तुम्हे वि संजमे नियमे य उज्जमं करिज्जाह, अमयभूएण य जिणवयणेण अप्पाणं भाविज्जाह | समास विग्रह :- अमयं भूयं अमयमूयं तेण अमयभूएण (कर्मधारयः)। जिणस्स वयणं जिणवयणं तेण जिणवयणेण (षष्ठी तत्पुरुषः)। सं. पुत्राः ! यूयमपि संयमे नियमे चोद्यमं कुरुत, अमृतभूतेन च जिनवचनेनाऽऽत्मानं भावयत । हि. हे पुत्रो ! तुम भी संयम और नियम में उद्यम करो और अमृतसमान जिनवचन से आत्मा को भावित करो । 11. प्रा. देवदाणवगंधब्बा जक्खरक्खसकिन्नरा । बम्हयारिं नमसंति, दुक्करं जे करन्ति तं ।।48।। समास विग्रह :- देवा य दाणवा य गंधव्वा य देवदाणवगंधव्वा । (द्वन्द्वसमासः) | जक्खा य रक्खसा य किन्नरा य जक्खरक्खसकिन्नरा । (द्वन्द्वसमासः) । सं. देवदानवगन्धर्वाः, यक्षराक्षसकिन्नराः । ये दुष्करं कुर्वन्ति, तान् ब्रह्मचारिणो नमस्यन्ति ||48।। हि. देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरदेव, जो दुष्कर = ब्रह्मचर्यपालन करते हैं, उन ब्रह्मचारियों को नमस्कार करते हैं। 12. प्रा. विरला जाणन्ति गुणे, विरला जाणन्ति ललियकव्वाइं । सामन्नधणा विरला, परदुक्खे दुक्खिआ विरला ||49।। -११८ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास विग्रह :- ललियाइं च ताई कव्वाइं ललियकव्वाइं, ताई ललियकव्वाइं (कर्मधारयः) सामन्नं धणं जेसिं ते सामन्नधणा (षष्ठ्यर्थे बहुव्रीहिः)। परेसिं दुक्खं परदुक्खं तम्मि परदुक्खे (षष्ठी तत्पुरुषः) । सं. विरला गुणान् जानन्ति , विरला ललितकाव्यानि जानन्ति । सामान्यधना विरलाः, परदुक्खे दुःखिता विरलाः ।।49।। हि. अल्प पुरुष गुणों को जानते हैं, अल्प पुरुष मनोहर काव्यों को जानते हैं, सामान्य (प्रत्येक के उपयोग में आनेवाला) धनवाले पुरुष अल्प होते हैं (और) अन्य के दुःख में दुःखी व्यक्ति विरल (अल्प) होते हैं। 13. प्रा. गलइ बलं उच्छाहो, अवेइ सिढिलेइ सयलवावारे । नासइ सत्तं अरई, विवड्डए असणरहिअस्स ||50।। समास विग्रह :- सयलो य एसो वावारो सयलवावारो (कर्मधारयः) । न रई अरई (नञ्तत्पुरुषः) । असणेण रहिओ असणरहिओ तस्स असणरहिअस्स (तृतीयातत्पुरुषः) । सं. अशनरहितस्य बलं गलति, उत्साहोऽपैति, सकलव्यापार: शिथिलयति, सत्त्वं नश्यति , अरतिर्विवर्धते ।।5011 हि. भूखे प्राणी का बल नष्ट होता है, उत्साह दूर होता है, सभी व्यापार (कार्य) शिथिल बनते हैं, सत्त्व नष्ट होता है, अरति बढ़ती है। 14. प्रा. सोमगुणेहिं पावइ न तं नवसरयससी, तेअगुणेहिं पावइ न तं नवसरयरवी । रूवगुणेहिं पावइ न तं तिअसगणवई, सारगुणेहिं पावइ न तं धरणिधरवई ।।51।। समास विग्रह :- सोमा य एए गुणा सोमगुणा, तेहिं सोमगुणेहिं (कर्मधारयः)। सरयो य एसो ससी सरयससी, नवो य एसो सरयससी नवसरयससी (उभयत्र कर्मधारयः) रूवस्स गुणा रूवगुणा तेहिं रूवगुणेहिं (षष्ठी तत्पुरुषः) । तिअसाणं गणा तिअसगणा, तिअसगणाणं वई तिअसगणवई (उभयत्र षष्ठी तत्पुरुषः)। -- - - ११९ 8 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्स गुणा सारगुणा तेहिं सारगुणेहिं (षष्ठी तत्पुरुषः) । धरणिधराणं वई धरणिधरवई (षष्ठी तत्पुरुषः) । सं. नवशारदशशी सौम्यगुणैः तं न प्राप्नोति, नवशारदरविः तेजोगुणैः तं न प्राप्नोति । त्रिदशगणपती रूपगुणैस्तं न प्राप्नोति, धरणिधरपतिः सारगुणैः तं न प्राप्नोति ||51।। हि. नया शरदऋतु का चन्द्र सौम्यगणों द्वारा उन (अजितनाथ भ.) को प्राप्त नहीं कर सकता है, नया शरदऋतु का सूर्य तेज के गुणों द्वारा उनको प्राप्त नहीं कर सकता है, देवों के समूह का स्वामी = इन्द्र रूप के गुणों द्वारा उनको नहीं पहँच सकता है, पर्वतों का स्वामी = मेरु पर्वत पराक्रम के गुणों द्वारा उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। 15. प्रा. जस्सत्थो तस्स सुहं, जस्सत्थो पंडिओ य सो लोए । जस्सत्यो सो गुरुओ, अत्यविहूणो य लहुओ य 1152।। समास विग्रह :- अत्येण विहूणो अत्यविहूणो (तृतीयातत्पुरुषः) । सं. यस्यार्थस्तस्य सुखं, यस्यार्थः स लोके पण्डितश्च । यस्यार्थः स गुरुकोऽर्थविहीनश्च लघुकश्च ।।52।। हि. जिसके पास धन है उसको सुख है, जिसके पास धन है वह लोक में पण्डित है, जिसके पास धन है वह बड़ा है और धनरहित मनुष्य छोटा है। 16. प्रा वंचइ मित्तकलत्ते, नाविक्खए मायपियसयणे अ | मारेइ बंधवे विहु, पुरिसो जो होइ धणलुद्धो ||53|| समास विग्रह :- मित्ता य कलत्ता य मित्तकलत्ता, ते मित्तकलत्ते (द्वन्द्व समासः)। माया य पिया य सयणा य मायपियसयणा ते मायपियसयणे (द्वन्द्वसमासः) । धणम्मि लुद्धो धणलुद्धो (सप्तमीतत्पुरुषः)। सं. यः पुरुषो धनलुब्धो भवति, (स) मित्रकलत्राणि वञ्चयति, मातापितृस्वजनांश्च नाऽपेक्षते, बान्धवानपि खु मारयति ||53|| हि. जो पुरुष धन को लोभी होता है वह मित्र और स्त्री को ठगता है, माता-पिता और स्वजनों की अपेक्षा नहीं रखता है, भाइयों को भी मारता है। १२० - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. प्रा. न गणन्ति कुलं, न गणन्ति पावयं पुण्णमवि न गणन्ति । इस्सरिएण हि मत्ता, तहेव परलोगमिहलोयं ||54।। समास विग्रह :- परो य एसो लोयो परलोयो, तं परलोयम् (कर्मधारयः) । इह य एसो लोयो इहलोयो, तं इहलोयं (कर्मधारय) । सं. ऐश्वर्येण हि मत्ताः कुलं न गणयन्ति, पापकं न गणयन्ति, पुण्यमपि, तथैव इहलोकं परलोकं च न गणयन्ति ।।54।। हि. ऐश्वर्य से अभिमानी (मनुष्य) कुल की परवाह नहीं करते हैं, पाप को नहीं स्वीकारते हैं, पुण्य को भी (नहीं गिनते हैं) उसी तरह इहलोक और परलोक को नहीं स्वीकारते हैं। 18. प्रा. न गणन्ति पुवनेहं, न य नीइं नेय लोयअववायं । न य भाविआवयाओ, पुरिसा महिलाए आयत्ता ||55।। समास विग्रह :- पुनस्स नेहो पुवनेहो, तं पुवनेहं (षष्ठीतत्पुरुषः) । लोयाणं अववाओ लोयअववाओ, तं लोयअववायं (षष्ठीतत्पुरुषः)। भाविओ आवयाओ भाविआवयाओ, ताओ भाविआवयाओ (कर्मधारयः) । सं. महिलायामायत्ताः पुरुषाः पूर्वस्नेहं न गणयन्ति, नीतिं न च, लोकापवादं न च, भाव्यापदो न च गणयन्ति ।।55।। हि. स्त्री के आधीन पुरुष पूर्व (माता-पिता) के स्नेह को नहीं गिनते हैं, न्यायमार्ग को नहीं स्वीकारते हैं, लोकनिन्दा की परवाह नहीं करते हैं और भविष्य में आनेवाली आपत्तियों की भी परवाह नहीं करते हैं। 19. प्रा. मेरू गरिठ्ठो जह पव्वयाणं, एरावणो सारबलो गयाणं । सिंहो बलिट्ठो जह सावयाणं, तहेव सीलं पवरं वयाणं ||56।। समास विग्रह :- सारं बलं जस्स सो सारबलो (बहुव्रीहिः) । यथा पर्वतानां मेरुर्गरिष्ठः, गजानामैरावणः सारबलः । यथा श्वापदानां सिंहो बलिष्ठः, तथैव व्रतानां शीलं प्रवरम् ||56।। हि. जैसे पर्वतों में मेरुपर्वत सबसे बड़ा है, हाथियों में ऐरावण हाथी श्रेष्ठ बलवान है, जैसे शिकारी पशुओं में सिंह सर्वश्रेष्ठ बलवान है उसी प्रकार व्रतों में शीलव्रत सर्वश्रेष्ठ है । 20. प्रा. बालत्तणम्मि जणओ, जुब्वणपत्ताइ होइ भत्तारो । वुड्डत्तणेण पुत्तो, सच्छंदत्तं न नारीणं ।।57।। समास विग्रह :- जुब्वणं पत्ता जुब्वणपत्ता, ताइ जुब्वणपत्ताइ (द्वितीयातत्पुरुषः)। . सस्स छंदत्तं सच्छंदत्तं (षष्ठीतत्पुरुषः) । -१२१ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. बालत्वे जनकः, यौवनप्राप्तायां भर्ता भवति । वृद्धत्वेन पुत्रः, नारीणां स्वच्छन्दत्वं न ।।57।। हि. नारी बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के आधीन होती है, इस प्रकार (किसी भी अवस्था में) स्त्रियों को स्वच्छन्दता नहीं है। 21. प्रा. (पसिणं) किं होइ रहस्स वरं, बुद्धिपसाएण को जणो जयइ । किं च कुणंती बाला, नेउरसइं पयासेइ ।।58।। समास विग्रह :- बुद्धीए पसाओ बुद्धिपसाओ, तेणं बुद्धिपसाएण (षष्ठी तत्पुरुषः) । नेउरस्स सद्दो नेउरसद्दो तं नेउरसदं (षष्ठी तत्पुरुषः) । सं. (प्रश्नं) रथस्य वरं किं भवति ? बुद्धिप्रसादेन को जनो जयति ? किं च कुर्वन्ती बाला नुपूरसदं प्रकाशयति ? । हि. (प्रश्न) रथ में श्रेष्ठ क्या है ? (चक्क = चक्र), बुद्धि की महेरबानी से कौन-सा मनुष्य जीतता है ? (मंती = मन्त्री) क्या करती हुई बालिका झांझर (नुपूर) के शब्द को प्रकाशित करती है ? (चक्कमंती = भ्रमण करती) उत्तर = चक्कमंती । हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. राम और लक्ष्मण ने रावण की सेना को जीत लिया और लक्ष्मण के चक्र से मारा गया रावण मरकर नरक में गया । प्रा. रामलक्खणा रावणस्स सेणं जिणीअ, लक्खणस्स य चक्कहओ रावणो मरिय नरयं गच्छीअ । समास विग्रह :- रामो य लक्खणो य रामलक्खणा (द्वन्द्वसमासः)। लक्खणस्स चक्कं लक्खणचक्कं (षष्ठीतत्पुरुषः)। लक्खचक्केणं हओ लक्खणचक्कहओ (तृतीयातत्पुरुषः)। सं. रामलक्ष्मणौ रावणस्य सेनां जित्वा लक्ष्मणचक्रहतो रावणो मृत्वा नरकमगच्छत् । 2. हि. सज्जन व्यक्ति दुःख आने पर भी असत्यवचन नहीं बोलते हैं । प्रा. सज्जणा दुहपडिया वि असच्चवयणं न भासन्ति । समास विग्रह :- दुहं पडिया दुहपडिया द्वितीया तत्पुरुषः) । असच्चं य तं वयणं असच्चवयणं (कर्मधारयः) -१२२ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. सज्जनाः दुःखपतिता अप्यसत्यवचनं न ब्रुवन्ति । 3. हि. विद्यार्थियों को प्रातःकाल में जल्दी उठकर माता, पिता अथवा गुरु भ. को नमस्कार करके अपना अध्ययन करना चाहिए । प्रा. विज्जत्थिणो पच्चूसे सिग्छ उडिऊण पियरे गुरुं वा नमंसित्ता अप्पकरं अज्झयणं पढेज्ज । समास विग्रह :- माया य पिया य पियरा, ते पियरे (एकशेषः) । सं. विद्यार्थिनः प्रत्यूषे शीघ्रमुत्थाय पितरौ गुरुं वा नमस्कृत्याऽऽत्मीयमध्ययनं पठेयुः । 4. हि. संसार के दुःखों को देखकर वह संसार से निर्वेद पाता है। प्रा. संसारदुहाइं पासित्ता सो संसारत्तो निविज्जइ । समास विग्रह :- संसारस्स दुहाइं संसारदुहाई, ताई संसारदुहाई (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. संसारदुःखानि दृष्टवा स संसारान् निर्विद्यते । 5. हि. उस बालिका ने हाथरूपी कमल द्वारा राजा के भाल में तिलक किया। प्रा. सा बाला हत्थकमलेण रायस्स ललाडे तिलयं करीअ । समास विग्रह :- हत्थो एव कमलं हत्थकमलं, तेण हत्थकमलेण (अवधारणपूर्वपदकर्मधारयः)। सं. सा बाला हस्तकमलेन राज्ञो ललाटे तिलकमकरोत् । 6. हि. किया है निदान जिसने उनको बोधि की प्राप्ति कहाँ से होगी ? प्रा. कयनियाणाणं तेसिं बोहिलाहो कत्तो हवेज्ज ? | समास विग्रह :- कयं नियाणं जेहिं ते कयनियाणा, तेसिं कयनियाणाणं (बहुव्रीहिः) । बोहिणो लाहो बोहिलाहो (षष्ठी तत्पुरुषः) । सं. कृतनिदानानां तेषां बोधिलाभः कथं भवेत् ? | 7. हि. तीर्थंकर गम्भीर वाणी द्वारा समवसरण में देव, दानव और मनुष्यों की सभा में देशना देते है और वह (देशना) सुनकर भव्यजीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र ग्रहण करते हैं और आहाररहित (अणाहारी) मोक्षपद प्राप्त करते हैं। प्रा. तित्थयरो गंभीरवायाए समोसरणंमि देवदाणवमणूसपरिसाए देसणं देइ, तं च सुणित्ता भन्दा जीवा दंसणनाणचरिताइंगिण्हन्ति, अणाहारं च मोक्खपयं पावन्ति । १२३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास विग्रह :- गंभीरा य एसा वाया गंभीरवाया ताए गंभीरवायाए (कर्मधारयः)। देवा य दाणवा य मणूसा य देवदाणवमणूसा, तेसिं परिसा देवदाणवमाणूसपरिसा, ताए देवदाणवमणूसपरिसाए (द्वन्द्वषष्ठीतत्पुरुषौ)। दंसणं य नाणं य चरितं य दंसणनाणचरित्ताई, ताइंदसणनाणचरिताई (द्वन्द्वः ) । नत्थि आहारो जम्मि तं अणाहारं, तं अणाहारं (नबहुव्रीहिः)। मुक्खं य एयं पयं मुक्खपयं, तं मुक्खपयं (कर्मधारयः)। सं. तीर्थकरो गम्भीरवाचा समवसरणे देवदानवमनुष्यपर्षदि देशनां ददाति, तां च श्रुत्वा भव्या जीवा दर्शनज्ञानचारित्राणि गृह्णन्ति , अनाहारं च मोक्षपदं प्राप्नुवन्ति । 8. हि. हाथ में पुष्पवाली नगर की कन्याओं ने मनुष्यों में उत्तम राजा पर पुष्पों की वृष्टि की। प्रा. पुष्फहत्थाओ पउरकन्नाओ जणुत्तमे रायंमि पुप्फवुद्धिं करीअ । समास विग्रह :- पुष्पाइं हत्थे जासिं ता पुष्पहत्थाओ (बहुव्रीहिः)। पउरा य एआ कन्नाओ पउरकन्नाओ (कर्मधारयः) । जणेसु उत्तमो जणुत्तमो, तम्मि जणुत्तमे (सप्तमी तत्पुरुषः) । पुप्फाणं वुट्टि पुष्फवुट्टि, तं पुप्फवुद्धिं (षष्ठी तत्पुरुषः) । पुष्पहस्ताः पौरकन्याः जनोत्तमे राज्ञि पुष्पवृष्टिमकुर्वन् । 9. हि. तीन भुवन में सभी जीवों से तीर्थंकर अनन्तरूपवान होते हैं। प्रा. तिहअणम्मि सबजीदेहिन्तो तित्थयरा अणंतरूवा हवन्ति । समास विग्रह :- तिण्हं भुवणाणं समाहारो तिहुअणं, तम्मि तिहुयणम्मि (समाहारद्विगुः)। सब्वे य एए जीवा सब्जीवा, तेहिन्तो सबजीवेहिन्तो (कर्मधारयः)। अणंतं रूवं जेसिं ते अणंतरूवा (बहुव्रीहिः)। सं. त्रिभुवने सर्वजीवेभ्यस्तीर्थकरा अनन्तरूपाः भवन्ति । 10. हि. संयमरूपी धनवान साधुओं को परलोक का भय नहीं है। प्रा. संजमधणाणं साहूणं परलोयभयं नत्थि । समास विग्रह :- संजमो च्चिय धणं जेसिं ते संजमधणा, तेसिं संजमधणाणं (बहुव्रीहिः)। -१२४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परो य एओ लोयो परलोयो । परलोयत्तो भयं परलोयभयं (कर्मधारय पश्चमीतत्पुरुषौ)। सं. संयमधनानां साधूनां परलोकभयं नाऽस्ति । 11. हि. आहार, देह, आयुष्य और कर्मरहित सिद्ध भगवन्त अनन्तसुखवान होते हैं। प्रा. अणाहारदेहाउसकम्मा सिद्धा भयवंता अणंतसुहा हवन्ति । समास विग्रह :- आहारो य देहो य आऊ य कम्मं य आहारदेहाउसकम्माणि (द्वन्द्वः) नत्थि आहारदेहाउसकम्माणि जेसिं ते अणाहारदेहाउसकम्मा (नार्थबहुव्रीहिः)। अणंतं सुहं जेसिं ते अणंतसुहा । (बहुव्रीहिः) । सं. अनाहारदेहाऽऽयुःकर्माणः सिद्धाः भगवन्तोऽनन्तसुखा भवन्ति । 12. हि. जो विधिअनुसार मन्त्रों की आराधना करता है, वह अवश्य फल प्राप्त करता है। प्रा. जो जहविहिं मंताई आराहेइ, सो अवस्स फलं पावेइ । समास विग्रह :- विहिं अणइक्कमिय त्ति जहविहिं (अव्ययीभावः) । सं. यो यथाविधि मन्त्राण्याराधयति, सोऽवश्यं फलं प्राप्नोति । 13. हि. जो शक्ति का उल्लंघन किये बिना अहिंसा, संयम और तपरूपी धर्म में उद्यम करता है, वह संसार समुद्र से तिर जाता है। प्रा. जो जहसत्तिं अहिंसासंजमतवधम्ममि उज्जमेइ, सो संसारसागराओ तरेइ । समास विग्रह :- सत्तिं अणइक्कमीअ त्ति जहसत्तिं (अव्ययीभावः)। अहिंसा य संयमो य तवं य अहिंसासंयमतवाइं । ताइं च्चिअ धम्मो अहिंसासंयमतवधम्मो, तम्मि अहिंसासंयमतवधम्ममि । (द्वन्द्वकर्मधारयौ)। संसारो एव सागरो संसारसागरों, तत्तो संसारसागराओ (कर्मधारयः)। सं. ये यथाशक्ति अहिंसासंयमतपोधर्मे उद्यच्छन्ति , ते संसारसागरात्तरन्ति । 14. हि. अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्ध (प्राणी) को ज्ञान ही उत्तम अंजन है। प्रा. अन्नाणतिमिरंधाणं नाणं चेव उत्तमं अंजणं अत्थि । समास विग्रह :- अण्णाणं चिअ तिमिरं अण्णाणतिमिरं । -१२५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणतिमिरेण अंधा अण्णाणतिमिरंधा, तेसिं अण्णाणतिमिरंधाणं (कर्मधारय-तृतीयातत्पुरुषौ)। सं. अज्ञानतिमिराऽन्धानां ज्ञानं चैवोत्तममञ्जनमस्ति । 15. हि. जो कुमारपाल पहले सिद्धराज के डर से भटकता था, उसने बाद में श्रीहेमचन्द्रसूरि की मदद से भय से मुक्त होकर राज्य पाया। प्रा. जो कुमारवालो पुरा सिद्धरायभयत्तो भमिअंतो; सो पच्छा श्रीहेमचंद्रसूरीसाहज्जेण भयमुत्तो होउण रज्जं पावीअ । समास विग्रह :- सिद्धरायओ भयं सिद्धरायभयं, तत्तो सिद्धरायभयत्तो (पश्चमी तत्पुरुषः)। सिरिहेमचंदसूरिणो साहज्जं हेमचंदसूरिसाहज्जं, तेण सिरिहेमचंदसूरिसाहज्जेण (षष्ठीतत्पुरुषः) । भयाउ मुत्तो भयमुत्तो (पञ्चमीतत्पुरुषः)। सं. यः कुमारपाल: पुरा सिद्धराजभयाद् भ्रमितवान्, स पश्चाद् श्रीहेमचन्द्रसूरिसाहाय्येन भयमुक्तो भूत्वा राज्यं प्राप्नोत् ।। 16. हि. जिनके पास बहुत धन है और इस पर्वत पर जिनालय बनवाकर लोगों को सन्तुष्ट करके जिन्होंने महायश प्राप्त किया है, वे ये वस्तुपाल और तेजपाल महामन्त्री हैं। प्रा. बहुधणा एयंमि गिरिम्मि सुंदरजिणालए निम्मविअ , जणे य संतोसिऊण लद्धमहाजसा एए वत्थुवालतेयवाला महामंतिणो संति । समास विग्रह :- बहुं धणं जेसिं ते बहुधणा (बहुव्रीहिः) । जिणाणं आलया जिणालया | सुंदरा य एए जिणालया सुंदरजिणालया, एए सुंदरजिणालए (षष्ठीतत्पुरुष-कर्मधारयौ)। महंतो य एसो जसो महाजसो । लद्धो महाजसो जेहिं ते लद्धमहाजसा (कर्मधारय-बहुव्रीहिः)। वत्थुवालो य तेयवालो य वत्थुवालतेयवाला (द्वन्द्वः) । महंता मंतिणो महामंतिणो (कर्मधारयः) । सं. बहुधनावेतस्मिन् गिरौ सुन्दरजिनालयान् निर्माप्य, जनांश्च संतोष्य लब्धमहायशसावेतौ वस्तुपालतेजपालौ महामन्त्रिणौ स्तः । = -१२६ - -१२६ -90 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 24 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. जइ से पिया न पब्वइओ हुंतो तो लटुं हुंतं । सं. यदि तस्य पिता न प्रव्रजितोऽभविष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यत् । हि. जो उसके पिता प्रव्रजित न हुए होते तो अच्छा होता । 2. प्रा. तइयच्चिय पव्वज्जं गिण्हंतो, ता इहि एरिसं पराभवं नेव पाविन्तो । सं. तदैव प्रव्रज्यामग्रहीष्यत्, तत इदानीमीदृशं पराभवं नैव प्राप्स्यत् । हि. तभी (उस समय) ही उसने प्रव्रज्या ग्रहण की होती, तो अब ऐसा = इस प्रकार का पराभव प्राप्त नहीं होता । प्रा. सव्वेसिं गुणाणं बम्हचेरं उत्तममत्थि । सं. सर्वेषां गुणानां ब्रह्मचर्यमुत्तममस्ति । हि. सभी गुणों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है । प्रा. गुरवो सया अम्ह रक्खन्तु । सं. गुरवस्सदाऽस्मान् रक्षन्तुं । हि. गुरुजन हमेशा हमारी रक्षा करो। प्रा. कण्हेण भयवं पुच्छिओ, सामि ! कत्तो मे मरणं भविस्सइ ? सामिणा कहियं, जो एस ते जेट्ठभाया वसुदेवपुत्तो जरादेवीए जाओ जराकुमारो नाम, इमाओ ते मच्चू, तओ जायवाण जराकुमारे सविसाया सोएण निवडिया दिट्ठी, चिंतिअं इमिणा 'अहो ! कटुं, अहं वसुदेवपुत्तो होऊण सयलजणिटुं कणिटुं भायरं विणासेहामि' त्ति, तओ आपुच्छिऊण जादवजणंजणद्दणरक्खणत्थं गओ वणवासंजराकुमारो । समास विग्रह :- जेट्ठो य एसो भाया जेट्ठभाया (कर्मधारयः) । वसुदेवस्स पुत्तो वसुदेवपुत्तो (षष्ठीतत्पुरुषः)। विसायेण सह सविसाया (सहार्थे तत्पुरुषः)। सयला य एए जणा सयलजणा । सयलजणाणं इट्ठो सयलजणिट्ठो, तं सयलजणिटुं (कर्मधारय-षष्ठीतत्पुरुषौ)। जादवो य एसो जणो जादवजणो, तं जादवजणं (कर्मधारयः) । जणद्दणस्स रक्खणं जणद्दणरक्खणं | जणद्दणरक्खणायत्ति जणद्दणरक्खणत्थं (षष्ठी-चतुर्थीतत्पुरुषौ) । १२७ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणे वासो वणवासो, तं वणवासं (सप्तमीतत्पुरुषः) । सं. कृष्णेन भगवान् पृष्टः, स्वामिन् ! कुतो मे मरणं भविष्यति ?, स्वामिना कथितम् - य एष ते ज्येष्टभ्राता वसुदेवपुत्रो जरादेव्या जातो जराकुमारो नाम, अस्मात्तव मृत्युस्ततो यादवानां जराकुमारे सविषादा शोकेन निपतिता दृष्टिः, चिन्तितमनेन, अहो कष्टम्, अहं वसुदेवपुत्रो भूत्वा सकलजनेष्टं कनिष्ठं भ्रातरं विनाशयिष्यामीति, तत आप्रच्छ्य यादवजनं जनार्दनरक्षणार्थं गतो वनवासं जराकुमारः । हि. कृष्ण द्वारा भगवान् पूछे गए, हे स्वामी ! मेरी मृत्यु किससे होगी ? स्वामी ने कहा - यह तेरा बड़ा भाई, वसुदेव का पुत्र, जरादेवी से उत्पन्न जराकुमार नामक है, उससे तेरी मृत्यु होगी । इससे जराकुमार पर यादवों की खेदसहित शोकवाली दृष्टि गिरी । तब जराकुमार ने विचार किया कि अहो दुःख है कि मैं वसुदेव का पुत्र होकर सभी लोगों को इष्ट छोटे भाई का विनाश करूँगा, अतः यादवों की अनुमति लेकर कृष्ण के रक्षण हेतु जराकुमार वनवास को चला गया । 6. प्रा. जई रूवं होतं, ता सव्वगुणसंपया होन्ता । समास विग्रह :- सव्वे य एए गुणा सव्वगुणा । सव्वगुणाणं संपया सव्वगुणसंपया (कर्मधारय-षष्ठीतत्पुरुषौ ) सं. यदि रूपमभविष्यत् ततः सर्वगुणसम्पदभविष्यत् । हि. जो रूपवान् होता तो सब गुणसम्पत्ति होती । 7. प्रा. हे वीरजिणेसर निवडिमो | समास विग्रह :- जिणाणं ईसरो जिणेसरो । वीरो य एसो जिणेसरो वीरजिणेसरो, संबोहणे हे वीरजिणेसर ! (षष्ठीतत्पुरुष कर्मधारयौ) । सं. हे वीरजिनेश्वर ! तथा कुरु अस्माकं प्रसादं यथा न संसारे वयं निपतामः । तह कुणसु अम्ह पसायं, जह न संसारे अम्ह हि. हे वीरजिनेश्वर ! हम पर ऐसी कृपा करो कि जिससे हम संसार में न रहें । १२८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. प्रा. चिट्ठउ दूरे मंतो तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । समास विग्रह :- बहु फलं जम्मि सो बहुफलो (बहुव्रीहिः)। सं. तिष्ठतु दूरे मन्त्रस्तव प्रणामोऽपि बहुफलो भवति । हि. मन्त्र तो दूर रहो, आपको (किया हुआ) प्रणाम भी अत्यधिक फलवाला होता है। 9. प्रा. न मं मोत्तुं अन्नो उचिओ इमीए, ता मुंच एयं, जुद्धसज्जो वा होहि । समास विग्रह :- जुद्धाय सज्जो जुद्धसज्जो (चतुर्थीतत्पुरुषः) । सं. न मां मुक्त्वाऽन्य उचितोऽस्यास्तस्माद् मुञ्चैतां, युद्धसज्जो वा भव । हि. मेरे सिवाय अन्य इस (स्त्री) के लिए योग्य नहीं है, अतः इसको छोड़ दे अथवा युद्ध के लिए सज्ज बन । 10. प्रा. साहूहिं वुत्तं जइ ते अइनिबंधो, तो संघसहिए अम्हे मेरुम्मि नेऊण चेइयाइं वंदावेह, तीए (देवीए) भणियं, तुम्हे दो जणे अहं देवे तत्थ वंदावेमि । समास विग्रह :- संघेण सहिआ संघसहिआ, ते संघसहिए । (तृतीयातत्पुरुषः)। सं. साधुभ्यामुक्तं, यदि तेऽतिनिर्बन्धस्ततः संघसहितौ नौ मेरौ नीत्वा चैत्यानि वन्दय, तया (देव्या) भणितं , युवां द्वौ जनौ अहं देवान् तत्र वन्दयामि । हि. दो साधुओं ने कहा कि "जो तुम्हारा अत्याग्रह है तो संघसहित हम दोनों को मेरुपर्वत पर ले जाकर परमात्मा को वन्दन करवाओ" देवी ने कहा कि मैं तुम दोनों को वहाँ (मेरुपर्वत पर) परमात्मा को वन्दन करवाती हूँ। 11. प्रा. अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवए अणगारियं पव्वइहिसि । समास विग्रह :- कालं गया कालगया तेहिं कालगएहिं (द्वितीयातत्पुरुषः)। परिणयं य एअं वयं परिणयवयं, तम्मि परिणयवए (कर्मधारयः) । नत्थि अगारो जस्स सो अणगारो (नार्थे बहुव्रीहिः) । सं. अस्मासु कालगतेषु सत्सु परिणतवया अनगारितां प्रव्रजिष्यसि । १२९ - Bी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. हमारी मृत्यु होने पर परिपक्व उम्रवाला तू साधुजीवन का स्वीकार करना। 12. प्रा. किं मे कडं ?, किं च मे किच्चसेसं ?, किं च सक्कणिज्जं न समायरामित्ति पच्चूहे सया झाएयव्वं । समास विग्रह :- किच्चस्स सेसो किच्चसेसो, तं किच्चसेसं (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. किं मे (मया) कृतं ?, किं च मे कृत्यशेषं ?, किं च शक्यं न समाचरामीति प्रत्यूषे सदा ध्यातव्यम् । हि. मेरे द्वारा क्या किया गया ? मेरे करने योग्य क्या बाकी है ?, शक्य ऐसा मैं क्या नहीं करता हूँ ? इस प्रकार सुबह हमेशा चिन्तन करना चाहिए। 13. प्रा. जं जेण जया जत्थ, जारिस कम्मं सुहमसुहं उवज्जियं । तं तेण तया तत्थ, तारिसं कम्मं दोरियनिबद्धं व संपज्जइ ।।59।। समास विग्रह :- दोरियेण निबद्धं दोरियनिबद्धं (तृतीयातत्पुरुषः) । सं. येन यदा यत्र यादृशं, यत् शुभमशुभं कर्मोपार्जितम् ।। तेन तदा तत्र तादृशं, तत् कर्म दवरिकानिबद्धमिव संपद्यते ||59।। हि. जिसके द्वारा जब जहाँ जिस प्रकार का जो शुभ अथवा अशुभ कर्म उपार्जन किया गया हो, उसके द्वारा तब वहाँ उसी प्रकार का वह कर्म रस्सी से बँधे हुए की तरह प्राप्त किया जाता है । 14. प्रा. तं कुण धम्म, जेण सुहं सो च्चिय चिंतेइ तुह सबं । सं. त्वं कुरु धर्मं, येन सुखं स एव चिन्तयति तव सर्वम् । हि. तू धर्म कर, जिससे वह धर्म ही तेरे सब सुख का विचार करता है। 15. प्रा. खामेमि सब जीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सब्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ।।6011 समास विग्रह :- सवे य एए जीवा सव्वजीवा, ते सव्वजीवे (कर्मधारयः)। सव्वाइं च ताइं भूयाइं सबभूयाई, तेसु सव्वभूएसु (कर्मधारयः)। सं. सर्वजीवान् क्षमयामि, सर्वे जीवा मां क्षाम्यन्तु । मे सर्वभूतेषु मैत्री, मम केनचिद् वैरं न ||60|| हि. मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सभी जीवों के साथ मित्रता है, मेरी किसी के साथ शत्रुता नहीं है। -930 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. प्रा. सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे | सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ।।61|| समास विग्रह :- समणपहाणो संघो समणसंघो तस्स समणसंघस्स (उत्तरपदलोपी तत्पुरुषः) । सं. भगवतः सर्वस्य श्रमणसङ्घस्य शीर्षेऽअलिं कृत्वा । सर्वं क्षमयित्वा, अहमपि सर्वस्य क्षाम्यामि ||61।। हि. पूज्य सभी श्रमणसंघ को मस्तक पर दो हाथ जोड़कर, सभी को क्षमा करके, मैं भी सभी के पास क्षमा माँगता हूँ। 17. प्रा. जीसे खित्ते साहू, दंसणनाणेहिं चरणसहिएहिं । साहति मुक्खमग्गं, सा देवी हरउ दुरिआई ।।62।। समास विग्रह :- दंसणं य नाणं य दंसणनाणाइं, तेहिं दसणनाणेहिं (द्वन्द्वसमासः) । चरणेण सहिआइं चरणसहिआई तेहिं चरणसहिएहिं (तृतीयातत्पुरुषः)। मुक्खस्स मग्गो मुक्खमग्गो तं मुक्खमग्गं (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. यस्याः क्षेत्रे साधवः, चारित्रसहितैर्दर्शनज्ञानैः । मोक्षमार्गं साध्नुवन्ति, सा देवी दुरितानि हरतुः ।।62।। हि. जिसके क्षेत्र में साधु भगवन्त चारित्रसहित दर्शन और ज्ञान द्वारा मोक्षमार्ग की साधना करते हैं, वह देवी पापों को दूर करे । 18. प्रा. हसउ अ रमउ अ तुह सहिजणो, हसामु अ रमामु अ अहंपि । हससु अ रमसु अ तंपि, इअ भणिही मम पिओ इण्हि ।।63।। समास विग्रह :- सहीणं जणो सहिजणो (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. तव सखिजनो हसतु रमतां च, अहमपि हसानि रमै च । त्वमपि हस रमस्व च, इति मम प्रिय इदानीमभणत् ।।63।। हि. तेरा मित्रवर्ग हँसे और खेले, मैं भी हँसू और खेलूं, तू भी हँस और खेल इस प्रकार मेरे प्रिय ने अब कहा । 19. प्रा. सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ||64।। सं. सामायिके तु कृते , यस्मात् श्रावकः श्रमण इव भवति । एतेन कारणेन, बहुशः सामायिकं कुर्यात् ||64|| हि. जिस कारण से सामायिक करने पर श्रावक साधु के समान बनता है, इस कारण से बहुत बार सामायिक करना चाहिए। १३१ 8 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. प्रा. जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाई रयणीए । आहारमुवहिदेहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं 1165।। समास विग्रह :- उवही य देहो य तेसिं समाहारो उवहिदेहं (समाहारद्वन्द्वः) । सं. यदि मे देहस्याऽस्यां रजन्यां प्रमादो भवेत् । आहारमुपधिदेहं, सर्वं त्रिविधेन व्युत्सृष्टम् ।।65।। हि. जो मेरे इस शरीर की इस रात्रि में मृत्यु हो जाय, तो आहार, उपधि और देह इन सबका त्रिविध (मन-वचन-काया) से त्याग किया। 21. प्रा. एगोहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ।।66।। समास विग्रह :- अदीणं मणं जस्स सो अदीणमणसो (बहुव्रीहिः)। सं. अहमेकः, मे कोऽपि नाऽस्ति, अहमन्यस्य कस्यचिन्न । एवमदीनमना आत्मानमनुशास्ति ||66।। हि. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं अन्य किसी का नहीं हूँ, इस प्रकार दीनतारहित मनवाला आत्मा को शिक्षण देता है। 22. प्रा. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिराभावा, सवे संजोगलक्खणा ||67|| समास विग्रह :- नाणं च दंसणं च नाणदंसणाई, नाणदंसणेहिं संजुओ नाणदंसणसंजुओ (द्वन्द्व-तृतीयातत्पुरुषौ)। संजोगो लक्खणं जेसिं ते संजोगलक्खणा (बहुव्रीहिः)। सं. ज्ञानदर्शनसंयुक्त एको मे आत्मा शाश्वतः । शेषा मे भावा बाह्याः, सर्वे संयोगलक्खणा ||67।। हि. ज्ञानदर्शनसहित ऐसी एक मेरी आत्मा ही नित्य है, शेष मेरे सब भाव बाह्य हैं = मेरे स्वयं के नहीं हैं और वे सब संयोग लक्षणवाले हैं। 