Book Title: Aao Prakrit Sikhe Part 02
Author(s): Vijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 185
________________ हिन्दी अनुवाद प्राणी क्रोध से अधोगति में जाते हैं, अभिमान से भी अधमगति = दुर्गति होती है, माया से सद्गति रुकती है तथा लोभ से इहलोक और परलोक दोनों में भय रहता है । (126) (उसके बाद) ब्राह्मण के रूप का त्यागकर, इन्द्र का रूप प्रगट करके ऐसी मधुर वाणी द्वारा स्तुति करते हुए (इन्द्रमहाराजा नमिराजर्षि को) वन्दन करते हैं । (127) "अहो ! आपने क्रोध को जीत लिया है, अहो ! आपने मान को पराजित किया है, अहो ! आपने माया को दूर किया है और अहो ! आपने लोभ को स्वाधीन (अपने आधीन) किया है । (128) अहो ! आपकी ऋजुता = सरलता उत्तम है, आपकी मुदता श्रेष्ठ है, अहो ! आपकी क्षमा उत्तम है और आपकी मुक्ति (निर्लेपता) भी सुन्दर है । (129) प्राकृत इहं 'सि उत्तमो 'भंते, पच्छा'होहिसि उत्तमो। 'लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, "सिद्धि 12गच्छसि नीरओ ।।130।। 'एवं अभित्थुणंतो, रायरिसिं उत्तमाए 'सद्धाए । ___पयाहिणं'करेंतो, पुणो पुणो 10वंदइसक्को ।।131 ।। तो वंदिऊण 'पाए, 'चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स। 'आगासेणुप्पइओ, 'ललियचवलकुंडलतिरीडी ।।132।। *नमी नमेइ अप्पाणं, 'सक्खं 'सक्केण चोइओ । चइऊण 'गेहं च वेदेही, "सामण्णे "पज्जुवट्ठिओ ।।133।। संस्कृत अनुवाद भगवन ! इहोत्तमोऽसि, पश्चादत्तमो भविष्यसि । नीरजा लोकोत्तमोत्तमं, स्थानं सिद्धिं गच्छसि ||130।। एवं राजर्षिमुत्तमया श्रद्धयाऽभिष्टुवन् । प्रदक्षिणां कुर्वन्, शक्रः पुनः पुनर्वन्दते ||131।। ततो मुनिवरस्य चक्राङ्कुशलक्षणौ पादौ वन्दित्वा । ललितचपलकुण्डलकिरीटी आकाशेनोत्पतितः ||132।। साक्षाच्छक्रेण नोदितो नमिरात्मानं नमयति । गृहं च त्यक्त्वा वैदेही , श्रामण्ये पर्युपस्थितः ||133।। -१६६

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