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पूर्वभव के जन्म का स्मरण करके, लोकोत्तर संयमधर्म के विषय में खुद (स्वयं) ही संबुद्ध बने हुए, राज्य पर पुत्र को स्थापित करके नमिराजर्षि निकलते हैं । (102)
__ श्रेष्ठ अन्तःपुर में रहे हुए वे नमिराजा स्वर्गलोक जैसे उत्तम भोगसुखों को भोगकर (स्वयं) बोध पाये हुए भोगसुखों का त्याग करते हैं । (103)
पुर और जनपदसहित मिथिला नगरी, सैन्य, अन्तःपुर और सभी परिजन का त्याग करके वे पूज्य (नमिराजर्षि) एकान्त = 'द्रव्य से निर्जन उद्यानादिस्थान में, भाव से = मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ' - इस प्रकार रहे हुए हैं । (104)
प्राकृत 'कोलाहलगभूयं, आसी मिहिलाए पव्वयन्तम्मि । तिइया 'रायरिसिम्मि, नमिम्मि अभिणिक्खमन्तम्मि ।।105।।
अब्भुट्ठियं रायरिसिं, पव्वज्जाठाण'मुत्तमं ।
सक्को माहणरूवेण, 'इमं वयणमब्ववी ।।106।। किण्णु 'भो अज्ज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला। "सुव्वन्ति 'दारुणा सद्दा, 'पासाएसुगिहेसु य ।।107 ।।
'एय मटुं निसामित्ता, 'हेउकारणचोइओ। 'तओनमी रायरिसी, देविन्दं 'इणमब्बवी ।।108।।
संस्कृत अनुवाद राजर्षों नमौ मिथिलायां प्रव्रजति (सति), अभिनिष्क्रामति । तदा कोलाहलकभूतमासीत् ||10511
उत्तमप्रव्रज्यास्थानमभ्युत्थितं राजर्षिम् ।
शक्रो ब्राह्मणरूपेण, इदं वचनमब्रवीत् ||106|| भो आर्य ! मिथिलायां प्रासादेषु गृहेषु च । कोलाहलकसङ्घला दारुणाः शब्दाः किं नु श्रूयन्ते ? ||107।।
एतमर्थं निशम्य हेतुकारणनोदितः ।। नमी राजर्षिस्ततो, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ||108।।
हिन्दी अनुवाद जब नमिराजर्षि मिथिला नगरी में संयम लेते थे और निकल रहे थे तब वातावरण कोलाहलमय हो गया । (105)
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