23. प्रा. संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा | तम्हा संजोगसंबंधं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं 1168।। समास विग्रह :- संजोगो मूलं जाए सा संजोगमूला (बहुव्रीहिः)। दुक्खाणं परंपरा दुक्खपरंपरा (षष्ठीतत्पुरुषः) । संजोगाणं संबंधं संजोगसंबंधं (षष्ठी तत्पुरुषः)। -१३२ 60 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. संयोगमूला दुक्खपरंपरा जीवेन प्राप्ता । तस्मात् सर्वं संयोगसंबन्धं, त्रिविधेन व्युत्सृष्टम् ||68|| हि. संयोगमूलक = संयोग के कारण से दुःखों की परम्परा जीव द्वारा प्राप्त की गई है, अतः सभी संयोग के सम्बन्ध का त्रिविध = मन वचन-काया से त्याग किया है। 24. प्रा. अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहूणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहि ||69।। समास विग्रह :- जीवं जावत्ति जावज्जीवं (अव्ययीभावः) । जिणेहिं पन्नत्तं जिणपन्नत्तं (तृतीयातत्पुरुषः)। सं. अर्हन् मम देवो, यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः | जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वमिति, सम्यक्त्वं मया गृहीतम् ।।6।। हि. अरिहन्त मेरे देव हैं, जीवनपर्यन्त सुसाधु भगवन्त मेरे गुरु हैं, श्री जिनेश्वर ने जो कहा वह तत्त्व है इस प्रकार का सम्यक्त्व मेरे द्वारा ग्रहण किया गया है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. देवों और असुरों के समुदाय से वन्दित जिनेश्वर भगवन्त हमारा रक्षण करें। प्रा. सुरासुरविंदवंदिया जिणीसरा अम्हे रक्खन्तु । समास विग्रह :- सुरा य असुरा य सुरासुरा । सुरासुराणं विंद सुरासुरविंदं । सुरासुरविंदेण वंदिया सुरासुरविंदवंदिया । (द्वन्द्व-षष्ठीतृतीयातत्पुरुषाः)। जिणाणं ईसरा जिणीसरा (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. सुरासुरवृन्दवन्दिता जिनेश्वरा अस्मान् रक्षन्तु । हि. जो विह्वल (मनुष्य) को शान्ति देता है, दुःख में आये हुए का उद्धार करता है, शरण में आये हुए का रक्षण करता है, उन पुरुषों द्वारा पृथ्वी अलंकृत है। जे विहलिअजणे संतिं देंति, दुहपडिए उद्धरेन्ति, सरणागए य रक्खेइरे, तेहिं पुरिसेहिं इमा पुहुवी अलंकिया अत्थि । समास विग्रह :- विहलिआ य तेजणा विहलिअजणा, ते विहलिअजणे (कर्मधारयः)। -१३३ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहं पडिआ दुहपडिआ, ते दुहपडिए (द्वितीयातत्पुरुषः) । सरणं आगया सरणागया, ते सरणागए (द्वितीयातत्पुरुषः) । सं. ये विह्वलितजनान् शान्ति ददति, दुःखपतितानुद्धरन्ति, शरणाऽऽगतांश्च रक्षन्ति, तैः पुरुषैरियं पृथ्व्यलकृताऽस्ति । 3. हि. अहिंसा, संयम और तपस्वरूप धर्म जिनके हृदय में है, उनको देव भी नमस्कार करते हैं। प्रा. अहिंसासंजमतवधम्मो जेसिं हिययंमि होइ, ते देवा वि नमसंति । समास विग्रह :- अहिंसा य संजमो य तवो य अहिंसासंजमतवाई (द्वन्द्वः ) । अहिंसासंजमतवाइं च्चिय धम्मो अहिंसासंजमतवधम्मो । (कर्मधारयः)। सं. अहिंसासंयमतपोधर्मो येषां हृदये भवति, तान् देवा अपि वन्दन्ते । 4. हि. जो मनुष्य धर्म का त्याग करके मात्र काम और भोगों का सेवन करता है, वह किसी भी काल में सुख नहीं पाता है । प्रा. जो जणो धम्मं चइत्ता केवलं कामभोए सेवइ, सो कयावि सुहं न पावेइ । समास विग्रह :- कामो य भोया य कामभोया, ते कामभोए (द्वन्द्वः)। सं. यो जनो धर्मं त्यक्त्वा केवलं कामभोगान् सेवते, स कदापि सुखं न प्राप्नोति । 5. हि. सभी मंगलों में प्रथम मंगल कौन-सा है ? प्रा. मंगलाणं च सवेसिं पढमं मंगलं किमत्थि ? | सं. मङ्गलानां च सर्वेषां , प्रथमं मङ्गलं किमस्ति ? | हि. हे भगवन् ! धर्म का उपदेश देने से आपने मेरे पर अनुग्रह किया है। प्रा. भयवं ! धम्मुवएसदाणेण तुब्भे मइ अणुग्गहं करीअ । समास विग्रह :- धम्मस्स उवएसो धम्मुवएसो | धम्मुवएसस्स दाणं धम्मुवएसदाणं तेण धम्मुवएसदाणेण (उभयत्र षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. हे भगवन्त ! धर्मोपदेशदानेन यूयं मय्यनुग्रहमकुरुत । हि. स्वामी की आज्ञा में रहने में ही तुम्हारा कल्याण है । प्रा. सामिणो आणाए वासे चेव तुम्हाणं कल्लाणं अत्थि । सं. स्वामिन आज्ञायां वासे चेव युष्माकं कल्याणमस्ति । - -१३४ - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. हि. जब पुण्य नष्ट होता है, तब सब विपरीत होता है। प्रा. जया पुण्णं नस्सई, तया सव्वं विवरीअं होइ । सं. यदा पुण्यं नश्यति, तदा सर्वं विपरीतं भवति । हि. हे प्रभो ! तुम्हारे चरण की शरण लेकर, कौन-सा मनुष्य संसार नहीं तरेगा ? | प्रा. हे पहू ! तुम्ह चरणाणं सरणं गहिऊण को जणो संसारं न तरिहिइ ? | __ सं. हे प्रभो ! तव चरणानां शरणं गृहीत्वा को जनः संसारं न तरिष्यति ? | 10. हि. इस लोक (भव) में जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया है, वही परलोक में साथ में आता है, अतः (इसलिए) तू शुभकर्म का संचय कर | प्रा. इमंसि लोगंसि जं सुहासुहकम्मं कयं, तं चेव परम्मि लोगम्मि सह आगच्छेइ, तओ तुं सुहकम्मं संचिणसु । समास विग्रह :- सुहं य असुहं य सुहासुहं । सुहासुहं य तं कम्म सुहासुहकम्मं । (द्वन्द्व-कर्मधारयौ) । सुहं य तं कम्मं सुहकम्मं (कर्मधारयः) । अस्मिल्लोके यच्छुभाशुभकर्म कृतं , तच्चैव परस्मिल्लोके सहाऽऽगच्छति, ततस्त्वं शुभकर्म संचिन् । 11. हि. इस संसार में किसका जीवन सफल है ? प्रा. अमम्मि संसारंमि कस्स जीविअं सहलं अत्थि ? | सं. अमुष्मिन् संसारे कस्य जीवितं सफलमस्ति ? | 12. हि. जिसके जीवित रहने पर सज्जन और मुनि जीवित रहते हैं और जो हमेशा परोपकारी होते हैं, उनका जीवन सफल है। प्रा. जाहे जीवंते सज्जणा मुणिणो य जीवन्ति, यश्च सदा परोपकारी भवति, तस्य जीविअं सहलं अस्थि । समास विग्रह :- संता य ते जणा सज्जणा (कर्मधारयः) । परेसिं उवयारी परोवयारी (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. यस्मिन् जीवति सज्जना मुनयश्च जीवन्ति , यश्च सदा परोपकारी भवति, तस्य जीवितं सफलमस्ति । 13. हि. यह मेरा है और यह तुम्हारा है, इस प्रकार (भाव) लघुमनवाले को होता है परन्तु महात्माओं को तो सम्पूर्ण जगत् अपना ही है । श १३५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. इमं मज्झ अत्थि, इमं च तुज्झ अत्थि, इइ लहुचेयाणं होइ, महप्पाणं तु सव्वं जगं अप्पकेरं चिय होइ । समास विग्रह :- लहुं चेयं जेसिं ते लहुचेया, तेसिं लहुचेयाणं (बहुव्रीहिः) । महंतो अप्पा जेसिं ते महप्पाणो, तेसिं महप्पाणं (बहुव्रीहिः) । सं. इदं मम अस्ति, इदं च तवाऽस्ति इति लघुचेतसां भवति, महात्मानां 1 तु सर्वं जगद् आत्मीयं चैव भवति । 14. हि. तू कहता है कि यह पुस्तक मेरी है और तेरा मित्र कहता है कि यह पुस्तक उसकी है, तो तुम्हारे में सत्यवादी कौन है ? प्रा. तुं कहेसि इमं पुत्थयं मम अत्थि, तव मित्तं च कहेइ अमुं पुत्थयं तस्स अत्थि, ता तुम्हेसु सच्चवओ को अत्थि ? | समास विग्रह :- सच्चं च्चिय वयं जस्स सो सच्चवओ (बहुव्रीहिः) । सं. त्वं कथयसि, इदं पुस्तकं ममाऽस्ति, तव मित्रं च कथयति, अदः पुस्तकं तस्याऽस्ति, ततो युवयोः सत्यव्रतः कोऽस्ति ? | 15. हि. उस मनुष्य ने इन बालकों को और उन बालिकाओं को सभी फल दे दिये । प्रा. सो जणो इमेसि बालाणं अमूणं च कन्नगाणं सव्वफलाई दाहीअ । समास विग्रह :- सव्वाइं च ताइं फलाई सव्वफलाई (कर्मधारयः) । सं. सः जन एभ्यो बालेभ्यः, अमूभ्यश्च कन्यकाभ्यः सर्वफलान्यददत् । 16. हि. राजा एकाएक बोला कि वे मनुष्य कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? और मेरे पास उनका क्या काम है ? प्रा. राया सहसा बोल्लीअ, इमे जणा के संति ? कत्तो आगच्छन्ति ? मम समीवे तेसिं किं कज्जं अस्थि ? | सं. राजा सहसाऽब्रवीद्, इमे जनाः के सन्ति ?, कुत आगच्छन्ति, मम समीपे तेषां किं कार्यमस्ति ? । १३६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 25 प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. उवज्झायो चउण्हं समणाणं सुत्तस्स वायणं देइ । सं. उपाध्यायश्चतुर्म्यः श्रमणेभ्यो वाचनां ददाति । हि. उपाध्याय भ. चार साधुओं को सूत्र की वाचना देते हैं। 2. प्रा. पंच पंडवा सिद्धगिरिम्मि निव्वाणं पावीअ । सं. पञ्च पाण्डवाः सिद्धगिरौ निर्वाणं प्राप्नुवन् । हि. पाँच पाण्डव सिद्धगिरि पर निर्वाण को प्राप्त हुए । 3. प्रा. कामो कोहो लोहो मोहो मओ मच्छरो य छ वियारा जीवाणमहियगरा । सं. कामः क्रोधो लोभो मोहो मदो मत्सरश्च षड् विकाराः जीवानामहितकराः । हि. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और ईर्ष्या ये छह विकार जीवों का __अहित करनेवाले हैं। 4. प्रा. अस्सि उज्जाणे पणवीसा अंबा, छत्तीसा य लिंबा, एगासीई केलीओ, सडसट्ठी चंपआ अस्थि । सं. अस्मिन्नुद्याने पञ्चविंशतिराम्राः, षटत्रिंशच्च निम्बाः, एकाशीतिः केल्यः, सप्तषष्टिश्चम्पकास्सन्ति । हि. इस बगीचे = बाग में आम्र के पच्चीस वृक्ष, नीम के छत्तीस वृक्ष, केले के इक्यासी वृक्ष और सड़सठ चंपक वृक्ष हैं।। 5. प्रा. सो समणो पव्वइओ अछुढेहिं सह खंडियसएहिं । समास विग्रह :- खंडियाण सयाइँ खंडियसयाई, तेहि खंडियसएहिं (षष्ठीतत्पुरुषः ।) सं. स श्रमणः प्रव्रजितोऽर्द्धचतुर्थैः सह खण्डिकशतैः । हि. उस साधु भ. ने साढ़े तीन सौ विद्यार्थियों के साथ दीक्षा ग्रहण की । 6. प्रा. नहे सत्तण्हं रिसीणं सत्त तारा दीसंति । .. सं. नभसि सप्तानामृषीणां सप्त तारकाणि दृश्यन्ते । हि. आकाश में सात ऋषियों के सात (सप्तर्षि) तारे दिखाई देते हैं। 7. प्रा. समोसरणे भयवं महावीरो देवदाणवमणुअपरिसाए चउहि मुहेहिं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । समास विग्रह :- देवा य दाणवा य मणुआ य देवदाणवमणुआ । -१३७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदाणवमणुआणं परिसा देवदाणवमणुअपरिसा, ताए देवदाणवमणुअपरिसाए (द्वन्द्व-षष्ठीतत्पुरुषो)। . समवसरणे भगवान् महावीरो देवदानवमनुजपर्ष दि चतुर्भिर्मुखैरर्धमागध्या भाषया धर्ममाचष्टे । हि. समवसरण में भगवान् महावीर देव, दानव और मनुष्यों की पर्षदा में चार मुख द्वारा अर्धमागधी भाषा से धर्म कहते है। 8. प्रा. तिसलादेवी चइत्तमासस्स सुक्कपक्खे तेरसीए तिहीए महावीरं पुत्तं पयाही। समास विग्रह :- चइत्तो य एसो मासो चइत्तमासो, तस्स चइत्तमासस्स (कर्मधारयः)। सुक्को य एसो पक्खो सुक्कपक्खो, तम्मि सुक्कपक्खे (कर्मधारयः) । सं. त्रिशलादेवी चैत्रमासस्य शुक्लपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ महावीरं पुत्रं प्रजायत । हि. त्रिशलादेवी ने चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में पुत्र महावीर को जन्म दिया । 9. प्रा. दसहिं दसेहिं सयं होइ, दसहिं सएहिं सहस्सं | दसहिं सहस्सेहिं अजयं, दसहि अजुएहि लक्खं च 117011 सं. दशभिर्दशभिः शतं भवति, दशभिः शतैः सहस्रम् । दशभिः सहस्त्रैरयुतं, दशभिरयुतैर्लक्षं च ||70|| हि. दस को दस से गुणा करने पर सौ होता है, दस को सौ से गणा करने पर हजार, दस को हजार से गुणा करने पर अयुत = दस हजार और दस को अयुत से गुणा करने पर लाख होता है। 10. प्रा. उसमे अरिहा कोसलिए पढमराया, पढममिक्खायरिए, पढमतित्थयरे, वीसं पुनसयसहस्साई कुमारवासे वसित्ता, तेवडिंपुब्बसयसहस्साई रज्जमणुपालमाणे लेहाइयाओ सउणरुअपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ, चोवढि महिलागुणे, सिप्पाणमेगसयं, एए तिन्नि पयाहियट्ठाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ, तत्तो पच्छा लोगतिएहिं देवेहिं संबोहिए संवच्छरियं दाणं दाऊण परिवइओ । समास विग्रह - पढमो य एसो राया पढमराया (कर्मधारयः)। पढमो य एसो भिक्खायरिओ पढमभिक्खायरिए (कर्मधारयः)। पढमो य एसो तित्थयरो पढमतित्थयरे (कर्मधारयः) । ASAN १३८ थ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयाणं सहस्साइं सयसहस्साइं, पुलाणं सयसहस्साइं पुब्बसयसहस्साई (उभयत्र षष्ठी तत्पुरुषः) । कुमारे वासो कुमारवासो, तम्मि कुमारवासे (सप्तमीतत्पुरुषः) । लेहो आई जासुं ताउ लेहाइयाओ (बहुव्रीहिः)। सउणाणं रुआई सउणरुआइं । सउणरुआई पज्जवसाणे जासु ताओ सउणरुअपज्जवसाणाओ (षष्ठीतत्पुरुष-बहुव्रीहिः) । महिलाणं गुणा महिलागुणा, ते महिलागुणे (षष्ठीतत्पुरुषः) । एकं च्चिय सयं एगसयं (कर्मधारयः) । पयाणं हियं पयाहियं । पयाहियाय त्ति पयाहियटुं, से पयाहियट्ठाए (षष्ठीतत्पुरुषः - चतुर्थ्यर्थे तत्पुरुषश्च) । पुत्ताणं सयं पुत्तसयं (षष्ठीतत्पुरुषः) । रज्जाणं सयं रज्जसयं, तम्मि रज्जसए (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. ऋषभोऽर्हन कौशलिकः प्रथमराजः, प्रथमभिक्षाचरकः, प्रथमतीर्थकरो विंशतिं पूर्वशतसहस्राणि कुमारवासे उषित्वा, त्रिषष्टिं पूर्वशतसहस्राणि राज्यमनुपाल्यमानो लेखादिकाः शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिं कला :, चतुष्पष्टिं महिलागुणान् शिल्पानामेकशतमेतानि त्रीणि प्रजाहितार्थायोपदिशति, उपदिश्य पुत्रशतं राज्यशतेऽभिषिञ्चति, ततः पश्चाल्लोकान्तिकदेवै: संबोधित : सांवत्सरिकं दानं दत्वा परिवजितः । हि. अयोध्या नगरी में उत्पन्न प्रथम राजा, प्रथम भिक्षाचर, प्रथम तीर्थंकर, अरिहन्त श्रीऋषभदेव ने बीस लाख पूर्वपर्यन्त कुमारावस्था में रहकर, त्रेसठ लाख पूर्व राज्य का पालन करते, लेख इत्यादि पक्षी के शब्दपर्यन्त बहोत्तर कला, स्त्रियों के चौसठ गुण, एक सौ शिल्प, ये तीन प्रजा के हित हेतु बताते हैं । बताकर सौ पुत्रों का सौ राज्य पर अभिषेक करते हैं, उसके बाद लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित सांवत्सरिक दान देकर दीक्षा ली।। 11. प्रा. जिणमए एगादस अंगाणि, बारस उवंगाणि, छ छेयगंथा, दस पइन्नगाई, चत्तारि मूलसुत्ताई, नंदिसुत्तअणुओगदाराइं च दोण्णि त्ति पणयालीसा आगमा संति । समास विग्रह :- जिणस्स मयं जिणमयं, तम्मि जिणमए (षष्ठीतत्पुरुषः) । A -१३९ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेयस्स गंथा छेयगंथा (षष्ठीतत्पुरुषः)। मूलाइं च ताई सुत्ताई मूलसुत्ताइं (कर्मधारयः) । नंदिसुत्तं य अणुओगदाराइं च नंदीसुत्तअणुओगदाराइं (द्वन्द्वः) । सं. जिनमते एकादशाङ्गानि, द्वादशोपाङ्गानि, षट् छेदग्रन्थाः, दश प्रकीर्णकानि, चत्वारि मूलसूत्राणि नन्दिसूत्रानुयोगद्वारे च द्वे इति पञ्चचत्वारिंशदागमास्सन्ति । हि. जिनमत में ग्यारह अंग, बारह उपांग, छह छेदग्रन्थ, दश पयन्ना चार मूलसूत्र, नन्दिसूत्र और अनुयोगद्वार ये दो, इस प्रकार पैंतालीस आगम हैं। 12. प्रा. भंते ! नाणं कइविहं पन्नत्तं ? गोयमा ! नाणं पंचविहं पन्नत्तं, तं जहा-मइनाणं, सुअनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च । सं. भगवन् ! ज्ञानं कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं, केवलज्ञानं च । हि. हे भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा है ? हे गौतम ! ज्ञान पाँच प्रकार का कहा है । वह इस प्रकार है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । 13. प्रा. चत्तारि लोगपाला, सत्त य अणियाइं तिन्नि परिसाओ । एरावणो गइंदो, वज्जं च महाउहं तस्स (सक्कस्स) 1171|| समास विग्रह :- गयाणं इंदो गइंदो (षष्ठीतत्पुरुषः) । महंतं च तं आउहं महाउहं (कर्मधारयः) । सं. तस्य (शक्रस्य) चत्वारो लोकपालाः, सप्त चाऽनिकानि, तिस्रःपर्षदः, ऐरावणो गजेन्द्रो, महायुधं च वज्रम् ।।71 ।। हि. उस इन्द्र के चार लोकपाल, सात सैन्य, तीन पर्षदा, ऐरावण हाथी और महायुधवज्र होता है। 14. प्रा. बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलाए, अट्ठावीसं मुणेअव्वा ||72|| समास विग्रह :- कुच्छिणो पूरओ कुच्छिपूरओ (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो, द्वात्रिंशत् कवलाः किल भणितः । महिलाया अष्टाविंशतिर्ज्ञातव्याः । १४० A Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. सचमुच पुरुष का पेट भरनेवाला आहार बत्तीस कवल कहा है और स्त्री का अठ्ठाईस कवल जानना । 15. प्रा. अट्ठावीसं लक्खा, अडयालीसं च तह सहस्साइं । सव्वेसि पि जिणाणं, जईण माणं विणिद्दिट्ठे ||73|| सं. सर्वेषामपि जिनानां यतीनां मानम्, अष्टाविंशतिर्लक्षाण्यष्टचत्वारिंशच्च तथा सहस्राणि विनिर्दिष्टम् ||73|| हि. सभी जिनेश्वर भगवन्तों के साधुओं का प्रमाण अट्ठाईस लाख और अड़तालीस हजार बताया है । 16. प्रा. पढमे न पढिआ विज्जा, बिईए नज्जियं धणं । तईए न तवो तत्तो, चउत्थे किं करिस्सइ ? ||74|| सं. प्रथमे विद्या न पठिता, द्वितीये धनं नाऽर्जितम् । तृतीये तपो न तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ? ||74|| हि. (जिसने ) प्रथम वय में विद्या नहीं पढ़ी, दूसरी वय में धन उपार्जन नहीं किया, तीसरी वय में तप नहीं किया, (वह) चौथी वय में क्या करेगा ? 17. प्रा. सत्तो सद्दे हरिणो, फासे नागो रसे य वारियरो | किवणपयंगो रूवे, भसलो गंधेण विणट्टो ||75 || समास विग्रह :- किवणो य एसो पयंगो किवणपयंगो (कर्मधारयः) । सं. शब्दे सक्तो हरिणः, स्पर्शे नागो, रसे च वारिचरः । रूपे कृपणपतङ्गो, गन्धेन भ्रमरो विनष्टः । हि. शब्द ( गीत ) में आसक्त हिरन, स्पर्श में आसक्त हाथी, रस में आसक्त मछली, रूप में आसक्त कृपण पतङ्गा और गन्ध में आसक्त भौंरा नष्ट हुआ । 18. प्रा. पंचसु सत्ता पंच वि, णट्ठा जत्थागहिअपरमट्ठा । एगो पंचसु सत्तो, पजाइ भस्संतयं मूढो ||7611 समास विग्रह :- परमो य एसो अट्ठो परमट्ठो (कर्मधारयः) । णाइं गहिओ परमट्ठो जेहिं ते अगहियपरमट्ठा | ( बहुव्रीहिः) । भस्सं अंते जस्स तं भस्संतं, तस्स भावो भस्संतय, तं भस्संतयं (बहुव्रीहिः) । सं. यत्राऽगृहीतपरमार्थाः पंचसु सक्ताः पञ्चापि नष्टाः । पञ्चसु सक्तः, एको मूढो भस्मान्ततां प्रयाति ||76|| १४१ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. जहाँ परमार्थ को ग्रहण नहीं करनेवाले पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त पाँच प्राणी विनष्ट हुए, तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त ऐसा एक मूढ़ अवश्य मृत्यु पाता है । 19. प्रा. कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो पढमं, तओ महाचक्कवट्टिभोए महप्पभावो । जो बावत्तरिपुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई, बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो || चउदसवररयणनवमहानिहिचउसट्ठिसहस्सपवरजुवईण सुंदरवई, चुलसीहयगयरहसयसहस्ससामी, छन्नवइगामकोडिसामी आसी जो भारहंमिभयवं || वेड्डूओ || ||77 || समास विग्रह :- कुरूणं जणवयं कुरुजणवयं । कुरुजणवयम्मि हत्थिणाउरं कुरुजणवयहत्थिणाउरं । कुरुजणवयहत्थिणाउरस्स नरीसरो कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो । नराणं ईसरो नरीसरो । (षष्ठी-सप्तमी-षष्ठीतत्पुरुषाः) । महंतो य एसो चक्कवट्टी महाचक्कवट्टी । महाचक्कवट्टिणो भोओ जस्स सो महाचक्कवट्टिभोए । (कर्मधारय बहुव्रीहिः) महंतो पहावो जस्स सो महप्पभावो । (बहुव्रीहिः) । पुराणं वराइं पुरवराइं । पुरवराणं सहस्सं पुरवरसहस्सं । बावत्तरिगुणियाइं पुरवरसहस्साइं बाक्त्तरिपुरवरसहस्साइं । नगराइं य निगमा य जणवयाई य नगरनिगमजणवयाइं । वराइं च ताइं नगरनिगमजणवयाइं वरनगरनिगमजणवयाइं बावत्तरिपुरवर सहस्साइं च ताई वरनगरनिगमजणवयाइं बावत्तरिपुरवरसहस्स-वरनगरनिगमजणवयाई । तेसिं वई बावत्तरिपुरवरसहस्सवर नगरनिगमजणवयवई । (षष्ठीउत्तरपदलोपितत्पुरुष-द्वन्द्व कर्मधारय-षष्ठीतत्पुरुषाः) रायाणं वराइं रायवराइं । रायवराणं सहस्साइं रायवरसहस्साइं । बत्तीसगुणियाइं रायवरसहस्साइं बत्तीसारायवरसहस्साइं । तेहिं अणुयायो मग्गो जस्स सो बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो (षष्ठी - उत्तरपदलोपितत्पुरुष-बहुव्रीहयः) । वराइं च ताइं रयणाई वररयणाइं । चउदस य ताइं वररयणाइं चउदसवररयणाइं । महंता य एए निहिणो महानिहिणो । नव य एए १४२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिहिणो नवमहानिहिणो । चउसद्विगुणियाइं सहस्साइं चउसट्ठिसहस्साइं । पवरा जुवईआ पवरजुवईआ | चउसट्ठिसहस्साइं च एआओ पवरजुवईआ चउसट्ठिसहस्सपवरजुवईआ । चउदसवररयणइंच नवमहानिहिणो यचउसट्ठिसहस्सप-वरजुवईआ य । चउदसवररयण-नवमहानिहि-चउसद्विसहस्सपवरजुवईआ । तासिं चउदसवररयण-नवमहानिहि-चउसट्ठिसहस्सपवरजुवईण (कर्मधारयउत्तरपदलोपितत्पुरुष-कर्मधारय-द्वन्द्वाः ) । सुंदरो य एसो वई सुंदरवई (कर्मधारयः) । हया य गया य रहा य हयगयरहा । सयाणं सहस्साइं सयसहस्साइं । हयगयरहाणं सयसहस्साइं हयगयरहसयसहस्साई । चुलसीगुणियाई ताई चुलसीहयगय रहसयसहस्साइं । तेसिं सामी चुलसीहयगयरहसयसहस्सामी (द्वन्द्व-षष्ठी-उत्तरपदलोपि-षष्ठीतत्पुरुषाः)। गामाणं कोडी गामकोडी । छन्नवइगुणिआ गामकोडी छन्नवइगामकोडी । ताए सामी छन्नवइगामकोडीसामी (षष्ठी-उत्तरपदलोपि षष्ठीतत्पुरुषाः)। सं. कुरुजनपदहस्तिनापुरनरेश्वरः, प्रथमं, ततो महाचक्रवर्तिभोगो महाप्रभावः । यो द्वासप्ततिपुरवरसहस्रवरनगरनिगमजनपदपतिः, द्वात्रिंशद्राजवरसहस्रानुयातमार्गः ।। चतुर्दशवररत्ननवमहानिधि - चतु :षष्टिसहस्रप्रवरयुवतीनां सुन्दरपतिः । चतुरशीतिहयगजरथशतसहस्रस्वामी, षण्णवतिग्रामकोटिस्वामी यो भगवान् भारते आसीत् | ||वेष्टकः।। ||77|| हि. कुरुदेश में हस्तिनापुर नगर में प्रथम राजा, महान् चक्रवर्ती के भोगवाले, अतिप्रभावशाली, बहोत्तर हजार श्रेष्ठ पुर, श्रेष्ठ नगर, निगम और जनपद के स्वामी, बत्तीस हजार उत्तम राजाओं द्वारा अनुसरित मार्ग है जिनका, चउदह श्रेष्ठ रत्न, नौ महानिधि और चौंसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों के सुन्दर स्वामी, चौरासी लाख घोड़े, हाथी और रथ के स्वामी तथा छयानबे करोड़ गाँवों के स्वामी, जो भगवन्त भारत में थे । (वेष्टक छन्द)। बसून -१४३ ॐॐ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. प्रा. तं संतिं संतिकरं, संतिण्णं सब्वभया । संतिं थुणामि जिणं, संतिं विहेउ मे || रासानंदियं ।।78।। (युग्मम्) समास विग्रह :- सबं च एअं भयं सवमयं, तत्तो सवमया (कर्मधारयः) । सं. तं शान्ति शान्तिकरं, सर्वभयात् संतीर्णम् । ___शान्तिं जिनं स्तौमि, मे शान्तिं विदधातु || रासानन्दितम् ।।78|| हि. शान्तिस्वरूप, शान्ति करनेवाले, सभी भय को पार करनेवाले शान्तिनाथ . जिन की मैं स्तुति करता हूँ, मुझे शान्ति दो । (रासानन्दित छन्द) हिन्दी वाक्यों का प्राकृत-एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. वह इक्कीस वर्ष चारित्रपालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर बारहवें देवलोक में देव हुआ | प्रा. सो एगवीसं वरिसाइं चारित्तं पालित्ता ससमाहि मच्चं पावित्ता दुवालसे कप्पे देवो हवीअ । समास विग्रह :- समाहिणा सह ससमाहिं । (सहार्थे तृतीयातत्पुरुषः) । सं. स एकविंशतिं वर्षाणि चारित्रं पालयित्वा ससमाधिमृत्युं प्राप्य द्वादशमे कल्पे देवोऽभवत् । 2. हि. भगवान महावीर अश्विन मास अमावस्या की रात्रि में आठ कर्मों का क्षय करके मोक्ष में गये, उसके बाद प्रभात में कार्तिक मास की प्रतिपदा को गौतमस्वामी को केवलज्ञान हुआ, इसलिए ये दो दिन जगत् में श्रेष्ठ गिने जाते हैं । प्रा. भयवं महावीरो आसिणामावासाए रत्तीए अट्ठण्हं कम्माणं खयं करिता मोक्खं गच्छीअ, तत्तो पच्चूसे कत्तिअपाडिवयाए गोयमसामी केवलनाणं पावीअ, तत्तो इमाइं दोण्णि दिणाइं जगम्मि सिट्ठाई मन्निज्जन्ति । समास विग्रह :- आसिणस्स अमावस्सा आसिणामावस्सा, ताए आसिणामावासाए (षष्ठीतत्पुरुष) कत्तिअस्स पाडिवया कत्तिअपाडिवया, ताए कत्तिअपाडिवयाए (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. भगवान् महावीर आश्विनाऽमावस्याया रात्रावष्टानां कर्मणां क्षयं कृत्वा मोक्षमगच्छत्, ततः प्रत्यूषे कार्तिकप्रतिपदि गौतमस्वामी केवलज्ञानं प्राप्नोत् , तत इमे द्वे दिने जगति श्रेष्ठे मन्येते । १४४. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. हि. जैन छह द्रव्य, आठ कर्म, जीवादि नौ तत्त्व, दस यतिधर्म और चौदह गुणस्थानक मानते हैं । प्रा. जइणा छ दव्वाइं, अट्ठ कम्माइं, जीवाइनवतत्ताइं, दह जइधम्मे, चोद्दस य गुणट्ठाणाई मन्नन्ति । समास विग्रह :- जीवो आई जेसिं ताइं जीवाइइं । नवाइं च ताई तत्ताइं नवतत्ताइं । जीवाइइं च ताइं नवतत्ताइं जीवाइनवतत्ताइं (बहुव्रीहि-कर्मधारयौ) । जईणं धम्मा जइधम्मा, ते जइधम्मे (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. जैनाः षड् द्रव्याणि, अष्टकर्माणि, जीवादिनवतत्त्वानि, दश यतिधर्मान्, चतुर्दश च गुणस्थानकानि मन्यन्ते ॥ हि. श्रावकों को जिनालयों की चौरासी आशातना और गुरुओं की तैतीस आशातनाओं का त्याग करना चाहिए । प्रा. सावगा जिणालयाणं चुलसिं आसायणाओ गुरूणं च तेत्तीसं आसायणाओ वज्जन्तु । समास विग्रह :- जिणाणं आलया जिणालया, तेसिं जिणालयाणं (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. श्रावकाः जिनालयानां चतुरशीतिमाशातनाः, गुरूणां च त्रयस्त्रिंशदाशातना वर्जेयुः । 5. हि. जो भरतक्षेत्र के तीन खण्ड जीतता है वह वासुदेव होता है और छह खण्ड जीतता है वह चक्रवर्ती होता है । 4. प्रा. जो भरहवासस्स तिण्णि खंडाइं जिणइ, सो वासुदेवो होइ, छ खंडाइं च जिणइ, सो चक्कवट्टी होइ । सं. यो भरतवर्षस्य त्रीणि खण्डानि जयति स वासुदेवो भवति, षट् खण्डानि च जयति स चक्रवर्ती भवति । 6. हि. तीर्थंकरों को चार अतिशय जन्म से होते हैं तथा कर्मक्षय से ग्यारह अतिशय और देवकृत उन्नीस अतिशय, इस प्रकार तीर्थंकर चौंतीस अतिशयों से बिराजित होते हैं । प्रा. तित्थयराणं चत्तारि अइसया जम्मत्तो हवन्ति, तहेव कम्मक्खयत्तो एगारह अइसया, देवकया य एगुणवीसं अइसया, इइ चउत्तीस अइसयविराइया तित्थयरा हवन्ति । १४५ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास विग्रह :- कम्माणं खयो कम्मक्खयो, तत्तो कम्मक्खयत्तो (षष्ठीतत्पुरुषः)। देवेन कया देवकया (तृतीयातत्पुरुषः)। चउत्तीसा य एए अइसया चउत्तीसअइसया । चउत्तीसअइसएहिं विराइया चउत्तीसअइसयविराइया । (कर्मधारय-तृतीयातत्पुरुषो)। सं. तीर्थकराणां चत्वारोऽतिशया जन्मतो भवन्ति, तथैव कर्मक्षयत एकादशाऽतिशयाः, देवकृताश्चैकोनविंशतिरतिशयाः, इति चतुस्त्रिंशदतिशयविराजितास्तीर्थकरा भवन्ति । 7. हि. सभी अंग और उपांग इत्यादि सूत्रों में पाँचवाँ भगवती अंग श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है। प्रा. सब्बेसुं अंगोवंगाइसुं सुत्तेसु पंचमं भगवईअंग सिटु वड्डयरं च अस्थि । समास विग्रह :- अंगाइं च उवंगाइं च अंगोवंगाई । अंगोवंगाई आइम्मि जेसु ताई अंगोवंगाइई, तेसु अंगोवंगाइसुं (द्वन्द्व-बहुव्रीहिः)। भगवई च्चिय अंगं भगवईअंग (कर्मधारयः) । सं. सर्वेष्वङ्गोपाङ्गादिषु सूत्रेषु पञ्चमं भगवत्यङ्ग, श्रेष्ठं बृहत्तरं चाऽस्ति । 8. हि. चौंसठ इन्द्र मेरुपर्वत पर तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव करते हैं । प्रा. चउसट्ठी इंदा मेरुम्मि तित्थयरस्स जम्ममहूसवं करेन्ति । समास विग्रह :- जम्मणो महूसवो जम्ममहूसवो, तं जम्ममहूसवं (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. चतुःषष्टिरिन्द्रा मेरौ तीर्थकरस्य जन्ममहोत्सवं कुर्वन्ति । 9. हि. सिद्ध भगवन्त आठ कर्मों से रहित होते हैं। प्रा. सिद्धा भयवंता अट्ठकम्मरहिया हवन्ति । समास विग्रह :- अट्ठाइं च ताई कम्माइं अट्ठकम्माइं । अट्ठकम्मेहिं रहिया अट्ठकम्मरहिया (कर्मधारय-तृतीयातत्पुरुषौ) । सं. सिद्धा भगवन्तोऽष्टकर्मरहिताः भवन्ति । 10. हि. कुमारपाल राजा ने अठारह देशों में जीवदया का पालन करवाया था। प्रा. कुमारवालो निवो अट्ठारससुंदेसेसुं जीवदयं पालावीअ । समास विग्रह :- जीवाणं दया जीवदया, तंजीवदयं (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. कुमारपालो नृपोऽष्टादशसु देशेषु जीवदयामपालयत् । 