Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ मस्तक पर पैर का पंजा मारे, उसको क्या दण्ड करना चाहिए ? युवानों ने कहा - इसमें कहने योग्य क्या है ? उसके शरीर के तिल-तिल जितने टुकड़े कर देने चाहिए अथवा भड़कती आग में डालना चाहिए । तत्पश्चात् राजा ने वृद्धों (वृद्ध मंत्रियों) को पूछा । उन्होंने एकान्त में जाकर विचार किया, अधिक अनुरागवाली महारानी ही यह (=लात मारना) कर सकती है, अतः उनकी पूजा ही करनी चाहिए। प्राकृत पूया चेव कीरइ । एयमेयत्थं वत्तव्वं ति निच्छिऊण भणियं, जं माणुसमेरिसं महासाहसमायरइ, तस्स सरीरं ससीसवायं कंचणयणालंकारेहिं अलंकिज्जइ । तुटेण भणियं रत्ना, साहु विन्नायं ति, सच्चदंसिणो त्ति रन्ना ते चेव पमाणं कय ति, “यतो वृद्धा नाहितेषु प्रवर्तन्ते, ततो वृद्धानुगेन भवितव्यम्, सोऽप्येवमेवपापेन प्रवर्तते, केन हेतुना ? इत्याह-साङ्गत्यजनिताः गुणाः प्राणिनां स्युः । अत एवोक्तम्-'' 'उत्तमजणसंसग्गी, सीलदरिदं पि "कुणइ सीलड्ढे । जह "मेरुगिरिविलग्गं, 'तणं पिकणयत्तण मुवेइ ।। 185।। . धर्मरत्नप्रकरणे । संस्कृत अनुवाद निश्चित्य भणितम् , यो मनुष्य ईदृशं महासाहसमाचरति, तस्य शरीरं सशीर्षपादं काञ्चनरत्नालङ्कारैरलडिक्रयते । तुष्टेन भणितं राज्ञा , साधु विज्ञातमिति, सत्यदर्शिन इति राज्ञा ते चैव प्रमाणं कृता इति, यतो वृद्धा नाऽहितेषु प्रवर्तन्ते, ततो वृद्धानुगेन भवितव्यम् सोऽप्येवमेव पापे न प्रवर्तते, केन हेतुना ?, इत्याह-साङ्गत्यजनिता गुणाः प्राणिनां स्युः । अत एवोक्तम् उत्तमजनसंसर्गी शीलदरिद्रमपि शीलाढ्यं करोति । यथा मेरुगिरिविलग्नं, तृणमपि कनकत्वमुपैति ।।185।। हिन्दी अनुवाद यहाँ यह बताना चाहिए । इस प्रकार निश्चय करके (राजा को) कहा- जो मनुष्य इतना बड़ा साहस करता है, उसका शरीर चरण से मस्तकपर्यन्त सुवर्णरत्न के अलंकारों से अलंकृत करना चाहिए । सन्तुष्ट होकर राजा ने कहा, तुमने अच्छा जाना, तुम सत्यदर्शी (सत्य को देखनेवाले) हो, इसलिए राजा ने २०१

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258