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संस्कृत अनुवाद पुत्रकलत्रयोः स्वामिनि भृत्येऽतितर्जना न कर्तव्या । दध्यपि मथ्यमानं देहं मुञ्चति, सन्देहो न ||268।।
वल्ली, नरेन्द्रचित्तं, व्याख्यानं, पानीयं महिलाश्च ।
तत्र च सदा व्रजन्ति, यत्र च धूर्तीयन्ते ।।269।। वेश्या मुनिवरसदृशी ग्रन्थार्थमवलोकयति । अर्थं गृहीत्वा मोक्षं प्राप्नोति, परलोके दृष्टिर्ददाति ||270।।
द्वाभ्यां पथिभ्यां न गम्यते, द्विमुखसूची कन्यां न सीव्यति । इन्द्रियसौख्यं च मोक्षश्च द्वे कदापि न खलु भवतः ।।271||
हिन्दी अनुवाद पुत्र, पत्नी, सेठ अथवा नौकर (सेवक) का अत्यंत तिरस्कार नहीं करना चाहिए, क्योकि दही भी मथने पर अपना स्वरूप छोड़ देता है, उसमें कोई संशय नहीं है । (268)
बेल, राजा का मन, प्रवचन, पानी और स्त्रियाँ हमेशा वहीं जाते हैं, जहाँ वे धूर्त पुरुषों द्वारा ले जाये जाते । (269)
वेश्या साधु के समान होती है, जिस प्रकार साधु भगवंत ग्रन्थों के अर्थ का अवगाहन करते हैं, अर्थ को जानकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, परलोक तरफ दृष्टि डालते हैं, उसी प्रकार वेश्या गांठ में रहे धन को देखती है, धन को लेकर उससे छूट जाती है और दूसरे पुरुष में नजर डालती है । (270)
जिस प्रकार एक साथ में दो रास्तों पर नहीं चल सकते हैं, एक साथ में दो मुखवाली सलाई से कपड़ा नहीं सीया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के सुख और मोक्ष ये दोनों एक साथ में कभी प्राप्त नहीं होते हैं । (271)
प्राकृत वसणे विसायरहिया, 'संपत्तीए अणुत्तरा हुंति । मरणे वि'अणुव्विग्गा, साहससारा य 'सप्पुरिसा ।।272।।
अणुवट्ठिअस्स धम्म, मा हु'कहिज्जाहि 'सुट्ठ विपियस्स ।
"विच्छायं 12होइ 10मुहं, विज्झायरिंग धमंतस्स ।।273।। 4रयणिं 'अभिसारियाओ, चोरा पदारिया य 'इच्छंति । तालायरा'सुभिक्खं, 'बहुधन्ना केइ "दुब्भिक्खं ।।274।।
हसून
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