7 -१४६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. हि. श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने सिद्धहेमव्याकरण के आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण दिया है। प्रा. सिरिहेमचंदसूरिणो सिद्धहेमवागरणस्स अट्ठमे अज्झाए पाइयवागरणं दासी। समास विग्रह :- सिरीए जुत्ता हेमचंदसूरिणो सिरिहेमचंदसूरिणो (उत्तरपदलोपिसमासः) । सिद्धहेमं च्चिअ वागरणं सिद्धहेमवागरणं तस्स सिद्धहेमवागरणस्स (कर्मधारयः) । पाइयं वागरणं पाइयवागरणं (कर्मधारयः)। सं. श्रीहेमचन्द्रसूरिणा सिद्धहैमव्याकरणस्याष्टमेऽध्याये प्राकृत व्याकरणमददुः । हि. इस जम्बूद्वीप में छह वर्षधर पर्वत और भरतादि सात क्षेत्र हैं। प्रा. एयम्मि जंबूदीवरिम छ वासहरा पव्वया, भरहाइय सत्त वासा संति । समास विग्रह :- भरहो आई जेसु ते भरहाइ (बहुव्रीहिः)। सं. एतस्मिन् जम्बूद्वीपे षड् वर्षधराःपर्वताः, भरतादयश्च सप्त वर्षाः सन्ति । 13. हि. जीव दो प्रकार के, गति चार प्रकार की, व्रत पाँच प्रकार के और भिक्षु की प्रतिमा बारह प्रकार की हैं। प्रा. जीवा दुविहा, गई चउबिहा, वयाइं पंचविहाइं, भिक्षुपडिमा य दुवालसविहा हवन्ति ।। समास विग्रह :- भिक्खुणो पडिमा भिक्खुपडिमा (षष्ठीतत्पुरुषः) । सं. जीवा द्विविधाः, गतयश्चतुर्विधाः, व्रतानि पञ्चविधानि, भिक्षुप्रतिमाश्च द्वादशविधा भवन्ति । इस पण्डित ने इस व्याकरण के आठ अध्याय बनाये हैं और प्रत्येक अध्याय के चार-चार पाद हैं, उसके सात अध्याय और आठवें अध्याय के दो पाद मैंने पढ़े हैं। . प्रा. अयं पंडिओ इमस्स वागरणस्स अट्ठ अज्झाए विहेसी, पइअज्झायं य चत्तारि चत्तारि पाया संति, अहं तस्स सत्त अज्झाए, अट्ठमस्स य अज्झायस्स दुवे पाए भणीअ । समास विग्रह :- अज्झायं अज्झायं त्ति पइअज्झायं (अव्ययीभावः) । A हि. १४७ ला Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. अयं पण्डितोऽस्य व्याकरणस्याऽष्टावध्यायान् व्यदधात्, प्रत्यध्यायं च चत्वार: चत्वार : पादाः सन्ति, अहं तस्य सप्ताऽध्यायान्, अष्टमस्य चाऽध्यायस्य द्वौ पादावभणम् । 15. हि. उस यक्ष के दो मुख हैं और चार हाथ है, उसमें एक हाथ में शंख है, दूसरे हाथ में गदा है, तीसरे हाथ में चक्र है और चौथे हाथ में बाण है। प्रा. तस्स जक्खस्स दोण्णि मुहाइं, चत्तारि य हत्था संति, तेसुं एगम्मि हत्थम्मि संखो अत्थि, बिईये हत्थे गया अत्थि, तईये हत्थे चक्कं, चउत्थे य हत्थे सरो अस्थि । सं. तस्य यक्षस्य द्वे मुखे, चत्वारश्च हस्ताः सन्ति, तेष्वेकस्मिन् हस्ते शङ्खोऽस्ति, द्वितीये हस्ते गदाऽस्ति, तृतीये हस्ते चक्रं, चतुर्थे च हस्ते शरोऽस्ति । 16. हि. मैंने इस पुस्तक के पच्चीस पाठ पढ़े, इसके चार हजार शब्द याद किये, हजार वाक्य किये, अब मुझे प्राकृत सुलभ बने, उसमें आश्चर्य क्या ? प्रा. इमस्स पुत्थयस्स हं पणवीसं पाढे पढीअ, एअस्स चत्तारि सहस्साइं सद्दे सुमरीअ, सहस्सं वक्काइं करीअ, अहुणा मज्झ पाइयं सुलहं हवे तम्मि किं अच्छेरं ? || सं. अस्य पुस्तकस्याऽहं पञ्चविंशतिं पाठानपठम्, एतस्य चत्वारि सहस्राणि शब्दान् अस्मरम्, सहस्राणि वाक्यान्यकरोम् , अधुना मह्यं प्राकृतं सुलभं भवेत् तस्मिन् किमाश्चर्यम् ? | १४८ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्रीवासुपूज्यस्वामिने नमः । । अनन्तलब्धिनिधान श्रीगौतमस्वामिने नमः । परमोपास्यश्रीविजयनेमि-विज्ञान - कस्तूरसूरिभ्यो नमः T || सिरि पाइयगज्ज -पज्जमाला ॥ । नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीर - वद्धमाणसामिस्स । मंगलं || पंचनमुक्कारमहामंतो ।। नमो अरिहंताणं || नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्वसाहूणं । एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ ।। श्री प्राकृतगद्य-पद्यमाला संस्कृतछायान्विता ।। | नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीर - वर्द्धमानाय । (1) मङ्गलम् ।। पञ्चनमस्कारमहामन्त्रः ॥ नमोऽर्हद्भ्यः । नमः सिद्धेभ्यः । नम आचार्येभ्यः । नम उपाध्यायेभ्यः ।। नमो लोके सर्वसाधुभ्यः । एषः पञ्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः । मङ्गलानां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम् ।। प्राकृतगद्य-पद्यमाला - हिन्दी अनुवाद श्रमण भगवन्त श्रीमहावीरस्वामी - वर्धमानस्वामी को नमस्कार हो । (1) मंगल :- पंच नमस्कारमहामन्त्र अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो । सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो । आचार्य भगवन्तों को नमस्कार हो । उपाध्याय भगवन्तों को नमस्कार हो । लोक में रहे सभी साधु भगवन्तों को नमस्कार हो । यह पंच नमस्कार (मंत्र) सभी पापों का नाश करनेवाला है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल हैं । चत्तारि मंगलं :- अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं ।। चत्तारि लोगुत्तमा :- अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो || १४९ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तारि सरणं पवज्जामि :- अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ।। संस्कृत अनुवाद चत्वारि मङ्गलानि :- अर्हन्तो मङ्गलम् सिद्धा मङ्गलम् साधवो मङ्गलम्, केवलिप्रज्ञप्तो धर्मो मङ्गलम् || चत्वारो लोकोत्तमा :- अर्हन्तो लोकोत्तमाः, सिद्धा लोकोत्तमाः साधवो लोकोत्तमाः, केवलिप्रज्ञप्तो धर्मो लोकोत्तमाः ॥ , चत्वारि शरणानि प्रपद्ये, अर्हतः शरणं प्रपद्ये, सिद्धान् शरणं प्रपद्ये, साधून् शरणं प्रपद्ये, केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये || " हिन्दी अनुवाद चार (पदार्थ) मंगल स्वरूप हैं :- (1) अरिहन्त भ. मंगल हैं, ( 2 ) सिद्ध भ. मंगल हैं, (3) साधु भ. मंगल हैं और (4) केवली भगवन्त द्वारा बताया हुआ धर्म मंगल है | चार (व्यक्ति) लोक में उत्तम हैं :- (1) अरिहन्त भ. लोक में श्रेष्ठ हैं, (2) सिद्ध भ. जगत् में उत्तम हैं, (3) साधु भ. लोक में श्रेष्ठ हैं, और (4) केवली भ. द्वारा बताया हुआ धर्म जगत् में उत्तम है । मैं चार ( व्यक्तियों) की शरण स्वीकार करता हूँ :- (1) अरिहन्त भगवन्तों की शरण स्वीकार करता हूँ, (2) सिद्ध भगवन्तों की शरण स्वीकार करता हूँ, (3) साधु भगवन्तों की शरण स्वीकार करता हूँ और (4) केवली भगवन्तों द्वारा बताये हुए धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ । (2) सीयावण्णणं (प्राकृत) सीया उवणीया जिण- वरस्स जर-मरणविप्पमुक्कस्य । ओसत्तमल्लदामा, जल- थलय - दिव्वकुसुमेहिं 1179 ।। सिबिया मज्झयारे, दिव्वं वररयणरूवचेंचइयं । सीहासणं महरिहं, सपादपीठं जिणवरस्स । 180 ।। आलइयमालमउडो, भासुरबोंदी वराभरणधारी । खोमियवत्थणियत्थो, जस्स य मोल्लं सयसहस्सं । । 81 ।। छट्ठेण उ भत्तेणं, अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो । लेसाहिं विसुज्झतो, आरुहई उत्तमं सीयं ।। 82।। १५० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) (शिबिकावर्णनम्) संस्कृत अनुवाद जरामरणविप्रमुक्तस्य जिनवरस्य जलस्थलकदिव्यकुसुमैः । अवसक्तमाल्यदामा शिबिकोपनीता ||79।। शिबिकाया मध्ये जिनवरस्य दिव्यं वररत्नरूपमण्डितम् । सपादपीठं महार्ह सिंहासनम् (अस्ति) ।।80।। आलगितमालामुकुटो भास्वरशरीरो वराभरणधारी । यस्य च मूल्यं शतसहस्रं, परिहितक्षौमिकवस्त्रः ||81।। षष्ठेन तु भक्तेन, सुन्दरेणाऽध्यवसानेन । लेश्याभिर्विशुद्ध्यमानो जिन उत्तमां शिबिकामारोहति ||82|| (2) हिन्दी अनुवाद प्रभु श्रीमहावीरस्वामी की दीक्षा के प्रसंग में शिबिका वर्णन : वृद्धावस्था और मृत्युरहित ऐसे श्रीजिनेश्वर प्रभु की, पानी और पृथ्वी पर उत्पन्न दिव्यपुष्पों से संलग्न मालावाली शिबिका ले जायी जाती है | शिबिका के मध्यभाग में श्रीजिनेश्वर प्रभु का, दिव्य, श्रेष्ठ रत्नों के रूप से सुशोभित पादपीठसहित अतिकीमती सिंहासन है । (80) पुष्पों की माला का मुकुट धारण करनेवाले, देदीप्यमान (देहवाले), श्रेष्ठ आभूषण धारण करनेवाले, जिसका मूल्य एक लाख सोनामोहर है वैसे रेशमी वस्त्र परिधान किये है जिन्होंने, दो उपवास (छ) के तप द्वारा, सुन्दर अध्यवसाय और लेश्या (= आत्मा के परिणामों) द्वारा विशुद्ध बनते प्रभु उत्तम शिबिका में आरूढ होते हैं । (81, 82) प्राकृत सीहासणे णिविट्ठो, सक्कीसाणा य दोहिं पासेहिं । वीयंति चामराहिं, मणि-रयणविचित्तदंडाहिं । 183।। पुव्वि उक्खित्ता माणुसेहिं, साहट्ठरोमकूवेहिं । पच्छा वहति देवा, सुर-असुरा गरुल-णागिंदा ।।84।। पुरओ सुरा वहंति, असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि । अवरे वहति गरुला, णागा पुण उत्तरे पासे ।।85।। वणखंडं व कुसुमियं, पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणतलं सुरगणेहिं ।।86।। - -१५१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद सिंहासने निविष्टः शक्रेशानौ च द्वाभ्यां पार्थाभ्याम् । मणिरत्नविचित्रदण्डैश्चामरैर्वीजयत: ||83।। पूर्वं संहृष्टरोमकूपैर्मनुष्यैरूत्क्षिप्ता । पश्चात् सुराऽसुरा, गरुडनागेन्द्रा देवा वहन्ति ।।84|| सुराः पुरतो वहन्ति, पुनरसुरा दक्षिणे पार्थे । गरुडा अपरान् वहन्ति, नागाः पुनरुत्तरान् पार्थान् ||85।। कुसुमितं वनखण्डमिव , यथा वा शरत्काले पद्मसरः । कुसुमभरेण शोभते, इति सुरगणैर्गगनतलं ||86।। हिन्दी अनुवाद सिंहासन पर बिराजमान प्रभु को, दोनों तरफ शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र मणि और रत्नजड़ित दण्डवाले चामरों द्वारा वींझते हैं । (83) (वह शिबिका) सर्वप्रथम सानन्दरोमांचित मनुष्यों द्वारा उठायी गयी । तत्पश्चात् देव, दानव, गरुड़ेन्द्र और नागेन्द्रादि देव उठाते हैं । (84) (उस शिबिका को) देव पूर्व तरफ से तथा दानव दक्षिण तरफ से उठाते हैं | गरुड़ेन्द्र पश्चिम तरफ से और नागेन्द्र उत्तर तरफ से उठाते हैं । (85) जिस प्रकार पुष्पों से विकसित वनखण्ड शोभा देता है, अथवा जिस प्रकार शरदऋतु में पुष्पों के समूह से पद्मसरोवर शोभा देता है उसी प्रकार सम्पूर्ण आकाश देवों के समूह से देदीप्यमान बनता है । (86) प्राकृत सिद्धत्थवणं व जहा, कणियारवणं व चंपगवणं वा । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणतलं सुरगणेहिं ।।87।। वरपडह-भेरि-झल्लरि-संखसयसहस्सिएहिं तुरेहिं । गयणयले धरणियले, तूरणिणाओ परमरम्मो ।।88।। ततविततं घणझुसिरं, आउज्जं चउव्विहं बहुविहियं । वाइंति तत्थ देवा, बहूहिं आनट्टगसएहिं ।।89।। आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे । - १५२ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद यथा वा सिद्धार्थवनं, कर्णिकारवनं चम्पकवनं वा । कुसुमभरेण शोभते, इति गगनतलं सुरगणैः ।।87।। गगनतले धरणितले, वरपटह-भेरी-झल्लरी शङ्खशतसहस्त्रैः तूर्यैस्तूर्यनिनादः परमरम्यः ।।88।। तत्र देवा बहुभिरानर्तकशतैः ततविततं धनझुषिरं (शुषिरं), चतुर्विधमातोद्यं बहुविधिकं वादयन्ति । (89) ___ हिन्दी अनुवाद जिस प्रकार सरसव का वन, कनेरवृक्षों का वन या चम्पकवन पुष्पों के समूह से शोभता है उसी प्रकार सम्पूर्ण आकाश देवों के समूह से देदीप्यमान बनता है । (87) आकाशतल और पृथ्वीतल पर उत्तम पटह, भेरी, झल्लरी और शंख इत्यादि लाखों वाजिंत्रों द्वारा अतिमधुर आवाज आ रही है । (88) वहाँ देव भी सैकड़ों नृत्यकारों के साथ तत-वितत-घन-सुषिर स्वरूप वीणा आदि चारों प्रकार के वाद्ययंत्र विधिपूर्वक-तालबद्ध बजा रहे हैं । (89) (3) इंदियविसयभावणा प्राकृत् ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोत्तविसयमागया । राग-दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।।90।। णसक्का रूवमदहूं, चक्खूविसयमागतं । राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।।91।। ण सक्काणगंधमग्घाउं, णासाविसयमागतं । राग-दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । 192।। 5ण सक्कारसमणा सातुं, 'जीहाविसयमा गतं । श्राग-दोसा उजे'तत्थ, 1 ते भिक्खू परिवज्जए । 193।। 6ण'सक्का 'ण'संवेदेतुं, फासं 'विसय मागतं । 10राग-दोसा उजे तत्थ, 1ते 12भिक्खू परिवज्जए ।।94।। आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे । -१५३ १५३ - - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) (इन्द्रियविषयभावना) संस्कृत अनुवाद श्रोत्रविषयमागतान्, शब्दान् श्रोतुं न शक्नुयान् न । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।।90।। चक्षुर्विषयमागतं, रूपमद्रष्टुं न शक्नुयात् । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।191।। नासिकाविषयमागतं, गन्धमाघ्रातुं न शक्नुयान्न । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।।92।। जिह्वाविषयमागतं, रसमस्वादितुं न शक्नुयात् । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षु ः परिवर्जयेत् ||93|| विसयमागतं स्पर्श, न संवेदयितुं न शक्नुयात् । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ||94।। हिन्दी अनुवाद इन्द्रियविषयभावना में कान, चक्षु, नाक, जिह्वा और स्पर्श (त्वचा) इन पाँचों इन्द्रियों के विषय की भावना बतायी है | कान के विषय में आये हुए शब्दों को नहीं सुनना, शक्य नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् सुनाई देते ही हैं, परन्तु उनके सम्बन्धी जो राग (अनुकूल विषय में राग) और द्वेष (प्रतिकूल विषय में द्वेष) करना, उसका संयमी आत्मा त्याग करे ।(90) आँख के विषय में आये रूप को नहीं देखना, यह शक्य नहीं है (अर्थात् दिखाई देता ही है), परन्तु संयमी आत्मा को राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । . नाक के विषय में आयी हुई गन्ध को नहीं सूंघना, यह शक्य नहीं है, परन्तु संयमी आत्मा उसमें राग या द्वेष का त्याग करे । (92) जिह्वा के विषय में आये हुए रस का स्वाद नहीं लेना, शक्य नहीं है, (अर्थात् स्वाद आता है) परन्तु उसमें राग या द्वेष का संयमी आत्मा त्याग करे । (93) स्पर्शन्द्रिय के विषय में आये हुए स्पर्श का अनुभव नहीं करना, यह शक्य नहीं है अर्थात् अनुभव हो ही जाता है । परंतु उसमें राग और द्वेष का संयमी आत्मा त्याग करें । (94) -१५४ - F Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) निम्ममो भिक्खू चरे प्राकृत 'कयरे 'मग्गे 'अक्खाते, 'माहणेण 'मतीमता ? | 7 अंजु 'धम्मं 'जहातच्चं, "जिणाणं तं 12 सुणेह भे 11 ।।95।। (4) (निर्ममो भिक्षुश्चरेत्) संस्कृत अनुवाद माहनेन मतिमता, कतरे मार्गा आख्याता: ? । जिनानामृजुं धर्मं, याथातत्थं तं भो ! श्रृणु ||95|| हिन्दी अनुवाद पूज्य श्रीसुधर्मास्वामीजी श्रीजंबूस्वामी को उद्देशकर उपदेश देते हैं कि 'आरम्भ - परिग्रहादि में आसक्त लोगों का संग छोड़कर साधुओं को निर्ममत्व भाव में रहना चाहिए । 44 हन् = मारो नहीं इस प्रकार कहनेवाले केवलज्ञानी श्रीमहावीरस्वामी ने कितने मार्ग बताये हैं ? अरिहंत भगवन्तों का ऋजु सरलता रूप धर्म सत्यार्थ है, हे भविक ! तुम उसे सुनो। (95) प्राकृत 'माहणा±खत्तिया 'वेस्सा, 'चंडाला 'अदु 'बोक्सा | 7 एसिया 'वेसिया 'सुद्दा, 10जे य 11 आरंभणिस्सिया | 196 || 12परिग्गहनिविट्ठाणं, 14वेरं 13तेसिं "पवड्ढई । 17 आरंभसंभिया "कामा, 20न 16 ते 19 दुक्खविमोयगा ||97 || 1 आधायकिच्च 'माहेउं, 'नाइओ 'विसएसिणो । 'अन्ने 'हरति 'तं वित्तं, 'कम्मी "कम्मेहिं 11 किच्चति ।। 98 ।। 'माया 'पिया 'हुसा भाया, 'भज्जा 'पुत्ता य 'ओरसा । 13नालं 'ते "तव 12 ताणाय, "लुप्पंतस्स 'सकम्मुणा ।। 99 ।। एयमट्टं सपेहाए, परमट्ठाणुगामियं । निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ।।100।। १५५ सूत्रकृताङ्ग-द्वितीयश्रुतस्कन्धे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत अनुवाद ब्राह्मणाः क्षत्रिया : वेश्या:, चाण्डाला अथवा वर्णसङ्कराः । एषिका वैशिकाः क्षुद्राः, ये चाऽऽरम्भनिश्रिताः ।।96।। परिग्रहनिविष्टानां, तेषां वैरं प्रवर्धते । ते आरम्भसम्भृताः कामाः, दुःखविमोचका न ||97।। आधातकृत्यमाधाय, विषयैषिणोऽन्ये ज्ञातयः । तद् वित्तं हरन्ति, कर्मवान् कर्मभिः कृत्यते ||98।। माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या औरसाश्च पुत्राः । ते स्वकर्मणा लम्पतस्तव त्राणायाऽलं न ||99।। परमार्थानुगामिकमेतदर्थं सम्प्रेक्ष्य । निर्ममो निरहङ्कारो, भिक्षुर्जिनाऽऽहितं (जिनाख्यातं) चरेत् ।।100।। हिन्दी अनुवाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल अथवा वर्णसंकर जातिविशेष, शिकारी आदिजीवहिंसक, वणिक्, क्षुद्र और जो आरंभ में आसक्त हैं; परिग्रह में तल्लीन हैं, उन लोगों की वैरभावना बढ़ती है, अतः पापारम्भ से पुष्ट इच्छाएँ दुःख में से मुक्त करानेवाली नहीं होती हैं । (96, 97) अग्निसंस्कार, जलांजलिदान-पितृपिंड इत्यादि मृत्युक्रिया करके विषयसुख के अभिलाषी अन्य स्वजन उसका धन ले लेते हैं, इस प्रकार पापारम्भवाला जीव अपने कर्मों से ही दुःखी बनता है। माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और अपने सगे पुत्र, अपने ही कर्मों से दुःखी बनते हैं, तुझे बचाने के लिए ये सब समर्थ नहीं होते हैं । (99) सम्यग्दर्शनादि मोक्ष और संयम में साथ में रहनेवाले हैं इस प्रकार विचार करके ममता और अहंकाररहित साधुको जिनेश्वर भ के बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए । (100) १५६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) पुक्खरिणीवण्णं प्राकृत से जहाणामए पुक्खरिणी सिया, बहुउदगा बहुसेया बहुपुक्खला लद्धट्ठा पुंडरीकिणी पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुझ्या, आणुपुव्वुट्ठिया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता फासमंता पासादिया दरिसणीया अभिरुवा पडिरुवा, (5) पुष्करिणीवर्णनम् संस्कृत अनुवाद तद् यथानामका पुष्करिणी स्यात्, बहूदका, बहुसेया, बहुपुष्कला, लब्धार्था पुण्डरीकिणी, प्रासादिका, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा, तस्या नु पुष्करिण्यास्तत्र तत्र देशे देशे तस्मिंस्तस्मिन् बहूनि पद्मवरपौण्डरीकाण्युक्तानि, हिन्दी अनुवाद पुष्करिणी के वर्णन में बहुत कमलों से विभूषित जलाशय का वर्णन : दूसरे अंग श्रीसूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के प्रथम पुंडरीक नामक अध्ययन के प्रथम सूत्र में बताते हैं कि जैसे कोई बहुत कमलोंवाला यथार्थ सरोवर हो कि जो प्रचुर जलवाला, प्रचुर कीचड़वाला, प्रभूत कमलोंवाला, उससे ही 'पुष्करिणी' इस प्रकार सार्थक नामवाला, प्रचुर श्वेत कमलोंवाला, निर्मल जलवाला अथवा देवमन्दिर जिसके नजदीक है वैसा, देखने योग्य, राजहंस आदि पक्षियों से शोभित, स्वच्छ पानी के कारण जहाँ प्रतिबिम्ब गिरता है वैसा, उसके प्रत्येक प्रदेश में प्रत्येक स्थान में उत्तम श्वेत कमल (पुंडरीक) शोभते हैं, वे सब विशिष्ट रचनापूर्वक कीचड़ और पानी का त्याग करके ऊपर रहे हुए हैं । प्राकृत तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे प्राकृत महं पउमवरपोंडरीए बुइए, अणुपुव्वुट्ठिए उस्सिए रुइले वन्नमंते गंधमंते रसमंते पासादीए जाव पडिरूवे । सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया अणुपुव्वुट्ठिया ऊसिया रुइला जाव पडिरूवा, सव्वावंति च णं तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगं महं पउमवरपोंडरीए बुइए अणुपुव्वुट्ठिए १५७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव पडिरूवे । सूत्रकृताङ्ग-द्वितीयश्रुतस्कन्धे, प्रथमाध्ययने-सूत्र-(1) संस्कृत अनुवाद आनुपूर्वृत्थितानि, उच्छितानि, रुचिलानि, वर्णवन्ति, गन्धवन्ति, स्पर्शवन्ति, प्रासादितानि, दर्शनीयानि, अभिरूपाणि, प्रतिरूपाणि तस्या नु पुष्करिण्या बहुमध्यदेशभागे एक महत् पद्मवरपौण्डरीकमुक्तम् . आनुपूर्युत्थितमुच्छितं, रुचिलं , वर्णवद्, गन्धवद्, रसवत्, प्रासादितं यावत् प्रतिरूपम् । सर्वस्याश्च नु तस्याः पुष्करिण्यास्तत्र तत्र देशे देशे तस्मिंस्तस्मिन् बहूनि पद्मवरपौण्डरीकान्युक्तानि, आनुपूर्वृत्थितान्युच्छितानि, रुचिलानि यावत् प्रतिरूपाणि, सर्वस्याश्च तस्याः पुष्करिण्या बहुमध्यदेशभागे एकं महत् पद्मवरपौण्डरीकमुक्तम्, आनुपूर्युत्थितं यावत् प्रतिरूपम् ।। . हिन्दी अनुवाद उत्तम कान्तिवाले, उत्तम रंग के, श्रेष्ठ गन्धवाले, शुभ स्पर्शवाले, प्रसन्नतादायक, देखने योग्य, सुन्दर, अतिशय रूपवान है, उस जलाशय के प्रायः मध्यभाग में एक बड़ा श्रेष्ठ श्वेत कमल है, जो रमणीय, रचनायुक्त, जल और कीचड़ से ऊपर रहा हुआ उत्तम वर्ण, उत्तम गन्ध, उत्तम रस, प्रसन्नतादायक यावत् अतिशय रूपवान है। - उस सम्पूर्ण जलाशय के उन-उन स्थानों में उत्तम श्वेत कमल प्रचुर मात्रा में हैं, जो विशेष रचनायुक्त, जल और कीचड़ से ऊपर रहे हुए, देदीप्यमान यावत् अतिशय रूपवान हैं; और उस पूरे जलाशय के मध्यभागमें एक विशाल सुन्दर कमल है, जो विशिष्ट रचनायुक्त यावत् मनोहर रूपवान है । -१५८ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) नमिपव्वज्जा प्राकृत 'चइऊण 'देवलोगाओ, 'उववन्नो 'माणुसम्मि 'लोगम्मि । 'उवसंतमोहणिज्जो, 'सरई 'पोराणियं जाई ।। 101 ।। 1 जाई 'सरितु भयवं, 'सयंबुद्धो 'अणुत्तरे 'धम्मे । 'पुत्तं 'ठवेत्तु 'रज्जे, 12 अभिनिक्खमइ "नमी "राया ।।102 ।। ±से 'देवलोगसरिसे, अन्तेउरवरगओ 'वरे 7 भोए । भुंजित्तु 'नमी 'राया, 'बुद्धो " भोगे " परिच्चयइ ।।103 ।। 2मिहिलं 'सपुरजणवयं, 'बल' मोरोहं च 'परियणं 'सव्वं । 'चिच्चा 'अभिनिक्खन्तो, " एगन्तमहिट्ठिओ 'भयवं ।।104 ।। ( 6 ) नमिप्रव्रज्या संस्कृत अनुवाद देवलोकाच्च्युत्वा, मानुषे लोके उपपन्नः । उपशान्तमोहनीयः, पौराणिकीं जातिं स्मरति ||101|| जातिं स्मृत्वा भगवान्, अनुत्तरे धर्मे स्वयंबुद्धः । राज्ये पुत्रं स्थापयित्वा, नमिराजाऽभिनिष्क्रामति ।।1021 अन्तःपुरवरगतः स नमिराजा, देवलोकसदृशान् वरान् भोगान् । भुक्त्वा बुद्धो, भोगान् परित्यजति ।।103।। सपुरजनपदां मिथिलां, बलमवरोधं सर्वं च परिजनम् । त्यक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तो, भगवान् एकान्तमधिष्ठितः ।।104 ।। (6) हिन्दी अनुवाद नमिप्रव्रज्या में स्वयंसंबुद्ध बने नमिराजर्षि के साथ शक्रेन्द्र का संवाद :देवलोक में से च्यवकर मनुष्यलोक में उत्पन्न हुए और मोहनीय कर्म जिनका उपशान्त हुआ है, वैसे नमिराजर्षि अपने पूर्वभव के जन्म का स्मरण करते हैं । (101) १५९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव के जन्म का स्मरण करके, लोकोत्तर संयमधर्म के विषय में खुद (स्वयं) ही संबुद्ध बने हुए, राज्य पर पुत्र को स्थापित करके नमिराजर्षि निकलते हैं । (102) __ श्रेष्ठ अन्तःपुर में रहे हुए वे नमिराजा स्वर्गलोक जैसे उत्तम भोगसुखों को भोगकर (स्वयं) बोध पाये हुए भोगसुखों का त्याग करते हैं । (103) पुर और जनपदसहित मिथिला नगरी, सैन्य, अन्तःपुर और सभी परिजन का त्याग करके वे पूज्य (नमिराजर्षि) एकान्त = 'द्रव्य से निर्जन उद्यानादिस्थान में, भाव से = मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ' - इस प्रकार रहे हुए हैं । (104) प्राकृत 'कोलाहलगभूयं, आसी मिहिलाए पव्वयन्तम्मि । तिइया 'रायरिसिम्मि, नमिम्मि अभिणिक्खमन्तम्मि ।।105।। अब्भुट्ठियं रायरिसिं, पव्वज्जाठाण'मुत्तमं । सक्को माहणरूवेण, 'इमं वयणमब्ववी ।।106।। किण्णु 'भो अज्ज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला। "सुव्वन्ति 'दारुणा सद्दा, 'पासाएसुगिहेसु य ।।107 ।। 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ। 'तओनमी रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।108।। संस्कृत अनुवाद राजर्षों नमौ मिथिलायां प्रव्रजति (सति), अभिनिष्क्रामति । तदा कोलाहलकभूतमासीत् ||10511 उत्तमप्रव्रज्यास्थानमभ्युत्थितं राजर्षिम् । शक्रो ब्राह्मणरूपेण, इदं वचनमब्रवीत् ||106|| भो आर्य ! मिथिलायां प्रासादेषु गृहेषु च । कोलाहलकसङ्घला दारुणाः शब्दाः किं नु श्रूयन्ते ? ||107।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः ।। नमी राजर्षिस्ततो, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ||108।। हिन्दी अनुवाद जब नमिराजर्षि मिथिला नगरी में संयम लेते थे और निकल रहे थे तब वातावरण कोलाहलमय हो गया । (105) - १६० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम संयमस्थान को प्राप्त नमिराजर्षि को, ब्राह्मण के वेष में इन्द्र महाराजा इस प्रकार के वचन कहते हैं । (106) हे आर्य ! मिथिला नगरी में महल और घरों में कोलाहल से व्याप्त भयंकर शब्द क्या सुनाई नहीं देते हैं ? (107) इस प्रकार के शब्दों को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमिराजर्षि ने उसके बाद शक्रेन्द्र को इस प्रकार कहा । (108) प्राकृत मिहिलाए'चेइए "वच्छे, सीयच्छाए "मणोरमे । पत्तपुप्फफलोवेए, 'बहूणं बहुगुणे "सया ।।109।। 13वाएणहीरमाणम्मि, 1 चेइयम्मिमणोरमे। 15दुहिया 16असरणा "अत्ता, 18एए 2 कन्दन्ति 'भो खगा ।।110।। 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ। तिओ'नमि रायरिसिं, देविन्दो 'इणमब्बवी ।।111 ।। 2एस अग्गी य 'वाऊ'य, एयं 'डज्झइ'मन्दिरं । भयवं 10अन्तेउरं तेणं, "कीसणं'नावपेक्खह ।। 112।। . संस्कृत अनुवाद भो ! मिथिलायां शीतच्छाये, मनोरमे, पत्रपुष्पफलोपेते, सदा बहूनां बहाणे, चैत्ये वृक्षे; मनोरमे चैत्ये वातेन ह्रियमाणे । दुःखिता अशरणा आर्ता एते खगाः क्रन्दन्ति ||109, 1101 एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितो देवेन्द्रो; नमिं राजर्षि तत इदमब्रवीत् ||111|| भगवन् !, एषोऽग्निश्च वायुश्च , एतन् मन्दिरं दह्यते, तेन अन्तःपुरं कस्मान् नावप्रेक्षसे ? ||112|| हिन्दी अनुवाद हे भाग्यवन्त ! मिथिला नगरी में शीतल छायावाला, मनोहर, पत्ते, पुष्प और फल से युक्त, अनेक लोगों को अत्यधिक गुणकारी रमणीय चैत्यवृक्ष पवन से हिलने पर, दुःखी, शरणरहित और पीडित ये पक्षी आक्रन्द कर रहे हैं । (109, 110) -१६१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र महाराजा ने नमिराजर्षि को उसके बाद यह कहा । (111) हे भगवन् ! यह आग और पवन इस महल को जला रहे हैं, तो आप जलते हुए अन्तःपुर का ध्यान क्यों नहीं रखते हो ? (112) प्राकृत 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । 'तओ निमि रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।113।। सुहं विसामो 'जीवामो, 'जेसिंमो नत्थि किंचणं । मिहिलाएडज्झमाणीए, 12न 10मे 13डज्झइकिंचणं ।।114।। 'चत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो। पियं न 'विज्जइ 'किंचि, अप्पियं पिन "विज्जई ।।115।। बहुं खु'मुणिणो भदं, 'अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणु पस्सओ ।। 116।। 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । तिओ'नमि रायरिसिं, 'देविन्दो 'इणमब्बवी ।।117।। संस्कृत अनुवाद एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः । नमी राजर्षिस्ततो देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ।।