Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 230
________________ मदिरापान से मूढ़ मनवाला अपने अथवा पराये के भेद को नहीं जानता है, स्वयं को समर्थ मानता है अतः सेठ का भी तिरस्कार करता है । (202) शव की तरह रास्ते में पड़े, मदिरा से उन्मत्त दुष्ट पुरुष के खुले मुँह में कुत्ते भी विवर समझकर पेशाब कर लेते हैं । (203) प्राकृत धम्मत्थकामविग्धं, विहणियमइकित्तिकंतिमज्जायं । मज्जं 'सव्वेसि पि हु, 'भवणं दोसाण किं बहुणा? ।।204 ।। 'जंजायवा ससयणा, 'सपरियणा सविहवा सनयरा य । 'निच्चं सुरापसत्ता, खयं गया "तं 12जए उपयडं ।।205।। एवं 'नरिंद ! जाओ, मज्जाओ जायवाण'सव्वखओ । 'तारन्ना 'नियरज्जे, 1"मज्जपवित्ती वि "पडिसिद्धा ।।206।। कुमारपालप्रतिबोधे संस्कृत अनुवाद धर्मार्थकामविघ्नं, विहंतमतिकीर्तिकान्तिमर्यादाम् । किं बहुना ? सर्वेषामपि दोषाणां भवनं खलु मद्यम् ।।204।। यद् यादवाः सस्वजनाः, सपरिजनाः सविभवाः सनगराश्च । नित्यं सुराप्रसक्ताः क्षयं गताः, तज्जगति प्रकटम् ||205।। नरेन्द्र ! एवं मद्याज्जादवानां सर्वक्षयो जातः । ततो राज्ञा निजराज्ये, मद्यप्रवृत्तिरपि प्रतिषिद्धा ||206।। हिन्दी अनुवाद धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ में विघ्नरूप, बुद्धि, कीर्ति और कांति की सीमा को नष्ट करनेवाला है । अधिक क्या कहना ? सचमुच सभी दोषों का उत्पत्तिस्थान मद्य ही है । (204) जो यादव स्वजन, परिजन, वैभव और नगरों के साथ हमेशा मदिरा में मशगूल = आसक्त रहने से नष्ट हुए, वे जगत् में प्रसिद्ध ही हैं । (205) हे नरपति ! इस प्रकार मदिरा से यादवों का सर्वनाश हुआ, अतः राजा ने भी अपने राज्य में मदिरा की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध करवाया । (206) -२११

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