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हिन्दी अनुवाद हिंसा में आनंदित व्यक्ति का सद्धर्म नष्ट होता है, चोरी में अनुरक्त व्यक्ति के शरीर का नाश होता है, उसी प्रकार परस्त्री में लम्पट (आसक्त) व्यक्ति का सब कुछ नष्ट होता है और दुर्गति होती है । (291)
दरिद्र अवस्था में दिया हुआ दान, स्वामी (मालिक) होते हुए भी क्षमा रखना, सुखी होते हुए भी इच्छा का निरोध और जवानी में इन्द्रियों को वश में करना, ये चार अतिदुष्कर कार्य हैं । (292)
पसत्थी
प्राकृत "पणमिअर्थमणपासं, जिणीसरं 'भत्तचित्तवंछिययं । 'जगगुरुनेमिसुरिंद, जास' पसाया इमा रइआ ।।1।।
सगुरुं विन्नाणसूरिं, 'संतप्पभविअबोहयं 'वंदे ।
भवकूवाउ असरणो, जेण 'जडो हं 10समुद्धरिओ ।।2।। पन्नासकत्थुरविजय- गणिणा'रइया य पाढमालेयं । *बाणनिहिनंदचंदे, 'वासे महुमाससुहपक्खे ।।3।।
'जाव जिणसासणमिणं, 'जाव य धम्मो जयम्मि 'विप्फुरइ ।
पाइअविज्जत्थीहिं, ताव 1"सुहं 11 भणिज्जउ एसा ।।4।। अवि यअट्ठारस-दुसहस्से, विक्कमवरिसे 'तइज्जसक्करणं । कत्थूरायरिएणं, 'सुपाढमालाइ संरइअं ।।5।।
प्रशस्त्रिः
__संस्कृत अनुवाद भक्तचित्तवाञ्छितदं, जिनेश्वरं स्थम्भनपार्थं प्रणम्य । जगद्गुरुनेमिसूरीन्द्रं येषां प्रसादादियं रचिता ||1||
सन्तप्तभविकबोधदं स्वगुरुं विज्ञानसूरि वन्दे ।
येनाऽशरणो जडोऽहं भवकूपात् समुद्धृतः ।।2।। पन्न्यासकस्तूरविजयगणिना चेयं पाठमाला । बाणनिधिनन्दचन्द्रे वर्षे मधुमासशुभपक्षे रचिता ||3||
यावदिदं जिनशासनं यावच्च धर्मो जगति विस्फुरति । तावत् प्राकृतविद्यार्थिभिरेषा सुखं भण्यताम् ।।4।।
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