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इस बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र महाराजा ने नमिराजर्षि को उसके बाद यह कहा । (111)
हे भगवन् ! यह आग और पवन इस महल को जला रहे हैं, तो आप जलते हुए अन्तःपुर का ध्यान क्यों नहीं रखते हो ? (112)
प्राकृत 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । 'तओ निमि रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।113।।
सुहं विसामो 'जीवामो, 'जेसिंमो नत्थि किंचणं ।
मिहिलाएडज्झमाणीए, 12न 10मे 13डज्झइकिंचणं ।।114।। 'चत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो। पियं न 'विज्जइ 'किंचि, अप्पियं पिन "विज्जई ।।115।।
बहुं खु'मुणिणो भदं, 'अणगारस्स भिक्खुणो ।
सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणु पस्सओ ।। 116।। 'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ । तिओ'नमि रायरिसिं, 'देविन्दो 'इणमब्बवी ।।117।।
संस्कृत अनुवाद एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः । नमी राजर्षिस्ततो देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ।।113।।
__ येषां नः किञ्चन नाऽस्ति, सुखं वसामो जीवामः ।
__ मिथिलायां दह्यमानायां, मे किञ्चन न दह्यते ||114।। त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, निर्व्यापारस्य भिक्षोः । किञ्चित् प्रियं न विद्यते, अप्रियमपि न विद्यते ||115||
अनगारस्य भिक्षोः, सर्वतो विप्रमुक्तस्य ।
एकान्तमनुपश्यतो, मुनेर्बहु खलु भद्रम् ||116।। एतमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितो देवेन्द्रः । ततो नमि राजििमदमब्रवीत् ||117||
हिन्दी अनुवाद यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमिराजर्षि ने उसके बाद इन्द्र महाराजा को इस प्रकार कहा । (113)
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