Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 250
________________ संस्कृत अनुवाद सत्पुरुषा व्यसने विषादरहिताः, सम्पत्त्यामनुत्तराः, मरणेऽप्यनुद्विग्नाः, साहससाराश्च भवन्ति ।।272।। सुष्टु प्रियस्याऽप्यनुपस्थितस्य, धर्मं मा खलु कथय । विध्याताऽग्निं धमतो, मुखं विच्छायं भवति ||273।। अभिसारिकाश्चौराः, पारदारिकाश्च रजनीमिच्छन्ति । तालाचरा: सुभिक्षं , केचिद् बहुधन्या दुर्भिक्षम् ||274|| हिन्दी अनुवाद सत्पुरुष आपत्ति में खेदरहित होते हैं, समृद्धि में अनुत्तर = श्रेष्ठ होते हैं, मृत्यु समय भी उद्वेगरहित होते हैं और साहसवंत होते हैं । (272) अत्यंत प्रिय हो तो भी अनुपस्थित = अपने सामने नहीं आये हुए को धर्म नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बुझते हुए अग्नि को फूंकने पर अपना ही मुख मलिन होता है । (273) अभिसारिका = संकेत स्थान पर जानेवाली स्त्रियाँ, चोर और परस्त्रीलंपट पुरुष रात को चाहते हैं, चोर सुकाल और अधिक धान्यवाले कुछ लोग दुष्काल चाहते हैं । (274) प्राकृत जिंकिंचि पमाएणं, 'न सुट्ठभेवट्टियं मए 'पुट्वि । 10तं भे 14खामेमि 13अहं, निस्सलो 12निक्कसाओ अ ।।275।। 'गुणसुट्ठिअस्सवयणं, घयपरिसित्तो व्व 'पावओ भाइ। 'गुणहीणस्सन 'सोहइ, "नेहविहूणो "जह 12पईवो ।।276।। अइबहुयं अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हाएज्ज व वामेज्ज व, मारेज्ज व 'तं अजीरंतं ।।277।। जंपेज्ज पियं विणयं, करिज्ज'वज्जेज्ज 'पुत्ति ! परनिंदं । श्वसणे विमा 12विमुंचसु, 'देहच्छाय व्व नियनाहं ।।278।। संस्कृत अनुवाद भो ! मया प्रमादेन पूर्वं यत्किश्चित् सुष्टु न वर्तितम् । भो ! तन्निःशल्यो निष्कषायश्चाऽहं क्षाम्यामि ।।275।। गुणसुस्थितस्य वदनं घृतपरिषिक्तः पावक इव भाति । गुणहीनस्य न शोभते, यथा स्नेहविहीनः प्रदीपः ||276।। २३१

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