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अतिबहुकमतिबहुशोऽतिप्रमाणेन भोजनं भुक्तम् । अजीर्यमाणं तज्जह्याद्वा वमेद्वा, म्रियेत वा ||277।।
पुत्रि !, प्रियं जम्पेद्, विनयं कुर्यात्, परनिन्दां वर्जेत् । व्यसनेऽपि देहच्छायेव निजनाथं मा विमुञ्च ।।278।।
हिन्दी अनुवाद मैंने पहले प्रमाद के कारण जो कुछ सम्यक् आचरण नहीं किया है उसकी शल्यरहित और कषायरहित मैं क्षमापना करता हूँ 1 (275)
गुणवान पुरुष का मुख घी से सिंचित अग्नि के समान तेजस्वी लगता है और निर्गुण पुरुष का मुख स्निग्धता = घी रहित दीपक के समान निस्तेज लगता है । (276)
अत्यधिक, बहुत बार और प्रमाण से अधिक किया गया भोजन अजीर्णवान पुरुष को दस्त लगाता है, वमन कराता है अथवा मारता (प्राणरहित बनाता) है । (277)
हे पुत्री ! प्रिय बोलना चाहिए, विनय करना चाहिए, परनिंदा का त्याग करना चाहिए और संकट में देह की छाया की तरह अपने पति का त्याग नहीं करना चाहिए । (278)
प्राकृत 'किं लटुं 'लहिही वरं पिययमं, किं तस्स संपज्जिही,
कि "लोयं 10ससुराइयं 12नियगुण-ग्गामेण 13 जिस्सए ? । 14किं 15सीलं परिपालिही? 20पसविही, 17किं 18पुत्तमेवं 19धुवं, 24चिंतामुत्तिमई 21पिऊण 22भवणे, 25संवट्टए 2 कन्नगा ।।279।।
5धम्मारामखयं खमाकमलिणी-संघायनिग्घायणं, 'मज्जायातडिपाडणं सुहमणो-हंसस्स निव्वासणं । "वुड्ढि लोहमहण्णवस्सा खणणं, 12सत्ताणुकंपाभुवो, 14संपाडेइ 'परिग्गहो 'गिरिनई-पूरो व्व वढतओ ।।280।।
संस्कृत अनुवाद किं लष्टं वरं लप्स्यसे ?, किं तस्य प्रियतमां संपत्स्यसे ?; किं श्वसुरादिकं लोकं निजगुणग्रामेण रक्ष्यति ?। किं शीलं परिपालयिष्यसि, ध्रुवं पुत्रमेव प्रसविष्यसे ?, पित्रोभवने कन्यका चिन्तामूर्तिमती संवर्तते ।।279।।
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