Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 238
________________ 'जेण 'परो 'दूमिज्जइ, 'पाणिवहो होइ 'जेण भणिण । 'अप्पा "पडइ 'अणत्थे, 13न हु 11 तं 14 जंपंति 12 गी अत्था | | 230 11 पुण्णं 2 संगामे 'गयदुग्गमे 'हुयवहे, 'जालावलीसंकुले, "कंतारे ‘करिवग्घसीहविसमे, 'सेले 'बहूवद्दवे । 10 "अंबोहिमि समुल्लसंतलहरी - लंघिज्जमाणंबरे, "सव्वो "पुव्वभवज्जिएहि 12 पुरिसो, “पुन्नेहि पालिज्जए || 231।। संस्कृत अनुवाद प्रलयेऽपि महापुरुषाः, प्रतिपन्नमन्यथा न खलु कुर्वन्ति । दीनतां न गच्छन्ति प्रार्थनाभङ्गं न खलु कुर्वन्ति ||229|| येन परो दूम्यते, येन भणितेन प्राणिवधो भवति । आत्माऽनर्थे पतति, तत् खलु गीतार्था न जल्पन्ति ||230 गजदुर्गमे सङ्ग्रामे ज्वालावलीसङ्कले हुतवहे, करिव्याघ्रसिंहविषमे कान्तारे, बहूपद्रवे शैले । समुल्लसल्लहरीलङ्घ्यमानाऽम्बरेऽम्भोधौ, सर्व: : पुरुष: पूर्वभवाजिर्तैः पुण्यैः पाल्यते || 231 ।। हिन्दी अनुवाद प्रलयकाल में भी महापुरुष स्वीकृत बात को पलटते नहीं हैं, दीनता प्राप्त नहीं करते हैं और किसी की भी प्रार्थना को ठुकराते नहीं हैं अर्थात् मांग पूरी करते हैं । (229) जिस वचन से दूसरों के दिल में परिताप होता है, जिस वचन से जीवहिंसा होती है और स्वयं अनर्थ को प्राप्त करे, वैसे वचन गीतार्थ महापुरुष नहीं बोलते हैं । हाथियों के कारण दुर्गम युद्ध में, ज्वालाओं के समूह से धगधगायमान आग में, हाथी - व्याघ्र और सिंह से विकट जंगल में, अत्यधिक संकटवाले पर्वत पर और मानों आकाश को स्पर्श करती उछलती लहरोंवाले समुद्र में भी प्रत्येक पुरुष पूर्वभव में उपार्जित पुण्य से ही रक्षण किया जाता है । (231) २१९

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