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पधारे । महेश्वरदत्त और अतिरागयुक्त उस परिस्थितिको अवधिज्ञान से जानकर उन्होंने विचार किया,
प्राकृत अहो ! अन्नाणयाए एस सत्तुं उच्छंगेण वहइ, पिउमंसाणि य खायइ, सुणिगाए देइ मंसाणि । अकज्जंति य वोत्तुण निग्गओ ! । महेसरदत्तेण चिंतियं कीस भन्ते साहू अगहियभिक्खो 'अकज्जंति यवोतूण' निग्गओ? । आगओ य साहुंगवेसंतो, विक्तिपएसे दट्ठण, वंदिऊण पुच्छइ-भयवं! किं न गहियं भिक्खं मम गेहे ! जंवा कारणमुदीरियं तं कहेह । साहुणा भणिओ-सावग! ण ते मंतुं कायव्वं । पिउरहस्सं कहियं, भज्जारहस्सं, सत्तुरहस्सं च साभिण्णाणं जहावत्तमक्खायं । तं च सोऊण जायसंसारनिव्वेओ तस्सेव समीवे मुक्कगिहवासो पव्वइओ ।।
वसुदेवहिंडीए प्रथमखण्डे प्रथमभागे
संस्कृत अनुवाद अहो ! अज्ञानतयैष शत्रुमुत्सङ्गेन वहति, पितृमांसानि च खादति, शुनिकायै मांसानि ददाति । अकार्यमिति चोक्त्वा निर्गतः । महेश्वरदत्तेन चिन्तितम्कस्माद् भगवान् साधुरगृहीतभिक्ष: 'अकार्यं' इति चोक्त्वा निर्गतः ? | आगतश्च साधुं गवेषयन् , विविक्तप्रदेशे दृष्ट्वा , वन्दित्वा पृच्छति-भगवन् ! किं न गृहीता भिक्षा मम गृहे ? यद् वा कारणमुदीरितं तत् कथय ! साधुना भणितः श्रावक ! न ते मन्युः कर्तव्यः । पितृरहस्यं कथितं , भार्यारहस्यं शत्रुरहस्यं च साभिज्ञानं यथावृत्तमारव्यातम् । तच्च श्रुत्वा जातसंसारनिर्वेदस्तस्यैव समीपे मुक्तगृहवासः प्रव्रजितः ।।
हिन्दी अनुवाद __ अहो ! अज्ञान के कारण इस दुश्मन को गोद में लेता है, पिता के मांस को खाता है और कुतिया को मांस देता है । अतः ‘दुष्कृत्य' इस प्रकार बोलकर निकल गए । महेश्वरदत्त ने विचार किया - पूज्य साधु भगवन्त भिक्षा लिये बिना 'दुष्कृत्य' इस प्रकार बोलकर वापिस क्यों लौट गए ? साधु भगवंत की शोध करता वह उनके पास आया । एकान्त = (स्त्री-पशु-नपुंसकरहित) स्थान देखकर वंदन करके पूछता है - भगवन् ! मेरे घर से भिक्षा क्यों ग्रहण नहीं की ? अथवा जो कारण है वह (कहो) बताओ । साधु भगवन्त ने कहा - हे श्रावक ! तुम मेरी बात से गुस्सा नहीं करना । पिता का रहस्य, स्त्री का रहस्य और शत्रु का रहस्य भी निशानी सहित यथार्थ बताया । वह सुनकर संसार से निर्वेद = वैराग्य प्राप्त किया, गृहवास का त्यागकर उनके पास दीक्षा ली ।
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