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हि. वह प्रतिदिन जिनधर्म का अभ्यास करता, मुनिजन की सेवा करता, जीव-अजीवादि नौ पदार्थों की विचारणा करता, जीवों के समूह की रक्षा करता और रक्षा करवाता, साधर्मिकों का बहुमान करता, सर्व आदरपूर्वक जिनशासन की प्रभावना करता हुआ काल व्यतीत करता है ।
17. प्रा. एसो रज्जस्स जोग्गो ता झत्ति रज्जे ठविज्जउ, अलाहि निग्गुणेहिं अहिं
सं. एष राज्यस्य योग्यस्तस्मात् झटिति राज्ये स्थाप्यतामलं निर्गुणैरन्यैः । हि. यह राज्य के योग्य है इसलिए शीघ्र राज्य पर स्थापित करो, गुणरहित अन्य से क्या ?
18. प्रा. गिहं जहा को वि न जाणइ तह पवेसेमि नीसारेमि य ।
सं. गृहं यथा कोऽपि न जानाति, तथा प्रवेशयामि निस्सारयामि च । हि. जैसे कोई न जाने उस तरह (वैसे ) मैं घर में प्रवेश कराता हूँ और बाहर निकालता हूँ ।
19. प्रा. जो सावज्जे पसत्तो सरांपि अतरतो कहं तारए अन्नं ?
सं. यः सावद्ये प्रसक्तः स्वयमप्यतरन् कथं तारयेदन्यम् ?
हि. जो पाप में आसक्त है वह स्वयं नहीं तिरता (तो) दूसरे को कैसे तारेगा ? |
20. प्रा. गुरुणा पुणरुतं अणुसासिओ वि न कुप्पेज्जा ।
सं. गुरुणा पुनः पुनरनुशासितोऽपि न कुप्येत् ।
हि. गुरु द्वारा बारबार शिक्षा देने पर भी कोप नहीं करना । 21. प्रा. एक्कस्स चेव दुक्खं, मारिज्जंतस्स होइ खणमेक्कं । जावज्जीवं सकुडुंबयस्स पुरिसस्स धणहरणे ||421 सं. मार्यमाणस्यैकस्यैवैकं क्षणं दुःखं भवति ।
धणहरणे सकुटुम्बकस्य पुरुषस्य यावज्जीवम् ||42||
हि. पुरुष को मारनेवाले अकेले को ही एक क्षण दुःख होता है, लेकिन धनहरण (चोरी) करने से कुटुम्बसहित पुरुष को यावज्जीवनपर्यन्त दुःख होता है ।
22. प्रा. दूसमसमएवि हु हेमसूरिणो निसुणिऊण वयणाई ।
सव्वजणो जीवदयं, कराविओ कुमरवालेण ||43॥
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