Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 235
________________ जाति, रूप और विद्या ये तीन गहरे खड्ढे में गिरो, परंतु धन ही वृद्धिंगत बने, जिससे सभी गुण प्रगट होते हैं । अकार्य (दूसरों के दोष देखने) में प्रमादी, जीवहिंसा में सदा खअ लूले (लंगड़े), दूसरों के दोष सुनने में बधिर और परायी स्त्रियों के विषय में जन्मांध बनना चाहिए । (219) प्राकृत जो वज्जइ परदारं. 'सो सेवइ 'नो 'कयाइ पदारं । 'सकलत्ते 1 संतुट्ठो, 13सकलत्तो "सो नरो होइ ।।220।। अवरं 'अग्गिमि पवेसो,'वर विसुद्धण'कम्मणा मरणं । मा 'गहिअव्वयभंगो, "मा जीअंखलिअसीलस्स ।।221 ।। भावो जा 'दव्वे 'होइ मई, अहवा'तरुणीसुरूववंतीसु। सा जइ 10जिणवरधम्मे, "करयलमज्झे 13ठिआ 12सिद्धी ।।222।। तक्कविहूणो विज्जो, 'लक्खणहीणो अपंडिओ 'लोए । भावविहूणो' धम्मो, तिन्नि विनूणं 1 हसिज्जंति ।।223।। 18 वंझं 19बिंति 'जहित्थ सत्थपढणं, अत्थावबोहं विणा, 6सोहग्गेण विणा मडप्पकरणं, "दाणं विणा संभमं । 12सब्भावेण विणा 14पुरंधिरमणं, 15नेहं 16विणा17 भोयणं, _20एवं 25धम्मसमुज्जमं पि21विबुहा, 22सुद्धं 24विणा 23भावणं ।।224।। संस्कृत अनुवाद यो वर्जति परद्वारम् , स कदापि परदारा न सेवते । स्वकलत्रे सन्तुष्टः, स नरः सकलत्रो भवति ||220|| अग्नौ प्रवेशो वरम्, विशुद्धेन कर्मणा मरणं वरम् । मा गृहीतव्रतभङ्गः, भावः मा स्खलितशीलस्य जीवितम् ||221|| या द्रव्ये मतिर्भवति, अथवा रूपवतीषु तरुणीषु । सा यदि जिनवरधर्मे, सिद्धिः करतलमध्ये स्थिता ।।222|| लोके तर्कविहीनो विद्वान्, लक्षणहीनश्च पण्डितः । भावविहीनो धर्मः, त्रयोऽपि नूनं हस्यन्ते ।।223।। ॐ २१६ -

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