113।। __ येषां नः किञ्चन नाऽस्ति, सुखं वसामो जीवामः । __ मिथिलायां दह्यमानायां, मे किञ्चन न दह्यते ||114।। त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, निर्व्यापारस्य भिक्षोः । किञ्चित् प्रियं न विद्यते, अप्रियमपि न विद्यते ||115|| अनगारस्य भिक्षोः, सर्वतो विप्रमुक्तस्य । एकान्तमनुपश्यतो, मुनेर्बहु खलु भद्रम् ||116।। एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितो देवेन्द्रः । ततो नमि राजििमदमब्रवीत् ||117|| हिन्दी अनुवाद यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमिराजर्षि ने उसके बाद इन्द्र महाराजा को इस प्रकार कहा । (113) -१६२ - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा कुछ भी नहीं है, अतः हम सुखपूर्वक रहते हैं और जीते हैं, इसलिए मिथिला नगरी जलते हुए भी मेरा कुछ भी जलता नहीं है । (114) जिन्होंने पुत्रों और स्त्रियों का त्याग किया है तथा व्यापाररहित हैं ऐसे साधु म. को कुछ भी प्रिय नहीं है और कुछ भी अप्रिय नहीं है । (115) घररहित, भिक्षा द्वारा जीवननिर्वाह करनेवाले, सर्वतः संसार से मुक्त, 'मैं अकेला हूँ', इस प्रकार एकान्त को देखनेवाले संयमी का सचमुच अत्यधिक कल्याण होता है । (116) यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र में उसके बाद नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा । (117) प्राकृत हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं, 'कसंदूसंच 'वाहणं । कोसं वड्ढावइत्ताणं, "तओ"गच्छसि 'खत्तिया ! ।।118।। 'एय मटुंनिसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । 'तओनमी रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।119।। 'सुवण्ण-रुप्पस्स उपव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स'लुद्धस्स 1°न 'तेहिं "किंचि, 12इच्छा हु 13आगाससमा 14अणन्तया ।।120।। . 'पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं 'पसुभिस्सह । - 'पडिपुण्णं नालमेगस्स, 10इइ "विज्जा तवं 13चरे ।।121 ।। संस्कृत अनुवाद क्षत्रिय ! हिरण्यं सुवर्णं मणिमुक्तं कांस्यं दूष्यं वाहनम् । . कोशं च वर्धयित्वा ततो गच्छसि ||118।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः । नमी राजर्षिस्ततो देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ||119।। सुवर्णस्य रूप्यस्य तु पर्वता भवेयुः, खलु कैलाससमा असङ्ख्यकाः स्युः । लुब्धस्य नरस्य तैर्न किञ्चिद्, इच्छा खु आकाशसमा अनन्तकाः ||12011 पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, पशुभिः सह हिरण्यम् । प्रतिपूर्णमेकस्मै नाऽलमिति विदित्वा तपश्चरेत् ||121|| -१६३ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद हे क्षत्रिय ! हिरण्य (= सोने से बने आभूषण, चांदी), सुवर्ण = मात्र सोना, इन्द्रनील इत्यादि मणि, मोती, कांसा, विविध वस्त्र, वाहन तथा भण्डार की वृद्धि करके जाओ । (118) यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने उसके बाद देवेन्द्र ( शक्रेन्द्र ) को इस प्रकार कहा । ( 119 ) सोने और चाँदी के पर्वत हों और शायद वे कैलास = हिमालय जैसे असंख्य हों, तो भी लोभी मनुष्य को उससे अल्प भी सन्तोष नहीं होता है, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त: अपार हैं । (120) खेत, चावल, जौ और पशुओं के साथ सुवर्ण प्रचुर मात्रा में हो तो भी एक व्यक्ति के लिए पूरा ( सन्तोषकारक ) नहीं है, इस प्रकार जानकर तप का आचरण करना चाहिए । (121) प्राकृत 'एय' मट्ठे निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । "तओ 'नमि 'रायरिसिं, 'देविन्दो 'इणम "ब्बवी ।।122 ।। 2 अच्छे 'मब्दए, 4 भोए 'चयसि 'पत्थिवा ! | 'असन्ते 'कामे 'पत्थेसि, 'संकप्पेण "विहम्मसि ।।123 ।। 1 एय मट्ठे निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । 'तओ 'नमी 'रायरिसी, 'देविन्दं 'इणम "ब्बवी ।।124 ।। 'सल्लं 'कामा 'विसं 'कामा, "कामा 'आसीविसोवमा । कामे 'पत्थेमाणा, अकामा "जन्ति "दोग्गइं ।।125 ।। संस्कृत अनुवाद एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । देवेन्द्रस्ततो नमिं राजर्षिमिदमब्रवीत् ||122। पार्थिव ! आश्चर्यकम्, अद्भुतान् भोगांस्त्यजसि । असतः कामान् प्रार्थयसे सङ्कल्पेन विहन्यसे ||123|| एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः । नमी राजर्षिस्ततो, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ||124।। " कामाः शल्यं कामा विषं, कामा आशीविषोपमाः । कामान् प्रार्थ्यमानाः, अकामा दुर्गतिं यान्ति ||125 || १६४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद इस बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र ने उसके बाद नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा । (122) हे राजन् ! आश्चर्य है कि तुम प्राप्त हुए अन्दुत भोगों का त्याग करते हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा करते हो, इस प्रकार तुम संकल्प से ही नष्ट होते हो । (123) यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने उसके बाद शक्रेन्द्र को इस प्रकार कहा । (124) कामनाएँ शल्य जैसी हैं, इच्छाएँ जहर समान हैं, अभिलाषाएँ आशीविष सर्प के समान हैं, अतः भोगों की इच्छा करते-करते, वे इच्छाएँ पूरी नहीं होने पर प्राणी दुर्गति में जाते हैं । (125) प्राकृत अहे वयंति 'कोहेणं, 'माणेण अहमा गई । 'माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ "दुहओभयं ।। 126।। अवउज्झिऊण 'माहण-रूवं, विउव्विऊण इन्दत्तं । वंदइ अभित्थुणतो, "इमाहि महुराहिं' वग्गुहिं ।। 127।। अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो 'पराजिओ । अहो "निरक्किया माया, "अहो 12लोभो वसीकओ ।। 128।। 1अहो ते अज्जवं 'साह, अहो ते साह 'मद्दवं । अहो 10ते 12उत्तमाखंती, 13अहो "15 मुत्ति 1 उत्तमा ।।129।। संस्कृत अनुवाद क्रोधेनाऽधो व्रजन्ति, मानेनाऽधमा-गतिः । मायया गतिप्रतिघातो, लोभाद् द्विधातो भयम् ||126।। ब्राह्मणरूपमपोह्य, इन्द्रत्वं विकृत्य । अभिर्मधुराभिर्वाग्भिरभिष्टुवन् वन्दते ||127।। अहो त्वया क्रोधो निर्जितः, अहो मानः पराजितः । अहो माया निराकृता, अहो लोभो वशीकृतः ।।128।। अहो ते आर्जवं साधु, अहो ते मार्दवं साधु । अहो तव शान्तिस्तमा, अहो ते मुक्तिस्तमा ||129।। -१६५ - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद प्राणी क्रोध से अधोगति में जाते हैं, अभिमान से भी अधमगति = दुर्गति होती है, माया से सद्गति रुकती है तथा लोभ से इहलोक और परलोक दोनों में भय रहता है । (126) (उसके बाद) ब्राह्मण के रूप का त्यागकर, इन्द्र का रूप प्रगट करके ऐसी मधुर वाणी द्वारा स्तुति करते हुए (इन्द्रमहाराजा नमिराजर्षि को) वन्दन करते हैं । (127) "अहो ! आपने क्रोध को जीत लिया है, अहो ! आपने मान को पराजित किया है, अहो ! आपने माया को दूर किया है और अहो ! आपने लोभ को स्वाधीन (अपने आधीन) किया है । (128) अहो ! आपकी ऋजुता = सरलता उत्तम है, आपकी मुदता श्रेष्ठ है, अहो ! आपकी क्षमा उत्तम है और आपकी मुक्ति (निर्लेपता) भी सुन्दर है । (129) प्राकृत इहं 'सि उत्तमो 'भंते, पच्छा'होहिसि उत्तमो। 'लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, "सिद्धि 12गच्छसि नीरओ ।।130।। 'एवं अभित्थुणंतो, रायरिसिं उत्तमाए 'सद्धाए । ___पयाहिणं'करेंतो, पुणो पुणो 10वंदइसक्को ।।131 ।। तो वंदिऊण 'पाए, 'चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स। 'आगासेणुप्पइओ, 'ललियचवलकुंडलतिरीडी ।।132।। *नमी नमेइ अप्पाणं, 'सक्खं 'सक्केण चोइओ । चइऊण 'गेहं च वेदेही, "सामण्णे "पज्जुवट्ठिओ ।।133।। संस्कृत अनुवाद भगवन ! इहोत्तमोऽसि, पश्चादत्तमो भविष्यसि । नीरजा लोकोत्तमोत्तमं, स्थानं सिद्धिं गच्छसि ||130।। एवं राजर्षिमुत्तमया श्रद्धयाऽभिष्टुवन् । प्रदक्षिणां कुर्वन्, शक्रः पुनः पुनर्वन्दते ||131।। ततो मुनिवरस्य चक्राङ्कुशलक्षणौ पादौ वन्दित्वा । ललितचपलकुण्डलकिरीटी आकाशेनोत्पतितः ||132।। साक्षाच्छक्रेण नोदितो नमिरात्मानं नमयति । गृहं च त्यक्त्वा वैदेही , श्रामण्ये पर्युपस्थितः ||133।। -१६६ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद हे भगवन् ! आप इस भव में उत्तम हो, उसके बाद परभव में भी उत्तम बनोगे, उससे कर्मरजरहित बनकर चौदह राजलोक में उत्तमोत्तम स्थानरूप सिद्धिपद को प्राप्त करोगे । (130) इस प्रकार नमिराजर्षिकी अनुपम श्रद्धापूर्वक स्तुति करते और प्रदक्षिणा देते हुए शक्रेन्द्र बारबार उनको वन्दन करते हैं । (131) उसके बाद मुनिपुंगव नमिराजर्षि के चक्र और अंकुश के चिह्नवाले चरणों को नमस्कार करके, मनोहर और चंचल कुण्डल तथा मुकुट को धारण करनेवाले इन्द्र महाराजा आकाश मार्ग से चले गये । (132) - इस प्रकार साक्षात् शक्रेन्द्र (इन्द्र महाराजा) द्वारा स्तुति किये गए नमिरुजर्षि आत्मा को भावित करते हैं और घर का त्याग करके विदेह देश के राजवी (राजा) चारित्र के विषय में उद्यमवान बनते हैं । (133) -१६७ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) वयछक्कं प्राकृत'तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण 'देसिअं । अहिंसा 'निउणा दिट्ठा, 10सव्वभूएसु"संजमो ।।134।। जावंति 'लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । 'ते जाणम जाणं वा, 1"न"हणेणोवि12 13घायए ।।135।। 'सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउंन मरिज्जिउं । 'तम्हा "पाणिवहं घोरं, "निग्गंथा 12वज्जयंतिणं ।।136।। अप्पणट्टापट्टा वा, कोहावा 'जइ वा भया । __ हिंसगं न 'मुसंबूआ, 1"नो वि "अन्नं वयावए ।।137।। (7) व्रतषट्कम् संस्कृत अनुवाद तत्र महावीरेणेदं प्रथमं स्थानं देशितम् | अहिंसा निपुणा दृष्टा, सर्वभूतेषु संयम ||134।। लोके यावन्त: प्राणिनः, तसा अथवा स्थावराः । तान् जानन्नजानन् वा, न हन्यान्नोऽपि घातयेत् ||135।। सर्वे जीवा अपि जीवितुमिच्छन्ति न मर्तुम् । तस्माद् घोरं तं प्राणिवधं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति ||136।। आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् । हिंसकं मृषां न ब्रूयाद्, नाऽप्यन्यं वादयेत् ||137।। (7) हिन्दी अनुवाद व्रतषट्क में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह ये पाँच और छठे रात्रिभोजन के त्याग के उपदेश पूर्वक छह व्रतों का वर्णन है। वहाँ (छह व्रतों में) श्रीवीर प्रभु ने यह प्रथम स्थान व्रत बताया है, उन्होंने) अनुपम अहिंसा देखी है और वह सभी प्राणियों के विषय में संयम' है । (134) ___ जगत् में जितने भी त्रस (स्वेच्छानुसार घूमने-फिरनेवाले) अथवा स्थावर (स्थिर = स्वेच्छानुसार घूम-फिर न सके) प्राणी हैं, उनकों जानबूझकर या अनजान में मारना नहीं और दूसरों के द्वारा भी नहीं मरवाना चाहिए । (135) १६८ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी जीव जीने की इच्छा रखते हैं परन्तु मरने की नहीं, अतः भयंकर उस जीवहिंसा का साधु भगवंत त्याग करते हैं । (136) स्वयं अथवा अन्य के लिए, क्रोध अथवा भय से दूसरों को दुःख पहुँचे वैसा असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए और दूसरों के पास नहीं बुलाना चाहिए । (137) प्राकृत मुसावाओ य 'लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरिहिओ । 6अविस्सासो य भूआणं, 'तम्हा मोसं विवज्जए ।।138।। 'चित्तमंत मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, 'उग्गंहसि अजाइया ।।139।। 'तं "अप्पणा 12 13गिण्हंति, 14नो विगिण्हावए 15परं । 18अन्नं वा गिण्हमाणं वा, नाणु जाणंति "संजया ।।140।। अबंभचरियं घोरं, 'पमायं दुरहिट्ठियं । नाय रंति मुणी 'लोए, भेयाययणवज्जिणो ।। 141 ।। . संस्कृत अनुवाद लोके सर्वसाधुभिर्मूषावादश्च गर्हितः । भूतानामविश्वास्यश्च , तस्मान् मृषां विवर्जयेत् ।।138।। चित्तवदचित्तं वा, अल्पं वा यदि बहु । दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहेऽयाचित्वा ||139।। तत् संयता आत्मना न गृह्णन्ति, नाऽपि परं ग्राहयन्ति । गृह्णन्तमपि वाऽन्यं नाऽनुजानन्ति ||140।। लोके भेदाऽऽयतनवर्जिनो मुनयो, घोरं, प्रमाद, दुरधिष्ठितम्, अब्रह्मचर्यं नाऽऽचरन्ति ||141|| हिन्दी अनुवाद जगत् में सभी सज्जनों द्वारा मृषावाद = असत्यवचन की गर्हा की गई है और मृषावादी अविश्वासपात्र बनता है अतः मृषावाद का त्याग करना चाहिए । (138) सचित्त = जीवसहित (फल-फूलादि) या अचित्त = जीवरहित (सोनाचांदी आदि) थोड़ा अथवा ज्यादा, (दाँत साफ करने की सली) दन्तशोधनी जितना -१६९ - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी, जिनकी वसति में रहे हो उस मालिक की अनुमति बिना साधु म. स्वयं लेते नहीं हैं, दूसरों के द्वारा ग्रहण करवाते नहीं हैं और ग्रहण करनेवाले की अनुमोदना भी नहीं करते हैं । (139, 140) ----- लोक में संयमघातक स्थान का त्याग करनेवाले मुनि भयंकर, (दुःखदायी) प्रमाद के स्थानरूप, अनन्तसंसार के कारणरूप, दुष्टाश्रयरूप (दुराचार) अब्रह्म का सेवन नहीं करते हैं । (141) प्राकृत मूलमेयमहम्मस्स, 'महादोससमुस्सयं । 'तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा 'वज्जयंति 'णं ।।142।। अबिड'मुब्भेइयं लोणं, तिल्लं'सप्पिं च फाणिअं । 1°न 'ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ।।143।। लोहस्से'स अणुफासे, 'मन्ने 'अन्नयरामवि । 6जे 'सिया सन्निहिं 'कामे, "गिही 13पव्वइए 12 10से ।।144।। ___ जंपि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्टा, धारंति परिहरंति अ ।।145।। संस्कृत अनुवाद एतदधर्मस्य मूलं , महादोषसमुच्छ्यम् । तस्मान्निर्ग्रन्थास्तं, मैथुनसंसर्गं वर्जयन्ति ।।142।। ते ज्ञातपुत्रवचोरताः, बिडमुद्भेद्यं लवणं । तैलं सर्पिः फाणितं च, सन्निधिं नेच्छन्ति ।।143।। एष लोभस्याऽनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि । यः स्यात् सन्निधिं कामयेत्, स गृही, न प्रव्रजितः ।।144।। यदपि वस्त्रं च पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । __ तदपि संयमलज्जार्थं , धारयन्ति परिहरन्ति च ||1451 हिन्दी अनुवाद यह अब्रह्मचर्य अधर्म (पाप) का मूल है, महादोषों का स्थान है, अतः साधु भगवंत इस मैथुन के सम्बन्ध का त्याग करते हैं । (142) ज्ञातपुत्र श्रीवीरप्रभु के वचनों में तत्पर साधु प्रासुक = गोमूत्र; अग्नि आदि से शुष्क किया हुआ नमक अथवा अप्रासुक = समुद्र आदि का नमक, तेल, घी, नरम गुड़ इत्यादि (सन्निधि) अपने पास नहीं रखते हैं । (143) -१७० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सब (सन्निधि) लोभ का ही कुछ अंश (स्वरूप) है, श्री तीर्थंकर और गणधर भगवंत कहते हैं कि जो (उपर्युक्त) अल्प वस्तुओं को अपने पास रखने की इच्छा करते हैं वे गृहस्थ हैं साधु नहीं । (144) जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण इत्यादि रखते हैं वे भी संयम और लज्जा के कारण धारण किये हैं और उनका उपभोग करते हैं । (145) प्राकृत 'न 'सो 'परिग्गहो 'वुत्तो, नायपुत्तेण 'ताइणा । 7 मुच्छापरिग्गहो 'वृत्तो, 'इइ "वुत्तं "महेसिणा । ।146 ।। 7 संति 1 मे 2 सुहमा 'पाणा, तसा 'अदुव 'थावरा । 'जाई 'राओ 10 अपासंतो, 11 कहमे 12 सणिअं चरे ।। 147 ।। 'एअं च 'दोसं 'दट्ठूणं, नायपुत्तेण ‘भासियं । 7 सव्वाहारं 'न 10 भुंजंति, 'निग्गंथा 'राइभोयणं ।। 148 ।। दशवैकालिकसूत्रे अध्ययन 6 संस्कृत अनुवाद त्रायणा ज्ञातपुत्रेण स परिग्रहो नोक्तः । मूर्च्छापरिग्रह उक्तः, इति महर्षिणोक्तम् ||146।। इमे सूक्ष्माः सा अथवा स्थावराः प्राणिनः सन्ति । यान् रात्रावपश्यन्, एषणीयं कथं चरेत् ? ।।147।। एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । निर्ग्रन्थाः सर्वाऽऽहारं रात्रिभोजनं न भुञ्जते ||148 || हिन्दी अनुवाद रक्षण करनेवाले = तारकं ज्ञातपुत्र श्रीवीर प्रभु ने उसे (संयमोपकरण को) परिग्रह नहीं बताया है, परन्तु मूर्च्छा = ममता को ही परिग्रह बताया है, इस प्रकार महापुरुषों ने (गणधर भ. ने सूत्र में ) कहा है । (146) ये सब सूक्ष्म (= आँखों से न दिखनेवाले), त्रस अथवा स्थावर जीव रहे हुए हैं, जिनको (जीवों को ) रात्रि में नहीं देखने से एषणीय (निर्दोष आहार हेतु ) गवेषणा (शोध) किस प्रकार करें ? । (147) दोष को देखकर ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर प्रभु ने कहा है कि निर्ग्रन्थ मुनि अशन-पान - खादिम - स्वादिम सभी प्रकार के आहार स्वरूप रात्रिभोजन को नहीं करते हैं । (148) १७१ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) रावणस्स पच्छायावो प्राकृत 'दट्ठण जणयतणया, सेन्नं 'लङ्काहिवस्सअइबहुयं । 'चिन्तेइ 'वुण्णहियया, 1°न य "जिणइ इमं सुरिन्दो वि ।।149।। सा एव उस्सयमणा, सीयालङ्काहिवेण 'तो भणिया । पावेण "मए 'सुन्दरि !, 12हरिया "छम्मेण"विलवन्ती ।।150।। गहियं वयं 'किसोयरि ! 2अणंतविरियस्स पायमूलम्मि । अपसन्ना' परमहिला, "न"भुञ्जियव्वा मए निययं ।।151 ।। (8) रावणस्य पश्चात्तापः संस्कृत अनुवाद लङ्काधिपस्याऽतिबहुकं, सैन्यं दृष्ट्वा त्रस्तहृदया । जनकतनया चिन्तयति, इमं सुरेन्द्रोऽपि न च जयति ||149।। ततः सैवोत्सुकमनाः सीता, लङ्काधिपेन भणिता । हे सुन्दरि ! पापेन मया छद्मना विलपन्ती हृता ||15011 हे कृशोदरि ! अनन्तवीर्यस्य पादमूले व्रतं गृहीतम् । अप्रसन्ना परमहिला मया नियतं न भोक्तव्या ||151।। (8) हिन्दी अनुवाद लंकानरेश रावण के बड़े सैन्य को देखकर घबराये हुए हृदयवाली जनकराजा की पुत्री सीता विचार करती है, इसको (रावण को) तो इन्द्र महाराजा भी नहीं जीत सकते हैं । (149) उसके बाद उत्सुक मनवाली सीता को लंका के राजा रावण ने कहा, कि हे सुन्दरि ! पापी ऐसे मैंने विलाप करती हुई तेरा हरण करवाया । (150) हे कृशोदरि ! श्री अनन्तवीर्य केवली भगवंत के चरणों में मैंने व्रत लिया है कि अपनी प्रसन्नता बिना = अप्रसन्न परस्त्री के साथ मैं कभी भी भोग नहीं करूंगा । (151) PRIO १७२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'सुमरंतेण वयं तं, नमए 'रमिया "तुमं 'विसालच्छी ! । 14रमिहामि "पुणो सुन्दरि ।, "संपइ 12आलम्बणं छेत्तुं ।।152।। _ 'पुष्फविमाणारूढा, 'पेच्छसुसयलं सकाणणं 'पुहइं । __10भुञ्जसु उत्तमसोक्खं, 'मज्झ पसाएण ससिवयणे ! ।।153।। सुणिऊण 'इमं सीया, गग्गरकण्ठेण भणइ "दहवयणं । 13निसुणेहि "मज्झ वयणं, 'जइ मे 'नेहं "समुव्वहसि ।।154।। घणकोववसगएण वि, 'पउमो भामण्डलोय संगामे । एए न घाइयव्वा, 'लङ्काहिव ! 'अहिमुहावडिया ।।155।। संस्कृत अनुवाद . हे विशालाक्षि !, तद व्रतं स्मरता मया त्वं न रता । हे सुन्दरि ! पुनः सम्प्रत्यालम्बनं छेत्तुं रमिष्यामि ||152|| पुष्पविमानाऽऽरूढा सकाननां सकलां पृथिवीं पश्य ।। हे शशिवदने ! मम प्रसादेनोत्तमसौख्यं भुग्धि ||153।। इदं श्रुत्वा सीता गद्गदकण्ठेन दशवदनं भणति । यदि मयि स्नेहं समुद्वहसि , मम वचनं निश्रृणु ।।154।। लङ्काधिप ! घनकोपवशगतेनाऽपि सङ्ग्रामे पद्मो । भामण्डलश्चैतावभिमुखाऽऽपतितौ न हन्तव्यौ ।।155।। हिन्दी अनुवाद हे विशाल नेत्रवाली ! उस व्रत को याद करते मेरे द्वारा तेरे साथ किसीभी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की गई । परन्तु हे सुन्दरी ! अब उस आलम्बन को दूर करने के लिए तेरी प्रसन्नता हेतु मैं क्रीड़ा करूँगा । (152) पुष्पक विमान में चढ़कर तू उद्यानसहित सम्पूर्ण पृथ्वी को देख, हे चन्द्रवदने ! (चन्द्रसमान मुखवाली) मेरी कृपा से तू अनुपम सुख का भोग कर । (153) यह (बात) सुनकर सीता गद्गदकण्ठ से दस मस्तकवाले रावण को कहती है, यदि मुझ पर स्नेह रखते हो तो मेरे वचन ध्यानपूर्वक सुनो । (154) हे लंकेश रावण ! भयंकर गुस्से के आधीन बनकर भी तुम, युद्ध में भामण्डल तथा श्रीराम व लक्ष्मण दोनों सामने आयें तो उनको मारना नहीं । (155) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'ताव य जीवामि अहं, 'जाव य एयाण पुरिससीहाणं । 1°न "सुणेमि मरणसदं, 'उच्चयणिज्जं अयण्णसुहं ।।156।। 'सा जंपिऊण एवं, पडिया धरणीयले 'गया'मोहं । "दिट्ठा य रावणेणं, मरणावत्था 1 पयलियंसू ।।157।। मिउमाणसो 'खणेणं, जाओ 'परिचिन्तिउं समाढत्तो। 'कम्मोयएण बद्धो, 'कोवि"सिणेहो "अहो 1"गुरुओ ।।158।। 'धिद्धित्ति गरहणिज्जं, पावेण मए इमं कयं कम्मं । अन्नोन्नपीइपमुहं, "विओइयं 'जेणिमं मिथुणं ।।159। संस्कृत अनुवाद तावच्चाऽहं जीवामि, यावच्च पुरुषसिंहयोरेतयोः । उत्यजनीयमकर्णसुखं, मरणशब्दं न शृणोमि ||156।। सैवं जल्पित्वा धरणीतले , पतिता मोहं गता । रावणेन च. मरणाऽवस्था, प्रगलिताक्षु : दृष्टा ||157।। क्षणेन मृदुमानसो जातः, परिचिन्तयितुं समारब्धः । अहो, कर्मोदकेन बद्ध:, कोऽपि गुरुकः स्नेहः ||158।। धिग् धिगिति, पापेन मयेदं गर्हणीयं कर्म कृतं । येनाऽन्योन्यप्रीतिप्रमुखमिदं, मिथुनं वियोजितम् ।।159।। हिन्दी अनुवाद क्योंकि तभी तक ही मैं जीवित रहूँगी, जब तक पुरुषों में सिंहसमान इन दोनों के त्याग करने योग्य और कर्ण को प्रिय न लगे वैसे मरण के शब्द को नहीं सुनूँगी । (156) . इस प्रकार बोलकर सीताजी पृथ्वी पर गिर गईं और मूर्छित हो गयीं रावण ने भी मरणावस्था के नजदीक तथा आँसू गिरते हुए उन (सीताजी) को देखा । (157) एक क्षण में रावण कोमल मनवाले बने और विचार करना प्रारम्भ किया, अहो ! कर्मरूपी जल से बद्ध (इनका) कोई गाढ़ स्नेह है । (158) धिक्कार है कि पापी ऐसे मेरे द्वारा ऐसा निंदनीय कार्य किया गया, जिससे एक दूसरे पर अतिस्नेह रखते इस युगल का मैंने वियोग किया । (159) १७४ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'ससिपुण्डरीयधवलं, निययकुलं 'उत्तमं कयं मलिणं । परमहिलाए कएणं, 'वम्महअणियत्तचित्तेणं ।। 160।। अधिद्धि 'अहो अकज्जं, 'महिला 'जं तत्थ पुरिससीहाणं । 10अवहरिऊणवणाओ, "इहाणिया मयणमूढेण ।। 161 । । नरयस्स महावीही, कढिणा सग्गग्गला अणयभूमि । सिरियव्व'कुडिलहियया, 'वज्जेयव्वा हवइ नारी ।।162।। 'जापढमदिट्ठ 'संती, अमएण व मज्झ 'फुसइ अङ्गाई । सा परमसत्तचित्ता, "उच्चयणिज्जा 1 इहं 12जाया ।।163।। संस्कृत अनुवाद मन्मथाऽनिवृत्तचित्तेन, परमहिलायाः कृते । शशिपुण्डरीकधवलमुत्तमं, निजककुलं मलीनं कृतम् ||160।। ___ अहो अकार्यं धिग् धिग्, यत्तत्र पुरुषसिंहानां महिला । मदनमूढेन वनादपहृत्येहाऽऽनीता ||161।। नरकस्य महावीथिः, कठिना स्वर्गाऽर्गलाऽनयभूमिः । सरिदिव कुटिलहृदया, नारी वर्जयितव्या भवति ।।162।। सा प्रथमदृष्टा सती, ममाङ्गान्यमृतेनेव स्पृशति । परमसत्त्वचित्ता सेहोत्त्यजनीया जाता ।।163।।। हिन्दी अनुवाद काम के आधीन चित्त से मैंने परस्त्री हेतु चन्द्र और पुण्डरीक = श्वेतकमलसमान निर्मल, उत्तम अपने कुल को कलंकित किया । (160) अहो ! मेरे दुष्कृत्य को धिक्कार हो, पुरुषों में सिंहसमान उन पूज्य की स्त्री (= सीताजी) को काम से मोहित मैं वन में से अपहरण करके यहाँ लाया । (161) __ नरक के राजमार्ग समान, स्वर्ग के द्वार बंद करने में मजबूत श्रृंखला समान, नदी के समान कुटिल हृदयवाली स्त्री त्याग करने योग्य है । (162) जो प्रथम नजर में देखने पर मेरे अंगों को मानों अमृत से स्पर्श करती हो वैसा अनुभव होता था, परन्तु परमसात्त्विक चित्तवाले वे सीताजी अब मुझे • त्याग करने योग्य हुए हैं । (163) ... - १७५ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'जइ वि य इच्छेज्जममं, संपइ एसा विमुक्कसब्भावा । 'तह वि य 10 'जायइ धिई, अवमाणसुदुमियस्स ।।164।। ___ भाया मे आसि 'जया, 'बिभीसणो निययमेव अणुकूलो। 'उवएसपरो तइया, 13न 10मणोपीइं 12समल्लीणो ।।165।। बट्टा य 'महासुहडा, अन्ने विविवाइया 'पवरजोहा । 'अवमाणिओ य रामो, संपइ मे 1 केरिसी पीई ।।166।। 'जइ वि सम्मपेमि अहं, रामस्स 'किवाए जणयनिवतणया । श्लोओ'दुग्गहहियओ, 10असत्तिमन्तं गणेही मे ।।16711 संस्कृत अनुवाद यद्यपि च सम्प्रति, विमुक्तसद्भावैषा मामिच्छेत् । तथापि चाऽपमानसुदूनस्य, धृतिर्न जायते ||164।। यदा मे भ्राता बिभीषणो, नियतमेवाऽनुकूल उपदेशपर आसीत् । तदा मनः प्रीतिं न समालीनम् ।।165।। महासुभटाश्च बद्धाः, अन्येऽपि प्रवरयोधा विपादिता । रामश्चऽपमानितः, सम्प्रति मम कीदृशी प्रीतिः ? ||166।। यद्यप्यहं रामस्य कृपया जनकनृपतनया समर्पयामि । दुर्ग्रहहृदयो लोकः, मामशक्तिमन्तं गणिष्यति ।।167।। हिन्दी अनुवाद यद्यपि अब सन्दाव-सदाचार का त्यागकर वे सीताजी मेरी इच्छा करें तो भी अपमान से दुःखी मुझे धीरज नहीं रहा है । (164) . जब मेरे भाई बिभीषण मुझे सदा अनुकूल (सत्य) उपदेश देते थे तब मुझे उनकी बात पसन्द नहीं आती थी । (165) मैंने उनके महान् सुभटों को कैद किया, दूसरे भी उत्तम योद्धाओं को मार डाला और राम का भी अपमान किया, तो अब मुझ पर प्रीति कैसे होगी? 1(166) यद्यपि मैं राम के प्रति स्नेह से जनकराजा की पुत्री सीताजी को वापिस लौटा दूं तो दुराग्रही लोक मुझे शक्तिहीन गिनेंगे । (167) HD १७६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'इह 'सीहगरुडकेऊ, 2 संगामे रामलक्खणे 'जिणिउं । 'परमविभवेण "सीया, 'पच्छा 'ताणं 11 समप्पे 7 हं ।।168।। 2 न य 'पोरुसस्स 'हाणी, 'एव 'कए निम्मला य 'मे कित्ती । 10 होह (हि) इ 'समत्थलोए, 11 तम्हा ववसामि 12 संगामं ।।169 ।। संस्कृत अनुवाद इह सङ्ग्रामे सिंहगरुडकेतू, रामलक्ष्मणौ जित्वा । पश्चादहं ताभ्यां परमविभवेन सीता समर्पयामि ||168|| पौरुषस्य च न हानिरेवं कृते च मे निर्मला कीर्तिः । समस्तलोके भविष्यति, तस्मात् सङ्ग्रामं व्यवस्यामि ।।169।। हिन्दी अनुवाद अतः इस युद्ध में सिंह और गरुड़ चिह्नवाले राम और लक्ष्मण को जीतकर बाद में मैं उनको परमसमृद्धिसहित सीताजी समर्पित करूंगा । (168) इस प्रकार करने पर पुरुषार्थ की हानि नहीं होगी और समग्र जगत में मेरा उज्ज्वल यश होगा, अतः मैं युद्ध करूंगा । (169) १७७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) दयावीरमेहरहनरिंदो . प्राकृतअन्नया य मेहरहो उम्मुक्कभूसणाऽहरणो पोसहसालाए पोसहजोग्गासणनिसण्णो - (9) दयावीरमेघरथनरेन्द्रः संस्कृत अनुवाद अन्यदा च मेघरथ उन्मुक्तभूषणाऽऽभरणः पौषधशालायां पौषधयोग्याऽऽसन-निषण्णः । हिन्दी अनुवाद एक बार मेघरथ राजा आभूषण का त्यागकर पौषधशाला में पौषध के योग्य आसन पर बैठे । प्राकृत सम्मत्तरयणमूलं, 'जगजीवहियं सिवालयं फलयं । . . राईणं परिकहेइ, 'दुक्खविमुक्खं 'तहिं धम्मं ।।170।। 'एयम्मि देसयाले, भीओ पारेवओ'थरथरंतो । 6पोसहसाल मइगओ, रायं ! "सरणं ति 10सणं ति ।।171।। अभओ त्ति भणइ 'राया, 'मा भाहि त्ति भणिए ट्ठिओ'अह सो। 1°तस्स य"अणुमग्गओ पत्तो, 12भिडिओ 14सो विमणुयभासी ।।172।। नहयलत्थो रायं भणइ-मुयाहि एयं पारेवयं, एस मम भक्खो । मेहरहेण भणियं - न एस दायव्वो सरणागतो संस्कृत अनुवाद तत्र राजानं सम्यक्त्वरत्नमूलं, जगज्जीवहितं शिवाऽऽलयं फलदम् । दुःखविमोक्षं धर्मं परिकथयति ||170।। एतस्मिन् देशकाले, भीतः कम्पमानः पारापतः । पौषधशालामतिगतः, "राजन् ! शरणमिति शरणमिति ||171|| राजा 'अभयं' इति भणति, "मा बिभीहि" इति भणितेऽथ स स्थितः । तस्य चाऽनुमार्गतः श्येनः प्राप्तः सोऽपि मनुजभाषी ||172।। -१७८ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नभस्तलस्थो राजानं भणति मुञ्चैतं पारापतम् एष मम भक्ष्यः । · मेघरथेन भणितम्-नैष दातव्यः शरणाऽगतः । हिन्दी अनुवाद वहाँ राजा को सम्यग्दर्शनरूपी रत्न जिसका मूल है, जगत् के जीवों को हितकारी, मोक्षालयरूपी फल देनेवाला, दुःखों से मुक्त करनेवाला धर्म कहते हैं । (170) वहाँ उसी समय भयभीत (और) काँपता हुआ कबूतर अचानक पौषधशाला में आया, "हे राजन् ! शरण, शरण" इस प्रकार कहने लगा । (171) राजा 'अभय' इस प्रकार बोलते हैं, 'डर नहीं' इस प्रकार कहने पर वह ( कबूतर ) वहीं खड़ा रहता है; उसके पीछे क्रौंच (बाज ) पक्षी आता है, वह भी मनुष्य की भाषा बोलनेवाला है । (172) आकाश में रहा हुआ बाज राजा को कहता है कि इस कबूतर को छोड़ दो, यह मेरा भक्ष्य है । मेघरथ राजा ने कहा - मेरी शरण में आया हुआ यह देने योग्य नहीं है ( अर्थात् मैं इसको नहीं दूँगा क्योंकि यह मेरी शरण में आया हुआ है ।) प्राकृत भिडिएण भणियं-नरवर ! जइ न देसि मे तं, खुहिओ कं सरण- मुवगच्छामि ! त्ति । मेहरहेण भणियं-जह जीवियं तुब्भं पियं निस्संसयं तहा सव्वजीवाणं । भणियं च - 2 हंतूण 'परप्पाणे, अप्पाणं 'जो 'करे ' सप्पाणं । 7 अप्पाणं दिवसाणं, 'कएण "नासेइ 10 अप्पाणं ।।