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नभस्तलस्थो राजानं भणति मुञ्चैतं पारापतम् एष मम भक्ष्यः ।
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मेघरथेन भणितम्-नैष दातव्यः शरणाऽगतः ।
हिन्दी अनुवाद
वहाँ राजा को सम्यग्दर्शनरूपी रत्न जिसका मूल है, जगत् के जीवों को हितकारी, मोक्षालयरूपी फल देनेवाला, दुःखों से मुक्त करनेवाला धर्म कहते हैं । (170)
वहाँ उसी समय भयभीत (और) काँपता हुआ कबूतर अचानक पौषधशाला में आया, "हे राजन् ! शरण, शरण" इस प्रकार कहने लगा । (171)
राजा 'अभय' इस प्रकार बोलते हैं, 'डर नहीं' इस प्रकार कहने पर वह ( कबूतर ) वहीं खड़ा रहता है; उसके पीछे क्रौंच (बाज ) पक्षी आता है, वह भी मनुष्य की भाषा बोलनेवाला है । (172)
आकाश में रहा हुआ बाज राजा को कहता है कि इस कबूतर को छोड़ दो, यह मेरा भक्ष्य है ।
मेघरथ राजा ने कहा - मेरी शरण में आया हुआ यह देने योग्य नहीं है ( अर्थात् मैं इसको नहीं दूँगा क्योंकि यह मेरी शरण में आया हुआ है ।) प्राकृत
भिडिएण भणियं-नरवर ! जइ न देसि मे तं, खुहिओ कं सरण- मुवगच्छामि !
त्ति ।
मेहरहेण भणियं-जह जीवियं तुब्भं पियं निस्संसयं तहा सव्वजीवाणं । भणियं च - 2 हंतूण 'परप्पाणे, अप्पाणं 'जो 'करे ' सप्पाणं ।
7 अप्पाणं दिवसाणं, 'कएण "नासेइ 10 अप्पाणं ।।173 ।। 'दुक्खस्स 'उव्वियंतो, 'हंतूण 'परं 'करेइ 'पडियारं । "पाविहिति "पुणो 'दुक्खं, 'बहुययरं ' तन्निमित्तेण ।।174।। एवं अणुसिट्ठो भिडिओ भणइ-कत्तो मे धम्ममणो भुक्खदुक्खद्दियस्स ? |
संस्कृत अनुवाद
श्येनेन भणितम्-नरवर ! यदि न ददासि मह्यं तम्, क्षुधितः कं शरणमुपगच्छामि ? इति मेघरथेन भणितम्-यथा जीवितं तुभ्यं प्रियं, निस्संशयं तथा सर्वजीवानाम् |
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