________________
(7) वयछक्कं
प्राकृत'तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण 'देसिअं । अहिंसा 'निउणा दिट्ठा, 10सव्वभूएसु"संजमो ।।134।।
जावंति 'लोए पाणा, तसा अदुव थावरा ।
'ते जाणम जाणं वा, 1"न"हणेणोवि12 13घायए ।।135।। 'सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउंन मरिज्जिउं । 'तम्हा "पाणिवहं घोरं, "निग्गंथा 12वज्जयंतिणं ।।136।।
अप्पणट्टापट्टा वा, कोहावा 'जइ वा भया । __ हिंसगं न 'मुसंबूआ, 1"नो वि "अन्नं वयावए ।।137।।
(7) व्रतषट्कम्
संस्कृत अनुवाद तत्र महावीरेणेदं प्रथमं स्थानं देशितम् | अहिंसा निपुणा दृष्टा, सर्वभूतेषु संयम ||134।।
लोके यावन्त: प्राणिनः, तसा अथवा स्थावराः ।
तान् जानन्नजानन् वा, न हन्यान्नोऽपि घातयेत् ||135।। सर्वे जीवा अपि जीवितुमिच्छन्ति न मर्तुम् । तस्माद् घोरं तं प्राणिवधं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति ||136।।
आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् । हिंसकं मृषां न ब्रूयाद्, नाऽप्यन्यं वादयेत् ||137।।
(7) हिन्दी अनुवाद व्रतषट्क में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह ये पाँच और छठे रात्रिभोजन के त्याग के उपदेश पूर्वक छह व्रतों का वर्णन है।
वहाँ (छह व्रतों में) श्रीवीर प्रभु ने यह प्रथम स्थान व्रत बताया है, उन्होंने) अनुपम अहिंसा देखी है और वह सभी प्राणियों के विषय में संयम' है । (134)
___ जगत् में जितने भी त्रस (स्वेच्छानुसार घूमने-फिरनेवाले) अथवा स्थावर (स्थिर = स्वेच्छानुसार घूम-फिर न सके) प्राणी हैं, उनकों जानबूझकर या अनजान में मारना नहीं और दूसरों के द्वारा भी नहीं मरवाना चाहिए । (135)
१६८