173 ।। 'दुक्खस्स 'उव्वियंतो, 'हंतूण 'परं 'करेइ 'पडियारं । "पाविहिति "पुणो 'दुक्खं, 'बहुययरं ' तन्निमित्तेण ।।174।। एवं अणुसिट्ठो भिडिओ भणइ-कत्तो मे धम्ममणो भुक्खदुक्खद्दियस्स ? | संस्कृत अनुवाद श्येनेन भणितम्-नरवर ! यदि न ददासि मह्यं तम्, क्षुधितः कं शरणमुपगच्छामि ? इति मेघरथेन भणितम्-यथा जीवितं तुभ्यं प्रियं, निस्संशयं तथा सर्वजीवानाम् | १७९ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणितं च-परप्राणान् हत्वा, आत्मानं यः सप्राणं करोति । अल्पानां दिवसानां कृते आत्मानं नाशयति ।।173।। दुःखाद् उद्विजन्, परं हत्वा, प्रतिकारं करोति । तन्निमित्तेन बहुकतरं, दुःखं पुनः प्राप्स्यति ||174|| एवमनुशिष्टः श्येनो भणति-कुतो मे धर्ममनः बुभुक्षादुःखार्दितस्य ? । हिन्दी अनुवाद श्येन (बाज) पक्षी ने कहा - हे राजन् ! जो तू उसे (कबूतर को) नहीं देगा, तो भूखा ऐसा मैं किसकी शरण में जाऊँगा ? मेघरथ राजा ने कहा, - जिस प्रकार तुझे जीवन प्रिय है, उसी प्रकार निःशंक सभी जीवों को जीवन प्रिय है । __ कहा है कि - दूसरों के प्राणों का नाश करके जो स्वयं जिन्दा रहता है, वह कुछ दिनों के लिए अपना (स्वयं का) ही नाश करता है । (173) (भूख के) दुःख से दुःखी, दूसरों को मारकर, (दुःख का) प्रतिकार करता है, वह इस निमित्त द्वारा पुनः अधिकतर दुःख प्राप्त करेगा । (174) इस प्रकार हितशिक्षा प्राप्त बाज पक्षी कहता है-भूख के दुःख से पीड़ित मेरा मन धर्म में कैसे रहेगा ? प्राकृत मेहरहो भणइ-अण्णं मंसं अहं तुहं देमि भुक्खपडिघायं, विसज्जेह पारेवयं, भिडिओ भणइ-नाहं सयं मयं मंसं खामि, फुरफुरेंतं सत्तं मारेउं मंसं अहं खामि । मेहरहेण भणियं जत्तिय पारावओ तुलइ तत्तियं मंसं मम सरीराओ गेण्हाहि । एवं भवउ, त्ति भणइ (भिडिओ) भिडियवयणेण य राया पारेवयं तुलाए चडावेऊण, बीयपासे निययं मंचं छेत्तूण चडावेइ. संस्कृत अनुवाद मेघरथो भणति-अन्यं मांसमहं तुभ्यं ददामि बुभुक्षाप्रतिघातम्, विसृज पारापतम् । श्येनो भणति-नाऽहं स्वयं मृतं मांसं खादामि, पोस्फुसयमाणं सत्यं मारयित्वा मांसमहं खादामि । HD १८० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघरथेन भणितम्-यावतिकं पारापतस्तुल्यते, तावतिकं मांसं मम शरीराद् गृहाण । 'एवं भवतु' इति भणति (श्येनः) श्येनवचनेन च राजा पारापतं तुलायामारुह्य, द्वितीयपार्श्वे निजकं मांसं छेत्वाऽऽरोहयति । ... हिन्दी अनुवाद मेघरथ राजा कहता है, - 'भूख को शांत (दूर) करने के लिए तुझे मैं दूसरा मांस देता हूँ, परन्तु कबूतर को छोड़ दो। __ बाजपक्षी कहता है - मैं स्वयं मृत्यु प्राप्त जीव का मांस नहीं खाता हूँ, लेकिन मैं काँपते हुए जीव को मारकर उसका मांस खाता हूँ। मेघरथ राजा ने कहा- तराजू में जितना कबूतर का वजन होगा, उतना मांस मेरे शरीर में से तू ग्रहण कर | 'हाँ ! मुझे मंजूर है ।' बाजपक्षी ने कहा । बाजपक्षी के वचन से राजा कबूतर को एक तराजू में रखकर, दूसरी तरफ अपना मांस निकालकर (काटकर) रखते हैं । प्राकृत 'जह 2जह छुभेइ मंसं, तह तह 'पारावओ बहु तुलेइ । 1°इअ'जाणिऊण 12राया, 15आरुहइ 13सयं 14तुलाए उ ।।175।। 'हा ! हा ! 2त्ति नरवरिंदा ! 'कीस इमं साहसं ववसियं ? ति । उप्पाइयं रवु एयं, 12न तुलइ पारेवओ"बहुयं ।। 176।। एयम्मि देसयाले देवो दिव्वरूवधारी दरिसेइ अप्पाणं, भणइ-रायं ! लाभा हु ते सुलद्धा जंसि एवं दयावंतो, पूयं काउं खमावेत्ता गतो ।। वसुदेवहिंडीए प्रथमखण्डे द्वितीयभागे संस्कृत अनुवाद यथा यथा मांसं क्षिपति, तथा तथा पारापतो बहु तोलयति । इत्ति ज्ञात्वा राजा, स्वयं तु तुलायामारुह्यति ||17511 हा हा ! इति नरवरेन्द्रा ! कस्मादिमं साहसं व्यवसितमिति ? | ___ औत्पातिकं खल्वेतत्, पारापतो न तोलयति बहुकम् ||176।। एतस्मिन् देशकाले देवो दिव्यरूपधारी दर्शयत्यात्मानम्, १८१ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणति राजन् ! लाभाः खलु तव सुलब्धाः, यस्मिन्नेवं दयावान्, पूजां कृत्वा क्षमयित्वा गतः ।। हिन्दी अनुवाद जैसे-जैसे मांस रखते जाते हैं, वैसे-वैसे कबूतर का वजन बढ़ता जाता है, यह जानकर राजा स्वयं ही तराजू में बैठ जाते हैं । (175) अहो अहो ! हे राजन् ! आपने ऐसा साहस कैसे किया ? इस प्रकार (सभी लोग बोलने लगे), सचमुच यह तो आकस्मिक है, अतः अतिभारीकबूतर तराजू में तुलता नहीं है । (176) उसी समय वहाँ दिव्यरूपधारण करनेवाले देव ने अपने स्वरूप को प्रगट किया । कहा - हे राजन् ! आप दयालु हो इसलिए आपने सभी लाभ प्राप्त किए हैं, इस प्रकार पूजा करके क्षमायाचना करके (देव) गया । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) महेसरदत्तकहा प्राकृत तामलित्तीनयीते महेसरदत्तो सत्थवाहो । तस्स पिया समुद्दनामो वित्तसंचयसारक्खपरिवुड्ढिलोभाभिभूओ मओ, मायाबहुलो महिसी जाओ तम्मि चेव विसए । मायाविसेउवहिनियडिकुसला बहुला नाम चोक्खवाइणी पइसोगेण मया सुणिया जाया तम्मि चेव नयरे । महेसरदत्तस्स भारियागंगिला गुरुजणविरहीए घरे सच्छंदाइच्छिएणपुरिसेण सह कयसंकेचा पओसेत्तं उदिक्खमाणी चिट्ठइ । सो यतं पएसं साउहो उवगओ महेसरदत्तस्स चक्खुभागे पडिओ । तेण पुरिसेण अत्तसंरक्खणनिमित्तं महेसदत्तो तक्किओ विवाडेउं । (10) संस्कृत अनुवाद ताम्रलिप्तीनगर्यां महेश्वरदत्तः सार्थवाहः । तस्य पिता समुद्रनामा क्तिसञ्चय-संरक्षणपरिवृद्धिलोभाभिभूतो मृतः, मायाबहुलो महिषो जातस्तस्मिंश्चैव विषये । माताऽपि तस्योपधिनिकृति कुशला बहुला नाम्नी चोक्षवादिनी प्रतिशोकेन मृता शुनी जाता तस्मिंश्चैव नगरे । ___ महेश्वरदत्तस्य भार्या गङ्गिला गुरुजनविरहिते गृहे स्वच्छन्दा, इष्टेन पुरुषेण सह कृतसङ्केता प्रदोषे तमुदीक्षमाणा तिष्ठति । स च तं प्रदेशं सायुध उपगतो महेश्वरदत्तस्य चक्षुर्भागे पतितः । तेन पुरुषेणाऽऽत्मसंरक्षणनिमित्तं महेश्वरदत्तस्सतर्कितो विपातयितुम् । (10) हिन्दी अनुवाद ताम्रलिप्ती नगरी में महेश्वरदत्तनामक सार्थवाह था | धन के संग्रह, रक्षण और वृद्धि के लोभ से अभिभूत उसके समुद्रनामक पिता मर गए और अत्यंत मायावी वह उसी नगर (गाँव) में महिष (भैंसा) बना | माया-कपट करने में कुशल, शौचधर्म को माननेवाली उसकी माता पति के शोक से मृत्यु प्राप्तकर उसी नगरी में कुतिया हूई । महेश्वरदत्त की पत्नी गंगिला माता-पितारहित घर में स्वच्छंद बनी और मनोवांछित पुरुष के साथ संकेत करके सन्ध्या समय उसकी प्रतीक्षा करती है । वह पुरुष भी उसी स्थान पर शस्त्रसहित आया हुआ महेश्वरदत्त की नजर में आया । उस पुरुष ने स्वयं के बचाव हेतु महेश्वरदत्त को मारने का विचार किया । -१८३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तेण लहुहत्थयाए गाढप्रहारीकओ नाइदूर गंतूण पडिओ । चिंतेइ-अहो! अणायारस्स फलं पत्तो अहं मंदभागो । एवं च अप्पाणं निंदमाणो जायसंवेगो मतो गंगिलाए उयरे दारगो जाओ । संवच्छरजायओ च महेसरदत्तस्स पिओ पुत्तो ति । तम्मि यसमये पिउकिच्चे सो महिसोणेणकिणेऊण मारिओ । सिद्धाणिव वंजणाणि, पिउमंसाणि, दत्ताणिजणस्स । बितीयदिवसेतं मंसं मज्जंच आसाएमाणे पुत्तमुच्छंगे काऊण तीसे माउसुणिगाए मंसखंडाणि खिवइ । सा वि ताणि परितुट्ठा भक्खइ, साहु य मासखवणपारणए तं गिहमणुपविट्ठो, पस्सइ य महेसरदवं परमपीतिसपउत्तं तदवत्थं च ओहिणा आभोएऊण चिंतिअभणेणं संस्कृत अनुवाद तेन लघुहस्तकया गाढप्रहारीकृतो नातिदूरं गत्वा पतितः । चिन्तयतिअहो ! अनाचारस्य फलं प्राप्तोऽहं मन्दभागः । एवं चाऽऽत्मानं निन्दन जातसंवेगो मृतः, गङ्गिलाया उदरे दारको जातः । संवत्सरजातकश्च महेश्वरदत्तस्य प्रियः पुत्र इति । तस्मिश्च समये पितृकृत्ये च महिषस्तेन क्रीत्वा मारितः । सिद्धानि च व्यञ्जनानि पितृमांसानि, दत्तानि जनाय । द्वितीयदिवसे तं मांसं मद्यं चऽऽस्वादयन् पुत्रमुत्सङ्गे कृत्वा तस्यै मातृशुनिकायै मांसखण्डानि क्षिपति । साऽपि तानि परितुष्टा भक्षयति, साधुश्च मासक्षपणपारणके तद् गृहमनुप्रविष्ट : पश्यति च महेश्वरदत्तं परमप्रीतिप्रयुक्तां तदवस्थां चाऽवधिनाऽऽभोग्य चिन्तितमनेन हिन्दी अनुवाद उसके द्वारा हल्के हाथ से गाढ़ प्रहार किया हुआ (जार पुरुष) थोड़ी दूर जाकर गिरा और विचार करता है - अहो ! मंदभागी ऐसे मैंने अनाचार का फल पाया । इस प्रकार अपनी निंदा करता संवेगप्राप्त वह मर गया और गंगिला की कुक्षि में पुत्र के रूप में आया । एक वर्ष के बाद महेश्वरदत्त के पिता पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। उस समय पिता के श्राद्ध हेतु उस महिष को खरीदकर मारा । पिता के मांस का शाक आदि बनाया और लोगों को परोसा (दिया) । दूसरे दिन वह (महेश्वरदत्त) मांस और दारु का आस्वादन करता पुत्र को गोद में लेकर कुतिया बनी माता को मांस के टुकड़े डालता है । वह कुतिया भी वे टुकड़े संतोषपूर्वक खाती है और उसी समय मासक्षमण के पारनेवाले साधु भगवन्त उस घर में -१८४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारे । महेश्वरदत्त और अतिरागयुक्त उस परिस्थितिको अवधिज्ञान से जानकर उन्होंने विचार किया, प्राकृत अहो ! अन्नाणयाए एस सत्तुं उच्छंगेण वहइ, पिउमंसाणि य खायइ, सुणिगाए देइ मंसाणि । अकज्जंति य वोत्तुण निग्गओ ! । महेसरदत्तेण चिंतियं कीस भन्ते साहू अगहियभिक्खो 'अकज्जंति यवोतूण' निग्गओ? । आगओ य साहुंगवेसंतो, विक्तिपएसे दट्ठण, वंदिऊण पुच्छइ-भयवं! किं न गहियं भिक्खं मम गेहे ! जंवा कारणमुदीरियं तं कहेह । साहुणा भणिओ-सावग! ण ते मंतुं कायव्वं । पिउरहस्सं कहियं, भज्जारहस्सं, सत्तुरहस्सं च साभिण्णाणं जहावत्तमक्खायं । तं च सोऊण जायसंसारनिव्वेओ तस्सेव समीवे मुक्कगिहवासो पव्वइओ ।। वसुदेवहिंडीए प्रथमखण्डे प्रथमभागे संस्कृत अनुवाद अहो ! अज्ञानतयैष शत्रुमुत्सङ्गेन वहति, पितृमांसानि च खादति, शुनिकायै मांसानि ददाति । अकार्यमिति चोक्त्वा निर्गतः । महेश्वरदत्तेन चिन्तितम्कस्माद् भगवान् साधुरगृहीतभिक्ष: 'अकार्यं' इति चोक्त्वा निर्गतः ? | आगतश्च साधुं गवेषयन् , विविक्तप्रदेशे दृष्ट्वा , वन्दित्वा पृच्छति-भगवन् ! किं न गृहीता भिक्षा मम गृहे ? यद् वा कारणमुदीरितं तत् कथय ! साधुना भणितः श्रावक ! न ते मन्युः कर्तव्यः । पितृरहस्यं कथितं , भार्यारहस्यं शत्रुरहस्यं च साभिज्ञानं यथावृत्तमारव्यातम् । तच्च श्रुत्वा जातसंसारनिर्वेदस्तस्यैव समीपे मुक्तगृहवासः प्रव्रजितः ।। हिन्दी अनुवाद __ अहो ! अज्ञान के कारण इस दुश्मन को गोद में लेता है, पिता के मांस को खाता है और कुतिया को मांस देता है । अतः ‘दुष्कृत्य' इस प्रकार बोलकर निकल गए । महेश्वरदत्त ने विचार किया - पूज्य साधु भगवन्त भिक्षा लिये बिना 'दुष्कृत्य' इस प्रकार बोलकर वापिस क्यों लौट गए ? साधु भगवंत की शोध करता वह उनके पास आया । एकान्त = (स्त्री-पशु-नपुंसकरहित) स्थान देखकर वंदन करके पूछता है - भगवन् ! मेरे घर से भिक्षा क्यों ग्रहण नहीं की ? अथवा जो कारण है वह (कहो) बताओ । साधु भगवन्त ने कहा - हे श्रावक ! तुम मेरी बात से गुस्सा नहीं करना । पिता का रहस्य, स्त्री का रहस्य और शत्रु का रहस्य भी निशानी सहित यथार्थ बताया । वह सुनकर संसार से निर्वेद = वैराग्य प्राप्त किया, गृहवास का त्यागकर उनके पास दीक्षा ली । -१८५ - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) गामेयगोदाहरणं प्राकृत एगम्मि नगरे एगा महिला, सा भत्तारे मए कट्ठाईणि विता विक्कीयाइणि, धिच्छामो त्ति ता अजीवमाणी खुड्डगं पुत्तं घेत्तुंगामं गया, सो दारओ वढ्तो माय पुच्छइ-कहिं मम पिया ? तीए सिटुं जहा मओ इति, तओ सो पुणो पुच्छइ-केम पगारेण सो जीवियाइओ? सा भणइ ओलग्गाए, तो खाइं अहंपि ओलग्गामि, सहा भणइ-न जाणिहिसि ओलग्गिउं, तओ पुच्छइ कहं ओलग्गिज्जइ? भणिओविणयंकरेज्जासि, केरिसोविणओ? भणइ जोक्कारो कायव्वो, नीयं चंकमियवं, छंदाणुवत्तिणा होयव्वं, तओ सो नगरं पहाविओ, संस्कृत अनुवाद एकस्मिन् नगरे एका महिला सा भर्तरि मृते काष्ठादीन्यपि सा विक्रीतवती, गर्हितास्म इति साऽजीवन्ती क्षुल्लकं पुत्रं गृहीत्वा ग्रामं गता, स दारको वर्द्धमानो मातरं पृच्छति-क्व मम पिता ? तया शिष्टं यथा मृत इति, ततः स पुनः पृच्छति-केन प्रकारेण स जीविकायितः ? सा भणति-अवलगया, ततः खल्वहमप्यबलगामि, सा भणति-न जानास्यवलगितम्, ततः पृच्छति कथमवलग्यते ? भणितः- विनयं कुर्याः, कीदृशो विनय: ? भणति-जयकार: कर्तव्यः, नीचं चक्रमितव्यम्, छन्दानुवर्तिना भवितव्यम् ततः स नगरं प्रधावितः, हिन्दी अनुवाद एक नगर में एक स्त्री रहती थी, वह पति के मरने पर लकड़ियाँ आदि बेचती थी, हम निन्दापात्र बनेंगे इसलिए वह आजीविका हेतु अनिच्छा से छोटे बालक को लेकर गाँव में गई, वह पुत्र बड़ा होने पर माता को पूछता है-मेरे पिता कहाँ हैं ?, उसने जिस प्रकार पति की मृत्यु हुई वह सब बताया । उसके बाद वह पुनः पूछता है-वे (पिताजी) किस प्रकार आजीविका चलाते थे ?, वह (माता) कहती है-दूसरों की सेवा करके, तो मैं भी सेवा करूंगा; वह कहती है-तू सेवा करना नहीं जानता है । उसके बाद वह (पुत्र) पूछता है-सेवा कैसे की जाती है ?, जवाब-विनय करना चाहिए । विनय कैसे होता है ? वह बताती है - 'जय जय' इस प्रकार बोलना, नीचे देखकर चलना चाहिए और अनुकूल वर्तन करना, उसके बाद वह नगर तरफ गया । १८६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अंतरा अणेण वाहा मयाण गहणत्थं निलुक्का दिट्ठा, तओ सो वड्डेणं सद्देणं तेसि जोक्कारो ति भणइ, तेण सद्देण मया पलाया, तओ तेहिं रुट्ठेहिं सो घेत्तुं पहओ, सब्भावो अणेण कहिओ, ततो तेहिं भणियं जया एरिसं पेच्छेज्जासि तया निलुक्कंतेहिं नीयं आगंतव्वं, न य उल्लविज्जइ, सणियं वा, तओ अग्गे गच्छंतेण रयगा दिट्ठा, तओ निलुक्कंतो सणियं सणियं एइ तेसिं च रयगाणं पोत्तगा हीरंति, ते ठाणं बंधिऊण रक्खंति, सो निलुक्कंतो एइ, एस चोरोत्ति, तेहिं गहिओ बंधिओ पिट्टिओय, समावे कहियं मुक्को संस्कृत अनुवाद अन्तराऽनेन व्याधा मृगाणां ग्रहणार्थं निलीना दृष्टाः, ततः स बृहता शब्देन तेभ्यो 'जयकार" इति भणति, तेन शब्देन मृगाः पलायिताः, ततस्तैः रुष्टैः स गृहीत्वा प्रहतः, सद्भावोऽनेन कथितः, ततस्तैर्भणितं, यदेदृशं प्रेक्षेथाः तदा निलीयमानैर्नीचमवगन्तव्यम्, न चोल्लपेत्, शनैर्वा, ततोऽग्रे गच्छता रजका दृष्टाः ततो निलीयमानः शनैः शनैरेति, तेषां च रजकानां पोतकानि ह्रियन्ते, ते स्थानं बदध्वा रक्षन्ति, स निलीयमान एति एषः चौर इति तैर्गृहीतो बद्धः पिट्टितश्च, सद्भावे कथिते मुक्तः " हिन्दी अनुवाद बीच में उसको पशु = हिरनों को पकड़ने हेतु छिपे शिकारियों ने देखा, वह बड़ी आवाज से उनको 'जय जय' इस प्रकार कहता है, उसकी आवाज से हिरन भाग गए, अतः क्रोधित शिकारियों ने उसको पकड़कर मारा, इसने सत्य बात कही, इसलिए उन्होंने ( शिकारियों ने कहा कि जब ऐसा देखो तब छिपतेछिपते नीचे देखकर चलना चाहिए, कुछ भी बोलना नहीं अथवा धीरे-धीरे बोलना | उसके बाद आगे जाने पर धोबी दिखाई दिया इसलिए वह छिपते-छिपते धीरेधीरे चलता है; उस धोबी के वस्त्र हरण किये जाते हैं और उस स्थान पर बाँधकर वस्त्र रखे हुए हैं । वह छिपते-छिपते जाता है अतः यह चोर है यह मानकर धोबियों ने पकड़ लिया, बाँधा और मारा; सत्य बात कहने पर छोड़ दिया; १८७ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तेहिं भणियं, एवं भणिज्जासि-सुद्धं नीरयं निम्मलं च भवतु, ऊसं पडउ, तओ सो नयरसमुहं एइ, एगत्थवीयाणिवाविज्जंति, तेण भणियं-भट्टा ! सुद्धं नीरयं भवउ, ऊसो य पडउ, तओ तेहिं किमकारणवेरिओ एवं भासइ ! त्ति, गहिओ बंधिओ पिट्टिओ य, सब्भावे कहिए मुक्को, भणितो य-एरिसे कज्जे एवं भण्णइबहु एरिसंभवतु, भंडं भरेह एयस्स, तओपुणो नयरसमुहं एइ, एगत्थ मडयंनीणिज्जंतं दहूं भणइ-बहुं एरिसंभवउ, भंडं भरेह एयस्स, तत्थ विगहिओ पट्टिओ य, सब्भावे कहिए मुक्को, भणिओ य एरिसे कज्जे एवं वुच्चइ, एरिसेणं अच्चंतवियोगो भवउ, अन्नत्थ विवाहे भणइ संस्कृत अनुवाद तैर्भणितम् एवं भणेः-शुद्धं नीरजसं निर्मलं च भवतु , उसं पततु, ततः स नगरसन्मुखमेति, एकत्र बीजानि वाप्यन्ते, तेन भणितम्-भट्टाः ।, शुद्धं नीरजसं भवतु, उरत्रश्च पततु ततस्तैः किमकारणवैरिक एवं भाषते इति गृहीतः, बद्धः पिट्टितश्च , सद्भावे कथिते मुक्तः, भणितश्च , ईदृशे कार्ये एवं भण्यते-बहु ईदृशं भवतु, भाण्डं भ्रियतामेतस्य, ततः पुनः नगरसन्मुखमेति, एकत्र मृतकं नीयमानं दृष्ट्वा भणति-बहु ईदृशं भवतु, भाण्ड भ्रियतामेतस्य, तत्राऽपि गृहीत: पिट्टितश्च , सद्भावे कथिते मुक्त : भणितश्चेदृशे कार्ये एवमुच्यते, ईदृशेनऽत्यन्तवियोगो भवतु, अन्यत्र विवाहे भणति हिन्दी अनुवाद उन्होंने (धोबियों ने) कहा- इस प्रकार बोलना - शुद्ध, धूलरहित, निर्मल हो और धूप आये, तत्पश्चात् वह नगर तरफ जाता है, एक जगह बीजों का वपन हो रहा था, उसने कहा - भट्टा ! शुद्ध, धूलरहित हो और धूप आये; निष्कारण शत्रुसमान यह ऐसा क्यों बोलता है ? अतः उन्होंने पकड़ा, बाँधा और प्रहार किया, सत्य बात कहने पर छोड़ दिया और कहा- ऐसे कार्य में इस प्रकार कहना - ऐसा बहुत हो, इनके बर्तन भर जाए, इसके बाद वह नगर तरफ जाता है, एक जगह शव ले जाते देखकर कहता है - ऐसे बहुत हो, इनके बर्तन भर जाए, वहाँ भी उसको पकड़ा और प्रहार किया, सत्य बात कहने पर छोड़ दिया और कहा, ऐसे कार्य में इस प्रकार कहना अत्यंत वियोग हो, एक बार विवाह प्रसंग में वह कहता है - अत्यंत वियोग हो, वहाँ भी वह पीटा गया, सत्य बात कहने पर छोड़ा । - -१८८ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अच्चंतविओगो भवइ, तत्थ वि पिट्टिओ, सब्भावे कहिए मुक्को, भणितो य एरिसे कज्जे एवं भण्णइ-निच्चं एरिसयाणि पेच्छितया होह, सासयं एवं भवउ, ततो गच्छंतो एगत्थ नियलबद्धं दंडियंदट्ठण एवं भणइ-निच्चं एरिसयाणि पेच्छंतया होह, सासयं च भेएवं हवउ, तत्थ वि गहिओ पिट्ठिओ य, सब्भावे कहिए मुक्को, भणितो य एरिसे कज्जे एवं भणिज्जासि-एयाओ भे लहुं मुक्खो हवउ त्ति, ततो गच्छंतो एगत्थ केइ मित्ता संधाइयं करिते पिच्छइ, तत्थ भणइ संस्कृत अनुवाद अत्यन्तवियोगो भवतु, तत्रापि पिट्टितः, सद्भावे कथिते मुक्तः भणितश्च ईदृशे कार्ये एवं भण्यते-नित्यमीदृशकानि प्रेक्षमाणतया भवत, शाश्वतमेतद् भवतु, ततो गच्छन्नेकत्र निगडबद्धं दण्डिकं दृष्ट्वैवं भणति, नित्यमीदृशानि प्रेक्षमाणतया भवत, शाश्वतं च युस्माकमेतद् भवतु, तत्राऽपि गृहीतः पिट्टितश्च , सद्भावे कथिते मुक्तः भणितश्च-ईदृशे कार्ये एवं भणे:- 'एतस्माद् युष्माकं लघुमोक्षो भवतु' इति , ततो गच्छन्नेकत्र कानिचिन् मित्राणि सडघाटकं कुर्वति प्रेक्षते, तत्र भणति हिन्दी अनुवाद और बताया ऐसे कार्य में इस प्रकार कहना - ‘ऐसे कार्य सदा देखते ही हो जाए, ये चिरंजीवी बने' |, वहाँ से जाते समय एक जगह बेड़ी में बाँधे हुए गाँव के मुखिया को देखकर इस प्रकार कहता है, ऐसे कार्य सदा देखते ही हो जाए और यह तुम्हे सदा हो, वहाँ भी उसे पकड़ा और मारा | सत्य बात कहने पर छोड़ दिया और कहा, - ‘ऐसे कार्य में इस प्रकार बोलना चाहिए - 'इससे तुम्हारा जल्दी मोक्ष (मुक्त) हो' ।, वहाँ से जाते समय एक जगह कुछ मित्र इकट्ठे हुए देखता है, वहाँ बोलता है, - 'तुम्हारा इससे जल्दी मोक्ष हो ।', वहाँ भी उसे पीटा, प्राकृत एयाओ भे लहु मोक्खो भवउ, तओ तत्थ वि पिट्टिओ, सब्भावे कहिए मुक्को गओनयरे, तत्थ एगस्सदंडि(ग) - कुलपुत्तस्स अल्लीणो सो सेवंतो अच्छइ, अन्नया दुब्भिक्खे तस्स कुलपुत्तस्स अंबखल्लिया (जवागू) सिद्धिल्लिया, तस्स भज्जाए सो भण्णइ, जाहि महाजणमज्जाओ सद्दावेहि जेण भुंजइ, सीयला - १८९ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाओग्गा भविस्सइ, तेण गंतुं महायणमझे वड्डेणं सद्देणं भणिओ, एहि एहि सीयली किर होइ अंबखल्लिया, सो लज्जितो, घरं गएण अंबाडिओ भणितो यएरिसे कज्जे नीयमागंतूण कण्णे कहिज्जइ, अन्नया संस्कृत अनुवाद एतस्माद् युष्माकं लघु मोक्षो भवतु, ततस्तत्राऽपि पिट्टितः, सद्भावे कथिते मुक्तः, गतो नगरे, तत्रैकस्य दण्डिककुलपुत्रस्याऽऽलीनः स सेवमान आस्ते, अन्यदा दुर्भिक्षे तस्य कुलपुत्रस्य अम्लयवागू; सिद्धिमती (सिद्धाः): तस्य भार्यया स भण्यते-याहि, महाजनमध्यात् शब्दायय येन भुज्यते, शीतला अप्रायोग्या भविष्यति, तेन गत्वा महाजनमध्ये बृहता शब्देन भणित:- एहि एहि शीतला किल भवत्यम्लयवागूः, स लज्जितः, गृहं गतेन तिरस्कृतो भणितच ईदृशे कार्ये नीचमागत्य कर्णे कथयेत्, हिन्दी अनुवाद सत्य बात कहने पर छोड़ दिया और वह नगर में गया । वहाँ एक मुखिया के पुत्र के घर रहकर उसकी सेवा करता है, एक बार दुष्काल में उस मुखिया के पुत्र के लिए छास से बनी खट्टी राब तैयार हुई, तब उसकी पत्नी उसे कहती है - तू जा और मुखीपुत्र को महाजन के बीच से बुलाकर ले आ, अतः वह पी सके, ठण्डी होने के बाद पीने योग्य नहीं रहेगी, उसने महाजन के बीच जाकर ऊँची आवाज में कहा, - 'चलो, चलो, खट्टी राब ठण्डी होती है । वह (मुखीपुत्र) शर्मिन्दा हो गया, घर जाकर उसने (मुखीपुत्रने) उसको धमकाया और कहा - ऐसे प्रसंग में धीरे से आकर कान में कहना चाहिए । एक बार घर जलने लगा, प्राकृत घरं पलित्तं तस्स भज्जाए भणितो-लहुं सद्दावेह ठक्कुरं ति, ततो सो तत्थ गओ सणियं सणियं आसन्नं होऊण कण्णे कहेइ, जाव सो तत्थ गच्चा सणियं सणियं आसन्नं होऊण अक्खाउंपयट्टो, तावघरंसव्वं झामियं, तत्थ वि अंबाडिओ. भणियो य-एरिसे कज्जे न आगम्मइ, न वि अक्खाइज्जइ, किंतु अप्पणा चेव पाणियं वा गोमुत्तं वा आइंकाउंगोरसं पिछुब्भइ ताव जाव विज्जाइ, अन्नया तस्स दंडिपुत्तगस्स ण्हाइऊण धूविंतस्स धूमो निग्गच्छइ त्ति गोमुत्तं छूढं गोमूत्ताइयं च । आवश्यकसूत्रवृत्तौ । १९० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद अन्यदा गृहं दीप्तं, तस्य भार्यया भणित :- लघु शब्दायेत ठक्कुरमिति, ततः स तत्र गतः शनैः शनैरासन्नं भूत्वा कर्णे कथयति यावत् स तत्र गत्वा शनैः शनैरासन्नं भूत्वाऽऽख्यातुं प्रवृत्तः, तावद् गृहं सर्वं दग्धम्, तत्राऽपि तिरस्कृतो भणितश्च-ईदृशे कार्ये नाऽगम्यते, नाऽप्याख्यायते किन्त्वात्मना चैव पानीयं वा गोमुत्रं वाऽऽदिं कृत्वा गोरसमपि क्षुभ्येत (क्षिप्येत) तावद् यावद् विध्यायते, अन्यदा तस्य दण्डिपुत्रकस्य स्नात्वा धूपयतो धूमो निर्गच्छति इति गोमूत्रं क्षिप्तं, गोमूत्रादिकं च ॥ हिन्दी अनुवाद तब उसकी पत्नी ने कहा- मुखिया को जल्दी बुलाओ । उसके बाद वह वहाँ गया, धीरे-धीरे नजदीक जाकर कान में कहता है । जब तक वह धीरे-धीरे नजदीक जाकर कहने का प्रारम्भ करता है तब तक पूरा घर जल गया, वहाँ भी तिरस्कृत हुआ और कहा कि ऐसे प्रसंग में आना और कहना भी नहीं चाहिए परन्तु जब तक आग न बुझे, तबतक स्वयं ही पानी, गोमूत्र अथवा गोरस आदि - " एक बार वह दंडीपुत्र स्नान करके धूप करता था । तब उसके शरीर में से धूआँ निकलने लगा तब उसने अपने ऊपर गोमूत्रादि डाला । १९१ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) सिसुवालकहा प्राकृत 'वसुदेवसुसाए 'सुओ, दमघोसणराहिवेण मद्दीए । जाओ 'चउब्भुओऽब्भुय-बलकलिओ कलहपत्तट्ठो 11177|| दळूण 'तओ'जणणी, चउब्भुयं पुत्तम ब्भुयमणग्धं । भयहरिसविम्हयमुही, "पुच्छइ 10नेमित्तियं 'सहसा 11178।। णेमित्तिएण मुणिऊण, 'साहियं 'तीइ हडहिययाए । जह 'एस तुब्भ पुत्तो, 1महाबलो 12दुज्जओ "समरे ||17911 एयस्स य 'जंदलूण, होइ, 'साभावियं भुयाजुगलं । 12होही 'तओ चिय"भयं, "सुतस्स ते 4नत्थि संदेहो | 118011 (12) शिशुपालकथा संस्कृत अनुवाद वसुदेवस्वसुः माद्रयाः, दमघोषनराधिपेन । चतुर्भुजोऽद्भुतबलकलितः, कलहप्राप्तार्थः सुतो जातः ।।177।। ततश्चतुर्भुजमद्भुतमनघु पुत्रं दृष्ट्वा जननी । भयहर्षविस्मयमुखी सहसा नैमित्तिकं पृच्छति ।।178।। नैमित्तिकेन ज्ञात्वा हृष्टहृदयायै तस्यै कथितम् । यथैष तव पुत्रो महाबलः, समरे दुर्जयः ||179।। यं च दृष्ट्वैतस्य भुजायुगलं स्वाभाविकं भवति । ततश्चैव तव सुतस्य भयं भविष्यति; संदेहो नाऽस्ति ।।180।। (12) हिन्दी अनुवाद वसुदेव की बहन माद्री को दमघोष राजा से चार हाथवाला, अद्भुत सामर्थ्यवान और कलह में आसक्त पुत्र उत्पन्न हुआ । (177) उसके बाद चार हाथवाले, अद्भुत और अमूल्य पुत्र को देखकर भय, हर्ष और विस्मित मुखवाली माता अचानक नैमित्तिक को पूछती है । (178) नैमित्तिक ने ज्ञान से जानकर प्रसन्नचित्तवाली उसकी माता को कहा कि यह तेरा पुत्र अत्यंत शक्तिशाली और युद्ध में दुर्जेय होगा । (179) -१९२ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु जिसको देखकर इसके दो हाथ स्वाभाविक बनेंगे, उससे ही तेरे पुत्र को भय होगा | इस बात में थोडी भी शंका को स्थान नहीं है । (180) प्राकृत 'सावि भयवेविरंगी, पुत्तं दंसेइ जाव 'कण्हस्स। 'ताव च्चिय तस्स "ठियं, 1"पयइत्थं °वरभुयाजुगलं ।।181।। 'तोकण्हस्स पिउच्छा, पुत्तं 'पाडेइ पायपीढंमि । 4अवराहखामणत्थं, सो वि सयं से"खमिस्सामि ।।182।। 'सिसुवालो वि हुजुव्वण-मएणनारायणं असब्भेहिं । वयणेहि भणइ 'सो वि हु, 10खमइ खमाए 'समत्थो वि ।।183।। अवराहसए पुण्णे, वारिज्जंतोण "चिट्ठइ 'जाहे । कण्हेण'तओ 12छिन्, "चक्केण "उत्तमंगं °से ।। 184।। - सूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्तौ संस्कृत अनुवाद साऽपि भयवेपिराङ्गी यावत् कृष्णस्य पुत्रं दर्शयति । तावच्चैव तस्य वरभुजायुगलं प्रकृतिस्थं स्थितम् ||181।। ततः कृष्णस्य पितृष्वसा अपराधक्षामणार्थं पुत्रं पादपीठे पातयति । सोऽपि तस्य शतं क्षमिष्यामि ।।182।। शिशुपालोऽपि खलु यौवनमदेन नारायणमसभ्यः । वचनैर्भणति, सोऽपि खलु समर्थोऽपि क्षमया क्षमते ।।183।। अपराधशते पूर्णे, यदा वार्यमाणोऽपि न तिष्ठति । ततः कृष्णेन तस्योत्तमाङ्गं चक्रेण छिन्नम् ||184।। हिन्दी अनुवाद वह भी भय से काँपते अंगवाली जब तक कृष्ण के पुत्र को बताती है, तब तक उसके उत्तम दोनों हाथ यथावस्थित हो गए । (181) अतः कृष्ण की बूआ अपराध क्षमा करने के लिए पुत्र को उसके चरणों में रखती है और वह (कृष्ण) भी उसके सौ अपराध क्षमा करते हैं । (182) शिशुपाल भी जवानी के मद से कृष्ण को असभ्य वचनों द्वारा बुलाता है, तो भी वह कृष्ण समर्थ होते हुए भी उसको माफ करता है । (183) सौ अपराधपूरे होने पर, रोकने पर भी वह रुकता नहीं है, तब कृष्ण ने उसका मस्तक चक्र से छेद दिया । (184) - १९३ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) कमलामेला प्राकृत बारवईए बलदेवपुत्तस्स निसढस्स पुत्तो सागरचंदो नाम कुमारो, रूवेण य उक्किठ्ठो सव्वेसिं संबाईणं इट्ठो । तत्थ य बारवईए वत्थव्वस्स चेव अण्णस्स रण्णो कमलामेला नाम धूआ उक्किट्ठसरीरा । सा य उग्गसेणनत्तुस्स धणदेवस्स वरिल्लिया । इओ य नारओ सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगओ । अब्भुट्ठिओ । उवविट्ठ समाणं पुच्छइ-भयवं किंचि अच्छेरयं दिट्ठे ! | आमं दिट्ठे । कहिं ? । इहेव बारवईए नयरीए कमलामेला नामं दारिया । कस्सइ दिन्निया ? । आमं । कस्स ? | उग्गसेणनत्तुस्स धणदेवस्स । तओ सो भणइ - कहं (13) संस्कृत अनुवाद द्वारवत्यां बलदेवपुत्रस्य निषधस्य पुत्रः सागरचन्दो नाम कुमारो, रूपेण चोत्कृष्टः सर्वेषां शाम्बादीनामिष्टः । तत्र च द्वारवत्यां वास्तव्यस्य चैवाऽन्यस्य राज्ञः कमलामेला नाम दुहितोत्कृष्टशरीरा । सा चोग्रसेननप्तुर्धनदेवस्थ वृता । इतश्च नारदः सागरचन्द्रस्य कुमारस्य सकाशमागतः । अभ्युत्थितः । उपविष्टं समानं पृच्छति भगवन् । किञ्चिदाश्चर्यं दृष्टम् । आं दृष्टम् । कुत्र ? इहैव द्वारवत्यां नगर्यां कमलामेला नाम दारिका । कस्मैचित् दत्ता ? आम् । कस्मै ? । उग्रसेननप्त्रे धनदेवाय । ततः स भणति कथं मम तया समं संयोगो भवेत् ? । 