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यह सब (सन्निधि) लोभ का ही कुछ अंश (स्वरूप) है, श्री तीर्थंकर और गणधर भगवंत कहते हैं कि जो (उपर्युक्त) अल्प वस्तुओं को अपने पास रखने की इच्छा करते हैं वे गृहस्थ हैं साधु नहीं । (144)
जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण इत्यादि रखते हैं वे भी संयम और लज्जा के कारण धारण किये हैं और उनका उपभोग करते हैं । (145) प्राकृत 'न 'सो 'परिग्गहो 'वुत्तो, नायपुत्तेण 'ताइणा । 7 मुच्छापरिग्गहो 'वृत्तो, 'इइ "वुत्तं "महेसिणा । ।146 ।। 7 संति 1 मे 2 सुहमा 'पाणा, तसा 'अदुव 'थावरा ।
'जाई 'राओ 10 अपासंतो, 11 कहमे 12 सणिअं चरे ।। 147 ।। 'एअं च 'दोसं 'दट्ठूणं, नायपुत्तेण ‘भासियं ।
7 सव्वाहारं 'न 10 भुंजंति, 'निग्गंथा 'राइभोयणं ।। 148 ।।
दशवैकालिकसूत्रे अध्ययन 6
संस्कृत अनुवाद त्रायणा ज्ञातपुत्रेण स परिग्रहो नोक्तः । मूर्च्छापरिग्रह उक्तः, इति महर्षिणोक्तम् ||146।।
इमे सूक्ष्माः सा अथवा स्थावराः प्राणिनः सन्ति । यान् रात्रावपश्यन्, एषणीयं कथं चरेत् ? ।।147।। एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । निर्ग्रन्थाः सर्वाऽऽहारं रात्रिभोजनं न भुञ्जते ||148 || हिन्दी अनुवाद
रक्षण करनेवाले = तारकं ज्ञातपुत्र श्रीवीर प्रभु ने उसे (संयमोपकरण को) परिग्रह नहीं बताया है, परन्तु मूर्च्छा = ममता को ही परिग्रह बताया है, इस प्रकार महापुरुषों ने (गणधर भ. ने सूत्र में ) कहा है । (146)
ये सब सूक्ष्म (= आँखों से न दिखनेवाले), त्रस अथवा स्थावर जीव रहे हुए हैं, जिनको (जीवों को ) रात्रि में नहीं देखने से एषणीय (निर्दोष आहार हेतु ) गवेषणा (शोध) किस प्रकार करें ? । (147)
दोष को देखकर ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर प्रभु ने कहा है कि निर्ग्रन्थ मुनि अशन-पान - खादिम - स्वादिम सभी प्रकार के आहार स्वरूप रात्रिभोजन को नहीं करते हैं । (148)
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