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संस्कृत अनुवाद सिंहासने निविष्टः शक्रेशानौ च द्वाभ्यां पार्थाभ्याम् । मणिरत्नविचित्रदण्डैश्चामरैर्वीजयत: ||83।।
पूर्वं संहृष्टरोमकूपैर्मनुष्यैरूत्क्षिप्ता ।
पश्चात् सुराऽसुरा, गरुडनागेन्द्रा देवा वहन्ति ।।84|| सुराः पुरतो वहन्ति, पुनरसुरा दक्षिणे पार्थे । गरुडा अपरान् वहन्ति, नागाः पुनरुत्तरान् पार्थान् ||85।।
कुसुमितं वनखण्डमिव , यथा वा शरत्काले पद्मसरः । कुसुमभरेण शोभते, इति सुरगणैर्गगनतलं ||86।।
हिन्दी अनुवाद सिंहासन पर बिराजमान प्रभु को, दोनों तरफ शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र मणि और रत्नजड़ित दण्डवाले चामरों द्वारा वींझते हैं । (83)
(वह शिबिका) सर्वप्रथम सानन्दरोमांचित मनुष्यों द्वारा उठायी गयी । तत्पश्चात् देव, दानव, गरुड़ेन्द्र और नागेन्द्रादि देव उठाते हैं । (84)
(उस शिबिका को) देव पूर्व तरफ से तथा दानव दक्षिण तरफ से उठाते हैं | गरुड़ेन्द्र पश्चिम तरफ से और नागेन्द्र उत्तर तरफ से उठाते हैं । (85)
जिस प्रकार पुष्पों से विकसित वनखण्ड शोभा देता है, अथवा जिस प्रकार शरदऋतु में पुष्पों के समूह से पद्मसरोवर शोभा देता है उसी प्रकार सम्पूर्ण आकाश देवों के समूह से देदीप्यमान बनता है । (86)
प्राकृत सिद्धत्थवणं व जहा, कणियारवणं व चंपगवणं वा । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणतलं सुरगणेहिं ।।87।।
वरपडह-भेरि-झल्लरि-संखसयसहस्सिएहिं तुरेहिं ।
गयणयले धरणियले, तूरणिणाओ परमरम्मो ।।88।। ततविततं घणझुसिरं, आउज्जं चउव्विहं बहुविहियं । वाइंति तत्थ देवा, बहूहिं आनट्टगसएहिं ।।89।।
आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे ।
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