SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रा. रायपुरिसेहिं चोरो घेप्पीअ, दंडिज्जईअ य ।। सं. राजपुरुषैश्चौरोऽगृह्यताऽदण्ड्य त च । 10. हि. जो धन न्यायमार्ग से प्राप्त किया जाता है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता है। प्रा. जंधणं नायमग्गेण विढप्पइ, तं कयावि न नस्सइ । सं. यद् धनं न्यायमार्गेणाऽयंते, तत्कदापि न नश्यते । 11. हि. रात्रि में मुनियों द्वारा स्वाध्याय किया जायेगा। प्रा. रत्तीए मुणीहिं सज्झाओ करिहिइ । सं. रात्रौ मुनिभिः स्वाध्यायः करिष्यते । . 12. हि. शिष्यों को हमेशा आचार्य भगवंत की सेवा करनी चाहिए । प्रा. सीसा सया आयरियं सेवन्तु । सं. शिष्याः सदाऽऽचार्यं सेवन्ताम् । 13. हि. मैं दुष्टकर्मों द्वारा मुक्त किया जाता हूँ। प्रा. हं पावकम्मेहिं मुंचिज्जमि । सं. अहं पापकर्मभिर्मुच्ये । 14. हि. तुम मोह द्वारा मोहित नहीं होते हो । प्रा. तुब्भे मोहेण न मुज्झीअह । सं. यूयं मोहेन न मुह्यध्वे । 15. हि. धर्म से तुम्हारा रक्षण किया गया । प्रा. तुब्भे धम्मेण रक्खिज्जईअ । सं. यूयं धर्मेणाऽरक्ष्यध्वम् । 16. हि. तुम शत्रु द्वारा जीते गये । प्रा. तुमं सत्तुणा जिव्वईअ । सं. त्वं शत्रुणाऽजीयत । 17. हि. जो हमेशा धर्म का श्रवण किया जाय, दान दिया जाय, शील धारण किया जाय, गुरु भगवंतों को वन्दन किया जाय, विधिपूर्वक जिनेश्वर की पूजा की जाय और तत्त्वों की श्रद्धा की जाय तो इस संसार से पार उतरा जाए। प्रा. जइ सया धम्मो सुणिज्जइ, दाणं दिज्जइ, सीलं धरिज्जइ, गुरखो वंदिज्जेइरे, विहिणा जिणाणं पडिमाओ अच्चिज्जेइरे, तत्ताणि च सद्दहीअन्ते, तया अदम् संसारो तरिज्जइ ।
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy