Book Title: Jain Pustak Prashasti Sangraha 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला (ग्रन्थाङ्क) Pestion संस्थापक संचालक श्री बहादुर सिंहजी सिंघी [ ८] श्री जिन विजय मुनि पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - प्रथम भाग DALCHAND JI SINGHT shastamatamdanstarsanskamutatestostumstantantantament CONTACOMMUMMMMMMMMMMMM श्री डालघरजी सिंघी सम्पादक श्री जिन विजय मुनि आ चार्य- भारतीय विद्या भवन-वंबई को-को प्रकाशक *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* भारतीय विद्या भवन बंबई प्रथमावृत्ति, १००० प्रति] * * * संवत् १९९९ * * * [मूल्य रू. ६-८-० lamin Education International www.jairielibrary.org, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी जन्म वि. सं. १९२१, मार्ग वदि ६ स्वर्गवास वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ For Private & Personal use only ry.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला. [ग्रन्थांक १८] momen t पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह LAAAAAAAAAAI R ISRIDALCAND JI SINGH RAAT Na - - - - - - -- - श्री डालचन्रीराधी SINGHI JAIN SERIES [NUMBER 18] - JAINA PUSTAKA PRAŠASTI SAMGRAHA 11 .. . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... कलकत्ता निवासी . . साधुचरित-प्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थमाला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक- इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर-राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन ___वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि।] प्रतिष्ठापक तथा प्रकाश-कारक ... श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र दानशील-साहित्यरसिक-संस्कृतिप्रिय श्रीमान् बहादुर सिंह जी सिंघी [भूतपूर्वअध्यक्ष जैनश्वेताम्बर कॉन्फरन्स (बंबई, सन् १९२६); संस्थापक सदस्य, भारतीय विद्याभवन; फेलॉ ऑफ घी रॉयल सोसायटी ऑफ आर्टस्, लन्दन ; सदस्य-धी रॉयल एसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ; घी इन्डियन रिसर्च इन्स्टिट्यूट, कलकत्ता; भी न्युमेमेटिक सोसायटी ऑफ इन्डिया, बङ्गीय साहित्य परिषद् इत्यादि, इत्यादि] - कार्य-संचालक तथा प्रधान-सम्पादक श्री जिन विज य मुनि आचार्य-भारतीय विद्या भवन-बंबई [सम्मान्य सभासद-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना; एवं गुजरात साहित्यसमा अहमदाबाद भूतपूर्वाचार्य-गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद; सिंघी ज्ञानपीठनियामक एवं जैनवाङ्मयाध्यापकविश्वभारती, शान्तिनिकेतन; तथा, जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थावलि-पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावलिभारतीय विद्या ग्रन्थावति-आदि नाना ग्रन्थमाला प्रकाशित-संस्कृत-प्राकृत-पाली-अपभ्रंश प्राचीनगूर्जर-हिन्दी-भाषामय-अनेकानेक ग्रन्थ संशोधक-सम्पादक ।] सम्मान्य कार्यवाहक श्रीयुत राजेन्द्र सिंह जी सिंघी व्यवस्थापक तथा प्रकाशक भारतीय विद्या भवन ......... बंबई Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह [पाटण, स्तंभतीर्थ, जेसलमेर आदि विविधस्थान संरक्षित जैन शानभण्डारोपलब्ध पुरातन पुस्तकस्थ प्रशस्ति एवं पुष्पिकालेख समुपय] प्रथम भाग सम्पादक श्री जि न वि ज य मुनि आचार्य- भारतीय विद्या भवन -वंबई। (अधिष्ठाता-सिंघी जैन शास्त्रशिक्षापीठ एवं प्राकृत वाङ्मय विभाग) - - - hwokana प्राप्तव्य स्थान भारतीय विद्या भवन बंबई विक्रमाब्द १९९९] * प्रथमावृत्ति; पंच शत प्रति * [१९४३ निस्ताब्द अन्यक्रमांक, १८] * पुनर्मुद्रणादि सर्व अधिकार भा. वि. भ. द्वारा संरक्षित • [मूल्य, स. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILO SOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS *** IN PRĀKRİT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD RĀJASTHANIGUJARĀTI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT . . RESEARCH SCHOLARS ESTABLISHED AND PUBLISHED IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT-LIKE LATE SETH ŚRI DALCHANDJI SINGHỈ OF CALCUTTA BY HIS DEVOTED SON DĀNASĪLA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA ŚRIMAN BAHADUR SINGHJI SINGHI (LATE PRESIDENT OF THE JAIN SWETĀMBAR CONFERENCE (BOMBAY, 1926 ); FELLOW OF THE ROYAL SOCIETY OF ARTS, LONDON; MEMBER OF THE ROYAL ASIATIC SOCIETY OF BENGAL; THE INDIAN RESEARCH INSTITUTE OF CALCUTTA; BANGIYA SAHITYA PARISH AT: A FOUNDER-MEMBER OF THE BHARTIYA VIDYA BHAVAN; ETC.) DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ŚRI JINA VIJAYA MUNI ACHĀRYA - BHARATIYA VIDYA BHAVAN - BOMBAY (HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJRAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD; FORMERLY PRINCIPAL OF OUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; LATE SINGHI PROFESSOR OF JAIN STUDIES, VISVA-BHARATI, SANTINIKETAN: EDITOR OF MANY SANSKRIT, PRAKRIT, PALI, APABHRAMSA, AND OLD GUJRATI-HINDI WORKS, ETC.) CONDUCTED UNDER THE GUIDANCE OF ŚRĪYUT RAJENDRA SINGHJI SINGHĪ AND PUBLISHED UNDER THE MANAGEMENT OF BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA PUSTAKA PRAŠASTI SAMGRAHA (A COLLECTION OF PRAŠASTIS AND COLOPHONS OF ANCIENT MANUSCRIPTS PRESERVED IN THE JAIN BHANDARAS AT PATAN, CAMBAY, JAISALMER, AND OTHER PLACES.) FIRST PART EDITED BY SRI JINA VIJAYA MUNI DIRECTOR-BHARATIYA VIDYA BHAVAN-BOMBAY. (Head of the Dept. of Singhi Jaina Sastra Sikshāpitha ; and Dept. of Prakritic Studies ) tutustutt wytw TO BE HAD FROM BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY First Edition, Five Hundred Copios. . [ 1943 A. D. V. E. 1999 ] Number 18] All rights reserved by the B.V.B. * 2 3 . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैन ग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ मस्ति बङ्गाभिघे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ निवसम्स्यने के तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एवागतो यच कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्वी घृतधर्मार्थनिधयः ॥ कुशाग्रया स्वबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपार्ज्य विपुलां लक्ष्मीं जातः कोट्यधिपो हि सः ॥ तस्य मनुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहास्यः सहुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियो निधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यसूर्येण प्रदीप्तं यत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठः पुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजखी मध्यमः सुतः । सुनुवीरेन्द्रसिंहञ्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवश्चास्य सन्ति स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥ अन्यच्च सरखत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तचित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्यो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः । दृश्यतेऽस्य गृहे कापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिशोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचारार्थं सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं घनम् ॥ सभा समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन खपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थे यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनशानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति निकेतने । सिंधी पदाङ्कितं जैन शान पीठ मतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयः प्राशस्तस्याधिष्ठातृसत्पम् । स्वीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन पूर्वमेव हि तद्विदा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द - स्थैर्योदार्यादिसहुणैः । वशीभूयाति मुदा तेन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रश्रीरवीन्द्रस्य करकुवलयात् शुभात् । रस-नीगाई चन्द्राब्दे प्रतिष्ठेयमजायत । प्रारब्धं चाशु तेनापि कार्ये तदुपयोगिकम् । पाठनं ज्ञानलिप्सूनां तथैव प्रन्थगुम्फनम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसाऽनेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नैकेषां विदुषां तथा । शानाभ्यासाय निष्काम साहाय्यं यः प्रदत्तवान् ॥ जलवाय्वादिकानां हि प्रातिकूल्यात् त्वसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्र चास्थितः ॥ तत्रापि सततं सर्वे साहाय्यं येन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशार्थे महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्द-निध्य चन्द्रान्दे जाता पुनः सुयोजना । ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना ॥ ततः सुहृत्परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भा विद्याभवना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ विद्वज्जनकृताह्लादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसिंघीग्रन्थपद्धतिः ॥ aw of or g urva १० ११ १२ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः॥ खस्ति श्रीमेवपाटाख्यो देशो भारतषिश्रुतः। रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका तत्र सुस्थिता॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमञ्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः॥ मुख-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले। किं वय॑ते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः॥ पत्ती राजकुमारीति तस्याभूत गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूषिता॥... क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शौयोद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्रव जनो मेने राजन्यकुलजा ह्यसौ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः। रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामाऽत्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । स चासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः खसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक, कृतो जैनमतानुगः॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातो दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्वं गृहादिकम् ॥ तथा चपरिनन्यायदेशेषु संसेव्य च बहुन नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ हातान्यनेकशास्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा॥ अपीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः। अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः॥ येन प्रकाशिता नैके प्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः। लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः॥ यो बहुभिः सुविद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तां विश्रुतिं श्रुत्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरेवाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः। विद्यापीठ इति ख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ।। आचार्यस्खेन तत्रोचनियुको यो महात्मना । रस-मुँनि-निधीन्द्वब्दे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूज्य तत् पदं ततः। गत्वा जर्मनराष्ट्र यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् । तत आगत्य सल्लग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन खराज्यपर्वणि ॥ क्रमात् तस्माद् विनिर्मुक्तः स्थितः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्धकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिपी पदयुतं जैनशान पीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनशानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठादसम्झके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाडायम्॥ तस्यैष प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंधीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे होषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ अथैवं विगतं यस्य वर्षाणामष्टकं पुनः। प्रन्थमालाविकाशार्थिप्रवृत्ती यततः सतः॥ बाणे-रले मेवेन्द्रन्दे मुंबाईनगरीस्थितः। मुंशीति विरुदख्यातः कन्हैयालालधीसखः॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मिती कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां भीमतां योगात् संस्था जाता प्रतिष्ठिता। भारतीय पदोपेत विद्याभवन सञ्चया ॥ आहूतः सहकार्यार्थ सुहदा तेन तत्कृतौ। ततःप्रभृति तत्रापि सहयोगं स दत्तवान् ॥ तड़पनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका ह्यपेक्षिता। खीकृता नम्रभावेन साऽप्याचार्यपदात्मिका ॥ नन्द-निध्यक-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः। एतद्ग्रन्थावलीस्थैर्यकृद् येन नूनयोजना॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुलभाखता । भा विद्याभवनायेयं ग्रन्थमाला समर्पिता॥ विवचनकताहादा सच्चिदानन्ददा सदा। चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला अद्यावधि मुद्रित ग्रन्थनामावलि. १ मेरुतुजाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि. २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह. ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. ४जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. ५ मेघविजयोपाध्यायविरचित देवानन्दमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. ७हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलकान्थत्रयी. ९ प्रबन्धचिन्तामणि (हिन्दी भाषान्तर). १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. 11 Life of Hemachandracharya: By Dr. G. Buhler. १२ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. १३ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. १४ हरिषेणाचार्यकृत बृहत् कथाकोश. १५ जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह-प्रथम भाग. * * संप्रति मुधमाण ग्रन्थनामावलि १ खरतरगच्छगुर्वावलि. २ कुमारपालचरित्रसंग्रह. ३ विविधगच्छीयपट्टावलिसंग्रह. ४ जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, द्वितीय भाग. ५ विज्ञप्तिलेखसंग्रह. ६ हरिभद्रसूरिकृत धूर्ताख्यान. ७ उद्दयोतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा.. ८-९ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य तथा कीर्तिकौमुदी आदि अन्यान्य अनेक प्रशस्त्यादि कृतिसंग्रह. १०जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. ११ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. १२ शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिकवृत्ति. १३ महामुनि गुणपालविरचित जंबूचरित्र (प्राकृत), इत्यादि, इत्यादि. मुद्रणार्थ निर्धारित एवं सज्जीकृत ग्रन्थनामावलि१ भानुचन्द्रगणिकृत विवेकविलासटीका. २ पुरातन रास-भासादिसंग्रह. ३ प्रकीर्ण वाड्मय प्रकाश. ४ भद्रबाहुसूरिकृत भद्रबाहुसंहिता. ५ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायविरचित वासवदत्ता टीका. ६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. ७ देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति. ८ रत्नप्रभाचार्यकृत उपदेशमाला टीका. ९ यशोविजयोपाध्यायकृत अनेकान्तव्यवस्था. १० जिनेश्वराचार्यकृत प्रमालक्षण. ११ महानिशीथसूत्र. १२ तरुणप्रभाचार्यकृत आवश्यकबालावबोध, १३ राठोड वंशावलि. १४ उपकेशगच्छप्रबन्ध. १५ नयचन्द्रसूरिकृत हमीरमहाकाव्य. १६ वर्धमानाचार्यकृत गणरत्नमहोदधि.. १७ प्रतिष्ठासोमकृत सोमसौभाग्यकाव्य. १८ नेमिचन्द्रकृत षष्टीशतक (पृथक् पृथक् ३ बालावबोध युक्त) १९ शीलांकाचार्य विरचित महापुरुष चरित्र (प्राकृत महाग्रंथ ) २० चंदप्पहचरियं (प्राकृत) २१ नम्मयासुंदरीकथा (प्राकृत) २२ नेमिनाह चरिउ (अपभ्रंश महाग्रंथ) २३ उपदेशपदटीका (वर्द्धमानाचार्यकृत) २४ निर्वाणलीलावती कथा (सं. कथा ग्रंथ) २५ सनत्कुमारचरित्र (संस्कृत काव्य ग्रंथ). २६ राजवल्लभ पाठककृत भोजचरित्र. २७ प्रमोदमाणिक्यकृत वाग्भटालंकारवृत्ति. २८ सोमदेवादिकृत विदग्धमुखमण्डनवृत्ति. २९ समयसुन्दरादिकृत वृत्तरत्नाकरवृत्ति. ३० पाण्डित्यदर्पण. ३१ पुरातनप्रबन्धसंग्रह-हिन्दी भाषांतर. इत्यादि. इत्यादि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमर्पण ॐ श्री मोती बहिन को * जिसके आन्तरिक अनुराग और आत्मिक अर्पण पूर्वक समुचित संराधनके कारण मेरे प्रव्रज्यावसित परंतु प्रज्ञावभासित दोलायमान जीवनकी खण्डकथाका उत्तरार्द्ध कुछ सुबद्ध और सुश्लष्ट हो कर प्रशस्ति-प्रायोग्य बन सका और जिसके सन्तत स्नेहसिंचनसे मेरे हृदयकी गंभीर गुफा में प्रवचनोपासनारूप प्रदीपकी प्रभाका प्रशान्त प्रकाश अपरिक्षीण स्वरूपमें रह सका Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cc ४ १ परिशिष्ट - लिखित पुस्तकान्तर्गत ग्रन्थ नाम अनुक्रम २ लिखित पुस्तकस्थित ग्रन्थकार नाम अनुक्रम लिखित पुस्तकोपलब्ध लिपिकार नाम अनुक्रम J ६ ७ ८ ९ १० प्रास्ताविक विचार पद्यमय प्रशस्तिलेख क्रमांक गद्यबहुल प्रशस्तिद्वय "" संक्षिप्त पुष्पिका लेख : "" "" "" 2 35 33 "" "" 33 "" "" "" "" "" "" " विषय - अनुक्रम "" "" "" "" "" "" "" "" "" १-१०९ ११०-१११ ९१-९४३३ · राजादि सत्ताधीश नाम अनुक्रम मुनिकुल, गण, गच्छादि नाम अनुक्रम यति मुनि गणि सूरि साध्वी- आर्यिका महत्तरा नाम अ० देश - नगर - ग्रामादि नामानुक्रम कुल, वंश, ज्ञाति आदि नामानुक्रम श्रावक श्राविका नामानुक्रम कतिपय प्रकीर्ण नामानुक्रमं ॐ - · कतिपय सचित्र ताडपत्रीय पुस्तकोंके प्रतिचित्र - प्रास्ताविक विचारके सम्मुख पृष्ठ. १-२० १-९६ ९७-९८ ९९-१५२ १५३ - १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १६३-१६६ १६६-१६७ १६८ १६९-१८० १८० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला ] कलिनादीनांस लिमय ममाध्या सामादीनाहिताधिशशाघीद रागादिजमा राजिमा सिहा ताटागाडी र नागमाति कलाग या स विद्याविद्या (शाद्दामरहितमि हजा शिता सर्व मंजिल हमा सीर्वीकराडयेति यस्याःसादमा): दिगामाल: पाविसी त्रिमारात यमाह । सिम मियादवि साला विमलगायताक माहावा हिरखापयेप्रकरणाधी सोपस विमाणाकाविन वि डापकडी विइजाय जियालाणा उडान समिक बहामान मिल गरु पनवास हानिकादिविसाए समयमम रावना सारा दरकाण्डमा डाप्पापाडियार मंत्र मार माणेन नाम मारण विविध रूप वि मिलन पनि पारि बिलिरुद्र लिम्मविद्यिपेयेव येनानिय प्रकरणकार विश्वावतावा दावादवादवाततव स्मराजित मादरा सिमावावी. उपाध्यायादा।। रिता मितला पाहितीयगावावयवाची सावतः दयासावीणाविविधनदद्यान्नदान‍ शिवायमश्वश्र्वसनाद तार्थ: [ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह कस्मविनय क्षणाल इमिटिकडू नवी सकि 362 क सवाहाना [11] वसविल वाराण॥॥१२ जली बहूऽऽ बा 92 Re तमर्दनमामि॥ संवईदानंकिता शि संदर्भानामतीम साहसातादादविद्यायां तिसामाज वरदा कहावतफल दि छतवता वासिधामा समाला दिसलयाऊटा टीम सिह डीयाध्यायसाकृतादविसंघक्षा मानि राथलिघिमाद।सबधवाच्यवावका कमर प कतिपय ताडपत्रीय सचित्र पुस्तकोंके प्रतिचित्र मादीन गिना का वि याविनवरि THEI कुमारिक रूबर ० 145 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिंघी जैन ग्रन्थमाला ] [ जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह वकालमा मनिपारि पाच्याजधाजित्यस्यता दशामादादरामावत पियाज्ञापासनया जातयागविताना सानददायमन्धनद्या मोहावामामाया चपनसिहावाकालमा साजधऊना जबाट यसरियामयतिालायतमसरियामणकामगाजमनिर्यसकिपिानमसाखिराबसावसावारणमा सासमानावासदतावार्षमावादालामावाद्याचवादनवारसमसराजावलासमा क्लाइंद्यामाद्यदरवर्दीपडसगासहायतालेचसक्षसघालामालमत्तीमालिकति यातालल्लकसाशालिकतिमाशाचावासाविधिसमझिातापिनियनचायवानोपा उपवियाश्चतितिःशासचिनार्यतापाताराहावविधतामाताजशिवाजभिलाशा। गुरुवावासनाधारवादारानारतायानादायमाणस्तरलताररावयविधातायावास न हिमियपारमाचिसविजयदसमीप धावमानासायविरचितमा । इणलिभिवातासालाखामंगलया। विधाताश्चाशतववेश्याम चाललावताकाव्ययावादमा बिहामाजनिलाडशालिवाया अलमानमरुणासमा साक्षातपंचामासा मात्रावितिसघालाव समसहमशिन्याधित डालाइसंतलायाधया। बतिक्षानापसावामाइया Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार न पुस्तक प्रशस्ति संग्रह नामक यह पुस्तक, कि जिसको क्रमशः ३-४ भागोंमें प्रकाशित करनेकी योजना है, इसका यह पहला भाग आज पाठकोंके सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है। प्रस्तुत 'पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' क्या वस्तु है और इसका क्या विशेषत्व है – इसके स्पष्टीकरणके लिये कुछ बातें यहां लिखनी उपयुक्त मालम देती हैं । पुस्तक विषयक प्रशस्तियोंके प्रकार । ६१. पुस्तकोंके साथ संबन्ध रखनेवाली प्रशस्तियां दो प्रकारकी होती हैं। इनमें एक तो वे हैं जो अन्यों के अन्तमें उनके रचयिताओंकी बनाई हुई उपलब्ध होती हैं । ये प्रशस्तियां ग्रन्थकारोंकी अर्थात् ग्रन्थके रचनेवाले विद्वानोंकी निजकी गुरुपरम्परा आदिका परिचय देनेवाली होती हैं। इनमें जो वर्णन रहता है उसका सारांश यह होता है कि-अमुक गच्छ, कुल, गण या शाखा आदिमें उत्पन्न अमुक आचार्यके शिष्य-प्रशिष्यने इस ग्रन्थकी रचना की इत्यादि । इनमेंसे कितनीक प्रशस्तियोंमें उस ग्रन्थकी रचनाका समय और स्थानका भी निर्देश किया हुआ रहता है। किसी-किसीमें तत्कालीन राजा या बडे राज्याधिकारिका नाम और कुछ अन्यान्य ऐतिहासिक सूचन मी मिल आते हैं । ये प्रशस्तियां श्लोक-संख्याके परिमाणकी दृष्टिसे भिन्न भिन्न आकारवाली-छोटी-बडी ऐसी अनेक प्रकारकी होती हैं । कोई प्रशस्ति २-३ श्लोक जितनी असंत छोटी होती है तो कोई १००-१२५ लोक जितनी, एक बडे निबन्धके जैसी भी होती है । जैन साहित्यके इतिहासकी सामग्रीकी दृष्टिसे इन प्रशस्त्रियोंका बडा उपयोग है। इन्हीं प्रशस्तियोंके आधारसे भिन्न भिन्न गण-गच्छोंके जैनाचार्योंकी गुरु -परम्परा, उनका समय, उनका कार्यक्षेत्र और उनकी की हुई समाजोन्नति एवं साहित्योपासना आदिका संकलित इतिहास प्रथित किया जा सकता है। इन प्रशस्तियोंके लिये हमने 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति' ऐसा नाम निर्धारित किया है । इस प्रकारकी प्रशस्तियोंके एक विशाल संग्रहका मी हम अलग संपादन कर रहे हैं जो यथा - समय प्रकाशित होगा। ६२. पाठकोंके हाथमें जो संग्रह विद्यमान है, इसका नाम 'जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह है। इसमें किसी प्रन्थविशेषकी प्रशस्तियोंका संग्रह नहीं है परंतु पुस्तक- विशेषकी प्रशस्त्रियोंका संग्रह है । यहां पर पुस्तकोंसे हमारा अभिप्राय उन हस्तलिखित पोथियों या प्रतियोंसे है जो इस मुद्रणकलाके (छापेखानेके) युगके पहले ताडपत्र पर अथवा कागज पर हायसे लिखी गई हैं । यह सब कोई जानते हैं कि अपने इस देशमें छापेखानोंके (प्रिंटींग प्रेसोंके) होनेके पहले पठन-पाठन उपयोगी सब प्रकारका वाङ्मय (साहित्य), पठित लोक अपने हाथोंसे लिखते थे और उस लिखे हुए वाश्मयको वे बड़े जतनसे रखते थे। हाथसे लिखने का काम बहुत श्रमसाध्य होता है अत एवं यह मूल्यवान् एवं विशेष संरक्षणीय समझा जाता है । इस मुद्रणकलाके युगमें जिस किसी भी पुस्तक-पुस्तिकाकी १०००-२००० या १०-२० हजार प्रतियां तैयार करनेमें जितना श्रम किसी लेखक या प्रत्यकारको करना पडता है उतना ही श्रम किसी भी पुस्तक-पुस्तिकाकी एक सुन्दर और शुद्ध प्रति हायसे लिखनेमें करना पडता है । इसलिये छपे हुए अन्य या पुस्तककी हजार-पांचसौ अथवा दस-वीस हजार मी प्रतियोंके पीछे किया हुआ श्रम और हस्तलिखित १ प्रतिके पीछे किया हुआ श्रम, श्रमकी दृष्टि से समान- परिमाण होता है । मुद्रणकलाके प्रभावसे तो हम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग आज किसी मी पुस्तक-पुस्तिकाकी १००-२०० प्रतियोंसे ले कर लाख-दोलाख जितनी बडी भारी संख्या में मी प्रतियां उतनी ही सरलतासे एक साथ तैयार कर सकते हैं, लेकिन उस हस्तलेखन-कलाकी पद्धतिमें तो इसकी कोई शक्यता नहीं है । हस्तलिखित हर · एक प्रति या पोथीके तैयार होनेमें तो एक समान ही समय और श्रम आवश्यक होता है । जिस तरह किसी भी चित्रकारको अपने हाथसे एक चित्रके अङ्कन करनेमें जितना समय और श्रम अपेक्षित होता है उतना ही समय और श्रम उसी चित्रकी दूसरी प्रतिलिपिके करनेमें भी उसे आवश्यक होती है। ठीक यही नियम हस्तलिखित पस्तक-पस्तिकाओंकी प्रतिलिपिक विषयमें भी चरितार्थ है। के विषयमें भी चरितार्थ है । इसलिये ऐसे समयापेक्ष एवं परिश्रमपूर्वक लिखे गये ग्रन्थ अथवा पुस्तकके महत्त्व और संरक्षणकी तरफ तद्विद रहना खाभाविक ही है। आज तो हम छपी हुई पुस्तककी रक्षाके तरफ बहुत अधिक लक्ष्य इसलिये नहीं रखते कि कोई पुस्तक बिगड गई, या फट गई, या खोई गई, तो बाजारमेंसे कुछ आने या रूपये दे कर उसकी दूसरी प्रति जब चाहेंगे तब प्राप्त कर लेंगे; लेकिन किसी हस्तलिखित प्रतिके नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर, उसकी दूसरी प्रति उतनी ही सरलता पूर्वक या उतने ही रूपयों या आनोंमें हम कभी प्राप्त नहीं कर सकते । और फिर उस पुराने जमानेमें तो, जब कि एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जाने-आनेके लिये आजके जैसा रेल्वे, मोटर, स्टीमर आदि शीघ्रगामी वाहन - व्यवहारका सर्वथा अभाव था, ऐसी हस्तलिखित पुस्तकों-पोथियोंका प्राप्त करना और भी बहुत अधिक परिश्रम और प्रयत्न - साध्य कार्य था । इसलिये उस प्राचीन युगमें पुस्तकोंके प्रेमी ऐसे विद्वान् और सामान्य जन मी पुस्तकोंके लिखने-लिखवानेमें और उनकी अच्छी तरह रक्षा आदि करनेमें बडा गौरव और पुण्य समझते थे। ज्ञानप्राप्तिका प्रधान साधन पुस्तक है। ६३. वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञानज्योति प्राप्त करनेका प्रधान साधन पुस्तक ही तो है । पुस्तक -ही-के साधनद्वारा मनुष्यने इतना ज्ञानविकास प्राप्त किया है। मनुष्य जातिकी समुच्चय सभ्यता और संस्कृतिका सर्व-प्रधान निमित्त पुस्तक ही है। जिस मानव-समूह या मानव-जातिने पुस्तकका परिचय नहीं प्राप्त किया और पुस्तकका उपयोग नहीं किया वह समूह या जाति आज मी हमारे सम्मुख असभ्य, असंस्कृत या अनार्यके रूपमें परिगणित है। वह मानव या मानव-समूह ज्ञानसे शून्य है और हम उसे 'ज्ञानेन हीनः पशुभिः समान' इस उक्तिद्वारा पशुके समान कहा करते हैं । पशुकी कोटिमेंसे मनुष्यको ऊंचे उठानेवाली जो ज्ञानशक्ति है वह हमें विशेष रूपमें पुस्तक द्वारा ही प्राप्त हुई है । अतः पुस्तक यह हमारी ज्ञानप्राप्तिका सबसे प्रधान और सबसे विशिष्ट साधकतम कारण है। जैनाचार्योंकी पुस्तक-भक्ति । ६४. पूर्वकालके जैनाचार्योने ज्ञानके इस विशिष्टतर साधनके महत्त्वको खूब अच्छी तरह पहचाना है और इसलिये उन्होंने पुस्तकोंके लिखने-लिखवाने और लिखे हुए ग्रन्थोंकी रक्षा करनेके निमित्त खूब परिणाम कारक उपदेश दिया है और बहुत सक्रिय कार्य किया है । जिस तरह अपने उपास्य देवके मन्दिर और मूर्तिका बनवाना और उसकी पूजा-भक्ति करना अपने धर्मके अनुयायिजनोंके लिये, एक परम कर्तव्य उन्होंने बतलाया है, उसी तरह ज्ञानप्राप्तिके अनन्यभूत साधन जो पुस्तक हैं उनके लिखने-लिखवानेका मी वैसा ही परम कर्तव्य उन्होंने बतलाया है । देव-मन्दिर और देव - मूर्ति जिस तरह धर्मकी उपासनाके प्रधान अंग कहे गये हैं उसी तरह पुस्तक मी वैसा ही धर्मका एक प्रधान अंग बतलाया गया है । इसलिये प्राचीन कालसे जैन समाजमें पुस्तकोंके लिखने-लिखवानेका काम बडा पवित्र और पुण्यकारक समझा जा रहा है। इस विचारको पुष्ट करनेवाले ऐसे सेंकडों ही उपदेशात्मक श्लोक और उनके उदाहरणभूत ऐसे अनेक कथानक जैन ग्रन्थोंमें उपलब्ध होते हैं । पुस्तकोंके प्रति ऐसी विशिष्ट भक्ति और आस्था अन्य किसी संप्रदाय या मतवालोंने प्रकट की हो, ऐसा हमारे देखनेमें कहीं नहीं आया । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार डे ९५. पुस्तक - लेखनके निमित्त प्रकट किये गये इस तरहके उच्च भक्तिभाव के कारण, प्राचीन कालमें, हर एक भावनाशील जैन उपासककी यह भावना रहा करती थी, कि वह अपने हाथोंसे न लिख सके तो अपने द्रव्यसे ही यथाशक्ति पुस्तक - पुस्तिकायें लिखवा कर ज्ञानाभ्यासियोंको भेंट करे अथवा ज्ञानभण्डारों में स्थापित करे । इस भावनाके अनुसार, जो उपासक अधिक समृद्ध होते थे और जो खूब द्रव्यव्यय कर सकते थे. वे एक-दो या पांच-दस नहीं परंतु सेंकडोंकी संख्या में पुस्तक लिखवाते थे और उन्हें ज्ञानभण्डारों में स्थापित कर, भण्डारोंको साहित्य - समृद्ध करते थे । जैन पति कुमार पाल तथा गूर्जर महामात्य व स्तुपाल - तेजपाल आदि अनेकानेक वैभवशाली पुरुषोंने जो अपने द्रव्यसे हजारों पुस्तक लिखवाये और अनेक बडे बडे ज्ञानभण्डार स्थापित किये, यह वृत्तान्त तो इतिहासविश्रुत है ही। पर इन इतिहासविश्रुत व्यक्तियोंके सिवा अन्यान्य सामान्य कोटिकी व्यक्तियोंमेंसे भी हजारों-लाखों जैन उपासकोंने इस पुस्तकलेखन रूप सुकृत्यमें यथाशक्ति अपना पूरा योग दिया है, और इसका उल्लेख, हमें हजारों ही उन पुरानी पोथियों- पुस्तकोंके अन्तमें किया हुआ प्राप्त होता है जो जैन भण्डारोंमें और अन्यान्य स्थानों में विद्यमान हैं। इस प्रकारका पुस्तक लिखानेवालोंके विषयका, जो छोटा-बडा उल्लेख, पुस्तकोंके अन्तमें लिखा हुआ मिलता हैं उसे हमने 'पुस्तक प्रशस्ति' यह विशिष्ट संज्ञा दी है । ये प्रशस्तियां उक्त प्रकारकी 'ग्रन्थ प्रशस्तियों' से भिन्न हैं । इनमें पुस्तक लिखनेवाले या लिखानेवालेका परिचय दिया हुआ होता है नहीं कि पुस्तक कें रचनेवाले – बनानेवालेका । यह प्रस्तुत संग्रह इसी प्रकारकी 'पुस्तक - प्रशस्तियों' का पहला भाग है । पुस्तक - लेखनमें त्यागीवर्ग और गृहस्थवर्गकी समान प्रवृत्ति । ९६. इन पुस्तक लिखने - लिखानेवालोंके सामान्यतया दो विभाग किये जा सकते हैं। उनमें एक तो वह, जो कोई भी ज्ञानाभिलाषी या पुस्तकपाठी मनुष्य अपने निजके पढ़नेके लिये स्वयं अपने हाथोंसे लिखता है; और दूसरा वह, जो अपने पढनेके निमित्त अथवा सामान्य ज्ञानोद्वारके निमित्त उपकार - भावसे दूसरोंके पाससे अर्थात् लेखक- वृत्तिवालोंके पाससे द्रव्य देकर लिखवाता है। जैन समाजके साधु-यति वर्गकी जो स्वयं पुस्तकलेखनप्रवृत्ति है वह प्रधानतया प्रथम विभागमें आती है और गृहस्थ - श्रावक वर्गकी जो प्रवृत्ति है वह द्वितीय विभागमें । जैनाचार्यों ने पुस्तकलेखनरूप कार्यको साधु और श्रावक दोनों ही के लिये समान भावसे कर्तव्यरूप बतलाया है । इसलिये साधुवर्ग जो प्रायः सुपठित और साक्षर होता था वह स्वयं अपने हाथोंसे मी यथाशक्ति पुस्तक लेखनका कार्य सतत करता रहता था और गृहस्थ वर्गको उस कार्यमें द्रव्यव्यय करनेकी प्रेरणा कर उनके द्वारा दूसरे लिपिकारोंसे - लेखकवर्ग से भी पुस्तकें लिखवाता रहता था । गृहस्थ वर्ग, जो प्रायः स्वयं अपने हाथोंसे वैसा लेखनकार्य नहीं कर सकता था, वह अपने द्रव्यका व्यय कर ज्ञानाभिलाषियोंके पठन निमित्त दूसरोंसे पुस्तकें लिखवा कर, उन्हें समर्पित करता था । पूर्वके जैनाचार्योंने इस प्रकार स्वयं पुस्तकें लिखना और द्रव्यद्वारा दूसरों से लिखवाना – इन दोनों ही प्रकार के कार्यको आत्माकी अज्ञाननिवृत्तिका एक विशिष्ट कारण बतलाया है और इसीलिये साधु और श्रावक दोनों ही इस कार्यमें यथायोग्य प्रवृत्त होते आये हैं । इसका प्रमाण हमें प्रस्तुत प्रशस्ति संग्रह में सर्वत्र यथेष्ट उपलब्ध होता है । प्रस्तुत संग्रह में दो प्रकारके प्रशस्ति - लेख । ६७. प्रस्तुत संग्रहमें पाठकोंको दो प्रकारके प्रशस्ति - लेख देखने में आवेंगे, जिनमें पहला प्रकार उन बडे बड़े लेखक है जो अधिक तर पद्यमय हैं; और दूसरा प्रकार है, उन छोटे छोटे दो-दो चार चार पंक्तियोंवाले या उससे भी कम शब्दावलिवाले लेखोंका, जिसको हमने 'संक्षिप्त पुष्पिका लेख' की संज्ञा दी है । इस दूसरे प्रकार के 'संक्षिप्त पुष्पि का लेख' तो प्रायः पुरानी हस्त लिखित पोथियोंमेंसे - जैन अजैन सब ही संप्रदाय के पुस्तकों में से हजारों ही पुस्तकोंमें लिखे मिलते हैं, परंतु पद्यमय बडे 'पुस्तक प्रशस्ति लेख' जैनोंके Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - - प्रथम भाग लिखवाये हुए पुस्तकोंके अतिरिक्त शायद ही किसी पुस्तकमें प्राप्त हों । इसलिये ये 'जैन पुस्तक प्रशस्ति लेख ' एक प्रकारसे जैन पुस्तकोंके ही विशिष्टताके निदर्शक हैं । पुस्तक प्रशस्ति - लेखोंकी कल्पनाका निमित्त । ६८. पुस्तकोंके अन्तमें ऐसे पद्यमय 'प्रशस्ति लेख' लिखनेकी कल्पना, जैनाचायोंको, शायद मन्दिरों आदिके प्रशस्तिरूप शिलालेखोंकी कृतियोंको देख कर उत्पन्न हुई है। प्राचीन कालसे हमारे देशमें, देवमन्दिर, धर्ममठ और कूप वापी आदि जैसे कीर्तन निर्माण करनेवालोंके यश और पुण्य कार्यको अक्षरबद्ध करके, उसे भविष्य में चिरकाल तक जन - विदित रखनेकी कामनासे, उन उन कार्योंके करनेवाली व्यक्तियोंके प्रशंसक विद्वान्, यथायोग्य ऐसे छोटे बडे प्रशस्ति लेख बनाते थे जिनको शिलाओंमें खुदवा कर उन्हें उन उन कीर्तन - स्थानोंके किसी उपयुक्त भागमें - सर्वजनदृश्य स्थान पर लगवा कर रखनेकी प्रथा चली आ रही है। सारे भारतवर्ष में से ऐसे हजारों शिलालेख मिल आये हैं और उन्हींके आधार पर प्रायः हमारे देशके प्राचीन इतिहासका बहुत बडा भाग संकलित किया गया है। मन्दिरादिके ऐसे प्रशस्ति - लेखों को देख कर, जैनाचार्यों को शायद यह कल्पना हुई कि पुस्तक लेखनका भी एक वैसा ही पुण्यकार्य है जो विशिष्ट द्रव्यसाध्य है और वह भी मन्दिरादिकी तरह चिरकाल स्थायी वस्तु हो कर कीर्तन खरूप है; अतः जो भावुक गृहस्थ इन पुस्तकोंके लिखवानेमें अपना द्रव्य व्यय करता है, उसके इस सुकृत्यको और यशको भी अक्षर-बद्ध करके चिरकाल स्थायी रखनेकी इच्छासे, ये प्रशस्ति - लेख बनाकर पुस्तकोंके अन्तमें उन्हें लिपिबद्ध करनेकी उन्होंने पद्धति चालू की है। इन प्रशस्ति लेखोंसे दो कार्य सिद्ध होने लगे, एक तो वह कि जो गृहस्थ इन पुस्तकोंको लिखवाता था उसको जब तक वह पुस्तक रक्षित रहेगा तब तक अपना नाम विद्यमान रहेगा, इसका आत्मसन्तोष होने लगा; और दूसरा यह कि इस प्रकारका किसी गृहस्थ का नाम पुस्तकके कारण चिरस्मृत होता देख कर अन्य गृहस्थका भी वैसे ही कार्यके करनेमें उत्साह बढने लगा और उसके अनुकरणरूप वह भी ऐसे पुस्तक लिखवाने की प्रवृत्तिमें अपना द्रव्यव्यय करने लगा । इस संग्रहमें प्रकट किये गये प्रशस्ति - लेखक पढनेसे पाठकोंको इस कथनकी प्रतीति अच्छी तरहसे हो सकेगी । १९. इन प्रशस्तियों में से यह भी बात ज्ञात होती है कि निजके पुण्य और यशके सिवा, कई पुस्तक लेखयिता जन, अपने पूज्य, आप्त, बन्धु, आत्मीय और कुटुंबीजनोंके पुण्यार्थं भी ऐसे पुस्तक लिखवाते थे । इनमें से किसी पुस्तक प्रशस्तिमें कहा गया है कि यह पुस्तक अमुक जनने, अपने स्वर्गगत पिताकी या बन्धुकी या पुत्रकी पुण्यस्मृति के निमित्त लिखवाया है; तो किसी प्रशस्तिमें कहा गया है कि यह अमुकने अपनी माताकी या भगिनीकी या पत्नीकी पुण्यस्मृतिके निमित्त आलेखित करवाया है, इत्यादि । जिस तरह इस 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के प्रतिष्ठापक और परिचालक श्रीमान् बाबू बहादुर सिंह जी सिंघीने, अपने स्वर्गवासी पूज्य पिताकी पुण्यस्मृति निमित्त प्रस्तुत ग्रन्थमालाका प्रकाशन प्रारंभ किया है, उसी तरह पुराने समयके वे ज्ञानप्रेमी श्रावक गण भी, उन उन हस्त लिखित पुस्तकोंका आलेखन भी इसी प्रकारके किसी पुण्यस्मारकके निमित्त करवा गये हैं । ठीक जिस तरह हमने सिंघीजीके इस सुकृत्य और यशः कार्यका सूचन करनेवाली एक संस्कृत पद्यमय प्रशस्ति बनाई है और जो इस ग्रन्थमालाके प्रत्येक ग्रन्थमें, प्रारंभमें, दी जाती है; उसी तरहकी ये सब पुस्तक प्रशस्तियां हैं जो प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित की गई हैं और ये उन उन हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकोंके साथ लिखी हुई उपलब्ध हुई हैं । इन प्रशस्तियोंकी ऐतिहासिकता और प्रमाणभूतता । १०. अपने देश, समाज, और धर्मके प्राचीन इतिहासकी सामग्रीकी दृष्टिसे ये प्रशस्तियां उतने ही महत्त्वकी और प्रमाणभूत हैं जितने मन्दिरों आदिके शिलालेख और राजाओंके दानपत्र ( ताम्रपट) आदि माने जाते हैं । इन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार प्रशस्ति -लेखोंमें और उन शिलालेखोंमें, सिवा इसके कि ये पुस्तकोंके साथ एवं ताडपत्र या कागज पर लिखे हुए हैं, और शिलालेख पत्थरकी शिलापर खुदे हुए हो कर किसी स्थानकी दिवार आदि पर जडे हुए हैं, अन्य कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह कोई धर्मशील व्यक्ति अपने द्रव्यका सदुपयोग करनेकी दृष्टिसे देवमन्दिर आदि कोई धर्मस्थान या कीर्तन बनाता है, तो उसके उपदेशक अथवा प्रशंसक विद्वान् जन, उस कार्यकी स्तुतिरूपमें छोटा-बड़ा प्रशस्ति-लेख बना कर और उसे शिलामें खुदवा कर, उस स्थानमें लगवा देते हैं। इसी तरह कोई ज्ञानप्रिय व्यक्ति जो अपने द्रव्यका विनिमय पुस्तकादिके लेखनमें करता है तो उसके उस कार्यकी प्रशंसार्थ, उपदेशक विद्वान् , छोटा-बडा प्रशस्ति - लेख रच कर उसे तत्तत् पुस्तकके अन्तमें लिखवा देते हैं । इस लिये इन प्रशस्तिलेखोंमें और शिलालेखोंमें तथ्यकी दृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है और इसीलिये ये दोनों ही प्रकारके लेख इतिहास के अंगभूत ऐसे समान कोटिके साधन हैं। इन प्रशस्ति-लेखोंकी वर्णनीय वस्तु । ११. इन प्रशस्ति -लेखोंमें मुख्य वर्णन उस व्यक्तिका रहता है जो द्रव्यव्यय करके पुस्तक लिखवाता है । इस वर्णनका सारांश यह होता है-प्रारंभमें उसके जाति या वंशका उल्लेख किया जाता है, फिर उसके पूर्वजोंमेंसे किसी निकटवर्ती ऐसे पुरुषसे वंशावलि शुरू की जाती है जिसके द्वारा उस कुटुम्बकी, स्थानिक प्रसिद्धि आदि हुई हो । फिर दाताके प्रपिता-पिता-माता-भ्राता-भगिनी-पत्नी-पुत्र-पुत्री इत्यादिका यथायोग्य नाम निर्देश किया हुआ होता है। उसके बाद, अगर किसी धर्मोपदेशककी प्रेरणासे वह कार्य किया गया हो, तो उनके गच्छ, गुर्वादिकके परिचयके साथ उनका नामनिर्देश होता है; और फिर जिस ग्रन्थका लेखन कराया गया हो उसका उल्लेख किया जाता है । अन्तमें जिस संवत्सर, मास और तिथिमें वह पुस्तकालेखन समाप्त हुआ हो उसका निर्देश किया जाता है और किसी किसीमें स्थान और समकालीन राजाका भी उल्लेख कर दिया जाता है । अन्तमें जिस लेखकने (लिपिकारने) उस पुस्तककी प्रतिलिपि की हो उसका नाम रहता है और सर्वान्तमें उस पुस्तकके पढने-पढानेवालोंका माल और कल्याण सूचन करने वाला आशीर्वादात्मक वाक्य लिखा जाता है। बस, यही इन प्रशस्ति-लेखोंकी मुख्य वर्ण्य वस्तु है । इसमेंसे किसीमें कोई उल्लेख विस्तृत रूपमें मिलता है तो कोई संक्षिप्त रूपमें; और किसीमें कितनीक बातें अधिक परिमाणमें मिलती हैं तो किसीमें कम । इसका आधार प्रशस्तिकी रचना पर रहता है । प्रशस्ति बडी हुई तो उसमें अधिक और विस्तृत वर्णन मिलेगा; और छोटी हुई तो उसमें कम और संक्षिप्त । कुछ प्रशस्ति-लेखोंका विशेष परिचय । ६१२. प्रस्तुत संग्रहमें जो पद्यात्मक प्रशस्तियां दी गई हैं उनमें सबसे छोटी प्रशस्ति है उसके शिर्फ दो ही श्लोक हैं [ देखो प्र० क्रमार १०९] और जो सबसे बडी है उसके ४९ पथ हैं [ देखो, क्रमाङ्क ९५] । इस प्रकार प्रशस्तिकी रचना छोटी-बडी होनेसे उसमें वर्णनका भी उसी प्रकार संक्षिप्त या विस्तृत रूपमें उपलब्ध होना नियमसिद्ध है। उदाहरणके तौर पर हम यहां पर इनमेंसे दो-चार प्रशस्तियोंका कुछ परिचय देते हैं । ऊपर निर्दिष्ट दो पद्यवाली छोटीसी प्रशस्तिमें जो वर्णन दिया गया है उससे शिर्फ इतना ही ज्ञात होता है कि-'[ कोई एक] लक्ष्मण नामक श्रावक हुआ जिसकी सपना नामक पत्नी थी। उसके सिंह नामा पुत्र और रां भू नामकी पुत्री-ये दो सन्तान हुए । सिंह को [उसकी पत्नी] संतु का की कूखसे यशो देव नामक पुत्र हुआ जिसने अपने पिताके श्रेयार्थ, जीत कल्प नामक [ यह ] पुस्तिका लिखवाई ।'. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग इस संक्षिप्ततम प्रशस्तिमें, पुस्तक लिखानेवालेके निजके नाम और पुस्तकके नामनिर्देशके अतिरिक्त, उसके पिता-माता तथा पितामह-पितामही और एक फी (पिताकी भगिनी) के- इन पांच नामोंके सिवा और किसी बातका कोई निर्देश नहीं मिलता । इसमें स्थल और समयका भी कुछ निर्देश न होने से ये प्रशस्ति -निर्दिष्ट व्यक्ति कहां और कब हुए इसका भी हमें कोई ज्ञान नहीं हो पाता। - ऐसी ही एक, दो श्लोक और एक संक्षिप्त गद्यवाक्यवाली, दूसरी प्रशस्ति [ देखो ऋ० १०८] है जिसमें लिखा हुआ वर्णन मिलता है कि- 'पल्ली वाल वंशका प्रसिद्ध पुरुष वी सल हुआ जिसकी पत्नी जय श्री थी-जो राजी मती की पुत्री थी । इन वी स ल और ज य श्री की पुत्री जाउ का हुई जो देव और गुरुके पदकमलमें भ्रमर के समान थी। उसने यह सा मा चारी नामक पुस्तक लिखवाई । वि. सं. १२४० के चैत्र सुदि १३ सोमवार को यह पुस्तक लिख कर पूर्ण की गई। इस प्रशस्तिमें पुस्तक लिखनेकी मितिका निर्देश किया गया है जिससे हमें यह बात ज्ञात हो सकती है किपल्ली वाल वंशका वह वीस ल और उसकी पुत्री जा उ का- जिसने पुस्तिका लिखवाई-कब हुए । स्थानका इसमें भी कोई निर्देश नहीं इसलिये इससे यह बात नहीं ज्ञात हो सकती कि वे कहां के रहने वाले थे-उनका और कौन देश था । इन दो पद्यों- श्लोकोंवाली प्रशस्तियोंके पूर्व ३-३ श्लोकवाली दो प्रशस्तियां प्रस्तुत संग्रहमें मुद्रित हैं - जिनमेंसे एकमें [ देखो, क्र. १०५] लिखा है कि- 'कोई आशा धर और अमृत देवी का पुत्र कुल चंद्र नामका हुआ जो सर्वजनप्रिय हो कर सारे जगत्में विख्यात है। उसकी अंबिका नामक पुत्री है जो बडी विनयसंपन्न है। गुरुके उपदेशसे उसने यह पुस्तिका लिखवाई।' इस प्रकार पहले दो श्लोकोंमें इसमें लिखाने वालेका मात्र यह संक्षिप्त नाम-निर्देश किया गया है और तीसरा जो श्लोक है उसमें पुस्तिकाकी चिरस्थितिकी कामनाका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि-'जब तक आकाशमें सूर्य और चंद्र विद्यमान हैं तब तक पृथिवीमें यह पुस्तिका भी विद्यमान रहो ।' इस संक्षिप्ततम प्रशस्तिमें जो उल्लेख किया गया है उससे यह कुछ भी ज्ञात नहीं किया जा सकता कि यह सर्वजनप्रिय और सारे जगत्में विख्यात ऐसा कुल चंद्र किस वंशका, किस गांवका और किस समय में था । इसमें पुस्तकका नाम भी निर्दिष्ट नहीं है। ___इसी प्रकारकी ३ श्लोकवाली एक और प्रशस्ति [क्र. १०६ ] है जिसमें इतना वर्णन उल्लिखित है कि-- 'पल्ली वाल वंशमें पुना नामक गृहस्थ हुआ जिसका पुत्र बो हित्य और उसका पुत्र अच्छा धार्मिक ऐसा गण देक हुआ। उसने त्रिषष्टि [ शलाका पुरुष चरित्र ] नामक ग्रंथका यह तीसरा खण्ड पुस्तकमें लिखवा कर इसे स्तंभ तीर्य (खंभा त) की पोषधशाला [ के ज्ञानभण्डार ] में सहर्ष समर्पित किया ।' दो श्लोकोंमें यह वर्णन दे कर तीसरे श्लोकमें कहा गया है कि- 'जब तक सकल प्राणियोंका हित करनेवाला यह जैन मत विद्यमान है तब तक बुध जनों द्वारा पढा जाता हुआ यह पुस्तक भी विद्यमान रहो। इसमें, पुस्तकका नाम, लिखाने वालेका निजका नाम तथा उसके पिता, प्रपिता और वंशका नाम मात्र मिलता है । खंभा त की पोषधशालामें पुस्तकको भेंट करनेके निर्देशसे वह वहींका रहनेवाला होगा ऐसा भी अनुमान किया जा सकता है । पर संवत् का कोई उल्लेख न होनेसे उसके समयका कोई पता नहीं लग सकता बडी प्रशस्तियोंमेसे दो-एकका विशेष परिचय । ६१३. इस तरहकी ये जो छोटी-छोटी प्रशस्तियां हैं उनमें उक्त प्रकारका बहुत ही संक्षिप्त वर्णन मिलता हैअधिकके लिये इनमें कोई अवकाश भी नहीं है। पर जो दस-दस बीस-बीस श्लोकों-पद्योंवाली बडी प्रशस्तियां हैं उनमें इससे कहीं अधिक विस्तृत और विशेष बातें उल्लिखित होती हैं । और जो इनसे भी अधिक संख्यावाले पद्योंकी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार बहुत बड़ी प्रशस्तियां हैं उनमें बहुत कुछ विस्तृत वर्णन और अन्यान्य कई ऐतिहासिक बातें भी उल्लिखित मिलती हैं। उदाहरण खरूप ऐसी एक-दो बडी प्रशस्तियोंका परिचय भी यहां देना उपयुक्त होगा । क्रमाङ्क ५ वाली प्रशस्तिः अच्छी ,बडी प्रशस्ति है। इसके कुल ३७ पध हैं । यह प्रशस्ति देवचन्द्र सूरि [सुप्रसिद्ध आचार्य हेम चन्द्र के महान् गुरु ] के बनाये हुए शान्ति नाथ चरित्र के अन्तमें लिखी हुई उपलब्ध हुई है। यह पुस्तक पादे न के, संघवी पाडा के नामसे प्रसिद्ध प्राचीन ताडपत्रीय भण्डारमें सुरक्षित है । इसे सं. १२२७ में, पाटन के रहनेवाले प्राग्वा ट वंश (पोर वाड जाति) के श्रेष्ठी राह ड ने लिखवाया है । जिस समय यह पुस्तक लिखी-लिखाई गई उस समय वहां पर, 'सुश्रावक' ऐसा राजा कुमार पाल राज्य कर रहा था और वहीं के परमानन्दा चार्य नामक जैन सूरिको यह पुस्तक समर्पित की गई थी। इस प्रशस्तिमें पुस्तकके लिखानेवाले राह ड के पूर्वजों आदिका परिचय इस प्रकार दिया गया हैपृथ्वीतलमें जिसका मूल और विस्तीर्ण शाखायें फैली हुई हैं और जो धर्मके हेतुभूत ऐसे अनेक पर्वोकी परंपरासे समृद्ध हो कर अनेक गुणोंसे पूर्ण है ऐसा प्राग्वाट नामका विशाल वंश पृथ्वीमें उदित और विदित है । इस वंशमें जन्म लेनेवाला और तीर्थभूत ऐसे सत्य पुर (मार वा ड का आधुनिक सा चोर) से आया हुआ सिद्ध ना ग नाम का एक विशिष्ट ऐसा श्रेष्ठी हुआ जिसको अंबिनी नामक पत्नी थी। उनके पो ढ क, वीरड, वर्द्धन और द्रोण क नामक ये चार पुत्र हुए जो बडे प्रसिद्धि पानेवाले हुए। इन्होंने सोनेके जैसी कान्तिवाली पित्तलकी एक सुन्दर और उत्तम ऐसी शान्तिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमा बनवाई - जो अभी (अर्थात् प्रशस्ति लिखनेवालेके समयमें) द धिप.