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(3) (इन्द्रियविषयभावना)
संस्कृत अनुवाद श्रोत्रविषयमागतान्, शब्दान् श्रोतुं न शक्नुयान् न । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।।90।।
चक्षुर्विषयमागतं, रूपमद्रष्टुं न शक्नुयात् ।
तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।191।। नासिकाविषयमागतं, गन्धमाघ्रातुं न शक्नुयान्न । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ।।92।। जिह्वाविषयमागतं, रसमस्वादितुं न शक्नुयात् । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षु ः परिवर्जयेत् ||93||
विसयमागतं स्पर्श, न संवेदयितुं न शक्नुयात् । तत्र तु यौ रागद्वेषौ, तौ भिक्षुः परिवर्जयेत् ||94।।
हिन्दी अनुवाद इन्द्रियविषयभावना में कान, चक्षु, नाक, जिह्वा और स्पर्श (त्वचा) इन पाँचों इन्द्रियों के विषय की भावना बतायी है |
कान के विषय में आये हुए शब्दों को नहीं सुनना, शक्य नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् सुनाई देते ही हैं, परन्तु उनके सम्बन्धी जो राग (अनुकूल विषय में राग) और द्वेष (प्रतिकूल विषय में द्वेष) करना, उसका संयमी आत्मा त्याग करे ।(90)
आँख के विषय में आये रूप को नहीं देखना, यह शक्य नहीं है (अर्थात् दिखाई देता ही है), परन्तु संयमी आत्मा को राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए ।
. नाक के विषय में आयी हुई गन्ध को नहीं सूंघना, यह शक्य नहीं है, परन्तु संयमी आत्मा उसमें राग या द्वेष का त्याग करे । (92)
जिह्वा के विषय में आये हुए रस का स्वाद नहीं लेना, शक्य नहीं है, (अर्थात् स्वाद आता है) परन्तु उसमें राग या द्वेष का संयमी आत्मा त्याग करे । (93)
स्पर्शन्द्रिय के विषय में आये हुए स्पर्श का अनुभव नहीं करना, यह शक्य नहीं है अर्थात् अनुभव हो ही जाता है । परंतु उसमें राग और द्वेष का संयमी आत्मा त्याग करें । (94)
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