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हिन्दी अनुवाद इस बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित शक्रेन्द्र ने उसके बाद नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा । (122)
हे राजन् ! आश्चर्य है कि तुम प्राप्त हुए अन्दुत भोगों का त्याग करते हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा करते हो, इस प्रकार तुम संकल्प से ही नष्ट होते हो । (123)
यह बात सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने उसके बाद शक्रेन्द्र को इस प्रकार कहा । (124)
कामनाएँ शल्य जैसी हैं, इच्छाएँ जहर समान हैं, अभिलाषाएँ आशीविष सर्प के समान हैं, अतः भोगों की इच्छा करते-करते, वे इच्छाएँ पूरी नहीं होने पर प्राणी दुर्गति में जाते हैं । (125)
प्राकृत अहे वयंति 'कोहेणं, 'माणेण अहमा गई । 'माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ "दुहओभयं ।। 126।।
अवउज्झिऊण 'माहण-रूवं, विउव्विऊण इन्दत्तं ।
वंदइ अभित्थुणतो, "इमाहि महुराहिं' वग्गुहिं ।। 127।। अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो 'पराजिओ । अहो "निरक्किया माया, "अहो 12लोभो वसीकओ ।। 128।।
1अहो ते अज्जवं 'साह, अहो ते साह 'मद्दवं । अहो 10ते 12उत्तमाखंती, 13अहो "15 मुत्ति 1 उत्तमा ।।129।।
संस्कृत अनुवाद क्रोधेनाऽधो व्रजन्ति, मानेनाऽधमा-गतिः । मायया गतिप्रतिघातो, लोभाद् द्विधातो भयम् ||126।।
ब्राह्मणरूपमपोह्य, इन्द्रत्वं विकृत्य ।
अभिर्मधुराभिर्वाग्भिरभिष्टुवन् वन्दते ||127।। अहो त्वया क्रोधो निर्जितः, अहो मानः पराजितः । अहो माया निराकृता, अहो लोभो वशीकृतः ।।128।।
अहो ते आर्जवं साधु, अहो ते मार्दवं साधु । अहो तव शान्तिस्तमा, अहो ते मुक्तिस्तमा ||129।।
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