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(2) (शिबिकावर्णनम्)
संस्कृत अनुवाद जरामरणविप्रमुक्तस्य जिनवरस्य जलस्थलकदिव्यकुसुमैः । अवसक्तमाल्यदामा शिबिकोपनीता ||79।।
शिबिकाया मध्ये जिनवरस्य दिव्यं वररत्नरूपमण्डितम् ।
सपादपीठं महार्ह सिंहासनम् (अस्ति) ।।80।। आलगितमालामुकुटो भास्वरशरीरो वराभरणधारी । यस्य च मूल्यं शतसहस्रं, परिहितक्षौमिकवस्त्रः ||81।।
षष्ठेन तु भक्तेन, सुन्दरेणाऽध्यवसानेन । लेश्याभिर्विशुद्ध्यमानो जिन उत्तमां शिबिकामारोहति ||82||
(2) हिन्दी अनुवाद प्रभु श्रीमहावीरस्वामी की दीक्षा के प्रसंग में शिबिका वर्णन :
वृद्धावस्था और मृत्युरहित ऐसे श्रीजिनेश्वर प्रभु की, पानी और पृथ्वी पर उत्पन्न दिव्यपुष्पों से संलग्न मालावाली शिबिका ले जायी जाती है |
शिबिका के मध्यभाग में श्रीजिनेश्वर प्रभु का, दिव्य, श्रेष्ठ रत्नों के रूप से सुशोभित पादपीठसहित अतिकीमती सिंहासन है । (80)
पुष्पों की माला का मुकुट धारण करनेवाले, देदीप्यमान (देहवाले), श्रेष्ठ आभूषण धारण करनेवाले, जिसका मूल्य एक लाख सोनामोहर है वैसे रेशमी वस्त्र परिधान किये है जिन्होंने, दो उपवास (छ) के तप द्वारा, सुन्दर अध्यवसाय और लेश्या (= आत्मा के परिणामों) द्वारा विशुद्ध बनते प्रभु उत्तम शिबिका में आरूढ होते हैं । (81, 82)
प्राकृत सीहासणे णिविट्ठो, सक्कीसाणा य दोहिं पासेहिं । वीयंति चामराहिं, मणि-रयणविचित्तदंडाहिं । 183।।
पुव्वि उक्खित्ता माणुसेहिं, साहट्ठरोमकूवेहिं ।
पच्छा वहति देवा, सुर-असुरा गरुल-णागिंदा ।।84।। पुरओ सुरा वहंति, असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि । अवरे वहति गरुला, णागा पुण उत्तरे पासे ।।85।।
वणखंडं व कुसुमियं, पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणतलं सुरगणेहिं ।।86।।
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