द्र के शान्तिनाथके मन्दिरमें पूजी जाती है। पोढ क के....."देवी नामक पत्नी हुई जिसके आम्बु दत्त, आम्बु वर्द्धन और सजन नामक ये तीन गुणवान् पुत्र हुए। इस पो ढक ने, पूर्णिमाके चन्द्रमाकी जैसी उज्ज्वल कांतिवाली निर्मल पाषाणकी पार्श्व और सुपार्श्व जिनकी दो मूर्तियां बनवाई जो मडाहत (आबू के पासमें आधुनिक मढार) गामके महावीर जिनके मन्दिरमें प्रतिष्ठित हैं। पोढक की दो पुत्रीयां थी जो (पीछेसे साध्वी बनकर) यशः श्री और शि वा देवी नामक महत्तरा पदको धारण करनेवाली बनी। .......... ...सजन को महल च्छि नामक पत्नी हुई जो बडी दानशीला थी। उनके विश्वप्रसिद्ध बडे रूपवान् और सब जनोंका समाहित करने वाले ऐसे पांच पुत्र हुए । इनके नाम इस प्रकार थे-धवल, वीसल, देशल, राहड और बाहराघवाल को अपनी भल्लणी नामक पत्नीसे वीरच न्द्र और देवचन्द्र नामक दो पुत्र हुए। इनमेंसे वीर चन्द्र के विज य, अजय, राज, आम्ब, ‘स रण आदि पुत्र हुए और देव चन्द्र को देव राज नामका पुत्र हुआ।धवल को एक पुत्री थी जिसका नाम सिरी था। बीसल और देशल नामक दोनों भाई निरपल्य रहै-उनको कोई सन्तान नहीं हुई । राह ड का लघु भ्राता जो बाह ड था वह जनप्रिय हो कर उसकी स्त्री जिनमति और पुत्र जसडुक हुए। ..सजन के दो पुत्रियां थी जिनमें पहली शांति का, जिसके आ शु का दि पुत्र हुए, और दूसरी धांधि का थी। ..... इन भाईयोंमें जो रा हड था वह विशेषरूपसे गुणवान्, बुद्धिशाली, सुजनप्रिय, सुशील, धर्मप्रिय और उदारचेता था। वह मेरुकी तरह उन्नतात्मा, सुवर्णवाला, और मध्यस्थभावको धारण करनेवाला था । वह विधिपूर्वक जिनकी पूजा करता, साधुओंकी स्तुति करता, उनका धर्मोपदेश सुनता, अर्थिजनोंको दान देता, यथाशक्ति तप करता, और गृहस्थोचित शीलका पालन करता । उसकी दे म ति नामक पत्नी थी जो बडी धर्मार्थिनी, दान देने बाली और सदा अपने पतिका चित्ताराधन करनेवाली थी । इनके ४ पुत्र हुए जो राजाकी तरह प्रतिष्ठा पानेवाले, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - पराक्रमी, पशःशाली और नीतिके मन्दिर थे । इनके नाम इस प्रकार थे - चाहड, बोहड, आसड और ना शाधर । इस राइड के अब देवी, मुंधी, मादू, तेज य और राजुक ये पुत्रवधुएं थीं और य शोध र, व शोधीर, यश:कर्णादि पौत्र, एवं घेऊय, जासु क, जयंतुक आदि पौत्रियां थी । :- प्रथम भाग इस प्रकार विशाल कुटुम्ब और समृद्धिवाले राह ड का जो वो हडि नामक दूसरा पुत्र था उसका अकस्मात् ( युवावस्था में ही ) स्वर्गवास हो गया । इस पुत्र वियोगसे दुःखित हो कर रा. ह ड संसारके खरूपका चिंतन करता हुआ मनमें सोचने लगा कि जीवित, यौवन, शरीर, संपत्ति, स्त्री और कुटुम्ब - यह सब महामेघके बीचमें चमकनेवाली बीजलीकी तरह चंचल हो कर क्षणस्थायी वस्तु है। इसलिये मनुष्यको अपने हितके लिये धर्मकृत्य करना चाहिए। उसमें भी, जो मुनिजन हैं वे ज्ञानदानको अधिक प्रशंसनीय कहते हैं, अतः मुझे भी कुछ ज्ञान दान करना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने यह शान्ति नाथ चरित्र लिखवाया । तथा गृहपूजनमें काम आवे ऐसी सुन्दर पित्तलमय शान्तिजिनकी मूर्ति बनवाई। यह शान्ति नाथ चरित्र का जो पुस्तक है वह राजाके महलकी तरह सुवर्ण ( अच्छे अक्षर और सोना ) से चकचकित है, सुन्दर चित्रोंसे अंकित है और अच्छे पत्रोंसे सुशोभित है । अतः यह बहुजनोंको आनन्द देनेवाला है । विक्रम संवत् १२२७ के भाद्रपदमासमें, जब कि 'सुश्रावक' ऐसा राजा कुमारपाल राज्य कर रहा है, उस समय अणहिलपुर पाटन में यह पुस्तक लिखा गया है । यशः प्रभाचार्य के प्रशिष्य परमानन्द सूरि को यह पुस्तक भेंट किया गया है। जब तक नमः श्री प्रजाको अपने पयोधरोत्पन्न पानीसे, जननीकी तरह, तुष्ट करती रहे तब तक यह पुस्तक भी पृथ्वीमें विद्यमान रहो । चक्रेश्वर सूरिके शिष्य परमानन्द सूरिने इस पुस्तकके अन्त में यह प्रशस्ति स्थापित की है। मंगल और महाश्री हो ।' इस प्रशस्ति के वर्णन से मालूम होगा कि इसमें किस तरह राइड के वंश और कुटुम्बका विस्तृत परिचय दिया गया है तथा उसके किये गये अन्यान्य धर्मकृत्योंका निर्देश किया गया है। इसमें समय अर्थात् संवत् और मास तथा स्थानका भी उल्लेख किया गया है और साथमें जिस राजाके राज्यकालमें यह पुस्तकालेखन हुआ उसका भी बडे महत्त्वका उल्लेख विद्यमान है । ऐतिहासिक तथ्यकी दृष्टिसे, इसमें किया गया राजाकां यह उल्लेख एक और प्रश्नकी चर्चाके लिये भी बहुत ही अधिक महत्त्व रखता हैं । अण हिलपुरका चौलुक्य चक्रवर्ती सम्राट् कुमार पाल - 1 - जिसको जैन विद्वानोंने एक परम जैन राजा बतलाया है और जिसने अपने जीवनके शेष कालमें जैनशास्त्रोपदिष्ट श्रावक धर्मके व्रतोंका विधिपूर्वक स्वीकार कर 'परमाईत' बिरुद प्राप्त किया था- इस ऐतिहासिक तथ्यके विषयमें कुछ हमारे विद्वान् मित्र शंका उपस्थित करते हैं और वे ऐसा अभिप्राय प्रदर्शित करते हैं, कि यद्यपि सम्राट् कुमार पाल जैनधर्मके प्रति बहुत ही अधिक सहानुभूति रखता था, इसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि वह जैसा कि जैन ग्रन्थकार लिखते हैं, एक तरहसे पूरा श्रावक ही बन गया था, इसके लिये समकालीन वैसा कोई प्रमाणभूत आधार नहीं - इत्यादि । यह शंका कैसी भ्रामक और विपर्यासात्मक बुद्धिजन्य है इसके लिये यद्यपि किन्हीं विशेष प्रमाणोंके उपस्थित करने की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि कुमार पाल के जैनधर्म स्वीकार करनेका जितना विशिष्ट साहित्य और जितने प्रमाणभूत उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे सब उस अंशमें उतने ही तथ्यपूर्ण हैं जितने अंशमें वे कुमार पाल के अस्तित्वके विषयमें तथ्यपूर्ण हैं । परन्तु उनके अतिरिक्त प्रस्तुत प्रशस्तिमें, जो कु मां र पाक की मृत्युके पूर्व ३ वर्ष पहले, स्वयं अणहिलपुर में, उसके समीप ही रहनेवाले एक प्रसिद्ध प्रजाजनका स्मारक रूप लिखा हुआ प्रासङ्गिक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९ प्रास्ताविक विचार लख है,-कुमार पाल को 'सुश्रावक'के स्पष्ट विशेषणसे उल्लिखित किया है । इस विषयमें अधिक चर्चा करना यहां पर अप्रासंगिक होगी। यह तो सिर्फ इसलिये सूचित किया गया है कि इन प्रशस्ति-लेखोंमें किस किस प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्रीका उपादान संगृहीत है। ६१४, अब, एक और दूसरी ऐसी ही बड़ी प्रशस्तिका वर्णन देखें । ३ रे क्रमाङ्कवाली ३३ पद्योंकी बडी प्रशस्ति है। यह भ ग व तीसूत्रवृत्ति के पुस्तकके अन्तमें लिखी मिली है। पाटणके संघके भंडारमें यह पुस्तक उपलब्ध हुआ है। विक्रम संवत् ११८७ में, जब कि चालुक्य चक्रवर्ती सिद्धराज जय सिंह पाटण में राज्य कर रहा था, उस समय यह प्रशस्तिवाला पुस्तक लिखा गया है । इसका लिखानेवाला उसी वंशका सिद्ध नामक श्रावक है, जिस वंशका, उपर्युक्त ५ ३ क्रमाङ्कवाली प्रशस्तिमें वर्णित श्रावक राह ड था । राह डके उक्त पुस्तकके लिखानेके पूर्व ४० वर्ष पहले यह पुस्तक लिखाया गया था। इस प्रशस्तिमें जो वर्णन मिलता है वह इस प्रकार है . इसके प्रारंभके ३ पद्य मूल पुस्तकमें बिगड गये हैं- न जाने किसीने उन पंक्तियों पर पानी फेर कर उनको क्यों नष्ट कर दिया है - इससे इन विनष्ट पद्योंमें क्या उल्लेख था इसका ठीक ज्ञान नहीं हो सकता; पर उक्त ५ क्रमाकवाली प्रशस्तिके प्रारंभमें उपलब्ध उल्लेखसे अनुमान किया जा सकता है कि इनमें भी उसी सिद्ध नाग श्रावकका उल्लेख होना चाहिए जो प्राग्वा ट वंशका एक विशिष्ट प्रसिद्धिप्राप्त श्रेष्ठी था और जो सत्यपुर से निकल कर गुजरात में आ कर बसा था। क्यों कि इस प्रशस्तिके उपलब्ध ५ वें पद्यमें उसके उन्हीं ४ पुत्रोंके नाम निर्दिष्ट हैं जो उक्त राह ड की प्रशस्तिके ३ रे पवमें मिलते हैं। उस श्रेष्ठीके ये ४ पुत्र इस नामके थे-वोढ के, वीरड, बहुर्ड, द्रोणक । इन्होंने अपने हाथोंसे कमाये हुए धनसे तीर्थकरकी अनेक मूर्तियां आदि बनवाई थीं और ये सद्धर्ममें खूब निष्ठावान् थे। • इनमें जो वीरड नामक श्रेष्ठी था वह जैन मुनियोंका विशिष्ट भक्त था और उसकी पत्नी धन देवी थी सो भी जैन धर्ममें बडी श्रद्धावाली थी। इनका पुत्र वर देव श्रेष्ठी हुआ जो बहुत सरल खभावी हो कर बडा दयाल था और सदा धर्ममें चित्त पिरोनेवाला था । उसने महावीर तीर्थकरकी एक बहुत ही मनोहर ऐसी - पित्तलकी मूर्ति बनवाई थी और उसके साथ समवसरण भी बनवाया था। ज्ञानकी भक्तिके वश हो कर उसने अपनी मुक्तिके लिये उत्तरा ध्य य न सूत्र वृत्तिका पुस्तक भी लिखवाया था। इस तरह उसने और भी अनेक धर्मकार्योंमें बहुत कुछ द्रव्य व्यय किया था । उसकी लक्ष्मी नामकी पत्नी थी जो, साक्षात् विष्णुकी पत्नी लक्ष्मीके जैसी ही, रूपवती और हृदयको हरनेवाली थी । इनका प्रसिद्ध पुत्र सिद्ध नामक हुआ । यह बडा पुण्यशाली, गुणानुरागी, वीर, कामदेवके जैसा रूपवान् , जैन धर्ममें आदरशील, सदाचारपरायण, खीकृत कार्यके पूरा करनेमें दृढप्रतिज्ञ, दाक्षिण्यनिधि और राजलोकमें भी अपने गुणोंसे बहुमान्य बना। इसके चां पूश्री, अमृत देवी, जिन मति, य शोरा जी, पाजू और अम्बा नामकी बहिनें थीं। यह द धिपद्र का रहनेवाला था तो भी लोकोंमें, इसके पूर्व निवासस्थानके कारण, मड्डाह ड पुरी य के विशेषणसे प्रसिद्ध हुआ। इसको राजि म ती और श्रिया देवी नामकी दो पनियां हुई। इनसे इसको वीर दत्त, आम्ब, सरण आदि शुत्र और वीरका, जस हि णि आदि पुत्रियां उत्पन्न हुई। इसके ये सब सन्तान सदाचारी और सब जनोंके मनको प्रमोद देनेवाले हैं। १पहली प्रशस्तिमें यह नाम 'पोढक' के रूपमें मिलता है, जो 'प' 'व' के उच्चारणकी समानताका मात्र सूचक है। २ उक्त प्रशस्तिमें यह नाम 'बर्दन' ऐसा है जो या तो वह इस देशी 'वदुड' शब्दका संस्कृतीकरण है अथवा संस्कृत 'वर्द्धन'का वह अपभ्रंशरूप है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुस्तक प्रशस्तिसंग्रह - प्रथम भाग एक समय सिद्ध के पिताने, जब उसका अवसान काल निकट आया तब, परलोकके लिये कुछ पाथेय ले जानेके निमित्त, अपने पुत्रको बुला कर यह कहा कि - पुत्र ! मेरे श्रेयके निमित्त तीर्थयात्रा आदि पुण्य कार्यमें तो तुम द्रव्य व्यय करोगे ही, परंतु विशेष करके पुस्तकोंके लेखन कार्यमें तुम यथेच्छ व्यय करो ऐसी मेरी इच्छा है। १० पिताकी इस पुण्य कामनाके अनुसार, उसके खर्गवासी होने पर, फिर उस सिद्ध ने एक लाख श्लोक ग्रंथ परिमाणवाले ऐसे १० पुस्तक लिखवाये जिनमें निम्न प्रकारके ग्रन्थोंका समावेश होता है - १. सुयगडंग सुत्त, निज्जुत्ती, वित्ती. २. उवासगदसाइ अंगसुत्त, वित्ती. ३. ओवाइयसुत्त, वित्ती; रायप्प४. कप्पसुत्त, भासं. ५. कंप्पण्णी. ६. दसवेयालियसुत्त, निज्जुत्ती, वित्ती. ७. उवएसमाल ९. पंचागमुत्त, वित्ती. १०. पिंडविसुद्धी - वित्ती, ( जसदेवसूरि रचित) पढमपंचासग चुन्नी, सेणइय सुत. ८. भवभावणा. लघु वीरचरिय, रयणचूडकहा. इस प्रकारके ग्रन्थोंका जिनमें समावेश होता है वैसे १० पुस्तक उसने अपने पिताके पुण्यार्थं लिखवाये । बाद में उस सिद्ध की एक पत्नी राजिमती भी अकालही में स्वर्गवासिनी हो गई । मरते समय उसने भी अपने पति से कहा कि - 'मेरे पुण्यके लिये भगवती सूत्रके दो सुन्दर पुस्तक तुम लिखवाना' । इससे उस सिद्ध ने तत्काल अपनी पत्नीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये, सुन्दर अक्षरोंसे युक्त, मोक्षमार्गकी प्रपाके जैसे ये दो पुस्तक लिखवाये - जिनमेंसे एक में भगवती सूत्र - मूल लिखा गया है और दूसरेमें उसकी वृत्ति लिखी गई है । विक्रम संवत् १९८७ में, जब कि जय सिंह देव ( सिद्धराज ) पृथ्वीका पालन कर रहा था, उस समय हलपुर पाटण में, यह पुस्तक- समूह तैयार किया गया है। शालिभद्रसूरि के शिष्य श्री व र्द्ध मा न सूरि के चरण-कमलमें भ्रमरके समान रहनेवाले श्री चक्रेश्वराचार्य को यह पुस्तक - समूह संशोधन और वाचनके लिये समर्पित किया गया है । उन्हीं पुस्तकों का यह एक [ भगवती वृत्ति का ] सुन्दर वर्णसे विभूषित पुस्तक है । जब तक आकाशमें रहे हुए सूर्य, चन्द्र और तारक गण पृथ्वीके अन्धकारको नष्ट करते रहें तब तक यह पुस्तक भी पढ़ा जाता हुआ विद्यमान रहो । इस वर्णनके साथ प्रशस्तिके ३३ पद्म पूरे हुए हैं। इसके बादमें एक गद्य पंक्ति है जिसमें लिखा है कि- - संवत् ११८७ के कार्तिक सुदि २ को सिद्ध श्रा व क और श्री चक्रेश्वर सूरि के लिये यह भगवती विशेष वृत्तिका पुस्तक लिखा गया । १५. सिद्ध और राह श्रेष्ठीकी इन दो पुस्तक प्रशस्तियों के परिचयसे हमें इस विषयका ठीक ज्ञान हो सकता है कि इन प्रशस्ति-लेखों में हमारे प्राचीन सामाजिक और धार्मिक इतिहासकी किस प्रकारकी बहुमूल्य और तथ्यभूत सामग्री छिपी पडी है। इन प्रशस्तिगत उल्लेखोंसे हमें यह ज्ञात हुआ कि सिद्धराज और कुमार पाल के राज्य समय में पाटण में कैसे कैसे धनिक और धर्मिष्ठ श्रावक कुटुम्ब वसते थे । उदयन, सान्तू, मुंजाल आदि कुछ राजकीय पुरुषोंका उल्लेख हमें प्रबन्ध चिन्तामणि आदि जैसे प्रबन्धात्मक ग्रंथोंमेंसे मिलता है, पर उनके अतिरिक्त जो हजारों धनवान् और धर्मनिष्ठ कुटुम्ब, उस समय पाटण और अन्यान्य स्थानोंमें रहते थे और जिनके कारण जैन धर्म और जैन समाज उस बडे गौरवको प्राप्त हुआ था, उनका कुछ भी परिचय हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । पर इन प्रशस्ति - लेखोंसे हमें ऐसे उन अनेक धर्मशील, दानवीर, लोकमान्य, सदाचारी श्रावकों और उनके कुटुम्बों का कितना ही महत्त्वपूर्ण और गौरवदर्शक, परंतु अद्यापि सर्वथा अज्ञात ऐसा, इतिहास प्राप्त होता है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक बिचार ऊपर जिन दो प्रशस्ति-लेखोंका हमने परिचय दिया है उससे ज्ञात होता है कि सिद्ध और राह ड के कुटुम्बका मूल पुरुष सिद्ध नाग था जो प्राग्वा ट (पोरवाड) वंशीय हो कर मूल सत्य पुर ( सा चोर ) का रहनेवाला था । महामात्य उदयन श्री मा ली की तरह यह सिद्ध ना ग मी शायद अपने भाग्यकी परीक्षा करने या धनोपार्जनकी आकांक्षासे, अपना मूल स्थान छोड कर नूतन गुजरात की तरफ निकल आया है । वह, उस समय अच्छी आबादीवाले मजा हृत ( आधुनिक म ढार) में बस जाता है। वहां अच्छी संपत्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके बाद उसके पुत्रोंमेंसे कुछ अण हिल पुर के पास द धि पद में आ कर रहते हैं। और फिर वे, शायद, पादण में आ कर बसते हैं । प्रशस्ति - लेखोंमें इसके पुत्र-पौत्रों आदिके बारे में जो प्रशंसात्मक वचन लिखे गये हैं, उन परसे अनुमानित होता है, कि इसका यह वंश-परिवार धन और जन दोनों दृष्टिसे बडा समृद्ध और समुन्नत था । इसके सन्तानोंने धर्म और पुण्यार्थ बहुत कुछ द्रव्य व्यय किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये, जिनमूर्तियां प्रतिष्ठित की, तीर्थयात्रादिके निमित्त संघ निकाले और ज्ञानप्रसारके निमित्त पुस्तक लिखवाये । प्रशस्तिगत उल्लेखोंसे यह मी विदित होता है कि इसके सन्तान अत्यंत धर्मनिष्ठ हो कर वे सदाचार और सुसंस्कारसे परिपूर्ण थे। सिद्ध ना ग की दो पौत्रियां जो उसके ज्येष्ठपुत्र वो ढ क की पुत्रियां थीं, साध्वी बन कर 'महत्तरा' जैसे बड़े सम्मानदर्शक पदको प्राप्त हुई थीं। इसके सन्तानोंमें ज्ञानप्रेम भी खूब अधिक था और इसीलिये पुस्तकालेखन तरफ उनकी यह ऐसी विशिष्ट प्रवृत्ति रही। वीर ड ने अपनी ज्ञानभक्तिके निमित्त स्वयं अपने जीवनकालमें उत्तराध्य य न वृत्ति का पुस्तक लिखवाया और फिर मृत्युके समय भी पुत्र सिद्ध को उसी कार्यमें विशेष कर द्रव्य व्यय करनेका उपदेश देता गया । सिद्ध ने अपनी पिताकी इस शुभेच्छाको पूर्ण करनेके निमित्त एक लाख श्लोक परिमाण ग्रंथाम लिखवा कर पिताकी आज्ञाका उत्तम रीतिसे पालन किया। सिद्ध की एक पत्नी भी, उसी तरह अपनी मृत्युके समय, पुस्तक लिखानेकी पुण्येच्छा अपने पतिके पास प्रकट करती जाती है, जिसे वह पत्नीप्रेमी श्रावक भगवती सूत्र जैसे प्रधान एवं पूजनीय प्रन्यकी सुन्दरतम प्रति लिखवा कर अपने धर्म गुरुको पठन निमित्त समर्पित करता है। १६. इस बातको बीते आज आठ सौ से भी कुछ ऊपर वर्ष हो गये । राजि मति के इस ज्ञानप्रेमका पुण्यस्मारक रूप वह पुस्तक अब तक उसी पाटण में विद्यमान है । न मालूम इन आठ-आठ सौ वर्षोंमें कितने आचार्योने -कितने मुनियोंने-कितने पण्डितोंने इस पूज्यतम भगवती सूत्रका खाध्याय और वाचन किया होगा; और कितने श्रद्धालु श्रावक श्राविकाओंको इसके अवर्णका लाभ प्राप्त हुआ होगा। कितने ही शास्त्रपूजक जनोंने इस पुस्तककी बडी श्रद्धासे पूजा की होगी और इस पर अनेक वार, अनेकानेक सुवर्ण मुद्राएं चढाई होंगी। सिद्ध नाग के प्रपौत्र राह ड का एक पुत्र बोह डि छोटी उम्रहीमें वर्गवासी हो गया। इससे पिताको बडा दुःख हुआ और उसके वियोगमें वह विकलसा बन गया । उसको अन्तमें अपने चित्तकी शान्तिका उपाय ज्ञानके प्रसारमें मालूम दिया और इससे उसने उसके लिये शान्ति नाथ चरितका सुन्दर पुस्तक लिखवाया । यह पुस्तक भी अभीतक उसके सद्भाग्यसे उसी पारण में विद्यमान है। जो कोई व्यक्ति अपने क्षणिक जीवनकी दीर्घकालस्थायिनी कोई स्मृति छोड जाना चाहता है तो वह ऐसे किसी लोकोपयोगी पुण्य स्मारकमें यथाशक्ति कुछ व्यय करना चाहता है, और उसके द्वारा वह अपना नाम कुछकालके लिये स्थिर रखनेकी इच्छा रखता है । पर जिस प्रकार, द्रव्यका सव्यय करनेकी शुभ इच्छा, लाखों धनिकोंमेंसे किसी उसी पुण्यशालीको होती है जिसका भावी जन्म शुभोदयवाला होनेको है । इसी तरह किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित कराया हुआ कोई पुण्य स्मारक भी दीर्घकालस्थायी उसीका हो सकता है जिसका पुण्य अधिक प्रबल और संस्कार अधिक सुदृढ हो। यह सिद्ध नाग और उसकी उल्लिखित सन्तानोंके किसी प्रबल पुण्य संस्कारहीका फल है, कि आज आठ-आठ सौ वर्ष जितने दीर्घकाल तक, उनके नामस्मारक ये पुस्तक विद्यमान रहैं और उनमें संलग्न इन प्रशस्ति -लेखोंके अस्तित्वसे, आज हम उसके वंशका यह यथाप्राप्य किंचित् परिचय संसारको दे कर, इस प्रकार उसे अब और भी अधिक दीर्घकालस्थायी बना रहे हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ३ और ५- इन दोनों प्रशास्ति - लेखोंमें निर्दिष्ट व्यक्तियोंका संयुक्त वंशशाखाके रूपमें आलेखन करें तो वह निम्नप्रकारसे दिखाई देगा- प्राग्वाटवंश-सिद्धनाग- वासस्थान सत्यपुर पत्नी अंबिनी पो(वो ढक (पत्नी-...देवि) वीरड (पनी-धनदेवि) वदुड (वर्धन) वरदेव (पनी - लक्ष्मी) अमृतदेवि जिनमति यशोराजी पाजूका. आंबा सिच चांपूश्री वासस्थान-दधिपद्र, सं. ११८७ (पनी-१ राजमति. २ भिंयादेवि) जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग आंब सरण वीरिका जसहिणि आंबुदत्त वीरदत्त आंधुवर्द्धन सजन यशःश्री शिवादेवी (पत्नी-महलच्छि ) [महत्तरा] [महत्तरा] वीसल सांतिका घांधिका धवल ... (पत्नी-मल्लणि) वास. पाटण, सं. १२२७ (पनी-देमति) आशुकादि [पुत्र]. 'धीरचंद्र देवचंद्र सिरी बोहडि पिनी-१ अश्वदेवी, २मुंघी), (पत्नी-मांदू) (पनी-वेजू!) यशोधर, यशोधीर. यशःकर्ण. घेऊ. जासुका. आंब सरण आशाधर (पनी-राजुका) देवराज विजय अजय राज Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार इस प्रकार इन दो बडी प्रशस्तियोंका जो उक्त परिचयात्मक वर्णन दिया गया है इससे पाठकोंको इस प्रकारकी और समी प्रशस्तियोंकी विशेषता, उपयोगिता आदिका ठीक आकलन हो सकेगा। हमारी इच्छा तो थी कि हम इसके साथ, इन सभी प्रशस्ति-लेखोंका इसी तरहका पूरा सार मी, हिन्दीमें दे दें, जिससे जिज्ञासुओंको प्रत्येक प्रशस्तिका ठीक परिचय इस प्रस्तवनाके पढनेहीसे हो जाय । पर, वैसा करना हमारे लिये अमी शक्य नहीं हैएक तो अमी कागजोंका बड़ा भारी अभाव हो रहा है और दूसरा, प्रन्थमालामें अन्यान्य जो अनेक ग्रन्थ छप रहे हैं उनके संपादनमें सतत व्यस्त होनेसे इसके लिये इतना समय प्राप्त करना कठिन हो रहा है । इसलिये दिग्दर्शनरूप इतना वर्णन दे करके ही हम इस संग्रहको पाठकोंके हाथमें समर्पण करते हैं। प्रस्तुत संग्रहमें सब ताडपत्रीय पुस्तकोंके लेख है। ६१७. जैसा कि इस पुस्तकके मुखपृष्ठसे ज्ञात होता है, यह इस प्रकारके प्रशस्ति-संग्रहका पहला भाग है। इस पहले भागमें जितने प्रशस्ति-लेख प्रकट किये जा रहे हैं ये सब ताडपत्रीय पुस्तकोंके हैं। कागज पर लिखे. गये पुस्तकका एक मी लेख इसमें नहीं दिया गया है। वे सब लेख क्रमशः अगले भागोंमें प्रकाशित किये जायेंगें । ताडपत्रीय पुस्तक, जो कागजके पुस्तकोंकी अपेक्षा अधिक पुराने हैं, संख्यामें अब बहुत थोडे बच रहे हैं। कागजोंके पुस्तकोंकी संख्या तो शायद लाखोंसे गिनी जाने जैसी बडी है, पर ताडपत्रकी पुस्तकोंकी गिनती तो अब इनेगिने सौ ही में मर्यादित रह गई हैं। ताडपत्रका कुछ परिचय । ६१८. पाठक जानते ही होंगे कि प्राचीन कालमें हमारे देशमें कागजका प्रचार बिल्कुल ही नहीं था। कागज भारत वर्ष में बहारसे मध्य एशिया से आया है। मुसलमानोंके आगमनके साथ भारत में कागजका मी आगमन शुरु हुआ और उनके यहां पर स्थायी निवास करनेके साथ कागजका मी स्थायी एवं अधिक प्रचार और व्यापक उपयोग होना शुरु हुआ । उसके पहले इस देशमें पुस्तकें लिखनेका मुख्य और व्यापक साधन ताडपत्र था । काश्मीर में भूर्जपत्र (भोजपत्र) पर मी बहुतसी पुस्तकें लिखी जाति थीं-क्यों कि उस देशमें भूर्जपत्रकी उत्पत्ति खूब अच्छी तादादमें होती है और वह वहां पर बहुत सुलभ वस्तु है । पर काश्मीर के बहार भूर्जपत्रका उपयोग अधिक तर चिट्ठीपत्री लिखनेके रूपमें किया जाता था और पुस्तकोंके लिखनेके लिये प्रायः ताडपत्र ही काममें लाये जाते थे। ताडपत्रों पर वाङ्मयको लिपिबद्ध करनेकी दो पद्धतियां भारतमें प्रचलित हैं, जिनमें एक तो उत्तर भारतकीशाहीसे पत्तों पर लिखनेकी पद्धति, और दूसरी, दक्षिण भारतकी-पत्तों पर बारीक नोंकवाले सूयेसे अक्षर खोदनेकी पद्धति । दक्षिण भारतमें प्रायः जितनी ताडपत्रीय पुस्तकें मिलती हैं वे सब सूयेसे खोदे हुए अक्षरोंसे अंकित हैं और उत्तर भारतकी सब शाहीसे लिपीकृत है । पुस्तकें लिखनेकी ये दोनों पद्धतियां हमारे देशमें बहुत प्राचीन कालसे चली आती मालूम देती हैं। क्यों कि इन दोनों पद्धतियोंके निर्वाचक दो भिन्न शब्द हमारे प्राचीन साहित्यमें व्यवहृत होते चले आते हैं। ये दो शब्द है-लेख और लिपि । लेख शब्द लिख धातुसे बना है. और लिपि लिप् धातुसे । इसलिये लेखका असली अर्थ है खोदना-उत्कीर्ण करना; और लिपिका मौलिक अर्थ है लीपना-लेप करना । शाहीसे जो लिखना होता है वह पत्ते पर खोदना नहीं परंतु लेप करना है-शाही पत्तेपर लींपी जाती है। इसके विपरीत सूयेसे जो पत्ते पर खोदना है वह, लिपीकरण-लेपन करना नहीं, लेकिन लेखन करना हैउत्कीर्ण करना है । इसीलिये इन दोनों पद्धतियोंके सूचक ये दो भिन्न शब्द इस क्रियाके लिये प्राचीन कालसे व्यवहारमें प्रयुक्त हैं। परंतु इन क्रियाओंका उद्देश्य एक ही होनेसे ये दोनों शब्द बहुत कालसे प्रायः समान अर्थमें ही प्रयुक्त होते चले आये हैं, और इसलिये शाहीसे लिखी गई या सूयेसे खोदी गई दोनों प्रकारकी ताडपत्रीय पुस्तकोंके लिये लिखित या लिपीकृत शब्दका समान रूपसे प्रयोग किया जाता है । पर वास्तवमें इन दोनों पद्धतियोंमें उक्त प्रकारका मौलिक मेद है और उसी भेदके सूचक ये दोनों शब्द निर्मित हुए हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकाशस्तिसंग्रह प्रथम भाग १९. जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है कि मुसलमानोंके आगमनके बाद भारत में कागजका स्थायी और व्यापक प्रचार होना शुरु हुआ, तब मी दक्षिण भारत में प्रायः पुस्तकलेखन के निमित्तं ताडपत्रका: वैसा ही क्यवहार होता रहा जैसा कागजके आनेके पहले था; और आज मी थोडा बहुत प्रचार इसका चालू ही है । परंतु उत्तर भारत में इसका प्रचार और व्यवहार प्रायः सर्वथा ही बन्ध हो गया । आज तो उत्तर भारतमें ताडपत्र परपुस्तक लिखनेकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । उत्तरमें इसका यह व्यवहार सेंकडों वर्षोंसे लुप्त हो गया है। प्रायः वि. स. १५०० के बाद, उत्तर भारत में ताडपत्रीय पुस्तकलेखन एकदम अदृश्य हो गया । इसका कारण एक तो यह कि उत्तर भारत में ताडपत्रकी कोई वैसी पैदायश नहीं है। जो थोडे : बहुत कहीं ताडके माद इस प्रदेशमें दिखाई देते हैं उनके पत्ते, लिखने योग्य नहीं होते। दक्षिणमें जो ताडपत्रः अमी तक लिखनेके काममें लाया जाता है उसका मुख्य कारण तो यह है कि उस प्रदेशमें उस झाडकी बहुत बड़ी पैदायश है और उसमें कुछ जाति ऐसी मिलती हैं जिनके पत्तोंपर सूयेसे अक्षर अच्छी तरह खोदे जाते हैं । इधर गुजरात-राजपूताना आदि पश्चिम भारतीय देशोंमें पहले जो ताइपत्र आते थे वे मला या आदि सुदूर विदेशोंसे आते थे । वहाँके ताडके वृक्षोंके पत्ते बहुत मुलायम हो कर बडे चिकने और टिकाऊ होते हैं । उनको 'श्रीताड' के नामसे पहचानते हैं । दक्षिणका जो ताड है उसे 'खरताड' कहा जाता है । मला.या आदि पूर्वीय देशोंसे यह ताडपत्र पहले सामुद्रिक मार्गसे मला बार पहुंचता था और फिर वहांसे या तो समुद्रके रास्तेसे अथवा तो भूमिमार्गसे गुजरात में पंहुचता था और यहांसे फिर वह उत्तर भारत के अन्यान्य प्रदेशोंमें जाता था। इस कारण गुजरात में इस पुस्तकोपयोगी ताडपत्रको 'म ल बारी' ताडपत्र भी कहा करते थे । पाटण में हमें एक ऐसे कोरे ताडपत्रका नमूना मिलाथा जिस पर किसीने अपनी स्मृतिके लिये लिख रखा था कि इतने 'मलबारीय' ताडपत्रोंका यह संचय अमुक समयमें किया गया, इत्यादि । ६२०. पुस्तक-लेखनके लिये हमारे पूर्वजोंने ताडपत्रका उपयोग करना कबसे शुरु किया ? ताडपत्र पर लिखी हुई कितनी पुस्तकें हमारे देशमें मिलती हैं ! ताडपत्र पर लिखनेके लिये क्या क्या क्रियायें करनी पडती हैं ! उसके लिये किस प्रकारकी शाहीकी आवश्यकता रहती है ? ताडपत्रका आकार प्रकार कैसा रहता है ! ताडपत्रीय पुस्तकोंकी किस प्रकार दीर्घकाल तक रक्षा की जा सकती है ! जैन समाजने अर्थात् जैन साधुसंघने कबसे इस पुस्तक-लेखनका अवलंबन किया और पूर्वकालमें कहाँ कहाँ इस पुस्तक-लेखनका कार्य विशिष्ट रूपसे संपन्न होता रहा- इत्यादि बहुतसी ऐसी बाते हैं जो यहां पर, इस प्रसंगमें हमें लिखने जैसी आवश्यक प्रतीत होती हैं और जिनके जाननेसे पाठकोंको बहुत कुछ भारतीय पुस्तक-लेखनके विकासका उपयुक्त इतिहास ज्ञात होने जैसा है; पर उसी ऊपर लिखे हुए कारणवश हमें इस इच्छाका भी यहां संवरण करना पडता है । हो सका तो इस संग्रहके दूसरे भाग उसे विस्तारके साथ लिखनेका मनोरथ है । इस विषयको जरा विशिष्ट रूपसे पल्लवित कर आलेखित करनेके निमित्त हमने कई प्राचीन दर्शनीय ताडपत्रों के ब्लॉक आदि भी बनवा रखे हैं और कई बिरंगे चित्र बनानेके लिये वैसे दर्शनीय पत्रोंको अन्यत्र भेज भी रखे हैं; पर वर्तमान युद्धकी भीषण परिस्थितिके कारण, इन सब वस्तुओंको योग्य रूपमें प्राप्त करना बहुत कठिन है और इसलिये अभी हम यहां पर, इस विषयमें इतना ही खल्प वर्णन दे कर, सन्तुष्ट रहना चाहते हैं । कागजके पुस्तकोंका लेखन प्रचार। ६.२१. ताडके पत्रों परं पुस्तकें लिखनेकी अपेक्षा कागजके पन्नों पर पुस्तकें लिखनी सुलभ मालूम दी और फिर कागजका इस देशमें सब जगह बनना शुरु हो कर, उसका सर्वत्र मिलना भी सुलभ हो गया; तब फिर जैनाचार्योंने ताडपत्रके बदले कागजका व्यवहार करना शुरु किया । विक्रम संवत् १३५० के बाद धीरे धीरे कागजका व्यवहार बढ़ने लगा और ताडपत्रका व्यवहार घटने लगा। पन्दरहवीं शताब्दीके मध्य भागमें इसमें बड़ी उत्क्रान्ति हुई । इस समय हजारों पुस्तक कागज पर लिखे गये । पुराने ग्रन्थ जो ताडपत्र पर लिखे हुए थे उन सबकी प्रायः इस कालमें कागज Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ प्रास्ताविक विचार पर प्रतिलिपियां हुई और पाटण, खंभा यत, मांडव, जेसलमेर आदि जैनधर्मके विभिन्नदेशीय तत्तत् प्रधान केन्द्रस्थानोंमें कागजके पुस्तकोंके बड़े बडे ज्ञानभण्डार स्थापित किये गये। वि. सं. १५०० के आसपास तो प्रायः ताडपत्र पर लिखना बन्धसा ही हो गया। इसके बादमें लिखी हुई शायद ५-१० भी ताडपत्रीय पुस्तकें गुजरात आदि देशोंमें लिखी नहीं मिलेंगी। . इस तरह ताडपत्रकी नई पुस्तकें लिखनी बन्ध हो गई और जो पुरानी लिखी हुई थीं वे धीरे धीरे अनेक तरहसे नष्ट होने लगी, इससे उनकी संख्या दिन प्रतिदिन घटने लगीं। उस पुराने जमानेमें, १३ वी १४ वीं शताब्दीमें, जिन पुस्तकोंकी संख्या देशमें लाखोंकी तादादमें थी वे आज इने - गिने सौ ही की तादादमें बच रही हैं । इनमेंसे जितनी पुस्तकें हम देख पाये और जितनीकी प्रशस्तियां और पुष्पिकायें हम प्राप्त कर सके उन सबका, प्रस्तुत भागमें एकत्र संग्रह किया गया है। ताडपत्रीय पुस्तकोंके प्रधान केन्द्र। २२. ताडपत्रके ये पुस्तक मुख्य करके पाटण, खंभा यत और जेसलमेर के ज्ञानभण्डारमें संरक्षित मिलते हैं। विधमान ताडपत्रीय सब पुस्तकोंका प्रायः जितना भाग इन तीन स्थानोंमें संरक्षित है । बाकीका १ भाग और और सब स्थानोंमें मिल कर होगा । इनमेंसे एक बहुत बड़ा भाग तो पूना में संगृहीत राजकीय ग्रन्थसंग्रहमें है जो अब भा ण्डार कर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टी ट्यूट के तत्त्वावधानमें सुरक्षित है। बाकी कहीं दो-चार दो-चार ऐसे प्रकीर्ण स्थानोंके ज्ञानभण्डारोंमें अथवा यति -मुनियोंके पास विद्यमान हैं । कुछ पुस्तक युरोपके बडे बडे पुस्तकालयोंमें भी पहुंच गये हैं। - पाटण, खंभा यत और जेसलमेर में इन पुस्तकोंका जो बडा संग्रह हैं उनकी सूचियां प्रायः प्रकाशित हो चुकी हैं। पूना के राजकीय ग्रंथ संग्रहमें जो पुस्तकें हैं उनकी भी सूचि प्रकाशित है। बाकीके परचुटण स्थानोंमें जो दो-दो चार-चार पुस्तक इधर उधर रहे हुए हैं उन सबका ठीक पता लगाना अभी तक संभव नहीं हुआ। . ? .. प्रस्तुत संग्रहमें, उपर्युक्त स्थानोंमें रहे हुए प्रायः सभी पुस्तकोंके प्रशस्ति और पुष्पिकालेख संगृहीत हैं। इनमें से पाटण के भण्डारोंमें रंक्षित पुस्तकोंके तो प्रायः सब लेख हमने अपने हाथोंसे उतारे हैं। खंभा यत के पुस्तकोंके लेख खास करके प्रो. पीटर्सनकी रीपोटौ परसे लिये गये हैं और जेसलमेर के लेख स्वर्गस्थ श्रीयुत चिमन लाल डॉ० दलाल की तैयार की हुई सूचिसे उद्धृत किये हुए हैं। पूना की पुस्तकोंके लेख विशेष करके प्रो० कीलहोर्नकी रीपोर्ट परसे नकल किये गये हैं। पर, जेसलमेर की पुस्तकोंमें जो कुछ बडी - बडी पद्यात्मक प्रशस्तियां हैं वे इस संग्रहमें छपनी बाकी रह गई हैं। इसका कारण यह है कि ख. चि० डा० द लाल ने जब जेसलमेर जा कर उक्क सूचि तैयार की थी, तब उन्होंने वहांके पुस्तकोंमें जितने छोटे पुष्पिका-लेख थे उन सबकी तो नकल कर ली थी; पर विशेष अवकाशके अभावसे उन बडे बडे प्रशस्ति - लेखोंकी नकलें वे नहीं कर पाये थे. और इससे उनकी सूचिमें उन लेखोंका अभाव रहा । अब पिछले शीतकालमें, जब हमारा जेसलमेर जाना हुआ और पूरे पांच महिनों रह कर वहांके भण्डारोंका खूब अच्छी तरह निरीक्षण करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ, तब हमने अन्यान्य प्रकारके विपुल साहित्यके साथ, उन बडी पद्यात्मक प्रशस्तियोंका भी उतारा कर लिया है । परंतु प्रस्तुत संग्रह, इसके पहले ही बहुत समयसे, छप कर संपूर्ण रूपसे तैयार पड़ा था-सिर्फ इस प्रस्तावनाके अभावहीसे इसका प्रकाशन रुका हुआ - था- इसलिये इसमें उन प्रशस्तियोंका समावेश नहीं हो सका। बाकी यथाज्ञात ताडपत्रीय सभी प्रशस्तियां और पुष्पिकालेख इसमें सन्निविष्ट हैं। .... ....... इस संग्रहमें छोटे बडे सब मिल कर १.११ तो प्रशस्ति लेख हैं जिनमें अन्तिम दो लेख गद्यमें हो कर बाकी सब पद्यमय हैं। ४३३ वैसे संक्षिप्त लेख हैं जिनको हमने 'पुष्पिकालेख' से उल्लिखित किया है । इस प्रकार सूब मिलाकर ५४४ लेख इसमें संगृहीत. हुए हैं, जो प्रायः उतनी ही संख्यावाले भिन्न भिन्न पुस्तकों परसे लिये गये हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह प्रथम भाग समयकी दृष्टि से पुस्तकोंका सिंहावलोकन । २३. समयकी दृष्टि से इनका सिंहावलोकन किया जाय तो जिन पुस्तकोंके अन्तमें लेखन-समय दिया हुआ मिला है-उनमें सबसे प्राचीन पंचमी क था की पोथी है जो वि० सं०-११०९ में लिखी गई है। उसके बादकी एक प्रति 'भा ग व ती सूत्र' की है जो सं. ११११ और १११९ के बीचके किसी वर्ष में लिखी गई है। इसका निश्चित वर्ष इसलिये नहीं ज्ञात हो सका कि वर्षके अंकोंका ज्ञापक जो अन्तिम ४ था अंक है वह पुस्तकके अन्तिम पत्रके उस जगहसे टूट जानेके कारण नष्ट हो गया है। ये दोनों पुस्तक जे सलमेर की सूचिमें उल्लिखित हैं। इन दोनों पुस्तकों पर संक्षिप्त ऐसे 'पुष्पिकालेख ही लिखे हुए हैं। प्रशस्ति जैसा कोई बड़ा लेख नहीं है। . ... ...... 'प्रशस्तिलेख' वाला जो सबसे प्राचीन पुस्तक उपलब्ध हुआ है वह सं० ११३८ में लिखा हुआ 'आवश्य क विशेष भाष्य वृत्ति' का है। यह अब पूनाके उक्त राजकीय संग्रहमें सुरक्षित है; पर असल में यह पाटणके भण्डारहीकी पोथी थी । प्रस्तुत संग्रहमें क्रमांक १ वाली जो सबसे पहली प्रशस्ति है वह इसी पुस्तककी है । इसके अन्तिम पत्रके इधर उधर ट्ट जानेसे प्रशस्तिका संपूर्ण पाठ उपलब्ध नहीं है, तो भी मुख्य वर्ण्य विषय वाली पंक्तियां ठीक सुरक्षित हैं । इस वर्णनसे ज्ञात होता है कि यह पुस्तक अन्यान्य पुस्तकोंकी तरह किसी एक व्यक्तिकी नहीं लिखाई हुई है, पर ५-७ व्यक्तियोंने मिल कर संयुक्तभावसे इसे लिखवाई है। जि ने श्वर सूरि के सुशिष्य जिन वल भ सूरि के उपदेशसे विजट, फे रुक, साहस, संधि क, अंदुक, जिन देव और ज स देव नामक गृहस्थोंने इसका लेखन करवाया है। ये गृहस्थ, जैसा कि प्रशस्तिगत उल्लेखसे मालूम होता है, क्षात्रवंशी य हैं और शायद बिल्कुल नये ही जैन धर्ममें दीक्षित हुए हैं। इनका अभी तक श्री मा ल, प्रा ग्वाट या धर्कट जैसे किसी वैश्य वंशके अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है । इस प्रकार प्रशस्तियुक्त पुस्तकोंमें यह पोथी सबसे प्राचीन है। ---ताडपत्रीय पुस्तकोंमें जो सबसे पीछे लिखी गई प्रति है वह संक्षिप्तपुष्पिकालेखान्तर्गत क्रमांक ४१६ वाली विशेषावश्यकवृत्तिकी पोथी है जो शायद सं० १५०८ में लिखी गई है। २४. इस प्रकार सं० ११०९ से ले कर १५०८ तकके पूरे ४०० वर्षों के बीचमें लिखे गये ताडपत्रीय पुस्तकोंके छोटे बडे सर्ब मिला कर ५४४ लेख इस संग्रहमें संकलित हुए हैं। इन लेखोंमें सेंकडों ही श्रावक-श्राविकाओंके नाम निर्दिष्ट हैं । अनेकानेक जैनाचार्य, ग्रन्थकार विद्वान्, साधु एवं साध्वियोंके नाम उल्लिखित हैं। अनेक गण, गच्छ, जाति एवं कुलोंके नाम उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त अनेक स्थान (ग्राम, नगर, दुर्ग आदि) और तत्कालीन नृपति तथा अन्यान्य राज्याधिकारियोंके नाम प्राप्त हैं। भिन्नभिन्न परिशिष्टोंका परिचय । ६२५. इन सब भिन्न भिन्न प्रकारके विशेषनामोंकी अकारादि अनुक्रमसे सूचियां बना कर हमने उन्हें पुस्तकके अन्तमें १० परिशिष्टोंके रूपमें दे दी हैं। इनमेंसे १ ले परिशिष्टमें, उन सब प्रन्थोंके नाम दिये गये हैं जो इन प्रशस्ति और पुष्पिकारूप लेखोंमें अन्तरुल्लिखित हैं। इन नामोंके सम्मुख, तीन स्तंभोंमें तीन प्रकारके अंक दिये गये हैं जिनमें पहले स्तंभमें जो अंक हैं वे संवत्के सूचक हैं । इन अंकोंके देखनेसे यह तत्काल नजरमें आ जायगा कि कौन पुस्तक कौन संवत्की लिखी हुई है । दूसरा स्तंभ लेखोंका क्रमांक-सूचक है । इसमें जिन क्रमांकोंके साथ '' ऐसा चिन्ह लगा हुआ है वे क्रमांक संक्षिप्त पुष्पिकालेखोंके हैं - बाकीके प्रशस्तिरूप लेखोंके समझने चाहिए । तीसरें स्तंभमें पत्रांक दिये गये हैं। २ रे परिशिष्टमें, लिखित पुस्तकोंके अन्तमें जिन जिन ग्रन्थकारोंके नाम उपलब्ध होते हैं उनके नाम दिये गये हैं। ३रे परिशिष्टमें, उन पुस्तकोंके लिखनेवाले. अर्थात् प्रतिलिपि - नकल करनेवाले लिपिकारोंके. (लहियोंके) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार मामोंकी सूचि दी गई है। इन लिपिकारों के नामोंमें कई प्रकारकी व्यक्तियोंके नाम अन्तर्निहित हैं। इनमें कई प्रसिद्ध प्राचार्य और विद्वान् मुनियोंके नाम हैं, कई बड़े प्रसिद्ध और धनिक ऐसे श्रावकोंके नाम हैं। और कई ठक्कर, मंत्री आदि जैसे राज्य-पदाधिकारियोंके भी नाम इसमें सम्मिलित है। बाकीके बहुतसे ब्राह्मण और कायस्थ, जिनका मुख्य जीवनव्यवसाय पुस्तकें लिखनेका ही था, उनके माम हैं। इनमेंसे कई लेखकोंके नामोंके साथ, उनके अच्छे और सुन्दर अक्षरोंके होनेका तथा उनकी उत्तम प्रकारकी लिपिकलाका निर्देश किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि सुन्दर अक्षरोंमें अच्छी तरह पुस्तक लिखनेका काम उस जमानेमें एक मानप्रद और लाधनीय कार्य समझा जाता था। इन लिपिकारोंमेंसे जो जैन आचार्य, मुनि, यति और श्रावक जन हैं, उन्होंने तो ये पुस्तक या तो अपने निजके पठनार्थ लिखे हैं या अपने स्नेहभाजन किसी दूसरे व्यक्तिके पठनार्थ लिखे हैं । किस लेखकने किस निमित्त वह पुस्तक लिखा, इसका भी उल्लेख कहीं कहीं स्पष्ट रूपसे कर दिया गया है । उदाहरणके लिये-पुष्पिका-लेखांक ६२८ वाला जो ललित विस्त रावृत्ति का पुस्तक है, वह सं. १९८५ में लिखा गया है । उसका लेखक पारि० लूण देव है जो कोई शक्तिसंपन्न श्रावक मालूम देता है । उसने उक्त पुस्तक केवल 'खपरोपकाराय' अर्थात् ख और परके उपकारकी दृष्टिसे लिखा है । इसी पुष्पिका-लेखांकके बाद, ऋ०६२९ वाला जो लेखांक है उसमें उल्लिखित है कि 'सं. १९८६ में, चित्रकूट (इतिहास प्रसिद्ध चित्तोड) में रह कर माणिभद्र नामक यतिने, वरना ग आदि यतिजनोंके और अपने हितके लिये 'जिन दत्ताख्यान' नामक इस पुस्तकका लेखन समाप्त किया । पुष्पिका-लेखांक ६५९ वाला 'पंचा शक' का एक पुस्तक है जो जेसलमेर के भण्डारमें हैं। इसके पुष्पिका-लेखसे विदित होता है कि- 'बि. सं. १२०७ में अजयमेरु दुर्ग (अजमेर का किला) टूटा, उस समय यह पुस्तक भी त्रुटित हो गया-अर्थात् इधर उधरकी भग-दौडमें पुस्तकके कई पत्र बीच-बीचमेंसे खोये गये । फिर यह त्रुदित पुस्तक श्री जि न वल्लभ सूरि के शिष्य स्थिर चन्द्र गणि के हाथमें आया, तो उन्होंने उसका जितना भी भाग खण्डित हो गया था, उसे स्वयं अपने हाथसे, अपने निजके कर्मक्षयके निमित्त, लिख कर पूरा किया और इस तरह स खण्डित पुस्तकको पुनः अखण्ड बनाया। पिछले शीतकालमें हमने इस पुस्तकके प्रत्यक्ष दर्शन किये और इसके जितने पसे स्थिरचन्द्र गणिने अपने हाथोंसे लिख कर अन्दर रखे थे उनको मी ध्यानपूर्वक देखा और उनमेंसे कुछका फोट भी लिया । पुस्तकोद्धारकर्ताक इस छोटेसे पुचिका-लेखमें बडे महत्त्वका इतिहास मिला । सं. १२०७ में अजमेर के दुर्गका भंग किसके द्वारा हुआ यह तो इसमें नहीं बताया गया, पर हमें अन्य साधनोंसे ज्ञात है कि यह दुर्गभंग चौ ल क्य नृपति कुमार पाल के प्रचण्ड आक्रमणके कारण हुआ था और इसी आक्रमणमें, गुजरात के चौकों ने चाहमा नों पर विजय प्राप्त कर उनको अपना सामन्त बनाया था । इस इतिहासकी विशेष चर्चाका यहां कोई प्रसंग नहीं। यह तो केवल इसलिये सूचितमात्र किया गया कि इन लेखकोंके पुष्पिका-लेखोंमें कैसी कैसी बातोंका हमें निर्देश मिलता है । इन लिपिकारोंके नामोंमें कई तो बहुत बड़े प्रसिद्ध और विशिष्ट व्यक्तित्व संपन्न पुरुषोंके नाम दृष्टिगोचर होते हैं । लेखांक ६४०४ सिद्ध है म - अष्ट माध्या य पुस्तकका है। इसमें लिखा है कि- 'सं. १२२५ में महं० चंड प्रसाद ने अपने पुत्र य शोधवल के पठनार्थ यह लिखा' । यह महं० पण्डप्रसाद, हमारे विचारसे, महामात्य वस्तु पाल का प्रपिता है । लेखांक १५९ वाला जो 'धर्मा म्युदय का व्य है वह स्वयं महामात्य वस्तु पाल का निजका लिखा हुआ पुस्तक है-ऐसा विद्वर्य मुनिश्री पुण्य विजय जी का तर्क है। इस तरह अच्छे लिपिकारके रूपमें भी ऐसे अनेक विशिष्ट विद्वानोंके नामोंका पता, हमें इन पुष्पिका-लेखोंमें मिलता है, जो हमारे सांस्कृतिक इतिहासकी पूर्तिकी दृष्टि से बड़ा महत्त्वका है। ४ थे परिशिष्टमें, इन पुष्पिका-लेखोंमें महाराजाधिराज, महाराज, महाराजकुमार, महामात्य, मंत्री, प्रधान, दंडनायक आदि जिन जिन मचाधीशों एवं राज्याधिकारियों आदिके नाम लिखे हुए मिले हैं, उनकी सूचि दी गई है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंप्रह-प्रथम भाग ' इस सूचिका ठीक ध्यानपूर्वक अवलोकन करनेसे ज्ञात होगा कि- इसमें तत्कालीन कई बडे राजवंशोंके प्रधान नृपतियोंके नाम दिखाई देंगे। गुजरात के अण हि ल पुरके चौ लुक्य नृपति प्रथम कर्णदेव से लेकर अन्तिम कर्ण देव के पिता सा रंग दे व तकके, प्रायः २२५ वर्षके गूर्जर साम्राज्यके उत्थान और पतनके साक्षी ऐसे, समी राजाओंके राजत्वकालके निर्देशक उल्लेख इन लेखोंमें प्राप्त होते हैं । १ कर्णदेव, २ सिद्धराज जयसिंह, ३ परमाईत कुमारपाल, ४ भीमदेव, ५ वीसलदेव, ६ अर्जुनदेव, और ७ सारंगदेव इस प्रकार ७ तो अण हि ल पुर के महाराजाधिराजोंके नाम इस सूचिमें मिलते हैं । तदुपरान्त लवणप्रसाद, वीरधवल, वीरमदेव और सोभनदेव जैसे अण हि ल पुरके खवंशीय महासामन्त समान प्रख्यात राणकोंके नाम इसमें उपलब्ध हैं। गुजरात के इस युगके भाग्यविधायक महामात्योंमेंसे कर्ण देव का महामात्य मुंजाल, सिद्धराज ज य सिंह के महामात्योंमें आशुक, सान्तुक, गांगिल कुमार पाल के महामात्योंमें महादेव, यशोधवल, कुमरसीह, वाधूय; भीम देव का महामात्य तात, वीरधवल का महामात्य वस्तुपाल, वीसल देव का महामात्य नागड, अर्जुन देव का महामात्य मालदेव, और सारंगदेवक महामात्य कान्ह और मधुसूदन जैसों के नाम इसमें दृष्टिगोचर होते हैं। ___ इनके सिवाय, इन राजाओंके अधिकारनियुक्त ऐसे अनेक मंत्री, सामन्त, दण्डनायक आदि व्यक्तियों के नाम भी इस परिशिष्टमें उपलब्ध हैं जो तत्कालीन जातीय इतिहासमें अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उदाहरणके लिये, क्रमांक ६६९ वाला पृथ्वी चन्द्र चरित्र का सं० १२१२ का पुष्पिका-लेख देखिये । इसमें म ही और दमन नदीके मध्यमें रहे हुए समग्र लाट देश का सर्वाधिकार भोगनेवाला महाप्रचण्ड दण्डनायक बोसरिका नामोल्लेख है । यह वही वो सरि ब्राह्मण है जो कुमार पाल के संकटकालके जीवनका एकमात्र सखा और साथी था । कुमार पाल के विपद्ग्रस्त जीवनमें वह उसके शरीरकी छायाकी तरह साथ साथ, वन-वन और गांव-गांवमें मटका था । 