'न जानीमः' इति भणित्वा गतः । हिन्दी अनुवाद द्वारिकानगरी में बलदेव के पुत्र निषध का पुत्र सागरचन्द्र नामक कुमार है, वह रूप से श्रेष्ठ और शांब आदि सभी को प्रिय है । उसी द्वारिका नगरी में रहते दूसरे राजा की कमलामेला नाम की उत्तम रूपवती पुत्री थी । और उसकी उग्रसेन राजा के पौत्र धनदेव के साथ सगाई की हुई थी । इस तरफ नारद सागरचन्द्र कुमार के पास आया, सागरचन्द्र खड़ा हुआ । बैठते ही पूछता है - है भगवन् ! कुछ आश्चर्यकारी देखा ! हाँ, देखा है । कहाँ ? इसी द्वारिका नगरी में कमलामेला नाम की पुत्री है। किसी को सौंपी हुई है ? हाँ । किसको ? उग्रसेन राजा के पौत्र धनदेव को । तो वह कहता है - मेरा उसके साथ मिलन कैसे होगा ? १९४ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत मम ताए समं संजोगो होज्जा? । 'न याणामुत्ति भणित्ता गओ । सो य सागरचंदोतं सोउं न वि आसणे, न विसयणे, धिइं लहइ । तंदारियं फलए पासंतो, नामंच गिण्हतो अच्छइ । नारओ वि कमलामेलाए अंतियं गओ । ताए पुच्छिओकिंचि अच्छेरयं दिटुं? । नारओ भणइ-दुवेदिट्ठाणि, रूवेणसागरचंदो, विरूवत्तणेण धणदेवो । तओ सागरचंदे मुच्छिया, धणदेवे विरत्ता । नारएण आसासिआ । तेण गंतुं सागरचंदस्स आइक्खियं, जहा ‘इच्छइ'त्ति । ततो यसागरचंदस्समाया, अन्ने य कुमारा अद्दन्ना, मरति नूणं सागचंदो । संबो आगओ जाव पिच्छइ सागरचंदं विलवमाणं । ताहे अणेण पच्छओ धाइऊण अच्छीणी दोहि वि हत्थेहिं छाइयाणि । सागरचंदेण भणियं कमलामेले ! । संबेण भणियं-नाहं __ संस्कृत अनुवाद स च सागरचन्द्रस्तच्छ्रुत्वा नाऽप्यासने, नाऽपि शयने धृतिं लभते । तां दारिकां फलके पश्यन् , नाम च गृह्णन् आस्ते । नारदोऽपि कमलामेलाया अन्तिकं गतः । तया पृष्ट:-किञ्चिदाश्चर्यं दृष्टम् ? | नारदो भणति-द्वे दृष्टे, रूपेण सागरचन्द्रः, विरूपत्वेन धनदेवः । ततः सागरचन्द्रे मूर्च्छिता, धनदेवे विरक्ता । नारदेनाऽऽश्वस्ता । तेन गत्वा सागरचन्द्रायाऽऽख्यातम्, यथा 'इच्छति' इति । ततश्च सागरचन्द्रस्य माता, अन्ये च कुमारा: खिन्नाः, म्रियते नूनं सागरचन्द्रः । शाम्ब आगतो यावत् प्रेक्षते सागरचन्द्रं विलपमानम् । तदाऽनेन पश्चात्तो धावित्वाऽक्षिणी द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां छादिते । सागरचन्द्रेण भणितं कमलामेले ! । शाम्बेन हिन्दी अनुवाद वह मैं नहीं जानता हूँ, इस प्रकार कहकर चले गये । वह सागरचन्द्र इस बात को सुनकर न तो आसन पर, न पलंग पर शांतिपूर्वक रहता है । उस स्त्री को चित्रपट में देखता और नाम लेते बैठा रहता है । नारद भी कमलामेला के पास गया । उसने (कमलामेला ने) पूछा - कुछ आश्चर्य देखा ? नारद कहता है - दो आश्चर्य देखे, एक रूप में सागरचन्द्र और दूसरा कुरूप में धनदेव । इससे वह सागरचन्द्र पर मोहित हुई और धनदेव पर रागरहित बनी । नारद ने आश्वासन दिया । उसने (नारद ने) जाकर सागरचन्द्र को कहा, 'वह भी चाहती है' इस प्रकार (कहा) । अतः सागरचन्द्र की माता और दूसरे कुमार व्याकुल बने, सचमुच १९५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचन्द्र मरता है । शांब वहाँ आता है और विलाप करते सामरचन्द्र को देखता है । तब उसने पीछे से दौड़कर उसकी (सागरचन्द्र की) दोनों आँखें दोर्न हाथों से ढक दीं । सागरचन्द्र बोल उठा - ‘कमलामेले !' शांब ने कहा - मैं कमलामेला नहीं कमलामेल हूँ।। प्राकृत कमलामेला, कमलामेलो हं । सागरचंदेण भणियं-आमं, तुमं चेव कमलामेलं दारियं मेलेहिसि । ताहे तेहिं कुमारेहिं संबो भणिओ-कमलामेलं मेलेहि सागरचंदस्स । न मन्नइ । तओ मज्जं पाएऊण अब्भुवगच्छाविओ । तओ विगयमओ चिंतइ-अहो । मए आलो अब्भुवगओ, किं सक्काइयाणि निव्वहिउं? ति, पज्जुन पन्नतिं विज्जं मग्गइ । तेण दिन्ना । तओ जम्मि दिवसे धणदेवस्स विवाहो तम्मि दिवसे विज्जाए पडिरूवं विउव्विऊणं कमलामेला अवहरिया रेवए उज्जाणे नीया । संबप्पमुहा कुमारा उज्जाणं गंतुं नारयस्स रहस्सं भिंदित्ता कमलामेलं सागरचंदं परिणावित्ता तत्थ किड्ता अच्छंति । विज्जापडिरूवगं पि विवाहे वट्टमाणे अट्टहासं काऊणं उप्पइयं । संस्कृत अनुवाद भणितम्- नाऽहं कमलामेला, कमलामेलोऽहम् । सागरचन्द्रेण भणितम्आम्, त्वं चैव कमलामेलां दारिकां मेलिष्यसि । तदा तै: कुमारैः शाम्बो भणित : कमलामेलं मेलय सागरचन्द्रस्य । न मन्यते । ततो मद्यं पायित्वाऽभ्युपगमितः । ततो विगतमदश्चिन्तयति- अहो ! मयाऽऽलोऽभ्युपगतः, किं शक्य इदानीं निर्वोढम् ? इति । प्रद्युम्नं प्रज्ञप्ति विद्यां मार्गयति । तेन दत्ता । ततो यस्मिन् दिवसे धनदेवस्य विवाहस्तस्मिन् दिवसे विद्यया प्रतिरूपं विकर्व्य कमलामेलाऽपहृता रैवते उद्याने नीता | शाम्बप्रमुखाः कुमारा उद्यानं गत्वा नारदस्य रहस्यं भित्वा कमलामेलां सागरचन्द्रं परिणाय्य तत्र क्रीडमाणा आसते । विद्याप्रतिरूपकमपि विवाहे वर्तमाने ऽट्टहासं कृत्वोत्पतितम् । ततो जातः क्षोभः । न ज्ञायते 'केनचिद् हिन्दी अनुवाद सागरचन्द्र ने कहा - हाँ बराबर, तू ही कमलामेला स्त्री का मिलाप करायेगा । तब उन कुमारों ने शांब को कहा - सागरचन्द्र को कमलामेला का मिलन करवाओ, वह नहीं मानता है । अतः मदिरा पिलाकर स्वीकार करवाया। -१९६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके बाद नशा उतरने पर विचार करता है - अहो ! मैंने कलंक-दोष का स्वीकार किया । अब उसका निर्वाह करना कैसे शक्य होगा ? इस प्रकार प्रद्युम्न के पास प्रज्ञप्ति विद्या मांगता है । उसने (प्रज्ञप्ति विद्या) दी । उसके बाद जिस दिन धनदेव का विवाह था, उसी दिन विद्या के प्रभाव (बल) से कमलामेला जैसा रूप बनाकर कमलामेला का अपहरण किया और उसे रैवताचल उद्यान में लाया | शांब आदि कुमारों ने उद्यान में जाकर नारद के रहस्य को भेदकर कमलामेला का सागरचन्द्र के साथ विवाह कर आनन्दपूर्वक रहते हैं । विद्या से बनाया कमलामेला का प्रतिरूपक भी विवाह समय अट्टहास करके गिरा, अतः कोलाहल हुआ | मालूम नहीं 'किसने अपहरण किया' ? इस प्रकार | प्राकृत 'तओ जाओ खोभो । न नज्जइ 'केणइ हरिय' त्ति ? । नारओ पुच्छिओ भणइ-दिट्ठा रेवइए उज्जाणे केणवि विज्जाहरेण अवहरिया । तओ सबलवाहणो नारायणो निग्गओ । संबो विज्जाहररूवं काऊण जुज्झिउं संपलग्गो । सव्वे दसाराइणो पराइया । तओ नारायणेण सद्धिं लग्गो । तओ जाहे णेणं णायं 'रुट्ठो ताउ 'त्ति तओ से चलणेसु पडिओ । कण्हेण अंबाडियो । तओ संबेण भणियं एसा अम्हे हिं गवक्खेण अप्पाणं मुयंती दिट्ठा । तओ कण्हेण उग्गसेणो अणुगामिओ । पच्छा इमाणि भोगे भुंजमाणाणि विहरति । अन्नया भयवं अरिट्ठनेमिसामी समोसरिओ । तओ सागरचंदो कमलामेला य सामिसगासे धम्मं सोऊण गहियाणु संस्कृत अनुवाद हृता इति । नारदः पृष्टो भणति दृष्टा रैवतिके उद्याने केनाऽपि विद्याधरेणाऽपहृता । ततः सबलवाहनः नारायणो निर्गतः । शाम्बो विद्याधररूपं कृत्वा योद्धुं सम्प्रलग्नः । सर्वे दशार्हराजानः पराजिताः । ततो नारायणेन सार्द्धं लग्नः । ततो यदा तेन ज्ञातम्- 'रुष्टस्तात : ' इति ततस्तस्य चरणयोः पतितः । कृष्णेन तिरस्कृतः । ततः शाम्बेन भणितम् - एषाऽस्माभिर्गवाक्षेणाऽऽत्मानं मुञ्चन्ती दृष्टा । ततः कृष्णेनोग्रसेनोऽनुगमितः पश्चाद् इमौ भोगे भुज्यमानौ विहरतः । अन्यदा भगवानरिष्टनेमिस्वामी समवसृतः । ततः सागरचन्द्रः कमलामेला च स्वामिसकाशे धर्मं श्रुत्वा गृहीतानुव्रतानि १९७ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद नारद को पूछने पर बताते हैं - रैवताचल उद्यान में किसी विद्याधर द्वारा अपहरण की गई देखी है । उसके बाद सैन्य और वाहनोंसहित कृष्ण महाराजा निकले । शांब भी विद्याधर का रूप करके युद्ध करने लगा । समुद्रविजय आदि सभी दशाह राजा पराजित हुए । उसके बाद कृष्ण के साथ युद्ध हुआ । जब उसने जाना कि पिता 'क्रोधित हुए हैं' तब उनके चरणों में गिरा | कृष्ण ने तिरस्कार किया । इसलिए शांब ने कहा- इसे (कमलामेला को) हमने गवाक्ष में से स्वयं गिरते देखा है, तत्पश्चात् कृष्ण ने उग्रसेन को वापिस भेजा, बाद में ये दोनों भोगों को भुगतते रहते हैं | एक बार अरिष्ट नेमिनाथ प्रभु समवसरण में पधारे । तब सागरचन्द्र और कमलामेला ने प्रभु के पास धर्म सुनकर ग्रहण किये हुए अणुव्रतों का संक्षेप किया । प्राकृत व्वयाणि संवुत्ताणि । तओ सागरचंदो अट्ठमी-चउद्दसीसुसुन्नघरेवा सुसाणे वा एगराइयं पडिमं ठाइ । धणदेवेणं एयं नाऊणं तंबियाओ सूईओ घडाविआओ। तओ सुन्नघरे पडिमं ठियस्स वीससु वि अंगुलीनहेसु अक्को(क्खो)डियाओ । तओ सम्ममहियासमाणो वेयणाभिभूओ कालगतो देवो जाओ । ततो बिइअदिवसे गवेसिंतेहिं दिट्ठो । अक्कंदो जाओ । दिट्ठाओ सूईओ । गवेसिंतेहिं तंबकुट्टगसगासे उवलद्धं-धणदेवेण कारावियाओ । रूसिया कुमारा धणदेवं मग्गंति । दुण्हं वि बलाणं जुद्ध संपलग्गं । तओ सागरचंदो देवो अंतरे ठाऊणं उवसामेइ । पच्छा कमलामेला भयवओ सगासे पव्वइया । बृहत्कल्पपीठिकायाम् संस्कृत अनुवाद संवृत्तानि । ततः सागरचन्द्रोऽष्टमी-चतुर्दशीष शून्यगृहे वा श्मशाने वैकरात्रिकी प्रतिमां तिष्ठति | धनदेवेनैतज ज्ञात्वा ताम्रिकाः शूच्यो घटिताः । ततः शून्यगृहे प्रतिमां स्थितस्य विंशतिष्वप्यङ्गलीनखेष्वाक्षोदिताः । ततः सम्यगध्यासानो वेदनाऽभिभूतः कालगतो देवो जातः । ततो द्वितीयदिवसे गवेषयद्भिः दृष्टः । आक्रन्दो जातः । दृष्टाः शूच्यः । गवेषयद्भिः ताम्रकुट्टकसकाशे उपलब्धम्-धनदेवेन कारिताः । रुष्टाः कुमारा धनदेवं मार्गयन्ति । द्वयोरपि बलयोर्युद्धं सम्प्रलग्नम् । ततः सागरचन्द्रो देवोऽन्तरे स्थित्वोपशामयति । पश्चात् कमलामेला भगवतः सकाशे प्रव्रजिता ।। १९८ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद तब से सागरचन्द्र अष्टमी-चतुर्दशी को निर्जन घर में अथवा श्मशान में एक रात्रि की प्रतिमा धारण करता है | धनदेव ने यह जानकर तांबे की सलाइयाँ (सइयाँ) बनवायीं । तत्पश्चात निर्जन घर में प्रतिमा में स्थित सागरचन्द्र की बीस उँगलियों के नाखूनों में (वे सलाइयाँ) चुभा दीं । उसके बाद श्रेष्ठ अध्यवसाय में स्थित, वेदना से पीड़ित पंचत्व प्राप्तकर देव बने । दूसरे दिन ढूंढते हुए आरक्षकों ने देखा | कोलाहल मचा | सलाइयाँ दिखाई दीं । आरक्षकों ने तांबा कूटनेवालों के पास जाना कि धनदेव ने बनवाई थीं | क्रोधित राजकुमार धनदेव को ढूंढते हैं । दोनों के सैन्यों का युद्ध प्रारम्भ हुआ । अतः देव बना सागरचन्द्र (देव) बीच में खड़े रहकर शांत करता है । तत्पश्चात् कमलामेला प्रभु के वरद हस्तों से दीक्षित बनती है । १९९ = Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) वुड्डा तरुणा य मंतिणो प्राकृत परिणयबुद्धी वुड्डा पावायारे नेव पवत्तइ, अत्थ कहा एगस्स रन्नो दुविहा मंतिणो, तरुणा वुड्डा य । तरुणा भणंति एए वुड्डा मइभंसपत्ता, न सम्मं मंतिन्ति । ता अलमेएहिं । अम्हे चेव पहाणा । अन्नया तेसिं परिच्छानिमित्तं राया भणइ, भो सचिवा ! जो मम सीसे पण्हिपहारंदलयइ, तस्सकोदंडो कीरइ ? । तरुणेहिं भणियं, किमेत्थ जाणियव्वं ? । तस्स सरीरं तिलं तिलं कप्पिज्जइ, सुहुयहुयासणे वा छुब्भइ । तओ रन्ना वुड्डा पुच्छिया । तेहिं एगते गंतूण मंतियं, आसंधयप्पहाणा महादेवी चेव एवं करेइ, ता तीए । (14) वृद्धास्तरुणाश्च मन्त्रिणः संस्कृत अनुवाद परिणतबुद्धयो वृद्धाः पापाचारे नैव प्रवर्तन्ते, अत्र कथा-एकस्य राज्ञो द्विविधा मन्त्रिण; तरुणा वृद्धाश्च । तरुणा भणन्त्येते वृद्धा मतिभ्रंशप्राप्ताः, न सम्यग् मन्त्रयन्ति । तस्मादलमेतैः । वयं चैव प्रधानाः । अन्यदा तेषां परीक्षानिमित्तं राजा भणति, भो सचिवाः ! यो मम शीर्षे पाणिप्रहारं दलयति, तस्य को दण्डः क्रियते ? | तरुणैर्भणितम्-किमत्र ज्ञापितव्यम् । तस्य शरीरं तिलं तिलं क्लृप्यते(कृत्यते), सुहुतहुताशने वा क्षिप्यते । ततो राज्ञा वृद्धाः पृष्टाः । तैरेकान्ते गत्वा मन्त्रितम्, स्नेहप्रधाना महादेवी चैवैवं करोति, ततस्तस्या पूजैव क्रियते । एवमेतदर्थं वक्तव्यमिति हिन्दी अनुवाद परिपक्व बुद्धिमान वृद्ध पुरुष पापकार्य में कभी प्रवृत्त नहीं होते हैं, यहाँ कहानी है एक राजा के दो प्रकार के मन्त्री हैं युवान और वृद्ध । युवान कहते हैं - ये वृद्ध बुद्धि से भ्रष्ट हो गए हैं, उचित मन्त्रणा नहीं करते हैं । अतः इन लोगों से बस, हम ही उत्तम हैं। एक बार उनकी परीक्षा करने हेतु राजा कहते हैं- हे मंत्रियो ! जो मेरे २०० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तक पर पैर का पंजा मारे, उसको क्या दण्ड करना चाहिए ? युवानों ने कहा - इसमें कहने योग्य क्या है ? उसके शरीर के तिल-तिल जितने टुकड़े कर देने चाहिए अथवा भड़कती आग में डालना चाहिए । तत्पश्चात् राजा ने वृद्धों (वृद्ध मंत्रियों) को पूछा । उन्होंने एकान्त में जाकर विचार किया, अधिक अनुरागवाली महारानी ही यह (=लात मारना) कर सकती है, अतः उनकी पूजा ही करनी चाहिए। प्राकृत पूया चेव कीरइ । एयमेयत्थं वत्तव्वं ति निच्छिऊण भणियं, जं माणुसमेरिसं महासाहसमायरइ, तस्स सरीरं ससीसवायं कंचणयणालंकारेहिं अलंकिज्जइ । तुटेण भणियं रत्ना, साहु विन्नायं ति, सच्चदंसिणो त्ति रन्ना ते चेव पमाणं कय ति, “यतो वृद्धा नाहितेषु प्रवर्तन्ते, ततो वृद्धानुगेन भवितव्यम्, सोऽप्येवमेवपापेन प्रवर्तते, केन हेतुना ? इत्याह-साङ्गत्यजनिताः गुणाः प्राणिनां स्युः । अत एवोक्तम्-'' 'उत्तमजणसंसग्गी, सीलदरिदं पि "कुणइ सीलड्ढे । जह "मेरुगिरिविलग्गं, 'तणं पिकणयत्तण मुवेइ ।। 185।। . धर्मरत्नप्रकरणे । संस्कृत अनुवाद निश्चित्य भणितम् , यो मनुष्य ईदृशं महासाहसमाचरति, तस्य शरीरं सशीर्षपादं काञ्चनरत्नालङ्कारैरलडिक्रयते । तुष्टेन भणितं राज्ञा , साधु विज्ञातमिति, सत्यदर्शिन इति राज्ञा ते चैव प्रमाणं कृता इति, यतो वृद्धा नाऽहितेषु प्रवर्तन्ते, ततो वृद्धानुगेन भवितव्यम् सोऽप्येवमेव पापे न प्रवर्तते, केन हेतुना ?, इत्याह-साङ्गत्यजनिता गुणाः प्राणिनां स्युः । अत एवोक्तम् उत्तमजनसंसर्गी शीलदरिद्रमपि शीलाढ्यं करोति । यथा मेरुगिरिविलग्नं, तृणमपि कनकत्वमुपैति ।।185।। हिन्दी अनुवाद यहाँ यह बताना चाहिए । इस प्रकार निश्चय करके (राजा को) कहा- जो मनुष्य इतना बड़ा साहस करता है, उसका शरीर चरण से मस्तकपर्यन्त सुवर्णरत्न के अलंकारों से अलंकृत करना चाहिए । सन्तुष्ट होकर राजा ने कहा, तुमने अच्छा जाना, तुम सत्यदर्शी (सत्य को देखनेवाले) हो, इसलिए राजा ने २०१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनको (वृद्ध पुरुषों को ) ही मान्य किया । क्योंकि “वृद्धपुरुष कभी अहित में प्रवृत्ति नहीं करते हैं । अतः वृद्धों का अनुसरण करना चाहिए; वृद्धों का अनुसरण करनेवाले भी पाप में प्रवृत्ति नहीं करते हैं । किस कारण ? तो कहते हैं - जीवों को सहवास से गुण उत्पन्न होते हैं । अतः कहा है - उत्तम पुरुष का समागम करनेवाले शील-सदाचार से हीन हो तो भी शीलवान बनते हैं, जैसे मेरुपर्वत पर लगा हुआ तृण भी सुवर्णत्व को प्राप्त करता है । (185) २०२ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15) विणओ सव्वगुणाणं मूलं प्राकृत मगहमंडलमंडणभूओ धणधन्नसमिद्धो सालिग्गामो नाम गामो । तत्थ पुप्फसालगाहावई (तस्स य) फलसालो नाम पुत्तो अहेसि । पयइभद्दओ पयइविणीओ पलोगभीरु य । तेण धम्मसत्थपाढयाओ सुयं । जो उत्तमेसु विणयं पउंजइ सो जम्मंतरे उत्तमुत्तमो होइ । तओ सोममेसजणओ उत्तमो त्ति सव्वायरेण तस्सविणए पवत्तो । अन्नया दिट्ठो जणओ गामसामिस्स विणयं पउंजंतो । तओ एत्तो वि इमो उत्तमो त्ति जणयमापुच्छिऊणं पवत्तो गामसामिमोलग्गिउं । कयाइ तेण सद्धिं गओ रायगिहं । तत्थ गामाहिवं महंतस्स पणामाइ कुणमाणमालोइऊणइमाओ वि एस पहाणो त्ति ओलग्गिओ (15) विनयः सर्वगुणानां मूलम् संस्कृत अनुवाद मगधमण्डलमण्डनभूतो धनधान्यसमृद्ध: शालिग्रामो नाम ग्रामः । तत्र पुष्पशालगृहपतिः, (तस्य च) फलशालो नाम पुत्र आसीत् । प्रकृतिभद्रक: प्रकृतिविनीतः परलोकभीरुश्च । तेन धर्मशास्त्रपाठकाच्छ्रुतम् । य उत्तमेषु विनयं प्रयुङ्क्ते स जन्मान्तरे उत्तमोत्तमो भवति । ततः स ममैष जनक उत्तम इति सर्वाऽऽदरेण तस्य विनये प्रवृत्तः । अन्यदा दृष्टो जनको ग्रामस्वामिनो विनयं प्रयुञ्जानः । तत एतस्मादप्ययमुत्तम इति जनकमापृच्छय प्रवृत्तो ग्रामस्वामिनमवलगितुम् । कदापि तेन सार्द्धं गतो राजगृहम् । तत्र ग्रामाधिपं महतः प्रणामादि कुर्वन्तमालोक्याऽस्मादप्येष प्रधान इत्यवलगितो महन्तम् । तमपि श्रेणिकस्य हिन्दी अनुवाद मगधदेश के आभूषण समान, धन-धान्य से समृद्ध शालिग्राम नामक गाँव था । वहाँ पुष्पशाल नाम का गृहस्थ और उसका फलशाल नाम का पुत्र था । स्वभाव से भद्रिक, विनयशील और परलोक से भयभीत था । उसने किसी धर्मशास्त्र पाठक के पास सुना कि-जो बड़ों का विनय करता है, वह भवांतर में श्रेष्ठ बनता है । अतः मेरे ये पिताजी बड़े हैं इसलिए संपूर्ण आदरपूर्वक उनके विनय में प्रवृत्त हुआ । एक बार गाँव के मुखी का विनय करते पिताजी को देखा, इसलिए इनसे (पिताजी से) भी यह (मुखी) श्रेष्ठ है, पिताजी को पूछकर गाँव के रू - -२०३ Hश्री Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखी की सेवा करने लगा । एक बार उनके (मुखी के) साथ राजगृही नगरी में गया, वहाँ गाँव के मुखी को नगर के मुख्यमंत्री श्रेष्ठी को नमस्कार आदि करते देखकर इनसे (मुखी से) भी ये (मंत्री आदि) बड़े हैं अतः मंत्री आदि की सेवा करने लगा। प्राकृत · महंतयं । तं पि सेणियस्स विणयपरायणमवलोइऊण सेणियमोलग्गिउमारद्धो, अन्नया तत्थ भगवंवद्धमाणसामी समोसढो । सेणिओ सबलवाहणो वंदिउं निग्गओ । तओ फलसालो भगवंतंसमोसरणलच्छीए समाइच्छियं नियच्छंतो पविम्हिओ । नूणमेस सव्वुत्तमो जो एवं नरिंदविंददाणविंदेहिं वंदिज्जइ, ता अलमन्नेहिं । एयस्स चेव विणयं करेमि । तओ अवसरं पाविऊण खग्गखेडमकसे चलणेसुनिवडिऊण विन्नविउंपवत्तो । भयवं! अणुजाणह, अहं भेओलग्गामि । भगवया भणियं, भद्द ! नाहं खग्गफलगहत्थेहिं ओलग्गिज्जामि, किंतु रओहरणमुहपोत्तियापाणीहिं । जहा एए अन्ने ओलग्गंति । तेण भणियं जहा तुब्बे आणवेह तहेवोलग्गामि । तओ जोग्गो त्ति भगवया पव्वाविओ, सुगइं च पाविओ। एवं विणीओ धम्मारिहो होइ त्ति ।। धर्मरत्नप्रकरणे । संस्कृत अनुवाद विनयपरायणमवलोक्य श्रेणिकमवलगितुमारब्धः, अन्यदा तत्र भगवान् वर्द्धमानस्वामी समवसृतः । श्रेणिकः सबलवाहनो वन्दितुं निर्गतः । ततः फलशालो भगवन्तं समवसरणलक्ष्या समागतं पश्यन् प्रविस्मितः । नूनमेष सर्वोत्तमो य एवं नरेन्द्रवृन्ददानवेन्द्रैर्वन्द्यते, ततोऽलमन्यैः । एतस्यैव विनयं करोमि । ततोऽवसरं प्राप्य खड्गखेटककरश्चरणयोर्निपत्य विज्ञपयितुं प्रवृत्तः, भगवन् ! अनुजानीहि, अहं युष्मान् अवलगामि । भगवता भणितम्-भद्र !, नाऽहं खड्गफलकहस्तैरवलग्ये, किं तु रजोहरणमुखपोतिका हिन्दी अनुवाद उनको (मंत्री आदि को) भी महाराजा श्रेणिक की सेवा में तत्पर देखकर श्रेणिक महाराजा की सेवा प्रारम्भ की । एक बार वहाँ भगवान वर्द्धमानस्वामी समवसरे (=पधारे) । श्रेणिक महाराजा सैन्य और वाहनसहित वंदन करने निकले। अतः फलशाल समवसरण की समृद्धि से सुशोभित प्रभु को देखते आश्चर्यचकित हुआ । सचमुच येही सर्वश्रेष्ठ हैं, जो इस प्रकार राजाओं के समूह तथा दानवेन्द्र २०४ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से वंदित हैं अतः दूसरों से पर्याप्त इनका (प्रभु का) ही विनय करूँ । अतः अवसर देखकर तलवार, ढाल हाथ में लेकर प्रभु के चरणों में गिरकर = झुककर विनंति करने लगा । भगवन् ! आप अनुमति प्रदान करो । मैं आपकी सेवा करूँ । प्रभु ने कहा, हे भद्र ! तलवार आदि हाथ में रखकर मेरी सेवा नहीं होती है, परन्तु रजोहरण, मुखवस्त्रिका = मुहपत्ति हाथ में रखकर जैसे ये अन्य सेवा करते हैं | उसने कहा, जैसी आप आज्ञा करोगे वैसे सेवा करूंगा | तत्पश्चात् "योग्य है' इसलिए प्रभु ने संयम प्रदान किया और सद्गति पाया । इस प्रकार विनयशील धर्म के योग्य बनता है । -२०५ २०५ === Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) कुमारवालभूवालस्स जीवहिंसाइचाओ प्राकृत 'इय जीवदयारूवं, धम्म 'सोऊण तुट्ठचित्तेण । रिन्ना भणियं मुणिनाह ।, "साहिओ सोहणो 10 धम्मो ।। 186।। 'एसो मे अभिरुइओ, एसो चित्तंमि मज्झ 'विणिविट्ठो एसोच्चिय परमत्थेण"घडए 1 जुत्तीहिं 13न हुसेसो ।।187।। मन्नंति इमं 'सव्वे, 'ज'उत्तमअसणवसणपमुहेसु । "दिनेसु उत्तमाइं, इमाइं "लब्भन्ति प्रलोए ।।188।। 'एवं सुहदुक्खेसु, कीरतेसुपरस्स इह लोए 'ताई चिय परलोए, 1 लब्भंति अणंतगुणियाइं ।।189।। 'जो 'कुणइनरो हिंसं, परस्स'जो जणइ 'जीवियविणासं । 10विरएइ 'सोक्खविरह, 12संपाडइ "संपयाभंसं ।।190।। (16) कुमारपालभूपालस्य जीवहिंसादित्यागः संस्कृत अनुवाद पाणिभिर्यथैतेऽन्येऽवलगन्ति । तेन भणितं यथा यूयमाज्ञापयत तथैवावलगामि । ततो योग्य इति भगवता प्राब्राजितः, सुगतिं च प्राप्तः । एवं विनीतो धर्मा) भवतीति । इति जीवदयारूपं धर्मं श्रुत्वा तुष्टचित्तेन, राज्ञा भणितम्-मुनिनाथ ! शोभनो धर्मः शासितः ।।186।। एष मेऽभिरुचितः, एष मम चित्ते विनिविष्टः । एष एव परमार्थेन युक्तिभिर्घटते खलु शेषो न ||187।। सर्वे इदं मन्यन्ते, यदुत्तमाऽशनवसनप्रमुखेषु । दत्तेषु परलोके इमान्युत्तमानि लभन्ते ||188।। __एवमिह लोके परस्य सुखदुःखेषु क्रियमाणेषु । तान्येव परलोकेऽनन्तगुणितानि लभ्यन्ते ।।189।। यो नरो हिंसां करोति, यः परस्य जीवितविनाशं जनयति । सौख्यविरहं विरचयति, सम्पदाभंशं सम्पादयति ||19011 हिन्दी अनुवाद श्री हेमचन्द्राचार्य के पास धर्म सुनने के बाद श्रीकुमारपाल महाराजा जीवहिंसादिक का त्याग करते हैं -२०६ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जीवदयारूप धर्म को सुनकर संतुष्ट मनवाले राजा कुमारपाल ने कहा- हे मुनीश्वर ! आपने सुंदर धर्म कहा । (186) यह धर्म मुझे बहुत पसन्द आया, यह मेरे मन में उतर गया, यही धर्म परमार्थ से युक्तिपूर्वक घटता है, अन्य कोई धर्म नहीं | ( 187 ) सभी यही मानते हैं कि जो श्रेष्ठ भोजन - वसति आदि दूसरों को दी जाती है, भवांतर में वही उत्तम - (सुंदर) मिलते हैं । (188) इस प्रकार इस भव में दूसरों को सुख या दुःख देता है, वही सुख या दुःख भवांतर में अनंत गुणा मिलता है । (189) जो मनुष्य हिंसा करता है और जो दूसरों के जीवन का विनाश करता है, उसके सुख का नाश होता है और संपत्ति का भी विनाश होता है । (190) प्राकृत 'सो' एवं ' कुणमाणो, 'परलोए "पावए 'परेहिंतो । 'बहुसो 7 जीवियनासं, 'सुहविगमं 'संपओच्छेयं । । 191 ।। 1जं 2 उप्पइ 'तं 'लब्भइ, 'पभूयतरमत्थ' 'नत्थि संदेहो । 10वविएस 'कोद्दवेसुं, 12 लब्धंति हि "कोद्दवा चेव ।।192 ।। 'जो 'उण 'न 'हणइ जीवे, 'तो 'तेसि 'जीवियं 'सुहं "विभवं । 11 न 12 हणइ तत्तो 14 तस्स वि, 15तं 18 19हणइ 16 को वि 17 परलोए ।।193 ।। 'ता 2 भद्देण व 'नूनं, कयाणु'कंपा 'मए वि 'पुव्वभवे । 'जं 10 लंघिऊण 'वसणाइं, 12 रज्जलच्छी 11 इमा लद्धा ।।194।। संस्कृत अनुवाद स एवं कुर्वन्, परलोके परेभ्यः, बहुशो जीवितनाशं, सुखविगमं सम्पदोच्छेदं प्राप्नोति ||191 || यदुप्यते तत् प्रभूततरं लभ्यते, अत्र सन्देहो नाऽस्ति । कोद्रवेषूप्तेषु हि कोद्रवा एव लभ्यन्ते ||192|| यः पुनर्जीवान् न हन्ति, ततस्तेषां जीवितं सुखं विभवम् । न हन्ति ततस्तस्याऽपि तं कोऽपि परलोके न हन्ति ||193।। ततो भद्रेणेव मयाऽपि नूनं पूर्वभवेऽनुकम्पा कृता । यद् व्यसनानि लङ्घित्वेयं राज्यलक्ष्मीर्लब्धा ||194|| हिन्दी अनुवाद वह इस प्रकार ( जीवहिंसा) करते भवांतर में दूसरों द्वारा बहुत बार जीवन का विनाश, सुख का विरह और संपत्ति का उच्छेद पाता है । (191) २०७ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो वपन करते हैं, वही प्रभूततर (अत्यधिक) मिलता है, इसमें संदेह नहीं है, सचमुच कोद्रव वपन करने पर, कोद्रव ही मिलते हैं । (192) जो जीवों का नाश नहीं करता है, वह उन जीवों के जीवित सुख और वैभव का भी नाश नहीं करता है, अतः कोई भी उसके जीवितादि का परलोक में नाश नहीं करता है । (193) अतः भद्र ऐसे मेरे द्वारा पूर्वभव में निश्चय अनुकंपा की गई होगी इसलिए संकटों को दूर करके यह राज्यलक्ष्मी मुझे प्राप्त हुई है । (194) प्राकृत तासंपइ जीवदया, जावज्जीवं 'मए "विहेयव्वा । 'मंसं न भक्खियव्वं, "परिहरियव्वा य पारद्धी ।।195।। 'जो देवयाण पुरओ,'कीरइ आरुग्गसंतिकम्मकए । __ पसुमहिसाणविणासो, 10निवारियव्वो "मए सो वि ।।196।। बालो विमुणइ एवं, 'जीववहेणं'लब्भइन 'सग्गो। किं पन्नगमुहकुहराओ, "होइ 10पीऊसरसवुट्ठी ।।197।। 'तो गुरुणा वागरियं, 'नरिंद ! 'तुह 'धम्मबंधुरा बुद्धी । सव्वुत्तमो विवेगो, 10अणुत्तरं तत्तदंसित्तं ।।198।। संस्कृत अनुवाद ततः सम्प्रति यावज्जीवं जीवदया मया विधातव्या । मांसं न भक्षितव्यं, पापर्द्धिश्च परिहर्तव्या ||195।। यो देवतानां पुरत आरोग्यशान्तिकर्मकृते , पशुमहिषाणां विनाशः क्रियते, सोऽपि मया निवारयितव्यः ||196।। बालोऽप्येवं जानाति-जीववधेन स्वर्गो न लभ्यते । किं पन्नगमुखकुहरात् पीयूषरसवृष्टिर्भवति ? ||197।। ततो गुरुणा व्याकृतम्, नरेन्द्र । तव बुद्धिर्धर्मबन्धुरा । । सर्वोत्तमो विवेकः, अनुत्तरं तत्त्वदर्शित्वम् ||198।। हिन्दी अनुवाद अतः अब मुझे यावज्जीव जीवदया का पालन करना, मांस नहीं खाना और शिकार का भी त्याग करना चाहिए (अर्थात् त्याग करता हूँ) । (195) देवों के सम्मुख आरोग्य और शांतिकार्य हेतु जो पशुओं और महिषों (भैंसों) का वध किया जाता है, वह भी मुझे अवश्य रोकना है । (196) २०८ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक भी यह तो जानता है कि-जीवहिंसा करने से स्वर्गप्राप्ति नहीं होती है, क्या सर्प के मुखरूपी गुफा में से कभी अमृतरस की वृष्टि होती है ? (197) ... तत्पश्चात् गुरु भगवंत ने कहा, हे राजन् ! तुम्हारी बुद्धि धर्ममय है, विवेक सर्वोत्तम है और तत्त्वदर्शित्व भी अनुपम है । (198) प्राकृत 'जंजीवदयारम्मे, 'धम्मे कल्लाणजणणकयकम्मे । 'सग्गापवग्गपुरमग्ग-दंसणे 'तुह 'मणं लीणं ।।199।। तओ रन्ना रायाएसपेसणेण सव्वगामनगरेसु अमारिघोसणा-पडहवायणपुव्वं पवत्तिया जीवदया। गुरुणा भणिओ राया, महाराय ! दुप्पच्च्या पाएण मंसगिद्धी । धन्नो तुमं भायणं सकलकल्लाणाणं जेण कया मंसनिवित्ती । संपयं मज्जवसणदोसे सुणसु ___ संस्कृत अनुवाद यज्जीवदयारम्ये, कल्याणजननकृतकर्मणि । स्वर्गाऽपवर्गपुरमार्गदर्शने धर्मे तव मनो लीनम् ।।199।। ततो राज्ञा राजादेशप्रेषणेन सर्वग्रामनगरेष्वमारिघोषणापटहवादनपूर्वं प्रवर्तिता जीवदया । गुरुणा भणितो राजा, महाराज ! प्रायेण मांसगृद्धिर्दुष्प्रत्यजा । धन्यस्त्वम्, सकलकल्याणानां भाजनम्, येन मांसनिवृत्तिः कृता । हिन्दी अनुवाद जीवदया द्वारा मनोहर, कल्याणकारी उत्तम कार्य, स्वर्ग और अपवर्गरूपी नगर के मार्ग को बतानेवाले धर्म में तुम्हारा मन लीन बना है । (199) अतः राजा (कुमारपाल) ने राज आदेश = फरमान भेजकर प्रत्येक गाँव और नगर में अमारिघोषणा पटह वादनपूर्वक जीवदया प्रवाई, जीवदया का पालन करवाया । गुरु भ. ने राजा को कहा, हे राजेश्वर ! प्रायः मांस के प्रति आसक्ति मुश्किल से छूटती है। DI - २०९ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हें धन्य है, तुम सकल कल्याण के पात्र हो, अतः (तुमने) मांस का त्याग किया । प्राकृत साम्प्रतं मद्यव्यसनदोषाञ्शृणुअनच्चइ गायइ 'पहसइ, पणमइ 'परिभमइ मुयइ वत्थं पि । 1"तूसइ "रूसइ निक्कारणं पि 'मइरामउम्मत्तो ।।200।। ___जणणि पि पिययम, पिययमं पि'जणणिं जणो विभावन्तो । _ 'मइरामएणमत्तो, गम्मागम्मं 1°न "याणेइ ।।201।। न हुअप्पपरविसेसं, 'वियाणए 'मज्जपाणमूढमणो । 'बहु'मन्नइ अप्पाणं, पहुं पि निब्भत्थए जेण ।।202।। “वयणे पसारिए 'साणया, विवरब्भमेण मुत्तंति । पहपडियस्स 'सवस्स व, “दुरप्पणो मज्जमत्तस्स ।।203।। . संस्कृत अनुवाद मदिरामदोन्मत्तो निष्कारणमपि, नृत्यति, गायति, प्रहसति , प्रणमति, परिभ्राम्यति , वस्त्रमपि मुञ्चति , तुष्यति, रुष्यति ||200।। मदिरामदेन, मत्तो जनो जननीमपि प्रियतमां, प्रियतमामपि जननीं विभावयन् गम्याऽगम्यां न जानाति ||201।। मद्यपानमूढमना आत्मपरविशेषं न खलु विजानाति । आत्मानं बहु 'मन्यते, येन प्रभुमपि निर्भर्त्सयेत् ।।