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ही ! त्रैलोक्यमकीर्तिपांशुप्रसरेण सर्वत उद्धूलितम ; धिग् धिग् ! आत्मा भीमभवोद्भवानां दुःखानां भवनं कृतः ।।281।। उच्छ्वासनिश्वासरहितं शेषं द्रव्यं गुरोर्वशे भवति । तेनाऽनुज्ञा युज्यते, अन्यथा तस्य दोषो भवेत् ।।282।। यत्र वृद्धाः न सन्ति सा सभा न ये धर्मं न वदन्ति, वृद्धाः न । यत्र च सत्यं नाऽस्ति, स धर्मो न यच्छलनानुविद्धं तत् सत्यं न ||283|| हिन्दी अनुवाद
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अहो ! मैंने कुंद = श्वेतफूल और चंद्रसमान निर्मल पिता के वंश को कलंकित किया है, अहो ! भाइयों के मुखरूपी कमल पर स्याही का काला कूर्चक लगाया है, अहो ! अपयशरूपी रजकणों को फैलाकर चारों तरफ से तीन लोक को धूलवाला बना दिया है, मुझे धिक्कार हो ! कि मैंने स्वयं ही आत्मा को भयंकर भव में उत्पन्न दुःखों का स्थान बना दिया है । ( 281 )
उच्छ्वास और निश्वास (= श्वासोच्छ्वास) रहित शेष सब द्रव्य गुरु भगवंत के अधीन है, अतः अनुज्ञा योग्य ( उचित) है, अन्यथा तो उसे दोष होता है । (282)
जहाँ वृद्धपुरुष नहीं है, वह सभा नहीं है ! जो धर्म को नहीं कहते हैं वे वृद्धपुरुष नहीं हैं ।, जहाँ सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है और जो दूसरों को ठगनेवाला है वह सत्य नहीं है । (283)
प्राकृत 'जोएइ य 'जो 7 धम्मे, 'जीवं विविहेण 'केणइ 'नएण । 'संसार - चारग-गयं, 'सो "नणु "कल्लाणमित्तो त्ति ।।284।। जिणपूआ 'मुणिदाणं, 'एत्तियमेत्तं 'गिहीण 'सच्चरियं । 7जइ 'एआओ 'भट्ठो, 10ता 12 भट्ठो 11 सव्वकज्जाओ ।। 285 ।। 'नरस्सा'भरणं रूवं, 'रुवस्सा' भरणं 'गुणो । 7 गुणस्सा' भरणं 'नाणं, 10 नाणस्सा 1 भरणं 12 दया ।।286।। 'अइरोसो ±अइतोसो, 'अइहासो 'दुज्जणेहिं 'संवासो । “अइउब्भडो य 'वेसो, 'पंच वि 'गरुयं पि "लहुअंति ।। 287 ।।
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