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प्राकृत 'सुमरंतेण वयं तं, नमए 'रमिया "तुमं 'विसालच्छी ! । 14रमिहामि "पुणो सुन्दरि ।, "संपइ 12आलम्बणं छेत्तुं ।।152।।
_ 'पुष्फविमाणारूढा, 'पेच्छसुसयलं सकाणणं 'पुहइं ।
__10भुञ्जसु उत्तमसोक्खं, 'मज्झ पसाएण ससिवयणे ! ।।153।। सुणिऊण 'इमं सीया, गग्गरकण्ठेण भणइ "दहवयणं । 13निसुणेहि "मज्झ वयणं, 'जइ मे 'नेहं "समुव्वहसि ।।154।।
घणकोववसगएण वि, 'पउमो भामण्डलोय संगामे । एए न घाइयव्वा, 'लङ्काहिव ! 'अहिमुहावडिया ।।155।।
संस्कृत अनुवाद . हे विशालाक्षि !, तद व्रतं स्मरता मया त्वं न रता । हे सुन्दरि ! पुनः सम्प्रत्यालम्बनं छेत्तुं रमिष्यामि ||152||
पुष्पविमानाऽऽरूढा सकाननां सकलां पृथिवीं पश्य ।।
हे शशिवदने ! मम प्रसादेनोत्तमसौख्यं भुग्धि ||153।। इदं श्रुत्वा सीता गद्गदकण्ठेन दशवदनं भणति । यदि मयि स्नेहं समुद्वहसि , मम वचनं निश्रृणु ।।154।।
लङ्काधिप ! घनकोपवशगतेनाऽपि सङ्ग्रामे पद्मो । भामण्डलश्चैतावभिमुखाऽऽपतितौ न हन्तव्यौ ।।155।।
हिन्दी अनुवाद हे विशाल नेत्रवाली ! उस व्रत को याद करते मेरे द्वारा तेरे साथ किसीभी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की गई । परन्तु हे सुन्दरी ! अब उस आलम्बन को दूर करने के लिए तेरी प्रसन्नता हेतु मैं क्रीड़ा करूँगा । (152)
पुष्पक विमान में चढ़कर तू उद्यानसहित सम्पूर्ण पृथ्वी को देख, हे चन्द्रवदने ! (चन्द्रसमान मुखवाली) मेरी कृपा से तू अनुपम सुख का भोग कर । (153)
यह (बात) सुनकर सीता गद्गदकण्ठ से दस मस्तकवाले रावण को कहती है, यदि मुझ पर स्नेह रखते हो तो मेरे वचन ध्यानपूर्वक सुनो । (154)
हे लंकेश रावण ! भयंकर गुस्से के आधीन बनकर भी तुम, युद्ध में भामण्डल तथा श्रीराम व लक्ष्मण दोनों सामने आयें तो उनको मारना नहीं । (155)