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(8) रावणस्स पच्छायावो
प्राकृत 'दट्ठण जणयतणया, सेन्नं 'लङ्काहिवस्सअइबहुयं । 'चिन्तेइ 'वुण्णहियया, 1°न य "जिणइ इमं सुरिन्दो वि ।।149।।
सा एव उस्सयमणा, सीयालङ्काहिवेण 'तो भणिया ।
पावेण "मए 'सुन्दरि !, 12हरिया "छम्मेण"विलवन्ती ।।150।। गहियं वयं 'किसोयरि ! 2अणंतविरियस्स पायमूलम्मि । अपसन्ना' परमहिला, "न"भुञ्जियव्वा मए निययं ।।151 ।।
(8) रावणस्य पश्चात्तापः
संस्कृत अनुवाद लङ्काधिपस्याऽतिबहुकं, सैन्यं दृष्ट्वा त्रस्तहृदया । जनकतनया चिन्तयति, इमं सुरेन्द्रोऽपि न च जयति ||149।।
ततः सैवोत्सुकमनाः सीता, लङ्काधिपेन भणिता ।
हे सुन्दरि ! पापेन मया छद्मना विलपन्ती हृता ||15011 हे कृशोदरि ! अनन्तवीर्यस्य पादमूले व्रतं गृहीतम् । अप्रसन्ना परमहिला मया नियतं न भोक्तव्या ||151।।
(8)
हिन्दी अनुवाद लंकानरेश रावण के बड़े सैन्य को देखकर घबराये हुए हृदयवाली जनकराजा की पुत्री सीता विचार करती है, इसको (रावण को) तो इन्द्र महाराजा भी नहीं जीत सकते हैं । (149)
उसके बाद उत्सुक मनवाली सीता को लंका के राजा रावण ने कहा, कि हे सुन्दरि ! पापी ऐसे मैंने विलाप करती हुई तेरा हरण करवाया । (150)
हे कृशोदरि ! श्री अनन्तवीर्य केवली भगवंत के चरणों में मैंने व्रत लिया है कि अपनी प्रसन्नता बिना = अप्रसन्न परस्त्री के साथ मैं कभी भी भोग नहीं करूंगा । (151)
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