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हमारा कुछ भी नहीं है, अतः हम सुखपूर्वक रहते हैं और जीते हैं, इसलिए मिथिला नगरी जलते हुए भी मेरा कुछ भी जलता नहीं है । (114)
जिन्होंने पुत्रों और स्त्रियों का त्याग किया है तथा व्यापाररहित हैं ऐसे साधु म. को कुछ भी प्रिय नहीं है और कुछ भी अप्रिय नहीं है । (115)
घररहित, भिक्षा द्वारा जीवननिर्वाह करनेवाले, सर्वतः संसार से मुक्त, 'मैं अकेला हूँ', इस प्रकार एकान्त को देखनेवाले संयमी का सचमुच अत्यधिक कल्याण होता है । (116)
यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र में उसके बाद नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा । (117)
प्राकृत हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं, 'कसंदूसंच 'वाहणं । कोसं वड्ढावइत्ताणं, "तओ"गच्छसि 'खत्तिया ! ।।118।।
'एय मटुंनिसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ ।
'तओनमी रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।119।। 'सुवण्ण-रुप्पस्स उपव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया ।
नरस्स'लुद्धस्स 1°न 'तेहिं "किंचि, 12इच्छा हु 13आगाससमा 14अणन्तया ।।120।। .
'पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं 'पसुभिस्सह । - 'पडिपुण्णं नालमेगस्स, 10इइ "विज्जा तवं 13चरे ।।121 ।।
संस्कृत अनुवाद क्षत्रिय ! हिरण्यं सुवर्णं मणिमुक्तं कांस्यं दूष्यं वाहनम् । . कोशं च वर्धयित्वा ततो गच्छसि ||118।।
एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः ।
नमी राजर्षिस्ततो देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ||119।। सुवर्णस्य रूप्यस्य तु पर्वता भवेयुः, खलु कैलाससमा असङ्ख्यकाः स्युः । लुब्धस्य नरस्य तैर्न किञ्चिद्, इच्छा खु आकाशसमा अनन्तकाः ||12011
पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, पशुभिः सह हिरण्यम् । प्रतिपूर्णमेकस्मै नाऽलमिति विदित्वा तपश्चरेत् ||121||
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