'कुमारपाल प्रबन्धों में इसका उल्लेख किया गया है; और वहां यह भी लिखा है कि, राज्यप्राप्तिके बाद तुरन्त ही कुमार पाल ने अपने इस उपकारी मित्रको लाट जैसे बहुत बडे समृद्ध देशका महादण्डनायक बनाया था । कुमार पाल के जीवनसंगी इस महासुभटका नामोल्लेख प्रस्तुत पुष्पिकालेखके सिवाय अन्य कोई ऐसी समकालीन कृतिमें उपलब्ध नहीं हुआ। गुजरात बहारके अन्य राजवंशोंमेंसे, मा ल वे के परमार, मेवाडके गुहिलोत, शाकंभरीके चाहमान और कान्यकुब्ज के गढवाल आदि राजवंशोंके कुछ राजाओंके नाम मी इस सूचिमें सम्मिलित है। ५ वें परिशिष्टमें, साधु-मुनियोंके कुल, गण और गच्छ आदिके जो नाम मिलते हैं उनकी सूचि दी हैं। ६ ठे परिशिष्टमें, पुस्तकोंमें उल्लिखित सब यति, मुनि, पंडित, गणि, उपाध्याय, सूरि, साध्वी, आर्यिका महत्तरा, प्रवर्तिनी आदि त्यागीवर्गके नामोंकी सूचि दी गई है। ७ वें परिशिष्टमें, पुस्तकोंमें निर्दिष्ट देश, नगर, ग्राम आदि स्थानवाचक नामोंकी सूचि है। इस सूचिके अवलोकनसे यह ज्ञात होगा कि-गुजरात, सौराष्ट्र, माल वा, मेवाड, मारवाड, कर्णाट, दिल्ली और तिरहुत आदि कितने ही भिन्न भिन्न देशोंमें लिखे गये पुस्तकोंके ये पुष्पिकालेख हैं। अल्बत् , सबसे अधिक संख्या गुजरात में लिखे गये पुस्तकोंकी हैं । गुजरात में भी सबसे पहला स्थान उसकी राजधानी अण हि लपुर पाटनको मिलता है । जिस कालमें ये सब पुस्तक लिखे गये हैं उस कालमें पाटण विद्याका बहुत बडा केन्द्र था और जैनधर्मका तो सारे भारतवर्षमें वह सबसे बडा प्राणवान् स्थान बना हुआ था। पाटण के बाद दूसरा स्थान स्तं म तीर्थ अर्थात् खें भात का आता है। चौ लु क्यों के समयमें खंभा त पश्चिम और उत्तर भारतका सबसे बडा सामुद्रिक बन्दरगाह था। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विचार १९ पुष्पिकालेखोंमें, क्रमांक ६२ वाला, जो सं. १११० से १९ बीचका किसी वर्षका लेख है, उसमें सूचित किया गया है कि - 'स्तंभ तीर्थ, उस समयके प्रसिद्ध ऐसे ३६ बन्दरोंमें सबसे प्रधान बन्दर माना जाता था' । वह समय गुजरात के पराक्रमी सम्राट् भीम देव के राज्यका था । खंभात उस समय बहुत आबाद और समृद्धिशाली नगर था । अभयदेवसूरि, निचन्द्रसूरि, देवचन्द्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि आदि जैसे जैन वाङ्मयाकाशके महानक्षत्र उस समय वहां प्रकाशित हुए थे । इसलिये वहां पर इस पुस्तकलेखन रूप प्रवृत्तिका खूब प्रचार रहना खाभाविक ही है । इस समयको बीते आज प्रायः ९०० वर्ष होने आये हैं । पाटण और खंभातमें, इस तरह ९०० वर्ष पहले लिखे गये ये पुस्तक, आज भी अपने स्थानमें, उसी तरह सुरक्षित है यह हमारे इतिहासकी एक रोमांचक अनुभूति है । भारत वर्ष में, ऐसा और कोई स्थान नहीं है जो इस प्रकारके गौरवकी अनुभूति कर सके कि उसके सन्थागारमें, उसकी हजार हजार नौ सौ नौ सौ वर्षकी पुरानी वस्तु, उसी रूपमें आज भी उसके पास विद्यमान है । - .८ वें परिशिष्टों, गृहस्थोंके कुल, वंश, गोत्र, जाति और शाखाविशेषोंके नामोंकी अनुक्रमणी है । - इस सूचिके देखनेसे ज्ञात होता है कि इसमें श्रीमाल, प्राग्वाट, उपकेश, धर्कट, पल्लीवाल, मोढ, गूर्जर, नागर, दीशावाला, हुंबड आदि उन अनेक वैश्य वंशोंके नाम दृष्टिगोचर होते हैं जो उस समय जैन धर्मका पालन करते थे । इन वंशोंका प्राचीन इतिहास संकलित करनेमें, इस प्रकारके ये पुष्पिकालेख बडे प्रमाणभूत साधन हैं। ओसवाल, श्रीमाल, प्राग्वाट आदि जातियोंकी उत्पत्तिके विषयमें, जो अर्द्ध सत्य मिश्रित दन्तकथायें प्रचलित हैं उन पर, इन लेखोंकी सूक्ष्म छानवीन करनेसे, बहुत कुछ नवीन प्रकाश पड सकता है और कई मिथ्याभ्रम दूर हो सकते हैं। इन लेखोंके अध्ययनसे यह भी ज्ञात होता है कि उस पुरातन समयमें कितनी जातियोंमें जैन धर्मका प्रचार था और आज उसमें कितनी हानि - वृद्धि हुई है। उदाहरणके स्वरूप, हम एक ओसवाल जातिका विचार करें, तो इन लेखों के मननसे हमें प्रतीत होता है, कि यह जाति जो वर्तमानमें जैन धर्मकी उपासक जातियोंमें सबसे प्रधान स्थान रखती है, उस पुराने समय में उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी । ओसवंश अर्थात् उपकेशवंश, पुरातन धर्कट शासक एक विशिष्ट महावंशकी शाखाविशेष है, जो पीछेसे खयं एक महावंशके रूपमें परिणत हो गया और मूल घर्कट में नामशेष हो गया । इस विषय अधिक वर्णन करनेकी यहाँ जगह नहीं है । इतना सूचन इसलिये किया गया है कि अभ्यासी जन इन लेखोंके अध्ययनसे अपने पुरातन इतिहासकी किन किन ज्ञातअज्ञात बातोंका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । ९ में परिशिष्ट में, सब श्रावक और श्राविकाओंकी एकत्र सुदीर्घ नामावलि है । १० वें परिशिष्ट में, कुछ वैसे प्रकीर्ण नाम संगृहीत हैं जिनका समावेश उपर्युक्त किसी विभाग - विशेषमें नहीं हो सकता था । जैन एवं जैनेतर दोनों प्रकारका वाङ्मयसंग्रह | § २६. यद्यपि मुख्य करके, इन पुस्तकोंकी बडी संख्या जैन वाङ्मयके साथ संबन्ध रखने वाली है; तथापि इनमें जैनेतर ग्रन्थ भी कुछ कम नहीं हैं। इनमें कोई कोई जैनेतर ग्रन्थ तो - बौद्ध अथवा ब्राह्मण मतके - ऐसे भी हैं जिनकी प्रतिलिपि और किसी जगह नहीं मिली । महाकवि राजशेखर की काव्य मीमांसा, भोज की शृंगार मंजरी, बिल्हण का विक्रमांकदेव चरित, भूषणभट्ट की लीलावती ( प्राकृत) कथा, जयराशिका त खोपलव इत्यादि ब्राह्मणधर्मीय विद्वानोंके बनाये हुए जो ग्रन्थ इन पुस्तकोंमें मिले हैं, वे अभी तक और किसी जगह नहीं मिले हैं। इसी तरहके बौद्ध मतके भी, जैसे कि धर्म कीर्ति का न्या य बिन्दु, हे तु बिन्दु, और कमलशील का तख संग्रह आदि कई ऐसे अपूर्व, महान् और प्रधान ग्रन्थ इनमें उपलब्ध हुए हैं जिनका अस्तित्व और किसी जगह नहीं है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-प्रथम भाग चित्रकलाकी दृष्टिसे ताडपत्रीय पुस्तकोंका आकर्षण । ६२७. पुरातन इतिहासके उपादानकी दृष्टिसे इन ताडपत्रीय पुस्तकोंका क्या महत्त्व है यह तो संक्षेपमें हमने ऊपर बताया ही है । इसके सिवा एक और, सांस्कृतिक उपादानकी, दृष्टिसे मी कुछ ताडपत्रीय पुस्तकोंका अधिक आकर्षण है। वह है चित्रकलाकी दृष्टि । ताडपत्रीय पुस्तकोंमसे हुए उपलब्ध होते हैं । यद्यपि इन चित्रोंमें विशेष करके तो जैन उपास्यदेव तीर्थंकरोंके प्रतिबिम्ब होते हैं। पर सायमें कुछ और और दृश्योंके मी चित्र कहीं कहीं मिल आते हैं । ऐसे दृश्योंमें, प्रधामंतया जैनाचार्योंकी धर्मोपदेशकके खरूपको अवस्थाका आलेखन किया हुआ मिलता है। इस आलेखनमें आचार्य सभापीठ पर बैठे हुए धर्मोपदेश करते बतलाये जाते हैं और उनके सम्मुख श्रावक और श्राविकागण भावभक्ति पूर्वक उपदेश श्रवण करते दिखाये जाते हैं। कहीं कुछ ऐसे ही और भी अन्याय प्रसंगोचित दृश्य अंकित किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं । गुफाओंके भित्तिचित्रोंके अतिरिक्त, ऐसे छोटे परंतु विविध रंगोंसे सजित, इतने पुराने चित्र हमारे देशमें और कोई नहीं मिलते । इसलिये चित्रकलाके इतिहास और अध्ययनकी दृष्टिसे ताडपत्रके ये सचित्र पुस्तक बडे मूल्यवान् और आकर्षणीय वस्तु हैं । ताडपत्रके ये चित्र कैसे होते हैं इसका कुछ दिग्दर्शन करानेके हेतु, हमने इस पुस्तकके प्रारंभमें कुछ फोटो-ब्लाक दिये हैं। पाठक इनको देख कर इन चित्रोंके आकार-प्रकारका प्रत्यक्ष ज्ञान कर सकेंगे। उपसंहार। २८. इस तरह जैन भण्डारोंमें संरक्षित यह ताडपत्रीय पुस्तकोंका प्राचीन और अमूल्य संग्रह मारतवर्षका एक बहुमूल्य निधि है । इनके सिवाय, भारत में अन्यत्र कहीं भी- एक नेपाल को छोड कर-ऐसा प्राचीन पुस्तकसंग्रह विधमान नहीं है । हमारी यह साहित्यिक संपत्ति ऐसी अमूल्य है कि इसकी तुलनामें लाखों-करोडोंकी संपत्ति भी तुच्छ मालूम देती है। सोना - चांदी और हीरा - माणिक आदि जैसी जड संपत्ति तो हमें पग पग पर दिखाई देती है और उसे तो हम अपने उद्योग और पुरुषार्थ द्वारा अपरिमित रूपमें, चाहें जब प्राप्त कर सकते हैं। पर इस प्राचीन पुस्तकखरूप अपूर्व संपत्तिको, जो हमारे पूर्वजोंने, हमारे कल्याणके लिये संचित की हैं, और जो कालके नाशकृत् प्रवाहमें बहुत कुछ नष्ट होती हुई, दर्शनीयमात्र रूपमें, अब हमारे पास विद्यमान है । इसके नष्ट होने पर, फिर इसकी प्राप्ति तो किसी तरह हमें साध्य नहीं हो सकती । अतः हमारा कर्तव्य है कि जिस तरह हो सके हमें इस संपत्तिका ययाशक्य संरक्षण करना चाहिए और इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । समाजको ऐसी ज्ञानप्राप्ति करानेके निमित्त ही यह प्रस्तुत प्रयत किया जा रहा है । इसका लाभ सब कोई प्राप्त करें यही मात्र हमारी हार्दिक आकांक्षा है- तथास्तु । विजयादशमी । वि.सं. १९९९ (गौर्जरीय) । जिन विजय मुनि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [3] आवश्यक - विशेषभाष्य [ कोट्याचार्यकृतवृत्तियुत ] पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल- ११३८ विक्रमाब्द ] [अन्तभाग–] समाप्तमिदं विशेषावश्यकम् ॥ ५ ॥ कृतिर्जिन भद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानाम् ॥ ६ ॥ भाष्यं सामायिकस्य स्फुटविकटपदार्थोपगूढं यदेतच्छ्रीमत्पूज्यैरकारि क्षतकलुषधियां भूरिसंस्कारकारि । तस्य व्याख्यानमात्रं किमपि विदधता यन्मया पुण्यमाप्तं प्रेत्याहं द्राग्लभेयं परमपरिमितां प्रीतिमत्रैव तेन ॥ लिखितं पुस्तकं चेदं नेमिकुमारसंज्ञिना । प्राग्वाट कुलजातेन शुद्धाक्षरविलेखिना ॥ सं० ११३८ पौषवदि ७ ॥ कोट्याचार्यकृता टीका समाप्तेति । ग्रंथाग्रमस्यां त्रयोदश सहस्राणि सप्तशताधिकानि ॥ १३७०० ॥ ॥ पुस्तकं वेदं विश्रुतश्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यस्य जिनवल्लभगणेरिति ॥ [ पुस्तकलेखयितृप्रशस्तिः । ] इतश्च "जंतुनिवहस्य कृतप्रमोद गङ्गावतार" *** D " यस्याधुनाऽपि स मुनिप्रभुराम्रदेवः ॥ २ ॥ .... .... .... .... .... .... ..सदा स देवसूरि (?) [ ॥ ३ ॥ ] विस्फूर्जितं यस्य गुणैरुदात्तैः शाखायितं शिष्यपरम्पराभिः । पुष्पायितं सद्यशसा स सूरिर्जिनेश्वरोऽभूद् भुवि कल्पवृक्षः ॥ ४ ॥ *******...... “[ ॥ १॥ ] शाखाप्ररोह इव तस्य विवृद्धशुद्धबुद्धिच्छदप्रचयवंचितजात्यतापः । शिष्योऽस्ति शास्त्रकृतधीर्जिनवल्लभाख्यः सख्येन यस्य विगुणोऽपि जनो गुणी स्यात् ॥ ५ ॥ दृढ [रोहो] विततावकाशः स्वविस्तृतिव्याप्तदिगन्तरालः । क्षात्रः पवित्रः प्रथितोऽत्र धात्र्यां वंशोऽस्ति तुंगः स्फुटभूरिपर्व्व ॥ ६ ॥ तत्राभूतां भूतलावाप्तकीर्ती श्रद्धावन्तौ धार्मिकौ धर्मशुद्धौ । लोकाचाराऽबाधयाऽऽरब्धवृत्ती धीमानेको चिज्जट : फेरुकोऽन्यः ॥ ७ ॥ *************** 5 10 15 20 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... 15 need . जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । अन्येऽपि च रामसुताः प्रसिद्धिभाजो बभूवुरुपशमिनः । साहस-संधिक-अंदुकनामानो मान्यजनमान्याः ॥ ८॥ अपरौ च तीव्रतपसौ विशुद्धवृत्तेः प्रसिद्धसत्त्वस्य ।। कुलचन्द्रस्याभवतां पुत्रौ जिनदेव-जसदेवौ ॥९॥ सर्वेऽपूर्वागमिकवचनाकर्णनाख्यानपाठप्रौढोत्साहाः परिहृतमहारम्भमिथ्यात्वकृत्याः । अर्हत्पूजा सुविहितजनोपास्त्यविच्छिन्नवाञ्छा याथातथ्यस्फुटपरिगताशेषजीवादितत्त्वाः ॥ १० ॥ कनकमिव परीक्ष्यानेकधा धर्ममन्यं प्रकटमघटमानं चावगत्य खमत्या । जिनवचसि विशुद्धे युक्तियुक्ते च चेतो विदधुरमलबोधं ये विनश्यद्विरोधम् ॥ ११ ॥ .........."रि विस्तारि पापमलवारि यशःप्रसारि। नेत्रानुकारि भवदारुविदारि हारि ज्ञानप्रदानमपराखिलदानसारम् ॥ १२ ॥ .................... [I] ....... विबुध्य बुद्ध्या सिद्धांतभक्त्या तैरिति पुस्तक [॥ १३ ॥] ................."णि शुभैः साध्ये च सत्संगमे । कस्याप्येव विलोकितस्य सुकृतैः पुंसः शिवप्रापिणो जायेतापरकार्यवर्जनवतो ज्ञानप्रदानोद्यमम् ॥ १४ ॥ एकवस्तुवि...................... ............................ [॥ १५॥] तैः पाणिपंकजतले भ्रमरीव लक्ष्मीरारोपिता त्रिभुवनं गमिता च कीर्तिः।। उन्मूलिताश्च विपदः पदवी च लब्धा मोक्षस्य यैर्जिनमतं प्रविलेख्य [ दत्तम् ] ॥ १६ ॥ .........."पाणि"...."रन पुस्तको नाम.......................""जनैः ॥ १७ ॥ ॥ इति मंगलं श्रीः ॥ 20 . [* पुस्तकमिदमधुना पूनानगरे भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरस्थिते राजकीयग्रन्थसंग्रहे सुरक्षितमस्ति । See, Report on the search for Sanskrit mss. In Bombay presidency during the year 188081; by F. Kilhorn, Ph. D. p. 37.] [२] देशलश्रावकलेखित-सटीक ज्ञाताद्यगचतुष्टयपुस्तकप्रशस्तिः। [लेखनकाल ११८४ विक्रमाब्द] 25 सम्वत् १९८४ माघ सु ११ रवी अघेह श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराजश्रीजयसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये ज्ञाताधर्मकथाद्यवृत्तिलिखितेति ॥ शिवमस्तु० लोकः ॥१॥ ज्ञातावृत्तिः श्रीवर्धमानसूरीयश्रीचक्रेश्वरसूरीणां श्रीपरमाणंदसूरीणां श्रे० देशलपुत्रयशहड-सूलणरामदेवस्य पुस्तकमिदम् ॥ 30 प्राज्यच्छायो जन्मभूमिर्गुणानां दिक्पर्यन्तव्यापिशाखाकलापः । पत्रोपेतः पर्वभिर्वर्धमानः प्राग्वाटानामस्ति विस्तारिवंशः ॥१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | तत्र प्रजज्ञे हृदयालयेषु कृतस्थितिः पुण्यवतो जनस्य । वृत्तोज्ज्वलः कान्तिकलापपात्रं मुक्तामणिः श्रावक सर्वदेवः ॥ २ ॥ अवदाता प्रभैवास्य तमःप्रसरवारिणः । महिमेति भुवि ख्याता बभूव सहचारिणी ॥ ३ ॥ ताभ्यां पुरस्कृतनयस्तनयोऽजनिष्ट निष्ठापरः परमसंयमिनां वरिष्ठः । राजन्यमान्यमहिमा हिमपूरगौरैः ख्यातो गुणैर्जगति संधुलनामधेयः ॥ ४ ॥ जाताऽस्य प्रेयसी मान्या सीमान्या रूपसम्पदः । पूर्णादेवीति सौभाग्यमसौ भाग्यं च बिभ्रती ॥ ५ ॥ जातमपत्यचतुष्टयमाभ्यामभ्यस्तशस्त जिनधर्मम् । भुवनगुरु बिम्बपूजनकृतादरं मन्दिरं नीतेः ॥ ६ ॥ प्रथमो देहडनामा देशलनामा सुतोऽपरस्तत्र । सोहिणि-पुनिणिसंज्ञे पुत्र्यौ पात्रं विनयलक्ष्म्याः ॥ ७ ॥ एषां मध्ये सहृदयहृदयो धार्मिकः श्रावकाणां मुख्यः श्रीमान् मथितकुमतो वर्त्तते देशलाख्यः । यस्याजस्रं श्रवणपुटकैः सद्यशः क्षीरपूरं पायंपायं कथमपि जना नैव तृप्तिं भजन्ति ॥ ८ ॥ किञ्च — गाम्भीर्येण पयोनिधिर्धिषणया वृन्दारकाणां गुरुस्तुङ्गत्वेन सुपर्वपर्वतपतेः सौम्येन शीतत्विषः । सौन्दर्येण मनोभवस्य वित्तत्वेनोत्तराशाम्पतेर्योऽत्यन्तं प्रतिपन्थ्यपि त्रिजगतीमित्रं परं कीर्त्यते ॥ ९ ॥ अन्यच्च - न्यायार्जितेन विभवेन भवान्तहेतोः स्वीयालयोचित ......... "नयेन येन । त्रैलोक्यकैरवविकाशशशाङ्कबिम्बं बिम्बं विधापितमपश्चिमतीर्थ भर्तुः ॥ १० ॥ शीलालङ्कारवती स्थिरदेवी वल्लभाऽभवच्चास्य । रेमे यदीयमनसा मनागपि न तीर्थिकवचस्तु ॥ ११ ॥ अनयोः सञ्जातास्ते तनूरुहा वाहडादयः सदयाः । मारो हतिमारोहति विलोक्य कायश्रियं येषाम् ॥ १२ ॥ अन्यदा देशलः श्रुत्वा तथाविधगुरोर्गिरम् । प्रवृत्तश्चेतसा सार्धं समालोचयितुं चिरम् ॥ १३ ॥ तथाहि —अहो भ्रतश्चेतो गुणगणनिधे किन्तु भणसि क्षणं वार्त्तामेकां शृणु ननु मदीयामवहितम् । 15 भवाम्भोधेर्मध्ये महति पततां हन्त भविनां विना जैनं धर्मं किमपि शरणं नास्ति नियतम् ॥ १४ ॥ ज्ञानादिभेदैः स पुनस्त्रिभेदः प्ररूपितो यद्यपि पूज्यपादैः । लातव्य-हातव्य-विवेकहेतुस्तथापि विज्ञानममीषु मुख्यम् ॥ १५ ॥ मतिज्ञानादिभिर्भेदेस्तच्च प्रावाचि पञ्चधा । खान्यावभासकत्वेन श्रुतज्ञानं परं परम् ॥ १६॥ हे मित्र किञ्चित्तमुत्र भक्तिं विधातुमिच्छामि धनव्ययेन । मनस्ततः प्राह विधेहि शोध्यं धर्मे न यस्मादुचितो विलम्बः ॥ १७ ॥ इदं हि बिभ्यद्धरिणीकटाक्षसहोदरं द्रव्यमुदाहरन्ति । अनेन चेन्निश्चलपुण्यराशिर्वि....... ते चारवणिज्यमेतत् ॥ १८ ॥ इत्थं निजेन मनसा मुनिनायकैश्च चक्रेश्वरेत्यभिधया प्रथितैः पृथिव्याम् । प्रोत्साहितः सपदि देशलनामधेयो ग्रन्थानलीलिखदमूंश्चतुरः सटीकान् ॥ १९ ॥ 5 प्रशस्तिः समाप्ता । ज्ञा० पुस्तकं श्रीयशोदेवसूरीणां श्रीश्रीप्रभसूरीणां श्रे० देशलपुत्र- यशहड-सूलणरामदेव-आल्हण श्रावकाणां ॥ 10 20 30 [ * पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थस्थशान्तिनाथभाण्डागारे सुरक्षितमस्ति । दृ० पीटर्सनरीपोर्ट पुस्तक १, पृ० ३६ । तत्रेयं प्रशस्तिर्नास्ति । ] 25 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [३] श्रे० सिद्धश्रावकलेखित-भगवतीविशेषवृत्तिपुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल-११८७ विक्रमाब्द] 5 10 खभुजविधापितसव्यकारितानेकतीर्थकृद्धिंपाः(बाः) । सद्धर्मनिरतमनसो जाताः पुत्रास्तयोश्धामी ॥ ४ ॥ प्रथमो वोढकसंज्ञो वीरडाख्यो द्वितीयकः । तृतीयो वदुडो नाम चतुर्थों द्रोणकाभिवः ॥ ५॥ तेषां च मध्ये जिनसाधुभक्तः श्रेष्ठी गरिष्ठः किल वीरडाख्यः । एतस्य भार्या धनदेविनाम्नी बद्धादराभूजिनराजधर्मे ॥ ६॥ तयोश्च पुत्रः सरलखभावो जिनेशधर्मस्थिरचित्तवृत्तिः ।। कृपापरो दुःखितजंतुवर्गे सतां मतः पूजितपूजकश्च ॥ ७ ॥ येनाकारि मनोहररूपं श्रीवीरनाथतीर्थकृतः । सत्पित्तलामयमघध्वंसकर श्रीसमवसरणम् ॥ ८ ॥ यो व्यधापयनिंद्यमुत्तमं पापकर्मपटलक्षयक्षमम् । उत्तराध्ययनवृत्तिपुस्तकं ज्ञानभक्तिवशगः स्वमुक्तये ॥९॥ किंबहुना यः खं खं धर्मस्थानेष्वयोजयद् बहुशः । यश्चाजस्रंवंदनकगुणनसद्ध्यानरतचित्तः ॥ १०॥ श्रेष्ठी वरदेवाख्यः समजनि लक्ष्मीरिति प्रिया तस्य । लक्ष्मीः सौरेरिव हृदयहारिणी चारुरूपाढ्या ॥ ११ ॥ तयोश्च पुत्रः समभूत्प्रसिद्धः सिद्धाभिधः पुण्यधनकधामा । आदेयवाग् यो गुणिपक्षवर्ती वीरः कृतासौ रतिकान्तरूपः ॥ १२ ॥ बद्धादरो यो जिनराजधम्में यश्चोपचक्रे जिनमंदिरेषु ।। यो लब्धमव्यों(?)बुधिवत्सुमेधा यो राजलोकेऽतिमतो गुणैः खैः ॥ १३ ॥ दृढप्रतिज्ञः प्रतिपन्नकार्ये दाक्षिण्यपाथोनिधिरस्तदोषः । दानाम्बुवर्षित्वपयोदकल्पः सदा सदाचारपरायणो यः ॥१४॥ 20 भगिनी यस्य चांपूश्रीरासीच्चामृतदेविका । जिनमतिर्यशोराजी पाजूकांबा तथा परा ॥१५॥ यश्च दधिपद्रपत्तनवास्तव्योऽपि प्रकथ्यते लोकैः । पूर्वनिवासापेक्षावशेन मड्डाहडपुरीयः ॥ १६ ॥ द्वे भायें तस्य संजाते पत्याज्ञारतमानसे । राजमत्यभिधानका श्रियादेवी द्वितीयका ॥ १७ ॥ वीरदत्तांवसरणादयः सूनवो वीरिका जसहिणिप्रभृतयः पुत्रिकाः । तस्य जाताः सदाचारिमार्गे रताः सर्वलोकीयचेतःप्रमोदावहाः ॥ १८ ॥ 25 अथान्यदा सिद्धपिता स्वकीयं पर्यन्तमासन्नतरं प्रमत्य । परत्र पाथेयमतो जिघृक्षुः सिद्धाभिधं पुत्रमिदं जगाद ॥१९॥ मच्छ्रेयसे वत्स वरेण्यतीर्थयात्रासु संघे जिनराजधिष्णोः । विशेषतः पुस्तकलेखनेषु वित्तं नियोज्यं भवता यथेच्छम् ॥२०॥ अथासौ खर्गते ताते लक्षं ग्रंथस्य साधिकम् । पुस्तकेषु पवित्रेषु दिशसंख्येष्वलीलिखत् ॥ २१ ॥ तत्थ गंथा सुयग्गडंगवित्ती ससुत्त-निजुत्ती । तहय उवासगदसियाइ-अंगसुत्ताणि वित्तीउ ॥ २२ ॥ तह ओवाइयसुत्तं वित्तीं रायप्पसेणइयसुत्तं । तह कप्पसुत्तभासा चउत्थए पंचमे य पुणो ॥ २३ ॥ कप्पचुण्णी छटे दसवेयालियवित्तिसुत्तनिजुत्ती । उवएसमाल-भवभावणाण दो पुत्थया रम्मा ॥ २४ ॥ तह पंचासगवित्ती सुत्तं लिहियं च नवमयं एयं । पिंडविसुद्धी-वित्ती पढमगपंचासगस्स तहा ॥ २५ ॥ आद्यानि त्रीणि पद्यानि केनचित् पश्चाद्विनाशितानि ।। प्रिोपीटर्सन नामधेयेन पण्डितेन खीय ५ रीपोर्टपुस्तके इत आरभ्य एवेयं प्रशस्तिः समुद्धृता । द्रष्टव्यम्-तत्पुस्तकम्, पृष्ठ० ५८ । 30 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । चुन्नी जसदेवसूरिरइया तह लहुयवीरचरियं च । रयणच्चूडकहा वि य दसमंमि य पोत्थमंमि फुडं ॥ २६ ॥ अन्यच्च सिद्धभार्यापि राजमत्यभिधानिका । कथंचिद्दिवमावाप्तौ तया चोचे निजो वरः ॥ २७ ॥ भगवतीपुस्तके रम्ये कार्ये मत्पुण्यहेतवे । तेन तद्वचनात्पूर्ण कारितं पुस्तकद्वयम् ॥ २८ ॥ एकत्र भगवतीसूत्रं द्वितीये वृत्तिरुज्ज्वला । लेखिता चारुवर्णाढ्या मोक्षमार्गान्तरप्रपा ॥ २९ ॥ संवत्सरे मुँनिर्वसुस्मरवैरिसंख्ये, श्रीमत्पुरेऽणहिलपाटकनामधेये । पृथ्वीं च शासति नृपे जयसिंहदेवे निष्पादितः प्रवरपुस्तकवर्ग एषः ॥ ३० ॥ श्री शालिभद्राभिधसूरि [शिष्य ] श्री वर्धमानप्रभुपादपद्मे । इंदिंदिराकारजुषां ततः श्रीचक्रेश्वराचार्यविशिष्टनाम्नाम् ॥ ३१ ॥ समर्पितः पुस्तकवर्ग एष निरंतरं शोधनवाचनाय । इदं च तन्मध्यगतं सुवर्ण - सत्पुस्तकं राजति वाच्यमानम् ॥ ३२ ॥ यावन्नभोंगणगताः शशिभानुतारा राजंति लोकतिमिरं सततं क्षिपत्यः । यावद् ध्रुवः सुरगिरिश्च चकास्ति तावत् श्रीपुस्तको विजयतामिह पठ्यमानः ॥ ३३ ॥ संवत् १९८७ कार्तिक सुदि २ लिखितं भगवती विशेषवृत्तिपुस्तकं श्रीचक्रेश्वरसूरीणां श्रे० सिद्धश्रावकस्य ॥ [ * पट्टनस्थसंघसत्कभाण्डागारे पुस्तकमिदं सुरक्षितं विद्यते [ ४ ] वाजकभावकलेखित [ देवभद्राचार्यकृत ] - पार्श्वनाथचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल - ११९९ विक्रमाब्द ] जलधिवलयवेलामेखलायामिलायां कलितविपुलशाखः सद्गुणानां निवासः । विततविशदपर्वा संश्रितप्रीतिहेतुर्जितधरणिधरर्द्धिः पत्रशाली विशालः ॥ १ श्रीमान् प्राग्वाटवंशोऽस्ति तत्र मुक्ताफलप्रभः । सद्भूषणं शुचिः श्रेष्ठी बकुलः समजायत ।। २ चंचच्चार्विदुरोचिश्चयहरहसिताकार कीर्तिच्छटाभिः सप्र्पतीभिः समंताद्धवलितवसुधः शुद्धबुद्धेर्निधानम् । दिक्कांताकर्णपूरप्रतिमगुणगणः सज्जनानंददायी संतोषापारवारः करणरिपुबलं हेल्या यो जिगाय ॥ ३ शीलेन सीतेव जनौघरंजिका सौभाग्यसंगेन जिगाय पार्वतीम् । या क्षांतियोगेन निरास काश्यपीं लक्ष्मीति जायास्य बभूव सा शुभा ॥ ४ ॥—इति श्रीप्रसन्नचंद्रसूरिपादसेवक श्रीदेव भद्राचार्य विरचितं श्रीपार्श्वनाथचरितं समाप्तं ॥ संवत् ११९९ अश्विनवदि ६ रवावद्येहाशापल्ल्यां गौडान्वयकायस्थकवि सेल्हणसूनुना पुस्तकं वल्लिगे - 20 नेद्रं लिख्यतेऽथ समाप्यते ॥ ५ ॥ सूनुस्तस्याः समजनि सच्छायो विबुधजनमनोहारी । वेल्लक इति विख्यातो नीरनिधेः पारिजात इव ॥ ५ सुविहित पदां भोजे सेवारतिर्मधुपाधिका सुजनकमलासंगे बुद्धिर्मरालकुलोज्ज्वला । अमृतमधुरा सारा वाणी सतां हृदयंगमा विमलमनसो यस्यावश्यं बभूव मनोहरा ॥ ६ चरणचंचुरसाधुकृतादरो गुणगृहं दमदानदयापरः । गुरुपदांबुरुहप्रणतिः सुधीस्तदनुजोऽजनि वाजकनामकः ॥ ७ 5 10 15 2.5 30 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सद्धर्माभिरतिर्गुणैकवसतिः संतोषपुष्यद्वतिर्ज्ञानाभ्यासरतिर्गृहीतविरतिः सौजन्यवारांपतिः । साधूपास्तिकृतादृतिर्गजगति(रः प्रसन्नाकृतिः कल्याणव्रततिर्निरस्तकुगतिः प्राणिप्रणुन्नक्षतिः ॥ ८ वीरणागाभिधः पुत्रस्तृतीयः सुगुणास्पदम् । जाउकांहा पितुर्जानिर्भगिन्येषां तु वेल्लिका ॥९ या सीतेव कलंकचक्रविकलं शीलं दधाना सती जाता ख्यातिमती सतीति गुणिनां चेतश्चमत्कारिणी । कृत्याकृत्यविवेककारिधिषणा धर्मैकचिंतारतिः सज्जाया शितदेव्यभून्मतियुता सा वेल्लकस्य प्रिया ॥ १० चाहिणी वाजकस्याद्या पत्नी जाता द्वितीयका । शृंगारमतिराज्ञायां जिनेशस्य व्यवस्थिता ॥ ११ वाजकश्चिंतयामास सारसंवेगसंगतः । अन्यदा स्फटिकाकारे मानसे शुद्धधीर्यथा ॥ १२ कल्पांतप्रबलप्रवृत्तपवनव्यावृत्तदीपांकुराकारा प्रीतिरनंगसंगिललनाभ्रूभंगुरा संगमाः । धर्मक्लांतमृगेंद्रवक्त्रकुहरव्यालोलजिह्वाचलं लावल्यं(ण्यं) लवलीदलापविलसद्धिंदूपमं जीवितम् ॥ १३ शरदभ्रसमाः सर्वे पदार्थाः सुखहेतवः । संत्रासोद्भांतसारंगीविलोचनचलं बलम् ॥ १४ माद्यत्कुंजरकर्णतालति रतिः............... वामाडंबरति प्रभुत्वमबलाचेतः शरन्मेति । ..'शक्रशरासनत्यनुकलं संध्याभरागत्यहो तारुण्यं विषया धराधरधुनीवेगंति नृणां यतः ॥ १५ तस्मात्संसारवल्लीवलयवि........................क्षोभरंभामलनमदकलः काललीलाविजेता । मोक्षस्त्रीसंगदूती सुगतिपथरतः संपदाह्वानमंत्रो ध्वस्ताशेषव्यपायो निखिलसुखखनिर्धर्म एवात्र कार्यः ॥ १६ प्रभवति स च धर्मो ज्ञानतस्तच्च शुद्धं जिनवचनसरोजाज्जायते सौरभं वा । तदपि सततमेधाहासभावान्न क.........................................द्विरिच्य॥ १७ ततश्च-कामोरुदावे विषयोरुतृष्णाच्छेदाय वन्यैः प्रति तन्यतेऽसौ । संसारसत्रे भविनां जिनाज्ञाज्ञानामृतांभःसरसी विलेख्य ॥ १८ विशेषतो युक्तं ज्ञानदानं......॥ 20 समस्तधरणीतलप्रथितकीर्तिकल्लोलिनीविनिर्गमकुलाचलो विमलकेवलालोक.....। ............................शकाग्रतो वरां न चरणक्रियां विशदबोधयोगं विना ॥ १९ मोहध्वांतांशुमाली भववनगहनोत्सर्पिदावानलाभो मानामानागशृंगप्रहतिहरिहयोद्दामहेतीयमानः । खस्थानप्राप्तिवाहः क्षितिविततमहाकोपदावांबुवाहो दौर्गत्यभ्रंश.................... 'तुः ।। २० प्रभवति कृतिनोत्र ज्ञानदानाभियोग इति मनसि निवेश्यालेखयामास शुद्धम् । रसिकहृदयचक्षुर्मोदहेतुः सुवर्ण प्रकटितवरभावं पुस्तकं चित्रतुल्यम् ॥ २१ वाजको वेल्लकस्योचैर्निजभ्रातुर्दिवालयम् । गच्छता भणितस्तेन श्रेयसे............ ॥ २२ ................"ल क्रमुकतिलकितो मालतीकुंदपुष्पैः ___ रम्यः कल्लोलमालाकरकमलतलैः शुक्तिमुक्ता विकीर्य । क्रीडन्नास्ते धरायां नृपतिशिशुरिव खःसवंतीप्रवाहो 30 यावत्तावन्मुनींद्रेः कुमतविदलनोऽधीयता................ ॥ २३ . श्रे० वउल् । लक्ष्मी भार्या । जाउका भगिनी । पुत्रा वेल्लक् वाजक् वीरणाग् । आद्यभार्या शिवादेवी द्वितीयभार्या शृंगारमतिः । तत्पुत्रोऽस्त्याशादेवः ।। [ एतत् पश्चादन्याक्षरैर्निम्नगता पंक्तिलिखिता लभ्यते ] प्रान्काटवंशभूषण व्य० अणंता भार्या मटू सुता माऊ । सुतौ च व्य० अभयपालश्रवणस्य गृहीतदीक्षस्य खश्रेयोऽर्थ 25 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । श्रुतज्ञानाराधनाथं च । न्यायार्जितनिजद्रविणव्ययेन । तपागच्छगगनभास्करश्रीभट्टारक-प्रभुश्रीजयानंदसूरीणामुपदेशेन प्राकृतश्रीपार्श्वनाथचरित्रं गृहीतमस्ति ॥ संवत् १४४० वर्षे । मंगलमस्तु सर्वजगतः ॥ [ * पट्टनस्थ-संघवीपाडासत्कभाण्डागारे पुस्तकमिदं सुरक्षितमस्ति । ] ___10 15 राहडश्रावकलेखित [ देवचन्द्रसूरिकृत]-शान्तिनाथचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः। 5 [लेखनकाल-१२२७ विक्रमाब्द] क्षोणीतलप्रसृतमूल उदीर्णशाखो धम्मैकहेतुरुरुपर्वपरंपराढ्यः । श्रीमाननेकगुणभृ........ प्रकुर्वन् प्राग्वाटवंश उदितो विदितोऽस्ति भूमौ ॥१ तदंशलब्धप्रभवः परासीद्विनिर्गतः सत्यपुरासुतीथोत् । श्रेष्ठी विशिष्टः किल सिद्धनागस्तस्याथ भार्याऽभवदंबिनीति ।। २ चत्वारोऽथ तयोः पुत्रा जाताः सर्वत्र विश्रुताः । पोढको वीरडश्चान्यो वर्द्धनो द्रोणकस्तथा ॥ ३. कनकरुचिपित्तलामयबिंब यैः कारितं वरं शान्तेः। यत्पूज्यतेऽधुना दधिपद्रे श्रीशान्तिजिनभवने ॥४ पोढकश्रेष्ठिनस्तत्र..... देवी प्रियाभवत् । त्रयः पुत्रास्तयोर्जाताः सद्गुणाढ्याः पटा इव ॥ ५ . तत्राद्य आम्बुदत्ताख्यो द्वितीयश्वाम्बुवर्द्धनः । तृतीयः सज्जनानंददायिमूर्तिश्च सजनः ॥ ६ येनाकार्यत निर्मलोपलमयीं राकाशशांकप्रभा श्रीमत्पार्श्वसुपार्श्वतीर्थकरयोर्मुर्ति यशोवन्निजम् । । प्रायः पूरयदौघयाचितशतान्याराधकप्राणिनां श्रीमद्वीरजिनेश्वरस्य भवने महाहृताख्ये पुरे ॥ ७ पुत्र्यौ च पोढकस्य द्वे आसिषातां महत्तरे । यश श्रीति गणिन्यऽन्या शिवादेवीति विश्रुता ॥ ८ महलच्छिः सज्जनस्याथ प्रियाऽभूत्पृथिवीसमा । यया..... पद्माभ्यां तोषिता मानणालयः ॥ ९ - विश्वप्रसिद्धाः कमनीयरूपाः समीहिताः सर्वजनस्य कामम् । तयोः सुताः कामगुणा इवोच्चैः पंचाऽभवन् किं तु न साधुनिंद्याः ॥ १० । तत्राद्यो धवलो नाम वीसलो देशलस्तथा । तुर्यों राहडनामा तु पंचमो बाहडो मतः ॥ ११ धवलस्य भल्लणीति प्रियाऽऽसीदथ चैतयोः । वीरचंद्रः सुतो जातो देवचंद्रस्तथापरः ॥ १२ विजयाजयराजाम्बसरणमुखास्तत्र वीरचंद्रसुताः । जाता हि, देवचंद्रस्य देवराजः सुतः प्रवरः ॥१३ पुत्रिकैका सिरी जाता धवलस्य कलखरा । निरपत्यावभूतां च पुत्रौ वीसल-देशलौ ॥ १४ राहडस्य लघुभ्राता बाहडोऽभूज्जनप्रियः । भार्या जिनमतिश्चास्य पुत्रो जसडकस्तयोः ॥ १५ 25 सज्जनस्य तथाऽभूतां द्वे सुते तत्र सांतिका । माता शुकादिपुत्राणां द्वितीया धांधिका पुनः ।। १६ अथ तत्र राहडो यो विशेषतः सोऽभवद्गुणी प्राज्ञः । सुजनप्रियः सुशीलः प्रियधर्मा सर्वदोदारः ॥ १७ अपि च-सद्भद्रशालो भुवि नंदनाढ्यः ससौमनस्यो न...............। माध्यस्थ्यभावं दधदुन्नतात्मा सुवर्णभाग् राजति मेरुवद् यः ॥ १८ तथा-पूजां करोति विधिना स्तवनं जिनानां साधून स्तुते तदुदितं समयं शृणोति । दानं ददाति च करोति तपोऽपि शक्त्या शीलं च पालयति गहिजनोचितं यः ॥ १९ तस्य प्रिया देमति नामधेया............ धर्मार्थिनी पात्रवितीर्णवित्ता नित्यं समाराधितभर्तृचित्ता ॥ २० 20 30 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। या नित्यशः सहजभूषणभूषितांगी लज्जानवद्यवसना शुचिशीलचर्चा । जैनागमश्रवणकुंडलभाक् सुवर्णालंकारभृच्छुभवचःक्रमुका"वक्त्रा ॥ २१ चत्वारस्तनया बभूवुरनयोः संपन्नकोशोच्छ्या......भ्यासपराः क्षमाभरधराः प्राप्तप्रतिष्ठाः कलौ । सत्यागा गुरुविक्रमाः सुयशसः सच्चक्रसाराः प्रजाः पूज्याः सद्विनयाः सुनीतिसदनं संतो नरेंद्रा इव ॥ २२ तत्राद्यश्चाहडो नाम बोहडिस्तु द्वितीयकः । आसडाख्यस्तृतीयस्तु तुर्य आशाधरस्तथा ॥ २३ पापारिप्रहतिसहाः सुबाणयुक्ताः सुवंशसंजाताः । अध्यारूढगुणा ये धनुलता इव विराजन्ते ॥ २४ राहडश्रेष्ठिनस्तत्र जाता वध्व इमा वराः । अश्वदेवी च मुंधी च मादू-तेजुय-राजुकाः ॥ २५ तथा-यशोधर-यशोधीर-यशाकर्णादयोऽभवन् । पौत्राः पौत्र्यश्च घेऊय-जासुकाद्या जयंतुकाः॥२६ एवं कुटुंबयुक्तस्य राहडस्य श्रावकस्य तस्याथ । बोहडिनामा पुत्रः पंचत्वमुपागतः सहसा ॥ २७ अथ तद्वियोगविदुरः स राहडश्रावकः स्म चिंतयति । हा घिग्धिक्संसारखरूपमतिनिंदितं विदुषाम् ॥ २८ तथा हि-जीवितं यौवनं सद्वपुः संपदः सारसीमंतिनीसंगमः सज्जनाः । सर्वमित्यादिकं वस्तुजातं महामेघमध्यस्थविद्युल्लताचंचलम् ॥ २९ __ अतो मनुष्येण विधेय एव चतुःप्रकारोऽपि जिनेंद्रधर्मः । __ उशंति तत्रापि वसु प्रशस्यं सज्ज्ञानदानं मुनिकुंजरेंद्राः ॥ ३० अतोऽहं ज्ञानदानं तत् करोमीति विचिंत्य सः । चरितं लेखयामास शान्तबिंब च कारितम् ॥ ३१ खभुजोपात्तवित्तेन पूर्वं सत्पित्तलामयम् । गृहपूजोचितं स्फारं पुण्योपार्जनहेतवे ॥ ३२ नृपतिगृहमिवोच्चैश्चंचदन्तःसुवर्णं विहितरुचिरचित्रं चारुपत्रेण शोभि । ............."कृतबहुजनमोदं पुस्तकं तच्चकास्ति ॥ ३३ संवच्छरे नगभुजाई (१२२७) मिते नभस्ये मासे पुरेऽणहिलपाटकनामधेये । सुश्रावके कुमरपालनृपे च राज्यं कुर्वत्यलिख्यत सुपुस्तकमेतदंग ॥ ३४ श्रीमत्परमानंदाचार्येभ्यः श्रीयसःप्रभाचार्य.............. शिष्येभ्यः ॥ ३५ यावन्नभःश्री जननीव तोषं पयोधरक्षीरभवं प्रजानाम् । तनोति ताराभरणा सुपुष्पदन्ताऽस्तु तावद् भुवि पुस्तकोऽयम् ॥ ३६ श्रीचक्रेश्वरसूरेः श्रीपरमानंदसूरिभिः शिष्यैः । विहिता प्रशस्तिरेषा पर्यंते पुस्तकस्यास्य ।। ३७ ॥ मंगलं महाश्रीः॥ [ * पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते पुस्तकमिदम् । ] [६] रामदेवश्रावकलेखित [नेमिचन्द्रसूरिविरचित]-महावीरचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३ शताब्दी] | प्राच्या वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मितोऽध्यक्षहेतोः । तत्सन्तानप्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोऽयं प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥ १ तस्मिन्नभूत्सुचरितः शुभवृत्तशाली श्रेष्ठी गुणैकवसतिद्युतिमान्प्रसिद्धः । मुक्तामणिप्रतिकृतेः नियमाततान त्रासादिदोषरहितः सहडू प्रतीतः ॥ २ स्फु " 20 25 80 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। पत्नी सहडूकस्याभूच्छेष्ठा गागीति संज्ञिता । सद्धर्मकर्मनिरता जज्ञिरे तनयास्तयोः ॥ ३ आद्योऽभून् मणिभद्राख्यः शालिभद्रस्तो गुणी । तृतीयः सहलको नाम प्रिये तस्य बभूवतुः ॥ ४ आद्या बाबी गुणाधारा तत्सुतो वेल्लकाभिधः । सच्छीलाम्बरशालिनी पुत्री सेहडिसंज्ञिता ॥ ५ थिरमत्या द्वितीयायास्तनयाः पञ्च जज्ञिरे । आद्यौ धवल-वेलिगौ यशोधवलः कलाभृत् ॥ ६ रामदेवोऽपि निःशेषकलासङ्केतमन्दिरम् । ब्रह्मदेवो यशोदेवः पुत्री वीरीति विश्रुता ॥ ७ महौजा धवलसूनुरासदेवो विवेकवान् । वेलिगस्यापि सत्सूनुरासचन्द्रः कलालयः ॥ ८ इतश्चआसीचन्द्रकुले शशाङ्कविमले सूरिर्गुणानां निधिस्त्रैलोक्येऽभयदेवसूरिसुगुरुस्सिद्धान्तविश्रामभूः । स्थानाङ्गादिनवानवृत्तिकरणप्राप्तप्रसिद्धिर्भृशं येन स्तम्भनके जिनस्य विशदा सम्यक्प्रतिष्ठा कृता ॥९ तत्पट्टे हरिभद्रसूरिरुदभून्निश्शेषशास्त्रार्थवित्तच्छिष्योऽजितसिंहसुरिरुदभून्निस्सङ्गिनामग्रणीः। 10 तच्छिष्योऽजनि हेमसूरिसुगुरुगीतार्थचूडामणिस्तत्पादाम्बुजषट्पदो विजयते श्रीमन्महेन्द्रप्रभुः ॥ १० करिकर्णास्थिरा लक्ष्मीः प्राणास्तु क्षणनश्वराः । इत्थं व्याख्यां ततः श्रुत्वा श्रद्धासंविनमानसः ॥ ११ यानपात्रं भवाम्भोधौ मज्जतां प्राणिनामिह । पततां दुर्गतौ कूपे रज्जुकल्पं हि पुस्तकम् ॥ १२ इत्येवं मनसि ज्ञात्वा रामदेवेन लेखितम् । श्रीमहावीरचरितमात्मनः श्रेयसे मुदा ॥ १३ मनोज्ञपत्रसंयुक्तं सदक्षरविराजितम् । भुवनचन्द्रगणये दत्तं सद्भक्तियोगतः ॥ १४ [ * पुस्तकमिदं पत्तननगरे खेतरवसतिपाडासत्क उपाश्रयस्थभांडागारे विद्यते । ] [७] महामात्यवस्तुपालसुतजैत्रसिंहलेखितपुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३ शताब्दी] प्राग्वाटान्वयमण्डनं समजनि श्रीचंडपो मण्डपः श्रीविश्रामकृते तदीयतनयश्चण्डप्रसादाभिधः। 20 सोमस्तत्प्रभवोऽभवत्कुवलयानन्दाय तस्यात्मभूराशाराज इति श्रुतः श्रुतरहस्तत्त्वावबोधे बुधः ॥ १॥ तज्जन्मा वस्तुपालः सचिवपतिरसौ सन्ततं धर्मकर्मालंकर्मीणैकबुद्धिर्विबुधजन[चम ?]त्कारिचारित्रपात्रम् ।। प्राप्तः सङ्घाधिपत्वं दुरितविजयिनी सूत्रयन् सङ्घयात्रां धर्मस्योज्ज्वल्यमाधात्कलिसमयमयं कालिमानं विलुप्य ॥२॥ यस्याग्रजो मल्लदेव उतथ्य इव वाक्पतेः । उपेन्द्र इव चेन्द्रस्य तेजःपालोऽनुजः पुनः ॥ ३ ॥ चौलुक्यचन्द्रलूणप्रसादतनुजस्य वीरधवलस्य । यो दधे राजधुरामेकधुरीणं विधाय निजमनुजम् ॥ ४ ॥ 25 विभुता-विक्रम-विद्या-विदग्ध-वित्त-वितरण-विवेकैः । यः सप्तभिर्विकारैः कलितोऽपि बभार न विकारम् ॥५॥ अपि चाप्यायिता वापीप्रपाकूपसरोवरैः । पोषिता पोषधागार्जीर्णोद्धारैः समुद्धृता ॥ ६ ॥ श्रिया प्रीतया निर्व्याजं पूजिता सङ्घपूजनैः । प्रशस्तिविस्तरस्तोमैः सरस्वत्यापि संस्तुता ॥७॥ शौर्येणोर्जस्वितां नीता स्फीता नव्योक्तिसूक्तिभिः । प्रीतार्थिसार्थसत्कारैरुपकारैः पुरस्कृता ॥ ८ ॥ वासिता साधुवादेन तोरणैस्तुङ्गतां गता । हैमस्रग्दामकुम्भेन्द्रमण्डपाद्यैश्च मण्डिता ॥ ९॥ 30 नित्यं शत्रुञ्जयाद्रौ नवजिनभुवनोत्तुङ्गशृङ्गाग्रजापद्वातव्याधूतधौतध्वजपटकपटाद्यस्य नर्ति कीर्तिः । तस्येयं गेहलक्ष्मीविभवति ललतादेचिनाम्नी तदीयः पुत्रोऽयं जैत्रसिंहः स्फुरति जनमनःकन्दरामन्दिरेषु ॥ १० ॥ दृष्ट्वा वपुश्च वृत्तं च परस्परविरोधिनी । विवदाते समं यस्मिन्मिथस्तारुण्य-वार्द्धके ॥ ११ ॥ २ जै० पु. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सोऽयं सूहवदेवीकुक्षिभवस्य प्रतापसिंहस्य । तनयस्य श्रेयोऽर्थ व्यधापयत्युस्तिकामेताम् ॥ १२ ॥ पुष्पदन्ताविमौ यावद्दीप्रौ ब्रह्माण्डमण्डपे । एषा सुपुस्तिका तावद्धर्मजागरकारणम् ॥ १३ ॥ [ * एतत्पशस्तियुक्ता पुस्तिका पत्तननगरे वाडीपार्श्वनाथमन्दिरस्थे भाण्डागारे विद्यते । ] [८] सुषमिणीश्राविकालेखित-सटीकहैमानेकार्थसंग्रहपुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १२८२ विक्रमाब्द] सुदृढश्रेयोमूलः पराय॑शाखाप्रपंचरोचिष्णुः । वंशोऽस्ति धर्कटानां फलभृदपि न नश्वरप्रकृतिः ॥ १॥ तत्रासीत् पार्श्वनागाख्यः श्राद्धः श्रद्धालुतानिधिः । तस्यांगजः सतां मुख्यो गोल्लः प्रोल्लासिकीर्तिभाक् ॥२॥ जिनदत्तसूरिसुगुरोराज्ञां चूडामणीमिव प्रवराम् । बिभरांचकार निजमूर्ध्नि दलितदारिद्यमुद्रां यः ॥ ३ ॥ 10 यः प्रातरेव रचयांचकार चिंता सधर्मणां नृणाम् । ग्लानानां निःखानां निजौषधाद्यैर्महाश्राद्धः ॥ ४ ॥ पुरे च यः श्रीमरुकोहनामनि क्षोणीपतेः सिंहबलस्य संमते । कांतं निशांतं नितरामचीकरच्चंद्रप्रभस्योत्तमतुंगशृंगभृत् ॥ ५ ॥ तच्च शुचिरुचिरचरितैर्गुरुणा वादिद्विपेंद्रकेसरिणा । जिनचंद्रसूरिगुरुणा मुदा प्रतिष्ठापयामास ॥ ६ ॥ तस्यासँश्चत्वारः पुत्राः प्रत्यस्तनिखिलमिथ्यात्वाः । सम्यक्त्वाद् यच्चेतो न चलति सुरशिखरिशिखरमिव ।। ७ ।। 15 लक्ष्मीधरो लक्षितधर्मलक्ष्यः समुद्धरः सद्गुरुभक्तिदक्षः ।। नाम्ना मुणागः कृतभक्तिरागस्तथाऽऽसिगो बंधुरशुद्धबुद्धिः ॥ ८॥ तत्रासिगस्य पुत्रास्त्रयोऽभवन् वीरपालनामाद्यः । आशापालः शुभधीस्तार्तीयिको जयति [जय पाल९ तेषामाशापालः साधुः श्राद्धः प्रवर्द्धितश्रद्धः । यः शेषामिव जिनपतिसुगुरोराज्ञां वहति मूर्धा ॥ १० ॥ देवगुरुकृत्यकुशलो गांभीर्यौदार्यधैर्यमुख्यगुणैः । रत्नालंकारैरिव नितरां यो भूषांचक्रे ॥ ११ ॥ 20 कुलचंद्र-वीरदेवाख्य-पद्मदेवैः सुतैर्विहितसेवः । साधूनां साध्वीनां श्राद्धानां श्राविकाणां च ॥ १२ ॥ प्रचकारोपष्टंभं योऽशनवरपानवस्त्रपात्राद्यैः । सुषमिणिनाम्नी भार्या शीलनिधिर्धाजते यस्य ॥ १३ ॥ प्रबुद्धवा सज्ज्ञानप्रवितरणमत्यस्तकलुषं भवक्षारांभोधिप्रपतितजनोत्तारतरणिम् । महामोहव्यूहव्यपनयनदक्षं क्षतभयं समस्तानां श्रीणां प्रभवमवदातोत्तमगुणम् ॥ १४ ॥ खर्गापवर्गसंसर्गकारणं पापवारणम् । कल्याणानां परार्ध्यानां निधानं ध्यानवर्द्धनम् ॥ १५ ॥ 25 अभिधानकोशमेतदनेकार्थं लिलेख भोः । इष्टि-वसु-सूरसंख्ये विक्रमभूपवत्सरे ॥ १६ ॥ सुलेखकोऽत्र लावण्यसिंहनामा प्रसिद्धिभाक् । सदक्षरविनिर्माता ब्राह्मणोऽयं प्रकीर्तितः ॥ १७ ॥ ॥शुभं भवतु लेखकपाठकयोः कल्याणमस्तु ॥ [* एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं पत्तननगरे वाडीपार्श्वनाथसत्कभांडागारे सुरक्षितमस्ति । ] [९] 30 हुंबडवंशीय-ईलकश्रावकलेखित-सवृत्तिकावश्यकसूत्रपुस्तकप्रशस्तिः। [लेखनकाल ११९२ विक्रमाब्द] ॥ इति शिष्यहितायां प्रत्याख्यानविवरणं समाप्तं ॥ व्याख्यायाध्ययनमिदं न्यायाघदवाप्तमिह मया कुशलम् । शुद्धं प्रत्याख्यानं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका कृतिः शिताम्बराचार्य जिन भटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्त शिष्यस्य धर्म्मतो याकिनी महत्तरा सूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ॥ यदिहोत्सूत्रमज्ञानात् व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः । क्षन्तव्यं कस्य संमोहश्छद्मस्थस्य न जायते ॥ यदर्जितं विरचयता सुबोधां पुण्यं मयावश्यकशास्त्रटीकाम् । भवे भवे तेन ममैवमेव भूयाज्जिनोक्ते तु मते प्रयासः ॥ अन्यच्च संत्यज्य समस्तसत्त्वा मात्सर्यदुःखं भवबीजभूतम् । सुखात्मकं मुक्तिपदावहं च सर्वत्र माध्यस्थ्यमवामुवंतु ॥ नमो जगन्मंगलसंचयाय भगवते महावीराय धीमते । नमो मोहमहातिमिरभिदे नमो महावीरवर्द्धमानाय ॥ 36 竑 आन्तर्निःसीमदानोद्यतकृतिविलसत्कीर्त्तिकल्लोलिनीभिः स्वर्गंगायाः प्रवाहैरिव विशदमिदं संगमोत्कंठयेतः । कालिंद्येव प्रयत्योपपरिहरिणया नीलरत्नांशुभिन्नच्छायां भः स्रोतसा यद्वलयिमधिकं तीर्थभूतं विभाति ॥ १ ख्यातं हिरण्यनगरं गुरु तत्र चित्रपत्रोपनिनसुवयः सुतरम्यशाखः । सद्गोत्रजोऽनुपमपर्व्वविराजमानो वंशोऽस्ति हुंबडनृणां शुभवर्णशाली ॥ २ तत्र स्ववित्तसुखतीकृतजंतुजातः कल्याणसंभृततया धनदायमानः । श्रेष्ठ्यंबकः सुहृदभून्न परंहरस्य मित्रं तथापि परमं स महेश्वराणाम् ॥ ३ अदक्षिणाशाsपूर्वाशा न पराशा मनोमुदे । उत्तरेवोत्तमा भार्या तस्य नाढीति विश्रुता ॥ ४ नलकूवर इव पुत्रः प्रेयान्वैश्रमणपितृपरमभक्तः । जज्ञेऽश्वनागनामा तस्या वित्तोपयोगपरः ॥ ५ संपूर्णा च यशोदेवी राकानुमतिसंनिभे । चंद्रस्येवास्य कान्ते द्वे प्रकाशे शुद्धपक्षतः ॥ ६ संपूर्णायाः सहुः ........वांछिततरं दानं वा ......तमं वाक् सुमानाम् । पुत्रो जज्ञे ज्ञानविज्ञानशाली शालीनात्मा सर्वदेवाभिधानः ॥ ७ यशोदेव्या यशोदायी कृत्यजातपरायणः । वीरनामाऽभवत्तस्य संजातौ द्वौ सुतोत्तमौ ॥ ८ सम्यग्बोधसुराचलेन मथिते मिथ्यात्वबंधा "यौ चंद्रामृतसोपरी मदविषा वेगानभिज्ञापरम् । सौंदर्येण च यौ: " "सर्वदेवहरणे व ....... कृताः ॥ ९ केनासौ मदनस्तृतीयनयनज्वालाकलापे हुतः किं ब्रूत त्रिपुरान्तकेन ननु सोप्याज्ञाति ..... पीयूषं .......इत्थं ... ""यद्" ....यद् पुत्रच्छलतश्चकार स पुनः पंचप्रकारं वपुः ॥ १० ........ ************* ते चामी धनदेवो वट ईलाकश्च केल्हणः खदिरः । पंचापि पंचबाणानुकारिरूपा अपि सुशीलाः ॥ ११25 ११ 5 10 15 ये च क्रीडासदनमनखे " .............धा भरणं निभृते मूर्तिमान् पुण्यपुंजः । धन्यं धाम प्रणयिपरमाल्हादवृद्धेः समृद्धेर्बुद्धेः सिद्धेः शरणमरणिर्ध्यानवन्हेः शुभस्य ॥ १२ भगिनी तेषां साढीति शीलसौंदर्य धत्ते । कुलटा - कुरूपाणामपि संवेगयतीव चेतांसि ॥ १३ धनदेवप्रमुखाणां लक्ष्मीः सीता च रुरिमणी धान्धी । भार्या यशोमतिश्च क्रमेण जाता महासत्यः ॥ १४ याः कामधेनुप्रतिमा .............लाः । लीलाललामां अपि नव्यं (?) संवेगरंगांगणबद्धनृत्ताः ॥ १५ लक्ष्म्याः पुत्री झल्ला सलक्षणा, नंदनाश्च सीतायाः । आभूश्च पार्श्वनागश्च संतुकश्चेति शान्तहृदः ॥ १६ 30 भागिनेयोऽश्वदेवोऽभूद्देवतातिथिपूजकः । पुत्र्योऽपि तादृश्यस्तिस्रश्चामी राजूश्च मोहिनी ॥ १७ iधिकायाः पुनः पुत्री पूर्णिका शीलशालिनी । सर्वदेवो यशोमत्याश्च ॥ १८ 20 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। इति सकलकुटुंबज्ञातिपीयूषपात्रं जिनपतियतिपूजादानदत्तावधानः । अकृत सुकृतिरत्नं प्रातरन्येद्यु चिंतां सुगुरुगदितवाक्याद् ईलकः श्रावको यः ॥ १९ इह हि जगति संपत् पंककाकारसारा रतिरपि मदमत्तप्रेयसीभ्रूविलोला । ललितमपि वधूनां ध्वंसिवंतुश्च(?) बंधस्तदिह शरणमेकं धर्ममित्रं पवित्रम् ॥ २० सोऽनेकधा यद्यपि वादिमुख्यैर्निगद्यते मुक्तिकृते मुनींद्रैः । तथापि तं दिवर्जितान्य......................॥ २१ अतो विवेकैकविवृद्धिहेतुरावश्यकं यद्विधमप्यलेखि । श्रेयःकृते खस्य तदीलकेन कुटुंबमालोच्य विवेकभाजा ॥ २२ ___ इतश्वश्रीचंद्रगच्छे समभूत् ........"धर्मघोषः। श्रीवर्द्धमानो मुनिपो....मेन प्रार्थितः मुदा यः ॥ २३ पट्टे तदीये निजबुद्धियोगात् निवित तत्रैदशसूरिबोधः () । शुद्धांतरात्मा गुणरत्नभूरिः श्रीमान् श्रुतो'... "भुवि देवसूरिः॥ २४ ....... "भूव...'नूतिलकः । संसारांबुधिसेतुः केतुः साक्षादेवंगस्य (?) ॥ २५ श्रीयशश्चंद्रसूरेस्तु तत्पदस्थस्य पुस्तकम् । पठनायेल्लकश्राद्धपुंगवेन समर्पितम् ॥ २६ जीवाजीवादिवस्तुव्यतिकरलहरीभंगसंगाभिरामः कारुण्यं सप्रवाहप्लवशमित(?) भवा सत्यसंतोषसंपत् । यावत् सिद्धान्तसिंधुर्जयति जिनपतेः स्यात्पदोदात्तनक्र स्तावद् भूयाद् बुधानामयमपि रतये पुस्तकः पठ्यमानः ॥ २७ संवत् ११९२ वर्षे.... पुस्तकं सिंधुराजेन लिखितं इति ॥ शुभं भवतु ॥ [* पुस्तकमिदं सुरक्षितमस्ति पट्टनस्थ-संघवीपाडासत्कभाण्डागारे । ] [१०] प्राग्वाटवंशीयसूहडादेवीश्राविकालेखित-पर्युषणाकल्पपुस्तिकाप्रशस्तिः। [लेखनसमयो नोल्लिखितः; परं वर्णनानुसारतः १३ शताब्दी अनुमीयते ।] वंशः प्राग्वाटनामास्ति सर्ववंशशिरोमणिः । यो जातश्चित्रमाधारो महतामपि भूभृताम् ॥ १ तत्राभूद् भरतो नामा पुरुषः पुण्यपूरितः । सदाचाराध्वपाथेयो धौरेयो धर्मधारिणाम् ॥ २ सुतस्तस्य यशोनागो गुणानां जन्ममंदिरम् । यशोभि तभूभागः सुभगो वामचक्षुषाम् ॥ ३ पद्मसिंहः सुतो जातस्तस्य सिंहपराक्रमी । येन भूपाज्ञया प्राप्तं पदं श्रीकरणादिषु ॥ ४ जज्ञे तिहुणदेवीति पत्नी तस्य शुभाशया । यया पितुश्च भर्तुश्च गुणैवंशो विभूषितः ॥ ५ तयोः क्रमेण चत्वारस्तनयाः पुण्यशालिनः । आसन् धार्मिकधौरेयाः सुशीले द्वे च पुत्रिके ॥ ६ तेषामाद्यो यशोराज आशराजस्ततोऽपरः । तृतीयः सोमराजाख्यश्चतुर्थो राणकाहयः ॥ ७ सोढुकेत्याख्यया ज्येष्ठा कनिष्ठा मोहिणिराह्वया । धर्मेण निर्ममे शुद्धे सोदुकाहृदये पदम् ॥ ८ महान्यापारनिष्ठस्य यशोराजस्य वल्लभा । जज्ञे सूहवदेवीति सतीसीमंतमौक्तिकम् ॥९ । तयोराद्यः सुतः पृथ्वीसिंहाख्योऽभूत् कलाम्बुधिः । परः प्रल्हादनो नामा विजयी पुत्रिके उभे ॥ १० 20 25 30 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तन्मध्यात् पेथुकास्त्येकाऽपराऽभून्नामसज्जनी । प्रल्हादनप्रियतमा माधलाऽस्ति विवेकिनी ॥ ११ देवसिंहः सोमसिंहः सुतौ द्वौ तिष्ठतस्तयोः । पद्मला सद्मला राणी तिस्रस्तिष्ठति पुत्रिकाः ॥ १२ पेथुका चंपलादेवी नरसिंह महामनाः । आसलस्य प्रिया पुण्यं हरिपालमजीजनत् ॥ १३ सुता राजलदेवीति चंपलायाः पतिव्रता । खकीयमातृशोकार्तिसंहारपरमौषधिः ॥ १४ वल्लभा नरसिंहस्य नायकिदेविनामिका । तत्सुता गौरदेवीति मातृवद्धर्मनिर्मला ॥ १५ विनीता हरिपालस्य माल्हणि मगेहिनी । नंदना जनितास्ताभ्यां चत्वारो रम्यमूर्तयः ॥ १६ जगत्सिहस्य दयिता सजना तनयत्रयम् । प्रसूते स्म सुतां चैकां शीलालंकारडम्बराम् ॥ १७ ज्येष्ठस्तिहुणसिंहाख्यः पूर्णसिंहाभिधोऽपरः । तृतीयो नरदेवोऽथ तनया तेजलाह्वया ॥ १८ आस्ते तिहुणसिंहस्य रुक्मिणीनाम वल्लभा । तयोर्लवणसिंहोऽस्ति सुतः सुता च लक्षमा ॥ १९ रंगात् कटुकराजेन मोहिणिः पर्यणीयत । चत्वारो नंदनास्ताभ्यां जनिता जनरंजनाः ॥ २० 10 पुत्र्यौ शीलपवित्रे च मूर्ती द्वे धर्मयोरिव । पूर्णदेवी तयोराद्या वयजेत्यपरा मता ॥ २१ धौरेयः सोहियो नाम सहजाकाभिधोऽपरः । तृतीयो रत्नपालोऽभूदमृतपाल इत्यथ ॥ २२ सोहियस्य प्रिया ज्येष्ठा ललितादेविसंज्ञिता । तत्सुता प्रीमलादेवी जैत्रसिंहस्य वल्लभा ॥ २३ ताभ्यां जातौ कलावंतौ सुतौ द्वौ धर्मनिर्मलौ । परोपकारसामर्षो धारावर्षोऽग्रजोऽभवत् ॥ २४ द्वितीयो मल्लदेवोऽस्ति कुलालंकारकौस्तुभः । तत्प्रिया गौरदेवीति श्वश्रूशुश्रूषणोद्यता ॥ २५ सोहियस्य द्वितीयास्ति शीलुकेत्याख्यया प्रिया । गुरुत्वगुणगंभीरा पतिभक्तिपवित्रिता ॥ २६ तयोरासीसुतो भीमसिंहनामाग्रजः सुधीः । महत्त्वसत्त्वमुख्यानां गुणानां जन्मभूमिका ॥ २७ परः प्रतापसिंहोऽस्ति गुरूणां भारहारकः । नाम्ना चाहिणिदेवीति प्रिया तस्यास्ति पावना ॥ २८ पुन्यौ द्वे सोहियस्याथ शीलुकाकुक्षिसंभवे । जाते जात्यमहारत्नतेजोनिर्मलमानसे ॥ २९ नालदेवी तयोर्मध्यादाद्या दानविशारदा । परा कील्हणदेव्याख्या साक्षादिव सरस्वती ॥ ३० आसीत् सुहागदेवीति सहजाकस्य वल्लभा । तयोर्माल्हणदेवीति सुताऽस्ति शीलशालिनी ॥ ३१ विरक्तोऽमृतपालोऽथ सर्वान् संबोध्य मातुलान् । गच्छे श्रीमलधारीणां व्रतं जग्राह साग्रहः ॥ ३२ सोमराजस्य वर्ति(वति ? )त्वं धर्मसीमासमन्वितम् । न केषामुपकाराय जातं वात्सल्यवारिधेः ॥ ३३ सुसाधोः कुलचन्द्रस्य विख्यातव्यवहारिणः । सुता जासलदेव्याश्च जैनधर्मेण वासिता ॥ ३४ नाम्ना राजलदेवीति राणकस्य प्रियाऽभवत् । यस्यां सत्यां गृहे भर्तुः क्लेशलेशोऽपि नाजनि ॥ ३५ 25 तयोः संग्रामासंहाख्यः सुतो जातोऽस्ति विश्रुतः । श्रियोपकुर्वता येन निजानां जगृहे मनः ॥ ३६ सुताऽभयकुमारस्य सलक्षणांगसंभवा । सुहडादेविरस्यास्ति प्रिया दानदयाप्रिया ॥ ३७ तदीयो हर्षराजोऽस्ति पुत्रखगोत्रपावनः । मातापित्रोः समादेशं यो न कुत्रापि लंघते ॥ ३८ हर्षराजेन रागेण लखमादेविसंज्ञिका । परिणीता विनीतात्मा सतीव्रतविभूषिता ॥ ३९ गौरदेवीति नामास्ति कनिष्ठाऽस्य सहोदरा । पीयूषप्रायवचनैर्माननीया मनीषिणाम् ॥ ४० सुत[:] संग्रामसिंहस्य सुहडादेविसंभवः । नाम्ना कटुकराजोऽस्ति द्वितीयो नयनामृतम् ॥ ४१ श्रीमलधारिसूरीणां हितामाकर्ण्य देशनाम् । श्रेयसे सुहडादेव्या सिद्धान्तातीव भक्तया ॥ ४२ भर्तुः संग्रामसिंहस्य साहाय्याद विशदाक्षरैः । पुण्या पर्युषणाकल्पपुस्तिका लेखिता नवा ॥ ४३ खामिनां शृण्वतां व्याख्याकारिणां पुण्यसंचयम् । वर्द्धयंती सदा सर्वैराचंद्रं वाच्यतामसौ ॥ ४४ ॥ मंगलमस्तु ॥ [ * पुस्तकमिदं पट्टनस्थसंघसत्कभाण्डागारे विद्यते ।] 20 30 35 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [११] पल्लीपालवंश्यश्रीपाललेखित [हेमचन्द्रीय] अजितनाथादिचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः। _[लेखनकाल १३०३ विक्रमाब्द] तन्वाना खकलाकलापमधिकं वर्जिवालंकृतं लक्ष्मीशनटीव यं श्रितवती खद्गुणाध्यासितम् । रंगानोत्तरणाभिलाषमकरोद् व्यावर्ण्यतामागता पल्लीपाल इति प्रसिद्धमहिमा वंशोऽस्ति सोऽयं भुवि ॥ १ वंशेऽभवत्तत्र सोही मुक्तात्मा श्रावकाग्रणीः । निह्यन्महामहातेजा अजाड्योऽपि सुशीतलः ॥ २ तस्योढा सुगुणैः प्रौढा शुभधीः सुहवाभिधा । पासणागस्तयोः पुत्र एक एव गुणैरपि ॥ ३ पउसिरिनाम्नी भार्या तस्याभूद्धर्मकार्यकृत् । तयोः पुत्रत्रयं पुत्रीद्वयं चाद्वंद्वमानसम् ॥ ४ तदादिमः साजणनामधेयः समुल्लसन्निर्मलभागधेयः । सत्यं च शौचं कलिराजभीतं हृदुर्गमाशिश्रयदाशु यस्य ।। ५ 10 धैर्येणाद्भुतराणकप्रतिकृतिर्जज्ञे ततो राणको दिक्चक्रं परिपूरयन् शुचियशोनिःश्वासदानोदयात् । योऽसाध्यत्परलोकमाशु हृदये श्रीवीरनाम स्मरन् सद्धर्मेण गुणान्वितेन विशिखारोपेण सत्त्वोत्कटः ॥ ६ मोहादित्रयसंहर्ता तृतीय आहडोऽभवत् । जिनधर्मरक्तचेता जेता दुःकर्मजालस्य ॥ ७ ___ आद्या तयोरद्भुतधर्मधाम पनी द्वितीया जसलं च नानी । ___ दानादिधर्माबुनिषेकयोगैरात्मा यकाभ्यां विमलोऽभ्यधायि ॥ ८ सहजमतिः सज्जनस्याभूत्पत्नी पतिव्रता । तत्पुत्री रतधा नामा सुतौ मोहण-साल्हणौ ॥ ९ आहडस्याथ भार्याभूच्चांदूश्चंद्रकलोज्ज्वला । पंचापत्यानि तयोः क्रमादिमानीह जातानि ॥ १० तेषां आशाभिधो ज्येष्ठ आशादेवीति तत्प्रिया । तयोर्बभूव सगुणा जैत्रसिंहादिसंततिः ॥ ११ अद्वितीयो द्वितीयोऽपि श्रीपाल इति विश्रुतः । तत्पत्नी वील्हुका नाम्ना पुत्रो वील्हाभिधः सुधीः ॥१२ तृतीयो धांधको नामा कलत्रं तस्य रुक्मिणी । लक्ष्मीप्रियः पद्मसिंहस्तुर्यो रत्नाद्यपत्यकः ॥ १३ 20 पुत्री च जज्ञे ललतूबलसा धर्मकर्मणि । वास्तूश्चास्यांगजा जाता व्रतान्मदनसुन्दरी ॥ १४ कर्पूरी च तथा पद्मसिंहजा भावसुन्दरी । कीर्तिश्रीगणिनीपादौ द्वाभ्यामाराधितौ मुदा ॥ १५ न्यायोपात्तस्य वित्तस्य फलं धर्मनियोजनम् । अनय॑स्येव रत्न[ स्य यथा ] किरीटकादिषु ॥ १६ . परोपकाराच्च परो न कश्चिदत्रास्ति धर्मो भुवनत्रयेऽपि । . [सोऽपि ] श्रुतात्तच्च सुपुस्त[क]स्थं व्याख्यायमानं दुरितावसानम् ॥ १७ 25 श्रीमत्कुलप्रभगुरोराकण्यैवं विशुद्धमुपदेशम् । मोहादिकदनकालः श्रीपालो धर्मसुविशालः ॥ १८ दुःप्रतिकारौ पितराविति च ज्ञात्वा पितुः सुकृतहेतोः । अजितादि-शीतलांतं सुपुस्तकं लेखयामास ॥१९ -चतुर्भिः कलापकम् । त्र्यग्रत्रयोदशशतेषु [ गतेषु ? ] सत्सु श्रीविक्रमाद् विधियुतं सुधियां च तेन । व्याख्यापितं च सुकुलप्रभसूरिपट्टलक्ष्मीविशेषकनरेश्वरसूरिपार्थात् ॥ २० यावत्तारकचक्रघर्घरधरो दिक्कुंभिशैलूषवान् मेरुश्चारुनटः प्रताडयति तज्योत्स्नालतातंतुभिः । वध्वा व्योममृदंगकं रविशशिप्रोद्यत्पुटद्वंद्वकं तावन्नंदतु पुस्तकोऽयमसकृद् व्याख्यायमानो बुधैः ॥ २१ . संवत् १३०३ वर्षे कार्तिकशुदि १० रवावयेह श्रीभृगुकच्छे ठ० समुधरेण पुस्तकं लिखितमिति ॥१॥ [ * पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते पुस्तकमिदम् । ] 15 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशवालवंशीय पद्मश्रीश्राविकालेखितपञ्चमीकथापुस्तिकाप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १३१३ विक्रमाब्द ] संवत् १३१३ वर्षे चैत्रशुदि ८ रवौ महाराजाधिराजश्रीवीसलदेवकल्याणविजयिराज्ये तन्नियुक्तश्रीनागडमहामात्ये समस्तव्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने प्रल्हादनपुरे जिन सुंदरिगणिन्या 5 ज्ञानपंचमीपुस्तिका लिखापिता ॥ ५ ॥ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [१२] १ शाखासहस्रमहिते वंशेऽस्मिनोशवालसाधूनाम् । आसीद् वीरकनामा वालिणिहृदयाधिदैवतं धीमान् ॥ श्रीमानाम्रकुमारो मारतनुः श्रीकुमारनामा च । जसदू - शालिकसंज्ञौ तत्तनयाः पूर्णचंद्र इति पंच ॥ २ भगिनी विनयाचारशालिनी गुणमालिनी । पुण्यश्रीरभवत्तेषामिंद्रियाणां सुधीरिव ॥ ३ लाली शालीनविनया श्रीकुमारहृदीश्वरी । असूत सूतमन्यूनवसुदं बहुदाभिधम् ॥ ४ आम्वोधनाम्वसावथ जेसल - गुणदावसूत विजयमतिः । तद्भार्या त्वथ केल्हीं राजीं च सरखतीं ससोमलताम् ॥ ५ पद्मश्रीरिति निश्छद्मचरिता दुरितोज्झिता । द्वितीया बहुदाकस्य प्रियाsसूत सुतानिमान् ॥ ६ वाह चाहडं चाम्रदेव सालसंज्ञकौ । गांगदेवं तथा जालूं तनयां विनयानताम् ॥ ७ पद्मश्रीश्वतां स्वकीयवयसां विज्ञाय वाक्यैर्गुरोः पुण्यश्रीमनिशं समृद्धिमधिकं नेतुं विसर्पन्मतिः । नज्ञा[ ना ] मृतपानतोऽस्त्यधिकमित्याधाय चित्ते मुहुः सद्वर्णावलिशालिका· · ••वती यत्पंचमीपुस्तकम् ॥ ८ इदं ललितसुंदर्यै गणिन्यै गुणशालिनी । सच्चरित्रपवित्रायै सा ददौ सम्मदोदयात् ॥ ९ [* पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे स्थितमिदं पुस्तकम् ] 'संपूर्ण चेदं परिशिष्टपर्वम् ॥ ५ ॥ [१३] प्राग्वाटवंशीयश्रे० सेवाकलेखित - परिशिष्ट पर्वपुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १३२९ विक्रमाब्द ] १५ ॐ ॥ दुष्टाष्टकर्मेभजयावदातः साक्षात्तपः सिंह इवांकदंभात् । सुखामिभक्त्या वरिवस्यति स्म पादाम्बुजं यस्य मुदे स वीरः ॥ १ इतश्चास्ति धरापीठे ग्रामो ...भिधः । विधिपक्षविधुक्षीरनीरधिः पुण्यशेवधिः ॥ २ प्राग्वाटवंश उदितोदितवंशधुर्यः श्लाघ्यः स तत्र भवति स्म सुखेन यत्र । वंश्यैः स्थितै.... " ते सुरश्रीः किं दनतामनुपमस्य न तस्य विद्मः ॥ ३ आसीत् शुभंकरस्तत्र पुराणः पुरुषः पुरा । सेवाभिधश्च तत्सूनुस्तत्पुत्रश्च यशोधनः ॥ ४ उद्धरण-सत्यदेवौ श्रीमलयप्रभपितृसुमदेवश्च । बाढू नामा तुर्यो लीलाकस्तत्सुताः पंच ॥ ५ .................... 10 15 20 25 30 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 १६ 20 25 30 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह मिथ्याभाववसुंधराधरचरत्पक्षच्छिदा खः पतेबढ्रकस्य सुतास्त्रयस्त्रिभुवनालंकारभूतास्ततः । संजाता जनपावना भुवि मरुसिंधोः प्रवाहा इव साक्षाद् दाहड-लाडणौ सलषमौ किं वा पुमर्था इव ॥ ६ लषमिणि- सुषमणि-जसहिणि जेहिसंज्ञाः सुताश्चतस्रश्च । संजाताः सुपवित्राः श्रुतयः किमु वेधसो नैताः ॥ ७ नामतः सिरियादेवी दाहडस्याजनि प्रिया । सिद्धांतविधिना तेपे योपधानाभिधं तपः ॥ ८ सोलाको बासलः श्रीमन्मद्नप्रभसूरयः । वीरूकश्च तत्पुत्राः चत्वारः सागरा इव ॥ ९ साउंनाम्नी च पुत्र्यासीत् सोलाकस्य तत्पुनः । प्रिया प्रियंवदा शांता लक्ष्मश्रीर्लक्षणाजनि ॥ १० सद्धर्मवनीव पंच तनयान् कुन्तीव सा पांडवान् प्रव्रज्येव महाव्रतानि वसुधा मेरुनिवाजीजनत् । आद्यांबूंदयचंद्रसूरितनयौ चांदाक-रत्नौ ततः वाल्हाकश्च तथा..................स्तदनु सा धाल्ही च पुत्रीद्वयम् ॥ ११ .... [ एतत्पद्यं विनष्टमत्र ]..... ......................॥ १२ तत्पुत्रः पासवीराख्यः बाहडश्छाहडस्तथा । वाल्ही च दिवतिणिश्चैव वस्तिणिश्च सुतास्तथा ॥ १३ चांदाकस्य सुतौ जातौ पुष्पदंताविवोज्ज्वलौ । पूर्णदेवस्तयोराद्यः पार्श्वचंद्रो द्वितीयकः ॥ १४ सीलू- नाउलि-देउलि-झणकुलिमुख्याः सुताश्चतस्रश्च । नाउरात्तचरित्रा जिन सुंदरिनामिका साध्वी ॥ १५ पूर्णदेवस्य कांताऽभूत् पुण्यश्रीरिति संज्ञया । तत्सुतः सद्द्व्रती विद्वान् गणिर्द्धनकुमारकः ॥ १६ चंदनबाला च संजाता गणिनी तत्सुता तथा । रत्नूसुतः पाहुलाख्यस्तत्पत्नी च जल्लिका ॥ पुत्रः कुमारपालश्च महीपालश्च तथा परः ॥ १७ वाल्हाकस्य सुतः साधुग्रामणीर्मुनिकुंजरः । नाम्ना ललितकीर्तिश्च सतां पापतमोपहः ॥ १८ बाहडस्य च सत्पत्नी नाम्ना जज्ञे वसुंधरिः । तत्सुतो गुणचंद्राख्यः सुता गांगी च विश्रुता ॥ १९ रुक्मिणी कुलचंद्रस्य नाम्ना कांताऽभवत्सती । छाहडस्य च भार्याभून्नान्ना पुण्यमती सती ॥ २० धास्तत्सुतो जातः पुत्र्यौ चपल - पाल्हुके । तत्पत्नी माल्हणिरिति पुत्रो झांझणनामकः ॥ २१ श्रेष्ठिनः पासवीरस्य नाम्ना सुखमतिः प्रिया । यद्गुणैर्निर्मलैश्चित्रं निःशेषो रंजितो जनः ॥ २२ सेवाभिधानस्तनयस्तदीय आद्येो द्वितीयो हरिचंद्रनामा | श्रेयान् गुणैः श्रीजयदेवसूरिर्भोलाकनामा च सुतस्तुरीयः ॥ २३ 1 लडही - खींब पिनायौ पुत्र्यौ जाते महासत्यैौ । सेवाकस्य समजनि पाल्हणदेवीति सत्पली ॥ २४ भोलाकस्य च दयिता जाल्हणदेवीति विश्रुता [लोके ]। एतद्धर्मकुटुंबं संजातं पासवीरस्य ॥ २५ - [ अत्र मूलादर्शे पत्रस्य द्वितीयं पार्श्व सर्वमपि विगताक्षरं सञ्जातं ततः २६ पद्यादारभ्य ३३ पर्यन्तानि पद्यानि विनष्टानि ... वसना चंद्रार्कसकुंडला खस्तारकमालिकावलयितं प्रोत्तम्य मेरुं करम् । यावन्नृत्यति तावदत्र जयतात् खश्रेयसे लेखितं सेवाकेन सुपुस्तकं मुनिजनैस्तद्वाच्यमानं चिरम् ॥ ३४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुस्तक प्रशस्ति सङ्ग्रह । श्रीविक्रमार्कन्नृपतेः समयादतीते खत् त्रयोदशशते शरदामनूने । एकोनविंशति शुचौ लिखितं दशम्यां संघाय पुस्तकमिदं प्रददातु भद्रम् || ३५ सं० १३२९ वर्षे श्रावणसुदि ८ वरदेवपुत्रलेखक नरदेवेन लिखितं । परिशिष्टपर्वपुस्तिका समाप्ता ॥ * पुस्तकमिदं पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । ] [१४] श्रीमालवंशीय श्रे० तेजः पाल लेखित - पर्युषणाकल्प-पुस्तिकाप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल १३३० विक्रमाब्द ] पायाद्वः पूर्वतीर्थस्य शिखाली श्रोत्रयोरधः । दग्धाष्टकर्मकक्षस्य धूमलेखेव लक्ष्यते ॥ १ भूयात्सद्भाविनां भूरि भग्नसंसारविभ्रमः । स्वर्मोक्षफ [ल]दः खामी श्रीवीरः कल्पपादपः ॥ २ अस्ति भूमंडलव्यापी वंशो वंशोत्तमः किल । श्रीमद् श्रीमाल इत्याख्यो लक्षशाखाभिर्विश्रुतः ॥ ३ प्रसिद्धपुरुषप्रक्षा यस्य च्छायानिषेविनः । इहैवाद्यापि दृश्यते तद्विदः श्रुतिकोविदाः ॥ ४ तद्वंशसंभवो जैनश्रेयसैनःप्रखंडनः । बभूव वूटडिश्रेष्ठी सुदृष्टिः श्राद्धसत्तमः ॥ ५ पत्नी धांधलदेवीति शीलस्खकुलपावनी | हंसवत्खेलते यस्या जैनश्रेयः सुमानसे ॥ ६ तत्तनूजो जितक्रोधस्तेजः पालोऽस्ति धर्म्मधीः । यस्याद्यजिनपादाने भृंगवद्रमते मनः ॥ ७ शीलसद्गुणतः खच्छा लच्छी संज्ञाऽस्ति तद्वधूः । जैनपुण्यायने रक्ता सद्गुरुप्रणतौ नता ॥ ८ पवित्रचारुचारित्ररत्नराशिमहार्णवः । गणिश्रीदेव [चं ] द्रोऽभूत्संयमाधृतसंभृतः ॥ ९ तत्पट्टव्योमसोमस्य सदा सद्वृत्तशालिनः । श्रीमद्विजयचंद्रस्य सूरिणः सद्गुरोर्मुखात् ॥ १० आकर्ण्य कर्णसुखदां विशदां धर्मदेशनाम् । ततः संजातसद्भावः सिद्धांतोद्धारकारणे ॥ ११ अथ पर्युषणाकल्पमनल्पश्रेयसः पदम् । विमान्य व्यक्तवर्णाढ्यां लेखायामास पुस्तिकाम् ॥ १२ यावच्चंद्र-दिवानाथौ यावद् व्याप्ता वसुंधरा । विबुधैर्वाच्यमानाऽसौ तावन्नंदतु पुस्तिका ॥ १३ संवत् १३३० श्रावणवदि १२ रवौ पुस्तिका लिखितेति ॥ शिवमस्तु सुश्रावकेभ्यः । * [१५] श्रीमालवंशीय श्रे० लाडण -लेखित - सूक्तरत्नाकर-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [ लेखनसमय १३४७ विक्रमाब्द ] [ प्रन्थान्ते - ] यस्मिन् पुष्यति विश्वविस्मयकरे खः श्रेणिनिःश्रेणिका, द्रागंगप्रतिमां पदस्थितिमतीद्वारां चतुःसप्ततिः । सोयं भव्यजनप्रबोधजनको धर्माधिकारः पुरः, काव्ये सर्वरहस्यवीचिनिचिते श्रीसूक्तरत्नाकरे || इति श्रीसूक्तिरत्नाकरनामनि महाकाव्ये धर्माधिकारोऽयं प्रथमः संपूर्णः ॥ ग्रंथा ४३४० || मंगलं महाश्रीः | विद्यासिंहतनूद्भवः सुचरितो वैजल्लदेव्यंगभूः, श्रीमन्मन्मथसिंह एवं विदधे श्रीसूक्तरत्नाकरम् । नानाशास्त्रगृहीतसूक्त लहरीलीलायितं तत्र सत्, धर्माख्यं प्रथमं समाप्तमखिलं द्वारं निदानं श्रियः ॥ १ ॥ ६ ॥ पुस्तकमिदं पट्टनस्थसंघसत्कभाण्डागारे रक्षितमस्ति । १ 'प्राप्रा' इति टिप्पनी । २ 'कोटिशोपि हि' इति टिप्पनी । + पट्टनस्थसंघवीपाडा सत्कभाण्डागारे विद्यतेयं पुस्तिका । ३ जै० पु० १७ 5 10 15 20 25 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [प्रशस्तिः -]....... .......[॥१॥] सुपर्वः सरलोत्तुंगः शाखाशतसमावृतः । श्रीमान् श्रीमालवंशोऽस्ति सर्वत्रापि प्रमाणकृत् ॥ २॥ श्रेष्ठी जयंत इत्यासीत् तत्र मुक्तामणेः समः । पातू नाम्नी च तत्पनी गेहलक्ष्मीरिवांगिनी ॥ ३ ॥ श्रीसंघकृत्यधौरेयाः सम्यक् सम्यक्त्वशालिनः । तत्पुत्राः क्रमशोऽभूवन् गुरुभक्तिभृतो ह्यमी ॥ ४ ॥ 5 विद्वान् महणनामाद्यो मदनाख्यो महत्तमः । सामंतो झांझणाख्यश्च लाडणोऽनल्पवासनः ॥ ५॥ वयजू तेजू च सुते सुदुस्तपस्तपोंचिते । लाडणस्य तु ललतादेवीति दयिताऽभवत् ॥ ६ ॥ तत्सुता अरिसिंहाद्याः; एवं वंशे विवर्द्धिते । श्रीरत्नसिंहसुगुरोलाडणो धर्ममशृणोत् ॥ ७ ॥ ततः खस्यैव पुण्यार्थी सूक्तरत्नाकरस्य तु । चतस्रः पुस्तिकाः पुण्या लेखयामास लाडणः ॥ ८॥ ज्योतिर्मुक्तावतंसा रविरजनिकरस्फारताडंकपत्रा, ज्योत्स्नाक्लप्तांगरागा जलनिधिवसना वर्णदीहारयष्टिः । 10 यावन्ननर्तिकीर्तिश्चरमजिनपतेर्विश्वरंगेऽत्र तावत् , मन्द्रकाख्याननादैः कलयतु तुलनां दुंदुभेः पुस्तकोऽयम् ॥९॥ सं०१३४७ वर्षे आषाढवदि ९ गुरौ आशापल्यां महं वीरमेन श्रीसूक्तरत्नाकरपुस्तिका लिखिता॥ [१६] प्राग्वाटवंशीय-श्रीमत्पेथड-लेखित-भगवतीसूत्र-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३५३ विक्रमाब्द] श्रीद्वादशांगहिमरस्मिसमुद्रतुल्याः कल्याणपंकजविकाशनभानुभासः । अज्ञानदुस्तरतमोभरदीपिकामा विश्वं पुनातु किल वीरजिनस्य वाचः ॥ १ सम्यक्सम्यक्त्वसिंहाश्रितसुकृतिमनःकंदरः स्थैर्यसारः, प्रस्फूर्जत्कीर्तिचूलो विनयनयशमामूल्यरत्नाभिरामः । दानाद्युद्दामधर्मप्रवरवनवृतः श्रीसमिद्धः पृथिव्या-मस्ति प्रारवाटवंशस्त्रिदशगिरिरिवानेकसत्कृत्यशृंगः ॥२ योऽचीकरन्मंडपमात्मपुण्यवल्लीमिवारोहयितुं सुकर्मा । ग्रामे च संडेरकनानि वीरचैत्येऽजनि श्रेष्ठिवरः स मोखूः ॥३ 20 मोहिनीनाम तत्पत्नी चत्वारस्तनयास्तयोः । यशोनागो धर्मधुर्यः वाग्धनः शुद्धदर्शनः ॥ ४ प्रल्हादनो जाल्हणश्च गुणिनोऽमी तनूभवाः । वाग्धनस्य गृहिण्यासीत् सीतू सम्यक् शीलभाक् ॥ ५ तत्कुक्षिभूस्तत्पुत्रश्चांडसिंहो विशुद्धधीः । सद्धर्मकर्मनिष्णातो विनयी पूज्यपूज्यकः ॥ ६ पंचपुध्योऽभवन् खेतू मूंजल-रत्नदेव्यथ । मयणल"...."सर्वा निर्मला धर्मकर्मभिः ॥ ७ इतश्च-बीजाभिधोऽभवन्मंत्री खेतू नाम्नी च तत्प्रिया । तत्पुत्री गोरिदेवीति पुण्यकर्मसु सोद्यमा ।। ८ 25 तां तूढवांश्चांडसिंहस्तत्तनूजा गुणोज्वलाः । आद्यः पृथ्वीभटो धीमान् रत्नसिंहो द्वितीयकः ॥९ - वदान्यो नरसिंहश्च तुर्यो मल्लस्तु विक्रमी । विवेकी विक्रमसिंह-श्चाहडः शुभाशयः ॥ १० मूंजालश्चेत्यमीषां तु कल्याणाय कृतोद्यमा । खसा खोखी रता धर्मे पत्यश्चैषां क्रमादिमाः ॥ ११ प्रथमा सूहवदेवी सुहागदेव्यथापरा । निपुणा नयणादेवी प्रतापदेव्यथा मता ॥ १२ सीटला चांपलादेवी पुण्याचारपरायणा । आसां च पुत्राः पुत्र्यश्चाभूवन् भाग्यभरांचिताः ॥ १३ 30 श्रेष्ठि..... धनस्येव देशे () वृद्धिमुपेयुषि । श्रीरत्नसिंहसूरीणां पार्थे शुश्राव देशनाम् ॥ १४ ।। पेथडः प्रवराचारः प्रयुक्तो निजबंधुभिः । जनकस्य सदा भक्तो रक्तो धर्मगुणार्जने ॥ १५ 15 * पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे पुस्तकमिदं सुरक्षितम् । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । दानं धनस्योत्तममस्ति लोके ज्ञानात्पुनस्तत्कथितं जिनेन्द्रैः । तत्रापि सिद्धांतसमं न ज्ञानं दानं तु तस्यैव महत्प्रधानम् ॥ १६ इत्याकर्ण्य स गौतमस्य वदनांभोजे सुभुंगावली-कल्पं चैवमलीलिखद् भगवतीसूत्रं सटीकं मुदा । श्रीसिद्धांतविचारसार..........................................पेथडः ॥ १७ वेद-बाणे- हुताशे-दु-मिते विक्रमवत्सरात् । वर्षे पुस्तकव्याख्यानं कारयामास यः पितुः ॥ १८ तिग्मांसो युवराजतां सचिवतामारोप्य जीवे कवौ छायाक्ष्मासुतयोः पुरावनपदं सल्लेखकत्वं बुधे । राज्यं तारकपत्तियुक् प्रकुरुते खं दक्षजे............... .....""""""प्रकाशं सताम् ॥ १९ संवत् १३५३ वर्षे अघेह वीजापुरे सोमतिलकसूरिभिः श्रीभगवतीसूत्रपुस्तकव्याख्यातं । वाचितं पं० हर्षकीर्तिगणिना ॥ शुभं भवतु । श्रीसकलसंघस्य ॥ ५ ॥ [१७] 10 गूर्जरवंशीय-साधुमहणसिंह-लेखित [ भावदेवसूरिकृत ] पार्श्वनाथचरित्र पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३७९ विक्रमाब्द] जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलस्नातविरहितस्त्रिलोकचिन्तामणिवीरः ॥ १ सद्धर्महेतुः सरलखभावः सुपर्वरम्यः कलशब्दशाली । मुक्ताफलारंभ इह प्रसिद्धः श्रियान्वितो गूर्जरवंश एषः ॥ २ 15 सौम्योज्जनि प्रवरधीर्विपुलेऽत्र वंशे यः सोमकान्त इव सज्जनदर्शनीयः । श्रीमजिनमभविभोर्भवभित्प्रसादमासाद्य सद्गुणनिधिर्विदधे सुधर्मम् ॥ ३ तस्य मुक्ताफलपायौ द्वौ सुतौ सुकृतोज्ज्वलौ । आद्यो वर्णकनाम्ना तु द्वितीयोऽभून् मदनाभिधः ॥ ४ वर्णकस्य प्रिया जज्ञे वील्हणदेवीति नाम्नी । तत्कुक्षिसरसीहंसा जाता षट् सहोदराः ॥ ५ आद्यः कामाभिधानस्तु द्वितीयः शोभनधीरधीः । पेथडस्तृतीयोऽभूच्चतुर्थः कृष्णनामतः ॥ ६ अर्जुनः पंचमो जातः षष्ठोऽभयसिंहाभिधः । पुत्री हांसीति विख्याता सतीत्वगुणशालिनी ॥ ७ शोभनदेवस्य प्रेयस्यासीत्सुशीलसंयुता । नामतः सुहडादेवी भूरिगुणविभूषणा ॥ ८ तस्यां च गुणशालिन्यां जाताः सप्त सहोदराः । निर्मलेन चरित्रेण राजते ऋषिवत्सदा ॥ ९ तेषु मुख्यपदवीसमाश्रितो विश्रुतोऽस्ति विनयादिसद्गुणैः ।। धर्मकर्मणि तथाभिधानतो यः सल्लक्ष इह सज्जनाग्रणीः ॥ १० तस्यास्ति दयिता साध्वी देवी भावलनामतः । तस्याः कुक्षिमलंचक्रे पुत्ररत्नचतुष्टयी ॥ ११ सोमः सौम्यगुणोपेतः ततो जज्ञे नरोत्तमः । दानादिकचतुर्भेदधर्माराधनतत्परः ॥ १२ श्रीदेवी तस्य दयिता भाति सर्वगुणोत्तमा । देवताराधने रक्ता सीलालंकारधारिणी ॥ १३ दानसौंडो रतो धर्मे विवेकीति विशारदः । सोढलाख्यस्तृतीयस्तु देवी संगार वल्लभा ॥ १४ * पुस्तकमिदं पहनस्थ-संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तस्याः कुक्षिसरस्यां च राजहंस इवामलः । अवतीर्णो वज्रसिंहः कर्मादौ वज्रसन्निभः ॥ १५ तस्यानुजो विजयते जगति प्रतीतः सौभाग्यभाग्यसुविवेकविराजमानः । यस्याख्यया नरपतिपमाननीयो सत्त्वोपकारकरणैकरसात्मकश्च ॥ १६ नरपतेः प्रिया चास्ति नीनदेवीति शुद्धधीः । प्रसूता सा सुतं भव्यं नरसिंहाभिधोऽस्ति यः ॥ १७ नरपतेरनुजोऽस्ति धरणः साधुधीरधीः । अभिधा नायकिदेवी प्रिया प्रियगुणान्विता ॥ १८ श्रद्धाजलेन विमलेन सुशीतलेन संपूरिते सुकृतनीरजराजमाने। . सन्मानसे लसति यस्य विवेकहंसः सोऽयं जयी महणसिंह इति प्रतीतः ॥ १९ भीणलाख्या प्रिया तस्य प्रभूतगुणशालिनी । मान्या खजनवर्गेषु सदौचित्यपरायणा ॥ २० अन्यच्च -नित्यां प्रपां ज्ञानसुधारसाढ्यां तत्त्वोपदेशासमसत्रगेहाम् । मोहांधकारेषु समीपदीपं सत्पुस्तकं लेखयतीह धन्यः ॥ २१ इत्यादिदेशनां श्रुत्वा सुपुत्रः कुलदीपकः । साधुमहणसिंहाख्यो गुणग्रामपवित्रितः ॥ २२ श्रीवामेयजिनेशस्य खपितुः श्रेयसे मुदा । पवित्रस्य चरित्रस्य पुस्तकोऽयमलीलिखत् ॥ २३ नंद-शैल-शिखि-चंद्रवत्सरे रत्नपूर्वतिलकाख्यसद्गुरोः । ज्ञानकीर्त्यभिधशिष्यसन्मुनेः पुस्तकं च विधिना प्रदत्तवान् ॥ २३ 15 संवत् १३७९ वर्षे अश्विनसुदि १४ बुधे गूर्जरज्ञातीय साधु शोभनदेवसुत साधुमहणसिंहेन श्रीपार्श्वनाथचरित्रपुस्तकं लेखयित्वा पं० ज्ञानकीर्तेः प्रदत्तम् ॥ दानेन धर्मेण सदैव सोढः विराजते सर्वजनस्य सौख्यम् । द्रव्येण कायेन तथैव वाचा कर्ता च लब्द्धा सुकुले प्रसूति ॥ [१८] श्रीमालज्ञातीय-श्राविकामोखल्लदेवी-लेखित-[ हेमचन्द्रीय] शान्तिजिनचरित्र पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनसमयो नोल्लिखितः, परं लेखानुसारेण १३ शताब्दी सम्भाव्यते ] शाखासंततिसंनिरुद्धभुवनः सद्वृत्ततासंगतः प्रोद्यत्पर्वपरंपरापरिगतः प्राप्तप्रतिष्ठो भुवि । रत्नानां खनिरुन्नतो मुनिमतः श्रीमानृजुः प्रायशो वंशो वंशसमः समस्ति विदितः श्रीमालसंज्ञः परः ॥१ तसिंश्चारुभटश्रेष्ठिकुलाब्धिसोमसंनिमः । शीलूकुक्षिसरोहंसः श्रेष्ठी सोमाभिधोऽभवत् ॥ २ खस्थश्चेतसि सस्पृहश्च यशसि प्रद्वेषवानागसि मंदो नर्मणि पापकर्मणि जडः सक्तः शुभे कर्मणि । साधुः साधुजने विधुः परिजने बंधुः परस्त्रीजने यो लिप्सुश्चरणे पटुर्वितरणे दक्षः क्षमाधारणे ॥ ३ सलक्षणाभिधा पत्नी लक्ष्मीर्विष्णोरिवाभवत् । तस्य लक्षणसंपूर्णा मधुरालापसारणिः ॥ १ स्फुरितनयविवेको नागपालो विनीतो जिनमतगतशंको विद्यते तस्य पुत्रः । जिनपतिपदभक्तः शुद्धधर्मानुरक्तः कुमतगमविरक्तो दानदाक्षिण्ययुक्तः ॥ ५ * पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे पुस्तकमिदं विद्यमानमस्ति । 25. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । चिंतामणिः प्रणयिनां वसतिर्गुणानां लीलागृहं मधुवचो रचनांगनायाः। पुत्री ततः समजनि सुशीलरम्या मोखल्लदेव्यभिधया मतिगेहमेकम् ॥ ६ दानधर्म त्रिधाऽश्रौषीदुपष्टंभाभयश्रुतात् । भक्त्या मोखल्लदेवीह खगुरोर्मुखतोऽन्यदा ॥ ७ तत्रापि श्रुतदानस्य शुश्राव फलमुत्तमम् । तन्निदाना हि वस्तुनां हेयादेयव्यवस्थितिः ।। ८ ततश्च- यस्य ध्याननिलीनस्य हावभावप्रकाशनैः । न चेतश्चालयंति म देव्यो रूपश्रियोद्धराः ॥ ९ । तस्य श्रीशांतिनाथस्य सोमस्य श्रेयसे पितुः । चरित्रं लेखयित्वाऽदात् श्रीधनेश्वरसूरये ॥ १० यस्याः क्षीरपयोनिधिर्निवसनं हारस्रजस्तारकास्ताडंके शशिभास्करौ सुरधुनी श्रीषंडपुंडूस्थितिः। सा कीर्तिनरिनर्ति यावदमला वीरस्य विश्वत्रयी रंगे तावदमंददुंदुभितुलां धत्तामसौ पुस्तकः ।। ११ [१९] प्राग्वाटकुलीन-रंभाश्राविकाप्रदत्त-कल्पसूत्र-कालकसूरिकथा-पुस्तिकाप्रशस्तिः। 10 ___ [लेखनसमयो नोल्लिखितः, वर्णनानुसारेण १४ शताब्दी अनुमीयते ] [कालकसूरिकथान्ते-] पृषत्क ५ पक्ष २ यक्षादि १३ श्रेष्ठी प्रद्युम्नः कथां व्यधात् । प्रार्थितो मोढगुरुणा श्रीहरिप्रभुसूरिणा ।। ७४ ॥ श्रीकालिकसूरिकथा समाप्ता ॥ श्रियोगृहे घोषपुरीयगच्छे सूरिः प्रमाणंद इति प्रकृष्टः । बभूव पूर्व गुणरत्नखानिः सुचारुचारित्रपवित्रगात्रः ॥ १ विजयचंद्रगुरो(रु) गुणी श्रुतमहोदधिरस्य पदेऽभवत् । अखिलधर्मसुकर्मविधायको गुरुरिव प्रतिभाति विचक्षणः ।। २. तत्पट्टपूर्वाचलमौलिभानुर्दुरिमाररिपुशातनपंडितो यः । श्रीभावदेवः प्रबभूव सूरिः पदे तदीये श्रुतशीलयुक्तः ॥ ३ ततो जराभीरुजयी समस्ति जयप्रभः सूरिवरोऽस्यपट्टे । 20 अर्कः प्रतापेन च चंद्रमासौ कलाकलापेन बुधस्तु बुद्ध्या ॥ ४ हुडापद्रे पुरेऽप्यस्ति श्रीमान् पार्श्वजिनेश्वरः । तस्य गोष्ठीपदे ख्यातो वंश एषः प्रकीयते ।। १ प्राग्वाटवंशे भुवनावतंसे विख्यातनामाजनि चाऽऽसपालः। तद्देहिनी जासलदेवीनाम्नी तत्कुक्षिजातास्तनयास्त्रयोऽमी ॥ २ सर्वलक्षणसंपूर्णाः सर्वधर्मसमन्विताः । सहदेवश्च घेताको लषमाकः सहोदराः ॥ ३ सहदेवस्य च पत्न्याः नागलदेव्याः सुतौ शुभौ जातौ । आमाऽऽल्हौ विख्यातौ धर्मधुराभारवाहने दक्षौ ॥ ४ आमाकपत्नी जिनधर्मतत्परा रंभा सुशीला सुगुणा सुवंशजा । तत्कुक्षिजातास्तनयास्त्रयो वरा धर्मार्थकामा इव जंगमा भुवि ॥ ५ मुहुणा-पूणाकेन च हरदेवसमन्वितेन पुण्यवती । मातुः पितुः श्रियोऽर्थं प्रददौ कल्पस्य पुस्तिका गुरवे ॥६ 15 25 * पट्टनस्थसंघवीपाडासत्कभाण्डागारे पुस्तकमिदं विद्यते । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [२०] श्रीमालवंशीय-श्रे० धनपाललेखित-आवश्यक-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनसमयो नोलिखितः परं १४ शताब्दी सम्भाव्यते ] निश्रेयसःश्रीसदनः श्रीवरः श्रेयसेऽस्तु वः । त्रिलोकीविस्मितानंद रसते यद्वचः सुधां ॥ १. औदार्यादिगुणग्रामरनै रत्नाकरोपमः । श्रीमान् श्रीमालवंशोऽयं विद्यते भूमिभूषणम् ॥ २ तत्रासीद् गुणसंपूर्णः पूर्णसिंहाभिधः सुधीः । तस्य पत्नी यशोदेवी सतीवर्गशिरोमणिः ॥ ३ उदयं नीतो दिनकृत् शशी च तेनेह दीपितो दीपः । नयनं च कृतं जगतां जिनवचनं लेखितं येन ॥ ४ इत्थमाकर्ण्य कर्णाभ्यां सुधारससरस्वतीम् । श्रीमत्कीर्तिसमुद्राणां सद्गुरूणां सरस्वतीम् ॥ ५ धनपालाभिधानेन तयोज्येष्ठेन सुनुना । अनुजस्याथ पुण्याय महीपालस्य धर्मिणः ॥ ६ आशाप्रभाभिधानस्य गृहीतव्रतसंपदः । सूत्रमावश्यकं बंधोलेखितं धर्मशासनम् ॥ ७ मंगलं भवतु सर्वसज्जने मंगलं भवतु धर्मकर्मणि ।। मंगलं भवतु पाठके जने मंगलं भवतु लेखके सदा ॥८ प्रशस्तिः कृतिरियमाशाप्रभस्य ॥ मंगलं महाश्रीः ।। [२१] श्रीमालकुलजात-शोभनदेव-लेखित-शतकचूर्णि-टिप्पनक-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनसमयो नोल्लिखितः, १४ शताब्दी अनुमीयते] श्रीमालकुले विपुले जज्ञे श्रेष्ठी यशोधनः श्रेष्ठः । समभूत्तदीयदयिता जीवहिता नागदेवीति ॥ १ सा चतुरोऽसूत सुतांश्चतुरः श्रीवच्छ इति ततोऽप्यन्ये । सालिग-सोहिग-पासुकसंज्ञाश्च यशोमतिश्च सुता ॥ २ इतश्च – अस्मिन्नेव सुपर्वणि वंशेऽभूदुसभ इति शुभः । तस्य श्रीरिति जाया तयोः सुता वेलुकेत्यस्ति ॥ ३ तां सालिगोऽनुरूपां परिनिन्ये नयवतीं तयोस्तनयः । शोभनदेवो गुरुदेवचरणयुगकमलकलहंसः ॥ ४ स जनन्याः श्रेयोऽर्थ श्रेष्ठमतिः शतकचूर्णि-टिप्पनके । लेषयति स्म ततोऽदान्महिमागणिनीपठनहेतोः ॥ ५ भूमिर्नभः सुमेरुः सवितृशशिनौ चराचरासुभृतः । यावदिह संति लोके तावदियं पुस्तिका नन्द्यात् ॥ ६ 20 25 * पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते । ताडपत्रात्मिका पुस्तिकेयं पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [२२] श्रीमालवंशीय श्रे० देवधर-लेखित [हेमचन्द्रीय] योगशास्त्रवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १२५१ विक्रमाब्द] ग्रन्थश्लोक १२००१-संपूर्ण योगशास्त्रविवरणमिति । मंगलं महाश्रीः । भृङ्गीणामिव पक्षपातललितैर्लीलागृहं सुश्रियां, सुच्छायो विततोऽतिविस्मयकरः श्रीमालवंशोऽस्त्यसौ। 5 उद्यत्पर्वमनोहरे क्षितिधरप्राप्तप्रतिष्ठोदये, यत्र च्छत्रपरम्परा ननु परा दृश्यन्त एवानिशम् ॥ १॥ आसीद्वंशे वरगुणगणे तत्र मुक्तानुकारी, कांत्युल्लासैनिरुपमतमः साधुवृत्तानुसारी। शुद्धध्यानोपचितसुकृतो देवपूजादिनिष्ठः, श्रेष्ठी श्रेष्ठः सुनयविनयैः सामदेवो गरिष्ठः ॥२॥ पासिलाख्यः सुतस्तस्मादत्यद्भुतसुवैभवात् । सुमनोवर्गमुख्योऽभूजयन्त इव वासवात् ॥ ३ ॥ अगण्यपुण्यलावण्या तस्य पूनाविनामिका । सीतेव रामचंद्रस्य जाता पत्नी पतिव्रता ॥ ४ ॥ तौ सर्वदेव-साभाख्यौ तत्कुलव्योममण्डनं । जज्ञाते ज्ञातमाहात्म्यौ चन्द्रार्काविव विश्रुतौ ॥५॥ एतयोः सोहिणी मी भमकंदर्पशासना । जिनशासनधरा जज्ञे सज्ज्ञानांभोजदीर्घिका ॥ ६॥ श्रेष्ठिनः सर्वदेवस्य पार्श्वनागसुतोऽजनि । लक्ष्मीकुक्षिभवा शान्ता तस्य त्वामिणिरात्मजा ॥ ७ ॥ जाते सधर्मचारिण्यौ धर्मकर्मातिकर्मठे । साभाकस्य सदा भक्ते वीरी-चयजसंज्ञिते ॥ ८॥ वीरीकायाः सुते जाते जातिलाध्ये शमान्विते । शीता-जास्यौ जिनाधीशधर्माराधनतत्परे ॥ ९॥ 15 सत्पुत्रस्तत्र सीताया आसदेवाभिधोऽभवत् । ततो भूतौ सुतावाभू-शोभनदेवनामकौ ॥ १०॥ अभूतां नंदनौ जास्यास्तु वूटडि-यशोधरौ । जिंदा-यशकुमाराख्यौ बभूवतुस्तयोः सुतौ ॥ ११ ॥ वयजाख्या तु तत्पनी पंचासूत सुतोत्तमान् । कुंतीव पांडवान् पांडुयशःशुभितभूतलान् ॥ १२ ॥ तेषामाम्रप्रसादाख्य आयो देवधरस्ततः । रामदेवस्ततश्चांडूत्यशोधवलसंज्ञितौ ॥ १३ ॥ पंचाप्यद्भुतधर्मकर्मनिरताः पंचापि पुण्यांचिताः, पंचाप्युप्रभवप्रपञ्चविमुखाः पञ्चापि सत्यप्रियाः। 20 एते पञ्चमहाव्रतेकरुचयः पञ्चापि शुद्धाशयाः, प्रापुः पञ्चजनौघमौलितिलकाः पञ्चापि कीर्ति पराम् ॥ १४ ॥ अभूदानप्रसादस्य सज्जनी वरगेहिनी । ज्ञानविज्ञानयोः पात्रं तनूजः सोहडस्तयोः ॥ १५ ॥ जाया देवधरस्यासीत् श्रेष्ठिनः श्रेष्ठतानिधेः । सांतूकायाः सुता माहूः शमकैरवकौमुदी ॥ १६ ॥ आभडो नरसिंहश्च जज्ञिरे सूनवस्तयोः । जगद्देवाख्य-लाखाक-चाहडाः श्रुतशालिनः ॥ १७ ॥ आधा प्रियमतिनामा संजाता तदनु कुमारदेवीति। लघ्वी त्वविहवदेवी वधूटिका तस्य विनययुता ॥१८॥25 भार्याभद्रामदेवस्य पदमी नंदनास्त्वमी । शंबो वयरसिंहश्च पुण्यश्च जयतूः सुता ॥ १९ ॥ अन्यच्च- येन जिग्ये जगहेवगुरुभक्ताखिलं भृशं । जगद्देवस्य तस्यासीदैवाद् ग्लानिकारणम् ॥ २० ॥ इतश्चतुर्भिः संबंधःज्ञात्वा येन लघीयसापि सहसा खस्यांतकालं क्षणा-दानाय्य वतिनः स्वयं तदखिलं कृत्वात्यकृत्यं स्फुटं। त्यक्त्वा नेहमशेषमात्मवदनेनोचार्य धर्मव्ययं, जिग्ये मोहमहामहीपतिरपि प्राज्यप्रभावोऽप्यसौ ॥ २१॥ 30 * एतत्प्रशस्तिसमलकृतं ताडपत्रमयं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् रिपोर्ट पुस्तक ३, पृ०७४. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । आबाल्यादपि येन पूर्णविधिना भक्त्यार्चितः श्रीजिन-स्तात्पर्यादतिसेविताः सुगुरवोऽभ्यस्तं च शास्त्रं परम् । आत्मीयैर्विनयादिभिर्वरगुणैराचंद्रकालं कलौ, चंद्रांशूज्वलकांतकीर्तिरतुला खल्पैदिनैरर्जिता ॥ २२ ॥ योगशास्त्रवृत्तेर्देवधरेणात्मपुत्रसहितेन । निस्संगचित्तमुनिवत्सावद्यारंभरहितेन ॥ २३ ॥ साधुजनजनिततोषं निर्दोषं पुस्तकं प्रवरमेतत् । तस्यात्मसुतस्य जगद्देवस्य श्रेयसेऽलेखि ॥ २४ ॥ यदोषैरकलङ्कितं गुणगणैर्युक्तं मनोहारिभिनित्याभ्यासवशेन निर्वृतिकरं दिव्योक्तसाधुक्रियम् । श्रीभूपालकुमारपालसहितं श्रीहेमचन्द्रप्रभोः, कर्मव्याधिविबाधकं विजयतां तद् योगशास्त्रं सदा ॥ २५ ॥ सूर्याचन्द्रमसोर्यावद् द्योतयन्ते भुवं रुचः । अश्रान्तं पुस्तकं तावत् कोविदैर्वाच्यतामिदम् ॥२६॥ 10 स्वस्ति श्रीविक्रमनृपतः संवत् १२५१ वर्षे कार्तिकसुदि १२ शुक्र रेवती नक्षत्रे सिद्धयोगे महाराजश्रीभीमदेवविजयिराज्ये अवनिवनिताप्रशस्तकस्तूरिकातिलकायमानलाटदेशालंकारिणि सकलजनमनोहारिणि विविधधार्मिकविराजमानदर्भवतीस्थाने श्रीमालवंशीय श्रे० साभानंदनेन जगदानंदनेन निर्मलतमसम्यक्त्वधरेण श्रे० देवधरेण सकलधर्मकर्मावहितेन ठ० आमड-नरसिंहादिसुतसहितेन निजपुत्र जगद्देवश्रेयोनिमित्तं श्रीवटपद्रकपुरप्रसिद्धप्रबुद्ध पं० केशवसुत पं० वोसरिहस्तेनाशेषविशेषज्ञानवतश्चमत्का15 रकारीदमप्रतिमप्रतापश्रीजिनशासनप्रभावकश्रीकुमारपालभूपालविधापितस्य श्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितस्य योगशास्त्रवृत्तिपुस्तकं लिखितमिति ।। ॥ मंगलं महाश्रीः। शुभं भवतु लेखकपाठक-वाचकानामिति ॥ [२३] प्राग्वाटवंशीय-नाऊश्राविका-लेखित-जयन्तीवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । 20 [लेखनकाल १२९१ विक्रमाब्द] दिव्यश्रीसदनं सदा क्षितिधराधारः सुपात्रास्पदं, क्षोणीमंडलमंडनं सुविदितः प्राग्वाटवंशोऽस्ति सः । यत्र च्छत्रपरंपरावति तते संप्राप्य पर्वस्थिति, जायतेऽद्भुतमत्र वांछितफलैः सौहित्यभाजो जनाः ॥१॥ मुक्तावत्तत्र वंशे समजनि विदितो धाहडः श्रेष्ठिवर्यः, सद्वृत्तः कांतकांतिः प्रवरगुणगणः प्रास्तनिःशेषदोषः । आनंदाधायिमूर्तिस्त्रिभुवनभवनोत्संगरंगत्सुकीर्तिः, स्फूर्जत्पुण्यप्रवाहोद्भववशविलसत्प्राभवत्स्फूर्तिमूर्तिः ॥ २ ॥ 25 नयविनयविततिविटपितसितांशुसितकीर्तिधवलितदशाशः । पुण्याचारपवित्रस्तत्पुत्रो धवलनामासीत् ॥ ३॥ अजनीह मरुसंज्ञा मरुस्थली पापपंकजवनस्य । तस्य प्रवरा जाया विशुद्धशीला विगतमाया ॥ ४ ॥ तत्पुत्री ठकुराणी समभवदसमक्षांतिविस्तीर्णशीला, नाऊनामा शशांकद्युतिधवलितगुणैः साधुशस्यैर्विशाला । धर्मानुष्ठाननिष्ठा विधिवशविकसत्कीर्तिसंभारसारा, प्राज्यस्फूर्जद्विवेकप्रतिहतविततोद्दामदुर्वारमारा ॥५॥ . इतश्च30 संजातोऽत्रैव वंशे निरुपममहिमा भाग्यसौभाग्यभूमिः, श्रीपालष्ठकुराठ्यः प्रथितशुचियशाः पालितप्राग्र्यनीतिः । दिव्यश्रीकेलिगेहं समजनि परमं मंडनं धाम लक्ष्म्याः , श्रीदेवी तस्य पत्नी विकृतिकलुषतालोलतानां सपत्नी ॥ ६॥ * एतत्प्रशस्तिसमन्वितं ताडपत्रमयं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिररक्षितभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् रीपोर्ट Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । यो सुतः शोभनदेवनामा मुख्यो यशोदेव इति द्वितीयः । जातोऽभिजातो नृपमान्यतादिगुणैरशेषैर्भुवि सुप्रसिद्धः ॥ ७ ॥ तत्र शोभनदेवस्य ठकुरस्य गृहद्वयम् । सुहव महणूसंज्ञं सोडूनामा सुता पुनः ॥ ८ ॥ नाककायाः पाणिग्रहणं कृतवानसौ यशोदेवः । तत्रातिरत्नभूतेति रत्नदेवीति विदितेयम् ॥ ९ ॥ या शीतेब कलौ कलंकविकलप्रोल्लासिशीलोज्ज्वल, धर्मानुष्ठितिनिष्ठया त्रिभुवने प्राप्तप्रतिष्ठा हि या । लब्धागण्यवरेण्यपुण्यनिवहा या चैत्यकृत्यादिभि - ग्लनास्थानपुरा दिधार्मिकसभा प्रख्यातनामा च या ॥ १० ॥ ज्ञानं मोहमहांधकारदलने रत्नप्रदीपायते, ज्ञानं दुर्गति दुर्गकूपपतने हस्तावलंबायते । गंभीरे भगवारिधौ भवभृतां ज्ञानं सुपोतायते, ज्ञानं कामितवस्तुलाभविषये सत्कामधेनूयते ॥ ११ ॥ इत्येवं शुभदेशनां बहुविधां श्रुत्वा गुरूणां मुखा देषा दोषपराङ्मुखी जिनमते रक्ता विरक्ता भवे । सप्तक्षेत्रन्रिजार्श्वबीजवपनासक्ता विशेषात्पुन- नीनापुस्तक लेखने कृतमतिर्नारिह श्राविका ॥ १२ ॥ इतश्चतुर्भिः संबंधः श्रीशीलगणसूरीशपूज्यपट्टप्रतिष्ठितैः । बाल्यादपि महापुण्यश्रेण्या नित्यमधिष्ठितैः ॥ १३ ॥ श्रीमानतुंग सूरिभिराराध्यैस्तत्र यज्जयंत्याख्यम् । प्रकरणमकारि शुभदं भगवत्यंगान्मनोहारि ॥ १४ ॥ तस्योपरि गुरुभक्त्या विदधे सुधिया मनोरमा वृत्तिः । श्रीमलयप्रभसूरिभिरिह या पूज्यैः प्रसन्नतमैः ॥ १५ ॥ तामिह सा नाऊका ज्ञानाराधनधिया सुगुरुभक्त्या । लेखितवती गुणवती महासती शुद्धशुभभावा ॥ १६ ॥ 15 यावच्चारुमरीचिसंचयचिते चंद्रार्कयोर्मंडले, राजेते गगनश्रिये मणिमये दिव्ये चलत्कुंडले । [ २४ ] गुर्जरश्रीमालवंशीय-आंबड- पाल्हण भ्रातृद्वयलेखित [ वर्द्धमानाचार्यकृत ] ऋषभदेव चरित्र पुस्तकप्रशस्तिः * । २५ ताराश्रेणिरियं पुनः सुकुसुमालंकार शोभावहा, तावत्पुस्तकमेतदद्भुततमं व्याख्यायतां सूरिभिः ॥ १७ ॥ स्वस्ति श्रीविक्रमनरेंद्रसंवत् १२६१ वर्षे अश्विनवदि ७ रवौ पुष्यनक्षत्रे शुभयोगे श्रीमदणहिलपाटके माहाराजाधिराजश्री भीमदेव कल्याणविजयराज्ये प्रवर्त्तमाने श्रीप्राग्वाटज्ञातीयश्रेष्ठिधवल-मरूपुत्र्या ठ० नाऊश्राविकया यात्ममेजन इंडितजालहस्तेन संकुशिकाने जयंती तदेवसूरीणां निजभक्त्या समर्पितमिति ॥ शुभं भवते ॥ मंगळ्सन्त ॥ संपर्क नहीशीः ॥ बेखमित्वा श्रीअजि- 20 हृद्यप्रोद्यदखर्वपर्वसुभगः सच्छाययाऽलंकृतः, सद्वृतोज्ज्वलमत्य मौक्तिकमणिर्भूभृत्प्रतिष्ठोन्नतः । प्रेंखत्पत्रपरिष्कृतः परिलसच्छाखावृतो गुर्जरः, श्रीमालाभिध इत्युदारचरितः ख्यातोऽस्ति वंशः क्षितौ ॥ १ ॥ * ताडैपन्नात्मकं पुस्तकमिदं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम् - पिटर्सन् रिपोर्ट पुस्तक ५, पृ० ८१ ४ जै० पु० [ लेखनकाल १२८९ विक्रमाब्द ] संवत् १२८९ वर्षे माघवदि ६ भीमावचेह श्रीप्रल्हादनपुरे समस्त राजावली समलंकृतमहाराजाधिरा श्री सोमसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये श्रीऋषभदेवचरित्रं पंडि० धनचंद्रेण लिखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीरिति भद्रम् ॥ 5 10 25 30 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 तेषां जविष्ठोऽजनि भांडशाली ख्यातो गुणैर्लोलकनामधेयः । श्रीमज्जिनाज्ञाकरणप्रतिज्ञाविभूषणं वक्षसि यस्य जज्ञे ||५|| शुद्धात्माऽजनि भांडशालिकयशश्चन्द्राभिधानोऽपरः, श्रीमद्देवगुरुप्रयोजनविधौ बद्धादरोऽनारतं । येनौदार्यगुणैरनर्गलतरैरावर्य विश्राणिता, पात्रेषु स्थिरता प्रवर्तनकृते लक्ष्मीर्मनः खीच्छया ॥ ६ ॥ ततोऽभवद्देवकुमारनामा सुतो गुणैर्देवकुमारमूर्त्तिः । प्रवर्त्तयन्निः कपटं जिनानां वर्यां सपर्यामवदातचित्तः ॥ ७ ॥ लोलाकस्याभवद्भांडशालिनो भांडशालिनी । लक्ष्मीरित्यभिधानेन जिनपूजापरायण ॥ ८ ॥ भांडशालिनो द्वौ पुत्रौ लोलाकस्य बभूवतुः । धंधूकाभिधः प्रथमः श्रीमदाद्यजिनार्चकः ॥ ९ ॥ वाहिनी गेहिनी तस्य बभूव प्रियवादिनी । यशोवीरस्तयोः पुत्रः सुशीला सिंधुका सुता ॥ १० ॥ धर्मोच्छृंखलभांडशालिकयशश्चंद्रस्य दानप्रिया, नित्यौचित्यविनीततार्जवगुणालंकारशृंगारिता । वर्यौदार्यगुणैर्विवेकविशदैर्दूरं यया रंजिता, आत्मन्यप्रतिमप्रमोदपरतां नीताः समस्ता जनाः ॥ ११ ॥ सा जज्ञे गेहिनी नाम्ना जिंदिका भांडशालिनी । सुकृतोपार्जिका श्रीमद्देवसद्गुरुपूजया ॥ १२ ॥ यशश्चंद्रस्य जज्ञाते द्वेऽपत्ये भांडशालिनः । खगृहश्रियः सीमंतमौक्तिकतिलकोपमे ॥ १३ ॥ आद्या पुत्री समजनि वरा राजिका नामधेया, मंदाकिन्युल्लसितलहरीशी लसं भूषितांगी । यस्या अंतःकरणमृदुतासंगतं जंतुजातं, लक्ष्मीः साक्षादिव निजगृहे जंगमा याऽवतीर्णा ॥ १४ ॥ ठकुरशोभनदेवस्तामथो परणीतवान् । संतोषभूषिता जाता संतोषाख्या तयोः सुता ॥ १५ ॥ श्रीसर्वज्ञपदांबुजार्चनरतिः संप्राप्तपुण्योन्नतिः, किंचिन्मीलितमालतीदलभरखच्छेऽतिशीले मतिः । भक्त्यावेशसमुल्लसद्गुरुनतिर्विस्तीर्णदानस्तति-र्निच्छद्मैकतपोविधानवसतिर्यस्या गुणैः संगतिः ॥ १६ ॥ दाक्षिण्योदधिभांडशालिकयशश्चंद्रस्य पुत्रोऽपरो, धर्मोद्दामनरायणी रिह यशःपालाभिधः शुद्धधीः । पण्यस्यापि न केवलैव महती भांडस्य शाला कृता, श्रीआद्यं वरिवस्यतां जिनपतिं येनात्र धर्मस्य च ॥ १७ ॥ भांडशालियशःपालस्याभवज्जय देविका । औदार्यशीलप्रमुखैः प्रेयसी श्रेयसी गुणैः ॥ १८ ॥ अभवंस्तयोस्तनूज़ाः सच्चरित्रास्त्रयो गुणैः । आनंददायिनः पित्रोरन्योन्यं प्रीतिशालिनः ॥ १९ ॥ आद्यः सुतः संश्रितधर्म्मकर्मा विवेकवेश्माजनि पार्श्वदेवः । अभ्यर्थन .....भीरुः प्रकल्पित श्रीजिननाथसेवः ॥ २० ॥ अन्यो बभूवांबडनामधेयः कस्याप्यसंपादित चित्तपीडः । खकीयसंतानधराधुरीणः स्ववेश्मलक्ष्मीहृदयै कहारः ॥ २१ ॥ सर्वौचित्याचरणनिपुणः प्रीतिपूर्वोभिलापा 10 15 20 25 २६ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । वंशे तत्र बभूव मौक्तिकसमः सद्वृत्तशैत्याश्रितः ख्यातो लल्लकभांडशालिक इति खच्छखभावान्वितः । चित्रं छिद्रसमुज्झितोऽपि नितरां भूत्वा गुणानां पदं, विश्वप्राणिहृदि व्यधत्त वसतिं यच्छद्मवंध्याशयः ॥ २ ॥ तस्याभूल्ललना नाम्ना लल्लिकाभांडशालिनी । शीलमुक्तावली कंठे यया दधे समुज्ज्वला ॥ ३ ॥ संतस्तयोस्त्रयः पुत्राः पवित्राश्चरितैः शुभैः । अजायंतागारभारोद्धारधुर्यत्वविश्रुताः ॥ ४ ॥ 30 ........... तातयीकस्तदनु तनुजः पाह्रणाख्यो बभूव ॥ २२ ॥ पार्श्वदेवस्य संजज्ञे पद्मश्रीनामिका प्रिया । यस्याः पतिव्रतात्वेन स्वकुलं निर्मलीकृतम् ॥ २३ ॥ अथांबडस्योचितकृत्यदक्षा मंदोदरी नाम बभूव पत्नी । स्फुरद्विवेक ज्वलसारहारा खमंदिरे मूर्तिमतीव लक्ष्मीः ॥ २४ ॥ हरेरिव भुजदंडाश्चत्वारस्तनयास्तयोः । अजायंत सदाचारगृह भारधुरंधराः ॥ २५ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । प्रथमोऽजनिष्ट तेषां पार्श्वकुमाराभिधो गुणैः प्रथमः । विनयद्रुमालवालः पित्राज्ञापालनप्रवणः ॥ २६ ॥ बभूव प्रेयसी तस्य पृथ्वीदेवीति नामतः । विनीतविनया नित्यमौचित्यप्रियकारिणी ॥ २७ ॥ तदनु तनयो द्वितीयः समजनि धनसिंहनामको विनयी । निर्मलकलाकलापस्त्रैणक्रीडादिरभिरामः ॥ २८॥ नाम्ना धांधलदेवीति संजज्ञे तस्य गोहनी । पुष्ट्या वार्जितश्लाघा श्लाघ्यकाभिरंजिका ॥ २९ ॥ ततस्तृतीयोऽजनि रत्नसिंहः संतापकारिव्यसनेमसिंहः । दूरं परित्यक्तविरुद्धसंगः श्रीमजिनेंद्रक्रमपद्मभृगः ॥ ३०॥ तस्याजनिष्ट दयिता नाना राजलदेविका । पेथुकाख्या तयोः पुत्री समस्तानंददायिनी ॥ ३१ ॥ अनन्यसौजन्यजनानुकीर्णो विवेकलीलोज्ज्वलचित्तवृत्तिः । सार्वत्रिकौचित्यनिधिप्रवीणो जज्ञे जगत्सिंहसुतश्चतुर्थः ॥ ३२ ॥ पत्नी जाल्हणदेवीति नाम्ना तस्य समजनि । कुत्राप्यनुत्सेकवती प्रदानविनयान्विता ॥ ३३ ॥ सोलुकाख्या ततः पुत्री बभूव प्रियवादिनी । यस्याः शीलजलैः शुद्धैः पुण्यवल्ली प्रवर्द्धिता ॥ ३४ ॥ 10 पत्नी ततोऽजायत पाल्हणस्य माणिक्यमालास्फुरदंशुशीला । जिनोपदेशश्रुतिकर्णसारा कृपाप्रपा माणिकिनामधेया ॥ ३५ ॥ समजनि तयोस्तनूजो वरणिगनामा समस्तगुणपात्रम् । निखिलसुकुलैकधुराधुरंधरः स्मितमधुरभाषी ॥ ३६॥ बभूव प्रेयसी तस्य धनदेवीति विश्रुता । दाक्षिण्योज्ज्वलशीलेन सर्वेषां मोददायिनी ॥ ३७॥ अजायत ततस्तिस्रः शीलालंकरणाः सुताः । कर्पूरदेवी-भोपलदेव्यो वील्हणदेव्यपि ॥ ३८॥ 15 अभूदेवकुमारस्य प्रेयसी छडिकाभिधा । पतिव्रता समाचारचातुर्यार्जितसद्यशाः ॥ ३९॥ कुमारपालसुतोऽभूत् पितुराज्ञोद्यतस्तयोः । जिनशासनानुरागी विरागी दोषवस्तुषु ॥ ४० ॥ विवेकरविरन्येद्युः स्फुरति स्मातिनिर्मलः । संतोषाय मानसादेर्विद्राविततमस्ततिः ॥ ४१ ॥ घातत्रस्ततुरंगमांगतरलाः संपत्तयोत्यूर्जिताः, लुभ्यल्लुब्धकबिभ्यदर्भकमृगीचंचलं यौवनम् । चंचप्रेमतडिल्लताधुतिचलं चैतत्तथा जीवितं, मत्वैवं जिनधर्मकर्मणि मतिः कार्या नरैः शाश्वते ॥ ४२ ॥ सोऽनंतसुखनिदानो धर्मोऽपि ज्ञायते श्रुतात् । श्रुतं च पुस्तकाधीनं तत्कार्यः पुस्तकोद्यमः ॥ ४३ ॥. पुस्तकं लेखयामास खसुः श्रेयोर्थमांबडः। संतोषनाम्न्याः स्नेहेन पाल्हणभ्रातृसंयुतः ॥ ४४ ॥ प्रोद्यन् यावदसौ बिभर्ति तपनः प्राचीपुरंधीमुखे, कांतिव्यक्तदिशं सुवर्णतिलकश्रीसंनिभं विभ्रमम् । श्रीनामेयजिनस्य चारु चरितं तावत्कथाश्चर्यक-नन्द्यादत्र विचार्यमाणमनघप्रज्ञैः सदा सौविदैः ॥ ४५॥ [२५] 25 धर्कटवंशजात-निर्मलमतिगणिनी-लेखित-योगशास्त्रवृत्तिपुस्तिकाप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १२९२ विक्रमाब्द] भासीचंद्रकुलांबरैकतरणिः श्रीमानदेवाभिध-स्तद्वंशे प्रभुमानतुंगगणभृत् प्राज्यप्रभावः प्रभुः । तत्राजायत बुद्धिसागरगुरुः प्रद्युम्नसूरिस्तत-स्तच्छिष्योऽजनि देवचंद्रगणभृद् गच्छाग्रणीर्विश्रुतः ॥ १ ॥ श्रीदेवचंद्रस्य मुनीश्वरस्य जातौ सुशिष्यौ जगति प्रशिष्यौ।। श्रीमानदेवः प्रथमो गणेशः श्रीपूर्णचंद्रो गणभृत्तथान्यः ॥ २ ॥ 20 30 * एतत्त्रशस्तिसहितं ताडपत्रात्मकं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरभाण्डागारे विद्यते । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। यः सैद्धांतिकमौलिभूषणमणिर्विद्वज्जनाग्रेसरः, संतोषोत्तमरत्नरंजिततनुः श्रीमानदेव प्रभुः । यच्चेतः कलयापि नो विलिखितं सल्लापलीलावती-वेल्लल्लोचनचारुवीक्षितस(श)रश्रेणीभिरात्मोद्भवः ॥३॥ श्रीपूर्णचंद्रसूरेौदिगोधूदनाशिनी । ब्रह्मनिनोऽपि सोऽव्याद्वो यासूत परमं वृषम् ॥ ४ ॥ श्रीमानदेवसूरेः पट्टेऽजनि मानतुंगसूरिगुरुः । विधिरिव भवांतकारी नरकद्वेषी स विष्णुरिव ॥ ५॥ अन्यच्च-धर्कटवंशसुधानिधिचंद्रः श्रेष्ठी गणियाको निस्तंद्रः ।। तस्य गुणश्रीः समजनि जाया दक्षसुतेव सदैव विमाया ॥ ६॥ तस्यांगजैका सुमहत्तरायाः प्रभावतीसंज्ञमहत्तरायाः। पार्थेऽगृहीत् पंचमहाव्रतानि प्रद्युम्नसूरेः सुगुरोः करेण ॥ ७॥ जगश्रीरुदयश्री-श्रीचारित्रश्रीमहत्तराः । क्रमेण तासां सर्वासां पादपद्ममधुव्रता ॥ ८॥ 10 सा निर्मलमतिगणिनी रम्यां श्रीयोगशास्त्रसद्वृत्तेः । द्वैतप्रकाशखंडस्य पुस्तिका लेखयामास ॥ ९॥ श्रीमानतुंगसूरेः पट्टस्थितपद्मदेवसूरीणाम् । तां प्रवचनरसपात्रां प्रददौ पुण्याय पुण्यतराम् ॥ १० ॥ संवत् १२९२ वर्षे कार्तिक शुदि ८ रवौ धनिष्ठानक्षत्रे योगशास्त्रवृत्तिद्वितीयप्रकाशस्य लिखितेति ॥ शुभं भवतु ॥ [२६] 15 दीशापालान्वय-श्रे०वीरलेखित-ज्ञाताधर्मकथादिषडङ्गीवृत्तिपुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १२९५ विक्रमाब्द] सम्वत् १२९५ वर्षे चैत्रसुदि २ मङ्गलदिनेऽयेह श्रीमदनहिल्लपाटके महाराजश्री भीमदेवविजय कल्याणराज्ये ज्ञाताधर्मकथाङ्गप्रभृति षडङ्गी सूत्रवृत्तिपुस्तकं लिखितम् ॥ .. अस्ति विस्तारवानुामच्युतश्रीसमाश्रमः । नदीनसत्त्वसम्पूर्णो दीशापालान्वयार्णवः ॥ १॥ 20 तस्मिन् देउकनामा त्रासविहीनोऽभवत्पुरुषरनं । विजयमतिरस्य पत्नी बभूव धर्मैकनित्यमतिः ॥ २॥ . तयोरभूतां तनयौ नयान्वितौ निजान्वयव्योममृगाकभास्करौ । सोल्लाक-चील्लाक इति प्रसिद्धौ प्रादूश्च पुत्री धनपालमाता ॥ ३ ॥ सोल्लाकस्याभवत्पनी मोहिणीति तयोः सुतः । महणाख इति ख्यातः सम्यक्त्वे निश्चलाशयः ॥ ४ ॥ वील्हाकसत्का दयिता दयाह्या सोषू: सदाचार विचारचारुः । सञ्चित्यसंसारमसारमेषा धर्मार्थमर्थव्ययमाततान॥५॥ 25 पुरुषर्था इव भूताश्चत्वारो नन्दनास्तयोर्जाताः । कर्तुमिव तुल्यकालं जिनोक्तधर्म चतुर्भेदम् ॥ ६॥ प्रथमस्तत्र जयन्तो वीराख्यस्तदनु तदनु तिहुणाः । जाल्हणनामा तुर्यः पञ्चत्वं प्राप तत्राद्यः ॥७॥ वीरस्ततोऽन्यदाऽश्रौषीत् शोकशङ्कुविनाशकं । श्रीजगचन्द्रसूरीणां वचः सर्वज्ञभाषितम् ॥ ८॥ तद्यथा - चला समृद्धिः, क्षणिकं शरीरं; बन्धुप्रबन्धोऽपि निजायुबद्धः । भवान्तरे संश्चलितस्य जन्तो-न कोऽपि धर्मादपरः सहायः ॥९॥ कुबोधरुद्धे भुवने न बुध्यते, स्फुटं जिनेन्द्रागममन्तरेण । कलौ भवेत्सोऽपि न पुस्तकं विना, विधीयते पुस्तकलेखनं ततः ॥ १०॥ * ताडपत्रात्मकं एतत्पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । खातुः श्रेयसेऽलेखि ततस्तेन सबन्धुना । ज्ञाताधर्मकथाजादिषडङ्गी वृत्तिसंयुता ॥ ११॥ जंघरालाभिधस्थाने युगादिजिनमन्दिरे । सङ्घस्य पुरतो व्याख्यातैषा देवेन्द्रसूरिभिः ॥ १२ ॥ -सं० १२९७ वर्षे व्याख्यातमिति ॥ [२७] पल्लिपालवंशीय श्रेष्ठिलाखण-लेखित-समरादित्यचरित-पुस्तकप्रशस्तिः। 5 [लेखनकाल १२९९ विक्रमाब्द] वंशः श्रीपल्लिपालोऽस्ति सशाखः सत्पर्ववान् । भूभृतोऽप्यधरीचक्रे येनैकच्छत्रितात्मना ॥१॥ अजनि विनयपात्रं तत्र पुंरत्नचूडा-मणिरमलिनकीर्तिः साढदेवाभिधानः । निरुपमजिनराजस्मेरपादारविंदा-ऽविचलविहितसेवावाप्तविश्वप्रतिष्ठः ॥ २ ॥ शीलवतदृढा सासंज्ञिता तस्य वल्लभा । जिनक्रमयुगांभोजे यन्मनो हंसकायते ॥ ३ ॥ 10 भ्राताऽभूत् साढदेवस्य दोसलः सत्यशालिनः । पदमीनामधेयाथ प्रिया तस्य विवेकिनी ॥ ४ ॥ आसीत् श्रेष्ठिकसाढदेवतनुभूर्जाजाकनामा जिन-श्रेणिध्याननिशाणशोणितमतिप्राकाश्यनश्यत्तमाः। शश्वद्यस्य यशःप्रसूनमसमं राकानिशानायक-ज्योतिःक्षालितनिर्मलांबरतलामोदाय यजातवान् ॥ ५ ॥ जाया तस्य जयत्तुका समभवदीनानुकंपारसा-ऽऽसारासिक्तविवेककंदलवनप्रस्तारबद्धादरा । नित्यध्यातजिनेश्वरांघ्रिनखरुग्ध्वस्तांधकारांकुरो, यस्याश्चित्तगृहोदरे प्रतिपदं धर्मः सुखं खेलति ॥६॥ पुत्रो लाषणसंज्ञितोऽजनि तयोः पुण्यैकपात्रं कृती, नीतिज्ञो विनयी नयी सुकुलजो दक्षः क्षमादक्षिणः । येनोतुंगनिजावयाइयमहाप्रासादमूर्ध्नि स्फुटं, दिग्विस्तारियशःसुकेतनपटः प्रस्तारयामासिवान् ॥ ७॥ जाजाकस्साभब्रह्माता जसपालाभिधः सुधीः । संतुकासंज्ञिता तस्य दयिता दानशालिनी ॥८॥ जातौ तयोः सुतौ रन-धनसिंहाभिधावसी । भगिनी नाउका नामी बभूवानायभूषणं ॥९॥ जायाऽजायत लाषणस्य कुलजा दानोद्यता रुक्मिणी, नाम्ना दीनसुवच्छलाऽवयविनी पुण्ये दिरा मंदिरे । 20 यस्या मानसपंकजं त्यजति नो पक्षद्वयीनिर्मलो, धर्मो हंसयुवा युतो वरलया तीर्थेशभक्त्याख्यया ॥ १० ॥ नरूपतिरिति नामा लाषणस्यांगजन्मा, तदनु भुवनपालाख्यो यशोदेवसंज्ञः । क्रमश इह तनूजा जज्ञिरे तस्य तीर्था-ऽधिपतिसुगुरुपूजालब्धलक्ष्मीविकाशाः ॥ ११ ॥ जाल्हणदेवीति सुता जासीनामा तथापरा पुत्री । सद्धर्मकर्मनिपुणा क्रमादिमा दुहितरोऽभूवन् ॥ १२ ॥ आसीत्कुलीनचरिता नायिकदेवीति नरपतेर्दयिता । अपरा च गौरदेवी तनुभूः सामंतसिंहाख्यः ॥१३॥ 25 प्रिया भुवनपालस्य पउंदेवीति संज्ञिता । बभूव भाग्यभूः शीलरत्नरत्नाकरावनिः ॥ १४ ॥ यशोर्णवस्य पत्नी सोहरासंज्ञा पतिव्रता जज्ञे । तस्याः समभवत्पुत्रः सांगणनामा स्फुरद्धामा ॥ १५ ॥ मातुस्तातो राजपालाभिधानो, मातुर्माता यस्य राणीति नाम्नी। ___ मातुर्माता राणिगो बूटडिश्च, मातुः पक्षो लाषणस्येत्थमुक्तः ॥ ६ ॥ श्रीमजिनेशप्रभुहस्तपद्मा-धिवासतो लाषणनामधेयः । तीर्थेशयात्रादिककर्मनिर्मलः, कुलप्रदीपः सुजनोपकारी ॥१७॥ 30 अथान्यदा लाषण एष हृष्टः, सुदृष्टशास्त्रार्थविनीतचेष्टः । भवखरूपं क्षणदृष्टनष्टं, विभावयामास निशावसाने ॥१८॥ 15 * एतत्प्रेशस्तिसमन्वितं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिर-भाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम् , पिटर्सन रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ० ११८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । प्रातः प्रयातः सुगुरोः समीपे, तदेव तत्रैव तथा निशम्य । ततः प्रबोधार्कसुदृष्टवस्तुना, समाधिना ध्यायति सर्वमप्यदः ॥ १९॥ तथाहिदेहं दुःखैकगेहं जलनिधिलहरीचंचलं जीवितव्यं, संपत्तिः प्राणभाजां प्रसृमरपवनोद्धृतकेतूपमेया । 5 सौंदर्य सुश्रुनेत्रांचललुलितसमं बंधुसंगोऽप्यनित्यो, जैन धर्म विनान्यन्नहि मनुजभवे शाश्वतं किंचिदस्ति ॥ २० ॥ दानशीलतपोभावभेदैर्धर्मश्चतुर्विधः । मुख्यतो यतयो दानमेवैकं संप्रचक्ष्यते ॥ २१॥ यद्यपि त्रिविधं शास्त्रं तद्दानं ननु विश्रुतम् । तथापि ज्ञानदानान्नो दानमन्यत्प्रशस्यते ॥ २२ ॥ ज्ञानं श्रुताश्रितं प्रोक्तं श्रुतं शास्त्रमिति स्मृतम् । तच्च द्विधा समाख्यातं कल्पिता-चरितक्रमात् ॥ २३ ॥ तदृद्वयोोतितं किंचिच्चरितं सुनिरूपये । इति चिंतयतस्तस्य स्मृतिगोचरतां गतम् ॥ २४ ॥ चरित्रं समरादित्यभूभुजः प्रशमास्पदम् । संसारिजीववैराग्यरसनिस्पंदभाजनं ॥ २५ ॥ द्वेषव्याघ्रहुताशनं शमधुनीपूरार्णवं दुर्णय-ध्वांतध्वंसनभास्करं कलिमलप्रक्षालनैकामृतम् । एतत्सच्चरितं सुचारु समरादित्येशितुः शास्त्रतो, बद्धं श्रीहरिभद्रसूरिगुरुणा संवेगसंगाय नः ॥ २६ ॥ यदिष्टं वस्तु संसारे तदिष्टेषु नियोज्यते । अन्यदिष्टं हि नो दृष्टं मातरं पितरं विना ॥ २७ ॥ इति मातृजयतुकाया निजपितृजाजाह्वयस्य पुण्याय । 15 समरादित्यचरित्रं विलेखितं लाषणेनैतत् ॥ २८॥ येन द्रव्यमुपार्जितं शुभवशादेकांतवीरेण तत् , क्षेत्रे सप्तमिते निवेश्य विहिता सद्वृत्तिरूपा वृतिः । तत्सीग्नि प्रकटो जिनेशसुगुरोरादेशतः शाश्वतो, जैनः श्रीसमरार्कपुस्तकतया घाटः समारोपितः ॥ २९ ॥ नंद-नेव-भानुवर्षे पित्रोः सुकृताय लाषणः कुलजः । समरादित्यचरित्रव्याख्यानं कारयामास ॥ ३०॥ 20 यावन्नालति नागराट् नलिनति क्षोणीतलं दिगतति-यंत्र स्तोमति केसरत्यहिमरुक् किंचांबरं गति । तावत्तत्समराभूपचरितं चैतन्यविस्तारकं, श्रोतृणां समसंपदं वितनुतां व्याख्यायमानं बुधैः ॥ ३१ ॥ नंद-नव-भीनुवर्षे श्रीरत्नप्रभसूरिणा शुभध्यानात् । श्रीस्तंभतीर्थनगरे व्याख्यातं कार्तिके मासि ॥ ३२ ॥ [२८] धर्कटवंशीय-श्रेष्ठिकटुक-लेखित-[ नेमिचन्द्रसूरिकृत ] उत्तराध्ययनसूत्रलघुवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३०८ विक्रमार्क ] सं० १३०८ वर्षे ज्येष्ठ वदि ७ बुधे ॥ नमो जिनागमाय ॥ प्रशस्यधर्मप्रभवः सुपर्वा विशालशाखो वरपत्रशोभः । महीभृतां मौलिषु माननीयः श्रीधर्कटानां प्रथितोऽस्ति वंशः ॥ १ ॥ * एतत्प्रशस्तिसमन्वितं ताडपत्रमयं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ. ८६-८९। 25 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तक प्रशस्तिसङ्ग्रह । साढाकनामा सुविशुद्धमध्यस्यासादिदोषैः परिवर्जितश्च । अजायतास्मिन्कुमुदावदातो सुक्तामणिर्भाखरकान्तिदीप्रः ॥ २ ॥ समुद्र इव गम्भीरः शशाङ्क इव शीतलः । दानवर्षी राज इव साढाकः श्रावकोऽभवत् ॥ ३ ॥ साढाकस्य सुताः पश्च जज्ञिरे पाण्डवा इव । येऽर्थिसंघातजातानां कौरवाणां क्षयं व्यधुः ॥ ४ ॥ सर्वेऽपि धर्मरसिकाः सर्वेऽपि हितभाषिणः । पुमर्थसाधनपराः सर्वे जनहितैषिणः ॥ ५ ॥ आद्य आशाधरस्तेषां प्रमुखो गुणशालिनां । महीधरो द्वितीयस्तु गुणग्रामैकमन्दिरं ॥ ६ ॥ बोल्हानामा समभूतृतीयो हारवद् गुणी । शशाङ्ककाशशङ्काशयशःपूरितभूतलः ॥ ७ ॥ यशोवीरश्चतुर्थोऽभूद्दानेश्वरशिरोमणिः । लोकोत्तरचरित्रोऽभूत्पञ्चमः पाजडस्तथा ॥ ८ ॥ महीधरस्य संजज्ञे सजातोज्ज्वलपुत्रका । गेहिनी देहिनीव श्रीः महाश्रीरिति संज्ञिता ॥ ९ ॥ केल्हणो नाम संजातस्तनयस्सनयस्तथा । सद्गुरुचरणद्वन्द्वस्तमाराधनतत्परः ॥ १० ॥ अजायत प्रिया तस्य कमलश्रीर्महायशा । सत्यापितसुभद्रादिसतीलोका गुणैर्निजेः ॥ ११ ॥ सागरा इव लावण्यकलिताश्चतुराशयाः । अजायन्त सुधर्मिष्ठाश्चत्वारस्तनयास्तयोः ॥ १२ ॥ चन्दनादपि मनोज्ञवागभूदाद्य एष कटुकस्ततः पुनः । रासलः सहजधर्म कर्मठो पेसलस्तु गुणशशिपेशलः ॥१३॥ गाङ्गाकस्तदनु गाङ्गवारिणा सन्निभः शुचितया विचक्षणः । देवपूजनरतो निरन्तरं वासनारसनिवासमानसः ॥ १४ ॥ बल्लभास्तदनु जज्ञिरे क्रमात् शीलभूषण विभूषिताङ्गकाः । भर्तृपादपद्मकदृष्टयो मूर्तिभाज इव सङ्गाताश्रियः ॥ १५ ॥ पल्न्योऽभूवन्कुलोत्पन्ना निःसपत्नाः प्रियम्वदाः । पद्मश्रीश्चेति राज्यश्री- लक्ष्मीश्रीरिति संज्ञिताः ॥ १६ ॥ पद्मश्रियास्त्रयः पुत्राः सञ्जाताः शुद्धबुद्धयः । प्रवाहा इव गङ्गाया जगतीपावनक्षमाः ॥ १७ ॥ प्रथमो मोहनस्तेषां जनमानसमोहनः । द्वितीयो विजयपालो बालोऽपि हि महामतिः ॥ १८ ॥ तृतीय लिंबदेवाख्यो मातुरत्यन्तवल्लभः । सहकारसमाकारो निवासः सम्पदामिव ॥ १९ ॥ आजुका च सुता जाता बाल्यादपि महासती । तपःकर्मणि सर्वस्मिन्निरता विरता भवात् ॥ २० ॥ द्वितीया महणूनाम सञ्जाता तनया तथा । राज्यश्रियाः सुता जाता बनुलूनाम विश्रुता ॥ २१ ॥ श्रिया च तनया जाता गोसली नाम सूपभाक् । प्रतध्माना चन्द्रस्य कलेव विमलाकृतिः ॥ २२१ तथा यशोवीरस्य संताने सुतो नरपतिस्तथा । शिरपालश्च सञ्जातः शांतिगस्तत्सुतोऽभवत् ॥ २३॥ पाजडस्य प्रिया जज्ञे जयश्रीर्नामविश्रुता । तथा सुतद्वयं जातं छाडा - आसलनामकम् ॥ २४ ॥ छाडाकस्य प्रिया यज्ञे लीलीकेति विशालवाक् । आसलस्य तथा जाता जाया आसमतिः शुभा ॥ २५ ॥ 25 15 तस्याः सुतत्रयं जातं आद्यो जगधरस्तथा । द्वितीयः सूरको नाम तृतीयो धीधलः पुनः ॥ २६ ॥ धीलधस्य प्रिया यज्ञे लाबूरिति शुभाशया । * इत्येवमादि सकलं साढाकस्य कुटुम्बकम् ॥ २७ ॥ इतश्च - श्रीमान् सत्त्वगृहं गभीरिमनिधिर्निःशेष भूभूषणैर्व्याकीर्णः शुचिसाधुरलनिकरैः पाठीनपीठान्वितः । संसेव्यः सुमनोभिरक्षयगुणात्ज्ञानामृतोत्कंठितै-र्नन्द्याद्दूरमपारसंवरवरः श्रीचन्द्रगच्छार्णवः ॥ १ ॥ आद्यश्रीनन्न सूरिः समजनि जनिताशेषदोषप्रमोषः, सद्वादींद्वैरजय्यो गुरुरमितयशो वादिसूरिततश्च । सूरिः श्रीसर्वदेवस्तदनु समभवद्वादिवृंदैकवंद्यः, श्रीमान्प्रद्युम्न सूरिः सकलकलिमलक्षालने वारिपूरः ॥ २ ॥ * पिटर्सनस्य ३ रीपोर्ट पुस्तके ( पृ० ८६ ) इयं प्रशस्तिः इत एवारभ्य मुद्रिता लभ्यते । साढाककुटुंबवर्णनात्मकः सर्वोऽप्युपरितनभागः परित्यक्तोऽस्ति । ३१ 5 10 20 30 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । इत्येवमादिप्रमुखेषु सूरिवर्येषु गच्छत्सु कथाऽवशेषम् । भद्रेश्वरः सूरिरजायतास्मिन् मुनीश्वरस्तारितभव्यलोकः ॥ ३ ॥ तच्छिष्योऽप्यथ चंद्रगच्छतिलकः श्रीदेव भद्राभिधः, सूरिर्भूरिगुणालयः सुविहितश्रेणीधुरीणोऽभवत् । अक्लेशेन बभार मारविजयी श्रामण्यभारं पृथग्- भागीकृत्य सुदुर्वहं खवपुषा सैकादशांगेन यः ॥ ४ ॥ 1 श्रीसिद्धसेनसूरिस्तत्पट्टविशेषको जयति यस्य । कलिकोपमानसहिता दशनावलिरेव न तपः श्रीः ॥ ५ ॥ 5 जिग्ये देवगुरुर्येन विद्यया निरवद्यया । आचार्यवर्यः समभूद् यशोदेवगुरुस्ततः ॥ ६ ॥ अदृष्टदोषस्तमसां निहन्ता भव्यारविन्दप्रतिबोधहेतुः । ततो विवखानिवं मानदेवः सूरिर्यशः पूरितदिग्वितानः ॥ ७ ॥ ततोऽभूच्चारुचारित्रचर्यामर्यादयांबुधिः । श्रीमत्रत्नप्रभाचार्यो धुर्यो माधुर्यशालिनाम् ॥ ८ ॥ तत्पादाम्भोजभृङ्गः प्रवरगुणयुतः सर्वसिद्धान्तवेत्ता, ज्ञानादिश्रीनिवासः स्मरकरिदमने सिंहपोतः सतेजाः । मायाद्यैर्दोषजालैः प्रविरहितवपुः शर्करा मिष्टवाक्य- न्यासः श्रेयः शिवश्रीं दिशतु भुवि सदा सूरिदेवप्रभोऽथ ॥ ९ ॥ व्याख्यास्यतस्तस्य गुरोर्मुखाब्जाद्येनागमं संसदि साधुवृत्तः । कुटुंबयुक्तः कटुको महात्मा शुश्राव सिद्धान्तरहस्यमेतत् ॥ १० ॥ चक्रे मुक्तिवधूः स्वहस्तकलिता त्रैलोक्यलक्ष्मीरपि, स्वायत्ता विदधे च दुर्गतिगतिस्तेनैव रुद्धात्मनः । येन खं भुजपंजरार्जितमिदं वित्तं गुरोराज्ञया, सिद्धान्ताद्भुत पुस्तकस्य लिखने साफल्यमारोपितं ॥ ११ ॥ इत्याकर्ण्य वचः सुधाकवचितं वक्त्राम्बुजात्सद्गुरोः साधुः साधितमुक्तिमार्गमतिकः सद्भावनाभावितः । 15 वर्षे सिद्धि-वियंत्कृशानु-विधुभिः संख्याकृते श्रेयसे, पित्रोः सुन्दरमुत्तराध्ययनकं ग्रन्थं मुद्दालीलिखत्॥१२॥ न केवलं पुस्तकमेकमेव विलेखयामास गुरोर्भणित्या । निवेशयामास गुरोः पदे च रत्नाकरं सूरिवरं गुरुं यः ॥ १३ ॥ नक्षत्राक्षतपूरितः 'II मंगलमस्तु । प्रशस्तिरियं कृता लिखिता च श्रीरत्नाकरसूरिभिः । मंगलमस्तु श्री श्रमण संघस्य ॥ ३२ 10 20 [२९] पल्लीवालवंशीय-वरहुडियान्वय-श्रे० लाहड लेखित व्यवहारसूत्रादिपुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल १३०९ विक्रमाब्द ] वरहुडिया साधु० राहडसुत सा० लाहडेन श्रेयोऽर्थं व्यवहार आद्यखंडं लिखापितमिति ॥ ४ ॥ संवत १३०९ वर्षे भाद्रपद सुदि १५ ॥ 25 अस्तीह श्रेष्ठपर्वप्रचयपरिचितः क्ष्माभृदाप्तप्रतिष्ठः, सच्छायश्चारुवर्णः सकलसरलताऽलंकृतः शस्तवृत्तः । पल्लीवालाख्यवंशो जगति सुविदितस्तत्रमुक्तेव साधुः, साधुत्रातप्रणता वरहुडिरिति सख्यातिमान् नेमडोऽभूत् १ तस्योच्चैस्तनया विशुद्धविनयास्तत्रादिमो राहडो, जज्ञेऽतः सहदेव इत्यभिधया लब्ध प्रसिद्धिर्जने । उत्पन्नो जयदेव इत्यवहितखांतः सुधर्मे रतः, तत्राद्यस्य सदा प्रिया प्रियतमा लक्ष्मी तथा नाइकिः ॥ २ ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तानि ताडपत्रमयपुस्तकानि स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थित भाण्डागारे विद्यन्ते । 'संवत् १३०७ वर्षे' लिपिकृते अभयदेवसूरिरचित-ज्ञाताधर्म सूत्रवृत्ति पुस्तकेऽपि एषा प्रशस्तिर्लिखिता लभ्यते । द्रष्टव्यम् - पिटर्सन्, रीपोर्ट पुस्तकं ३, पृ० ६०-६३ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। आद्याया जिनचंद्र इत्यनुदिनं सद्धर्मकर्मोद्यतः, पुत्रश्चाहिणी संज्ञिता सहचरी, तस्य त्वमी सूनवः । ज्येष्ठोऽभूत्किल देवचंद्र इति यो द्रव्यं व्ययित्वा निजं, सत्तीर्थेषु शिवाय संघपतिरित्याख्यां सुधीर्लब्धवान् ॥ ३ ॥ नामंधराख्योऽथ महधराख्योऽतो वीरधवलाभिध-भीमदेवौ । पुत्री तथा धाहिणी नामिकाऽभूत् सर्वेऽपि जैनांग्रिसरोज गाः ॥ ४ ॥ श्रीदेवभद्रगणिपादसरोरुहालेर्भक्त्यानमद् विजयचंद्रमुनीश्वरस्य ।। देवेन्द्रसूरिसुगुरोः पदपद्ममूले तत्रांतिमौ जगृहतुर्यतितां शिवोत्कौ ॥५॥ नाइकेस्तु सुता जातास्तत्र ज्येष्ठो धनेश्वरः । खेतू नाम्नी प्रिया तस्य अरसिंहादयः सुताः ॥ ६ ॥ द्वैतीयीकस्सुसाधुश्रुतवचनसुधास्वादनातृप्तचित्तः, श्रीमज्जैनेन्द्रबिम्बप्रवरजिनगृहप्रोल्लसत्पुस्तकादौ । सप्तक्षेत्र्यां प्रभूतव्ययितनिजधनो लाहडो नामतोऽभूत् , लक्ष्मीश्रीरित्यभिख्या सुचरितसहिता तस्य भार्या सदार्या ॥७॥ अभयकुमाराभिख्यो तृतीयोऽजनि नंदनः । यो दधे मानसं धर्मश्रद्धासंबंधबंधुरं ॥ ८ ॥ धर्मे सहाया सहदेवसाधोः सौभाग्यदेवीति बभूव जाया । पुत्रौ च षेढाभिध-गोसलाख्यौ प्रभावको श्रीजिनशासनस्य ॥ ९॥ किञ्च-यौ कृत्वा गुणसंघकेलिभवनं श्रीसंघमुच्चैस्तरां, श्रीशत्रुञ्जय-रैवतप्रभृतिषु प्रख्याततीर्थेषु च । न्यायोपार्जितमर्थसार्थनिवहं स्वीयं व्ययित्वा भृशं, लेभाते सुचिराय संघपतिरित्याख्यां स्फुटां भूतले ॥१०॥ आधस्य जज्ञे किल षीवदेवी नाना कलत्रं सुविवेकपात्रं ।। 15 तथा सुता जेहड-हेमचन्द्र कुमारपालाभिध-पासदेवाः ॥ ११ ॥ अभवद् गोसलसाधोर्गुणदेवीति वल्लभा । नंदनो हरिचन्द्राख्यो देमतीति च पुत्रिका ॥ १२ ॥ जयदेवस्य तु गृहिणी जाल्हणदेवीति संज्ञिता जज्ञे । पुत्रस्तु वीरदेवो देवकुमारश्च हालूश्च ॥ १३ ॥ शुभशीलशीलनपरा अभवंस्तेषामिमाः सधर्मण्यः । विजयसिरी-देवसिरी-हरसिणिसंज्ञा यथासंख्यं ॥ १४ ॥ एवं कुटुम्बसमुदय उज्ज्वालवृषलिहितवासनाप्रचयः । सुगुरोर्गुणगणासुगुरोः सुश्राव सुदेशनामेवम् ॥ १५॥ 20 दान-शील-तपो-भावभेदाद्धर्मश्चतुर्विधः । श्रवणीयः सदाभव्यैर्मव्यो मोक्षपदपदः ॥ १६ ॥ विषयजसुखमिच्छोर्गेहिनः कास्ति शीलं, करणवशगतस्य स्यात्तपो वापि कीडग् । अनवरतमदप्रारंभिणो भावना किं, तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः ॥ १७ ॥ ज्ञानामयोपग्रहदानभेदात् तच त्रिधा सर्वविदो वदन्ति । तत्रापि निर्वाणपथैकद्वीपं सज्ज्ञानदानं प्रवरं वदन्ति ॥ १८॥ कालानुभावान् मतिमान्यतश्च तच्चाधुना पुस्तकमंतरेण । न स्यादतः पुस्तकलेखनं हि श्राद्धस्य युक्तं नितरां विधातुम् ॥१९॥ 24 इत्याकर्म्य सकर्णः ततश्च निजमुजसमर्जितधनेन । व्यवहाराद्यसुखंडस्य पुस्तकं लेखयामास ॥ २० ॥* यावयोमसरोवरे विलसतो विश्वोपकारेच्छया, सन्नक्षत्रसितांबुजौघकलिते श्रीराजहंसाविह । अज्ञानप्रसरान्धकारविधुरो विश्वे प्रदीपोपम-स्तावन्नंदतु पुस्तकोऽयमनिशं वावच्यमानो शुचिः ॥ २१ ॥ * इयमेव प्रशस्तिः व्यवहारसूत्र द्वितीयखंडपुस्तकप्रान्तेऽपि लिखिता लभ्यते । तत्र, इदं पद्यमेतद्रूपं विद्यते-.. त्याकर्ण्य सकर्णः ततस्खविभवैः सुपुस्तकेऽस्मिन् । सत्पत्रैर्व्यवहारद्वितीयखंडं व्यलीलिखत ॥२०॥ पुनः कल्पसूत्रभाष्यादिसंप्रहपुस्तकस्य-संवत् १३२१ वर्षे लिपिकृतस्य-प्रान्तभागेऽपीयं प्रशस्तिलिखिता दृश्यते । तत्रेदमन्त्यपद्यमीग् पठ्यते इत्याकर्ण्य ततो निजविभवैः श्रीकल्पसूत्रभाष्यस्य । श्रीपंचकल्पचूर्णेश्व पुस्तकं लेखयामास ॥२०॥ (द्रष्टव्यम्, पिटर्सन रीपोर्ट पु. ३, पृ० १८०-१८२) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [३०] प्राग्वाटवंशीय-श्रे० आसपाल-लेखित-विवेकमञ्जरीप्रकरणवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १३२२ विक्रमाब्द] ॐनमः श्रीवीतरागाय ॥ यन्नाममात्रवशतोऽपि शरीरभाजां, नश्यति सामजघटा इव दुष्कृतौघाः । . पादानलांछनमृगेंद्रभुवा भियेव देवः, स वः शिवसुखानि तनोतु वीरः ॥ १॥ विस्तीर्णोऽयं क्षितिरुह इव श्लाघ्यमूलपतिष्ठः, प्राग्वाटाख्यो गरिमगुणवानन्वयोऽस्ति प्रधानः । लक्ष्मीर्यसिन्नवकिसलयश्रेणिशोमां बिभर्ति, ज्योत्स्नाकारा विकचकुसुमस्तोमसाम्यं च कीर्तिः ॥ २॥ आत्यस्तत्रानवद्यश्रीः सीदः श्रीद इवाभवत् । विश्राणनेन यश्चित्रं तत्याज न कुलीनताम् ॥ ३ ॥ वीरदेव्यभिधया शुभशीला तस्य शीलपरिपालनशीला । गेहिनीव कमला विमलाऽभूनेहिनी सुकृतनिर्मलबुद्धेः ॥ ४ ॥ चंद्र इव पूर्णदेवः सुतस्तयोः सुगुणकिरणसंपूर्णः । दोषाश्रितो न चित्रं कलंकितां न भजते यस्तु ॥ ५॥ लोकोपकारकरणाद्विजयाद्यसिंहस्रेरुपास्तिजननाजिनबिंबलप्तः । - पुत्रद्वयव्रतविधापनतश्च चक्रे यः सार्थकं द्रविणमायुरपि खकीयम् ॥ ६ ॥ 15 तस्य च प्रियतमाऽजनि रम्या वाल्हिविः शशिसमुज्वलशीला। वीतरागचरणार्चनचित्ता क्षेत्रसप्तकवितीर्णसुविता ॥७॥ कृत्तोपतापनिधनं विधिनोपधानाभिख्यं तपः शिवसुखाय विधाय धैर्यात् ।। मालाधिरोपणमकारयदात्मनो या द्वेषद्विषो विजयसिंहगुरोः करेण ॥ ८॥ त्रपामणिक्षोणिरसावसूत सूतान्दिगीशास्फुटमष्टसंख्यान् । ये पुण्यकाष्ठाश्रितचेतसोऽपि चित्रं न संक्रन्दनयोगमापुः ॥९॥ भोगिभोगायितभुजस्तंभः कुलगृहं श्रियः । आद्यस्तत्राभिरामश्रीब्रह्मदेवोऽभवत्सुतः ॥ १० ॥ अभिरामगुणग्रामद्रुमारामवसुंधरा । दयिता पोहणिस्तस्य बभूव प्रियसंभवा ॥ ११ ॥ वासनावासितखांतश्चंद्रावत्यां महत्तमे । यश्चैत्ये कारयामास बिंबं वीरजिनेशितुः ॥ १२॥ ... या पद्मदेवसूरेगुरोः कृते शुभमतिः खवित्तेन । चरितं त्रिषष्ठिमध्यादलेखयत्प्रथमतीर्थकृतः ॥ १३ ॥ द्वैतीयीको बोहडिरभवत्तनुजो गुणवजनिकेतम् । एतस्यांबीति कुटुंबिनी च चंचद्गुणकदंबा ॥ १४ ॥ खकीयवंशे भुवनावतंसे ध्वजानकारं दधदंगजन्मा । सद्धर्मनिर्मापणदत्तवितचित्तस्तयोविल्हणसंज्ञ आद्यः ॥ १५॥ 25 सती सतीसंहतीशीर्षरत्नं तस्य प्रिया जैनपदाज गी । बभूव दानादिगुणप्रधाना सन्मानसा रूपिणिनामधेया ॥१६॥ द्वितीय आल्हणश्चाभूभाग्यसौभाग्यजन्मभूः । अनन्यजनसामान्यसौजन्यमणिरोहणः ॥ १७ ॥ जल्हणस्तृतीयसूनुश्चतुर्थो मल्हणाभिधः । समभून्मोहिनी चापि सुता खजनमोहिनी ॥ १८ ॥ जल्हणस्य तृतीयस्य नाऊ जाया शुभाशया । वीरपालो वरदेवो वैरसिंहः सुतास्तयोः ॥ १९ ॥ * ताडपत्रात्मकं पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् , रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ०.१०४-९। 20 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | ३५ बहुदेवस्तु तृतीयो यश्चारित्रं च सूरिपदवीं च । संप्राप्य नाम लेभे सूरिः श्रीपद्मदेव इति ॥ २० ॥ चतुर्थ आमणश्चारुगुणमाणिक्यमंडितः । पंचमो वरदेवाख्यः सत्संख्य विहितोद्यमः ॥ २१ ॥ षष्ठः पंडितसंहतिचतुरःःस्फूर्जद्यशा यशोवीरः । आचार्यपदे लेभे श्रीपरमानंद इत्यभिधाम् ॥ २२ ॥ सप्तमो वीरचंद्राख्यो जज्ञेऽनूनगुणावलिः । समभूज्जिनचंद्राहः प्रकृष्टवपुरष्टमः ॥ २३ ॥ वोहडिजविल्हणस्य च पुत्र चतुष्टयमनूनगुणरूपम् । रूपिणिकुक्षिसरोवर कलहंसनिभं विवेकयुतम् ॥ २४ ॥ आशापालः कीर्तिवल्यालवीलः सीधूनामा भूरिधामा द्वितीयः । तार्त्तीयीकोऽभूज्जगत्सिंघसंज्ञस्तूर्यः सूनुः पद्मसिंहाभिधानः ॥ २५ ॥ वीरीति पुत्री सुगुणैः पवित्रा मनोहरा सा हरिणीसुनेत्रा । अभूच्छुभाचारपवित्रपात्रा सद्रूपलावण्य विशुद्धगात्रा ॥२६॥ जग्राह यः पुत्र इह तृतीयः कामप्रदां संयमराज्यलक्ष्मीं । क्षिप्रं तथा सूरिपदं च लेभे सुदुर्लभं पुण्यवतापि पुंसा ॥२७॥ प्रथमस्यास पालस्य खेतुका कुक्षिसंभवाः । सज्जनोऽभयसिंहाख्यस्तेजाकः सहजः सुताः ॥ २८ ॥ सीधुकाख्यद्वितीयस्य सोहरेत्यभवद्वधूः । अंगण्यपुण्यदाक्षिण्यलावण्यादिगुणान्विता ॥ २९ ॥ तूर्यस्य पद्मसिंहस्य वालूनाम्नी प्रियाऽभवत् । सुतस्तयोः समुत्पन्नो नागपालाभिधः सुधीः ॥ ३० ॥ किंच - रूपं बलं च विभवो विषयाभिसंगो नीरोगता लवणिमा प्रियसंप्रयोगः । वातावधूतपटचंचलमेव सर्वं विज्ञाय धर्मनिपुणैर्भविभिर्विभाव्यम् ॥ ३१ ॥ अंगुष्ठमात्र यो बिंबं कारयत्यर्हतां बुधः । सिद्धिनारीपरीरंभभवं स लभते सुखं ॥ ३२ ॥ न मनः पर्ययमवधि न केवलज्ञानमत्र नैवास्ति । पुस्तक लिखनंमेतत्तद्यष्टिर्दृष्टिहीनानाम् ॥ ३३ ॥ श्रीरत्नप्रभसूरेर्गुरोः सकाशान्निजस्य सद्धंधोः । संसारांभोधितरीं श्रुत्वेत्यथ देशनां विशदाम् ॥ ३४ ॥ डाहापद्रपुरे चैत्ये कारयामास भावभाक् । श्रीमतः सुमतेर्बिंबमर्हतस्त्रिजगत्पतेः ॥ ३५ ॥ आलेखयत्सैष किलासपालः श्रेयः श्रिये स्वस्य पितुः प्रधानम् । विवेकमंजर्यभिधां दधानं सत्पुस्तकं निर्वृतिदीपकल्पम् ॥ ३६ ॥ यावत्पूर्वाद्रिशृंगोदित इह जगति स्वप्रतापेन हंति, प्रोद्यन्नीली विनील तिमिरभरभरं तापनस्तत्समंतात् । यावच्छेषाहिराजः क्षितिवलयमसौ स्फूर्त्तिमान्संबिभर्ति, श्रेयोधिष्ठानयानप्रवरर" भः पुस्तकस्तावदास्ताम् ॥ ३७ ॥ - लोचन - विष्ट पात्रिनयनप्रोद्भूत (१३२२) संवत्सरे, मासे कार्तिकनाम्नि चंद्रसहिते कृष्णाष्टमीवासरे । वृत्तिर्निर्वृतिमार्गदीपकलिका तुझ्या विनीतात्मना, रामेण खयमादरेण लिखिता नंद्यादनिंद्याक्षरा ॥ ३८ ॥ प्रशस्तिः समाप्ता || शुभमस्तु ॥ पूज्यश्री प्रद्युम्नसूरिभिः प्रशस्तिः शोधितेति ॥ ५ ॥ [३१] ऊकेशवंशीय श्रे० सपुण्य-लेखित कल्पसूत्र- कालिकाचार्य कथा - पुस्तिकाप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल १३४४ विक्रमाब्द ] केशवंशे भुवनाभिरामच्छायासमाश्वासितसत्त्वसार्था । शौराणकीयाsस्ति विशालशाखा साकारपत्रावलिराजमाना ॥ १ ॥ * इयं ताडपत्रीया पुस्तिका पत्तने संघवीपाडा स्थित भाण्डागारे विद्यते । 5 10 15 20 25 30 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तत्राभवद् भवभयच्छिदुरार्हदहिराजीवजीवितसदाशयराजहंसः । पूर्वः पुमान् गणहरिगणिधारिसार से ..................॥ ""यान् थिरदेवस्य हरिदेवोऽस्ति [ बांधवः ] । हर्षदेवीभवाः पुत्रा नरसिंहादयोऽस्य च ॥ १५॥ 5 सहोदर्यः सपौनस्य लष्मिणिर्द्धर्मकर्मठा । कर्मिणि-हेरिसणिश्च पुत्र्यस्तिस्रो गुणश्रियः ॥ १६ ॥ गुणधरस्य यो भ्राता कनिष्ठो धुंधुकाभिधः । षेढा नामास्ति तत्पुत्रः पवित्रगुणसंततिः ॥ १७ ॥ अथ गुरुक्रमःश्रीराजगच्छमुकुटोपमशीलभद्रसूरेविनेयतिलकः किल धर्मसूरिः। दुर्वादिगर्वभरसिंघुरसिंहनादः श्रीविग्रहक्षितिपतेर्दलितप्रमादः ॥ १८ ॥ 10 आनंदसूरिशिष्यश्रीअमरप्रभसूरितः । श्रुत्वोपदेशं कल्पस्य पुस्तिकां नूतनामिमां ॥ १९॥ उद्यमात् सोमसिंहस्य सपुण्यः पुण्यहेतवे । अलेखयच्छुभालेखां निजमातुर्गुणश्रियः ॥ २० ॥ यावच्चिरं धर्मधराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मी ।' मुनींद्रवृंदेरिह वाच्यमाना तावत् मुदं यच्छतु पुस्तिकाऽसौ ॥ २१॥ संवत् १३४४ वर्षे मार्ग० शुदि २ रवौ सोमसिंहेन लिखापिता ॥ [३२] दयावटपुरीय-श्रावकसंघ लेखित पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३४९ विक्रमाब्द।] नमः श्रीवर्द्धमानाय वर्द्धमानाय वेदसा । वेदसारं परं ब्रम ब्रह्मबद्धस्थितिश्च यः ॥ १॥ खबीजमुप्तं कृतिभिः कृषीवलैः क्षेत्रेषु सिक्तं शुभभाववारिणां । क्रियेत यस्मिन् सफलं शिवश्रिया पुरं तदत्रास्ति दयावटाभिधम् ॥ २ ॥ ख्यातस्तत्रास्ति वस्तुप्रगुणमुणगणः प्राणिरक्षकदक्षः, सज्ज्ञाने लब्धलक्ष्यो जिनवचनरुचिश्चंचदुबैश्चरित्रः । पात्रं पात्रैकचूडामणिजिनसुगुरुपासनावासनायाः, संघः सुश्रावकाणां सुकृतमतिरमी संति तत्रापि मुख्याः ॥३॥ होनाकः सज्जनज्येष्ठः श्रेष्ठी कुमरसिंहकः । सोमाकः श्रावकः श्रेष्ठः शिष्टधीररिसिंहकः ॥ ४ ॥ कट्ठयाकश्चमुश्रेष्ठी सांगाक इति सत्तमः । खीम्वाकः सुहडाकश्च धर्मकर्मैककर्मठः ॥ ५ ॥ एतन्मुखः श्रावकसंघ एषोऽन्यदा वदान्यो जिनशासनः सः । सदा सदाचारविचारचारुक्रियासमाचारशुचिव्रतानाम् ॥ ६॥ श्रीमज्जगचंद्रमुनींद्रशिष्यश्रीपूज्यदेवेंद्रमुनीश्वराणाम् ।। तदाद्यशिष्यत्वभृतां च विद्यानाख्यविख्यातमुनिप्रभूणाम् ॥ ७ ॥ 20 25 * अत्रैकं पत्रं [१६२ अवाहित] विनष्टमस्ति । ततः प्रशस्त प्रायः १३ पानि प्रणयानि तत्र । + + एतत्प्रशस्तिसमन्वितानि ताडपत्रात्मकानि श्राद्धदिनकृत्यत्रवृत्ति-उपदेशमालादिप्रन्थपुस्तकानि स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथभाण्डागारे विद्यन्ते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् , रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ. १६८-७। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसनह । तथा गुरूणां खगुणैर्गुरूणां श्रीधर्मघोषाभिधसूरिराजा । सद्देशनामेवमपापभावां शुश्राव भावावनतोत्तमांगः ॥ ८॥ विषयसुखपिपासोर्गेहिनः कास्ति शीलं, करणवशगतस्य स्यात्तपो वापि कीहक् । अनवरतमदारंभिणो भावनाः का-स्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः ॥९॥ किंचधर्मः स्फूर्जति दानमेष गृहिणां ज्ञानामयोपग्रहै-स्त्रेधा तद्वरमाधमत्र यदितो निःशेषदानोदयः । ज्ञानं चाद्य न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा, शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ॥१०॥ श्रुत्वेति संघसमवायविधीयमान-ज्ञानार्जनोद्भवधनेन मिथः प्रवृद्धि । नीतेन पुस्तकमिदं श्रुतकोशवृद्ध्यै, बद्धादरश्चिरमलेखयदेष हृष्टः ॥ ११ ॥ यावजिनमतमानुप्रकाशिताशेषवस्तुविस्तारः । जगति जयतीह पुस्तकमिदं बुधैर्वाच्यतां तावत् ॥ १२॥ 10 ॥ शुभं भवतु ॥ ग्रंथांन १३००० प्रमाणं । मंगलं महाश्रीः । लेखक-पाठक-दातार-समस्त्रसंघ-दीर्घायुभवतु ॥ यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ २॥ भमप्रष्ठि-कटिग्रीवा तच दृष्टिरधोमुखः । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्वेन परिपालयेत् ॥ ३॥ संवत् १३४९ वर्षे माघसुदि १३ अधेह चावडे श्रे० होना श्रे• कुमरसिंह श्रे० सोमप्रभृति 15 संघसमवायसमारब्धपुस्तकमाण्डागारे ले० सीहाकेन लिखितं ।। [३३] सुश्राविका-बांधी-प्रदत्त-दशवैकालिक-पाक्षिकसूत्र-पुस्तिकाप्रशस्तिः । ___ [प्रदानसमय १३५२ विक्रमाद] श्रीमंदपाटदेशक्षितिराजप्राज्यराज्यधौरेयः । सीमंधर इति मंत्री श्रीकरणिक इह समस्ति पुरा ॥ १ ॥ 20 उन्मीलनुरुलीलस्फूर्जितशीलप्रधानश्रृंगारा । नीभल इति तद्वहिणी गृहनीतिविशारदा जाता ॥२॥ तस्याः स्वीयभगिन्या अगण्यसत्पुण्यकल्पलतिकायाः । सजलजलवाहपटली दत्ता श्रीपुस्तिका शस्ता ॥ ३ ॥ घांधीसुश्राविकया वाचयितुं गच्छसकलसाधूनाम् । सेयं प्रवाच्यमाना विबुधैर्नद्याचिरं कालम् ॥ ४ ॥ श्रीविक्रमत्रयोदशशतद्विपंचाशकस्य (१३५२) वर्षस्य । भाद्रपदाभिधमासे पक्षे....."स्तिका प्रवरे ॥ ५॥ 25 उपकेशवंशीय-संघपति-आशाधर-लेखित-उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति-पुस्तकप्रशस्ति । [लेखनकाल १३५२ विक्रमान्द] ........... [पूर्वपत्रस्य नष्टत्वात् प्रशस्तेरस्याः आधानि १४ पद्यानि विनष्टानि ].............. आशाधरस्तदायः संघपतिः सप्ततीर्थसुप्रथितः । निर्मलंकीर्तिदेशलसंज्ञस्तस्यानुजन्मा च ॥ १५ ॥ * ताइपत्रास्मिका इयं पुस्तिका पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् , रीपोर्ट पुस्तक ५, पृ.६१। + ताडपत्रात्मकं पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । पिटर्सन, रीपोर्ट पु. १, पृ. ४१ उल्लिखित । [३४] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । लावण्यपात्रं किल लूणसिंहस्तयोलघुः पापगजैकसिंहः । न्यायार्जितैर्यस्य धनैः सदैव साधुत्वभावं हि व्रतं विनैव ॥ १६ ॥ रत्नश्री सद्भार्या तेषामाद्यस्य श्रीरिवाभा..[1] ....."भोली लाछिलावण्यसिंहस्य ॥ १७ ॥ रत्नश्रीकुक्षिजाः पुत्र्यश्चतस्रश्चतुराशयाः। माणिक्या प्रथमा तासां शोभितोभयपक्षका ॥ १८ ॥ ततः सोहगसंज्ञा च शीलादिगुणभूषिता । तृतीय-तुर्ये दुहिते कस्मीरी-माउकाभिधे ॥ १९ ।। सहजपाल इति प्रथमः सुतः सहजसद्गुणतः सुमनोमतः । ___ भुवनपेसलदेशलसं [ज्ञिनः] ....... 'दुतदुःकृततानवः ॥ २०॥ द्वितीयः साहणाभिख्यः ख्यातश्च गुणसम्पदा । जिनांघ्रिकमले भृङ्गस्तृतीयः समराभिधः ॥ २१ ।। जज्ञ ता(?)सुसखी यस्याः सा जणकूस्तनूरुहा । रम्भाभिधानदेव्याश्च देशलस्य शुभात्मनः ॥ २२ ।। 10 सहजलदेवी जाया मायामुक्तस्य सहजपालस्य । राजमतिः सत्कान्ता साहणसाधोस्तु सद्भु..... ॥ २३ ॥ [पुत्रो ] लावण्यसिंहस्य सामन्तः समतायुतः । तल्लघुः साङ्गणश्चापि कुलधूर्धवलः किल ॥ २४ ॥ पुण्यपानीयसम्पर्काद् वृद्धिं याति कुलद्रुमे । आशाधरो विशुद्धात्मा चिन्तयामास चेतसि ॥ २५॥ __ श्रुताधीनं कलौ धर्म नैव तत्पुस्तकं विना । पुस्तकानि तु लिख्यन्ते लेखकैर्लब्धवेतनैः ॥ २६ ॥ विचिंत्येति खचित्तेन पित्रोः पुण्याय भावतः । उत्तराध्ययनस्येह ससूत्रं वृत्तिपुस्तकम् ॥ २७ ॥ 15सिद्धसूरिगुरोराज्ञां बिभ्राणः शिरसा भृशम् । करेष्वनीन्दु १३५२ वर्षेत्र व्यलीलिखदवाचयत् ॥२८॥(युग्मम्) एवं संघाधिपोऽसौ विशदगुणमयः साधुराशाधराहः, पित्रोः पुण्याय हर्षातिरुचिरमिदं पुस्तकं वर्ण्य............... ............चुतानां कलितमसि सतामुत्तराध्यायवृत्तेः, विद्वल्लोकस्य चित्तप्रशमसुखकरं कारयामास विज्ञः ॥ २९ ॥ आशाधर तवायुर्वा कीर्तिवल्लीसमुद्गता । आलवालेव दुःकाले........ दीनदानतः ॥ ३०॥ श्रीदेवगुप्तसूरीणां शिष्यः समुदि संसदि । पासमूर्तिस्तदादेशात् किमप्यर्थमभाषत ॥ ३१ ॥ 20 ....... 'जस्येह पुष्पदन्तौ स्थिराविमौ । गुरुभिर्वाच्यमानोऽयं तावन्नंदतु पुस्तकः ॥ ३२ ॥ सम्वत् १३५२ वर्षे वर्षाकाले श्रीउपकेशगच्छे श्रीकुकुदाचार्यसंताने श्रीसिद्धसूरिप्रतिपत्तौ सा० वेसटसंताने सा० गोसलात्मज संघपति आशाधरेण उत्तराध्ययनवृत्ति ससूत्रा कारिता ॥ इति ॥ [३५] श्रीमालवंशीय-श्रावकगणलेखित-कल्पसूत्र कालिकाचार्यकथा-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनकाल १३६५ विक्रमाब्द ] -इति पल्लीवालगच्छे श्रीमहेश्वरसूरिभिर्विरचिता कालिकाचार्यकथा समाप्ता । श्रीमालवंशोऽस्ति..... विशालकीर्तिः श्रीशान्तिसूरिप्रतिबोधितडीडकाख्यः । श्रीविक्रमाद्वेदनभर्महर्षिवत्सरे श्रीआदिचैत्यकारापित नवहरेच (?) ॥ १॥ तस्य शाखासमुद्भूतो देवसिंहो गुणाधिकः । तत्सुतः कर्मसिंहस्याभूत्पुत्रो मलसिंहकः ॥ २ ॥ 30 महीरोलनगोत्रे च मंडनो धांधकाभिधः । तत्सुतास्त्रयः सञ्जाता ऊदल-देदाकनामतः ॥ ३ ॥ * एषा पुस्तिका स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभाण्डागारे विद्यते । इयं प्रशस्तिः प्रायः प्रभृष्टपाठात्मकाऽस्ति । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । गोत्रमण्डनहालाको, भमी यस्य चतुष्टयी । शीलालङ्कारधारीण्याभू मनी च मइणला ॥ ४ ॥ षड्दर्शनभक्ता च श्रीरिवाहरिमण्डनी । अर्धाङ्गलक्ष्मी सादू मलसिंहस्य पुण्यभुक् ॥ ५॥ पञ्चपुत्रा पवित्रा च पञ्चपुत्री सतीव्रता । कल्पवृक्षसमानेऽपि सङ्घशासनसेवकाः ॥ ६ ॥ धारा-रामाक-लाषाकाः जइतसिंह-भीमको। ऊदी पूनी च चांदू च रुक्मिणी सोनणी तथा ॥ ७ ॥ -धाराकपनी च सुव्रता जयश्री तदङ्गजा वेदमिव चतुष्टयः । सधर्माणौ षांषण-मदनको च......। .... रनस्य रत्नाकरतुल्यरूप धनसिंह वीर खजनप्रियश्च ॥ ८ ॥ रामापुत्रस्तु खेताकः पद्मो लाषाकनन्दनः । जइतसिंहसुता हालू भीमापुत्री सलक्षणी ॥९॥ खश्रेयसे कारितकल्पपुस्तिका ..... दृकपुण्योदयरत्नभूमिः । श्रीपल्लीगच्छे सुगुणैकधामभिर्वाचिता श्रीमहेश्वरसूरिभिः ॥ १० ॥ 10 नृपविक्रमकालातीत सं० १३६५ वर्षे भाद्रपदवदौ नवम्यां तिथौ श्रीमेवपाटमण्डले वऊणा आमे कल्पपुस्तिका लिषिता ॥ [३६] ऊकेशवंशीय-धर्कटान्वय-श्रावकमूलूगृहीत-महावीरचरित्र-पुस्तकप्रशस्तिः । [ग्रहणकाल १३६८ विक्रमाब्द ] 15 .................... सरखतापदमसौ सद्वृत्तमुक्तालयः । प्रौढश्रीकुलमंदिर विजयते कारेणुगच्छांबुधि-श्चित्रं यन्न जडाशयो न च परं कुमाहसत्त्वाकुलः॥१॥ सत्पत्रराजी शुभपर्वरम्यः छायी सुशाखी सरलः सुवर्णः ।..... सद्धर्मकर्मा क्षितिभृत्प्रतिष्ठवंशोऽस्ति वंशो भूवि धर्कटानाम् ॥२॥ - श्रीमदकेशवंशेऽस्मिन् खच्छमुक्ताफलोपमाः । साधूनां हृदलंकारा बभूवुः पुरुषास्त्रयः ॥ ३ ॥ 20 आयो देवधरस्तेषु दाने धाराधरः परः । प्रीणिताशेषलोकोऽभून्न तु जातु जडान्वितः ॥ ४ ॥ जिनालययशःसिद्धिदानपुण्यादिकर्मणाम् । समुद्धरणधीरेयो द्वितीयोऽभूत्समुद्धरः॥५॥ दानादिगुणगणारामयशःकुसुमसौरभैः । वासिताशोऽपरो जात आशाधरस्तृतीयकः ॥६॥ समुद्धरस्य निर्माया जाया सौभाग्यशोभिनी । शोभिनीत्याख्यया जाता शीलालंकारधारिणी ॥ ७ ॥ धर्मद्रुमस्य मूलाभो जज्ञे मूलूः सुतस्तयोः । पुत्री सरस्वती लीलू जातौ ब्राह्मीश्रियाविव ॥ ८॥ 25 गेहिनी मूलूकस्यास्ति नाल्ही गंगेव देहिनी । तयो रत्नत्रयाधाराः पुत्राः संजज्ञिरे त्रयः ॥ ९॥ आद्यो वइराकनामा द्वितीयः छोहडः सुधीः । सीहडस्तृतीयः ख्यातः पुमर्था मूर्तका इव ॥ १० ॥ पुत्रिकाश्च तयोस्तिस्रो जाता शक्तित्रयोपमाः । चांपल-कर्मी कपूरी सत्यशीलदयान्विताः ॥ ११ ॥ वइराकस्य सद्भार्या नयविनयगुणान्विता । वस्तिणिर्वस्तुतत्त्वज्ञा खजनानंददायिनी ॥ १२ ॥ तस्या जाताविमौ पुत्रौ धर्मशीलपरायणौ । आयो मदन एवासौ द्वितीयः कर्मसिंहकः ॥ १३ ॥ 30 * ताउँपत्रमयं पुस्तकमिदं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् , रीपोर्ट पुस्तक ५, पृ० ५९ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । अथाशाधरकांताऽभूत्खेतूः क्षेत्रं सुकर्मणाम् । लक्ष्मीधरस्तयोः पुत्रो लक्ष्मीवर इवापरः ॥ १३ ॥ रूपला रुक्मिणीवास्ति तस्य सद्धर्मचारिणी । तत्सुतो हरपालाख्यः छाडू दक्षा च तत्सुता ॥ १५ ॥ एवं खकुटुंबयुतः साधुर्मलूः खमातृश्रेयसे । श्रीमन्महावीरचरित्रं गृहीतं निजगुरुभिर्वाचयांचके ॥ १६ ॥ तसिन्विस्मयकारिहारिचरितः कृष्णर्षिशिष्यः पुरा, चंचञ्चंद्रकुलध्वजः समजनि श्रीननसूरिः प्रभुः । 5 उद्गीते दिवि किन्नरैर्यदमलश्लोके सुरा धुन्वते, मूर्ध्नः कांचनकिंकिणीकवचितश्रोत्रं गजास्यं विना ॥ १७ ॥ -संवत् १३६८ वर्षे कोलापूर्या श्रीमन्महावीरचरितं श्रीनन्नसूरिभिः सभाव्याख्याने व्याख्यातं । श्रावकमूलू-वहरासत्कम् ॥ [३७] श्रावक-रणसिंह-लेखित-पार्श्वनाथचरित्र-पुस्तकप्रशस्तिः।* [लेखनकाल १४३६ विक्रमाब्द] संवत् १४३६ वर्षे पौषसुदि ६ गुरौ श्रीपार्श्वनाथचरित्रपुस्तकं लिखापितमस्ति ॥ छ । श्रीअर्बुदाभिधमहीधरपार्श्ववर्ती ग्रामोऽस्ति नांदियवराभिधया प्रसिद्धः । श्रीवर्द्धमानजिननायकतुङ्गशृङ्गप्रासादराजपरिपावितभूमिभागः ॥ १ ॥ तत्रास्ते रणसिंहः सुश्राद्धः श्राद्धधर्मधौरेयः । धार्मिकमतल्लिका सोऽन्यदैवमशृणोत् सुगुरुवाक्यं ॥ २ ॥ न ते नरा दुर्गतिमामुवन्ति न मूकतां नैव जडखभावम् । ___न चांधतां बुद्धिविहीनतां च ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥ ३ ॥ निजवित्तस्य साफल्यकृते ज्ञानावृतेर्भिदे । स ततो लेखयामास श्री पार्श्वचरितं मुदा ॥ १ ॥ श्रे वीरा-भारतूसुतेन धार्मिकरणसिंहेन श्रीतपागच्छगगनभास्कर श्रीदेवेन्द्रसूरि तत्पट्टालंकरण श्रीविद्यानंदसूरि तत्प० श्रीधर्मघोषसरि तत्प० श्रीसोममभसूरि तत्प० श्रीविमलप्रभसूरि' श्रीपर20माणंदसूर' श्रीपद्मतिलकसूरि जगद्विख्यात श्रीसोमतिलकसूरि तत्प० श्रीचंद्रशेखरसूरि श्रीजयानंदसूरि चरणकमलचञ्चरीकाणां सांप्रतं गच्छनायक भट्टारकप्रभु श्रीदेवसुंदरसूरिवराणां श्रीज्ञानसागरसूरि श्रीकुलमंडनसूरि श्रीगुणरत्नसूरि महोपाध्याय श्रीदेवशेखरगणि पं० देवप्रभगणि पं० देवमंगलगणि प्रमुखपरिवारसहितानां श्रीसंघसभामध्यव्याख्यानार्थ श्रीपत्तनीय सं० सोमसिंह सं० प्रथमादि श्रीसंघस्य लेखयित्वा समर्पितम् ॥ छ । [३८] माऊ नाम्नी श्राविका-लेखित-[ हेमचन्द्रीय ] अजितजिनचरित्रप्रतिबद्ध द्वितीयपर्व-पुस्तकप्रशस्तिः ।। _[लेखनकाल १४३७ विक्रमाब्द ] - समाप्तं चेदमजितखामिचक्रवर्तिप्रतिबद्धं द्वितीयं पर्वेति ॥ छ । मंगलं महाश्रीः ॥ छ । * ताडपत्रोपरि लिखितमेतच्चरित्रपुस्तकं पत्तने संघवीपाडास्थितभाण्डागारे सुरक्षितमास्ते । + एतत्प्रशस्तिसमङ्कितं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । ताडपत्रसदृशाकारा कागदमयी प्रतिरियम् । 25 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । संवत् १४३६ वर्षे भाद्रपद वदि ५ भूमे लक्षतानि । पं० मलयचंद्रशिष्य आल्हाकेन लिखितमिति भद्रं॥छ ॥ छ । भमपृष्ठिकटिश्रीवासूक्ष्मदृष्टिरधोमुखैः । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ छ । जितो गत्या गजो यस्य सेवाहेवाकितां गतः । चिह्नापन्हवतः सोऽस्तु श्रियै श्रीअजितो जिनः ॥ १॥ श्रीमाले भुवनोत्तंशे वंशे मौक्तिकवत्पुरा । देवसिंहाभिधः श्रेष्ठी जातो जिनमतोच्छ्रितः ॥२॥ 5 विमुक्तमाया जया च तस्य देवलदेव्यभूत् । माऊ नाम्नी हि (सु ! ) ता पुण्ये सामतस्य तु भ्रातृजा ॥ ३ ॥ __ दया-दाक्षिण्य-दमता-दान-मानादिभिर्गुणैः । माऊनाम्नी विहायान्यां नाज्ञासिष्म वयं भुवि ॥ ४॥ इतश्च-श्रीमत्कोरंटंगच्छाब्धिसमुल्लाससुधानिधिः । सूरिः सैद्धान्तिको जज्ञे सावदेवः प्रभुः पुरा ॥ ५॥ तत्पकमलाकेलिशैलः शीलकलोज्ज्वलः । श्रीनन्त्रसूरिसूरींद्रस्ततो जयति संप्रति ॥ ६॥ तन्मुखाद्देशनां श्रुत्वा पित्रोः पुण्यविवृद्धये । श्रीजिनाजितनाथस्य सा चरित्रमलीलिखत् ॥ ७ ॥ गते विक्रमतो वर्षे सप्ताग्निखरैसंख्यके । श्रीमद्भ्यो नन्नसूरिभ्यस्त्रेभ्यस्तत्मददे तया ॥ ८ ॥ यावन्मेरुः स्थिरो यावदुदेति दिनकृद्दिवि । वाच्यमानं बुधैस्तावत्पुस्तकं नंदतादिदं ॥९॥ ॥ छ । मंगलं भूयात् गुरुभ्यः ॥ [३९] उकेशवंशीय-श्रेष्ठिमाला-लेखित-धर्मसंग्रहणिवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः। 15 [लेखनकाल १४३७ विक्रमाब्द] संवत् १४३७ वर्षे अश्विनवदि प्रतिपदतियौ शनिवारे । धर्मसंमहणिनामग्रन्थस्य पुस्तकं लिखापितमस्ति ॥ जैनत्वाव्यभिचारिभावसुभगाः सर्वेऽपि यस्मिञ्जना-स्तस्मिन् धर्मयशःस्मृद्धिविशदे वंशे उकेशाहये । श्राद्धोऽभूनरसिंह इत्यभिधया साधुः प्रसिद्धः सुधी-स्तस्य प्रौढगुणा बभूव नयणादेवीति चिचप्रिया ॥१॥20 तयोरभूबन तनयास्त्रयोऽमी मूंजाल-माला-महीपालसंज्ञाः । 'मालाभिधस्तेषु विशेषधर्मी खर्वीकृतद्रोहकमोहगर्वः ॥२॥ पुण्याय पाणिग्रहणे निषेधी धीरः सुशीलोत्तमगेहमेघी । जिनेश्वरार्चादिविशिष्टनित्यानुष्ठाननिष्ठः सुकृतालिपुष्टः ॥ ३ ॥ साक्षातीर्थ मिलातले सुविपुले बांद्रे कुले श्रीतपागच्छव्योमविभूषणं वितमसस्तेजखिनोऽकेंन्दुवत् । श्रीगच्छाधिपपूज्यसगुरुजयानंदाहयाः सूरयः श्रीमंतो गुरुदेवसुंदर इति ख्याताश्च सूरीश्वराः ॥ ४ ॥ तेषां गुरूणामुपदेशयोगाद् दानं सदानंदरमानिदानम् । विज्ञाय विज्ञो वपते स सप्तक्षेत्र्यां नयोपार्जितमात्मवित्तं ॥५॥ शास्त्रलेखनमिहापि हि सारं ज्ञानसत्रसदृशं यत एतत् । इत्यवेत्य विशदाशयवृत्तिधर्मसंग्रहणिवृत्तिमिमां सः॥६॥ साधुमल्ल इह लेखयति स स्तंभतीर्थनगरे गरिमाये । भूधुराग्नि-जलँधीन्दु-मिताके वत्सरेऽश्वयुजि निर्मलपक्षे ॥ ७ ॥ सुराद्रिदंडस्थितिमिद्धतारामुक्तावलीकं वियदातपत्रम् । श्रीसंघराजी परियावदास्ते सत्पुस्तकं नंदतु तावदेतत् ॥ ८॥ 30 * एतस्प्रशस्तिसमन्वितं ताडपत्रात्मकं पुस्तकं पत्तने संघवीपाडास्थितभाण्डागारे विद्यते । ६० पु० Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १२ [ लेखनकाल १४४२ विक्रमाब्द ] संवत् १४४२ वर्षे भाद्रपदसुदि २ सोमे लिखितमिदं पुस्तकं || श्रीस्तंभतीर्थनगरे लिखितं ॥ 5 आभूश्रेष्ठी पल्लीवालकुले तत्सुतश्च वीराकः । तस्य सुतौ विदितौ जगति महणसिंहास्य-बीजाख्यौ ॥ १ ॥ बीजाकस्य श्रीरिति समनि भार्या सुतास्त्रयस्तस्य । ज्येष्ठः कुमारपालो द्वावनुजौ भीम-मदनाख्यौ ॥ २ ॥ आद्यस्य जायामहणदेव्यामंगभवास्त्रयः 1 राणिगो वइराभिख्यः पूनाकश्चेति नामतः ॥ ३ ॥ तेषु राणिगपुत्रस्य झांझणस्य तनूद्भवाः । सलषा-विजपालाख्य-निरया- जेसलसंज्ञिताः ॥ ४ ॥ सषाकस्यास्ति खीमसिंह - संज्ञस्तनूरुहः । विजपालस्य पुत्रौ द्वौ जयसिंहो गुणैकभूः ॥ ५ ॥ 