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________________ संस्कृत अनुवाद अभूषणो ब्रह्मचारी शोभते , अकिञ्चनो दीक्षाधारी शोभते । बुद्धियुतो राजमन्त्री शोभते, लज्जायुत एकपत्नीकः शोभते ।।288।। धर्मकार्यात्परं कार्यं नाऽस्ति , प्राणिहिंसायाः परममकार्यं न । प्रेमरागात्परो बन्धो नाऽस्ति, बोधिलाभात् परो लाभो नाऽस्ति ।।289।। द्यूते प्रसक्तस्य धनस्य नाशः, मांसे प्रसक्तस्य दयादिनाशः । मद्ये प्रसक्तस्य यशसो नाशः, बेश्याप्रसक्तस्य कुलस्य नाशः ।।290।। हिन्दी अनुवाद अलंकाररहित ब्रह्मचारी शोभा देता है, अकिंचन (निष्परिग्रही) संयमी शोभा देते हैं, बुद्धि से अलंकृत राजमंत्री शोभा देते हैं और लज्जायुक्त एकपत्नीवाला कुलवानपुरुष शोभा देता है । (288) धर्मकार्य समान (श्रेष्ठ) कोई कार्य नहीं है, जीवों की हिंसा से विशेष कोई दुष्कृत्य नहीं हैं, प्रेम के राग से बड़ा कोई बंधन नहीं है और बोधि= सम्यक्त्व की प्राप्ति समान कोई लाभ नहीं है । (289) जुए में आसक्त व्यक्ति के धन का नाश होता है, मांस में आसक्त व्यक्ति के दयादि गुण नष्ट होते हैं, मदिरा में आसक्त मानव की कीर्ति नष्ट होती है और वेश्या में आसक्त मानव के कुल का उच्छेद होता है । (290) प्राकृत 'हिंसापसत्तस्स सुधम्मनासो, चोरीपसत्तस्स सरीरनाशो । 'तहा परत्थीसु'पसत्तयस्स, सव्वस्स नासो 1 अहमा "गई य ।।291।। दाणं 'दरिद्दस्स, पहुस्स खंती; इच्छानिरोहो य 'सुहोडयस्स । 'तारुण्णए "इंदिय-निग्गहोय, °चत्तारिए आणि"सुदुक्कराणि ।।292।। विविहसत्थाओ। संस्कृत अनुवाद हिंसाप्रसक्तस्य सुधर्मनाशः, चौरीप्रसक्तस्य शरीरनाशः । तथा परस्त्रीषु प्रसक्तस्य, सर्वस्य नाशोऽधमा गतिश्च ।।291।। दरिद्रस्य दानम्, प्रभोः शान्तिः, सुखोचितस्येच्छानिरोधः । तारुण्ये इन्द्रियनिग्रहश्च , एतानि चत्वारि सुदुष्कराणि ।।292।। २३६
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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