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सं. अहो नु खलु नास्ति दुष्करं स्नेहस्य, स्नेहो नाम मूलं सर्वदुःखानाम् ,
निवासोऽविवेकस्य, अर्गला निर्वृत्याः, बान्धवः कुगतिवासस्य, प्रतिपक्षः कुशलयोगानाम्, देशकः संसाराटव्याः, वत्सलोऽसत्यव्यवसायस्य, एतेनाऽभिभूताः प्राणिनो न गणयन्त्यायतिम्, न पश्यन्ति कालोचितम्, न सेवन्ते धर्मम् , न प्रेक्षन्ते परमार्थम् , महालोहपञ्जरगताः केसरिण
इव, समर्था अपि विषीदन्तीति । हि. अहो स्नेह को सचमुच कुछ दुष्कर नहीं है, स्नेह सभी दुःखों का
मूल है, अविवेक का निवास है, मोक्ष के लिए शृंखला (अर्गला) है, कुगतिवास का बन्धु है, कुशल योगों का शत्रु है, संसाररूपी वन को बतानेवाला है, असत्य व्यवसाय का प्रेमी है, इससे (स्नेह से) पराभूत प्राणी भविष्य का विचार नहीं करते हैं, अवसरोचित को नहीं देखते हैं, धर्म का सेवन नहीं करते हैं, परमार्थ को नहीं देखते हैं, बड़े लोहे के पिंजर में रहे सिंह की तरह समर्थ होते हुए भी उद्वेग
पाते हैं। 6. प्रा. उत्तमपुरिसा न सोवंति संझाए ।
समास विग्रह :- उत्तिमा य एए पुरिसा उत्तिमपुरिसा । (कर्मधारयः) । सं. उत्तमपुरुषाः न स्वपन्ति सन्ध्यायाम् ।
हि. उत्तम पुरुष सन्ध्याकाल में नहीं सोते हैं । 7. प्रा. नेव वसणवसगएण बुद्धिमया विसाओ कायवों ।
समास विग्रह :- वसणस्स वसो वसणवसो । वसणवसं गओ वसणवसगओ
तेणं वसणवसगएण । (षष्ठी - द्वितीयातत्पुरुषौ) । सं. नैव व्यसनवशगतेन बुद्धिमत्ता विषादः कर्तव्यः ।
हि. संकट के वश रहे बुद्धिमान को खेद नहीं ही करना चाहिए । 8. प्रा. अम्हे पच्चोणिं गंतूण पिऊणं चरणेसुं पडिया ।
समास विग्रह :- माया य पिया य पियरा । तेसिं पिऊणं । (एकशेषः)। सं. वयं सम्मुखं गत्वा पित्रोः चरणयोः पतिताः ।
हि. हम सन्मुख जाकर माता-पिता के चरणों में गिरे । 9. प्रा. अह निण्णासिअतिमिरो, विओगविहराण चक्कवायाण |
संगमकरणेक्करसो, वियंभिओ अरुणकिरणोहो ||47|| समास विग्रह :- निण्णासिओ तिमिरो जेण सो निण्णासिअतिमिरो । (तृतीयार्थे बहुव्रीहिः)।
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