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8. प्रा. मिच्छा तुं पुत्ताणं कुज्झसि ।
सं. मिथ्या त्वं पुत्रेभ्यः क्रुध्यसि ।
हि. तू पुत्रों पर निष्फल क्रोध करता है ।
9.
प्रा. जो धणस्स मएण मज्जइ, सो भवमडइ | सं. यो धनस्य मदेन माद्यति, स भवति ।
हि. जो धन के मद से मदोन्मत्त होता है, वह संसार में भटकता है ।
10. प्रा. पावाणं कम्माणं खयाए ठामि काउसग्गं ।
सं. पापानां कर्मणां क्षयाय तिष्ठामि कायोत्सर्गम् ।
हि. मैं पाप कर्मों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग में रहता हूँ ।
11. प्रा. मज्जम्मि मंसम्मि य पसत्ता मणुसा निरयं वच्चन्ति । सं. मद्ये मांसे च प्रसक्ताः मनुष्याः नरकं व्रजन्ति ।
हि. मदिरा और मांस में आसक्त मनुष्य नरक जाते हैं । 12. प्रा. नक्खत्ताणं मिअंको जोअइ |
सं. नक्षत्राणां मृगाङ्को द्योतते ।
हि. नक्षत्रों में चन्द्र चमकता है ।
13. प्रा. परोवयारो पुण्णाय, पावाय अन्नस्स पीलणं, इअ नाणं जस्स हिए सो धमिओत्ति |
सं. परोपकारः पुण्याय पापायाऽन्यस्य पीडनम्, इति ज्ञानं यस्य हृदये सः धार्मिक इति ।
हि. परोपकार पुण्य के लिए, दूसरे को पीड़ा करनी यह पाप के लिए है, इस प्रकार का ज्ञान जिसके हृदय में है वह धार्मिक है ।
14. प्रा. मूढो हं, तत्तो कत्थ गच्छामि ?, कहिं चिट्ठामि ?, कस्स कहेमि ?, कस्स रूसेमि ? |
सं. मूढोऽहं, ततः कुत्र गच्छामि ?, कुत्र तिष्ठामि ?, कस्य कथयामि ?, कस्मै रुष्यामि ? ।
हि. मैं मूर्ख हूँ, इसलिए कहाँ जाऊँ ?, कहाँ खड़ा रहूँ ?, कहूँ ?, किस पर गुस्सा करूँ ? ।
15. प्रा. जीवा पावेहिं कज्जेहिं निरयंसि उववज्जिरे ।
सं. जीवाः पापैः कार्यैर्नरके उपपद्यन्ते ।
हि. जीव पापकर्मों से नरक में उत्पन्न होते हैं ।
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किसको