202।। शवस्येव पथिपतितस्य, मद्यमत्तस्य दुरात्मनः । ... प्रसारिते वदने श्वानः विवरभ्रमेण मूत्रयन्ति ।।203।। हिन्दी अनुवाद अब मद्यपान के व्यसन से होनेवाले दोष सुनो मदिरापान से मदोन्मत्त बना व्यक्ति निष्कारण भी नृत्य करता है, गाता है, खड़खड़ाह हँसता है, प्रणाम करता है, भटकता है, कपडा फेंकता है, आनंदित होता है और गुस्सा करता है 1 (200) मदिरा के मद से उन्मत्त मानव माता को भी पत्नी, पत्नी को माता स्वरूप मान लेता है, गम्य या अगम्य उसके पास जा सके या नहीं-वह भी नहीं जानता है । (201) २१० Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरापान से मूढ़ मनवाला अपने अथवा पराये के भेद को नहीं जानता है, स्वयं को समर्थ मानता है अतः सेठ का भी तिरस्कार करता है । (202) शव की तरह रास्ते में पड़े, मदिरा से उन्मत्त दुष्ट पुरुष के खुले मुँह में कुत्ते भी विवर समझकर पेशाब कर लेते हैं । (203) प्राकृत धम्मत्थकामविग्धं, विहणियमइकित्तिकंतिमज्जायं । मज्जं 'सव्वेसि पि हु, 'भवणं दोसाण किं बहुणा? ।।204 ।। 'जंजायवा ससयणा, 'सपरियणा सविहवा सनयरा य । 'निच्चं सुरापसत्ता, खयं गया "तं 12जए उपयडं ।।205।। एवं 'नरिंद ! जाओ, मज्जाओ जायवाण'सव्वखओ । 'तारन्ना 'नियरज्जे, 1"मज्जपवित्ती वि "पडिसिद्धा ।।206।। कुमारपालप्रतिबोधे संस्कृत अनुवाद धर्मार्थकामविघ्नं, विहंतमतिकीर्तिकान्तिमर्यादाम् । किं बहुना ? सर्वेषामपि दोषाणां भवनं खलु मद्यम् ।।204।। यद् यादवाः सस्वजनाः, सपरिजनाः सविभवाः सनगराश्च । नित्यं सुराप्रसक्ताः क्षयं गताः, तज्जगति प्रकटम् ||205।। नरेन्द्र ! एवं मद्याज्जादवानां सर्वक्षयो जातः । ततो राज्ञा निजराज्ये, मद्यप्रवृत्तिरपि प्रतिषिद्धा ||206।। हिन्दी अनुवाद धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ में विघ्नरूप, बुद्धि, कीर्ति और कांति की सीमा को नष्ट करनेवाला है । अधिक क्या कहना ? सचमुच सभी दोषों का उत्पत्तिस्थान मद्य ही है । (204) जो यादव स्वजन, परिजन, वैभव और नगरों के साथ हमेशा मदिरा में मशगूल = आसक्त रहने से नष्ट हुए, वे जगत् में प्रसिद्ध ही हैं । (205) हे नरपति ! इस प्रकार मदिरा से यादवों का सर्वनाश हुआ, अतः राजा ने भी अपने राज्य में मदिरा की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध करवाया । (206) -२११ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) पाइअसुभासिअपज्जाणि प्राकृत अन वि 'मुंडिएण समणो, न ओंकारेण 'बम्भणो । 'न मुणी 'रण्णवासेण, "कुसचीरेण 12न "तावसो ||207|| 'समयाए 'समणो होइ, 'बम्भचेरेण बंभणो । नाणेण य'मुणी होइ, 'तवेणं 'होइ तावसो ||208 ।। कम्मुणा बम्भणो होइ, 'कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइसो 'कम्मुणा होइ, "सुद्दो हवइ कम्मुणा ||209 ।। धम्मो- (धर्मः) जत्थ य विसयविरागो, कसायचाओ 'गुणेसु अणुराओ | किरियासु 'अप्पमाओ, 'सो धम्मो "सिवसुहोवाओ | 210।। (17) प्राकृतसुभाषितपद्यानि संस्कृत अनुवाद मुण्डितेन श्रमणो नाऽपि, ओङ्कारेण ब्राह्मणो न ।' अरण्यवासेन मुनिर्न, कुशचीरेण तापसो न ||207।। समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मण: । ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा तापसो भवति ।।208।। कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा क्षत्रियो भवति । कर्मणा वैश्यो भवति, कर्मणा शूद्रो भवति ||209।। . यत्र च विषयविरागः, कषायत्यागो गुणेष्वनुरागः । क्रियास्वप्रमादः, स धर्म: शिवसुखोपायः ||21011 हिन्दी अनुवाद मुंडन कराने से साधु नहीं बना जाता है, ओंकार के रटण से ब्राह्मण नहीं बना जाता है, जंगल में रहने मात्र से मुनि नहीं बना जाता है और घास के वस्त्र धारण करने से तापस नहीं बना जाता है । (207) समता धारण करने से साधु बना जाता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण बनते हैं, ज्ञान से मुनि बनते हैं और तपश्चर्या से तापस बनते हैं । (208) २१२ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों से ब्राह्मण होते हैं, कर्म से ही क्षत्रिय बनते हैं, कर्म से ही वैश्य होते हैं और कर्म से ही शूद्र होते हैं (मात्र जन्म से नहीं) । (209) जहाँ विषयों के प्रति विरक्ति है, कषायों का त्याग है, गुणों के प्रति अनुराग है और क्रिया में अप्रमत्तभाव है वह धर्म ही मोक्षसुख का कारण है । (210) प्राकृत जाएण 'जीवलोगे, 'दो चेव नरेण सिक्खियव्वाइं । 'कम्मेण जेण जीवइ, 'जेण "मओ "सुग्गइं 12जाइ ।।211 ।। 'धम्मेण कुलप्पसूई, धम्मेण य 'दिव्वरूवसंपत्ती । 5धम्मेण धणसमिद्धी, 'धम्मेण सवित्थरा कीत्ती ।।212।। मा सुअह 'जग्गिअव्वे, 'पलाइअव्वंमि'कीसवीसमह । 1°तिन्नि "जणा 12अणुलग्गा, 'रोगो अजा यमच्चू अ ।।213।। 'सग्गो ताण घरंगणे सहयरा, सव्वा "सुहा 12संपया । 13सोहग्गाइगुणावली 16विरयए 14सव्वंगमालिंगणं ।। 17संसारो न दुरुत्तरो 2 सिवसुहं, 22पत्तं 2 करंभोरुहे। 'जे सम्म जिणधम्मकम्मकरणे, वटुंति उद्धारया ।।214।। . संस्कृत अनुवाद जीवलोके जातेन नरेण द्वे चैव शिक्षितव्ये । येन कर्मणा जीवति, येन मृतः सुगतिं याति ।।211 ।। धर्मेण कुलप्रसूतिः, धर्मेण च दिव्यरूपसम्प्राप्तिः । धर्मेण धनसमृद्धिः, धर्मेण सविस्तरा कीर्तिः ।।212।। जागरितव्ये मा स्वपित, पलायितव्ये कस्माद् विश्राम्यत ? | रोगो जरा मृत्युश्च-त्रयो जना अनुलग्नाः ||213|| ये उद्धारका : जिनधर्मकर्मकरणे सम्यग् वर्तन्ते, तेषां स्वर्गो गृहाङ्गणे, सर्वे सहचराः, शुभाः सम्पदः । सौभाग्यादिगुणावलिः सर्वाङ्गमालिङ्गनं विरचयति; संसारो दुरुत्तरो न, शिवसुखं कराम्भोरुहे प्राप्तम् ।।214।। हिन्दी अनुवाद जगत् में जन्मे हुए मनुष्य को दो बात सीखनेलायक है, एक = स्वयं कर्म से जीता है और दूसरी बात - कर्म के अनुसार सद्गति में जाता है । (211) -२१३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म से उत्तम कुल में जन्म होता है, धर्म से ही अनुपम रूप की प्राप्ति होती है, धर्म से धन की समृद्धि मिलती है और धर्म से ही कीर्ति फैलती है । (212) जागने योग्य स्थान में तुम सोते न रहो और चलने योग्य स्थान में क्यों बैठे हो ? क्योंकि व्याधि, वृद्धावस्था और मृत्यु ये तीनों तुम्हारा पीछा कर रहे हैं • 1 (213) ___ जो आत्मिक उद्धार करनेवाले जिनेश्वर के धर्मकार्य करने में अच्छी तरह प्रयत्नशील होते हैं, स्वर्ग उनके गृहांगण में ही है, हरतरह की सुखसंपत्ति सहचरी है, सौभाग्य आदि गुणों की परंपरा = श्रेणी उनके संपूर्ण शरीर में आलिंगन करती है, संसार से पार उतरना उनके लिए दुष्कर नहीं है और मोक्षसुख भी उनके करकमलों में ही है । (214) दाणं प्राकृत 12नो तेसिं 1 कुवियं व दुक्खमखिलं, 13आलोयए"सम्मुहं, 19नो 20मिल्लेइ 18घरं 14कमंकवडिया, 16दासिव्व "तेसिंसिरी । 20सोहग्गाइगुणा 25चयंति 24-21गुणा-ऽऽबद्धव्व 22तेसिं23तणुं, 'जे दाणंमि समीहियत्थजणणे, कुव्वंति 'जत्तंजणा ।।215।। 'ववसायफलं विहवो, विहवस्स 'फलं सुपत्तविणिओगो । तयभावे 'ववसाओ, विहवो वि अदुग्गइनिमित्तं ।।216।। __ दानम् संस्कृत अनुवाद ये जनाः समीहितार्थजनने दाने यत्नं कुर्वन्ति, अखिलं दुःखं तेषां सम्मुखं कुपितमिव नाऽऽलोकते । क्रमाङ्कपतिता श्री सीव तेषां गृहं न मेलयति, सौभाग्यादिगुणा गुणाऽऽबद्धा इव तेषां तनुं न त्यजन्ति ।।215।। व्यवसायफलं विभवः, विभवस्य फलं सुपात्रविनियोगः । तदभावे व्यवसायो विभवोऽपि च दुर्गतिनिमित्तम् ।।216।। हिन्दी अनुवाद जो लोग मनोवांछित पदार्थों को देनेवाला दान देने में प्रयत्न करते हैं, उनके सामने सभी दुःख, क्रोधित व्यक्ति की तरह देखते भी नहीं है, चरणकमल २१४ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आयी लक्ष्मी दासी की तरह उनका घर नहीं छोड़ती है और सौभाग्य आदि गुण भी मानों रस्सी से बंधेन हों, उस तरह उनके शरीर को छोड़ते नहीं हैं । (215) व्यापार का फल वैभव है और वैभव का फल सुपात्रदान है, उसके= सुपात्रदान बिना व्यापार और वैभव दोनों दुर्गति के कारण स्वरूप हैं । (216) लच्छी-प्राकृत विगुणमवि गुणड्ड, 'रूवहीणं पिरम्म, 1"जडमवि 12मइमंतं 13मंदसत्तं पि4सूरं । 15अकुलमविकुलीणं'तं"पयंपंतिलोया, 'नवकमलदलच्छी जं 'पलोएइ लच्छी ।।217।। 'जाई रूवं विज्जा, “तिण्णि वि 'निवडंतु कंदरे विवरे । अत्थु पच्चिअपरिवड्ढउ, "जेण 12गुणा 13पायडा 14हुंति ।।218।। सीलं अलसा होइ 'अकज्जे, 'पाणिवहे पंगुला 'सया 'होइ । परतत्तिसु बहिरा, जच्चंघा 1 प्रकलत्तेसु ।।219।। . लक्ष्मी:संस्कृत अनुवाद नवकमलदलाक्षी लक्ष्मीर्यं प्रलोकयति , तं लोका विग्णमपि गुणाढ्यं , रूपहीनमपि रम्यं , जडमपि मतिमन्तं, मन्दसत्त्वमपि शूरं, अकुलमपि कुलीनं प्रजल्पन्ति ||217।। जाती रूपं विद्यास्त्रीण्यपि कन्दरे विवरे निपतन्तु । अर्थ एव परिवर्धताम् , येन गुणाः प्रकटा भवन्ति ।।218।। शीलम् अकार्येऽलसा भवन्ति, प्राणिवधे सदा पङ्गुला भवन्ति । परनिन्दासु बधिराः, परकलत्रेषु जात्यन्धाः (भवन्तु) 11219।। हिन्दी अनुवाद नये कमलदलसमान नेत्रोंवाली लक्ष्मी जिस व्यक्ति पर नजर करती है, ऐसे निर्गुणी (व्यक्ति) को भी लोग गुणवान, कुरूपको भी रूपवान = रमणीय, मूर्ख को भी बुद्धिशाली, मंद सत्त्वशाली को भी शूरवीर और नीचकुल में उत्पन्न व्यक्ति को भी उच्च कुलवाला कहते हैं । (217) -२१५ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति, रूप और विद्या ये तीन गहरे खड्ढे में गिरो, परंतु धन ही वृद्धिंगत बने, जिससे सभी गुण प्रगट होते हैं । अकार्य (दूसरों के दोष देखने) में प्रमादी, जीवहिंसा में सदा खअ लूले (लंगड़े), दूसरों के दोष सुनने में बधिर और परायी स्त्रियों के विषय में जन्मांध बनना चाहिए । (219) प्राकृत जो वज्जइ परदारं. 'सो सेवइ 'नो 'कयाइ पदारं । 'सकलत्ते 1 संतुट्ठो, 13सकलत्तो "सो नरो होइ ।।220।। अवरं 'अग्गिमि पवेसो,'वर विसुद्धण'कम्मणा मरणं । मा 'गहिअव्वयभंगो, "मा जीअंखलिअसीलस्स ।।221 ।। भावो जा 'दव्वे 'होइ मई, अहवा'तरुणीसुरूववंतीसु। सा जइ 10जिणवरधम्मे, "करयलमज्झे 13ठिआ 12सिद्धी ।।222।। तक्कविहूणो विज्जो, 'लक्खणहीणो अपंडिओ 'लोए । भावविहूणो' धम्मो, तिन्नि विनूणं 1 हसिज्जंति ।।223।। 18 वंझं 19बिंति 'जहित्थ सत्थपढणं, अत्थावबोहं विणा, 6सोहग्गेण विणा मडप्पकरणं, "दाणं विणा संभमं । 12सब्भावेण विणा 14पुरंधिरमणं, 15नेहं 16विणा17 भोयणं, _20एवं 25धम्मसमुज्जमं पि21विबुहा, 22सुद्धं 24विणा 23भावणं ।।224।। संस्कृत अनुवाद यो वर्जति परद्वारम् , स कदापि परदारा न सेवते । स्वकलत्रे सन्तुष्टः, स नरः सकलत्रो भवति ||220|| अग्नौ प्रवेशो वरम्, विशुद्धेन कर्मणा मरणं वरम् । मा गृहीतव्रतभङ्गः, भावः मा स्खलितशीलस्य जीवितम् ||221|| या द्रव्ये मतिर्भवति, अथवा रूपवतीषु तरुणीषु । सा यदि जिनवरधर्मे, सिद्धिः करतलमध्ये स्थिता ।।222|| लोके तर्कविहीनो विद्वान्, लक्षणहीनश्च पण्डितः । भावविहीनो धर्मः, त्रयोऽपि नूनं हस्यन्ते ।।223।। ॐ २१६ - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथेहाऽर्थावबोधं विना शास्त्रपठनम् , सौभाग्येन विनाऽहङ्कारकरणम् ; सम्भ्रमं विना दानं, सद्भावेन विना पुरन्ध्रीरमणं, स्नेहं विना भोजनं, एवं विबुधाः शुद्धां भावनां विना धर्मसमुद्यममपि(वन्ध्यं) ब्रवीन्ति ||224|| हिन्दी अनुवाद जो व्यक्ति दूसरों के गृहद्वार = घर के दरवाजे छोड़ता है वह कभी भी परस्त्री का सेवन नहीं करता है, जो स्वस्त्री में संतुष्ट है वह मानव सबका रक्षक है । (220) ___ आग में गिर जाना श्रेष्ठ है, निर्मल-उत्तम कार्य द्वारा मरना उत्तम है, परन्तु ग्रहण किये हुए व्रत का भंग अथवा स्खलित शीलवान व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ नहीं है । (221) धन के प्रति अथवा स्वरूपवान स्त्रियों के प्रति जो बुद्धि है, वह बुद्धि यदि जिनेश्वर के धर्म में हो तो सिद्धि = (मोक्ष) हथेली में ही रही हुई है । (222) जगत् में तर्करहित विद्वान्, व्याकरण नहीं जाननेवाला पंडित और भाव रहित धर्म-ये तीन सचमुच हँसी के पात्र बनते हैं । (223) ____ जैसे इस जगत में अर्थ के ज्ञान बिना शास्त्र का अभ्यास, सौभाग्य बिना अभिमान करना, आदर बिना दान, सदाव बिना पत्नी के साथ क्रीड़ा, प्रीति बिना भोजन निष्फल है, वैसे ही पण्डित पुरुष शुद्धभावरहित धर्म के उद्यम को भी निष्फल कहते हैं । (224) दया प्राकृत किं 'ताए "पढिआए, पयकोडीएपलालभूआए । जत्थित्ति यं 12 13 नायं, 'प्रस्स पीडान कायव्वा ।।225।। 'इक्कस्स कएनिअजीविअस्स, 'बहुआओ जीवकोडीओ। दुक्खे'ठवंति जे 'केइ, ताणं 12किं सासयंजीअं ।।226।। 'जं आरुग्ग मुदग्गमप्पडिहयं, आणेसरत्तं फुडं, रूवं' अप्पडिरूवमुज्जलतरा, "कित्ती"धणं जुव्वणं । 13दीहं 14आउ 15अवंचणो परिअणो, 18पुत्ता "सुपुण्णासया, 19 20सव्वं 21सचराचरंमि वि22जए, 23नूणं 24दयाए 25फलं ।।227।। -२१७ - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चं 'सच्चेण फुरइ कित्ती, 'सच्चेण 'जणंमि 'होइ वीसासो । "सग्गापवग्गसुहसंपयाउ जायंति सच्चेण ।।228।। दया संस्कृत अनुवाद तया पलालभूतया पदकोट्या पठितया किम् ? | यत्र- 'परस्य पीडा न कर्तव्या' एतावन्न ज्ञातम् ।।225।। एकस्य निजजीवितस्य कृते बहव्यो जीवकोट्यः । ये केऽपि दुःखे स्थापयन्ति, तेषां जीवितं किं शाश्वतम् ? ||226।। यदुदग्रमारोग्यम् , अप्रतिहतं स्फुटमाज्ञेश्वरत्वम् ।। अप्रतिरूपं रूपम्, उज्ज्वलतरा कीर्तिः, धनं, यौवनम् । दीर्घमायुः, अवञ्चनः परिजनः, सुपुण्याऽऽशयाः पुत्राः; तत् सर्वं सचराचरेऽपि जगति सत्यम्, नूनं दयायाः फलम् ।।227।। सत्येन कीर्तिः सत्यम्, सत्येन जने विश्वासो भवति । सत्येन स्वर्गापवर्गसुखसम्पदो जायन्ते ।।228।। दया-हिन्दी अनुवाद वे छिलके जैसे करोड पद पढ़ने से भी क्या ?, कि जिनसे- दूसरों को पीड़ा दुःख नहीं देना चाहिए' इतना भी ज्ञान नहीं मिले । (225) जो एक मात्र अपने जीवन हेतु अनेक करोड़ों जीवों को दुःख देता है, क्या उसका जीवन भी शाश्वत है ? = सदाकाल रहनेवाला है ? | (226) जो सुंदर आरोग्य, जिसका प्रतिकार न किया जा सके वैसी स्पष्ट आज्ञा का स्वामित्व, अनुपम रूप, निर्मलतर कीर्ति, धन, जवानी, दीर्घायु, सरल सेवकवर्ग, पवित्र आशयवाले पुत्र, यह सब इस परिवर्तनशील जगत में मिलता है, सचमुच यह सब दया का ही फल है । (227) सत्य से कीर्ति (फैलती) है, सत्य से लोगों में विश्वास उत्पन्न होता है, सत्य से स्वर्ग और अपवर्ग के सुख की संपत्ति भी मिलती है । (228) प्राकृत पलए विमहापुरिसा, पडिवन् अन्नहानहु कुणंति । गच्छंति न 'दीणयं (खलु), 12कुणंति "नहु 1 पत्थणाभंग ।।229 ।। - २१८ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जेण 'परो 'दूमिज्जइ, 'पाणिवहो होइ 'जेण भणिण । 'अप्पा "पडइ 'अणत्थे, 13न हु 11 तं 14 जंपंति 12 गी अत्था | | 230 11 पुण्णं 2 संगामे 'गयदुग्गमे 'हुयवहे, 'जालावलीसंकुले, "कंतारे ‘करिवग्घसीहविसमे, 'सेले 'बहूवद्दवे । 10 "अंबोहिमि समुल्लसंतलहरी - लंघिज्जमाणंबरे, "सव्वो "पुव्वभवज्जिएहि 12 पुरिसो, “पुन्नेहि पालिज्जए || 231।। संस्कृत अनुवाद प्रलयेऽपि महापुरुषाः, प्रतिपन्नमन्यथा न खलु कुर्वन्ति । दीनतां न गच्छन्ति प्रार्थनाभङ्गं न खलु कुर्वन्ति ||229|| येन परो दूम्यते, येन भणितेन प्राणिवधो भवति । आत्माऽनर्थे पतति, तत् खलु गीतार्था न जल्पन्ति ||230 गजदुर्गमे सङ्ग्रामे ज्वालावलीसङ्कले हुतवहे, करिव्याघ्रसिंहविषमे कान्तारे, बहूपद्रवे शैले । समुल्लसल्लहरीलङ्घ्यमानाऽम्बरेऽम्भोधौ, सर्व: : पुरुष: पूर्वभवाजिर्तैः पुण्यैः पाल्यते || 231 ।। हिन्दी अनुवाद प्रलयकाल में भी महापुरुष स्वीकृत बात को पलटते नहीं हैं, दीनता प्राप्त नहीं करते हैं और किसी की भी प्रार्थना को ठुकराते नहीं हैं अर्थात् मांग पूरी करते हैं । (229) जिस वचन से दूसरों के दिल में परिताप होता है, जिस वचन से जीवहिंसा होती है और स्वयं अनर्थ को प्राप्त करे, वैसे वचन गीतार्थ महापुरुष नहीं बोलते हैं । हाथियों के कारण दुर्गम युद्ध में, ज्वालाओं के समूह से धगधगायमान आग में, हाथी - व्याघ्र और सिंह से विकट जंगल में, अत्यधिक संकटवाले पर्वत पर और मानों आकाश को स्पर्श करती उछलती लहरोंवाले समुद्र में भी प्रत्येक पुरुष पूर्वभव में उपार्जित पुण्य से ही रक्षण किया जाता है । (231) २१९ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणाई-प्राकृत नाणं मोहमहंधयारलहरी-संहारसूरुग्गमो, नाणं 'दिट्ठअदिट्ठइट्ठघडणा-संकप्पकप्पडुमो । नाणं दुज्जयकम्मकुंजघडा - पंचत्तपंचाणणो, नाणं जीवअजीववत्थुविसर- स्सालोयणे "लोयणं ।।232।। 'जहा खरो चंदणभारवाही, 4भारस्स भागी'न हु चंदणस्स । एवं खु"नाणी चरणेण हीणो, 12नाणस्स 13भागी न हु 14सुग्गईए ।।233।। 'सुच्चा जाणइकल्लाणं, 'सुच्चा जाणइ पावगं । उभयं पिजाणइ 'सोच्चा, 10जं "सेयं 12 13समायरे ।।234।। ज्ञानादि संस्कृत अनुवाद ज्ञानं मोहमहान्धकारलहरीसंहारसूर्योद्गमः, ज्ञानं दृष्टाऽदृष्टेष्टघटनासङ्कल्पकल्पद्रुमः । ज्ञानं दुर्जयकर्मकुञ्जरघटापञ्चत्वपञ्चाननः, ज्ञानं जीवाऽजीववस्तुसमूहस्याऽऽलोकने लोचनम् ।।232।। यथा चन्दनभारवाही खरः, भारस्य भागी न खलु चन्दनस्य । एवं खलु चरणेन हीनो ज्ञानी, ज्ञानस्य भागी न खलु सुगते: ।।233।। श्रुत्वा कल्याणं जानाति , श्रुत्वा पापकं जानाति । श्रुत्वोभयमपि जानाति , यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् ।।234।। हिन्दी अनुवाद मोहरूपी अंधकार की परंपरा को दूर करने में ज्ञान सूर्य के उदय समान है, ज्ञान दृष्ट (देखे हुए) या अदृष्ट (नहीं देखे हुए) मनपसंद कार्य के संकल्प हेतु कल्पवृक्ष समान है, ज्ञान दुर्जय कर्मरूपी हाथियों के वृन्द का नाश करने में सिंह समान है और ज्ञान जीव-अजीवादि पदार्थों के समूह को देखने के लिए चक्षुसमान है । (232) जिस प्रकार चंदन के भार को वहन करनेवाला गधा मात्र भार को ही वहन करता है परंतु चंदन की सुगंध ग्रहण नहीं करता है, उसी तरह चारित्ररहित ज्ञानी, मात्र ज्ञान को जानता है परंतु सद्गति प्राप्त नहीं करता है । (233) -२२० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक (जिनवाणी) सुनकर ही अपना श्रेय = संयम जानता है, सुनकर ही पाप को पहिचानता है, सुनकर ही उभय पुण्य और पाप को जानता है, उसके बाद जो श्रेयस्कर लगे उसका आचरण करना चाहिए । (234) प्राकृत 'तं 2 रूवं ' जत्थ 'गुणा, 'तं 'मित्तं 'जं 'निरंतरं 'वसणे । 10 सो 11 अत्थो 12 जो हत्थे, 14तं 15 विन्नाणं " जहिं 17 धम्मो | 1235 ।। पइन्नगगाहा 'तावच्चिअ ' होइ 'सुहं, 'जाव न 'कीरइ 'पिओ 'जणो 'को वि । 11पिअसंगो "जेण 12कओ, "दुक्खाण "समप्पिओ 13 अप्पा ।। 236 ।। 'न हु 'होइ 'सोइअव्वो, 'जो 'कालगओ 'दढं 'समाहीए । 1°सो 12होइ "सोइअव्वो, 'तवसंजमदुब्बलो 'जो उ ।। 237 ।। प्रकीर्णकगाथाः संस्कृत अनुवाद तद् रूपं यत्र गुणाः, तन्मित्रं यद् व्यसने निरन्तरम् । सोऽर्थो यो हस्ते, तद् विज्ञानं यत्र धर्मः ||235|| तावदेव सुखं भवति यावत् कोऽपि जनः प्रियो न क्रियते । येन प्रियसङ्गः कृतः, आत्मा दुःखानां समर्पितः ।।236।। यो दृढं समाधिना कालगतः, न खलु शोचितव्यो भवति । यस्तु तपःसंयमदुर्बलः स शोचितव्यो भवति ||237 || हिन्दी अनुवाद अतः वही रूप है जहाँ गुण रहे हैं, वही मित्र है जो संकट में साथ में रहता है, वही धन है जो अपने हाथ में है और वही सम्यग्ज्ञान है जहाँ धर्म है । (235) तब तक ही सुख है जब तक कोई भी व्यक्ति प्रिय नहीं बनता है, जिसने प्रिय (प्रेम) का संबंध किया, उसने अपनी आत्मा को दुःखो को सौंप दिया है । (236) जिस व्यक्ति ने उत्तम समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की है, वह शोक करने योग्य नहीं हैं, परन्तु जो तप और संयमपालन में दुर्बल है वही वास्तव में शोक करने योग्य है । (237) २२१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत जं चिअ 'विहिणा लिहिअं, 'तं चिअपरिणमइ सयललोअस्स । 'इअजाणिऊण धीरा, विहुरे वि 12न 'कायरा हुंति ।।238।। पत्ते 'वसंतमासे, 'रिद्धि पावंति सयलवणराई । ___ जं'न'करीरे पत्तं, ताकिं 12दोसो 10 वसंतस्स ? ।।239।। उइअंमि 'सहस्सकरे, सलोयणो 'पिच्छइ सयललोओ । जं न 'उलूओ पिच्छइ, 1"सहस्सकिरणस्स'को 12दोसो ? ।।240।। गयणमि गहा सयणमि, 'सुविणया सउणया वणग्गेसु । तह वाहरंति 'पुरिसं, 10जह 12दिटुं"पुव्वकम्मेहिं ।।241 ।। संस्कृत अनुवाद यच्चैव विधिना लिखितं, तच्चैव सकललोकस्य परिणमति । इति ज्ञात्वा धीराः, विधुरेऽपि कातरा न भवन्ति ।।238।। वसन्तमासे प्राप्ते सकलवनराजय ऋद्धिं प्राप्नुवन्ति । यत् करीरे पत्रं न, ततो वसन्तस्य को दोष : ? ||239।। सहस्रकरे उदिते, सलोचनः सकलजनः पश्यति । यदुलूको न पश्यति, सहस्रकिरणस्य को दोषः ? ||240।। गगने ग्रहाः, शयने स्वप्नाः, वनाग्रेषु शकुनाः । तथा पुरुषं व्याहरन्ति, यथा पूर्वकर्मभिर्दृष्टम् ।।241 ।। हिन्दी अनुवाद जोभाग्य में लिखा है, वही प्रत्येक जीव को होता है, यह जानकर धीरपुरुष संकट में भी कायर नहीं बनते हैं । (238) वसंतऋतु आने पर संपूर्ण वनसमूह खिलता है, परन्तु करीर (करील) के पेड़ पर पत्ते नहीं आते हैं, उसमें वसंतऋतु का क्या दोष ? (239) सूर्य का उदय होने पर चक्षुवान सभी लोग देख सकते हैं, परंतु उल्लू देख नहीं सकता है, उसमें सूर्य का क्या दोष ? (240) __ आकाश में सभी ग्रह, नींद में स्वप्न और वन में पक्षी भी पुरुष (मानव) को उस प्रकार अनुकूल या प्रतिकूल बनते हैं, जिस प्रकार पूर्वोपार्जित कर्मों द्वारा होनेवाला हो । (241) ॐॐ २२२ - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कत्थइ जीवो बलवं, 'कत्थइ 'कम्माइं हुंति बलिआई। जीवस्स य'कम्मस्स य, 1"पुव्वनिबद्धाइं "वेराई ।।242।। देवस्स मत्थए पाडिऊण, सव्वं सहति 'कापुरिसा । 'देवो वि ताण संकइ, 1"जेसिंतेओ 12परिप्फुरइ ।।243।। जीअंमरणेण 'समं, 'उप्पज्जइ 'जुव्वणं सह 'जराए । रिद्धी विणाससहिआ, 1 हरिसविसाओ 110 12कायव्वो ।।244।। 'अवगणइ दोसलक्खं, इक्कं मंनेइज'कयं सुकयं । सयणो 'हंससहावो, "पिअइपयं वज्जए 12नीरं ।।245।। संस्कृत अनुवाद क्वापि जीवो बलवान्, कुत्राऽपि कर्माणि बलवन्ति भवन्ति । जीवस्य च कर्मणश्च , पूर्वनिबद्धानि वैराणि ।।242।। देवस्य मस्तके पतित्वा, कापुरुषाः सर्वं सहन्ते । देवोऽपि तेषां शङ्कते, येषां तेजः परिस्फुरति ।।243।। जीवितं मरणेन समम् , यौवनं जरया सहोत्पद्यते । ऋद्धिविनाशसहिता, हर्षविषादौ न कर्तव्यौ ।।244।। हंसस्वभावः सज्जनः दोषलक्षमवगणयति, यत् सुकृतं कृतम्, (तद्) एकं मन्यते, पयः पिबति नीरं वर्जयति ।।245।। हिन्दी अनुवाद कभी आत्मा बलवान होती है, तो कभी कर्म बलवान होता है, सचमुच जीव और कर्म की पूर्वबद्ध वैर जैसी परिस्थिति है । (242) देवता को लक्ष्य बनाकर कायर पुरुष सब सहन करते हैं, परन्तु देव भी उससे सतर्क रहते हैं, जिसका तेज स्फुरायमान है । (243) __ जीवन मृत्यु के साथ और जवानी वृद्धावस्था के साथ ही उत्पन्न होती हैं, समृद्धि भी विनाशसहित है अतः इसमें आनंद या खेद नहीं करना चाहिए । (244) हंस जैसे स्वभाववाला सज्जन, लाखों दोषों की अवगणना करता है, लेकिन जो कोई सत्कार्य किया हो, उस एक को ही देखता है, जैसे हंस दूध पीता है और पानी को छोड़ देता है । (245) 7 -२२३ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'संतगुणकित्तणेण वि, 'पुरिसा 'लज्जंति 'जे 2 महासत्ता । 'इअरा 7 अप्पस्स 'पसंसणेण, हियए 10 11 मायंति ।। 246 ।। 'संतेहिं 2 असंतेहिं अ, परस्स 'किं 'जंपिएहिं 'दोसेहिं । 7 अच्छो 'जसो 'न 10 लब्भइ, 11 सो वि 12 अमित्तो कओ "होइ | | 247 || 'विहलं ±जो 'अवलंबइ, 'आवइपडिअं च 'जो ' समुद्धरई । 7सरणागयं च 'रक्खइ, "तिसु तेसु 12 अलंकिआ "पुहवी ।।248।। 'सह 2 जागरण 'सह 'सुआणाणं, 'सह 'हरिससोअवंताणं । श्रनयणाणं व 'धन्नाणं, 'आजम्मं "निच्चलं 11 पिम्मं । । 249 ।। संस्कृत अनुवाद ये महासत्त्वाः पुरुषाः सद्गुणकीर्तनेनाऽपि लज्जन्ते । इतरे आत्मनः प्रशंसनेनाऽपि हृदये न मान्ति ||246 || परस्य सद्भिरसद्भिश्च दोषैर्जल्पितैः किम् ? अच्छं यशो न लभ्यते, सोऽप्यमित्रः कृतो भवति ||247 || यो विह्वलमवलम्बते, यश्चाऽऽपतितं समुद्धरति । शरणाऽऽगतं च रक्षति, तैस्त्रिभिः पृथ्व्यलङ्कृता ॥ 248 || सह जाग्रतोः सह स्वपतो: सह हर्षशोकवतो: । धन्ययोः नयनयोरिव आजन्म निश्चलं प्रेम ||249|| 1 हिन्दी अनुवाद सात्त्विक पुरुष विद्यमान गुणों की भी प्रशंसा करने में शरमाते हैं, जब कि अन्य लोग अपनी प्रशंसा करते हृदय में फूले नहीं समाते हैं । (246) दूसरों के विद्यमान या अविद्यमान दोष कहने से क्या लाभ ? इससे यश नहीं मिलता है और वह व्यक्ति भी दुश्मन बन जाता है । (247) जो संकट में आये हुए को आश्रय देता है, जो आपत्ति में आये हुए का उद्धार करता है और शरणागत का रक्षण करता है, इन तीनों द्वारा पृथ्वी शोभा देती है । (248) साथ में जागते, साथ में सोते, साथ में ही आनंद और दुःख व्यक्त करते कुछ धन्य पुरुषों का ही दो नेत्रों की तरह आजीवन निश्चल प्रेम होता है । (249) २२४ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'विणए सिस्सपरिक्खा, 'सुहडपरिक्खा यहोइ संगामे । वसणे 'मित्तपरिक्खा, 'दाणपरिक्खा यदुक्काले ।।250।। 'आरंभे नत्थि दया, 'महिलासंगेण नासए बंभं । 'संकाए सम्मत्तं, 10पव्वज्जा अत्थगहणेण ।।251 ।। दीसइ 'विविहच्छरिअं, 'जाणिज्जइ सुअणदुज्जणविसेसो । 5अप्पाणं कलिज्जइ, 'हिंडिज्जइ 'तेण पुहवीए ।।252।। सत्थं 'हिअयपविटुं, मारइ 'जणे पसिद्धमिणं । 'तं पि गुरुणा पउत्तं, 1 जीवावइ 12पिच्छ "अच्छरिअं ।।253।। संस्कृत अनुवाद विनये शिष्यपरीक्षा, सङ्ग्रामे च सुभटपरीक्षा भवति । व्यसने मित्रपरीक्षा, दुष्काले च दानपरीक्षा ||250|| आरम्भे दया नाऽस्ति, महिलासङ्गेन ब्रह्म नश्यति । शङ्कया सम्यक्त्वम्, अर्थग्रहणेन प्रव्रज्या ||251।। विविधाऽऽश्चर्यं दृश्यते , सुजनदुर्जनविशेषो ज्ञायते । आत्मा कल्यते, तेन पृथिव्यां हिण्डयते ।।252।। हृदयप्रविष्टं शस्त्रं मार्यते, इदं जने प्रसिद्धम् । तदपि गुरुणा प्रयुक्तं जीवाययत्याऽऽश्चर्यं पश्य ।।253।। हिन्दी अनुवाद विनय में शिष्य की परीक्षा, युद्ध में सैनिकों की परीक्षा, संकट में मित्र की परीक्षा और दुष्काल में दान की परीक्षा होती है । (250) आरम्भ-समारम्भ के कार्य में दया नहीं रहती है, स्त्री के संपर्क से ब्रह्मचर्य नष्ट होता है, शंका से सम्यक्त्व और धन ग्रहण करने से संयम का नाश होता है । (251) __अनेक प्रकार के आश्चर्य देखने को मिले, सज्जन और दुर्जन का भेद ज्ञात हो, आत्मा का बोध हो अथवा स्वयं कलाओं में कुशल बने, अतः दुनिया (जगत्) में घूमना चाहिए । (252) हृदय में प्रविष्ट शस्त्र मारता है यह जगत् प्रसिद्ध है, परन्तु गुरु भगवंत द्वारा प्रयुक्त वही शस्त्र जीवन देता है । (253) -२२५ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'जणणी 2 जम्मुप्पत्ती, पच्छिमनिद्दा 'सुभासिआ गुट्ठी । मणईलैं 'माणुस्सं, पंच वि दुक्खेहिं 10मुच्चंति ।।254।। 2जं 'अवसरे 'न हूअं, दाणं "विणओ 'सुभासि वयणं । पच्छा 10गयकालेणं, "अवसरहिएण किं 12तेण ? ||255।। 'उवभुंजिउंन याणइ, रिद्धिं पत्तो वि 'पुण्णपरिहीणो | 'विमले वि जले 'तिसिओ, "जीहाए 10मंडलो लिहइ ।।256।। आकड्डिउण नीरं, रेवा रयणायरस्स अप्पेइ । 'न हु गच्छेइ मरुदेसे, 'सच्चं 10भरिआ "भरिज्जंति ||257 ।। संस्कृत अनुवाद जननी, जन्मोत्पत्तिः, पश्चिमनिद्रा सुभाषिता गोष्ठी । मनइष्टं मानुष्यं, पञ्चापि दुःखैर्मुच्यन्ते ||254|| अवसरे यद् दानं, विनयः, सुभाषितं वचनं न भूतम् । पश्चाद् गतकालेन अवसररहितेन तेन किम् ? ||255।। पुण्यपरिहीण ऋद्धिं प्राप्तोऽप्युपभोक्तुं न जानाति । विमलेऽपि जले तृषितो मण्डलो जीह्वया लिखति ||256।। रेवा नीरमाकृष्य रत्नाकरस्याऽर्पयति । मरुदेशे न खलु गच्छति, सत्यं भृता भियन्ते ।।