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________________ इस प्रकार जीवदयारूप धर्म को सुनकर संतुष्ट मनवाले राजा कुमारपाल ने कहा- हे मुनीश्वर ! आपने सुंदर धर्म कहा । (186) यह धर्म मुझे बहुत पसन्द आया, यह मेरे मन में उतर गया, यही धर्म परमार्थ से युक्तिपूर्वक घटता है, अन्य कोई धर्म नहीं | ( 187 ) सभी यही मानते हैं कि जो श्रेष्ठ भोजन - वसति आदि दूसरों को दी जाती है, भवांतर में वही उत्तम - (सुंदर) मिलते हैं । (188) इस प्रकार इस भव में दूसरों को सुख या दुःख देता है, वही सुख या दुःख भवांतर में अनंत गुणा मिलता है । (189) जो मनुष्य हिंसा करता है और जो दूसरों के जीवन का विनाश करता है, उसके सुख का नाश होता है और संपत्ति का भी विनाश होता है । (190) प्राकृत 'सो' एवं ' कुणमाणो, 'परलोए "पावए 'परेहिंतो । 'बहुसो 7 जीवियनासं, 'सुहविगमं 'संपओच्छेयं । । 191 ।। 1जं 2 उप्पइ 'तं 'लब्भइ, 'पभूयतरमत्थ' 'नत्थि संदेहो । 10वविएस 'कोद्दवेसुं, 12 लब्धंति हि "कोद्दवा चेव ।।192 ।। 'जो 'उण 'न 'हणइ जीवे, 'तो 'तेसि 'जीवियं 'सुहं "विभवं । 11 न 12 हणइ तत्तो 14 तस्स वि, 15तं 18 19हणइ 16 को वि 17 परलोए ।।193 ।। 'ता 2 भद्देण व 'नूनं, कयाणु'कंपा 'मए वि 'पुव्वभवे । 'जं 10 लंघिऊण 'वसणाइं, 12 रज्जलच्छी 11 इमा लद्धा ।।194।। संस्कृत अनुवाद स एवं कुर्वन्, परलोके परेभ्यः, बहुशो जीवितनाशं, सुखविगमं सम्पदोच्छेदं प्राप्नोति ||191 || यदुप्यते तत् प्रभूततरं लभ्यते, अत्र सन्देहो नाऽस्ति । कोद्रवेषूप्तेषु हि कोद्रवा एव लभ्यन्ते ||192|| यः पुनर्जीवान् न हन्ति, ततस्तेषां जीवितं सुखं विभवम् । न हन्ति ततस्तस्याऽपि तं कोऽपि परलोके न हन्ति ||193।। ततो भद्रेणेव मयाऽपि नूनं पूर्वभवेऽनुकम्पा कृता । यद् व्यसनानि लङ्घित्वेयं राज्यलक्ष्मीर्लब्धा ||194|| हिन्दी अनुवाद वह इस प्रकार ( जीवहिंसा) करते भवांतर में दूसरों द्वारा बहुत बार जीवन का विनाश, सुख का विरह और संपत्ति का उच्छेद पाता है । (191) २०७
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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