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परन्तु जिसको देखकर इसके दो हाथ स्वाभाविक बनेंगे, उससे ही तेरे पुत्र को भय होगा | इस बात में थोडी भी शंका को स्थान नहीं है । (180)
प्राकृत 'सावि भयवेविरंगी, पुत्तं दंसेइ जाव 'कण्हस्स। 'ताव च्चिय तस्स "ठियं, 1"पयइत्थं °वरभुयाजुगलं ।।181।।
'तोकण्हस्स पिउच्छा, पुत्तं 'पाडेइ पायपीढंमि ।
4अवराहखामणत्थं, सो वि सयं से"खमिस्सामि ।।182।। 'सिसुवालो वि हुजुव्वण-मएणनारायणं असब्भेहिं । वयणेहि भणइ 'सो वि हु, 10खमइ खमाए 'समत्थो वि ।।183।।
अवराहसए पुण्णे, वारिज्जंतोण "चिट्ठइ 'जाहे । कण्हेण'तओ 12छिन्, "चक्केण "उत्तमंगं °से ।। 184।।
- सूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्तौ
संस्कृत अनुवाद साऽपि भयवेपिराङ्गी यावत् कृष्णस्य पुत्रं दर्शयति । तावच्चैव तस्य वरभुजायुगलं प्रकृतिस्थं स्थितम् ||181।।
ततः कृष्णस्य पितृष्वसा अपराधक्षामणार्थं पुत्रं पादपीठे पातयति ।
सोऽपि तस्य शतं क्षमिष्यामि ।।182।। शिशुपालोऽपि खलु यौवनमदेन नारायणमसभ्यः । वचनैर्भणति, सोऽपि खलु समर्थोऽपि क्षमया क्षमते ।।183।।
अपराधशते पूर्णे, यदा वार्यमाणोऽपि न तिष्ठति । ततः कृष्णेन तस्योत्तमाङ्गं चक्रेण छिन्नम् ||184।।
हिन्दी अनुवाद वह भी भय से काँपते अंगवाली जब तक कृष्ण के पुत्र को बताती है, तब तक उसके उत्तम दोनों हाथ यथावस्थित हो गए । (181)
अतः कृष्ण की बूआ अपराध क्षमा करने के लिए पुत्र को उसके चरणों में रखती है और वह (कृष्ण) भी उसके सौ अपराध क्षमा करते हैं । (182)
शिशुपाल भी जवानी के मद से कृष्ण को असभ्य वचनों द्वारा बुलाता है, तो भी वह कृष्ण समर्थ होते हुए भी उसको माफ करता है । (183)
सौ अपराधपूरे होने पर, रोकने पर भी वह रुकता नहीं है, तब कृष्ण ने उसका मस्तक चक्र से छेद दिया । (184)
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