257।। हिन्दी अनुवाद माता, जन्मभूमि, पश्चिमरात्रि की निद्रा, सुभाषितों की गोष्ठी (चर्चा) और मनपसन्द मनुष्य ये पाँच दुःखपूर्वक छूटते हैं । (254) समय (= अवसर) आने पर जो दान दिया न जाए, विनय किया न जाए, सुभाषित वचन बोले न जाए, तो समय बीतने पर, अवसररहित उनसे = (दान, विनय, सुभाषित वचन से) क्या (लाभ) ? (255) पुण्यहीन आत्मा समृद्धि प्राप्त करने पर भी उसका उपभोग करना नहीं जानता है, निर्मल पानी में भी रहा तृषातुर कुत्ता जीभ से ही (पानी) चाटता है | (256) नर्मदा नदी पानी को वहन करके समुद्र को देती है, परन्तु मरुदेश को नहीं देती है, सचमुच भरे हुए ही भर जाते हैं । (257) -२२६ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत 'सासाई 'तंपि जलं, पत्तविसेसेण अंतरं 'गुरुअं । अहिमुहि पडिअंगलं, "सिप्पिउडे 12मुत्तियं होइ ।।258।। 'केसिंचि होइ वित्तं, 'चित्तं 'अन्नेसिमुभयमन्नेसिं । चित्तं वित्तं 1 पत्तं, "तिण्णि विकेसिंचि 13धन्नाणं ।।259।। कत्थ विदलं न गंद्यो, 'कत्थ विगंधो न होइ'मयरंदो । 1"इक्ककुसुमंमि महुयर !, 12दो तिण्णि गुणा 4न 15दीसति ।।260।। संस्कृत अनुवाद । सा स्वातिः, जलमपि तत्, पात्रविशेषेणाऽन्तरं गुरुकम् ।। अहिमुखे पतितं गरलं, शुक्तिपटे मौक्तिकं भवति ||258।। केषाञ्चिद् वित्तं भवति, अन्येषां चित्तम्, अन्येषामुभयम् । चित्तं वित्तं पात्रं, त्रीण्यपि केषाश्चिद् धन्यानाम् ।।259।। कुत्राऽपि दलं, गन्धो न; क्वाऽपि गन्धो, मकरन्दो न भवति । मधुकर ! एककुसुमे द्वौ त्रयो वा गुणा न दृश्यन्ते ।।260।। हिन्दी अनुवाद वही स्वाति नक्षत्र है, वही पानी है, परन्तु पात्र विशेष से बड़ा अंतर हो जाता है, सर्प के मुख में गिरा (पानी) जहर बन जाता है और सीप के अंदर गिरा (पानी) मोती बन जाता है । (258) किसी के पास धन होता है, किसी के पास मन होता है, तो किसी के पास दोनों होते हैं, परन्तु मन, धन और पात्र ये तीनों तो किसी धन्यात्मा को ही प्राप्त होते हैं । (259) किसी वृक्ष पर फूल होता है, गंध नहीं होती है, कहीं गंध होती है परन्तु मकरंद = पुष्परस नहीं होता है, हे भ्रमर ! एक ही फूल पर दो या तीन गुण देखने को नहीं मिलते हैं । (260) प्राकृत कत्थ विजलं 'न'छाया, 'कत्थ वि छायान 'सीअलं सलिलं । . 1'जलछायासंजुत्तं, 12 1"पहिअ ! 13सरोवरं 14विरलं ।।261 ।। 'कत्थ वितवो 'न तत्तं, 'कत्थ वितत्तं न 'सुद्धचारित्तं । 'तवतत्तचरणसहिआ, 1"मुणिणो वि अथिोव "संसारे ।।262।। -२२७ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दुक्खाण 'एउ दुक्खं, 'गुरुआण जणाण हिअयमॉमि। . 'जंपिपरो पत्थिज्जइ, 1जंपि य"परपत्थणाभंगो ।।263।। संस्कृत अनुवाद क्वाऽपि जलं छाया न, कुत्राऽपि छाया शीतलं सलिलं न | पथिक ! जलछायासंयुक्तं , तत् सरोवरं विरलम् ।।261 ।। कुत्राऽपि तपः तत्त्वं न, क्वाऽपि तत्त्वं, शुद्धचारित्रं न । तपस्तत्त्वचरणसहिता मुनयोऽपि च संसारे स्तोकाः ।।262।। गुरुकाणां जनानां हृदयमध्ये दुःखानामेतद् दुःखम् । यदपि पर: प्रार्थ्यते, यदपि च परप्रार्थनाभङ्गः ।।263।। हिन्दी अनुवाद कहीं पानी होता है परन्तु छाया नहीं होती है, कहीं छाया होती है परन्तु शीतल जल नहीं होता है, हे मुसाफिर ! पानी और छाया दोनों से सुशोभित सरोवर दुर्लभ है । (261) किसी के पास तप होता है परन्तु तत्त्वज्ञान नहीं होता है, किसी के पास तत्त्वज्ञान होता है परन्तु निर्मलतर संयम नहीं होता है; तप, तत्त्वज्ञान और संयम से सुशोभित साधु भी संसार में अल्प होते हैं । (262) ___ महान पुरुषों के हृदय में यही सबसे बड़ा दुःख है, एक तो-दूसरों के पास मांगना और दूसरा-अन्य की प्रार्थना का भंग करना । (263) प्राकृत अकिं किं न कयं, को को 'नपत्थिओ, 'कह कह 11-12नामिअंसीसं? । 'दुब्भरउअरस्स कए, 13किं 14-15कयं किं 17नकायव्वं ।।264।। जीवंति 'खग्गछिन्ना, पव्वयपडिआवि के वि'जीवंति । 'जीवंति उदहिपडिआ, 'चट्टच्छिन्नान "जीवंति ।।265।। जं अज्जिअं 'चरित्तं, 'देसूणाए अपुव्वकोडीए । तं पि'कसाइयमित्तो, 1 हारेइ नरो मुहुत्तेण ।।266।। तं नत्थि रं तं नत्थि, राउलंदेउलं पि'तं नत्थि । 1 जत्थ 'अकारणकुविआ, 12दो तिन्नि 4खला 15न 16दीसति ।।267।। २२८ - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद दुर्भरोदरस्य कृते किं किं न कृतम् ?, कः को न प्रार्थितः ? क्व क्व शीर्षं न नामितम् ? किं न कृतं ?, किं न कर्तव्यम् ? ||264।। खड्गच्छिन्ना जीवन्ति , पर्वतपतिता अपि केऽपि जीवन्ति । उदधिपतिता जीवन्ति, चटुच्छिन्ना न जीवन्ति ।।265।। देशोनया पूर्वकोट्या च यच्चारित्रमर्जितम् । तदपि कषायिकमात्रो नरो मुहूर्तेन हारयति ||266।। तद् गृहं नाऽस्ति, तद् राजकुलं नाऽस्ति , तद् देवकुलमपि नाऽस्ति । यत्राऽकारणकुपिताः, द्वौ त्रयो वा खला न दृश्यन्ते ।।267।।। हिन्दी अनुवाद दुःखपूर्वक भरा जाय ऐसे पेट हेतु क्या-क्या नहीं किया ? किस-किस के पास (प्रत्येक व्यक्ति के पास) हाथ लम्बा नहीं किया ? कहाँ-कहाँ मस्तक नहीं झुकाया ? क्या-क्या नहीं किया ? और क्या-क्या करने योग्य नहीं है ? (264) तलवार से भेदे हुए जीवित रहते हैं, पर्वत पर से गिरे हुए कुछ व्यक्ति जीवित रहते हैं, समुद्र में गिरे हुए भी जीवित रहते हैं परन्तु कुक्षिप्रमाण आहार नहीं मिलने पर जीवित नहीं रह सकते हैं । (265) देशोन पूर्वक्रोड़ वर्षपर्यन्त संयमपालन से जो संयमभाव प्राप्त होते हैं, वे भी कषाय करने मात्र से जीव एक मुहूर्त में हार जाता है । (266) __ वैसा कोई घर नहीं है, वैसा कोई राजकुल नहीं है, वैसा कोई देवालय नहीं है, जहाँ निष्कारण क्रोधित दो या तीन पुरुष दिखाई नहीं देते हैं । (267) प्राकृत 'अइतज्जणानकायव्वा, 'पुत्तकलत्तेसुसामिए अभिच्चे । 'दहिअंपि महिज्जंतं, 1 छंडइ देहं 12 1संदेहो ।।268।। वल्ली नरिंदचित्तं, 'वक्खाणं "पाणिअंच महिलाओ। 'तत्थ य वच्चंति 'सया, जत्थ य धुत्तेहिं "निज्जंति ।।269।। 4अवलोअइ गंथत्थं, अत्थं गहिऊण पावए 'मुक्खं । परलोए देइ दिट्ठी, मुणिवरसारिच्छया 'वेसा ।।270।। 'दो पंथेहिं न गम्मइ, दोमुहसूईन सीवए कंथं । 1"दुन्नि 13 14हुंति 12कया विहु, इंदियसुक्खं च "मुक्खं च ।।271।। -२२९ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद पुत्रकलत्रयोः स्वामिनि भृत्येऽतितर्जना न कर्तव्या । दध्यपि मथ्यमानं देहं मुञ्चति, सन्देहो न ||268।। वल्ली, नरेन्द्रचित्तं, व्याख्यानं, पानीयं महिलाश्च । तत्र च सदा व्रजन्ति, यत्र च धूर्तीयन्ते ।।269।। वेश्या मुनिवरसदृशी ग्रन्थार्थमवलोकयति । अर्थं गृहीत्वा मोक्षं प्राप्नोति, परलोके दृष्टिर्ददाति ||270।। द्वाभ्यां पथिभ्यां न गम्यते, द्विमुखसूची कन्यां न सीव्यति । इन्द्रियसौख्यं च मोक्षश्च द्वे कदापि न खलु भवतः ।।271|| हिन्दी अनुवाद पुत्र, पत्नी, सेठ अथवा नौकर (सेवक) का अत्यंत तिरस्कार नहीं करना चाहिए, क्योकि दही भी मथने पर अपना स्वरूप छोड़ देता है, उसमें कोई संशय नहीं है । (268) बेल, राजा का मन, प्रवचन, पानी और स्त्रियाँ हमेशा वहीं जाते हैं, जहाँ वे धूर्त पुरुषों द्वारा ले जाये जाते । (269) वेश्या साधु के समान होती है, जिस प्रकार साधु भगवंत ग्रन्थों के अर्थ का अवगाहन करते हैं, अर्थ को जानकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, परलोक तरफ दृष्टि डालते हैं, उसी प्रकार वेश्या गांठ में रहे धन को देखती है, धन को लेकर उससे छूट जाती है और दूसरे पुरुष में नजर डालती है । (270) जिस प्रकार एक साथ में दो रास्तों पर नहीं चल सकते हैं, एक साथ में दो मुखवाली सलाई से कपड़ा नहीं सीया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के सुख और मोक्ष ये दोनों एक साथ में कभी प्राप्त नहीं होते हैं । (271) प्राकृत वसणे विसायरहिया, 'संपत्तीए अणुत्तरा हुंति । मरणे वि'अणुव्विग्गा, साहससारा य 'सप्पुरिसा ।।272।। अणुवट्ठिअस्स धम्म, मा हु'कहिज्जाहि 'सुट्ठ विपियस्स । "विच्छायं 12होइ 10मुहं, विज्झायरिंग धमंतस्स ।।273।। 4रयणिं 'अभिसारियाओ, चोरा पदारिया य 'इच्छंति । तालायरा'सुभिक्खं, 'बहुधन्ना केइ "दुब्भिक्खं ।।274।। हसून -२२० B . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद सत्पुरुषा व्यसने विषादरहिताः, सम्पत्त्यामनुत्तराः, मरणेऽप्यनुद्विग्नाः, साहससाराश्च भवन्ति ।।272।। सुष्टु प्रियस्याऽप्यनुपस्थितस्य, धर्मं मा खलु कथय । विध्याताऽग्निं धमतो, मुखं विच्छायं भवति ||273।। अभिसारिकाश्चौराः, पारदारिकाश्च रजनीमिच्छन्ति । तालाचरा: सुभिक्षं , केचिद् बहुधन्या दुर्भिक्षम् ||274|| हिन्दी अनुवाद सत्पुरुष आपत्ति में खेदरहित होते हैं, समृद्धि में अनुत्तर = श्रेष्ठ होते हैं, मृत्यु समय भी उद्वेगरहित होते हैं और साहसवंत होते हैं । (272) अत्यंत प्रिय हो तो भी अनुपस्थित = अपने सामने नहीं आये हुए को धर्म नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बुझते हुए अग्नि को फूंकने पर अपना ही मुख मलिन होता है । (273) अभिसारिका = संकेत स्थान पर जानेवाली स्त्रियाँ, चोर और परस्त्रीलंपट पुरुष रात को चाहते हैं, चोर सुकाल और अधिक धान्यवाले कुछ लोग दुष्काल चाहते हैं । (274) प्राकृत जिंकिंचि पमाएणं, 'न सुट्ठभेवट्टियं मए 'पुट्वि । 10तं भे 14खामेमि 13अहं, निस्सलो 12निक्कसाओ अ ।।275।। 'गुणसुट्ठिअस्सवयणं, घयपरिसित्तो व्व 'पावओ भाइ। 'गुणहीणस्सन 'सोहइ, "नेहविहूणो "जह 12पईवो ।।276।। अइबहुयं अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हाएज्ज व वामेज्ज व, मारेज्ज व 'तं अजीरंतं ।।277।। जंपेज्ज पियं विणयं, करिज्ज'वज्जेज्ज 'पुत्ति ! परनिंदं । श्वसणे विमा 12विमुंचसु, 'देहच्छाय व्व नियनाहं ।।278।। संस्कृत अनुवाद भो ! मया प्रमादेन पूर्वं यत्किश्चित् सुष्टु न वर्तितम् । भो ! तन्निःशल्यो निष्कषायश्चाऽहं क्षाम्यामि ।।275।। गुणसुस्थितस्य वदनं घृतपरिषिक्तः पावक इव भाति । गुणहीनस्य न शोभते, यथा स्नेहविहीनः प्रदीपः ||276।। २३१ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिबहुकमतिबहुशोऽतिप्रमाणेन भोजनं भुक्तम् । अजीर्यमाणं तज्जह्याद्वा वमेद्वा, म्रियेत वा ||277।। पुत्रि !, प्रियं जम्पेद्, विनयं कुर्यात्, परनिन्दां वर्जेत् । व्यसनेऽपि देहच्छायेव निजनाथं मा विमुञ्च ।।278।। हिन्दी अनुवाद मैंने पहले प्रमाद के कारण जो कुछ सम्यक् आचरण नहीं किया है उसकी शल्यरहित और कषायरहित मैं क्षमापना करता हूँ 1 (275) गुणवान पुरुष का मुख घी से सिंचित अग्नि के समान तेजस्वी लगता है और निर्गुण पुरुष का मुख स्निग्धता = घी रहित दीपक के समान निस्तेज लगता है । (276) अत्यधिक, बहुत बार और प्रमाण से अधिक किया गया भोजन अजीर्णवान पुरुष को दस्त लगाता है, वमन कराता है अथवा मारता (प्राणरहित बनाता) है । (277) हे पुत्री ! प्रिय बोलना चाहिए, विनय करना चाहिए, परनिंदा का त्याग करना चाहिए और संकट में देह की छाया की तरह अपने पति का त्याग नहीं करना चाहिए । (278) प्राकृत 'किं लटुं 'लहिही वरं पिययमं, किं तस्स संपज्जिही, कि "लोयं 10ससुराइयं 12नियगुण-ग्गामेण 13 जिस्सए ? । 14किं 15सीलं परिपालिही? 20पसविही, 17किं 18पुत्तमेवं 19धुवं, 24चिंतामुत्तिमई 21पिऊण 22भवणे, 25संवट्टए 2 कन्नगा ।।279।। 5धम्मारामखयं खमाकमलिणी-संघायनिग्घायणं, 'मज्जायातडिपाडणं सुहमणो-हंसस्स निव्वासणं । "वुड्ढि लोहमहण्णवस्सा खणणं, 12सत्ताणुकंपाभुवो, 14संपाडेइ 'परिग्गहो 'गिरिनई-पूरो व्व वढतओ ।।280।। संस्कृत अनुवाद किं लष्टं वरं लप्स्यसे ?, किं तस्य प्रियतमां संपत्स्यसे ?; किं श्वसुरादिकं लोकं निजगुणग्रामेण रक्ष्यति ?। किं शीलं परिपालयिष्यसि, ध्रुवं पुत्रमेव प्रसविष्यसे ?, पित्रोभवने कन्यका चिन्तामूर्तिमती संवर्तते ।।279।। -२३२ 5 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनदीपूर इव वर्धमानः परिग्रहः धर्माऽऽरामक्षयं, क्षमाकमलिनीसंघातनिर्घातनम् ; मर्यादातटीपातनं , शुभमनोहंसस्य निर्वासनम् । लोभमहार्णवस्य वृद्धिं, सत्त्वानुकम्पाभुवः खननं सम्पादयति ||280।। हिन्दी अनुवाद क्या योग्य पति मिलेगा ? क्या उसका प्रेम संपादन करेगी ? क्या श्वसुर आदि को अपने गुणों के समूह से आनंदित करेगी ? क्या शील का बराबर पालन करेगी ? क्या निश्चय पुत्र को ही जन्म देगी ? इस प्रकार माता-पिता के घर कन्या साक्षात् चिन्ता की मूर्तिसमान है । (279) पर्वत की नदी में बाढ़ समान वृद्धिंगत परिग्रह धर्मरूपी बगीचे का नाश करता है, क्षमारूपी कमलिनी (कमल का गाछ) के समूह का उच्छेदक है, मर्यादारूपी किनारे को गिरानेवाला है, शुभ मनरूपी हंस को देशनिकाला करनेवाला है, लोभरूपी महासमुद्र को बढ़ानेवाला और जीवों की अनुकंपारूपी पृथ्वी को खोदनेवाला है । (280) प्राकृत 'हाकुंदिंदुसमुज्जलो कलुसिओ, तायस्स 'वंसोमए, बंधूणं मुहपंकएसु यहहा, 11दिन्नो 10मसीकुच्चओ। 12ही 13तेलुक्क14मकित्तिपंसुपसरे-16णुद्धलियं 15सव्वओ, 17धिद्धी ! 19भीमभवुब्भवाण 21भवणं, 2 दुक्खाण अप्पा 22कओ ।।281 ।। 'ऊसस-निसस-रहियं, 'गुरुणो सेसं वसे हवइ 'दव् । 'तेणाणुण्णा जुज्जइ, 10अण्णह 12दोसो 13भवे "तस्स ।।282।। नसा सहा, 'जत्थ न 'संति वुड्डा; 13वुड्डा 14न 12ते, जे "न"वयंतिधम्मं । 19धम्मो 20न 18सो. 15जत्थ य 17 नत्थि 16 सच्चं, 24सच्चं 25न 23तं, 21जं 22छलणाणुविद्धं ।।283।। संस्कृत अनुवाद हा मया कुन्देन्दुसमुज्ज्वलस्तातस्य वंशः कलुषितः; हहा ! बन्धूनां मुखपङ्कजेषु च मषीकूर्चको दत्तः । - २३३ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही ! त्रैलोक्यमकीर्तिपांशुप्रसरेण सर्वत उद्धूलितम ; धिग् धिग् ! आत्मा भीमभवोद्भवानां दुःखानां भवनं कृतः ।।281।। उच्छ्वासनिश्वासरहितं शेषं द्रव्यं गुरोर्वशे भवति । तेनाऽनुज्ञा युज्यते, अन्यथा तस्य दोषो भवेत् ।।282।। यत्र वृद्धाः न सन्ति सा सभा न ये धर्मं न वदन्ति, वृद्धाः न । यत्र च सत्यं नाऽस्ति, स धर्मो न यच्छलनानुविद्धं तत् सत्यं न ||283|| हिन्दी अनुवाद , अहो ! मैंने कुंद = श्वेतफूल और चंद्रसमान निर्मल पिता के वंश को कलंकित किया है, अहो ! भाइयों के मुखरूपी कमल पर स्याही का काला कूर्चक लगाया है, अहो ! अपयशरूपी रजकणों को फैलाकर चारों तरफ से तीन लोक को धूलवाला बना दिया है, मुझे धिक्कार हो ! कि मैंने स्वयं ही आत्मा को भयंकर भव में उत्पन्न दुःखों का स्थान बना दिया है । ( 281 ) उच्छ्वास और निश्वास (= श्वासोच्छ्वास) रहित शेष सब द्रव्य गुरु भगवंत के अधीन है, अतः अनुज्ञा योग्य ( उचित) है, अन्यथा तो उसे दोष होता है । (282) जहाँ वृद्धपुरुष नहीं है, वह सभा नहीं है ! जो धर्म को नहीं कहते हैं वे वृद्धपुरुष नहीं हैं ।, जहाँ सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है और जो दूसरों को ठगनेवाला है वह सत्य नहीं है । (283) प्राकृत 'जोएइ य 'जो 7 धम्मे, 'जीवं विविहेण 'केणइ 'नएण । 'संसार - चारग-गयं, 'सो "नणु "कल्लाणमित्तो त्ति ।।284।। जिणपूआ 'मुणिदाणं, 'एत्तियमेत्तं 'गिहीण 'सच्चरियं । 7जइ 'एआओ 'भट्ठो, 10ता 12 भट्ठो 11 सव्वकज्जाओ ।। 285 ।। 'नरस्सा'भरणं रूवं, 'रुवस्सा' भरणं 'गुणो । 7 गुणस्सा' भरणं 'नाणं, 10 नाणस्सा 1 भरणं 12 दया ।।286।। 'अइरोसो ±अइतोसो, 'अइहासो 'दुज्जणेहिं 'संवासो । “अइउब्भडो य 'वेसो, 'पंच वि 'गरुयं पि "लहुअंति ।। 287 ।। २३४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद यः केनाऽपि विविधेन नयेन संसारचारकगतं जीवं । धर्मे योजयति, स ननु कल्याणमित्रमिति 1284।। जिनपूजा मुनिदानम्, एतावन्मात्रं गृहिणां सच्चरित्रम् । यद्येताभ्यां भ्रष्टः, ततः सर्वकार्याद् भ्रष्टः ||285।। नरस्याऽऽभरणं रूपम्, रूपस्याऽऽभरणं गुणः । गुणस्याऽऽभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याऽऽभरणं दया | 286 || अतिरोषोऽतितोषः, अतिहासो, दुर्जनैः संवासः । अत्युद्भटश्च वेषः, पञ्चापि गुरुकमपि लघुयन्ति ||287|| हिन्दी अनुवाद " जो अनेक प्रकार के नयों द्वारा संसारचक्र में रहे जीव को धर्ममार्ग में जोड़ता है, वह सचमुच उसका कल्याणमित्र है । (284) जिनेश्वर प्रभु की पूजा और साधु भगवंतों को सुपात्रदान, यही गृहस्थ का सच्चारित्र है, जो इन दोनों से भ्रष्ट हुआ, उसे प्रत्येक कार्य से भ्रष्ट समझना चाहिए | (285) मनुष्य का आभूषण रूप है, रूप की शोभा गुण है, गुण का आभूषण (शोभा) ज्ञान है और ज्ञान का भूषण दया है | (286) अतिगुस्सा, अतिसंतोष, अतिहर्ष, दुर्जनों के साथ समागम और अति उद्भट वेशभूषा-ये पाँच अपने बडप्पन को भी कलंकित करते हैं । (287) प्राकृत 'अभूसणो 'सोहइ 'बंभयारी, अकिंचणो 'सोहइ 'दिक्खधारी बुद्धिजुओ 'सोहर रायमंती, " लज्जाजुओ 12 सोहइ 11 एगपत्ती ।। 288।। 'न 1 धम्मकज्जा 'पर' मत्थि कज्जं, 'न 'पाणिहिंसा 'परमं अकज्जं 13न 10 पेमरागा 11 पर 14 मत्थि 12 बंधो, 18न 15 बोहिलाभा "परमत्थि 19 17 लाभो ।।289।। 'जूए 2 पसत्तस्स ' धणस्स 'नासो, 'मंसे 'पसत्तस्स 7 दयाइनासो । 'मज्जे 'पसत्तस्स 'जसस्स "नासो, 12वेसापसत्तस्स 13 कुलस्स "नासो ।। 290 ।। २३५ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद अभूषणो ब्रह्मचारी शोभते , अकिञ्चनो दीक्षाधारी शोभते । बुद्धियुतो राजमन्त्री शोभते, लज्जायुत एकपत्नीकः शोभते ।।288।। धर्मकार्यात्परं कार्यं नाऽस्ति , प्राणिहिंसायाः परममकार्यं न । प्रेमरागात्परो बन्धो नाऽस्ति, बोधिलाभात् परो लाभो नाऽस्ति ।।289।। द्यूते प्रसक्तस्य धनस्य नाशः, मांसे प्रसक्तस्य दयादिनाशः । मद्ये प्रसक्तस्य यशसो नाशः, बेश्याप्रसक्तस्य कुलस्य नाशः ।।290।। हिन्दी अनुवाद अलंकाररहित ब्रह्मचारी शोभा देता है, अकिंचन (निष्परिग्रही) संयमी शोभा देते हैं, बुद्धि से अलंकृत राजमंत्री शोभा देते हैं और लज्जायुक्त एकपत्नीवाला कुलवानपुरुष शोभा देता है । (288) धर्मकार्य समान (श्रेष्ठ) कोई कार्य नहीं है, जीवों की हिंसा से विशेष कोई दुष्कृत्य नहीं हैं, प्रेम के राग से बड़ा कोई बंधन नहीं है और बोधि= सम्यक्त्व की प्राप्ति समान कोई लाभ नहीं है । (289) जुए में आसक्त व्यक्ति के धन का नाश होता है, मांस में आसक्त व्यक्ति के दयादि गुण नष्ट होते हैं, मदिरा में आसक्त मानव की कीर्ति नष्ट होती है और वेश्या में आसक्त मानव के कुल का उच्छेद होता है । (290) प्राकृत 'हिंसापसत्तस्स सुधम्मनासो, चोरीपसत्तस्स सरीरनाशो । 'तहा परत्थीसु'पसत्तयस्स, सव्वस्स नासो 1 अहमा "गई य ।।291।। दाणं 'दरिद्दस्स, पहुस्स खंती; इच्छानिरोहो य 'सुहोडयस्स । 'तारुण्णए "इंदिय-निग्गहोय, °चत्तारिए आणि"सुदुक्कराणि ।।292।। विविहसत्थाओ। संस्कृत अनुवाद हिंसाप्रसक्तस्य सुधर्मनाशः, चौरीप्रसक्तस्य शरीरनाशः । तथा परस्त्रीषु प्रसक्तस्य, सर्वस्य नाशोऽधमा गतिश्च ।।291।। दरिद्रस्य दानम्, प्रभोः शान्तिः, सुखोचितस्येच्छानिरोधः । तारुण्ये इन्द्रियनिग्रहश्च , एतानि चत्वारि सुदुष्कराणि ।।292।। २३६ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद हिंसा में आनंदित व्यक्ति का सद्धर्म नष्ट होता है, चोरी में अनुरक्त व्यक्ति के शरीर का नाश होता है, उसी प्रकार परस्त्री में लम्पट (आसक्त) व्यक्ति का सब कुछ नष्ट होता है और दुर्गति होती है । (291) दरिद्र अवस्था में दिया हुआ दान, स्वामी (मालिक) होते हुए भी क्षमा रखना, सुखी होते हुए भी इच्छा का निरोध और जवानी में इन्द्रियों को वश में करना, ये चार अतिदुष्कर कार्य हैं । (292) पसत्थी प्राकृत "पणमिअर्थमणपासं, जिणीसरं 'भत्तचित्तवंछिययं । 'जगगुरुनेमिसुरिंद, जास' पसाया इमा रइआ ।।1।। सगुरुं विन्नाणसूरिं, 'संतप्पभविअबोहयं 'वंदे । भवकूवाउ असरणो, जेण 'जडो हं 10समुद्धरिओ ।।2।। पन्नासकत्थुरविजय- गणिणा'रइया य पाढमालेयं । *बाणनिहिनंदचंदे, 'वासे महुमाससुहपक्खे ।।3।। 'जाव जिणसासणमिणं, 'जाव य धम्मो जयम्मि 'विप्फुरइ । पाइअविज्जत्थीहिं, ताव 1"सुहं 11 भणिज्जउ एसा ।।4।। अवि यअट्ठारस-दुसहस्से, विक्कमवरिसे 'तइज्जसक्करणं । कत्थूरायरिएणं, 'सुपाढमालाइ संरइअं ।।5।। प्रशस्त्रिः __संस्कृत अनुवाद भक्तचित्तवाञ्छितदं, जिनेश्वरं स्थम्भनपार्थं प्रणम्य । जगद्गुरुनेमिसूरीन्द्रं येषां प्रसादादियं रचिता ||1|| सन्तप्तभविकबोधदं स्वगुरुं विज्ञानसूरि वन्दे । येनाऽशरणो जडोऽहं भवकूपात् समुद्धृतः ।।2।। पन्न्यासकस्तूरविजयगणिना चेयं पाठमाला । बाणनिधिनन्दचन्द्रे वर्षे मधुमासशुभपक्षे रचिता ||3|| यावदिदं जिनशासनं यावच्च धर्मो जगति विस्फुरति । तावत् प्राकृतविद्यार्थिभिरेषा सुखं भण्यताम् ।।4।। २३७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपि च-अष्टादशद्विसहसे, विक्रमवर्षे । कस्तूराचार्येण सुपाठमालायाः तृतीयसंस्करणं संरचितम् ।।5।। इति श्री शासन सम्राट् नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि पहालङकारा चार्यदे श्री विजय चन्द्रोदयसूरि गुरुबन्धु आचार्यश्री विजय अशोकचन्द्रसूरि शिष्ट पंन्यास सोमचन्द्रविजय गणि सङकलिता श्री प्राकृतविज्ञान पाठमाला मार्गदर्शिक सम्पूर्णा ।। हिन्दी अनुवाद भक्त के मनोवांछित पूर्ण करनेवाले जिनेश्वर श्रीस्थंभनपार्श्वनाथ प्रभु को प्रणाम करके, जगद्गुरु श्रीनेमिसूरीश्वरजी को वंदन करता हूँ-जिनकी कृपा से मैंने इस पाठमाला की रचना की है । (1) संसार से संतप्त भव्यजीवों को बोधदायक मेरे गुरु श्रीविज्ञानसूरीश्वरजी को वंदन करता हूँ, क्योंकि जिनके द्वारा अशरण और मंदबुद्धिवान मेरा भवरूपी कुए में से उद्धार कराया है । (2) पंन्यास श्रीकस्तूरविजयगणि द्वारा विक्रम संवत् 1995 वर्ष, चैत्र महीने के शुक्लपक्ष में इस पाठमाला की रचना की गई । (3) जब तक यह जिनशासन जयवंत है और जब तक जैनधर्म जगत् में गूंजता है, तब तक प्राकृत के विद्यार्थियों द्वारा इस पाठमाला का सुखपूर्वक अभ्यास किया जाय । (4) विक्रमसंवत् 2018 वर्ष में आचार्य श्रीविजयकस्तूरसूरि ने इस पाठमाला का तीसरी बार संस्करण किया । (5) इस प्रकार शासनसम्राट्, तपागच्छाधिपति, सूरिचक्रवर्ती, जगद्गुरु कदंबगिरि प्रमुखानेक तीर्थोद्धारक भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजयनेमिसूरिजी म. के पट्टालंकार पूज्यपाद आ. भट्टारक आचार्यदेव श्रीमद्विजयविज्ञानसूरिजी म. के पट्टधर विजयकस्तूरसूरिजी महाराज द्वारा रची हुई यह पाठमाला पूर्ण हुई। इस प्रकार श्री शासन सम्राट् श्री नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि पट्टालंकार आचार्यदेव श्रीमद् विजय चन्द्रोदयसूरि गुरुबंधु आचार्यदेव श्रीमद् विजय अशोकचन्द्रसूरि शिष्य पंन्यास सोमचन्द्रविजय गणि वर्तमान में आचार्य श्री सोमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. संकलित श्री प्राकृत विज्ञान पाठमाला मार्गदर्शिका पूर्ण हुई। -२३८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय / रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. का हिन्दी साहित्य 1. वात्सल्य के महासागर 56. नवपद प्रवचन 110. प्रभो! मन-मंदिर पधारो 2. सामायिक सूत्र विवेचना 57. ऐतिहासिक कहानियाँ 111. सरस कहानियाँ 3. चैत्यवन्दन सूत्र विवेचना 58.तेजस्वी सितारें 112. महावीर वाणी 4. आलोचना सूत्र विवेचना 59.सन्नारी विशेषांक 113. सदगुरु-उपासना 5. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र विवेचना 60.मिच्छामि दुक्कडम 114. चिंतन रत्न 6. कर्मन् की गत न्यारी 61.Panch Pratikraman Sootra 115. जैन पर्व-प्रवचन 7. आनन्दघन चौबीसी विवेचना 62.जीवन ने तुं जीवी जाण (गुजराती) 116. नींव के पत्थर 8. मानवता तब महक उठेगी 63. आवो ! वार्ता कहुं (गुजराती) 117. विखुरलेले प्रवचन मोती 9. मानवता के दीप जलाएं 64.अमृत की बुंदे 118.शंका-समाधान भाग-2 10.जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है , 65. श्रीपाल मयणा 119. श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी 11. चेतन ! मोहनींद अब त्यागो 66.शंका और समाधान भाग-1 120. भाव-चैत्यवंदन 12.युवानो ! जागो 67.प्रवचनधारा 121. Youth will shine then 13.शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना भाग-168.धरती तीरथ'री 122.नव तत्त्व-विवेचन 14.शांत सुधारस-हिन्दी विवेचना. भाग-2 69.क्षमापना 123.जीव विचार विवेचन 15.रिमझिम रिमझिम अमृत बरसे 70. भगवान महावीर 124. भव आलोचना 16.मृत्यु की मंगल यात्रा 71. आओ ! पौषध करें 125.विविध-पूजाएँ 17. जीवन की मंगल यात्रा 72. प्रवचन मोती 126.गुणवान् बनों 18.महाभारत और हमारी संस्कृति-1 73. प्रतिक्रमण उपयोगी संग्रह 127. तीन-भाष्य 19.महाभारत और हमारी संस्कृति-2 74. श्रावक कर्तव्य-1 128.विविध-तपमाला 20. तब चमक उठेगी युवा पीढी 75.श्रावक कर्तव्य-2 129.महान् चरित्र 21. The Light of Humanity 76.कर्म नचाए नाच 130.आओ ! भावयात्रा करें 22.अंखियाँ प्रभुदर्शन की प्यासी 77.माता-पिता 131.मंगल-स्मरण 23. युवा चेतना 78. प्रवचन रत्न 132.भाव प्रतिक्रमण-1 24. तब आंसू भी मोती बन जाते है। 79.आओ ! तत्वज्ञान सीखें 133. भाव प्रतिक्रमण-2 25.शीतल नहीं छाया रे.(गजराती) 80. क्रोध आबाद तो जीवन बरबाद 134. श्रीपाल-रास और जीवन 26. युवा संदेश 81.जिनशासन के ज्योतिर्धर 135.दंडक-विवेचन 27.रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-1 82. आहार : क्यों और कैसे ? 136. आओ ! पर्युषण-प्रतिक्रमण करें 28. रामायण में संस्कृति का अमर सन्देश-2 83.महावीर प्रभु का सचित्र जीवन 137.सुखी जीवन की चाबियाँ 29. श्रावक जीवन-दर्शन 84.प्रभु दर्शन सुख संपदा 138.पांच प्रवचन 30.जीवन निर्माण 85. भाव श्रावक 139.सज्झायों का स्वाध्याय 31. The Message for the Youth 86. महान ज्योतिर्धर 140.वैराग्य शतक 32. यौवन-सुरक्षा विशेषांक 87. संतोषी नर-सदा सुखी 141.गुणानुवाद 33.आनन्द की शोध 88. आओ! पूजा पढाएँ / 142. सरल कहानियाँ 34.आग और पानी-भाग-1 89.शत्रुजय की गौरव गाथा 143.सुख की खोज 35.आग और पानी-भाग-2 90.चितन-मोती 144.आओ संस्कृत सीखें भाग-1 36.शत्रुजय यात्रा (द्वितीय आवत्ति) 91.प्रेरक-कहानियाँ 145. आओ संस्कृत सीखें भाग-2 37.सवाल आपके जवाब हमारे 92.आई वडीलांचे उपकार 146. आध्यात्मिक पत्र 38.जैन विज्ञान 93.महासतियों का जीवन संदेश 147.शंका-समाधान. (भाग-3) 39.आहार विज्ञान 94. श्रीमद् आनंदघनजी पद विवेचन 148.जीवन शणगार प्रवचन 40. How to live true life? 95. Duties towards Parents 149. प्रातः स्मरणीय महापुरुष (भाग-1) 41. भक्ति से मुक्ति (पांचवी आवृत्ति) 96. चौदह गुणस्थान 150. प्रातः स्मरणीय महापुरुष (भाग-2) 42. आओ ! प्रतिक्रमण करे (चौथी आवृत्ति) 97.पर्युषण अष्टाह्निका प्रवचन 151. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ (भाग-1) 43.प्रिय कहानियाँ 98. मधुर कहानियाँ 152. प्रातः स्मरणीय महासतियाँ (भाग-2) 44. अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव 99. पारस प्यारो लागे 153.ध्यान साधना 45. आओ! श्रावक बने 100.बीसवीं सदी के महान योगी 154. श्रावक आचार दर्शक 46. गौतमस्वामी-जंबुस्वामी 101.बीसवीं सदी के महान् योगी 155. अध्यात्माचा सुगंध (मराठी) 47. जैनाचार विशेषांक की अमर-वाणी 156. इन्द्रिय पराजय शतक 48.हंस श्राद्ध व्रत दीपिका 102.कर्म विज्ञान 157. जैन-शब्द-कोष 49.कर्म को नहीं शर्म 103. प्रवचन के बिखरे फूल 158. नया दिन-नया संदेश 50.मनोहर कहानियाँ 104.कल्पसूत्र के हिन्दी प्रवचन 159. तीर्थ यात्रा 51.मृत्यु-महोत्सव 105.आदिनाथ-शांतिनाथ चरित्र 160. महामंत्र की साधना 52. Chaitya-Vandan Sootra 106. ब्रह्मचर्य 161. अजातशत्रु अणगार 53. सफलता की सीढ़ियाँ 107. भाव सामायिक 162. प्रेरक प्रसंग 54. श्रमणाचार विशेषांक 108.राग म्हणजे आग (मराठी) 163. The way of Metaphysical Life 55.विविध-देववंदन (चतुर्थ आवृत्ति) 109.आओ ! उपधान-पौषध करें! 164. आओ ! प्राकृत सीखें भाग-1 165. आओ ! प्राकृत सीखें भाग-2 SHUBHAY Cell: 98205302991 Tel. :022-65373779/