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हि. सब पर उपकार करना, अन्य के उपकार को नहीं भूलना, दुःखी व्यक्ति को आश्रय देना, यह विद्वानों का उपदेश है । 21. प्रा. रिउणो न वीससिज्जइ, कयावि वंचिज्जइ न वीसत्थो । न कयग्घेहि हविज्जइ, एसो नाणस्स नीसंदो ||26|| सं. रिपवो न विश्वस्येरन्, विश्वस्तः कदापि न वच्येत । कृतघ्नैर्न भूयेत, एष ज्ञानस्य निःष्यन्दः ||26||
हि. शत्रुओं का विश्वास नहीं करना, विश्वासु व्यक्ति को कभी भी ठगना नहीं, कृतघ्न नहीं बनना, यह ज्ञान का झरना = निचोड़ है । 22. प्रा. वन्निज्जइ भिच्चगुणो, न य वन्निज्जइ सुअस्स पच्चक्खे | महिलाओ नोभया वि हु, न नस्सए जेण माहाप्पं ||27|| सं. भृत्यगुणो वर्ण्येत, सुतस्य प्रत्यक्षे न च वर्ण्यत
महिला नोभयादपि खु, येन माहात्म्यं न नश्येत ॥27॥ हि. सेवक के गुण की प्रशंसा करनी चाहिए, पुत्र के गुण उसके (पुत्र के) सामने नहीं कहने चाहिए, स्त्रियों की दोनों प्रकार से (प्रत्यक्ष या परोक्ष) प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, (क्योंकि) जिससे ( उसका = पुरुष का) माहात्म्य नष्ट न हो ।
23. प्रा. जीवदयाइ रमिज्जइ, इंदियवग्गो दमिज्जइ सयावि । सच्चं चेव चविज्जइ, धम्मस्स रहस्समिणमेव ||28||
सं. जीवदयायां रम्येत, सदापीन्द्रियवर्गो दम्येत ।
सत्यमेव कथ्येत, इदमेव धर्मस्य रहस्यम् ||28||
हि. जीवदया में आनन्दित होना, हमेशा इन्द्रियों के समूह का दमन करना, सत्य ही बोलना, यही धर्म का रहस्य है । 24. प्रा. दीसइ विविहचरितं, जाणिज्जइ सुयणदुज्जणविसेसो । धुत्तेहिं न वंचिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ||29 || सं. विविधचरित्रं दृश्यते, सुजनदुर्जनविशेषो ज्ञायते । धूर्तैर्न वंच्यते, तेन पृथ्व्याम् हिण्ड्यते ||29||
हि. विविध प्रकार के चरित्र देखे जाँए सज्जन और दुर्जन का भेद जाना धूर्तों से न ठगा जाय इसलिए पृथ्वी पर घूमना चाहिए ।
जाय,
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