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पाठ - 21
प्राकृत वाक्यों का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद 1. प्रा. देविंदेहिं अच्चिअं सिरिमहावीरं सिरसा मणसा वयसा वंदे ।
सं. देवेन्द्ररर्चितं श्रीमहावीरं शिरसा मनसा वचसा वन्दे । हि. देवेन्द्रों द्वारा पूजित-पूजे हुए श्रीमहावीर को मस्तक से, मन से और
वचन से मैं वन्दन करता हूँ। 2. प्रा. महासईए सीयाए अप्पाणं सोहन्तीए निअसीलबलेण अग्गी
जलपूरीकओ। सं. महासत्या सीतयाऽऽत्मानं शोधयन्तया निजशीलबलेनाऽग्निजलपूरीकृतः । हि. स्वयं को शुद्ध करती महासती सीता द्वारा अपने शील के प्रभाव से
अग्नि को जल से पूर्ण किया गया । 3. प्रा. गुरुया अप्पणो गुणे अप्पणा कयाइ न वण्णन्ति |
सं. गुरुका आत्मनो गुणानात्मना कदापि न वर्णयन्ति ।
हि. महापुरुष अपने गुणों की स्वयं कभी भी प्रशंसा नहीं करते हैं । 4. प्रा. नराणं सुहं वा दुहं वा को कुणइ ?, अप्पणच्चिय कयाइं कम्माइं
समयंमि परिणमंति । सं. नराणां सुखं वा दुःखं वा कः करोति ? आत्मनैव कृतानि कर्माणि
समये परिणमन्ति । हि. मनुष्यों को सुख अथवा दुःख कौन देता है ? स्वयं किये हुए कर्म
ही योग्य समयमें परिणमित होते हैं। प्रा. जइ उ तुम्हे अप्पणो रिद्धिं इच्छह, तो निच्चंपि जिणेसरं आराहह । सं. यदि तु यूयमात्मन ऋद्धिमिच्छथ, ततो नित्यमपि जिनेश्वरमाराधयत | हि. जो तुम अपनी ऋद्धि की इच्छा रखते हो तो सदा जिनेश्वर भगवन्त
की आराधना करो। 6. प्रा. जो कोहेण अभिभूओ जीवे हणइ, सो इह जम्मे परम्मि य जम्मणे
वि अप्पणो वहाइ होइ । सं. यः क्रोधेनाऽभिभूतो जीवान् हन्ति, स इह जन्मनि परस्मिंश्च
जन्मन्यप्याऽऽत्मनो वधाय भवति । हि. क्रोध से पराभूत जो (जन) जीवों को मारता है, वह इस जन्म में
और पर जन्म में भी अपने वध के लिए होता है ।