10 नरसिंहश्च निरयाकस्य श्लाध्यगुणांबुधेः । भार्यायां नागलदेव्यां जाताः संति सुतास्त्रयः ॥ ६ ॥ ते चैते लखमसिंहो रामसिंहश्च गोवलः । सत्क्रियौदार्ययात्राद्यैः कृत्यैयें सज्जनोत्तमाः ॥ ७ ॥ वंशः प्रौढो भीमस्य जनिकर्पूरदेविजायायाम् । मदनस्य सरखत्यां देपालाख्यो बभूव सुतः ॥ ८ ॥ तस्याथ धर्मज्ञजनालिसीम्नो भीमस्य निस्सीमगुणांबुराशेः । पुत्राः पवित्राश्चरितैकपात्रं चत्वार आसन् विशदावदाताः ॥९॥ तेषामाद्यः पद्मनामा यदीयो धीधाख्योऽभूत्सूनुरन्यूनबुद्धिः । धौरेयो यो देवगुर्वादिकायें पूनाह्वानस्तस्य पुत्रोंऽधुनाऽस्ति ॥ १० ॥ 20 द्वितीयः साहणो यस्य पौत्रोऽस्ति कडुयाभिधः । तृतीयस्तनयो जज्ञे सामतः संमतः सताम् ॥ ११ ॥ “तुर्योऽथ सौवर्णिकवर्ण्य सूराभिधः सुधापेयलसच्चरित्रः । तस्य प्रिया सूहवदेवि नाम्नी तयोरभूतां च सुतौ गुणाढ्यौ ॥१२॥ प्रथमोऽत्र प्रथिमसिंहः पाल्हण सीहो द्वितीयकः । सूनुस्तस्य च पाल्हणादेव्यां लींबा - आंबाभिधौ तनयौ ॥ १३ ॥ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | [ 80 ] पल्लीवालकुलीन श्रेष्ठिसाल्हा -लेखित पुस्तकप्रशस्तिः* । 25 अथ प्रथिमसिंहस्य सौवर्णिकशिरोमणेः । प्रिया प्रीमलदेवीति पुण्यप्रेमपराऽजनि ॥ १४ ॥ तयोश्च तनयाः पंच सदाचारधुरंधराः । स्वावदातशतैर्भूमिसुस्थिरीकृतकीर्त्तयः ॥ १५ ॥ सोमा रतनसिंहाक - साल्हा- डूंगरसंज्ञिताः । तेषु सोमाभिधानस्य सौम्यत्वादिगुणांबुधेः ॥ १६ ॥ भार्यायां साजणदेव्यां चत्वारः सन्ति, सूनवः । संगुणा नाराण- ब्राछा- गोधा-राघव-संज्ञिताः ॥ १७ ॥ रत्नो द्वितीयोऽजनि सिंहयुक्तो दानाम्बुशीतीकृतभूरिलोकः । संधाधिपत्वं विमलाचलादि - श्रीतीर्थयात्राकरणाद्य आप ॥ १८ ॥ प्रियायां रतनदेव्यामस्य पुत्रा गुणास्त्रयः । धनः सायर नामा च सहदेवस्तृतीयकः ॥ १९ ॥ तृतीयकस्तस्य सुतोऽस्ति सिंहाभिधः सुधीरोपनृमानमात्रम् । गुणाः प्रभूतप्रतिभाप्रभाद्या व्यधुस्तरां यत्र दृढानुबन्धम् ॥ २० ॥ श्री[म] दूजयानंद गुरुसूरिश्रीदेवसुंदरगुरूणां । सूरिपदमहश्च येन महान् खंद्विभुवनाब्दे (१४२०) ॥ २१ ॥ 30 तस्य च सहचारिण्यः पुण्याचरणैकमानसास्तिस्रः । सोषलदेवी - दुल्हादेवी - पूजीति विख्याताः ॥ २२ ॥ * इयं प्रशस्तिः पत्तने संघवीपाडागत भाण्डागारे विद्यमानपञ्चाशक वृत्तिपुस्तकप्रान्ते लिखिता लभ्यते । ताडपत्रीय पुस्तकयान्तिमपत्रविनष्टत्वात् प्रस्तुतप्रशस्तिर पूर्णरूपा एवोपलब्धाऽस्माभिः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | अंत्यभार्याद्वयोत्पन्नौ तस्य द्वावंगसंभवौ । आद्य आसधरो नाम नागराजाह्वयोऽनुजः ॥ २३ ॥ तूर्योऽथ साल्हाभिध आत्मबंधुर्भक्तिस्वभावार्जवधैर्यभूमिः । तस्य प्रिया पुण्यपराऽस्ति हीरादेवी तयोः सप्त सुताश्च सन्ति ॥ २४ ॥ इह देवराज- शिवराज - हेमराजाश्च खीमराज़म्म । भोजाख्यो गुणराजो वनराजश्चेति गुणभाजः ॥२५॥ इतश्च–सर्वकुटुंबाधिपतेः सिंहस्यादेशतस्तमालिन्यां । स्तंभनकाधिपचैत्ये भुं चतुरुर्दधीन्दुसंख्येऽब्दे ॥२६॥ 5 धनाक सहदेवाभ्यां चक्रे सूरिपदोत्सवः । श्रीज्ञानसागराख्यानां सूरीणां हर्षितावनिः ॥ २७ ॥ तथा सौवर्णिक श्रेष्ठाश्चक्रुः सूरिपदोत्सवम् । महर्द्धा लखमसिंहो रामसिंहश्च गोवलः ॥ २८ ॥ द्विवर्धयुग भूवर्षे (१४४२ ) प्रीणिताशेषभूतलं । श्रीकुलमंडनात्सूरि श्री गुणरत्नसंज्ञिनांम् ॥२९॥ [ युग्मम् ] अत्र साल्हकुटुंबस्य प्रस्तुते नामवर्णने । तस्य स्वजनानामपि किंचिन्नामाद्यलिख्यत ॥ ३० ॥ ततः सौवर्णिकोत्तंससाल्हाभार्याविशुद्धधीः । शीलादिभिर्गुणैः ख्याता हीरादेवीति संज्ञिता ॥ ३१ ॥ सौवर्णिकशिरोरललूंढा-लाषणदेविजाः । शत्रुंजयादियात्राभिः पुण्योपार्जनसादराः ॥ ३२ ॥ ******* 11 श्री सोमतिलकसूरीश्वर X 1 X [ असमाप्तरूपा इयं प्रशस्तिः ] X [ ४१ ] प्राग्वटवंशीय - साऊश्राविका लेखित पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल १४४४ विक्रमाब्द ] प्राग्वाटवंशे प्रवरे पृथिव्यां देदावरः श्रेष्ठीवरो बभूव । वसाभिधानश्च तदंगजन्मा तस्यापि मोषेत्यभिधस्तनूजः ॥ १ ॥ तस्य च जेतलदेवी जाया पुत्रश्च मल[य] सिंहाख्यः । यो देवगुरुषु भक्तो गे (हे ? ) रंडकनगरमुख्यतमः ॥२॥ तस्य च भार्या साऊ धर्मासक्ता सुशीलसंयुक्ता । यस्याश्च मलयसिंहो मोहणदेवी च सल पितरौ ॥ ३ ॥ ******* ४३ X 10 पंचतना जूठल-सारंग-जयतसिंहारूयाः । सहिताय वैद्यासहानिष सेवाभ्यां च सुगुणाभ्यां ॥ 8 ॥ 20 पुत्र्यस्तथा च देऊ सारूर्धरणूष्टसूश्च पांचूश्च । रूडी मानू नाम्नी सप्तैते सुशीलगुणयुक्ताः ॥ ५ ॥ श्रीमतपागणाधिपसूरि श्रीदेवसुंदरगुरूणाम् । उपदेशतोऽथ सम्यग् धर्माधम्म परिज्ञाय ॥ ६ ॥ साऊ सुखाविकासौ पुत्रपुत्रीपरीवृता । पत्युर्मलयसिंहस्य श्रेयसे शुद्धवासना ॥ ७ ॥ ज्योतिः करंड विवृति तीर्थकल्पांश्च भूरिशः । चैत्यवंदनचूर्ण्यादि श्रीताडपुस्तकत्रये ॥ ८ ॥ पत्तनेऽहिलाहाने वार्द्धवाद्ध्यैषि भूमिते ( १४४४ ) । वत्सरे लेखयामास नागशर्म्मद्विजन्मना ॥ ९ ॥ ६ ॥ 25 एषां संबंधिना मोषाभिधश्राद्धेन धीमता । पाता देदीतनूजेन लेखितेयं सुपुस्तिका ॥ १ ॥ .. 15 [ ४२ ] प्राग्वाटज्ञातीय-श्राविका कडू-लेखित सुदर्शनाचरित्र - पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १४५१ विक्रमाब्द ] संवत् १४५१ वर्षे श्रावण सुदि ५ गुरावद्येह श्रीस्तंभतीर्थे श्री सुदर सणाचरित्रं लिखापितमस्ति || 30 * एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकमावश्यकसूत्र पुस्तकं पत्तने संघवीपाडासरकभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । + ताडपत्रीयमिदं पुस्तकं पत्तने संघवीपाडास्थित भाण्डागारे सुरक्षितमस्ति । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। प्राग्वाटान्वयभूः प्रभूतविभवोऽभूद्वज्रसिंहाभिधः, श्राद्धः श्रीजिननाथपूजनपरः पुण्यक्रियातत्परः । भार्या तस्य कडूर्दयैकरसिका सद्धर्मबद्धादरा.........." .......... ॥१॥ चत्वारस्तनयास्तयोः समभवनेते. युताः सद्गुणैः, धांगाख्यः प्रथमः पृथूज्वलयशा बांवाभिधानोऽपरः। पुण्योपार्जनलालसो लषमसीत्याख्या प्रतीतस्तत-स्तुयों रावणनामधेयविदितः सुश्राद्धवर्गाप्रणीः ॥२॥ ग्रामे फीलणिनामके निवसतामेषां सवित्री कडू-रेषा लिख................................। ................ विततश्रीमत्तपागच्छंपा-चार्यश्रीदेवसुंदरमहापुण्योपदेशादिदम् ॥ ३ ॥ क्षोणी-बाणे-पयोनिधि-क्षिति मिते संवत्सरे वैक्रमे, रम्ये श्रीअणहिल्लनामनगरे श्रीज्ञानकोशेऽनघे । अस्थाप्यत्र सुदर्शनाभिधमहासत्याश्चरित्रं तया, नित्यं नंदतु वाच्यमान"....................॥ ४ ॥ • [शुभं भवतु लेखकपाठ-] कयोः ॥ छ । [४३] प्राग्वाटज्ञातीय-श्रा०प्रीमलदेवी-लेखित-सूत्रकृताङ्गटीका-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १४५४ विक्रमाब्द ] -समाप्ता चेयं सूत्रकृतद्वितीयांगस्य टीका । कृता चेयं शीलाचार्येण वाहरिगणिसहायेन ॥ यदवाप्तमत्र पुण्यं टीकाकरणे मया समाधिभृता । तेना-ततमस्को भव्यः कल्याणभाग्भवतु ॥ -ग्रंथाग्रं० १३९५० । संवत् १४५४ वर्षे माघशुदि १३ सोमेश्येह श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमिदं पुस्तकं चिरं नंदतात् ॥ शुभं भवतु ॥ .. श्रीकायस्थविशालवंशगगनादित्योऽत्र जानाभिधः, संजातः सचिवाग्रणीगुरुयशाः श्रीस्तंभीर्य पुरे। तत्सूनुर्लिखनक्रियैककुशलो भीमाभिधो मंत्रिराट्, तेनाऽयं लिखितो बुधावलिमनःप्रीतिपदः पुस्तकः ॥१॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य लेखकपाठकयोश्च ।। ॥ॐ॥ नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ प्राग्वाटवंशमुकुटः श्रेष्ठी गंगाभिधः समजनिष्ट । अधरयति स धरायां धनदं यः खीयधननिचयैः ॥ १॥ एतस्य विशदशीला जज्ञे पत्नी च गउरदेनानी । निःसीमरूपसंपलक्ष्मीरिव वासुदेवस्य ॥ २॥ प्रीमलदेवीसंज्ञा सकर्णजनवर्णनीयगुणकलिता । अभवन् तयोस्तनूजा जिनपूजाध्यानतच्चित्ता ॥ ३ ॥ विमलतमशीलसुभगा नूनं या खीयशुद्धचरितेन । चिरवीतामपि सीतां निरंतरं स्मारयत्येव ॥४॥ तामुपयेमे सुकृती भूभड इति विश्रुतो विशदबुद्धिः । ठकुरकाला-भार्यासंभलदेवीप्रसूततनुजन्मा ॥५॥ श्रीजैनशासननभोभानुश्रीदेवसुंदरगुरूणाम् । प्रीमलदेवी साऽथ श्रुत्वा पीयूषदेश्यमुपदेशम् ॥ ६ ॥ मत्वाऽसारतरं धनं धनफलं लिप्युनिजश्रद्धया, वेदेषूदधि-शीतदीधितिमिते (१४५४ ) संवत्सरे बैक्रमे । लक्ष्मीवैश्रवणातिशायिजनते श्रीस्तंभतीर्थाभिधे, दंगेऽलीलिखदेतदद्भुततमं श्रीसूत्रकृत्पुस्तकम् ।। ७ ।। 30 आचंद्रादित्यमेतद्विरचितचतुरानंदसंपद्विशेष, संख्यावद्भिर्मुनींद्रेरहमहमिकया वाच्यमानं वितंदैः । - उद्यहुःखातिरेकाकुलनिखिलजगज्जीवजीवातुकल्पं, श्रेयःश्रीहेतुभूतं प्रवचनमनघं जैनमेतच जीयात् ॥ ८॥ * ताडपत्रात्मकं पुस्तकमिदं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन रीपोर्ट, पुस्तक ५, पृ० ७१ । 25 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [४४] श्रीमालवंशीय श्रे०मेलिग-लेखित-पार्श्वचरित्र-पुस्तकप्रशस्तिः । __[लेखनकाल १४५५ विक्रमाब्द ] | पंच-पंच-मनुसंख्यवत्सरे (१४५५) पौषमुख्यसुतिथौ दिने विधोः।। श्रीमति प्रथितपत्तने पुरे लेखकेन लिखितं सुपुस्तकं ॥ १॥ .. श्रीमालवंशे कमलावतंसे श्रेष्ठी पुराऽभूद् भुवि वीरपालः। देवे गुरौ चाद्भुतभक्तियुक्तः ख्यातो गुणैश्चन्द्रकराभिरामैः ॥ २ ॥ पुण्यैकपात्रं तत्पुत्रो नरसिंहोऽभवत्सुधीः । हीमादेवी प्रिया तस्य प्रशस्यगुणशालिनी ॥ ३ ॥ तयोः सुतौ धूलिग-मेलिगौ च सदा सदाचारविचारवीरौ । सद्धर्मशास्त्रश्रवणैकचित्तौ जीयाचिरं पूर्णशशांककीर्ती॥४॥ मेलादेवी तत्प्रिया भाति सौभाग्यश्रीगेंहधर्मकार्ये नियुक्ता । भक्ता देवे सद्गुरौ चातिनम्रा गेहस्यांतर्जगमा कल्पवल्ली ॥५॥ 10 .. श्रीनागेंद्रगणेऽगण्यपुण्यसंभारभूषिते । श्रीपद्मचंद्रसूरीन्द्रः प्रबभूव गुणैकभूः ॥ ६ ॥ तत्पट्टपूर्वाचलभास्करः श्रीरत्नाकरः सूरिवरो बभूव । पट्टेऽस्य रत्नप्रभसूरिरेषः श्रीमान् जयी निर्जितकामवीरः ॥७॥ तत्पदे जयति जंगमतीर्थ सिंहदत्तगुरुरेष गुणाढ्यः । यः सतां प्रथमकः किल कार्ये चंद्रगौरयशसा प्रसृतश्च ॥ ८॥ श्रीमते सिंहदत्ताय शुद्धचित्ताय सूरये । न्यायोपार्जितवित्तोऽयं मेलिगः श्रावकाग्रणीः ॥९॥ पार्श्वनाथचरित्रस्य प्रददौ पुस्तकं शुभं । मेलादेव्यपि तत्पत्नी श्रीकल्पस्य च पुस्तिकां ॥ १०॥ 15 शुभं भवतु ॥ लेखकपाठकयोः ॥ [४५] 20 प्राग्वाटवंशीय-श्राविका-आल्हू-लेखित-पञ्चाङ्गीसूत्रवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १४५५ विक्रमाब्द ] संवत् १४५५ वर्षे ज्येष्ठ शुदि ३ गुरू पंचांगीसूत्रवृत्तिपुस्तकं लेखयांचके ॥ श्रीकायस्थविशालवंशगगनादित्योऽत्र जानाभिधः, संजातः सचिवामणीर्गुरुयशाः श्रीस्तंभतीर्थ पुरे। तत्सूनुर्लिखनक्रियैककुशलो भीमाभिधो मन्त्रिरोद, तेनायं लिखितो बुधावलिमनःप्रीतिप्रदः पुस्तकः ॥ १ ॥ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघभट्टारकस्य ॥ प्राग्वाटवंशमुकुटः प्रकटप्रतिष्ठः श्रेष्ठी बभूव भूवि लाषण इत्यभिख्यः । शीतांशुरश्मिवरभासुरकीर्तिसारैर्यः सर्वतोऽपि धरणिं धवलीचकार ॥ १ ॥ एतत्पाणिगृहीति साऊरिति विश्रुता विशदशीला । जिनवचनबद्धरंगा या गङ्गामनुकरोति निजचरितैः ॥ २॥ आल्हूरित्यभिधाना सकर्णजनवर्णनीयगुणनिवहा । अभवत्तयोस्तनूजा जिनादिपूजाविधानरता ॥ ३ ॥ * ताडपूत्राल्मिकैषा पुस्तिका पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । एतत्प्रशस्तिसमन्वितं ताडपत्रात्मकं पञ्चोपाजवृत्तिपुस्तकं पत्तने संघवीपाडास्थितभाण्डागारे विद्यते । 25 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तामुपयेमे सुकृती मन्त्रिवरो वीरमो विशदबुद्धिः । धीसखशतमखवीदा-चांपलदेवीप्रसूततनुजन्मा ॥ ४ ॥ सत्पात्रदानसफलीकृतभूरिवित्ता श्रीधर्मकर्मकरणप्रवणैकचित्ता। या खैर्विशुद्धचरितैर्विदुषामदोषश्लाघास्पद समज़निष्ट लसत्प्रतिष्ठा ॥ ५॥ श्रीमत्तपागणनभोङ्गणसूरसूरि-श्रीदेवसुंदरगुरुपवरोपदेशं । श्रुत्वा सुधासममसीमगुणासमाना सा श्रावकाचरणचारुरताऽथ आल्हूः ॥ ६ ॥ मत्वाऽसारतरं धनं धनफलं लिप्सुर्निजश्रद्धया, वेदेषूदधि-शीतदीधिति (१४५४ ) मिते संवत्सरे विक्रमे । लक्ष्मीवैश्रवणातिशायि जनते श्रीस्तंभतीर्थाभिधे, दंगेऽलीलिखदेतदद्भुततमं पञ्चाङ्गिकापुस्तकम् ॥ ७ ॥ आचंद्रादित्यमेतद्विरचितचतुरानन्दसंपद्विशेष, संख्यावद्भिर्मुनीन्द्ररहमहमिकया वाच्यमानं वितन्द्रैः । उद्यहुःखातिरेकाकुलनिखिलजगज्जीवजीवातुकल्पं, श्रेयःश्रीहेतुभूतं प्रवचनमनघं जैनमेतच्च जीयात् ॥ ८॥ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ ७॥ [४६] प्राग्वाटज्ञातीय-रूपलश्राविका-लेखित-पद्मचरित्र (प्रा० पउमचरिय) पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १४५८ विक्रमाब्द] -इति पद्मचरित्रं समाप्तमिति ॥ छ ॥ ग्रंथानं ॥ १०५०० । 15 संवत् १४५८ वर्षे प्रथमभाद्रपदशुदि ८ अष्टम्यां रवी श्रीपत्तने पद्मचरित्रं लिखितं ॥ छ । , श्रीशिवमस्तु । श्रीः ॥ प्राग्वाटज्ञातीयः श्रेष्ठी वारामिक कृतनिष्ठः । कीर्तिप्रथापयिष्ठः शिष्टमष्ठोऽजनि गरिष्ठः ॥ १॥ प्रभूतपुण्यार्जनसावधानस्तस्यांगजोऽभूद् वयजाभिधानः । गुणैरनेकैरिह निस्समानः परोपकारपंथनैकतानः ॥ २ ॥ माऊसंज्ञा तस्य भार्या विधिज्ञा जज्ञे धन्याऽगण्यपुण्यप्रवीणा । कीर्तिस्फीता सर्वदोदारचित्ता रेखाप्राप्ता स्त्रीषु शीलोत्तमासु ॥ ३॥ चत्वार एते तनयासंदीया जाता धनाढ्याः सुकृतावदाताः । तेजाभिधो भद्रकभीमसिंहः संपूर्णसिंहो भुवि पद्मसिंहः ॥ ४ ॥ सुता तथा रूपलनामधेया गुणैरमेया शुभभागधेया । यस्याः पितृव्यातनुनात्रकेण श्रीमज्जयानंदमुनींद्रचंद्राः ॥ ५॥ आबालकालादपि पुण्यकार्यभारकताना करुणार्द्रचित्ता । देवे गुरौ भक्तिमती सतीद्धा सदा तपःकर्मणि कर्मठा या ॥६॥ 25 श्रीमत्तपागणनभोंगणभानुकल्पश्रीदेवसुंदरगुरुपवरोपदेशात् । । नंदेषु-वॉरिधि-शशांकमिते प्रतीते संवत्सरे वहति विक्रमभूपतीये (१४५९) ॥७॥ श्रीमत्पमचरित्रं बहुना दविणेन लेखयित्वेदं । श्रीपत्तनीयकोशे निवेशयामास सा सिद्धयै ॥ ८॥ मोक्षाध्वनीनसाधूनां ज्ञानसत्रोपमं परं । आचंद्रार्कमिदं जीयात्पुस्तकं प्रास्तदूषणं ॥९॥ 20. एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रीयपुस्तकं पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ .. . .. . .. . . . . . .. .. जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [४७] [प्राग्वाटज्ञातीय ] धर्मश्रेष्ठि-लेखित लक्षग्रन्थमान-आगमपुस्तक प्रशस्तिः । [लेखनकाल १४७४ विक्रमाब्द] -संवत् १४७४ वर्षे मार्म शुदि ६ रवी लिखितं विप्रेण नागशर्मणा श्रीमदणहिल्लपसने ॥ शिक्मस्तु ॥ प्रथमो नरपालाख्यो धनसिंहो द्वितीयकः । तार्तीयीकस्तु षेताह एते [सु]प्रातरस्त्रयः ॥२॥ लक्षस्य शवकू-मानी पत्नी धर्मपरायणा । सतीमतक्षिकाशीलत्रिशुद्धजलतल्लिका ॥३॥ . सवकू-लक्षयोजज्ञे तनयो विनयोज्ज्वलः । ज्ञातः श्रीमद्धर्ममर्मा धर्मादः शुद्धधीनिधिः ॥ ४ ॥ तस्य भार्या गुणैरार्या धर्मकर्मपरायणा । रत्नू नानी शुद्धशीला विशुद्भहृदया सदा ॥ ५॥ ..............॥६॥ तप्यतेऽजितचूला सा रंगसंवेगभूषणम् । तपोऽतिदुस्तपं पापपंकशोषणपूषणम् ॥ ७ ॥ वैराग्याप्तपरितुष्टो विनयादिगुणालयः । विनयानंदनामास्य बंधुः साधुशिरोमणिः ॥ ८॥ श्रेष्ठी धर्माभिधो धर्मकर्मकर्मठमानसः । अजिझं ब्रह्मचर्य यो यौवनेऽप्युदचीचरत् ॥ ९॥ चतुर्विशतिकृत्वा यः पंचशक्रस्तवैर्जिनान् । प्रत्यहं वंदते भूरिभक्तिव्यक्तितरंगितः ॥ १० ॥ ...........................॥११॥ ............... । देवालयादिसामग्र्या कृतयात्रामहोत्सवौ ॥ १२ ॥ कर्मणो लक्ष्मसिंहश्च प्रसिद्धौ पुण्यकर्मभिः । गोधा-लिंबादिपुत्राढ्यौ संघेशौ यस्य मातुलौ ॥ १३ ॥ साधर्मिकाणां प्रति समरूप्यटकान्विति]मोदकमर्पयन् यः । अभ्यर्च्य संघेन समं गुरूंश्च श्रीदर्शनोद्यापनमाततान ॥१॥ चैत्ये श्रीआदिदेवस्स श्रीदेवकुलपाटके कुलीखोतकरो देवकुलिको यो व्यधापयत् ॥ १५ ॥ 20 इतश्च-श्रीतपागच्छक्षीराणसुधाकरः । जवेति गुरवः श्रीमसोमसुंदरसूरयः ॥ १६ ॥ तेषां गुरूणामुपदेशवाचं निशम्य सम्यग् वरवासनाढ्यः । स लेखयन् लक्षमितं जिनेंद्रागमं ह्यमुं पुस्तकमप्यलीलिखत् ॥ १७ ॥ ॥ शुभं भवतु ॥ 25 प्राग्वाटवंशीय-धर्मश्रेष्ठि-लेखित-लक्षद्वयग्रन्थमान-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १४७९-८१ विक्रमाब्द] -संवत् १४७९ वर्षे वैशाषवदि ४ गुरौ ॥ इष्टदेवताभ्यो नमः ॥ श्रीमज्जिनेश्वरविहारविराजमानं सद्धर्मकर्मठंजनबजलब्धमानम् । सौवश्रिया प्रतिहतान्यपुराभिमान ख्यातं हडाननगरं जयति प्रधानम् ॥ १ ॥ 80 *पत्तने संघवीपाडास्थितभाण्डागारे विद्यमान ताडपत्रात्मक-राजप्रश्नीयोपाजवृत्तिपुस्तकप्रान्ते इयं प्रशस्तिलिखिता लभ्यते। + पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे एकं ताडपत्रात्मकं [प्राकृतभाषामय] पद्मप्रभचरितपुस्तकं विद्यते, तत्प्राम्तभागे इयं प्रशस्तिलिखिता लब्धा। [४८] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तत्रोन्नत्यविशेषशालिनि गिरिप्राप्तप्रतिष्ठे शुभ-च्छाये पर्वशतप्रशस्तविभवे प्राग्वाटवंशे ध्रुवम् । लाषाहः प्रबभूव मौक्तिकमणिः सद्वृत्तभावं श्रितः, श्रीमान् सज्जनमंडनं शुचिरुचिस्त्रासादिदोषोज्झितः ॥ २ ॥ तमोविजेतुः पुरुषोत्तमस्य सुदर्शन श्री कलितस्य तस्म । पद्मासना भोगविलासदक्षा प्रिया गुणान्याऽजनि लक्ष्मिदेवी ॥ ३ ॥ तत्तन्निर्मलधर्म्मकर्मनिरतो धर्माभिधानस्तयोः संजातस्तनयः प्रशस्यविनयः श्रीमान्निरस्तानयः । 5 आश्चर्य प्रतिपद्यपि प्रतिकलं साकल्यनैर्मल्यभाक्, यस्य स्पष्टमदीप्यत रुचित्रिंश्शेषनश्यत्तमाः ॥ ४ ॥ षष्ठाष्टममदिकविचित्रतपोविधानकावर्णनाऽस्य ननु पुष्यति कामभिख्यां । संसारसागरतरंडमखंडमावः संसारतारणकृतं कृतवान् कृती यः ॥ ५ ॥ श्रीमान्वयस्थो दयितान्वितोऽपि च ब्रह्मव्रतं वत्सरपंच विंशतिम् । स एष यावत्कथिकं प्रपालयन् न विस्मयं कस्य मनस्यवीविशत् ॥ ६ ॥ 10 श्रीशकस्तवपंचकादिविधिना वारांश्चतुर्विंशति-स्तन्वानो जिनवंदनं प्रतिदिनं यावद् भवाभिग्रहात् । सम्यक्त्वस्य सुधीः शतंत्रयमितैर्यो राजतैष्टककै रन्तर्मोदकमाहितैर्विहितवानुद्यापनं पुण्यवान् ॥ ७ ॥ इमं सती चक्रशतक्रतू रत्तूरतूतुषन्निस्तुषशीलभृत्प्रिया । गुणा यदीया हृदयंगमाः सतां श्रयंत्यजस्रं श्रवणावतंसताम् ॥ ८ ॥ इतश्च - श्रीमत्तपागणनमोऽङ्गणभास्कराणां सिद्धांतवारिधिविगाहनमंदराणाम् । श्रीदेवसुंदरगुरूत्तमपट्टभाजां श्रीसोमसुंदर मुनीश्वरसूरिराजाम् ॥ ९ ॥ पीयूषदेश्यामुपदेशभारतीं निशम्य सम्यक् श्रुतभक्तिभावितः । ग्रन्थं स लक्षद्वयमानमात्मनः पुण्याय धन्यः स्वधनेन लेखयन् ॥ १० ॥ सोमवन (१४८१) मितेऽब्दे श्रीचित्कोशे व्यलीलिखन्मोदात् । ४८ 15 20 25 ॥ ११ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् यावदू व्योमातपत्रे अहमणिखचिते मेरुसौवर्णदण्डे, श्रीधर्मस्याधिभर्तुर्भ्रमतिं वरनभोरलनीराजनेयं । तावत्तत्त्वार्थसार्थामृतरसजलघिर्नदतात्स्वस्तिशाली, मन्थोऽयं वाच्यमानः सहृदयहृदयानंदकंदांबुदः श्रीः ॥ १२ ॥ [ ४९ ] श्रीमालवंशीय भ्रातृयुगल-श्रेष्ठिगोविन्द नगराज लेखितागमादिपुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १४७९-८० विक्रमाब्द ] [ नंदीसूत्रटीकाप्रांते - ] इति श्रीमलयगिरिविरचिता नंद्यध्ययनटीका समाप्ता । छ । ग्रंथानं ७७३२ । सूत्रयं ७०० | छ । शुभं भवतु मंगलमस्तु समस्त संघस्य । छ । श्रीसर्वविदे नमः । पुरंदरपुरस्फाति भाति श्रीपत्तनं पुरं । धर्म्मन्यायमये यत्र नित्यं लोकस्सुखायते ॥ १ ॥ 30 विभाति गांभीर्यगुणेन नानाराजाप्तवृद्धिजडभावमुक्तः । राजन्ननेकैः पुरुषोत्तमैः श्रीमालवंशांबुनिधिर्नवीनः ॥ २ ॥ * अस्य पयस्योत्तरार्द्धा मूलादर्श पतितः प्रतिभाति । + एतत्प्रशस्तिसमन्वितानि ताडपत्रमयानि पुस्तकानि पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यन्ते । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसह । तमिन्समप्रव्यवहारिरनमपत्नधामानुपमानकीर्तिः । निर्दूषणः सद्गुणधाम धर्ममयैफकर्माऽजनि कर्मसिंहः॥३॥ प्रियाऽस्य गोईत्यभिधा सुधासहग्वचःप्रपंचा समजायलाऽद्भुता । विशुद्धशीलादिगुणैरनुत्तरैर्या सीतया खं तुलयां बघुपी ॥ ४ ॥.. वदंगभूमरिसमृद्धिधाम महेभ्यसीमाऽजनि मालादेन: । बुधा अबुध्यंत भबांबुधे()ऽयं धनेश्वरस्य प्रतिबिंषमेव ॥५॥ श्रीगूर्जरेश्वरनियोगिनि रनपाले तद्ग्राहयत्यपि बलेन जनं समय। नैकादशीव्रतमधा बहुधा प्रकारैस्तद्भापितोऽपि दृढदर्शनधीसुधीर्यः ॥ ६॥ . अहो अनेकैः सुकृतोत्सर्जनं सदैकधर्मात्मकतां नयन्नपि । अनंतधर्मात्मकवस्तुदेशिनो जिनेशितुश्शासनमत्यजन्न यः॥७॥ जगदंतगता विमुक्तवत् ध्रुवमानंत्यजुषोऽपि यद्गुणाः । ग्रहचक्रमिव स्थिरा अपि क्रममाणाश्च जगत्सु कौतुकं ॥८॥ श्रीदेवसुंदरयुगोत्तमसेवयाप्तश्रीमजिनागमविचारमहारहस्यः । नंदीश्वरस्तवनमुद्यतरानवातीचारांश्च यो निरुपमानमतिश्चकार ॥ ९॥ पविधान्यहरहः कुरुते मावश्यकानि कलिकालविजेता । यो यथोत्रितमथो धनदानैर्दीनलोकमुददीधरदेव ॥ १० ॥ श्रीतीर्थयात्रा-जिनबिंब-साधुपूजा-प्रतिष्ठादिविधानधीरः । सदापि साधर्मिकवत्सलत्वदान्यदिधभैरजयत्कलिं यः॥ ११ ॥ अथ च-. संघभारधरणैकधुरीणाः धर्मकर्मसु न कदापि न रीणाः । नित्यदेवगुरुभाक्तिकचित्युः क्षेत्रसप्तकनियोजितविताः ॥१२॥ भूतलपथितकीर्विसमूहाः पूरितार्थिजनसर्वसमीहाः । भूरिभूतिपरिभूतधनेशास्तेजसा च जितबालदिनेशाः ॥ १३ ॥ 15 मर्त्यलोकहितहेतुकमिंद-प्रेषिता इव दिवः सुरवृक्षाः 1 पंच तस्य तनया विनयाना भूरिभाग्यविमवा विजयते ॥ १४ ॥ आसीजनाल्हादकमनिराधः केल्हाभिस्तेषु घियां निधानम् । . प्रभावकालंकरणस्य यस्य दशाप्यशोमंत दियो यशोमिः ॥ १५॥ आस्ते जगत्ख्यातयशा द्वितीयो हीरामिषानो व्यवहारिहीरः । बांबुप्रेस्तस्य गुणास्तरंगा इवास्त्रसंख्या जगतीं स्पृशंति ॥ १६ ॥ 20 निखिलव्यवहारिवर्गमौलिगकर सकती सुतस्वनीमा जलालाबाला समाजाला धीखोकपमा सुदर्शनस्स ॥१७॥ भक्तः श्रीगुरुपदयोः सदापि धर्माधारः श्रीजिनपतिशासनप्रमाकृत् । त्रैलोक्यप्रथितयशा विशां प्रधानं पाताका समजनि तत्सुतश्चतुर्थः ॥ १८ ॥ सनंदकः स्फुटबिराजिसुदर्शनश्रीलक्ष्मीविलासवसतिः पुरुषोसमोऽत्र । वस्यांगसूर्जयति पंचमकः क्षमायां गोविंद इत्यभिधया विदितो गुणैश्च ।। १९॥ 25 यौवनेऽपि दपता किल शीलं येन धीरपुरुषाचरितेन । मारितः स्मररिपुः परिभूय स्थूलभद्रमुनिवृत्तमिदानीं ॥ २०॥ केल्हाभिधानस्य जनी विनीता स्यातास्ति हर्षुरिति यत् हृदुर्व्या । धर्मदुमः श्रीगुरुदेवभक्तिरसैः प्रवृद्धः फलतीप्सितोवैः ॥ २१॥ .. चतुरंखुधिवारिकीर्चयचतुराशाजनतामनोमताः । तनुजां मनुजालिमंडनं चतुरासति चतुर्मितास्तयोः ॥ २२ ॥ न्यवहारिवर्गमंडनमसंडदानादिधर्मविधिनिरताः । डाहा भोला मंडन माणिक्येति क्रमाद्विदिताः ॥ २३॥ 30 जगदद्भुतसौंदर्ये भायें हीराभिधस्य जयतो द्वे । आद्या शाणीनानी हीरादेवी द्वितीया च ॥२४॥ भाग्यदाक्ष्यविनयादिगुणाब्यौ ते क्रमेण तनयाव वातां । आदिमा विजयकर्णसकर्ण भूरिभूतिमपरा च गजाई ॥२५॥ मायादिदोषरहिता दयिता विमाति वीरामिधस्स फदकूलुकूलचित्ता । ..... या यौवनेऽपि विमलं प्रतिपद्य शीलं योषासु धैर्यविरहापयशः प्रमार्टि ॥ २६ ॥ सुतौ तयोर्माग्यभृतौ विनीतौ प्रभूतभूती गुणभूरभूतां । आधः कृती नंदति देवदत्तस्त्रया द्वितीयो गुणदत्तनाम ॥२७॥ 35 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । पाताभिधानव्यवहारिमौलेरुभे अभूतां दयिते विनीते । तत्रादिमा सच्चरितैः पवित्रा प्रतापदेवी रतितुल्यरूपा ॥२८॥ अपरा पदमलदेवी नित्यं श्रीवीतरागभक्तिपरा । तनुजौ मनुजौघवराविमे क्रमेणासुवातां द्वौ ॥ २९ ॥ श्रीजिनेंद्रपदपंकजभक्तः सर्वदा सुकृतकर्मसु सक्तः । आदिमो विजयते नगराजः कीर्तिपूरजितशारदराजः ॥ ३०॥ उदयराज इति प्रथितोऽपरस्सकलपौरविभूषणमंगजः । जयति देवगुरूत्तमभक्तिकृन्नरमणी रमणीयगुणालयः ॥ ३१॥ गोविंदनानो दयिताऽस्ति गंगादेवी सदा श्रीगुरुदेवभक्ता । न जातु धर्मामृतशीतलं यन्मनः कलिस्तापयितुं समर्थः ॥ ३२॥ तयोर्जयंत्यब्धिमिताः सुताः श्रीपदं महाभाग्यभृतो विनीताः । भृताश्चतस्रोऽपि दिशो यशोभिर्येषामशेषा हिमरुक्महोभिः ॥ ३३ ॥ आद्यो हरिश्चंद्र इति प्रतीतः सूनुर्द्वितीयः किल देवचंद्रः । ततस्तृतीयो जिनदासनामा प्ररूढधामा गुरुदेवभक्तः ॥ ३४ ॥ अथ च-श्रीजैनशासनसमुद्धरणैकधीराः श्रीदेवसुंदरयुगप्रवरा विरेजुः । तेषां पदे जनमुदे विहितावताराः श्रीसोमसुंदरगुरुपवरा जयंति ॥ ३५॥ निश्शेषलब्धिभवनं भुवनातिशायिमाहास्यधामभरतोत्तमसंयमाढ्याः । किंचात्र सर्वगुणसुंदरशिल्पसीमाभूता जयंत्यधिजिनेश्वरशासने ये ॥ ३६॥ 15 चत्वारः श्रीमदाचार्याः स्थापितास्तैर्युगोत्तमैः । एकपादपि यैर्धर्मश्चतुष्पादभवत्कलौ ॥ ३७॥ शांतिस्तवेन जनमारिहृतस्सहस्रनामावधानिबिरुदा महिमैकधामाः । तेष्वादिमा विविधशास्त्रविधानधातृतुल्या जयंति मुनिसुंदरसूरिराजाः ॥ ३८॥ षट्त्रिंशता सूरिगुणैरलंकृतास्तथा द्वितीया विजयं वितन्वते । जगच्छूताः कृष्णसरस्वतीति सद्यशःश्रियः श्रीजयचंद्रसूरयः ॥ ३९ ॥ 20 व्यजयंत महाविद्याविडंबनप्रभृतिशास्त्रविवृतिकृतः । श्रीभुवनसुंदरगुरुत्तमास्तृतीया यशोनिधयः ॥ ४०॥ तुर्या जयंति जगतीविदिता निखिलांगपाठपारगताः । श्रीजिनसुंदरगुरवः प्रज्ञाऽवज्ञातसुरगुरवः ॥४१॥ अतश्चगणाधिपश्रीगुरुसोमसुंदरप्रभूपदेशं विनिशम्य सुंदरम् । श्रुतस्य भक्तेरधुना जिनाधिपप्रवर्तमानागमलेखनेच्छया ॥१२॥ ___ गोविंद-नगराजाभ्यां नंदेभं-मैंनु-वत्सरे । लेखितः पुस्तको जीयादाचंद्रार्क प्रमोददः ॥ ४३ ॥ ॥ इति प्रशस्तिः * ॥ [५.1 श्रीमालवंशीय-श्राविकालीली-लेखित-उपमितिकथासमुच्चय-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकालो नोल्लिखितः] नम्रोन्नने यदस्मिन्नपि जगति पदांगुष्ठपीडां प्रपन्नाणोद्रो(?) क्षुभ्यदब्धेर्विमलितममृतैरभ्रमुल्लोचतीदम् । 30 यत्ताराः खस्तिकंति क्षितितलमिलिता यस्य जन्मोत्सवे तत्कल्पोऽप्याकल्पकल्पः स नुदतु दुरितं वो महावीरदेवः । * इयमेव प्रशस्तिरेतद्भाण्डागारसुरक्षितदशवैकालिकटीका-कल्पभाष्य-भवभावनावृत्त्यादिपुस्तकान्तेऽपि लिखिता लभ्यते । तत्र भवभावनावृत्तिप्रान्ते एष विशेषः पुष्पिकालेखो दृश्यते संवत् १४८० वर्षे कार्तिक वदि १२ रवौ महं भीमासुत हरिदासेन लिखितं ॥ शुभं भवतु ॥ t ताडपत्रीचं पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते । द्रपिटर्सन् रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ. ४ 25 हरिदासेन लिखिते! शुभं भवतु ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । भूभृत्प्रतिष्ठामधितिष्ठमानः श्रीमालवंशो न कुतोऽपि नीचः । संसेव्यमानोऽर्थिभिरुद्धतोऽप्यवष्टंभनाय प्रयतैः स जीयात् ॥ तस्मिन्नाम्नास्ति बेल्लत्फल इति कलिना यो बहिः कृत्य मुक्तस्तुच्छेनातुच्छमूर्तिः प्रणयिवितरणे कल्पशाखीव मर्त्यः । शंके पुण्यैकमार्गः कृतयुगसमयान्नास्ति पूर्वं तदस्मान्नो चेत्तत्संततिः किं सुकृतिशतकृतारंभरेखा च लीली ॥ मोक्षस्य हेतुः प्रथमस्तथा प्रत्यर्थितंत्र श्रुतधर्म एषः । श्रेयोऽर्थमेषोपमितिं व्यलीलिखल्लीली सुता तस्य पितुस्तदेतां ॥5 संसारवा पततां जनानां स्फुरत्ययं हस्त इवाविमनः । आलंबनीयः श्रवणादिकृत्यै-विलेखितो ग्रन्थ इयं च शास्तिः ॥ [५१] धर्कटान्वय-श्राविकाराज्यश्री-लेखित-[देवचन्द्रसूरिकृत-]शान्तिनाथचरित्र पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकालो न निर्दिष्टः, वर्णनानुसारेण १२ शताब्दयनुमीयते] श्रीविजयचंद्रसूरिशिष्य श्रीयशोभद्रसूरिशिष्य श्रीदेवप्रभसूरीणां सत्कं पुस्तकम् । प्राप्तो गोत्राधिपत्वं रसभरविलसन्नंदनारामरम्यः, सर्वस्याशाप्रकाशी सकलसुमनसां सेवनीयः सदैव । नानाकल्पागमानामुपचयजनको राजसम्मानभावं, प्राप्तः श्रीधर्कटानां प्रकटितगरिमा वंशमेरुः समस्ति ॥ १॥ सच्छायः सरसः सपत्रनिचयः शाखाप्रशाखांचितः, पीनस्कंधविराजितः प्रतिपदं संतापहारी सताम् । चिंतागोचरवारिशुद्धविसरं दातुं समर्थोऽर्थिनां, तत्राजायत कल्पपादपसमः श्रीजावडः श्रावकः ॥२॥ 15 तस्याभवन्निखिलकल्मषदोषहीना-स्तिस्रः प्रियास्त्रिपथगा इव पूरिताशाः । लोकत्रयप्रथितशीलयुतास्तथापि, प्राप्ताः कदाचन न दीनपथातिथित्वम् ॥ ३॥ जिनदेवी बभूवासामाद्या मधुरवादिनी । स्त्रणोचितगुणोपेता जिनेंद्रपदपूजिका ॥ ४ ॥ राकासुधारश्मिसमानशीला शुद्धाशयानंदितदीनलोका । रूपश्रिया तर्जितकामकांता कांता द्वितीयाऽजनि सर्वदेवी ॥५॥ __ कुंदावदातद्युतिशीलशालिनी मातेव सर्वस्य जनस्य वत्सला । 20 - पूर्णी तथा पूर्णमनोरथस्थितिर्जाता तृतीया गृहिणी विवेकिनी ॥६॥ यः सर्वदा सर्वजनोपकारी गंभीरधीरो जिनधर्मधारी । तं दुर्लभं दुर्लभमल्पपुण्यैः प्रासूत तत्र प्रथमा तनूजम् ॥ ७ ॥ संजातौ भूवि विख्याती सर्वदेव्याः सुतावुभौ । उदयाचलचूलायाः सूर्याचंद्रमसाविव ॥ ८॥ आद्यस्तयोः सज्जनचित्तहारी नयी विनीतः सकलोपकारी। जिनेंद्रपूजाविहितानुरागः साधुप्रियोऽजायत देवनागः ॥९॥ द्वितीयश्च गुणावासः सत्यशौचसमन्वितः । कलावानुज्ज्वलो जातः कुलकैरवचंद्रमाः ॥ १० ॥ 25 सूरेः श्रीजिनवल्लभस्य गणिनः पादप्रसादेन त-लब्धं येन विवेकयानमसमं दुःप्रापमल्पाशयैः । येनाद्यापि सुखं सुखेन कृतिनः संसारवारांनिधेः, पारं यांति परं निरस्तसकलक्लेशावकाशोदयाः ॥ ११ ॥ शिरसि नमनं यः साधूनां दृशोरतिशांततां, वदनकमले सत्या वाणी श्रुतौ श्रवणं श्रुतेः । मनसि विमलं बोधं पाणौ धनस्य विसर्जनं, जिनगृहगतिः पादांभोजे चकार विभूषणम् ॥ १२ ॥ प्रालेयशैलशिखरोज्ज्वलकांतिकांत-श्रीनेमिनाथभवनच्छलतश्च येन । मूर्तिः स्वधर्म इव सर्वजनीयदातु-राविष्कृतः सकललोकहितावहेन ॥ १३ ॥ * ताडपत्रीयमिदं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन रीपोर्ट पुस्तक ५, पृ० ४ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । चारित्राचरणैकधीरमनसो गीतार्थचूडामणेः, विद्यानां मणिदर्पणस्य शमिनः सेव्यस्य पुण्यार्थिभिः । यश्च श्रीमुनिचंद्रसूरिसुगुरोः पादांबुजं सेवितुं, वाञ्छन्मत्सरवर्जितः सुरवधूप्राणेश्वरत्वं गतः ॥ १४ ॥ निःसीमधर्मनिलयं कलितं सदथैः, सद्वृत्तताविरहितं न कदाचनापि । ख्यातं जगत्त्रयमिवापदनंतसत्त्वं, पूर्णासुतत्रयमतीव ममीरमध्यम् ॥ १५॥ लक्ष्मीविलासकलितो बलिदर्पहता, सत्यानुरागिहृदयो विधिपक्षपाती । लक्ष्मीधरः सुतवरोऽजनि तत्र मुख्य-श्चित्रं तथापि न जनार्दनतामुपेतः ॥ १६ ॥ आराधितश्रीजिननेमिनाथः, संपादितानंतखलप्रमाथः । आसीद् द्वितीयो धनदेवसंज्ञः, सदा सदाचारविचारविज्ञः ॥ १७ ॥ यस्यासमानफलकांतगुणाभिरामं, संरुद्धरंध्रमविलाभिजलप्रवेशम् । सद्धीवरैरनुगतं मतियानपात्रं, गंभीरकार्यजलधेः परभागमेति ॥ १८ ॥ विवेकजनवल्लभः स्फटिकशैलशुद्धाशयः, कलंकविकलः सदा सकललोकसंतोषदः । बभूव जिनपूजकः सुगुरुवंदकः श्रावक-स्तृतीय इह नंदनः सुजननंदनः श्रीधरः ॥ १९॥ तत्रोजिलस्य समजायत धर्मपत्नी, मंदाकिनीसलिलनिर्मलशीलयुक्ता ।. लक्ष्मीः समस्तजनवाञ्छितदानदक्षा, चित्रं न निर्गुणरता न चलखभावा ॥ २० ॥ 15 उल्लासकाः सुमनसां विदितानुभाव-संपादकाः समयिनां बहुलं फलानाम् । नित्यं निजक्रमयुता भुवनप्रसिद्धाः, पुत्रास्तयो ऋलुसमाः षडिहोपजाताः ॥ २१॥' कारुण्यरत्नांकुरमेरुशैलः सौजन्यपीयूषरसांबुराशिः । आद्यः सुतोऽजायत वर्द्धमानस्तेषां कलाभिः परिवर्द्धमानः ॥ २२ ॥ अपारगांभीर्यनिवासभूमिर्विद्वत्सु श्राद्धादिजनोपकारी । अनल्पलावण्ययुतो द्वितीयः पुत्रः पवित्रोऽजनि मूलदेवः ॥२३॥ कीर्तेः पात्रं निजगुरुगिरां पालने लब्धलक्षः, स्थानं नीतेर्जनकनयनानंददायी सदैव। . 20 दूरीभूताखिलख..... लो जातवान्पुत्ररत्नं, तार्तीयीकः कुशलवसुतावल्लभो रामदेवः ॥ २४ ॥ बभूव कारुण्यपरिग्रहाय कृतागृहः कुग्रहदर्पहता । विपत्तिसंपत्तिसमानुरागी यशोधरो धीरिमधाम तुर्यः ॥ २५ ॥ जितेंद्रपूजारचनानुबंधबद्धोद्यमो निर्मलकीर्तिशेषः । भक्त्या समासेवितसर्वदेवस्ततोऽनुजोऽजायत सर्वदेवः ॥२६॥ मुक्ताफलारंभरतिर्न दीनो विश्रामभूमिः पुरुषोत्तमानाम् । पयोधिवन्नित्यगमीरभावः षष्ठस्तनूजोऽजनि चापदेवः ॥२६॥ ' तत्रासी रामदेवस्य वल्लभा शीलशालिनी । आसदेवीति विख्याता सुरूपा रूपिकापरा ॥ २८॥ 25 यशोधरस्य जाया च थेहिका हितकारिणी । शोभना सर्वदेवस्य चापदेवस्य शांतिका ॥ २९ ॥ अस्ति स थेहड इति प्रथिताभिधानः, कुंदावदातहृदयः सदयः सदैव । धीरो यशोधरसुतः कलितः कलाभि-नित्यप्रशस्तचरितः प्रणतो गुरूणाम् ॥ ३०॥ आनंदकः सुमनसां सततं सुधर्म-बद्धादरः कृतविमानमनःप्रवृत्तिः । । आस्ते महेन्द्र इव वल्लभचित्रलेखः श्रीरामदेवतनयो विनयी महेंद्रः॥ ३१ ॥ 30 हरिचंद्राभिधानश्च द्वितीयोऽभूतनूद्भवः । वल्लभः सर्वलोकानां प्रतिपच्चंद्रमा इव ॥ ३२ ॥ विनयी नयसंवासो चापदेवस्य नंदनः । गोसलाख्यः सुशीलोऽभूगुणरत्नमहानिधिः ॥ ३३ ॥ आसीदाद्या महेंद्रस्य महाश्रीरूपसप्रिया । राज्यश्रीः शीलकारुण्यदानौचित्यादिशालिनी ॥ ३१ ॥ राज्यश्रियस्त्रयः पुत्रा वीसलोऽथ यशोभटः । बोहित्थश्चेति संजाता गुणरत्नौधरोहणाः ॥ ३५ ॥ राज्यश्रीरन्यदा तत्र शुद्धश्रद्धानबंधुरा । इत्येवं चिंतयामास निस्समानगुणोज्वला ॥ ३६ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। प्राणा वायुमयाः खभावतरला लक्ष्मीः कटाक्षस्थिरा, खाम्यं बालविलंबितातनुशिलावस्थानदुःस्थं सदा । . वातांदोलितदीपकुड्मलदलप्रायः प्रियैः संगम-स्तन्नास्तीह किमप्युदारमनसामाशामिवेशास्पदम् ॥ ३७ ॥ तल्लब्ध्वा मनुजेषु जन्म विमलं संप्राप्य देशादिकं, श्रुत्वा श्रीजिनचंद्रवाचमुचितां श्रीमद्गुरूणां पुरः। खाघीने च धने च संगतवति खीये कुटुंबे सतां, युक्तो धर्मविधान एव सततं कर्तुं महानुद्यमः ॥ ३८॥ सम्यग्ज्ञानपुरःसरश्च महतां धर्मादरः संमतः, प्रायस्तच्च जिनागमादविकलं संजायते धीमताम् । सर्व लोकमवेक्ष्य शांतविशदप्रज्ञाप्रकर्षोद्यमं, काले सोऽपि कलौ न्यवेशि मुनिभिः संघोत्तमैः पुस्तके ॥ ३९॥ चारित्रभारचरणासहमानसेन पंचप्रकारविषयामिषलालसेन । पात्रादिदानमयधर्मवता तदेयं लेख्यं परिग्रहवता गृहिणा तदेव ॥ ४० ॥ एवं विचिंत्य सुचिरं श्रेयोथे खस्य सा च राज्यश्रीः । श्रीशांतिनाथचरितस्य पुस्तकं लेखयामास ॥ ४१॥ विरचितविचित्ररेखं सुवर्णपत्रावलीकलितशोभम् । यद्भाति करे विदुषां कंकणमिव कीलिकारम्यम् ॥ ४२ ॥ 10 राकाशीतांशुशुभः स्फुरदमलदृशः सर्ववस्तुप्रकाशी, सम्यग्ज्ञानप्रदीपस्त्रिभुवनभवनाभ्यंतरे भासमानः । यावन्मोहांधकार शमयति सकलं पूरिताशेषदोषं, तावन्नंद्यान्मुनींद्रेरयमिह सततं पुस्तकः पठ्यमानः ।। ४३ ॥ [५२] धर्कटवंशीय श्रेष्ठिनागेन्द्र-लेखित-[ सिद्धर्षिकृत ] उपमितिभवप्रपंचाकथापुस्तकप्रशस्तिः ।* 15, [लेखनसमयो न निर्दिष्टः, परं वर्णनानुसारेण १२-१३ शताब्दी संभाव्यते ] श्रीमालाचलमौलिमूलमिलितस्त्रैलोक्यसुश्लाघितः, पर्वालीकलितः सुवर्णनिलयः प्रासादलब्धालयः । लीना: भ्यकुलः प्रलीनकलुषः शुभ्रातपत्रानुगो, वंशोऽस्ति प्रकटः सदौषधनिधिः श्रीधर्कटानां पटुः ॥ १॥ सारासारविचारचारुचतुरः सारार्थबद्धादरः, संसारोदरवर्विजंतुशरणश्रीमजिना परः । .. कारुण्याकरसद्गुरुस्तुतिवशप्राप्तार्थदानोद्यत-स्तत्रात्मीयकुलकमोचितरतः सन्नेमिचंद्रोऽभवत् ॥ २ ॥ 20 ___ तस्यानघा घनपयोधरयुग्मरम्या, रामानुरूपगुणरंजितभर्तृचित्ता । - चिंताव्यतीतफलदायकधर्मलीना, निर्वाणनामविदिता जनतासु पत्नी ॥ ३ ॥ जीवाजीवपदार्थसार्थवचनः संपूर्णचंद्राननः, सर्वाधीनधनः सलीलगमनः क्रोधेभपंचाननः । नैपुण्यार्जितसज्जनः प्रतिदिनप्रारब्धदानावनः, सूनुः श्लाषितसर्वदेवभुवनख्याताभिधानस्तयोः ॥ ४ ॥ ..देवेन केनापि कदाचिदेष, नीतो रजन्यां खगृहात्प्रसुप्तः। 25 अष्टापदे वंदितवान् जिनेंद्रान् , प्रातः खहस्ते कुसुमं ददर्श ॥ ५॥. सदा दानाशक्ता खकुलविमलाचारनिरता, सुशीलप्रख्याता परहितरता दैन्यरहिता । अमानातिकांता गुणगणयुता सज्जनमता, सदच्छुप्तानामा वरसहचरी तस्य च तयोः ॥ ६ ॥ लक्ष्मीपतिः सुतनयोऽजनि यक्षदेवः, श्रीराजिनीनयनसंमद आम्रदेवः। धीधीमनोभवनदीपकचांदिगाख्य-स्तुर्यो यशोमतिवधूप्रियपुंडरीकः ॥ ७ ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं. ताडपत्रीयपुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सन् रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ. १४९-५३। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ५४ 15 धर्मार्यादिचतुःप्रकारपुरुषखार्थोद्यतस्यान्यदा, द्वौ द्वौ सुंदरभार्ययोर्वरसुतौ श्राद्धादेवस्य तौ । संजातौ कुलजप्रियौ सुसरलौ पार्श्वाख्य- मूणागकौ, राजिन्या बुधलक्ष्मणो गुणनिधिर्नागेंद्रनामानघः ॥११॥ सन्नेमिचंद्र - गुणमंदिर-देवचंद्रसूनुद्वयं व्यजनि चांदिगनामधेयात् । प्रद्युम्न-शंबकृतनामकमुज्ज्वलांगं सत्पुंडरीकसुतयाजनि पुत्रयुग्मं ॥ १२ ॥ 10 नागेंद्रः शुभधर्मकर्मनिरतः सन्मोहिनी भार्यया, पद्मावत्यभिधानया सरलया स्वस्त्रीयया संयुतः । वाहिन्या सुतया सुतेन गुणिना सुश्रीकुमारेण वै, शांतापत्ययशः प्रियानघयशोदेवेन धर्मार्थिना ॥ १३ ॥ अथान्यदा दानतपोविधानसुभावनाशीलसनाथधर्मे । जिनप्रणीते विदधन् प्रयत्नं शृणोति धर्म्यं वचनं गुरुभ्यः ॥ १४ ॥ तद्यथा - निरवधिभववार्डो कर्मदोषाद्धमंतः, प्रवरशरणहीना योनिलक्षेषु जीवाः । कथमपि त्रुटि (?) योगान्मानुषं जन्मरलं, सकलगुणविशिष्टं कष्टलक्षैर्लभंते ॥ १५ ॥ प्राप्य तत्प्राणिभिः प्रार्थितार्थपदं प्रेरणाप्रोद्यतप्रांजलप्रेरितैः । प्रत्यहश्चितयित्वा धनाद्यस्थिरं कर्तुमेवोचितं चारु जैनं वचः ॥ १६ ॥ 20 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । चतुर्भिरेभिर्जिनधर्म लीनैर्विभावितागाधभवाद्विभावैः । व्यधायि घंघाणकसंनिवेशे शरण्यचंद्रप्रभदेवहर्म्यं ॥ ८ ॥ प्रत्याख्यानं येन कृत्वौदनादेः पद्भ्यां निर्गत्योज्जयंते नगेंद्रे । श्रीमन्नेमिर्वेदितः पूजितश्च क्षिप्रं भूयाद्यक्षदेवः ससौख्यं ॥ ९ ॥ . यक्षदेवस्य तस्याद्यमी (?) जातवान् चारुपुत्रः प्रियः शांतनामादिमः । धर्मकर्मा सुशीलाम्रदत्ताभिधः क्रोधकोपोजितः कमरुः पोजितः (१) ॥ १० ॥ 25 30 प्राणातिपातविरतिप्रमुखानि यानि, जैनागमे निगदितानि महात्रतानि । तानि क्षमो यदि न कर्त्तुमशक्तियोगाद्यूयं कुरुध्वममलं गृहिधर्ममेनं ॥ १७ ॥ कर्त्तव्यं निपुंगवस्य महनं स्तोत्रैश्च तत्संस्तवः, सेव्यः साधुजनः प्रसन्नवदनैः श्रव्यं जिनेंद्रोदितं । चिंत्या द्वादशभावना निजहिते कार्यः प्रयत्नो महान्, शक्त्या चान्यहिते भवाब्धितरण प्रत्युद्यतैः प्राणिभिः ॥ १८॥ मोहादिद्विपकुंभ भेदनविधौ येषां सदा पौरुषं, कामित्वं कमनीयमुक्तिललनापीनस्तनस्पर्शने । न्यायोपात्तधनं गतं जिनमतक्षेत्रेषु सप्तखहो, तेषां पौरुषकामिता विभविता मन्ये कृतार्था भुवि ॥ १९ ॥ रम्ये श्रीजिनपुंगवस्य सदने बिंबे तदीयेऽनघे, संघे श्लाघ्यतमे प्रशस्तचरिते पूज्ये चतुर्वर्णके । सर्वज्ञागमलेखने विनिहितं वितं भवेदिष्टदं, सत्क्षेत्रे विधिनोप्तमिष्टसमये शाल्यादिवीजं यथा ॥ २० ॥ ये कृत्वा जिनमंदिराणि विधिना संपूज्य वस्त्रादिभिः, श्रीसंघं समुपात्तनीतिविभवाः श्रद्धापराः श्रावकाः । स्याद्वादप्रतिबद्धवाक्यजनक श्रीवीतरागेण य-निर्गीतं किल लेखयंति भविनः किं किं न तैः सत्कृतं ॥ २१ ॥ श्रुत्वा पुस्तकवाचनामनुदिनं गृह्णति केचिद्रतं, देवाधीशजिनेंद्र पूजनपराः श्राद्धा भवेयुः परे । अन्ये भद्रकभावभावितमनाः सद्धर्मयोग्या नरा, जायंते खलु यस्य पुस्तकमिदं हेतुः स तच्छ्रेयसः ॥ २२ ॥ इत्याकर्ण्य जिनप्रणीतमनधं धर्मं गुरुभ्यस्ततः, पर्यालोच्य कुटुंबकेन गुणिना नागेंद्रनामा गृही । सिद्धाख्येन कृतां कथामुपमितिं सिद्धांतसारोद्धृतां, तोषादेष सुधीर्व्यली लिखदिमां स्वश्रेयसे पुस्तके ॥२३॥ यावन्मेरुः प्रतपति रविद्यतते यावदिंदु-र्यावद्वायुः स्फुरति गगने तारकाः संति यावत् । यावद्भूमिः प्रवहति पयः सागरे यावदेत तावन्नंद्याद्गुणिभिरनिशं पुस्तकं वाच्यमानं ॥ २४ ॥ | मंगलं महाश्रीः ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [५३] गूर्जरश्रीमालवंशीय-कोशाधिपदेवप्रसादसन्तति-लेखित [हेमचन्द्रीय ] __ नेमिचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः । __ [लेखनसमयो नोपलब्धः, परं वर्णनानुसारतः १३ शताब्दीपूर्वभागो ज्ञायते ] सद्वृत्तादिगुणौघरत्नरुचिरः शाखाशतैर्विस्तृतो, नव्योन्मीलदखर्वपर्वकलितश्छायास्पदं भूभृतां । उच्चैवंश इवास्ति गूर्जरवरः श्रीमालवंशः क्षितौ, सद्धर्मा (1) परमेष संततिफलैर्विश्वोपकारोद्यतः ॥ १ ॥ एतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिदेवप्रसादाभिधः, स्तुत्यानेकगुणौघरत्ननिधिभिः कोशाधिपो नूतनः । जातो यस्य विवेककल्पविटपी. चिन्तालवालान्तरे, विश्वप्राणिगणोपकारकरणप्रावीण्यमुद्राफलः ॥२॥ नाम्ना महणलदेवीति प्रिया तस्य प्रियंवदा । शुद्धशीला तयोः पुत्री जज्ञे पुत्रद्वयं ततः ॥३॥ सुता माल्हणदेवाख्या ठकुरचाहडप्रिया । विश्वान्तः संततिर्यस्याः श्रेयोभिः कीर्तिभाजनम् ॥ ४॥ 10 देवं खीयगुरुं मनोज्ञवचनैर्यः स्तौति न खं पुनः, सर्वस्योपकृति तनोति नितरां न खस्य कस्मादपि । संसर्ग गुणिनां सदैव कुरुते न वापि पापीयसां, स श्लाघ्यो बहुदेव इत्यभिधया पूर्वस्तयोरंगजः ॥ ६॥ तत्पनी जिनराजचारुचरणाम्भोजद्वयीभृङ्गिका, श्रीमत्पंचनमस्कृतिस्मृतिपरप्रावीण्यपुण्योन्नतिः । शीलाचारविचारसारयुक्ता हारावलीभूषिता, ख्याता श्रीजगदेवमन्त्रिदुहिता शृङ्गारदेवी भुवि ॥६॥ युक्तायुक्तविचारनिस्तुषमतिालप्रसादः पर-स्तस्याभूत् सुभगा कलत्रमभवत्तजन्मसूनुद्वयं । आद्योऽस्तीह विशुद्धबुद्धिकलितः सूनुर्नृसिंहाभिधः, सौम्रात्रप्रथितोरुवृत्तकलितोऽन्यो रत्नसिंहाभिधः ॥ ७॥ सुतत्रयं सुता चैका बहुदेवस्यापि संततिः । बालभावेऽपि यश्चित्रं प्रवालचरितोत्तमं ॥ ८॥ भक्तिर्व्यक्तिरभिज्ञविस्मयकरी पित्रोस्तथा बन्धुषु, शान्तिः शैशवसङ्गमेऽपि सुधियां केषां न दत्ते मुदं। . औचित्यं च पुराणपूरुषजनासाध्यं च यस्योच्चकैः, सत्पुत्रः प्रथमो विवेकवसतिः श्लाघास्पदं छडुकः ॥९॥ सुधामूर्तिरिवान्यश्चाहादको वद्दकाभिधः । शूरः प्रतापमार्तण्डस्तृतीयः पेथडः पुनः ॥ १० ॥ नाम्ना नायकदेवीति सुतारनं सुताऽभवत् । तपस्तेजोद्भुतं यस्या नादपीयूषसंभूतं ॥ ११॥ नाम्ना कपूरदेवीति छड्डुकस्य प्रियाभवत् । सङ्ग्रामसिंहस्तत्पुत्रो हंसकादिसुताद्वयं ॥ १२ ॥ नाम्ना सुदसलदेवी गेहिनी वद्दकस्य च । धर्मरङ्गो यया चक्रे न प्रमादे निजं मनः ॥ १३ ॥ ____ x x [अपूर्णा ] x x [५४] 25 प्राग्वाटवंशीय-नारायणप्रेष्ठि-लेखित-[ नेमिचन्द्रसूरिकृत-] उत्तराध्ययनसूत्र-वृत्ति पुस्तकप्रशस्तिः । लेखनकालः प्रायः १३ शताब्दीप्रान्तभागः] प्राग्वाटवंशेऽजनि मोहणाख्यः श्रेष्ठी प्रिया तस्य सुहागदेवी। तयोः सुतो नागडनामकोऽभूत्तस्यापि भार्या सलघु प्रसिद्धा ॥ १॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते। अन्तिमपत्रस्य विनष्टलात्, अपूर्णा एवेयं प्रशस्तिरुपलभ्यते। ताडपत्रात्मक पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते । डा. नं. १६ । द्रष्टव्यमू-पिटर्सन रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ०७१। 30 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तयोस्तु नारायणनामधेयः पुत्रोऽभवत्स्फूर्जितभागधेयः । चित्रं गुरुत्यागकृतादरोऽपि यः सर्वदा धार्मिकलोकधुर्यः ॥२॥ तस्याभूत्कडुयामिल्योऽमुजो धरणिगस्तथा । तयोः प्रियतमा लावू जासलेति यथाक्रमं ॥ ३ ॥ नारायणस्य संजज्ञे हंसलेति सधर्मिणी । रत्नपालोऽभिधानेन पुत्रोऽभूत् हृदयप्रियः ॥ ४ ॥ जैनधर्मधुराधुर्यः श्रेष्ठी नारायणोऽन्यदा । श्रीमद्देवेंद्रसूरीणामिति वाक्यामृतं पपौ ॥ ५॥ 5 तथा हि-विषयसुखपिषासोर्गेहिनः कास्ति शीलं करणवशगतस्य स्यात्तपो वापि कीदृक् । अनवरतमदभ्रारंभिणो भावनाः कास्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः ॥ ६ ॥. तच्च द्विधा सर्वविदो वदंति ज्ञानाभयोपग्रहदानभेदात् । तत्रापि विश्वकविकासनेन सद्ज्ञानदानं प्रवरं वदंति ॥ ७॥ कालादिदोषान्मतिमांद्यतश्च तच्चाधुना पुस्तकमंतरेण । न शक्यते कर्तुमतोऽत्र युक्तं भव्यस्य संत्पुस्तकलेखनं हि ॥ ८॥ ___एवं निशम्य सम्यक् श्रेष्ठी नारायणो विमंलबुद्धिः । इदममलमुत्तराध्ययनपुस्तकं लेखयामास ॥९॥ 10 यावद् व्योमसरोवरे"........(इति पद्यम् )........." ""..... ॥ छ॥ छ॥ [५५] ... पल्लीपालवंशीय-सांतूश्राविकालेखित-आचारसूत्र-पुस्तकप्रशस्तिः । __ [ लेखनकालो अनुल्लिखितः, अनुमानात् प्रायस्त्रयोदशशताब्दी संभाव्यते ] उत्तुङ्गः सरलः सुवर्णरुचिरः शाखाविशालच्छविः, सच्छायो गुरुशैललब्धनिलयः पूर्वश्रियाऽलंकृतः । सवृत्तत्वयुतः सुपनगरिमा मुक्ताभिरामः शुचिः, पल्लीपाल इति प्रसिद्धिमगमद् वंशः सुवंशोपमः ॥ १॥ निस्त्रासः परिपूर्णवृत्तमहिमा मुक्तामणिप्रोज्ज्वल-स्तत्राभूद् विमलोल्लसद्वसुरसौ.श्रीचंद्रनामा गृही। श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वरस्य सदनव्याजेन येनाहितो, मेदिन्यां खयशःप्रकाशधवलः स्फुर्यत्तिरीटः स्फुटं ॥ २ ॥ तस्यासीद् गृहमेधिनी जिनवचःपीयूषपूर्णश्रुतिर- माइं इत्यभिधा बुधैर्मुररिपोर्लक्ष्मीरिव प्रोच्यते। . सा प्राचीव विवेकिसाभड-सुधीसामंतसंज्ञौ सुतौ, सूर्याचंद्रमसाविव स्फुटकरौ धत्ते स्म शुभ्राशयौ ॥ ३ ॥ 20 आसीत्तद्भगिनी खवंशनभसः सच्चंद्रिका निर्मला, नाम्ना श्रीमतिराश्रिताग़ममतिः सद्दर्शनालंकृतिः। श्रुत्वा जैनवचो विवेच्य विविधां संसारनिःसारतां, सद्यः श्रीजयसिंहसूरिसविधे दीक्षामसावग्रहीत् ॥ ४ ॥ तस्या एव भगिन्या सांतूनाम्न्या विशालमभिलेख्य । आचारसूत्रपुस्तकमिह दत्तं श्रीमतिगणिन्यै ॥ ५॥ इन्दुर्यावदमन्दमन्दरगिरिर्यावत्सुराणां सरित् , यावद् यावदिलातलं जलनिधिर्यावन्नभोमण्डलम् । यावत् सान्द्रमनिन्द्यनन्दनवनं यावद् यशांस्यहता, यावत्तावदिह प्रबोधतरणिर्नन्द्यादसौ पुस्तिका ॥ ६॥ 25 एतत्पुस्तकममलं सकलं श्रीधर्मघोषसूरीणाम् । व्याख्याहेतोरर्पितमिह सद्यः श्रीमतिगणिन्या ।। ७ ॥ 15 प्राग्वाटवंशीय-श्रे० देदाक-गृहीत-उत्तराध्ययनवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकालो नोल्लिखितः, परं वर्णनानुसारेण १४ शताब्दी शायते] स श्रीवीरजिनो जीयाद्यस्य पादनखांशवः । विकाशे भव्यराजीवराजेस्तरुणभानवः ॥ १॥ . 30 श्रुत्वाक्टावाप्तिमुख्यमुच्चैहिंसाफलं यत्र दयाप्रधानाः । धर्मेषु कृत्येषु जना यतते पुरं तदत्रास्ति दयावटाख्यं ॥२॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकं सनियुक्तिकमाचाराङ्गपुस्तकं पत्तने संघवीपाडागतभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । इयं प्रशस्तिः पुनर्नियुक्तिपन्थप्रान्तेऽपि लिखिता विद्यते। . 'ताडपत्रात्मकमिदं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। तत्राभवत्कमरसिंह इति प्रसिद्धः श्रेष्ठी जिनेशपदपङ्कजबद्धरागः । सम्यक् त्रिवर्गनिरतोऽपि सुधर्मकामा प्राग्वाटवंशतिलकः सदनं गुणानाम् ॥ ३ ॥ नाम्ना कुमरदेवीति तस्य जज्ञे सधर्मिणी । शीलादिभिर्गुणैः शुभैः सुलसामनुकारिणी ॥ ४ ॥ तयोस्तनूजाः क्रमशो बभूवुः पञ्चाप्रपञ्चा चरणेन वित्ताः । तत्रापि धुर्यो नयमार्गनिष्ठो देदाकनामा सुगुणैर्गरिष्ठः ॥५॥ द्वितीयः किसानामांकस्तृतीयः सांगणाभिधः । धनपालश्चतुर्थस्तु पञ्चमो भधडाभिधः ॥ ६॥ 5 आद्यस्य शीलपानं वीशलदेवी बभूव कलत्रं (!)। देवगु"................"देवी द्वितीयस्य ॥ ७ ॥ शृंगारदेव्यभिधया शुचिशीला सांगणस्य जायाऽभूत् । धनपालस्य तु दयिता सलषणदेवीति सुयथार्था ॥८॥ आल्हणदेवीसंज्ञा जज्ञे जाया पुनः कनिष्ठस्य । देदाकस्य तनुभुवोऽजयसिंहप्रभृतयोऽभूवन् ॥ ९॥ धर्मकर्मरते नित्यं गुरुलज्जाविभूषणे । देदादीनां वसारो"...................................॥ १० ॥ ....... 'दीक्षां प्रपद्य जनके सुरालये प्राप्ते । देदाकः सकुटुंबः शुश्रावैवं सुगुरुवाक्यं ॥ ११ ॥ 10 विषयसुखपिपासोर्गेहिनः कास्ति शीलं, करणवशगतस्य स्यात्तपो वापि कीदृक् । अनवरतमदप्रारम्भिणो भावनाः का-स्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः ॥ १२ ॥ धर्मः स्फूर्जति दानमेव गृहिणां ज्ञानाभयोपग्रहै-स्त्रेधा तद्वरमाद्यमत्र यदितो निःशेषदानोदयः । ज्ञानं चाद्य न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा, शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ॥ १३ ॥ इति देदाकः श्रेष्ठी श्रुत्वा खकुटुंबसंयुतो मुदितः । समगृहीत सुवृत्तिं सदुत्तराध्ययनसूत्रस्य ॥ १४॥ 15 [५७] श्रीमालज्ञातीय-श्रेष्ठिसरवणसुत...."लेखित-ज्ञाताधर्मकथावृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकालनिर्देशो नोपलब्धः, परं वर्णनानुसारतः संवत् १४५०-७५ मध्ये ज्ञायते ।] अखंडैर्यः खंडैनैवभिरभितः पिंडितवपुः-सुधाकुंडैः कुंभीनससहकृतैमंडित इव।। सुरैः सेव्यः सर्वैरविजितजरामृत्युचकितैः, प्रभुः स श्रीपार्थो जयति नितमां यत्र सततम् ॥ १॥ 20 उद्दामम्लेच्छकोटिप्रसमरसमरत्रस्तवृंदारकाणां, विश्रामस्थानतां यत् प्रतिपदमगमत् पुण्यलोकैरशोकैः । चंचद्गातरंगोज्ज्वलबहलगुणैर्धाम धर्मश्रियां यत् , श्रीमद् घोघाभिधानं सुललितनगरं खस्तिमन्नित्यमस्ति ॥२॥ __ तस्मिन् रमायाः सदने दवीयो देशस्थवस्तुप्रभुभिः प्रपूर्णे। ___वेलाकुले भूमितले प्रसिद्ध घोघाभिधाने नगरे समृद्धे ॥ ३ ॥-त्रिभिर्विशेषकम् । . वेधा वीक्ष्य कलिप्रचंडभुजगग्रस्तं समस्तं जगत् , तत्राणाय ससर्ज तर्जनपरां यां दुर्जनानां ततः । 25 ज्ञातिं पूर्णमृगांककांतिविशदां श्रीमालसंज्ञामिह, शश्वद्धामविवेकवासभवनं विज्ञानवारांनिधिम् ॥ ४॥ तस्यां ज्ञातौ बृहत्यामतिमतिविभवापास्तवाचस्पतिः श्री-क्रीडागारं गरीयो नरवरनिवहैर्माननीयः सदापि । मंत्री मंत्रप्रबलसुबलवान् धुर्यधैर्यादिवर्यः, सांडाहानः समजनि जनतासेवनीयोऽवनौ वै ॥५॥ श्रियादेवीति तस्यासीद् भार्या भुरिगुणैकभूः । याऽमानदानशीलादिपुण्यैर्जज्ञे प्रसिद्धिभाक् ॥ ६॥ तयोः सुतावजायेतां विख्यातौ क्षोणिमंडले । सरवण-धांधाबानौ प्रधानौ व्यवहारिषु ॥ ७॥ 30 * ताडपत्रात्मक पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते । ८ जे० पु. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 20 ५८ जैन पुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । आद्यः सरवण नामतः सुविदितो देवालयैः सुंदरां, सत्साधर्मिक लोकलक्षबहुलां गुर्वादिभिर्भासुराम् । श्रीशत्रुंजय- रैवतादिषु महातीर्थेषु यात्रां सृजन्, श्रीसंधाधिपतेः पदं निजकुले विस्तारयामासिवान् ॥ ८ ॥ पादलितपुरेऽपूर्वललताह्नसरोवरे । उद्धारं यच्चकारोरुद्रविणव्ययपूर्वकः ॥ ९ ॥ संसारदेवी भुवि... 25 1 .....लादिवरेण्यपुण्यैः फलेग्रही स्वीयजनुः ससर्ज ॥ १० ॥ द्वितीयोऽप्यद्वैतभाग्याभिरामः श्रीमान् धीमान् धांधना माऽजनिष्ट । यो दुष्काले भूरिलोकानशोकान् सत्रागारे भोजयित्वा वितेने ॥ ११ ॥ पादलिप्तपुरे पार्श्वप्रासादं यः समुदधौ । अन्यान्यपि बहून्येष धर्मस्थानानि चाकरोत् ॥ १२ ॥ सरवणसंघाधिपतेस्तनयो विनयोज्ज्वलो गुणविशालः । ...... ************.. ॥ - इति समरादित्यचरितं समाप्तम् ॥ 15 परस्परपरिस्यूतनयगोचरचारिणी । अनेकान्तामृतं दुग्धे यद्गवी तं जिनं स्तुमः ॥ १ ॥ अप्राप्तोऽपि हि खंडनां गुणवते धर्माय हिंस्रो न वा, छायाभिः प्रणिहंति तापमभितो मुक्तः सदा पल्लवैः । निश्छिद्रोऽपि करोति यः श्रुतिसुखं वंशः क्षमाभृद्घनो-लासी कोऽपि महीतले स जयति श्रीमालनामा नवः ॥ २ ॥ वंशेऽत्र तेजोऽद्भुतवृत्तशाली मुक्तामणिवसरिसंज्ञकोऽभूत् । तस्थौ न केषां हृदये गुणेन निजेन यरिछद्रविनाकृतोऽपि ॥ ३ ॥ शचीव देवराजस्य रोहिणीव सितद्युतेः । सद्वासनेव धर्मस्य लक्ष्मीस्तस्य प्रियाऽभवत् ॥ ४ ॥ अचलस्थितिः कुरंगव्याघातिनखरवृत्तिसंयुक्तः । सिंह इव वैरसिंहः सुतः सुता चानयोर्मादूः ॥ ५ ॥ गेहिनी गेहनीतिज्ञा तस्य श्रीरिव देहिनी । अभूदाऽऽनलदेवीति धर्मकर्मसु कर्मठा ॥ ६ ॥ असूत सा पंच सुतान् मनुष्यक्षेत्रस्य धात्रीव सुमेरुपर्वतान् । परं सदाप्येकसुखत्वमेषां केषां न रेखाकरमस्ति चित्ते ॥ ७ ॥ आद्योऽस्ति भांडशालिकमदनो लाडिपतिर्जिनप्रतिमाः । कारितवान् मंगलपुरचैत्ये पुण्याय पितृमात्रोः ॥ ८ ॥ प्रवरां वेलाकूले पौषधशालां च मातृपुण्याय । तनया विनयादिगुणोपेताः पंचास्य विद्यते ॥ ९ ॥ क्षेमसिंह - भीमसिंहौ तेजः सिंहा ऽरिसिंहकौ । पंचमो जयसिंहस्तु दुहिता जासलाभिधा ॥ १० ॥ प्रथमोऽपि धर्मकार्ये द्वितीयीकस्तु लघुबंधुः । कलिकालमत्त करिवरसिंहो विजयसिंहोऽस्ति (१) ॥ ११ ॥ यथा प्रभा प्रभाभर्तुर्यथा चंद्रस्य चंद्रिका । यथा छाया शरीरस्य तथाशेषगुणाश्रया ॥ १२ ॥ 30 [ इत आरभ्य १८ अङ्कपर्यन्तानि पद्यानि प्रसृष्टानि ताडपत्रादर्शे । ] श्रीदेवसुंदराचार्य संतानजमुनीश्वरैः । वाच्यमानः सदा जीयात् पुस्तकस्त्रस्तकल्मषः ॥ १९ ॥ [ ५८ ] श्रीमालवंशीय वैर सिंहलेखित समरादित्य चरित पुस्तकप्रशस्तिः * । [प्रशस्तेरपूर्णत्वात् लेखनकालो नोपलब्धः । ] पूनी दयिताऽस्योदय पालो -दयमतिसुता विरेजे या । निजवंश प्रासादे विमलगुणा वैजयंतीव ॥ १३ ॥ युग्मम् ॥ आद्योऽस्ति राजसिंहस्तत्तनयो जैत्रसिंह इतरस्तु । नायक-सहजल-सोहग- पद्मलनाभ्यस्तु पुत्र्य इमाः ॥ १४ ॥ एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । अन्तिमपत्रस्य नष्टत्वात् प्रशस्तिरपूर्णप्राया । द्रष्टव्यम्पिटर्सन् रिपोर्ट पुस्तक ५, पृ० ९१ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । नयनाभ्यां मुखं पुष्पदंताभ्यां गगनं यथा । आभ्यां विजयसिंहोऽपि सुताभ्यां शोभते तथा ॥१५॥ धर्मकर्मसुनिष्णातस्तातीयीकस्तु धंधलः । वल्लभो बकुलदेव्यास्तुर्यो वरणिगाभिधः ॥ १६ ॥ .............. जाल्हणस्तु पंचमकः । दधतापि येन लघुतां बंधुषु भेजे परां गुरुतां ॥ १७ ॥ स्मरः शरैर्मानुषभूमिदेशः सुमेरुशैलैस्तनुरिंद्रियैर्यथा । पांडुस्तनुजैरिव वैरसिंहो रेजे तथा पंचभिरेभिरंगजैः ॥ १८ ॥ इतश्चश्रीमन्महावीरजिनेंद्रतीर्थकल्पद्रुगच्छे इह चंद्रगच्छे । शब्दान्वितः सुंदरपक्षयुग्मो द्विरेफलीलामवलंबमानः ॥ १९॥ ........... [ अपूर्णा ] पल्लीपालान्वय-श्रे० जसदूसन्तान-लेखित-[ माणिक्यचन्द्राचार्यविरचित ] पार्श्वनाथचरित-पुस्तकप्रशस्तिः । ___10 [प्रशस्तरपूर्णत्वात् लेखनकालो नोपलब्धः।] रसर्षि-रवि-संख्यायां समायां दीपपर्वणि । समर्थितमिदं वेलाकूले श्रीदेवकूपके ॥ ३६ ॥ ग्रंथानं ५२७८ ॥ मंगलमस्तु ॥ ॥ श्रीपार्श्वनाथाय नमः ॥ यत्रानेकबुधा अनेककवयो धिष्ण्यानि भूयांस्यलं, चंद्रस्योपचयः कलंकविकलः संजायते सर्वदा। 15 वक्रः कोऽपि न दृश्यते न च गुरुमित्रोदये निःप्रभः, पल्लीपालजनान्वयो नवनभोलक्ष्मी दधानोऽस्ति सः॥१॥ तत्रोल्लासितलोकभूरिकमलः श्लिष्यत्प्रतापाकृती, राजा मंडलवृद्धिकारणतया प्रीतिं समुत्पादयन् । दोषातिक्रमजातकांतिसुभगो बिभ्रत्सुवृत्तां तनु, मार्तडो जसदूर्धनी समभवन्नंदाणिपूर्मडनम् ॥ २ ॥ तद्भार्या योषितां वर्या परिचर्यापरायणा । जिनेशचरणद्वंद्वे शोभना शोभनाऽजनि ॥ ३ ॥ महाव्रतानीव सुताः स्युस्ताभ्यां पंच विश्रुताः । गुप्तित्रयमिवावद्यं पुत्रीत्रयं च जज्ञिरे ॥ ४॥ 20 तेषां च ज्येष्ठः किल पूर्णचंद्रो धर्मानुरक्तो यशश्चंद्रनामा । औचित्यचर्याचतुरस्त्वाभड-नाहड-जाल्हणाश्च तथा परे (१) ॥ ५ ॥ शीलमती च सहजू रत्नी च श्रावकव्रतम् । श्रीयशोभद्रसूरीणां चरणांते प्रपेदिरे ॥ ६ ॥ कल्हणा-ऽऽल्हण-रत्नाश्च राजपालश्चतुर्थकः । पूर्णस्यागण्यपुण्यस्य तनयाः सुनया अमी ॥ ७ ॥ कल्हणा-ऽऽल्हण-रत्नानां सुताः संति यथाक्रमम् । अजयश्चारिसिंहश्च गुरुदेवार्चने रतौ ॥ ८॥ 25 सुगुणसुवर्णशाली वित्राणेनैव गुरुगणाक्रमणम् । सुकवेः श्लोक इव स्तनंधयस्तिहुणपालोऽभूत् ॥९॥ यशश्चंद्र-जगद्देवोऽभूत्ततोऽपि वरदेवः। आभडः श्रीमानतुंगचरणांभोजषट्पदः ॥ १० ॥ आभडस्य सुता एतेऽभयश्रीकुक्षिसंभवाः । पांडवा इव विख्याताश्चित्रं कौरवसंगताः ॥ ११ ॥ प्रथमः पद्मसिंहाख्यो वीरचंद्रो द्वितीयकः । आसलो मूलदेवश्च देदलश्चाथ पंचमः ॥ १२ ॥ ..............................[प्रशस्तिरियमपूर्णा ].............." 30 * ताडपत्रात्मकं पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते । दृष्टव्यम्-पिटर्सन् रीपोर्ट पुस्तक ३, पृ. १६३ । अन्तिमपत्रस्य नष्टत्वात् प्रशस्तेरस्या अपूर्णत्वम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 ६० 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [ ६० ] पलिपालवंशीय श्रा० कुमरदेवी लेखित औपपातिक राजप्रश्नीय सूत्रद्वयपुस्तकप्रशस्तिः * । वंशः प्रसिद्धो भुविपल्लिपाला - भिघोऽस्ति भूमीभृति लब्धरूपः ॥ २ ॥ अजनिष्ट विशिष्टश्रीः तत्र मुक्तामणिप्रभः । अरिसिंहो महतेजो कुमरदेवी च तत्प्रिया ॥ ३ ॥ श्रीमत्सूरिजिनप्रभांहिकमले धर्मं प्रपद्यानधं, या तुर्यां प्रतिमामुवाह विधिवत्सुश्रावकाणां मुदा । श्रद्धावृद्धित एव वित्तवपनं क्षेत्रेषु सप्तखथो, तन्वंती तनुजानसूत मनुजाधीशः (१) समाजस्तुतान् ॥ ४ ॥ प्रथमोऽजयसिंहाख्योऽभयसिंह द्वितीयकः । आमकुमारो मारश्रीः धांधलो धीरधीरभूत् ॥ ५ ॥ अतः (थ) चतुर्णां गृहिणीः स्पृहणीयसतीगुणाः । संततिं पुत्रपौत्राद्यां परिवर्णे यथाक्रमं ॥ ६ ॥ पढयावजयसिंहत्य हीरू - गउरिसंज्ञिते । वील्हण - सांगणौ पुत्रौ हीरू कुक्षिसमुद्भवैौ ॥ ७ ॥ हांसलाख्या प्रियाद्यस्य नाम्ना ज्झंजबहू (? झांझ - बडू ) सुतौ । सुहागदेवी सधर्मचारिणी सांगस्य तु ॥ ८ ॥ 20 वल्लभाऽभयसिंहस्य नायिकिर्नयनामृतम् । सुतश्चाल्ह णसिंहोऽस्याऽऽल्हणदेवी च तत्प्रिया ॥ ९ ॥ आल्हणसिंहखसा स्वस्तिश्रस्त्रि (?) कुल भूषणं । सोहगामियदेजास्यः (?) संग्रामः सोहगांगजः ॥ १० ॥ पत्नी त्वामकुमारस्य धनदेवी गुणोज्ज्वला । जिनाज्ञासरसीहंसावासचंद्राऽऽजडौ सुतौ ॥ ११ ॥ पुत्रिकात्रितयं चंपलता - महणदेव्यथ । सुहवा मल्ल सिंहस्तु चंपलायास्तनूरुहः ॥ १२ ॥ जयतलदेवी नाम्नाऽस्त्यासचंद्रस्य वल्लभा । अमरसिंहप्रभृतयः पुत्राः पितरि वत्सलाः ॥ तुर्यस्य धांधल (स्य) स्यात्तत्प्रिया धांधलदेविका । तत्सुतसोमनामास्ति सहजलाऽस्य च प्रिया ॥ इतश्च - १३ ॥ १४ ॥ [ लेखनकालः प्रायः १४ शताब्दी ] आनंदकंदोद्गमवारिवाहः सदा सुरश्रेणिनरेंद्रवंद्यः । प्रभाभिरामो भवतां विभूत्यै भवेत्प्रभुश्रीजिनवर्द्धमानः ॥ १ ॥ सच्छायपर्वो घनजैनधर्मः स्थानेषु सर्वेषु विशेषितश्रीः । अश्रावि सुश्राविकया कुंरदेव्या ऽन्यदा मुदा । श्रीजिनप्रभसूरीणां गुरूणां धर्मदेशनाम् ॥ १५ ॥ 25 उदयं नीतो दिनकृत् शशी च तेनेह दीपितो दीपः । नयनं च कृतं जगतां जिनवचनं लेखितं येन ॥ १६ ॥ अथोपपातिको पांगराजप्रश्नीयपुस्तकम् । निशम्य देशनां तां सा खश्रेयार्थं व्यलीलिखत् ॥ १७ ॥ श्रीरत्नसिंहसूरीणां गच्छे आगमसंज्ञिते । सूर्युपाध्याय साधूनां व्याख्यानार्थमदान्मुदा ॥ १८ ॥ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ छ ॥ छ ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकं सूत्रद्वयपुस्तकं पुण्यपत्तने भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिराव स्थित राजकीय प्रन्थसंग्रहे विद्यते । द्रष्टम् - No 72 of 1880-81. Catalogue 1. 170. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [६१] श्रीमालवंशीय-श्राविकासलवणा-प्रदत्त-[ अजितप्रभाचार्यरचित ]-शान्ति जिनचरित-पुस्तकप्रशस्तिः । [प्रदानसमयः प्रायः १४ शताब्दी ] विश्वसेनकुलोत्तंसोऽचिरादेवीतनूद्भवः । श्रीशान्तिनाथो भगवान् दद्यान्मंगलमालिकाम् ॥१॥ 5 संघाधिपत्यादिपदप्रतिष्ठासमन्वितैर्भव्यजनैर्विशालः । दानादिपुण्योदयजन्मभूमिः श्रीमालवंशो विदितो जगत्याम् ॥२॥ बभूव तत्रांबुधितुल्यरूपे परोपकारादिगुणैः प्रसिद्धः । कल्पद्रुकल्पोऽर्थिजनस्य धीमान् रत्नाभिधानो वररत्नतुल्यः ॥३॥ सहजाकः सुतस्तस्य रेजे राजसभोचितः । धर्मकृत्यरतो नित्यं निजवंशविभूषणः ॥ ४ ॥ तस्यात्मजो धार्मिकचक्रचूडामणिः सुधाकारगिरांनिवासः ।सतां हि सेव्यः किल नागसिंहः कुलोदयायैव कृतावतारः॥५॥ सालादनानाम तदंगनाऽभूत् साहादवक्त्रा गुरुदर्शनेन । यया चतुष्कं सुषुवे सुतानां खवंशभारोद्धरणकधीरम् ।।६।। 10 हरिराजो विवेकेन रराज हरिविक्रमः । स्थिरपालः स्थिरप्रेमा साधुवर्गे विशेषतः ॥ ७॥ प्रतापमल्लः सुभगः सद्दाक्षिण्यमहोदधिः । चतुर्भुजश्चतुर्द्धर्मसमाचारपरायणः ॥ ८॥ भगिनी सुगुणा नाम सद्गुणानां निकेतनम् । लाखाकेन परीणिन्ये कमलेव मुरारिणा ॥९॥ तथा सलवणा नाम खसा लावण्यशालिनी । खकीयेन च शीलेन पवित्रितनिजान्वया ॥ १० ॥ श्रीपद्मप्रभसूरीणां स्वगुरूणां मुखांबुजे । शुश्रावेति महाभक्ता श्राविका सुगुणा गिरम् ॥ ११॥ 15 जिनेंद्रबिंब भवनं जिनस्य संघः सपूज्यश्च चतुःप्रकारः । सत्पुस्तकं तीर्थकरावदातविभूषितं यः कुरुते सुबुद्धिः॥१२॥ बोधिबीजं भवेत्तस्य निश्चलं च भवांतरे । केवलज्ञानलाभश्च ततो मोक्षसुखं पुनः ॥ १३ ॥ आकर्ण्य वाचं सुकृतैकबुद्धिः श्रीशान्तिनाथस्य जिनेश्वरस्य । पुण्यावदातेन युतं गुरुभ्यो ददौ शुभं पुस्तकमुत्तमं सा॥१४॥ जंबूद्वीपांतरे यावच्चतुर्वनविराजितः । अर्हचैत्ययुतो मेरुस्तावन्नंदतु पुस्तकम् ॥ १५ ॥ . शुभं भवतु लेखकपाठकयोः । मंगलं महाश्रीः ॥ [अन्याक्षरैः पश्चाल्लिपिः-] जंबूद्वीपालवालः कनकगिरिमहाकल्पवृक्षाभिराम-स्तारालीपुष्पपूर्णः शशिधरतपनाभोगपत्रावलीढः । अग्रण्यानंतषट्कप्रचुरफलभरो राजते यावदित्थं, अन्थोऽयं वाच्यमानो जयति बुधगणैः श्रोतृपीयूषकल्पः ॥१॥ सुविवेगो संवेगो सुहगुरुजोगो कसायभंगो य । पत्ते दाणपसंगो न हुन्ति थोवेहिं पुन्नेहिं ॥२॥ न ते नरा दुर्गतिमामुवंति न मूकतां नैव जडखभावम् । न चांधतां बुद्धिविहीनतां च ये वाचयंतीह जिनेंद्रवाक्यम् ।।३।। 25 ओजस्तेजोगुणा धैर्य विवेको विक्रमो नयः । लावण्यं सौम्यता शैत्यं सलक्षत्वोपकारिता ॥ ४ ॥ नयो गम्मीरता स्थैर्य दाक्षिण्यं ऋजुशीलता । दातृवक्तृगुणान् दृष्ट्वा श्रीसंघे श्रीरवातरत् ॥ ५॥ जयंति जितमत्सराः परहितार्थमभ्युद्यताः, पराभ्युदयसंस्थिताः परविपत्तिखेदाकुलाः । महापुरुष...."श्रवणजातरोमोद्गमाः, समस्तदुरितार्णवप्रकटसेतवः साधवः ॥ ६॥ [पुनरन्याक्षरैः पश्चाल्लेखः-] पूर्वोपात्तसुपुण्यबीजकमलां प्राप्य प्रमोदान्वितः, सत्पुण्योपचयं विधातुममलां सद्ज्ञानलक्ष्मी स्थिराम् ।। श्रीजैनेंद्रागमसारमेतदनघं चित्रं चरित्रं मुदा, श्रीमच्छांतिजिनेश्वरस्य सुभटः संघान्वितोऽवाचयत् ॥ १॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रात्मकं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभाण्डागारे विद्यते । ___20 30 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | भूपादिकार्यकरणे सुभटः दीनादिमार्गेणजने सुभटः | सन्मार्गचारुचरणे सुभटः क्रोधादिवीरविजये सुभटः ॥ २ ॥ श्रीमन्महेन्द्रो विजयाख्यसिंहो देवेन्द्रचन्द्रः शुचिपद्मदेवः । श्रीपूर्णचन्द्रो जयदेवसूरिर्हेमप्रभो नाम जिनेश्वरश्च ॥ १ ॥ - श्री आमदेवसूरि । श्रीधर्म्मरत्नसूरि । श्रीविबुधप्रभसूरि । श्रीप्रज्ञातिलकसूरि । श्रीभावदेवसूरि । 5 श्रीगुणसमुद्रसूरि । श्रीविनयचंद्रसूरि । श्रीमलयचन्द्रसूरि ॥ 10 15 ६२ 20 25 30 [ पञ्चात्केनापि पूर्तिरूपे निक्षिप्तेऽन्यपत्रेऽनुपूर्तिरूपो द्वितीयो लेखः - ] सुश्रावकाग्रिमगुणै रचितावतंसः संसारमोक्षपयसोर्विवृतौ सुहंसः । श्रीवीतरागपदसंस्मृतिशुद्धहंसः पेथाभिधोऽजनि जनैर्विहितप्रशंसः ॥ १ ॥ श्रीजीवानन्दतुल्योऽभूत् कृपया साधौ जनेऽखिले । तत्पुत्रौ सगुणैः ख्यातौ सदाचारधुरंधरौ ॥ २ ॥ प्रतापमल्ल प्रल्हादौ सप्तक्षेत्र्यां कृतोद्यमौ । पुण्यश्रियां सरागौ यौ शुद्धे यशसि लोलुपौ ॥ ३ ॥ पूर्वोपात्तसुपुण्यबीजकमलां प्राप्य प्रमोदान्वितः सत्पुण्योपचयं विधातुममलां सज्ज्ञानलक्ष्मीं स्थिराम् । श्रीजैनागमसारमेतदनघं चित्रं चरित्रं मुदा, श्रीमच्छांतिजिनेश्वरस्य जनताप्रल्हादकोऽवाचयत् ॥ 8 ॥ [ पुनरन्याक्षरैः पश्चाल्लेख:- ] चतुर्वेदैर्बलैर्भूमिदेवैर्भुवि विनिर्मिते । त्रिधा हुतानिप्राकारे वेदाचारचतुर्मुखे ॥ १ ॥ चक्रखाम्यादिकैर्देवैर्देवी भिर्विजयादिभिः । नानायुधकरैः शान्तैः चतुर्द्वारोपशोभिते ॥ २ ॥ अशोकेऽर्कप्रभायुक्ते सप्तेतिद्वेषवर्जिते । जाल्योधरे विश्वमान्ये सर्वज्ञास्थानसन्निभे ॥ ३ ॥ श्रीमत्संघहृदासीनभावार्हन्मुख्यवर्तिनाम् । जिनानां वर्द्धतात्साधुगणे पूजामहोदयः ॥ ४ ॥ शांतिस्तत् ब्रह्मलोकस्य क्षेमं स्थानं निवासिनाम् । आरोग्यं विप्रभक्तानां शिवं संघस्य शाश्वतम् ॥ ५ ॥ सागर-सज्जनमुख्याः कृष्णाभिधवामदेवगुणकलिताः । यस्मिन् मंगलकलशाः जनताहितकारिणो भांति ॥ ६ ॥ यस्योपसर्गाः स्मरणे प्रयांति विश्वे यदीयाश्च गुणा न मान्ति । यस्याङ्गलमा ................. स्य कान्ति संघस्य शान्ति स करोतु शान्तिः ॥ ७ ॥ [ पुनरप्यन्याक्षरैः पश्चाल्लेखः- ] वार्द्धक्ये केsपि रोगार्त्ताः केऽप्यसारा जरद्गवः । बुद्ध्याऽन्ये जांबवतुल्या अन्ये लोकपितामहाः ॥ १ ॥ स्थैर्यौदार्यगुणैर्युक्तौ श्रीमत्संघपुरस्कृतौ । मेहा- भीमाभिधौ श्राद्धौ धर्मकर्मधुरन्धरौ ॥ २ ॥ [ ६२ ] हुंबडवंशीय श्रे० झंझाक-लेखित-धर्मशर्माभ्युदय काव्य-पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनकालो न निर्दिष्टः । ] अथास्ति गूर्जरो देशो विख्यातो भुवनत्रये । धर्मचक्रभृतां तीर्थैर्धनाढ्यैर्मानवैरपि ॥ १ ॥ विद्यापुरं पुरं तत्र विद्याविभवसंभवम् । पद्मः शर्करयाख्यातः कुले हुंबडसंज्ञके ॥ २ ॥ तस्मिन् वंशे दादनामा प्रसिद्धो भ्राता जातो निर्मलाख्यस्तदीयः । सर्वज्ञेभ्यो यो ददौ सुप्रतिष्ठां तं दातारं को भवेत्तोतुमीशः ॥ ३ ॥ * पत्तने संघसत्कभाण्डागारे ताडपत्रात्मकस्य पुस्तकस्य प्रांते इयं प्रशस्तिर्लिखिता लभ्यते । ப Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । दादस्य पत्नी भुवि मोषलाख्या शीलांबुराशेः शुचि चंद्ररेखा । तन्नंदनश्चाहनिदेविभा देपालनामा महिमैकधामा ॥ ४ ॥ ताभ्यां प्रसूतो नयनाभिरामो झंझाकनामा तनयो विनीतः । श्रीजैनधर्मेण पवित्रदेहो दानेन लक्ष्मी सफलां करोति ॥ ५॥ हान-जासलसंज्ञकेऽस्य सुभगे भायें भवेतां द्वये, मिथ्यात्वद्रुमदाहपावकशिखे सद्धर्ममार्गे रते। । सागारव्रतरक्षणैकनिपुणे रत्नत्रयोद्धासके, रुद्रस्येव नभोनदी-गिरिसुते लावण्यलीलायुते ॥६॥ श्रीकुंदकुंदस्य बभूव वंशे श्रीरामचंद्रः प्रथितः प्रभावः । शिष्यस्तदीयः शुभकीर्तिनामा तपोऽङ्गनावक्षसि हारभूतः ॥ ७ ॥ प्रद्योतते संप्रति तस्य पट्ट विद्याप्रभावेण विशालकीर्तिः। शिष्यैरनेकैरुपसेव्यमानः एकांतवादाद्रिविनाशवज्रम् ।। ८॥ जयति विजयसिंहः श्रीविशालस्य शिष्यो जिनगुणमणिमाला यस्य कंठे सदैव । 10 अमितमहिमराशेधर्मनाथस्य कंठे निजसुकृतनिमित्तं तेन तस्मै वितीर्णम् ॥ ९॥ छ ॥ तैलादक्ष जलाद्रक्ष रक्ष शिथिलबंधनात् । परहस्तगतां रक्ष एवं वदति पुस्तिका ॥ १० ॥ भमपृष्टि कटिग्रीवा एकदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ ११ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १२ ॥ 15 हुंबडवंशीय-श्रे०आम्बदेवसंतानसत्कैकाऽपूर्णा प्रशस्तिः । [६३] 20 श्रीमत्खेटपुरोद्भवोच्चजनताधारो मनोनंदनः, ख्यातः प्रांशुगुणेन धर्मवसतिः श्रीतुंबडानां वरः ॥ १ ॥ श्रेष्ठी तत्राम्बदेवो शुभगुणकलितो.... [ दाक्षि ]ण्यौदार्यभूमि..... लोकनयविनयदयाकीर्तिशाखाभिरामः । सद्दाक्षिण्यप्रसूनो विशदशुचिगुणस्कन्धसाधुप्रसिद्धः, आसीदाम्रोपमानः प्रणयिनि जनतातापरक्षकदक्षः ॥ २॥ वाटापल्लीपुरीयचैत्यभवने शांतेर्जिनेशप्रभोः .......................................॥ सद्वद्धोपलपीठदेवकुलिकास्तीर्थेषु यात्राः पराः, सद्धर्मोऽमलधीरचीकरदसौ पुण्योदयाय व्यधात् ॥ ३॥ तद्भार्या शीलसद्धर्मकर्मलालसमानसा । सावित्रिरिति विख्याता बभूवेव प्रजापतेः ॥ ४ ॥ नानाशास्त्रविचारकोविदधियः संपत्सु नैवोद्धरा.............."सैकहृदया औझन्न चापत्सु ते । ध्वस्ताशेषकुवादिसद्गुरुवरास्यांभोजनिर्यद्वचो, धर्मध्यानविधिप्रसाधितमहाकल्याणकोशाः सुताः ॥ ५॥ प्रबभूवुस्तयोः श्रेष्ठाः पंचामी पांडवा इव । शीलांबुविमलक्षेत्रं पुत्रीणां च चतुष्टयम् ॥ ६॥ तत्राद्यः सर्वदेवाख्यः श्रे........."[णा] करः । संधीरणो द्वितीयश्च तृतीयोऽम्बकुमारकः ॥ ७ ॥ तुर्यो नमिकुमाराख्यः पंचमो योहडिस्तथा । सद्दानतोषिताशेषमार्गणौधः सतां वरः ॥ ८॥ सज्जना संतुका चैव साउका सुंदरीति च । चतस्रः प्रीतिसंयुक्ता धर्मकर्मपरायणाः ॥९॥ उ()डास्थान""""दयजिता शेषादिल्लसज्जैनावा[सव !]......."सार्जितोर्जितमहापुण्योदयात् संप्रति । तत्राद्यस्य शशांकनिर्मलभरा कीर्तिस्त्रिलोकांगणे नृत्यत्युन्मदनर्तकीव विलसद् न्यायाचवित्तव्ययात् ॥ १० ॥ 25 30 * पत्तने संघसत्कभाण्डागारे त्रुटितताडपत्राणां मध्ये एकस्मिन् पत्रे इयं खण्डितप्राया प्रशस्तिर्लब्धा । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ 5 15 20 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । 'स्य जाया जीवनसुंदरिः ॥ ११ ॥ तन्नंदनाः सत्प्रसवाभिरामाः शश्वत्फलाः पंचजनोपकारं । मन्ये सुराणां तरवः प्रपन्नाः पंचापि कर्तुं मनुजंगमत्वम् ॥ १२ ॥ अभवद् धवलः पूर्व्वः नागदेवस्ततोऽपरः । पार्श्वदेवस्तृतीयस्तु तुर्यश्चक्रेश्वरस्तथा ॥ १३ ॥ [अपूर्णा ] X X ब्रह्माभिधस्य सद्भार्या लड्डिकागुणशालिनी । पुत्रत्रयं तथा रम्यं भूषितं धर्म्मकर्म्मणा ॥ १८ ॥ 10 आद्यः सितगुणो जज्ञे द्वितीयः सोहडाभिधः । तृतीयः सोढकाख्यश्च जातो धर्मपरायणः ॥ १९ ॥ गृहिणी सितगुणस्यापि सोडूः पुत्रद्वयान्विता । पाल्हण - गुणपालाख्यौ पुत्री जयतुकाभिधा ॥ २० ॥ श्रेष्ठिनः सोहडस्यापि गृहिणी गुणमंदिरम् । लाच्छिनामाथ संजाता सरला शीलशालिनी ॥ २१ ॥ लक्षकस्य तथा पुत्रास्त्रयो रम्या विशारदाः । भीमाकः पाहडश्चैव धांधलोऽथ तृतीयकः ॥ २२ ॥ भीमाकस्य कलत्रे द्वे माल्हणि रत्नदेविका । आद्यासुतो हि बोडाकः द्वितीयाखेत्र - पोतुकौ ॥ २३ ॥ पाहडस्य प्रिया जाता नाइकिभेदभावका । बहुदाकः सुतो जज्ञे द्वितीयः पूर्णनामकः ॥ २४ ॥ धांधलस्य प्रिया मोखू जाता धर्म्मपरायणा । चत्वारः सूनवस्तस्या व्रतं जग्राह साऽन्यदा ॥ २५ ॥ द्वितीया वल्लणस्याथ पत्नी सोहगदेविका । षट्सूनवस्तस्या जाताः पुत्रीद्वयसमन्विताः ॥ २६ ॥ आद्यो जयतसीहश्च बीजडच पद्माभिधः । महणाहः खेतसिंहः पासडोऽथ सुभाशयः ॥ २७ ॥ पुत्री माधलसंज्ञाऽथ दयाधर्मेण वासिता । अन्या कुमरिनामा हि शुभचित्ता दयापरा ॥ २८ ॥ पत्नी जयतसिंहस्य षेतूर्गुणशालिनी । विल्हुका वीजडस्याभूत् जाया मायाविवर्जिता ॥ २९ ॥ प्रथमो जगसिंहोऽभूत् झांझणोऽपि द्वितीयकः । तृतीय आम्रसिंहश्च हरिपालश्चतुर्थकः ॥ ३० ॥ रुक्मिणी चांपला चैव जासला राणिका तथा । चतुष्टयं च पुत्रीणां संजातं विल्हुकापतेः ॥ ३१ ॥ पद्माकस्य प्रिया जाता पद्मला पद्मलोचना । संताने पुत्रिका रम्या हंसला हंसगामिनी ॥ ३२ ॥ महणाकस्य संजाता पत्नी पुहणीदेविका । पुत्रः खयराभिधः जज्ञे कुलोद्धारे पराक्रमी ॥ ३३ ॥ • [ पुत्रपौ]त्रैरेतदीयपितामहैः । श्रीवर्द्धमानसूरिभ्यः पूर्वं दापित अष्टादश सहस्राणि द्रम्मा जातास्ततस्तु तैः । चैत्येऽस्मिन् कारिता पिचला मया ॥ ३५ ॥ " प्रतिमा रम्या परिकरान्विता । सौवर्णकलसो दंड आचार्यैः कारितो ध्रुवम् ॥ ३६ ॥ **** **** **** **** ॥ ३४ ॥ श्रीशांतिनाथ .... [ अग्रे अपूर्णा ] 25 अनुत्तमगुणग्रामा शीलालंकारशालिनी । श्रेष्ठिनः " [ ६४ ] ताडपत्रसंग्रहगता एका अपूर्णा प्रशस्तिः * 1 X X * पत्तने संघवी पाडावस्थितभाण्डागारे अज्ञातग्रन्थपुस्तकस्य ताडपत्राणां मध्ये एकस्मिन् पत्रे इयं प्रशस्तिरुपलब्धा । पूर्व-पश्चात् पत्राणामभावादस्याः प्रशस्तेराद्यन्तभागोऽनुपलभ्यः । X Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । 15 ओसलंब-श्रावकसमूह-लेखित-पञ्चवस्तुक-कर्मस्तवटीका-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [ लेखनकाल ११७९ विक्रमाब्द ] (१) पश्चवस्तुकग्रन्थप्रान्ते संवत् [११७] ९ फागुण वदि १२ रवौ ॥ समस्तराजावलिविराजितमहाराजाधिराजश्रीमत्रिभुवन-5 गंडश्रीजयसिंघदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादप्रसादावाप्त..... संतुकप्रतिपचौ लाटदेशमंडलमनुशासयतीत्येतस्मिन्का [ले प्रवर्तमाने ] मोखदेवेन पंचवस्तुकं लिखितमिति ॥ (२) कर्मस्तवटीकाप्रान्ते [जि] णपवयणबुद्धा जायसंवेगसद्धा । सुहगुरुक [ य ] सेवा.......... सक्का ।। सुयवर निरु भत्ता साहुकज्जंमि सत्ता । सवणपउणचित्ता सावया ओसलंवा ॥१॥ 10 मलयावड-वहसरवरेहिं देउम धम्मियरंमु । ओसलम्व जिणि पासि हुय मुत्तिमंतु नइ धंमु ॥२॥ सामाइय-सज्झाए पढणे पडिकमणसवणवंदणए । पूयापभावणासु य जहसंभवमुज्जया सव्वे ॥ ३ ॥ णेड्डा बोहडि सावदेवपमुहा अंमो सुसं(मं?)तो तहा, वळू वच्छिग केसवो जसदिवो अत्तू तहा जजिगो। . सडीओ वइरुट्ट साउ महिमा सम्भा य अंमी तहा, सवासि पि हु संमएण लिहिया एसा वरा पोत्थिआ ॥ ४ ॥ संवत् ११७९ चैत्र वदि ७ भौमे श्रीमत्वटपद्रक मोखदेवेन पुस्तिका लिखितमिति ॥ छ । [६६] मोढवंशीय-श्राविकालक्ष्मी-लेखित-विशेषावश्यकवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १२९४ विक्रमाब्द] -इत्येषा शिष्यहिता नाम विशेषावश्यकवृत्तिः परिसमाप्ता ॥ छ । यस्याघपूगः क्षयमेत्यशेषो ध्यानादपीहान्यभवेऽपि जातः । रवेरिव ध्वांतभरः प्रतापात्स वः प्रदेयादृषभो जिनः शं ॥१॥ अस्तीह सद्रत्ननिवासधिष्ण्यमुरुप्रपंचावृतभूमिपीठः । श्रीमाननेकांगिगणाश्रयश्च सन्मोढवंशः सरिदीशतुल्यः ॥२॥ तस्मिन्वंशे प्रसृतसुयशःपूरिताशाचतुष्को, दक्षत्वायैर्वरगुणगणैरन्वितः श्रावकोऽभूत् । सम्यक्त्वाट्यो वरगुरुगिराऽपास्तमिथ्यात्वमोहः, शांत्याहानो जिनपतिपदांभोजयुग्मद्विरेफः ॥ ३॥ 25 शीलालंकृतकाया दानदयोद्युक्तमानसा सततम् । जिनपूजारतचित्ता यशोमतिस्तस्य वरपत्नी ॥ ४ ॥ ताभ्यामादिजिनेंद्रपूजनविधावासक्तचित्तोऽनिशं, सूनुः सर्वजनोपकारकरणप्रहः कृपामंदिरम् । नित्यं सव्रतिवर्गदाननिरतो मानादिदोषोज्झितो, गांभीर्यादिगुणौघलब्धमहिमा प्रद्युम्नसंज्ञोऽजनि ॥ ५ ॥ * पञ्चवस्तुक-कर्मस्तवटीका-प्रन्थयुगलयुक्ता ताडपत्रीयैषा पुस्तिका पुण्यपत्तने भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरावस्थिते राजकीयअन्यसंप्रहे विद्यते । सूचिक्रमांक ४२, १८८०-८१ पतकमिदं पुण्यपत्तने भा.प्रा. सं.मं. राजकीयग्रन्थसंग्रहे विद्यते । सूचिक्रमांक ५८, १८८०-८१; द्रष्टव्यम्-किल्होने रीपोर्ट, पृ. ३०-४०। जे. पु० 20 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । इतश्च-इहैव वंशे जिनपादभक्तः सुश्रावको वोसकसंज्ञकोऽभूत् । ___ सुधर्मकर्मोद्यतमानसा च तस्याग्र्यमार्याऽजनि सेसिकाख्या ॥ ६॥ तस्याः साहडसंज्ञकः सुचरितः सूनुर्महात्माऽभव-च्छेष्ठा चारुचरित्रलक्षणवती पुत्री च लक्ष्मींगिता । या लक्ष्मीरिव केशवस्य दयिता प्रद्युम्ननानो गृहे, विख्याताऽऽत्मगुणोत्करेण जनताचेतश्चमुत्कारिणा ॥ ७ ॥ अपत्यसप्तकं तस्या बभूव गुणमंदिरम् । सुतास्त्रयो महात्मानश्चतस्रः पुत्रिकास्तथा ॥ ८॥ ज्येष्ठः सूनुरुदारतादिभिरिह प्राप्तप्रसिद्धिर्गुणै-रग्र्यैराम्रयशोभिधो जिनमहव्यासंगतनिष्ठधीः । खच्छंदं विचरन् वरेण्यकरिवद्यः कीर्तिगंधाहतैः, सद्दानासवलिप्सयाऽर्थिमधुपवातैः सदा सेव्यते ॥ ९॥ वोढुं नियुक्तोऽखिलकार्यभारधुरं सुधौरेय इव खपित्रा। दम्योऽपि यस्तां वहति स्म धीमान् विश्रब्धचेताः परकार्यहेतोः ॥ १० ॥ जिनमानरतो नित्यं द्वितीयो धवलाभिधः । सद्गुणाकरचाक्षुष्यस्तृतीयो जेसलाहयः ॥ ११ ॥ यशोमतिज्येष्ठसुता वरेण्या तथापरा श्रीरिति चारुपुत्री। सुशीलयुक्ताऽथ च रुक्मिणीति राजीमती तुर्यसुता बभूव ॥ १२ ॥ ततश्च-श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे वरिष्ठे संतिष्ठमाना सदयाऽन्यदाऽथ । श्रीदेवभद्राख्यमुनींद्रमूले शुश्राव लक्ष्मीर्वरदानधर्मम् ॥ १३ ॥ 15 तद्यथा-विज्ञाय प्रबलप्रभंजनचलद्दीपांकुरालीसमं, लोके जीवितयौवनार्थविषयप्रेमाद्यशेषं सदा । धीमद्भिर्घवपुण्यसंग्रहकृते कर्मक्षयकार्थिभिः, कर्तव्यः सुनयार्जितात्मविभवैः सदानधर्मोद्यमः ॥ १४ ॥ ज्ञानोपष्टंभाभयविभेदतस्त्रिविधमुक्तमिह दानम् । जिनमतजलधावाद्यं गृहिणां तत्रापि बहुफलदम् ॥ १५॥ यतः-मोहांधकारावृतचित्तदृष्टानप्रदीपो वृषवर्त्मदर्शी । भवार्णवाज्ञानजले निमज्जन्नृणां भवेज्ज्ञानमिहाग्र्यपोतः ॥१६॥ ज्ञानं मुक्तिपुरीप्रतोलिपरिघप्रध्वंसनानेकपो, ज्ञानं नाकगिरीदरम्यशिखरप्रारोहसोपानकं । ज्ञानं दुर्गतिदुर्गकूपपततामालंबनं देहिनां, ज्ञानं संशयपादपोरुविपिनच्छेदे कुठारः पटुः ॥ १७ ॥ तस्यैवमाद्यैर्यतिपुंगवेंदोश्चंचद्वचश्चारुमरीचिभिः सा । संबोधिता कैरविणीव पश्चादुज्जूभमाणास्यसरोरुहेह ॥१८॥ लेखयित्वाऽऽत्मसारेण विशेषावश्यकस्य हि । वृत्तेरिदं द्वितीया तस्मै सद्गुरवे ददौ ॥ १९ ॥ अपनयति तमिश्रं यावदकेंदुबिम्बं दिनरजनिनिलीनं तीव्रशीतांशुसंधैः । इह जगति वरिष्ठं पुस्तकं तावदेतद्विबुधमुनिजनौधैः पठ्यमानं प्रनंद्यात् ॥ २० ॥ श्रीविक्रमाद............."धि-ग्रह-केंद्रसंख्यका............... तस्यां (1) समर्थितं प्रवरगुरुदिवसे ॥२१॥ तद्गतात्मा विलिख्येदमाशादित्याभिधो द्विजः । निजप्रज्ञानुसारेण प्रशस्तिमकरोदिमाम् ॥ २२ ॥ [६७] ऊकेशवंशीय-सा० आभा-लेखित-उपदेशमालादि-प्रकरणपुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनकाल १४ शताब्दी ] ऊकेशवंशे विदितप्रकाशे चार्वी तुलां बिप्रति शीतभानोः । जज्ञे बुधः सर्वविधिक्रियासु श्राद्धाग्रणी लोहटनामकोऽत्र ॥ १॥ ___ * एतत्प्रशस्तियुक्ता पुस्तिका पुण्यपत्तने भां० प्रा० सं० राजकीयग्रन्थसंप्रहे विद्यते । सूचिक्रमांक २६६ सन् १८७१-७२ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तस्यां गजः समभवल्लषमाभिधानः श्राद्धः प्रबुद्धगुणरत्नविभूषितांगः । येन खराः सफलतामिह सिद्धिशैले लात्वा सुरेशपदमापि सुपुण्यभाजा ॥ २ ॥ तत्पत्नी समधर्मकर्मकुशला भोपीति नाम्ना बभौ मूर्ता कल्पलतेव कोविदजनैर्या गीयतेऽहर्निशम् । दंपत्योर्गृहधर्म्ममाश्रितवतो जज्ञुस्त्रयो नंदनाः, पद्माख्यः प्रथमस्ततो निजगुरौ भक्त्युत्वणः पेथडः ॥ ३ ॥ माकंदशालतुलनां कलयंस्तृतीयः, सौरभ्यशालितवपुः पृथुलांशचंगः । 5 - आभाभिधः सुमुनिपात्र नियोजितख - खो व्याघ्रकादिमसुतैः सफलैर्वृतोऽभूत् ॥ ४ ॥ इतश्च – सद्भक्तिभावितमनः सुमलेखराजीप्रारब्धसादरनतिः कमनीयकान्तिः । सौवांह्रिचाररचितावनितारशान्तिश्चांद्रे कुले समभवज्जिनचंद्रसूरिः ॥ ५ ॥ विशददशनमालास्फारदीप्तिप्रचारस्फुटघटितच कोरप्राणिदृष्टिप्रमोदः । रजनिपतिसगोत्रस्तारकाधिष्ठितः श्रीजिनकुशलयतीन्द्रस्तत्कपट्टेऽजनिष्ट || ६ | यच्छेमुषीं समवलोक्य बभूव देवाचार्योऽपि संततमनिंदितवाग्विलासः । संजातकंप इव भूमितले स नंद्यात् आचंद्रमादरनुतो जिनपद्मसूरिः ॥ ७ ॥ तेषां निदेशादमरप्रभायोपदेशमाला दिसुवृत्तिपुस्तम् । संलेखयामास विशुद्धवर्ण आभाभिधः श्राद्धवरप्रमोदात् ॥ ८ ॥ यावत् क्षमांगना दधे ताडंकौ चंद्रभास्करौ । तावन्नद्यादिदं पुस्तं वाच्यमानं सदा बुधैः ॥ ९ ॥ ॥ सा० आभालेखित पुस्तिका प्रशस्तिः ॥ [ ६८ ] ऊकेशवंशीय-श्राविकाहादू-लेखित -[ मलयगिरिविरचित ] सप्ततिकाटीकापुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल १४६२-६५ विक्रमाब्द ] - संवत् १४६२ वर्षे माघशुदि ६ भौमे अधेह श्रीपत्तने लिखितम् ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ ऊकेशवंशसंभूतः प्रभूतसुकृतादरः । वासी सांडउसी मामे सुश्रेष्ठी महुणाभिधः ॥ १ ॥ मोधीकृताघसंघाता मोधीरप्रतिघोदया । नानापुण्यक्रियानिष्ठा जाता तस्य सधर्मिणी ॥ २ ॥ तयोः पुत्री पवित्राशा प्रशस्या गुणसम्पदा | हादूर्दूरीकृता दोषैधर्मकर्मैककर्मठा ॥ ३ ॥ शुद्धसम्यक्त्वमाणिक्यालंकृतः सुकृतोद्यतः । एतस्या भागिनेयोऽभूद् ओकाकः श्रावकोत्तमः ॥ ४ ॥ श्रीजैनशासननभोऽङ्गणभास्कराणां श्रीमत्तपागण पयोधिसुधाकराणाम् । विश्वाद्भुतातिशयराशियुगोत्तमानां श्रीदेव सुन्दर गुरुप्रथिताभिधानाम् ॥ ५ ॥ पुण्योपदेशमथ पेशलसन्निवेशं तत्त्वप्रकाशविशदं विनिशम्य सम्यक् । एतत्सु पुस्तकमलेखयदुत्तमाशा सा श्राविका विपुलबोधसमृद्धिहेतोः ॥ ६ ॥ बाणांगवेदेन्दुमिते ( १४६५ ) प्रवृत्ते संवत्सरे विक्रमभूपतीये । श्रीपतनाह्नानपुरे वरेण्ये श्रीज्ञानकोशे निहितं तयेदम् ॥ ७ ॥ एतत्प्रशस्तियुक्तं ताडपत्रीयपुस्तकं पत्तने संघवीपाडाव स्थित भाण्डागारे विद्यते । मुद्रिता चेयं प्रशस्तिः श्रीमच्चतुरविजयमुनिवरैः ate 'चत्वारः कर्मग्रन्थाः ' नामक ग्रन्थप्रस्तावनायाम् पृ० २ । ૭ 10 15 20 25 30 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । यावद् व्योमारविन्दे कनकगिरिमहाकर्णिकाकीर्णमध्ये, विस्तीर्णोदीर्णकाष्ठातुलदलकलिते सर्वदोज्जम्भमाणे । पक्षद्वन्द्वावदातौ वरतरगतितः खेलतो राजहंसौ, तावजीयादजस्रं कृतियतिभिरिदं पुस्तकं वाच्यमानम् ॥ ८॥ [६९] ऊकेशवंशीय-श्रे० हरिपाल-लेखित-कल्पसूत्र-कालिकाचार्यकथानक-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनकाल सं० १३३५ विक्रमाब्द ] -इति श्रीकालिकाचार्यकथानकं समाप्तम् । सं० १३३५ वर्षे आषाढशुदि "गुरौ प्रह्लादनपुरे लिखितः । ऊकेशान्वयशाखिनि स्फुरदुरुच्छायानपायश्रिया शौराणीति फलाभिलाषिभिरलं..... माश्रिता विश्रुता । 10 एतस्यामभवद् भवस्थितिहृति श्रीजैनपादाम्बुजे भंग......... ............[॥१॥ 15 ...............सुतो महणसिंहोऽस्ति तयोः सुगुरुभक्तिमान् ॥ ११ ॥ स्थिरदेवाभिधानेन षष्ठो गुणधराङ्गभूः । देपालप्रमुखाः पुत्रास्तस्य थेहीसमुद्भवाः ॥ १२ ॥ सप्तमो हर्षदेवोऽस्ति हर्षदेवीह हर्षदा । तस्य पत्नी ततः पुत्रा नरसिंहादयो यथा ॥ १३ ॥ धांधूनामाऽभवद् भ्राता कनीयान् गुणधरस्य च । षेढाभिधानस्तत्पुत्रः पवित्रो धर्मकर्मणा ॥ १४ ॥ इमा दुहितरस्तिस्रो जाता गुणधरस्य च । कर्मिणिः प्रथमा तत्र लरिमणि हरिसिणिस्तथा ॥१५॥ __ अथ गुरुक्रमःवादिचन्द्र-गुणचन्द्र विजेता विग्रहक्षितिपबोधविधाता । धर्मसूरिरिति नाम पुराऽऽसीत् विश्वविश्वविदितो मुनिराजः ॥ १६ ॥ आनन्दसूरिशिष्यश्रीअमरप्रभसूरिदेशनां श्रुत्वा । हरिपालाभिधपुत्रः कुलचन्द्रस्येति चिंतितवान् ॥ १७॥ चपलाऽचपला लक्ष्मीः स्थिरस्थाननियोगतः । मतिमन्तः प्रकुर्वन्ति गुर्वन्तिकमुपागताः॥१८॥ इयं पर्युषणाकल्पपुस्तिका खस्तिकारिणी । लिखिता हरिपालेन खमातृश्रेयसे ततः ॥ १९ ॥ प्रतिवर्ष गुरुहर्ष संघेन श्रूयमाणशब्दार्था । मुनिवृन्दवाच्यमाना नंदतु वरपुस्तिकाऽन्तर्गता ॥ २० ॥ [७०] पल्लीवालवंशीय-श्रा० सूल्हणि-लेखित-उपमितिभवप्रपञ्चाकथासारोद्धार पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकालो नोल्लिखितः; अनुमानेन १३ शताब्दी शायते ] श्रीमन्तस्ते सतां सन्तु तीर्थेशाः खस्तिकारणं । अपारभवकान्तारसमुत्तारितजंतवः ॥ १॥ * पत्तने संघवीपाडासत्कभाण्डागारे विद्यते इयं पुस्तिका । + अग्रेतनस्य पत्रस्य नष्टखात् खण्डिताऽत्रेयं प्रशस्तिः । 1 पुस्तिकेयं पत्तने संघवीपाटकस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते। 25 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६९ पल्लीवाल इति ख्यातो वंशः पर्वोदितोदितः । सोऽस्ति स्वस्तिकरो धात्र्यां यस्य कीर्तिर्ध्वजायते ॥ २ ॥ पुरा तत्र पवित्रोऽभूद् वंशे मुक्ताफलोज्ज्वलः । वीकलाख्य इति श्रेष्ठी सतां हृदि गुणैः स्थितः ॥ ३ ॥ तत्पली रत्नदेवीति पवित्रा पुण्यशालिनी । गुणमाणिक्य मंजूषा तुषारद्युतिशीतला ॥ ४ ॥ पुत्री तयोः सूल्हणिनामधेया सुश्राविका शीलवती बभूव । या देवपूजा निरता गुरूणां पादाम्बुजा सेवनराजहंसी ॥ ५ ॥ पुरा पवित्रस्तत्रासीद् वंशे मुक्ताफलोज्वलः | योगदेव इति श्रेष्ठी सतां हृदि गुणैः स्थितः ॥ ६ ॥ आमदेवश्च वीरश्च तनयौ सनयौ ततः । कपर्धा - माक-साढाका वीरपुत्रास्त्रयोऽभवन् ॥ ७ ॥ साढाकस्य ततो जज्ञे पुत्रश्चाम्ब्रकुमारकः । परोपकारदाक्षिण्यगाम्भीर्यविधिसेवधिः ॥ ८ ॥ जयन्तीत्याख्यया जज्ञे गेहिनी तस्य सत्यवाक् । तत्सुतः पासडो जज्ञे धांइ रूपी सुते तथा ॥ ९ ॥ ततः सत्पुण्यपात्रस्य पवित्रस्य महात्मनः । सुधियः पासडस्याभूत् पत्नी पातुरिति प्रिया ॥ १० ॥ तस्याः पुत्रास्त्रयो जाताः पुमर्था इव जंगमाः । जगत्सिंहो वज्रसिंहस्तथा मदनसिंहकः ॥ ११ ॥ माल्हणिर्जगत्सिहस्याभवत् सद्धर्मचारिणी । सूल्हणिर्वज्र सिंहस्य बभूव प्रेयसी ततः ॥ १२ ॥ श्रीपूज्योदयचन्द्राख्यपट्टस्योद्योतकारिणाम् | श्रीदेवसूरीणां [ सम्यगुप ] देशेन भक्तिभाक् ॥ १३ ॥ ल्हणिश्राविका सेयं कुर्वाणा धर्मसंग्रहं । श्रीजयदेवसूरीणां विशेषाद् भक्तिशालिनी ॥ १४ ॥ उपमितिभवप्रपंचस्योद्धारस्यात्र पुस्तिकामेताम् । सा पातूः खश्वश्रू श्रेयोऽर्थं लेखयामास ॥ १५ ॥ यावदुदयाद्रिवेद्यां दिवसकरो भानुपावकसमक्षं । परिणयति दिक्कुमारीर्नन्दतु सत्पुस्तकस्तावत् ॥ १६ ॥ शुभमस्तु श्री श्रमण संघस्य मंगलं महाश्रीरिति ॥ [ ७१] 5 10 ऊकेशवंशीय श्रे० देवसिंह-लेखित जीवाभिगमाध्ययन टीका- पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनकाल सं० १४४४ विक्रमाब्द ] 20 ऊकेशो भद्रेश्वरगोत्रे नारायणीयशाखायाम् । वृद्धो वणिगिति विदितो नरसिंहः साधुवर आसीत् ॥ १ ॥ तस्य च भार्यामोतीतनृदुद्भवाः सप्त सांगणः प्रथमः । छीता- लाखा- देदा तिहुणा - रामाक-धानाख्याः ॥२॥ सांगणवधूर्धनश्रीः पुत्रौ द्वावेव तयोश्च नरदेवः । जगसिंहश्च लघुवधूर्जयत सिरीरंगजास्त्रयश्चामी ॥ ३ ॥ आद्यैौ हि गोना वइजाभिधानौ तृतीयबन्धुः किल देवसिंहः । यो देवगुर्वादिकधर्मकायें कृताभियोगः शुभभाग्ययोगः ॥ ४ ॥ वहजाकस्य तु भार्या जयश्रीरंगजाश्चतुः संख्याः । साधुवरनागसिंह छाजल - नरवर्म-दाख्याः ॥ ५ ॥ साधोश्च देवसिंहस्य भार्या कर्मसिरिरिति । त्रयाणां पुरुषार्थानां पात्रमास्ते कुलं ह्यदः ॥ ६ ॥ श्रीमत्तपागणनभोऽङ्गणभास्कराणां श्रीदेवसुन्दर गुरुत्तमसूरिराजाम् । 1 धर्मोपदेशवशतोऽवगताप्तवाक्यः खोपार्जितार्थनिवहस्य फलं जिघृक्षुः ॥ ७ ॥ 15 सुधीः सहस्रानिह देवसिंहो मन्थाग्रतः पञ्चदशप्रमाणान् । श्रीताडपत्रेषु जिनागमस्यालेखयत् संप्रति पुस्तकेऽत्र ॥ ८ ॥ 30 सिद्धप्राभृत- जीवाजीवाभिगमवृत्तिकेऽलेखयत् । अणहिलपाटकनगरे त्रिं वर्द्धि- वौद्धीन्दु-मितवर्षे ॥ ९ ॥ * सिपाहुड - जीवाभिगमाध्ययनप्रन्थद्वयात्मकं पुस्तकमिदं पत्तने संघवी पाडासत्कभाण्डागारे विद्यमानमस्ति । 25 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [पुस्तकेऽत्र लिपिक; त्रिषु स्थानेषु लेखनसमाप्तिसमयो निर्दिष्टः । तत्र(१) सिद्धप्राभृतटीकाप्रान्ते इत्थमुल्लिखितम् “संवत् १४४४ वर्षे फागुण शुदि ५ बुधे अयेह श्रीपत्तने । मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु । त्रिपाठि नागशर्मेण(र्मणा !) लिखितं ॥" 5 (२) सिद्धपाहुडमूलग्रन्थप्रान्तभागे "मंगलं महाश्रीः । संवत् १४४४ वर्षे फागुणशुदि ६ गुरौ त्रिपाठि नागशर्मेण (र्मणा !) लिखितम् ॥" (३) जीवाभिगमटीकाप्रान्ते ___ "समाप्ता जीवाभिगमाध्ययनशास्त्रप्रदेशटीका कृतिहरिभद्राचार्यस्येति ॥ छ ॥ ग्रंथाग्रं० १२०० ॥ छ । संवत् 10१४४४ वर्षे फागुणशुदि १५ शनी अद्येह श्रीपत्तने ॥" [७२] श्रीमालवंशीय-श्रे० सामंत-लेखित-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र [तदन्तर्गत नेमिचरित] पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल सं० १३७५ विक्रमाब्द] 15 श्रीमालवंशे प्रागासीद् देहडिदेहिनां वरः पुण्यपाल-देवपालौ सुतौ तस्य बभूवतुः ॥ १ ॥ यशो नामा पुण्यपालतनयस्तस्य सूनवः । सांताकः सिंधुलश्चैव ऊदलः सांग एव च ॥ २॥ त्रयः सांताकतनया आंबडः शूर एव च । सलक्षो लब्धलक्षोऽभूत् सर्वभूतदयापरः ॥ ३ ॥ सिंधुलधर्मपन्यासीत् सूहवदेवी नामतः । सुतः सामन्तनामाऽभूत् यस्तत्त्वज्ञशिरोमणिः ॥ ४ ॥ अंगजौ ऊदलस्यापि आभड आसकस्तथा । त्रयः सांगाकसुता वीसलो वयजा-देदको ।। ५॥ चाहडो देपालसुतः सीहडश्चाहडांगजः । त्रयः सीहडतनयाः सांगणः सुकृतांगणः ॥ ६ ॥ सहजपालः सजना सांगणांगरुहाः क्रमात् । शूराकः प्राहादश्चैव श्यामलः सालिगस्तथा ॥७॥ श्रीमान् विवेकसिंहाख्यः पूर्णिमापक्षमंडनं । तत्पट्टे श्रीरामचंद्रप्रभुः सप्रतिमोऽभवत् ॥ ८॥ तत्पट्टमंडनं श्रीमान् धीरसिंहाभिधः प्रभुः । तच्छिष्योऽभयसिंहाख्यगुरुभविकसम्मतः ॥ ९॥ तस्मै श्रीगुरवेऽदत्त पित्रोः श्रेयःकृते सुधीः । सामंतो नेमिचरितं पुस्तकं खस्तिकारणम् ॥ १० ॥ 25 काले विक्रमतो बाण-मुनि-यक्षमिते सति । रोहेलायां स्थित इदं सामंतः सुकृतं व्यधात् ॥११॥ [७३] प्राग्वटज्ञातीय-श्रे० जिंदा-लेखित-आवश्यकनियुक्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमय सं० १२१२ विक्रमाब्द] संवत् १२१२ मागसिरसुदौ १० रवौ लिखितं उमता व्यास (?)। * पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडावस्थितभाण्डागारे विद्यते । + पत्तने संघवीपाडावस्थितभाण्डागारे विद्यते पुस्तकमिदम् । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । आसीत् प्राग्वटवंशे विमलतरमतिर्विश्वविख्यातकीर्तिः, सद्बुद्धिर्वाहलाख्यो जिनपतिचरणाराधने न्यस्तचित्तः। तस्याभूत् साधुशीला जिनमतिगृहिणी धर्ममार्गानुरक्ता, या शक्ता जानकीव प्रवरगुणगणै रामदेवस्य मान्या ॥१॥ जातौ तस्याश्च पुत्रौ विनय-नयपरौ ग्रामणीः श्रावकाणां, एकः सद् यक्षदेवः प्रकटगुणगणः.........."द्वितीयः । ज्येष्ठस्याभूत् सुपत्नी जिनवृषकलिता पोयणी....", दीनानाथादिदाने वितरणचतुरा शांति-दांतिप्रसन्ना ॥ २॥ सुता जातास्तस्यास्त्रयनरगुण......................', यशोदेवश्चाद्यः प्रथितगुणदेवाख्य इतरः। 5 तृतीयो जिन्दाख्यो जिनपतिमतभावितमतिः, सुता जासीत्याख्या विनयकलिता कर्मनिरता ॥ ३ ॥ ................मात्रा निजश्रेयसे संशुद्ध भणितेन पुस्तकमिदं जिंदाभिधेन स्फुटम् । श्रेष्ठं लेखितमागमस्य विबुधैर्द्वधा सुमान्यं सदा, नानावर्णसुपत्र..........."रत्नाकरम् ॥ ४ ॥ यावत्तारकनायकौ दिनकरौ देवाचलस्तोयधिर्यावज्जैनमतं वरं सुरनदी वर्गों दिशां मंडलम् । यावच्छेषफणावलीषु जगती . तावन्नंदतु पुस्तकं प्रतिदिनं पापठ्यमानं बुधैः ॥ ५॥ 10 [७४] प्राग्वाटवंशीय-श्रा० वरसिंह-लेखित हैमव्याकरणावचूरि-पुस्तकप्रशस्तिः*। [लेखनकालो नोल्लिखितः] श्रीवीतरागं प्रणिपत्य भक्त्या हैमावचूरेः शुभपुस्तिकायाः । .................... प्रशस्तिं ॥ १ ॥ प्राग्वाटवंशोज्ज्वलमौक्तिकाभः सुश्रावकः पूनडनामधेयः। निशम्य शास्त्राणि भुवि द्विधापि""प्राप परीक्षकत्वं ॥२॥ 15 क्षेत्रेषु सप्तखथ दुःस्थितेषु न्यायात्तवित्तं वितरनजसं । अचिंत्यदानादि..................यशांसि लोके ॥ ३ ॥ तद्गेहिनी श्रीरिव देहिनीह तेजीति नामास्ति जिनेन्द्रभक्ता । विनीत............... "गुणावदाता ॥ ४ ॥ तत्सूनुरन्यूनगुणः प्रधानो जिनेश्वरध्यानकृतावधानः । दोर्दैड....."मांडलिक............लिषाभिधानः ॥ ५॥ यदीयबंधुर्धरसिंहसंज्ञः श्रीसार्वगुर्वर्चनकृत्यविज्ञः । हैमावचूरिर्दशपद..................लेखितमत्र तेन ॥ ६ ॥ [७५] 20 प्राग्वाटवंशीय-श्रा० सरणी-लेखित-सटीकउत्तराध्ययनसूत्र-पुस्तिकाप्रशस्तिः।।। [लेखनकाल सं० १४०० (१) विक्रमाब्द ] ॥ नमः सर्वज्ञाय ॥ सन्मर्यादो गभीरो घनरसनिचितः साधुपाठीनहेतु-नित्यं लक्ष्म्या निवासः कुलधरनिलयः सद्वसुस्थानुमुच्चैः । कुल्याधारो गरीयान् प्रचुरतरलसत्कोटिपात्रोपशोभी, वंशः प्राग्वाटपुंसां क्षितितलविदितो वर्तते सिंधुकल्पः ॥ १ ॥ 25 तत्राभवद् देवगजोपमानः सलीलगामी बहुदानवर्षः। यो नामतः ख्यातिमितोऽर्थतश्च जने भृशं शोभित इत्युदात्तः ॥२॥ पारिग्राहिकतां प्राप्तः स्थाने धान्येरकाहये । प्रजासु राजवर्गे च मान्यो मन्युविवर्जितः ॥ ३ ॥ सुदन्ती दन्तिनीवाभूत् भार्या तस्येह रुक्ष्मणी । सलीलगमना कामं सुवंशोन्नतशालिनी ॥ ४ ॥ जातस्तयोस्ततनयास्तनया विनयान्विताः । जनितानेकलोकार्थाः पुरुषार्था इव त्रयः॥५॥ * पत्तने संघवीपाडावस्थितभाण्डागारे विद्यते पुस्तिकेयम् । प्रमृष्टाक्षरत्वात् खण्डितप्राया इयं प्रशस्तिः। + पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडासत्कभांडागारे विद्यमानमस्ति । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 25 ७२ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तत्राद्यो वीरचन्द्राख्यो विख्यातो निर्मलैर्गुणैः । कृतगुरुदेवसेवो वीरदेवाभिधोऽपरः ॥ ६ ॥ तृतीयः पूर्णपालः श्रीश्रेयसां भाजनं परम् । यथाक्रममथामीषां भार्याः सचर्ययान्विताः । राजिनी प्रमुखाः सख्यं यासां साध्वीभिरायतम् ॥ ७ ॥ पंचाथ पुत्रिका जाताः सुपवित्राश्च ..... । पित्रोर्विनयकारिण्यो वरेण्यगुणराजिताः ॥ ८ ॥ तत्रादिमा बान्धवलोकमान्या पैशून्यशून्यादितमन्युदैन्या । नाना प्रतीता सरणीति धन्या यशोवदाता सुतरां वदान्या ॥ ९ ॥ प्रियवाक्यप्रयोगेन प्रीणिताखिलदेहिनः । पासडवणिजः पत्नी श्रावकस्य विवेकिनः ॥ १० ॥ द्वितीया मरुदेवीति गणिनी गुणशालिनी । ज्ञानदर्शनचारित्र [ रत्नत्र ]यविभूषिता ॥ ११ ॥ तृतीया श्रितसंतोषा संतोषेति सुविश्रुता । यशोमतिरिति ख्याता तुर्या बहुयशोमतिः ॥ १२ ॥ विनयश्रीरिति ख्याता गणिनी पंचमे जने । मरुदेवी गणिन्यास्तु सदान्तेवासिनी परा ॥ १३ ॥ यन्नैर्मल्यं निभाल्यैवानन्यतुल्यं निशाकरः । लज्जितों कच्छलेनान्तः कालुष्यं बिभ्रते भृशम् ॥ १४ ॥ अथान्यदा वाचमुवाच .....सरणी गुरूणाम् । यथा महार्था जिनभाषिता गीराराध्यमाना विनिहन्ति मोहं ॥ १५॥ निशम्य चैवं संजातबुद्धिर्जिनवरागमम् । लेखयितुं सुतं पृष्ट्वा विमलचन्द्रनामकम् ॥ १६ ॥ द्वितीयं च देवचन्द्रं च धर्मसम्बद्धचेतसम् । तृतीयं च यशश्चन्द्रं सुकृतन्यकृतांहसम् ॥ १७ ॥ तैरेव कृतसाहाय्या धनदानेन भूयसा । भगिनीभिश्च संतोषाप्रमुखाभिः खेच्छया ॥ १८ ॥ पुस्तकमे तदली लिख दिहोत्तराध्ययनटीकायाः । प्रांजलपंक्तिविशिष्टं विविक्तरेखाक्षरशोभम् ॥ १९ ॥ सूर्याचन्द्रमसौ यावद् यावद्दीपाः ससिंधवः । पठ्यमानो बुधैस्तावन्नंदत्वेष सुपुस्तकः ॥ २० ॥ [ ७६ ] श्रीमालवंशीय श्रा० धर्मिणि-लेखित चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्ति-पुस्तक प्रशस्तिः * । [ लेखनकाल सं० १४८१-८३ विक्रमाब्द ] - इति श्री मलयगिरिविरचिता चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु श्रीचतुर्विधसंघस्य । ग्रंथाग्रं० ९५०० ॥ संवत् १४ आषाढादि ८१ वर्षे भाद्रपदवदि १ शनौ 1 श्रीश्रीमालकुले तेजा मंत्री वानूश्च तत्प्रिया । आसंस्तत्तनया मेला - मेघा - सेगाह्वयस्त्रयः ॥ १ ॥ तेषां डाही-धर्मिणि-कांऊ नाश्यः क्रमादिमाः पत्न्यः । मेलापुत्रा गोरा-सांई आ- रामदेव-चांगाख्याः ॥ २ ॥ इतश्च मेघादयिता धर्मिणिर्धर्मकर्मठा । घोघानगरवास्तव्यमंत्री सिंघातनूद्भवा ॥ ३॥ कडुआ धांगाबंधुप्रभृतिकुटुंबान्विता सुधर्मरता । श्रीमज्जैनेंद्रागमभक्ति भरोल्लसितचेतस्का ॥ 11 तपाधिपश्रीगुरुसोमसुन्दरोपदेशतत्र्यष्ट दिगिंदु ( १४८३ ) वत्सरे । अलीलिखत् स्वस्य हिताय चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्तिं वरताडपुस्तके || ५ | पुस्तकमिदं पत्तने संघवी पाडावस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। [७७] श्रीमालवंशीय-श्रे० कर्मण-लेखित-[तिलकाचार्यकृत] आवश्यकलघुवृत्ति पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल सं० १४९२ विक्रमाब्द ] अणहिलपुरमस्ति स्वस्तिकप्रायमूळ, नयविनयविवेकच्छेकलोकावरुद्धम् । अपरनगरशोभागर्वसर्वखजैत्रं, वरजिनगृहमालास्वर्विमानोपहासि ॥ १॥ श्रीश्रीमालकुलस्तत्र राबाख्यः श्रेष्ठिपोऽभवत् । नानादानादिसद्धर्मकर्मकर्मठमानसः ॥ २ ॥ तस्य राजलदेवीति जायाऽजायत सद्गुणा । विवेकविनयप्रह्वा शीलालंकारधारिणी ॥ ३ ॥ सांडा-सोमा-मेघा-भपति-पांचाहयास्तयोः पंच । पुत्राः सुतीर्थयात्राद्यवाप्तसंघाधिपत्यपदाः ॥ ४॥ नामस्तवपंचशतीकायोत्सर्गकतत्परः सततम् । सांडाख्यः संघपतिर्विशिष्य तेष्वद्भुतक्रियो जज्ञे ॥ ५॥ 10 तेषां सांडादीनां पंचानामपि च पंच पत्न्योऽमूः । कामलदेवी सिंगारदेश्च माणिक्यदेवी च ॥६॥ भावलदेवी पाल्हणदेवी ख्याताः सुशीलतः क्रमतः । श्रीदेवगुरुषु भक्ताः सक्ताः सद्धर्मकर्मविधौ ॥ ७॥-युग्मं । सांडा-कामलदेव्योस्तनयाः पंचाऽभवन् क्रमादेते । श्रीधर्मकर्मकुशलाः सम्यक्त्वाद्यैर्गुणैः प्रथिताः ॥ ८ ॥ नाख्यः प्रथमस्तेषां धर्मणः कर्मणस्तथा । डाहाख्यश्च चतुर्थोऽस्ति योधाख्यः पंचमः पुनः॥९॥ पुत्र्यौ तथा द्वे गुणराजिराजिते पूरीति वाधूरिति विश्रुताभिधे । 15 यन्मानसं श्रीदेवगुरुभक्तियुक् श्रीधर्मपीयूषरसेन पूरितम् ॥ १० ॥ दयिताः क्रमतस्तेषां विमलान्वयविनयशीलसंपन्नाः । रतनू कांऊ मांई मांकू वाल्हीति नामानः ॥ ११ ।। मनाकस्य समधरः सालिगश्च सुतावुभौ । धर्मणस्य संघपतेर्हर्षा-बाला-भिधौ पुनः ॥ १२ ॥ डाहाकस्य माई आद्या हंसो योधांगजस्तथा । सर्वेऽप्यमी गुणमणिश्रेणिरोहणभूधराः ॥ १३ ॥ नानाविधान् धर्मविधीन् सृजन् सदा विशुद्धधीः संघपतिस्तु कर्मणः। श्रीज्ञानभक्ति विशदां हृदा दधद् द्रव्यव्ययेन प्रचुरेण हर्षतः ॥ १४ ॥ ष्ठि-साल्हाक-सिंगारदेवीपुत्र्या पवित्रया । माईनान्याऽनिशं शुद्धक्रियया प्रिययान्वितः ॥ १५॥ श्रीसोमसुन्दरगुरुपवरोपदेशात् खश्रेयसे द्विनव-वॉर्द्धि-शशांकवर्षे ।। आवश्यकस्य लघुवृत्तिमलेखयत् श्रीताडीयपुस्तकवरे दृढधर्मभावः ॥ १६ ॥ पुस्तकेष्वपरेवन्ये ग्रन्थास्तेनाथ लेखिताः । अयं च वाच्यमानास्ते जीयासुर्विबुधैश्विरम् ॥ १७॥ 25 ॥ श्रीसोमसुन्दरसूरिगुरवो जयंतु । श्रीः । छ । ठ० वैकुंठ ठ० कुंठा ॥ [७८] प्राग्वाटवंशीय-श्रा० स्याणी-लेखित-आचारांगसूत्र-वृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः। [लेखनकाल सं० १४५० विक्रमाब्द] ॥ संवत् १४५० वर्षे भाद्रपद वदि १ शुक्रे रेवत्यां पुस्तकं लिखितम् । *पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडासत्कज्ञानभाण्डागारे विद्यते । + पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडासत्कभांडागारे विद्यमानमस्ति । १०० पु. 20 30 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सद्धर्म्मव्यवहारिदेसलसुतः ख्यातः क्षितौ सर्वतः, प्राग्वादान्वयमंडनं समभवन्मेघाख्यसंघाधिपः । जाया मीणलदेवी नाम विदिता तस्य प्रशस्याशया, पुत्री पुण्यवती तयोर्गुणवती स्याणीति संज्ञाऽभवत् ॥ १ ॥ सम्यग्दृग् नरसिंह गान्धिकसुतः श्रद्धालुवर्गाप्रणीः, जज्ञे गागलदेवि सूर्धणिगाद्दानः प्रधानः सदा । जाया याऽजनि तस्य शस्यचरिता पुण्यक्रियाप्रत्यला, नित्यं श्रीजिनपूजनैकरसिका दानादिवद्धारा ॥ २ ॥ 5 श्रुत्वा श्रीगुरुदेव सुन्दर महाधर्मोपदेशं तया वर्षे विक्रमतो नभः शरै- नदीनाथेन्दुसंख्ये स्वकम् । द्रव्यं भूरि वितीर्य पुस्तकमिदं सुश्रेयसे लेखितं नित्यं नंदतु वाच्यमानमनघैर्मेधाविभिः साधुभिः ॥ ३ ॥ ॥ शिवमस्तु श्रीः ॥ ७४ [ ७९] माथुरान्वयजात संयतिका जाहिणी- लिखापित- ज्ञानार्णव- पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखन संवत् १२८४ विक्रमीय ] - इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्य श्री शुभचन्द्र विरचिते मोक्षप्रकरणम् । अस्यां श्रीमन्नृपुर्या श्रीमदर्हद्देवचरणकमलचंचरीकः सुजनजनहृदय परमानन्द कंदलीकंदः श्रीमाथुरान्वयसमुद्रचंद्रायमानो भव्यात्मा परमश्रावकः श्रीनेमिचन्द्रो नामाऽभूत् । तस्याखिलविज्ञान कला कौशलशालिनी सती पतित्रतादिगुणगणालंकार भूषितशरीरा निजमनोवृतिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णा नाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः 15 समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमुदवनचंद्रलेखा निजवंशवैजयंती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणी नाम पुत्रिका समुत्पन्ना ॥ छ ॥ 10 20 25 ततो गोकर्ण - श्रीचन्द्रौ सुतौ जातौ मनोरमौ । गुणरत्नाकरौ भन्यौ राम-लक्ष्मणसन्निभौ ॥ सा पुत्री नेमिचन्द्रस्य जिनशासनवत्सला । विवेकविनयोपेता सम्यग्दर्शनलांछिता ॥ ज्ञात्वा संसारवैचित्र्यं फल्गुतां च नृजन्मनः । तपसे निरगाद् गेहाद् शांतचित्ता सुसंयता ॥ बांधवैर्वार्यमाणापि प्रणतैः शास्त्रलोचनैः । मनागपि मनो यस्या न प्रेम्णा कश्मलीकृतं ॥ गृहीतं मुनिपादान्ते तया संयतिकात्रतं । खीकृतं च मनः शुद्ध्या रत्नत्रयमखंडितं ॥ तया विरक्तयाऽत्यंतं नवे वयसि यौवने । आरब्धं तत् तपः कर्तुं यत् सतां साध्विति स्तुतं ॥ यम-व्रत-तपोद्योगैः स्वाध्याय- ध्यान-संयमैः । कायक्लेशाद्यनुष्ठानैर्गृहीतं जन्मनः फलं ॥ तपोभिर्दुष्करैर्नित्यं बाह्यान्तर्भेदलक्षणैः । कषायरिपुभिः सार्द्ध निःशेषं शोषितं वपुः ॥ विनयाचारसंपत्त्या संघः सर्वोप्युपासितः । वैयावृत्त्योद्यमात् शश्वत् कीर्तिनींता दिगन्तरे ॥ किमियं भारती देवी किमियं शासनदेवता । दृष्टपूर्वैरपि प्रायः पैौरैरिति वितर्क्यते ॥ तया कर्मक्षयस्यार्थं ध्यानाध्ययनशालिने । तपः श्रुतनिधानाय तत्त्वज्ञाय महात्मने ॥ रागादिरिपुमल्लाय शुभचंद्राय योगिने । लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ॥ 1 संवत् १२८४ वर्षे वैशाष शुदि १० शुक्रे गोमंडले दिगम्बर राजकुल सहस्रकीर्तिस्या (?) थें 30 पं० केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति ॥ * पुस्तकमिदं पत्तने खेतरवसही पाटका वस्थितज्ञानकोशे विद्यते । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 .... .... .... ......... जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [८०] प्राग्वाटवंशीय श्रे० यशोदेव-लेखित-सिद्धान्तविचार-पुस्तिकाप्रशस्तिः । . [लेखनसमय सं० १२१२ विक्रमाब्द] संवत् १२१२ आषाढ वदि १२ गुरौ । लिखितेयं सिद्धान्तोद्धारपुस्तिका लेखकदेवप्रसादेनेति । अंथानं० १६३० द्वितीयखंडे ॥ छ । शिष्यांभोजवनप्रबोधनरवेः श्रीधर्मघोषप्रभो-र्वक्रांभोजविनिर्गताः [ सुविशदाः ] सिद्धांतसत्का अमी। पर्याया गणिचंद्रकीर्तिमुनि]ना संचिंत्य संपिंडिताः, स्वस्य श्रीविमलाख्यसूरिंगणभृच्छिष्येण चिंताकृते ॥१॥ अस्ति श्रीमदखर्वपर्वततिभिः सर्वोदयः क्ष्मातले, छायाछन्नदिगंतरः परिलसत् भव्यावलीसंकुलः । सेवाकारिनृणां नवीनफलदोऽप्यश्रांतसांद्रद्युति-निश्छिद्रः सरलत्वकेतुनिकरः प्राग्वाटवंशः सतां ॥ २ ॥ मौक्तिकहारसंकाशः समासीत्तत्र नीहिलः । श्रावको गुणसंयोगान्नराणां हृदये स्थितः ॥ ३ ॥ 10 समजनि धनदेवः श्रावकस्तस्य सूनुः, प्रथितगुणसमुद्रोऽमंदवाणी विशेषात् । गगनवलयरंगत्कीर्तिचंद्रोदयेऽस्मिन् , लगति न....................... ॥ ४ ॥ तस्य च भार्येन्दुमती..........पुत्रः गुणरत्नो....."रोहणाचलः धर्मवनद्रुममलयः । ......... कीर्तिसुधाधवलितसमस्तविश्ववलयो यशोदेवश्रेष्ठी ॥५॥ तस्य च - अंबीति नान्ना जनवत्सलाऽभूद् भार्या यशोदेवगृहाधिपस्य । 15 यस्याः सतीनां गुणवर्णनायामाद्यैव रेखा क्रियते मुनीन्द्रैः ॥ ६॥ तयोश्च पुत्रा उधरण-आम्बिग-वीरदेवाख्या बभूवुः । सोली-लोली-सोखीनामानश्च पुत्रिकाः संजज्ञिरे ॥ ७॥ अन्यदा च-सिद्धांतलेखनबद्धादरेण जिनशासनानुरंजितचित्तेन । यशोदेवश्रावकेण सिद्धांतविचारपर्यायपुस्तिका लेखयामास (!) ॥ ८॥ पूज्यश्रीविमलाख्यसूरिगणभृच्छिष्यस्य चारित्रिणो, योग्याऽसौ गणिचंद्रकीर्तिविदुषो विद्वज्जनानंदिनी । शास्त्रार्थस्मृतिहेतवे परिलसद् ज्ञानप्रपा पुस्तिका, भक्तिमांचितय( ? )त्युपासकयशोदेवेन निर्मापिता ॥ ९॥ यावचंद्ररवी नभस्तलजुषौ यावच्च देवाचलो, यावत्सप्तसमुद्रमुद्रितमही यावन्नभोमंडलं । यावत्स्वर्गविमानसंततिरियं यावच दिग्दंतिन-स्तावत्पुस्तकमेतदस्तु सुधियां व्याख्यायमा मुदे ॥ १० ॥ ॥ इति प्रशस्तिः ॥ समाप्त ॥ छ । [८१] प्राग्वाटवंशीय-श्रे० धीनाक-लेखित-उत्तराध्ययनलघुवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमय सं० १२९६ विक्रमाब्द ] -संवत् १२९६ चैत्र वदि १० सोमे। * एतत्प्रशस्तियुक्ता पुस्तिका स्तम्भतीर्थे शांतिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानकोशे विद्यते । + पुस्त कमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभांडागारे विद्यते। 20 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । बभूव भूतला "प्राग्वाटवंशजः । शिष्टाचाररतः श्रेष्ठी धीनाको नाम संगतः ॥ १ ॥ तत्कलत्रं तु पद्मश्रीः रामश्रीरिव केवला । अभवत् पासचंद्राख्यस्तयोः सूनुः सुधार्मिकः ॥ २ ॥ पौत्रस्तु गुणपालाख्यो धीनाकः श्रेष्ठयथान्यदा । श्रीदेवेंद्रमुनींद्रस्य देशनामशृणोदिति ॥ ३ ॥ ज्ञानाभयोपग्रहदानभेदाद् दानं त्रिधा सर्वविदो वदन्ति । तत्रापि तीर्थात्रुटिकारणेन सुज्ञानदानं प्रवरं वदन्ति ॥ ४ ॥ 5 कालादिदोषान्मतिमांद्यतश्च तन्नो भवेत् पुस्तकमंतरेण । चलश्रिया शाश्वतसौख्यकारि तल्लेखनं युक्तमतः सतां हि ॥ ५ ॥ श्रुत्वेति श्रेष्ठी धीनाकः खश्रेयोऽर्थमलेखयत् । पुण्यं श्रीउत्तराध्यायलघु सद्वृत्तिपुस्तकं ॥ ६ ॥ यावद्" 10 **************** • वाच्यमानं विदुषां समूहैः ॥ [ २ ] धर्कवंशीय श्रा० रत्नश्री लेखित पर्युषणाकल्प-पुस्तिका प्रशस्तिः । ७ ॥ [ लेखनसमय सं० १३०० विक्रमाब्द ] संवत् १३०० वर्षे कार्तिक वदि १३ शनौ पर्युषणाकल्पपुस्तिका लिखिता ॥ छ ॥ छ ॥ सूरिः श्रीगणनायकोऽजनि यशोभद्राभिधेयः प्रभुः, श्रीशाली-सुमती-श्वराश्च गुरवः श्रीशांतिसूरिस्ततः । श्रीमानीश्वर-शालिसूरि-सुमतिः श्रीशांतिसूरीश्वराः, श्रीषंडेरगणे क्षमार्षिसहिताः कुर्वंतु वो मंगलं ॥१॥ अपि च 15 यः सद्वृत्तिविनिर्मिताखिलजनप्रीतिप्रकर्षोदयः, प्रोद्भूतोन्नतिभासुरः सरलताशाली सुपर्वत्रजः । धर्माय प्रवरेण भूरिविलसत्संपद्भरेणांचितः, स श्रीमान् जगतीतले विजयतां वंशश्चिरं धर्कटः ॥ २ ॥ तस्मिन् वंशे विशाले समजनि सुकृती सालिगो नामधेय - स्तस्यासीज्ज्येष्ठपुत्रो गुणगणवसतिरासपूर्वी धरश्व । आशापालस्तदन्यो निजकुलतिलको दानदाक्षिण्यदक्षः, संतोषी शांतचित्तो जिनचरणरतो धर्मकर्मप्रवीणः ॥ ३ ॥ आसधरस्य या पत्नी शीलालंकारधारिणी । आसमती नाम पुत्रोऽस्याः पूर्वो माल्हणाभिधः || ४ || 20 द्वितीयो जाल्हणो नाम शुद्धवंशोद्भवः सुधीः । [ सुरद्रुमसमो ]दीने वूडाकस्तृतीयकः ॥ ५ ॥ asreer प्रिया सौम्या रत्नश्रीः सत्यशालिनी । दयादाक्षिण्य विभवा सत्यसंतोषशालिनी ॥ ६ ॥ सद्गुरोश्चरणांभोजखंडषट्पदसोदरा । तस्याः पुत्रो बभूवायं पासडाख्यो महामतिः ॥ ७ ॥ आसपालप्रिया जाता सुहवाख्या वरानना । तस्याः सुतः सतां मान्यो गोसलः पुण्यमंदिरं ॥ ८ ॥ गोसलस्य प्रिया सौम्या वस्तिनी शुद्धवंशजा । जेहकाख्यः प्रियः पुत्रो नरसिंहो द्वितीयकः ॥ ९ ॥ 25 ललना पासडस्येयं धनश्रीः धर्मकांक्षिणी । अच्छुतोऽस्य अभूत् पुत्रोऽन्यो जांजणाभिधः ॥ १० ॥ स्यांगना जाता विल्हुका बंधुबंधुरा । पुत्रस्तस्याः सदा सौम्यः समताको कृपानिधिः ॥ ११ ॥ संसारे दुःखरूपे कथमपि च लभ्यते मानुषत्वं, तस्मिन् धर्मप्रभावे विलसति कमला स्वप्नवच्चंचला सा । रत्नश्रीः प्राप्य शुद्धां जिनवचनततिः श्राविकान्येद्यु वित्त-व्याजादाकल्पं पुनरपि च पटे निश्चलां तां करिष्ये ॥ १२ ॥ ... [ किंचिदपूर्णाsये ]. * पुस्तिकेयं स्तम्भतीर्थे शांतिनाथमन्दिर स्थितज्ञानकोशे विद्यते । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [८३] प्राग्वाटान्वय-श्रे० गुणधर-लेखित-शान्तिनाथचरित्र-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमय सं० १३३० विक्रमाब्द] -संवत् १३३० वर्षे आषाढ शुदि १० शनौ । ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ स श्रीशान्तिः श्रिये वोऽस्तु योऽपूर्वो मृगलांछनः । अविनाशिरुचिच्छायः सदा द्योतः (१) प्रकाशकः ॥ १॥ सश्रीकं जिनमाहवन् (१) लवणिमालीलागृहं रत्नसूः, ...... पूर्णकलामवाप्य मुदितस्तन्वन्नदीनां स्थितिं । शश्वद्गोत्रप्रतिष्ठारुचिरसनिलयः साधुवृत्तः समजः (१), सत्त्वाधारः समुद्रोपम इह जयति प्राग्वाटनामान्वयः ॥२॥ तदन्वयेऽभूदु धनदानुकारी सन्मार्गशाखीव परोपकारी। धनेश्वरोधर्मधुरीणदेहस्तस्यांगजोऽभूद् धनदाकनामा ॥३॥ काशहदे वरनगरे धनदाकेनादिनाथजिनभुवने । मूलप्रतिमाऽभिनवाऽस्थाप्यत शुद्धेन वित्तेन ॥ ४॥ 10 श्रेष्ठिनो धनदाकस्य ब्रह्मदेवः सुतः शुभः । वाग्भटश्च सुता चैका लक्ष्मिणिः शीलशालिनी ॥ ५॥ पुत्रो गोगाकनामाऽभूद् बाहडस्य गुणश्रियः । गोगाक-सूमला पत्नी तयोः पुत्रत्रयं क्रमात् ॥ ६ ॥ ऊधिग-धांधू-आकडमुख्या साल्हु तथाऽपरा दुहिता। सौभाग्य-श्रीदेवीकाख्यौ पत्न्यौ शुभाकारे ॥ ७ ॥ भार्याऽभूद् ब्रह्मदेवस्य मंदोदरी शुभाशया । तयोः पुत्राश्चतुःसंख्या धर्मकर्मणि कर्मठाः ॥ ८ ॥ आल्हाकः सफलः कलंकरहितः खच्छाशयो धर्मधीः, साल्हाको महिमानिधानमतुलो वाक्येन सन्नंदकः। 15 राल्हाको गुरुपादपद्मभसलः सर्वज्ञपूजारतः, माल्हाकः सबलः सलीलगमनः सत्यव्रतालंकृतः ॥९॥ राल्हाक-कुमारदेव्योः पुत्रत्रितयं तु ब्रह्मणागाद्यः। काल्हूक-रत्नसिंहौ ब्रह्मी-सोहग-सुते द्वे च ॥१०॥ आल्हाकोऽर्जितवित्तादाभरणं श्रीयुगादिदेवस्य । आरत्रिकं च मंगलदीपयुतं कारयामास ॥ ११ ॥ 'आल्हाक-रत्नदेव्यो रत्नत्रयधारकास्त्रयः पुत्राः । गुणधर-यशधर-समधरमुख्याश्चाहणिः सुता चैका ॥ १२ ॥ समधरभार्या कर्मणिः पुत्राः सप्त क्रमेण कालाद्याः । आसाऽऽसपाल-सेढा-पूना-हरिचंद्र-वयराख्याः ॥ १३ ॥ गुणधरभार्या खच्छा शीलतपोदानभावधर्मरता । राजमतिरंगजातास्तयोर्जनानंदकाः शस्याः ॥१४॥ पार्श्वभटो वीराक अंबा-लीबाक-सोमदेवाश्च । शीलू-हीरल-दुहिते जिनधर्मसदोद्यते एते ॥ १५॥ पासड-भार्या साजिणि पुत्रौ द्वौ विजयसिंह-नयणाको । वीरापत्नी राजश्रीः सूनुत्रितये तु जगपालः॥१६॥ हरपाल-देवपाली; आंबाभार्या च ललतुका श्रेष्ठा । नरपालः सुतश्चैको; लीबाकल्याण( भार्या !)पमाख्या ॥ १७ ॥ विजयश्री-यशधरयोर्नरसिंहसूनुरतिथिजनभक्तः । पाती दुहिता चैका कुटुंबमेतच्च सुविशालं ॥ १८ ॥ श्रीभुवनरत्नपूज्याः पारीद्रा वादिकुंजरेण । कांतारनिवृत्तिका गच्छधराः शुभाचाराः (१) ॥ १९ ॥ 30 आनंदप्रभसूरींद्रास्तत्पदांभोजभानवः । सिद्धांतजलधिपारं प्रापुः प्रज्ञाप्रकर्षेण ॥ २० ॥ 25 * इदं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानकोशे विद्यते । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । तत्पट्टे विशुद्धे श्रीमंतो वीरदेवसूरींद्राः । तत्पट्टे सच्चरिताः धीमंतः कनकदेवाख्याः ॥ २१ ॥ ससुतो गुणधरः श्राद्धः पार्थे श्रीकनकदेवसूरीणां । धर्मोपदेशमतुलं शुश्रावेत्थमघापहं [जातु] ॥ २२ ॥ गुणानां सर्वेषां जगति जयिनी संपदनिशं, यया दोषाः सर्वे जगति गुणतां यांति गृहिणां । नवेद्भाव्याद्वस्या(१) जलधिजलकल्लोलचपला, परेषां सा केषां...........धर्मकार्ये ॥ २३ ॥ 5जिनबिंब-भवन-पुस्तक-तुर्यविधसंघ-सप्तक्षेत्रेषु । यो वपति बीजवित्तं लभते हि परत्र स बहुफलं ॥ २४ ॥ मुनिक्षेत्रान्तर्विशेषपुण्याय पुस्तकक्षेत्रं...................."यत्प्रभावाद् भवंति धर्मोपदेष्टारः ॥ २५॥ कलिकालकालविलसिततमसापिहितेन धर्मवररत्ने । श्रुतलिखितपुस्तकमये दीपे तत्प्रकटनं भविनां ॥ २६ ॥ केवलज्ञानपरिस्पर्धि श्रुतज्ञानमुदीरितं । अतस्तल्लेखने पुण्यमगण्यं गदितं जिनैः ॥ २७ ॥ इत्थं श्रुत्वा पुत्रसाहाय्यतोऽसौ श्रेष्ठी न्यायोपात्तवित्तेन हृद्यं ।। 10 शांतेर्वृत्तं लेखयामास शुद्धं पित्रोः [श्रेयार्थे ]......॥ २८ ॥ [८४] गूर्जरवंशीय-श्रा० रयणादेवी-क्रीत-भुवनसुन्दरीकथा-पुस्तकप्रशस्तिः । [पुस्तकक्रयसमय १३६५ विक्रमाब्द] श्रीमद्गुर्जरवंशप्रभवः संभवदनेकगुणविभवः । साधुहरिचंद्रसूनुः पुण्यश्रीकुक्षिसंभूतः ॥ १ ॥ 15 दुःस्थार्थिसंतापहरः प्रसिद्धः खच्छाशयश्वारुगुणान्वितश्च । मुक्तोपमानो वसुमान् सुवृत्तः समस्ति साधुर्नयपालनामा ॥२॥ तस्यास्ति जाया रयणाभिधाना दानादिसद्धर्मरता प्रधाना।। पुत्रास्त्वमी प्रौढविवेकचर्याः ख्यातास्त्रयो निर्मितसंघकार्याः ॥ ३ ॥ आद्यो वदान्यः कृतिलोकमान्यः प्राज्ञः सुधन्योऽजनि कीर्तिसिंहः । दानोद्यतोऽन्यस्त्विह देवसिंहः साल्हाभिधः साधुवरस्तृतीयः ॥ ४ ॥ 20 साधुनयपालपत्नी रयणादेवी विवेकधर्मज्ञा । पुस्तकमेनं श्रीभुवनसुंदरीसत्कथासत्कं ॥ ५ ॥ आत्मश्रेयोऽर्थमथ व्याख्यापयितुं जनोपकाराय । जगृहे मूल्येन मुदा बाणे-रस-शिखीं-( १३६५ )मितवर्षे ॥ ६॥ पुष्पदंताविमौ यावद् वर्तेते गगनांगणे । बुधैर्व्याख्यायमानोऽयं तावन्नंदतु पुस्तकः ॥ ७ ॥ भुवनसुंदरीकथापुस्तकं । सा० नयपालभारियणादेव्याः सत्कम् । [८५] __ श्रीमालवंशीय-श्रा० लीलादेवी-लेखित-आवश्यक-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल सं० १३९१ विक्रमाब्द ] यत्पादद्वितयावनम्रशिरसो भव्यासुमंतोऽनिश, जायंते सकलार्थसिद्धिसुभगास्त्रैलोक्यलोकोतमाः । श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रवंशविलसद्रत्नत्रयीपोपमः, श्रीमद्वीरजिनेश्वरः स दिशतां नित्यं पदं भाविनां ॥ १ ॥ * पुस्तकमिदं स्तंभतीर्थे शांतिनाथमन्दिरस्थितभांडागारे विद्यते । इयं पुस्तिका पत्तने तपागच्छसंज्ञकभाण्डागारे विद्यते । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 5 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । श्रीमालवंशोन्नतिकारणोऽभूत् श्रेष्ठी पुरा झांझणनामधेयः । पत्नी च तस्याऽजनि जयतुगाख्या सद्दानशीलादिगुणैकभूमिः ॥२॥ तत्पुत्रः श्राद्धधुरोऽजनि जनितनयो लूणसिंहाभिधानो, लीलादेवीति नाम्ना प्रथितगुणगणा प्रेयसी तस्य चासीत् । तत्पुत्रश्वाजनिष्ट प्रथमदृढवरः श्रावको मुंजनामा, मालाख्यश्च द्वितीयोऽजनि गुणनिभृतः साल्हकाख्यस्तृतीयः॥३॥ आद्या सुता माणिकिनामधेया सोषीति नाम्ना प्रथिता द्वितीया । पूजीति च ख्यातिमगात् तृतीया धुनीति नाम्ना विदिता च तुर्या ॥ ४ ॥ एता विरेजुः शुभभावपूर्णा लावण्यसिंहस्य सुताश्चतस्रः । चतुष्कषायज्वलनोपशांत्यै पीयूषकुल्या इव मूर्तिमत्यः॥५॥ ___ पुण्याशयात् पंडितहर्षकीर्तिगणिभ्य एताभिरुदारधीभिः । अदीयतावश्यकपुस्तिकेयं सिद्धांतभक्त्या किल लेखयित्वा ॥६॥ नग-नगर-निवेशैमंडिता भूतधात्री जगति जयति तावत् वीरतीर्थे च यावत् । 10 भवभयपरिमुक्तैः साधुभिर्वाच्यमाना भुवि जयतु नितान्तं पुस्तिकावश्यकस्य ॥ ७ ॥ __संवत् १३९१ वर्षे तिमिरपुरवास्तव्य व्य० लावण्यसिंहभार्यया लीलादेव्या पं० हर्षकीर्तिगणिभ्य आवश्यकपुस्तिका वाचनाय प्रदत्ता ॥ [८६] प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठिलीबा-श्रेयोऽर्थ-लिखित-धर्मविधिवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तयः । 15 [लेखनसमय १४१८ विक्रमाब्द] -इति श्रीउदयसिंहाचार्यविरचिता उदयांका षड्वारा श्रीधर्मविधिवृत्तिः समाप्ता ॥ ग्रंथाप्र० ५५२० ॥ संवत् १४१८ वर्षे ची(चां)बामामे. श्रीनरचन्द्रसूरीणां बांधवेन पंडितगुणभद्रेण कच्छूली श्रीपार्श्वनाथगोष्ठिक लीया भार्या गउरी तत्पुत्र श्रावक जसा डूंगर तद्भगिनी श्राविका वीझी तील्ही प्रभृत्येषां साहाय्येन प्रभुश्रीश्रीप्रभसूरिविरचितं धर्मविधिप्रकरणं श्रीउदयसिंहसूरिविरचितां वृत्तिं श्रीधर्म-20 विधिग्रंथस्य कार्तिकवदिदशमीदिने गुरुवारे दिवसपाश्चात्यघटिकाद्वयसमये खमातृपित्रोः श्रेयसे श्रीधर्मविधिग्रंथमलिखत् ॥ (१) प्रथमा प्रशस्तिः । जावालिदुर्गे नगरे प्रधाने बभूव पूर्व धणदेवनामा । सहजल्हदेवी दयिता तदीया ब्रह्माक-लींबातनयौ च तस्याः ॥ १॥ गौरदेवी दयिता प्रबभूव लिंबकस्य तनयः कडुसिंहः। तस्य च प्रियतमा कडुदेवी तस्य चैव समभूद् धरणाकः ॥ २ ॥ ब्रह्माकपुत्रः प्रबभूव झंझणः प्राग्वाटवंशस्य शिरोमणिस्तु । आशाधरस्तस्य बभूव नंदनः पुत्रश्च तस्य प्रबभूव गोगिलः ॥ ३ ॥ गोगिलस्य तनयः प्रबभूव पद्मदेवसुकृती सुकृतज्ञः । तस्य चैव दयिता सुरलक्ष्मीजैनधर्मकरणैककोविदा ॥ ४ ॥30 अमी जयंति तनया यस्याश्च जगतीतले । सुभटसिंहः क्षेमसिंहः स्थिरपालस्तथैव च ॥ ५॥ * वनमयपत्रोपरि लिखितमिदं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभांडागारे विद्यते । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । जाया सुभटसिंहस्य सोनिका हेमवर्णिका । तस्याः सुता जयंत्युच्चैरेते विदितविक्रमाः ॥ ६ ॥ तेजाको जयतश्चैव नावड[:] पातलस्तथा । एताः पुत्र्यश्च यस्या हि कामी नामल चामिकाः॥ ७ ॥ जाया स्थविरपालस्य श्राविका देदिकाभिधा । तस्याः सुताः षडेते च जयंति जगतीतले ॥ ८॥ नरपालश्च हापाकस्त्रिभुवनस्तु कालुकः । केल्हाकः पेथडश्चैव षडेते सुरसुंदराः ॥९॥ 5 स्थविरपालस्य साहाज्जा(य्या)त् श्रीरत्नप्रभसूरिभिः । विशालाया धर्मविधेः पुस्तकं वाचितं वरं ॥ १० ॥ (२) द्वितीया प्रशस्तिः । कच्छूलिकामंडनपार्श्वनाथपादारविंदस्य मरालतुल्यः । प्राग्वाटवंशे भुवनावतंसे बभूव पूर्व सहदेवनामा ॥ १ ॥ गुणचंद्रनामा तनयस्तदीयः श्रीवत्सनामा च तदंगजोऽभूत् । श्रीवत्सपुत्रा जगति प्रसिद्धा अमी बभूवुर्गुणराशिसंयुताः ॥ २ ॥ 10 छाहडो निरुपमाकृतिरूपो धर्मकर्मनिपुणो यशोभटः । श्रीकुमारतनयस्तु तृतीयो वीतरागगुरुपूजनापरः ।। ३ ॥ छाहडस्य च शाखायां श्रीमाणिक्यप्रभसूरयः । गुरवश्च ततो जाताः श्रीकमलसिंघसूरयः ॥ ४ ॥ यशोभटस्य शाखायां श्रीश्रीप्रभसूरयः । वयं च गुरवो जाताः प्रज्ञातिलकसूरयः ॥ ५॥ श्रीकुमारेण च पुरा वृद्धग्रामे अचीकरत् । श्रीकमलसिंघसूरीणां पदस्थापनमुत्तमं ॥ ६ ॥ श्रीकुमारदयिता अभयश्रीः सोभाकस्तदनु बोडकाभिधः । साल्हकः सुगुरुधर्मतत्परास्तस्य चैव तनयाः प्रबभूवुः ॥ ७ ॥ सोभाकस्य जायाभून्नाम्ना अविधवा सदा । सोला-गदाकनामानौ बभूवतुः सुतौ तयोः ॥ ८॥ गदाकस्य च जायाभूत् प्रथमा रतनिकाभिधा । श्रियादेवी द्वितीया च मूर्ति(|) लक्ष्मीरिवापरा ॥ ९॥ कर्मा-भीमाक नामानौ श्रियादेव्याश्च नंदनौ । भीमाकस्यैव दयिता रुक्मिणी रुक्मिणी परा ॥ १० ॥ रुक्मिण्याश्च त्रयः पुत्रा बभूवुर्धर्मकारकाः । लींबाकः सोहडश्चैव पेथाकश्च तृतीयकः ॥ ११ ॥ लीवाकभार्या गउरी प्रसिद्धा भक्तौ जिनेंद्रस्य जसाक-डूंगरौ । पुत्रौ द्वितीयौ (?) तदनु प्रसिद्धौ पुत्र्यश्च तिस्रो भुवने हि यस्याः ॥ १२ ॥ वींझिका तदनु तील्हिका श्रिया जैनशासनसरोरुह ग्यः । पूर्ववंशगुरुभक्तितत्पराः शीलरत्नभरिता भुवि पुत्र्यः ॥ १३ ॥ व्याख्यापितं श्रीउपदेशमालासुपुस्तकं श्राविकया च विंझ्या । खवंशरत्नप्रभसूरिपार्थात् समर्थनं श्राद्धजसेन कारितं ॥ १४ ॥ (३) तृतीया प्रशस्तिः । प्राग्वाटवंशे प्रबभूव पूर्व कच्चलिकायां पुरि पार्श्वनामा । तदंगजो देसलनामधेयो बभूवतुस्तत्तनयौ प्रसिद्धौ ॥ १ ॥ बहुदेव-चीरचंद्रौ पुत्रौ जातौ मनोरमौ । वीरचंद्रस्य पुत्रोऽभूत् मालकः पुण्यधारकः ॥२॥ मालकस्य तनया मनोरमा आसको गुणधरोऽपि हि सांवः। वीरकः सुकृतकार्यहीरकः आसकस्य तनयश्च सोलकः ॥ ३ ॥ सोलकस्य दयिता सरस्वती पंच यस्य तनयाः प्रबभूवुः । माल्हणस्तदनु पार्श्वचंद्रमा बूटरोऽथ महिचंद्र-सेढकौ ॥ ४ ॥ 25 30 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | ढाकभार्या जसिणीति नाम्नी तयोश्च पुत्राः षडमी प्रसिद्धाः । आद्येो बभौ राहणनामधेयस्ततो द्वितीयः किल सोहडाह्रः ॥ ५ ॥ आल्हणः पद्मकश्चैव ब्रह्माको बोडकस्तथा । बोडाकस्य च दयिता वीरी धर्मे प्रवीरधीः ॥ ६ ॥ चत्वारस्तनया यस्या बभूवुर्वसुधातले । देपालो देवसिंहश्च सोमाकः सलषोऽपि च ॥ ७ ॥ ....[ अग्रे किञ्चिदपूर्णेयं प्रशस्तिः ]..... .........॥ ८ ॥ [23] प्राग्वाटवंशीय-सांगा-गांगाभ्रातृयुगल लेखित कल्पसिद्धांत-पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनसमय १४२७ विक्रमाब्द ] वंशः प्राग्वाटनामोदयगिरिरसकौ तत्र भाखान्नवीनः, संजातो घांघसंज्ञः खजनजनमनः पंकजानां प्रकाशी । ध्वस्तध्वांतप्रचारो गुरुगुरुचरणध्यानरो चिः समूहैः कुर्वन्निःशेषदोषाकरकरनिकरच्छेदमुच्चैर्विशेषात् ॥ १ ॥ धांधाभार्यादेल्हणदेवीपुत्रैौ समग्रगुणनिलयौ । अर्जुन-झडसिलसंज्ञौ धन्यौ विज्ञौ च तौ जगति ॥ २ ॥ यशसार्जुनोऽर्जुन इति प्रथितोऽर्जुनवर्जनात् विकाशकरः । परमात्मतत्त्वरचनासु चिरं चतुरस्य यस्य चरति मनः ॥ ३ ॥ परीक्षिवंशोद्धरणप्रवीणो जयी चिरं स्तात् खजनावतंसः । सुश्रावकश्रेणिषु दानदेवपूजादिभिर्मुख्यतमोऽर्जुनोऽयं ॥ ४ ॥ सौजन्यशीला सहजल्लदेवी प्रिया प्रियालापपराऽर्जुनस्य । आस्ते गृहे खस्तिमती मतीनां गृहं गृहद्वारगतेव लक्ष्मीः ॥ ५ ॥ अर्जुनस्य तनयाः षडमी ते यान् निरुप्य विबुधाः कथयति । षण्मुखः किमु मुखं प्रति देहत्वं चकार सुभगं पृथक् पृथक् ॥ ६ ॥ मुंजालदेवः प्रथमं प्रतीतो धियां निधिर्धीधवरो द्वितीयः । गुणाकरोऽसौ गुणमल्लसंज्ञो धनाभिधो धन्यतमो जनेषु ॥ ७ ॥ कामार्थाविवतौ मूर्ती सांगा-गांगाभिधौ सुतौ । अर्जुनस्य प्रियालापपरौ - श्रीपूर्णिमापक्षपयः पयोधौ बभूव चंद्रो गुणचंद्रसूरिः । संप्रीणयद् भव्य चकोरपूगं ज्योत्स्नानिभैर्यो वचसां समूहैः ॥ ९ ॥ ...वामनौ ॥ ८ ॥ श्रीगुणभद्रसूरीणां स्फूर्तिमान् गुरुबान्धवः । मतिप्रभः प्रभाजालभासितावनिमंडलः ॥ १३ ॥ तस्य श्रीकल्प सिद्धांत पुस्तकं स्वस्तिकारकं । सांगा- गांगातनूजाभ्यां लेखयित्वाऽप्पितं नवं ॥ १४ ॥ कुलाद्रि-पेक्ष-वेदे-न्दु (१४२७) संख्यया समये गते । श्रीविक्रम महीपालात् मासे माधवसंज्ञके ॥ १५ ॥ अहमदाबादे, उजमबाई धर्मशाला संज्ञकस्थानावस्थितज्ञानभांडागारे विद्यते पुस्तकमिदम् । ११ जै० पु० ८१ 5 पट्टे तदीये प्रबभूव भूरिसूरीश्वरस्थापनकृद् गणेशः । गुणप्रभाख्यो गुणरत्नराशिरत्नाकरः कल्मषवर्जितांगः ॥ १०॥ श्रीगुणप्रभगुरुर्गुरुताया भाजनं जनमनोऽब्धिशशांकः । आत्मकार्यविमुखः परकार्ये प्राणदानरसिकः स बभूव ॥ ११ ॥ 25 तत्पट्टपद्मकमलाहृदयैकहारः सारः श्रुतेन गुणवान् गुणभद्रसूरिः । सिद्धांतसागरविगाहनमंदराद्रिर्भव्यांबुजप्रकरबोधनबालसूरः ॥ १२ ॥ 10 15 20 30 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [८८] अवकेशवंशीय-श्रा० माल्हणदेवी-लेखित-आवश्यकलघुवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमय सं० १४४५ विक्रमाब्द ] -संवत् १४४५ वर्षे चैत्र वदि ३ सोमे श्रीस्तंभतीर्थे कायस्थज्ञातीय महं जाना सुत महं माला5 केन लिखितं ॥ छ । जैनत्वाव्यभिचारिभावसुभगाः सर्वेऽपि यस्मिन् जना-स्तस्मिन् धर्मयशःसमृद्धिविशदे वंशेऽवकेशाहये । श्राद्धोऽभून्नरसिंह इत्यभिधया साधुः प्रसिद्धः सुधी-स्तस्य प्रौढगुणा बभूव नयणादेवीति वित्ता प्रिया ॥ १ ॥ तयोरभूवंस्तनयास्त्रयोऽमी मूंजाल-माला-महीपालसंज्ञाः । मालाभिधस्तेषु विशेषधर्मी पुण्याय पाणिग्रहणे निषेधात् ॥ २॥ 10. तेषु च महिपालस्याजनि माल्हणदेविनामिका पत्नी । तत्पुत्रा मेघा-मासण-सहदे-सालिगाः सुगुणाः ॥ ३ ॥ श्रीतपागच्छगगनालंकारैकविवखतां । श्रीदेवसुंदरगुरुसूरीणामुपदेशतः ॥ ४ ॥ माल्हणदेवी सुविशुद्धवासनाऽऽवश्यकस्य लघुवृत्तिं । लेखयति स्म शेरां-बुधि-शक्रॉब्दे (१४४५) स्तंभतीर्थपुरे ॥ ५ ॥ 15 सुराद्रिदंडस्थितिसिद्धतारामुक्तावलीकं वियदातपत्रं । श्रीसंघराजोपरि यावदास्ते सत्पुस्तकं नंदतु तावदेतत् ॥ ६॥ [८९] क्षात्रवंशीय-झालाकुलजात-नीतल्लदेवी-लिखित [ हेमचन्द्रसूरिकृत ] योगशास्त्र पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल अनुल्लिखित ] 20 इति परमाहतकुमारपालभूपालशुश्रूषिते आचार्य श्रीहेमचंद्रविरचिते अध्यात्मोपनिषन्नाम्नि संजात पट्टबन्धे योगशास्त्रे खोपज्ञद्वितीयप्रकाशविवरणं ॥ ३३०० ॥ दिशतु वः श्रियं शश्वत् श्रीमान् वीरजिनेश्वरः । प्रणयीकृतसिद्धार्थसिद्धार्थनृपनन्दनः ॥ १ ॥ सूराकः संज्ञया ख्यातः क्षत्रियाणां शिरोमणिः । श्रीमान् शांतिमदेवाख्यस्तस्य भ्राता गुणाग्रणीः ॥ २॥ तस्मात् पुत्रः कलाधाम सुकरानन्दितक्षितिः । विजपालो बुधश्चंद्रो झालाकुलनभस्तले ॥ ३ ॥ 25 बभूव प्रेयसी तस्य राज्ञी राजगुणान्विता । नीतादेवीति नीतिज्ञा धर्मारंभसदोद्यता ॥ ४ ॥ राणकः पद्मसिंहाख्यस्तनयो विनयी नयी । जनानां नयनानन्दी जज्ञे पुत्री तयोस्तथा ॥ ५॥ श्रीमती रूपलादेवी [ वैरि ]वीरप्रमाथिनी । पत्नी दुर्जनशल्यस्य साऽभूत् प्रेमवती सदा ॥ ६ ॥ श्रीदेवीकुक्षिजस्तस्योदयसिंहाभिधः सुतः । वैरिवारण विध्वंससिंहाद्वैतपराक्रमः ॥ ७ ॥ * पुस्तकमिदं स्तंभतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितज्ञानकोशे विद्यते। + पत्तने खेतरवसहीपाटकावस्थितज्ञानकोशे विद्यते पुस्तकमिदं । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ततश्च आसंश्चंद्रकरावदातसुयशोधौताखिलक्ष्मातले, श्रीचन्द्रप्रभसूरयो विधिधरोद्धारादिवाराहकाः । तत्पट्टे प्रथिताः क्षितौ पृथुगुणाः श्रीधर्मघोषाभिधा-स्तेषां चाऽभयघोष सूरितिलकाः प्राप्ताः प्रतिष्ठां पदे ॥ ८ ॥ तेषां शिष्यतमाः प्रबोधनिपुणाः विद्याकुमाराह्वयाः, दुर्दान्त क्षितिपालभालपदवीसंक्रांतचारुक्रमाः । पीत्वा तन्मुखकोटरान्तरगतां सदेशनावाक्सुधां सच्छ्रद्धाश्चितमानसा गुरुगिरा नीतल्लदेवी ततः ॥ ९॥ कारयामास पर्यां चैत्यं पार्श्वजिनेशितुः । भाविपुण्यार्जनाक्षेत्रं तथा पौषधशालिकां ॥ १० ॥ विवृर्ति योगशास्त्रस्य संप्राप्तपट्टबन्धिनः । सत्प्रपां श्रेयसे स्वस्य लेखयामास शुद्धधीः ॥ ११ ॥ यावद् व्योमपथावलंबि निखिलं तारागणं वर्तते, प्राच्यां यावदुदेत्ययं च सविता कुर्वन् तमोमाथनं । धत्ते यावदसौ फणापतिरिमां भूमिं फणायैः स्फुटं तावन्नंदतु पुस्तकं मुनिगणैर्व्याख्यायमानं सदा ॥ १२॥ ॥ मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः ॥ [ ९ ] प्राग्वाटवंशीय श्रे० धीणाक-लेखित सवृत्तिकाख्यानमणिकोश- पुस्तकप्रशस्तिः * । [ लेखनसमयोऽनिर्दिष्टः । ] - इति श्रीमदाम्र देवसूरिविरचिताख्यानमणिको शवृत्तिः । समाप्तमिति । मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः । दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ प्राग्वाटवंशतिलकोऽजनि पूर्णदेव - स्तस्यात्मजास्त्रय इह प्रथिता बभूवुः । दुर्वारमार करिकुंभविभेदसिंह स्तत्रादिमः सलखणोऽभिधया बभूव ॥ १ ॥ द्वितीयोऽभूद्वरदेवनामा तृतीयकोऽभूत् जिनदेवसंज्ञः । सोsन्येद्युरादत्त जिनेंद्रदीक्षां निर्वाणसौख्याय मनीषिमुख्यः ॥ २ ॥ अज्ञानध्वांतसूर्यः सरभसविलसदंगसंवेगरंग-क्षोणी क्रोधादियोधप्रतिहतिसुभटो ज्ञातनिः शेषशास्त्रः । निर्वेदांभोधिमग्नो भविककुवलयोद्बोधने ज्ञानचंद्रः, कालेनाचार्यवर्यः समजनि जगच्चंद्र इत्याख्यया हि ॥ ३ ॥ वरदेवस्य संजज्ञे वाल्हाविरिति गेहिनी । याऽभूत् सदा जिनेंद्रांहिकमलासेवनेऽलिनी ॥ ४ ॥ पुत्रास्तस्या साढलनामधेयाः “इत्याह्वयः वज्रसिंहाः । विवेकपात्री सहजू च पुत्री कुशीलसंसर्गतरोर्लवित्री ॥ ५ ॥ ८३ साढलस्य प्रिया जज्ञे राणूरिति महासती । पुत्रास्तु पंच तत्राद्यो धीणाख्यः शुद्धधर्मधीः ॥ ६ ॥ द्वितीयः क्षेमसिंहाख्यो भीमसिंहस्तृतीयकः । देवसिंहाभिधस्तुयों लघुर्महणसिंहकः ॥ ७ ॥ क्षेमसिंहाभिधो देवसिंहश्च भवभीरुकः । श्रीजगचंद्रसूरीणां पार्श्वे व्रतमशिश्रियत् ॥ ८ ॥ धtणाकस्य कडूर्नाम पत्नी मोढाभिधः सुतः । अन्येद्युः सुगुरोर्वाक्यं धीणाकः श्रुतवानिति ॥ ९ ॥ भोगास्तुं गतरंगभंगभिदुराः संध्या रागभ्रमो - पम्या श्रीर्नलिनीदल स्थितपयोलोलं खलु प्राणितं । तारुण्यं तरुणी कटाक्षतरलं प्रेमा तडि ज्ञात्वैवं क्षणिकं समं विदधतां धर्मं जनाः सुस्थिरम् ॥ १० ॥ सद्ज्ञानयुक्तो नियमवृषोधिभावन् महानंदपदप्रदायी । तत्रापि च खान्यविबोधकारी " *****... "श्रुतज्ञानमिहोत्तमं हि ॥ ११॥ * एतत्त्रैशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शांतिनाथ मन्दिरस्थित ज्ञानभांडागारे विद्यते । 5 10 15 20 25 30 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 25 ८४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | तच्च कालमतिमांद्यदोषतः पुस्तकेषु भुवनकौशलैः । पूर्वसूरिभिरथो निवेशितं तद् वरं भवति तस्य लेखनं ॥ १२ ॥ एवं निशम्य तेन न्यायोपार्जितधनेन व्ययेन । आख्यानकमणिकोशस्य पुस्तकोऽयं व्यधायि मुदा ॥ १३ ॥ यावत् • • वाच्यमानो बुधैः ॥ १४ ॥ [ ९९ ] 1 ऊकेशवंशीय सा० ब्रह्मदेव लेखित श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति पुस्तकप्रशस्तिः * [ लेखनसमयो नोलिखितः ] जातस्य पुंरत्नगणस्य यस्य सदा समृद्धेर्विधुवत् सदब्धेः । खानिः सुराणामपि सैष पृथ्व्यामूकेशवंशः प्रवरोऽर्थहेतुः ॥ १ ॥ मुक्तामणिस्तत्र बभौ सलक्षणः प्रिणीतवान् यः सततं विचक्षणान् । गुणानुविद्धान्तर उज्ज्वलात्मको हृदि प्रधार्यो मुनिपुंगवैरपि ॥ २ ॥ प्रल्हादनस्तस्य बभूव नंदनो यशोवनामोदविधूतनंदनः । तेजोऽतिदीप्तादविविक्तमाश्रितो वियुज्य सूराद् द्विगुणादधिभ्यतः (१) ॥ ३॥ तत्प्रिया नायका जज्ञेऽच्चितश्रीतीर्थनायका । निनाय कोऽपि यां शीलभूषाशाश्वतिकीं श्रियं ॥ ४ ॥ तयोस्तनूजौ जिनदे [व] - ब्रह्मदेवो महाशयैौ । उदारस्फुरत्तेजस्कौ महौजस्कौ शुभाश्रयौ ॥ ५ ॥ प्राप्तामात्यपदस्य रायमलयात् सिंहाद्य उद्यत्प्रभो-र्यस्यारातिगणः समूलमगमन्नाशं प्रभावेऽनघे । श्रीजावालिपुरे द्वितीयजिनराजोऽष्टाहिकां योऽद्भुतां, चैत्रे मासि तृतीयिकां वितनुते मन्ये वृषोद्यानिकां ॥ ६ ॥ 1 इन्दुः पूर्णमदन्तरोचिरिषवः सन्मानसं क्रीडनावल्हावं खो ( ? ) दर्शनराजहंससुभगं ज्योतिः प्रकृष्टात्मकं । लक्ष्मीर्दानवशीकृता प्रतियुगं यस्याभवत् सेविका सोऽयं धर्ममुखैश्चतुर्मुखकृतभिः सभ्रमस (?) ब्रह्मदेवः परः ॥ ७ ॥ प्रल्हादनस्य तनया विनयान्विता इमाः सा चाहिनी ननु सुवर्णनिका सरखती । तुर्याच संपदभिधा जिनधर्मवासिता आवासिता अविकलोज्ज्वलशीलकेलिभिः ॥ ८ ॥ शीलालंकरणं विभाति विमलं श्रीब्रह्मदेवस्य सा, दाक्षिण्यादिगुणोज्ज्वला अपमला पुत्री तथा कर्मिणी । श्रीजाबालिपुरे जिनेशभवने स्वश्रेयसेऽष्टाहिकां, चैत्रे मासि चतुर्थिकां गुरुतरां चक्रे तथा खस्तिकां ॥ ९ ॥ सोदर्याः सुकृते श्रीस्वर्णगिरेस्तथा खजननीश्रेयोऽर्थमष्टाहिकां चैत्रे मासि ... मथ सुवर्णीन्याः शुभायाश्विने । ॥ १०॥ षष्ठीमारचयन् सदापि हि महं व्या श्री भीमदेवसुर्नव्यां धीपुण्यफलावलिं खजनसाकृत्वा (?) । ..... एतस्याधात्पूर्णिनी पूर्णिमालांछन त्वं ..... ............. हन्तात्यं तमोध्वंसमाना ॥ ११ ॥ गंगाप्रवाहा इव तस्य पुत्रास्त्रयः पवित्रा जयदेव नामा | कुमारसिंहोऽपि च लक्षणश्च खच्छाशया धर्मरसेन पूर्णाः ॥ १२ ॥ • तस्य गुणोदधिका समभवत् प्रल्हादनस्यांगजा । - प्रागुक्तैव सरखती प्रणयिनी पुण्योर्मिसंवर्मिता ॥ १३ ॥ षोढावश्यककारिणी - * एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तंभतीर्थे आचार्यवर्य श्री विजयने मिसूरि सत्कज्ञानकोशे विद्यते । द्रष्टव्यम् - जैन साहित्य प्रदर्शनप्रकाशित प्रशस्तिसंप्रहे, पृ० ९२-९३ । + भ्रष्टप्रायमेतत्पद्ययुगलं मुद्रितसंग्रहे लभ्यते । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । पुत्राः सन्त्यनयोर्नयोदयमया मूर्त्या सुधासूतयो वाचेक्षुपविवर्षिणः प्रशमतो मुन्यावतारा किमु । .... ... शुप्रभाः दो गजात् सिंहकः ॥ १४ ॥ तेषु लक्षणसिंहस्य भार्या लक्ष्मीनिकाऽभवत् । भांडशालिकश्रीक्षेत्रसिंहस्य दुहिताऽर्हति ॥ १५ ॥ धर्मस्नेहभृता पात्रदिरु प्रदर्शनदीपिका सत्मखेकलावत्रयाविशेषण............... ब्रह्मदेवोऽनघः । लालादिखकभागिनेयसहितो भव्याक्षरैः पुस्तके वृत्तिं श्रावकधर्म[क]प्रकरणस्यालेखयामासिवान् ॥ १६॥ 5 सूरीशितुर्जिनपतिप्रभुपट्टचूलालंकारिणो युगवरस्य जिनेशसूरेः। .................. ..........[अग्रे किंचिदपूर्णेयं प्रशस्तिः ।]... . [९२] धर्कटवंशीय-श्रे० देवसिंह-लेखित-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रान्तर्गत-महावीरचरित्रपुस्तकप्रशस्तिः । 10 [ लेखनसमय अनुल्लिखित ] ........... 'सोऽस्तु वीरस्तदनु विदितधामा गौतमखामिनामा । अपहरतु परेषामापदं वैरिशाखा सफलितजनताशा विश्वविश्वप्रकाशा ॥ १ ॥ तस्यामम्बरभाखरं कुलगृहं लक्ष्म्याः क्षमालिंगितः............................ येन मुदि च यः । नित्यं श्रीपतिकेलिमंदिरमसौ मुक्तो न मर्यादया........... विजयते संडेरगच्छांबुधिः ॥ २॥ 15 पूर्व वालभगच्छमंडनमणिः संडेरगच्छ"........पत्तेह्यंगिनिका न कः स्तुते बुधः शाली नवांभोधरः । जज्ञे शांतिमुनीश्वरः किल शराश्वाक्ष्यब्दे वृन्दे गते (?) यद् व्याख्यागलगर्जितैः सुरविभुर्विश्वंभरा वैभवात् ॥ ३ ॥ आचार्यवृन्देषु तदीयगच्छे जातेष्वभूत् धर्मजनेषु.........। लीलावती लोचनबाणकामं वीरं विनिर्जित्य बभूव शब्दः ॥ ४ ॥ समजनि मुनिरत्नं तस्य शिष्यावतंसः सुरपतिललनाभिः सस्पृहं गीतकीर्तिः । सुकृतिभिरभिवन्द्यः श्रीयशोभद्रसूरिनवजलधरधारासन्निभोक्तिरतंद्रः ॥ ५ ॥ येषामाबालकालाद् विकृतिपरिहृति वर्जितं तांबूलं च मेघावृष्टिः सकलालपिवाचनेऽम्बानिषेधः (१) । पंडेरे पल्लिकाज्यानयनमथ नभोवर्मनेत्यादिकानि श्रुत्वा नाना तानि त्रिजगति कृतिनो...... ॥ ६॥ क्षेमर्षिश्चाजनि चांतराले मराललीला इति मागधानां । वंशेऽस्ति क्रीडाकरराजहंसः शुभैर्यशोभिर्धवलीकृतात्मा ॥ ७ ॥ येनोत्तुंगविशालकंबलगिरौ तप्तं तपो दुर्लभं .............. "..........." 25 x [इतोऽग्रे त्रुटिताः प्रायः ९ संख्याकाः श्लोकाः] x ................."मुमुक्षोः शिवपथि यततः साधुसार्थाधिपत्यं ॥ १६ ॥ तस्मादत्र जितेंद्रियः शमनिधिर्विद्यावधूदर्पणः, श्रीमानीश्वरसूरिरित्यभिधया वाचंयमग्रामणीः । यो बालोऽपि धुरं बभार महतीं धौरेयवल्लीलया, धीरः पंचमहाव्रतप्रणयिनी वैराग्यवीतस्पृहः ॥ १७ ॥ तत्रास्ति सुकृतिपदे सूरिमंडलमंडनः । शालिमूरिरयं नामा गुणरत्नैकरोहणः ॥ १८ ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते । xx 30 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। इह धर्कटवंशेऽभूत् वरदेवोऽभिधानतः । निश्चितं वरदेवोऽयं पुरुषः कुलभूषणं ॥१॥ भार्या पूर्णमतिस्तस्य पूर्णा पूर्णमतिर्मना । तत्कुक्षिसंभवाः पंच तनुजाः पांडवा इव ॥ २ ॥ आयो लक्ष्मीधराख्योऽभूत् द्वितीयो नामुताभिधः । तृतीयः पासडः ख्यातश्चतुर्थः कालियाभिधः ॥ ३॥ पंचमो जगदेवाख्यः सुकृतिकृतिवत्सलः । भार्या लक्ष्मीधरस्याभूत् कमलश्रीरिति नामिका ॥ ४ ॥ तत्कुक्षिमानसे राजहंसो राजाक इत्यभूत् । राजाकस्य मता भार्याऽभयश्रीरिति संज्ञया ॥ ५॥ तस्याः सुतद्वयं जज्ञे प्रथमोऽभयपालकः । द्वितीयो हरिचंद्राख्यश्चंद्रवच्चारुकांतिमान् ॥ ६॥ पासडस्य हि भार्याऽभूत् जयश्रीरिति नामतः । तयोः सुतद्वयं जातं पुत्रिकाद्वितयं तथा ॥ ७॥ यथार्थितखनामाऽभूत् कुलधरो धुरि कृती । द्वितीयो देवसिंहाहो देवादिगुरुभक्तिभाग् ॥ ८॥ पुत्रिका मोहिणिः ख्याता सदा धर्मपरायणा । द्वितीया सोहिणिर्जाता गुरुखजनवत्सला ॥९॥ कुलधरस्य भार्याऽऽसीत् देवश्रीरिति नामतः । रूपलावण्यसंयुक्तो नरसिंहः सुतोऽभवत् ॥ १० ॥ नरसिंहस्य भार्यास्ति नाम्ना लाच्छीति विश्रुता । कलत्रं देवसिंहस्य देवमतिरिति श्रुता ॥ ११॥ तस्याः सुतद्वयं जातं पुत्रिकात्रितयं तथा । आद्यो नयणसिंहाख्यः परः पृथिमसिंहकः ॥ १२ ॥ पुत्रिका मयणू नानी द्वितीया भीमिणिस्तथा । तृतीया आल्हूका जाता खाजन्यगुणवत्सला ॥ १३ ॥ कलत्रं कालियाकस्य धनश्रीरिव देहिनी । तस्याः कुक्षिसमुद्भूतौ पुत्रौ धीणा-धरणिगौ ॥ १४ ॥ मेइणीति तथा पुत्री हांसिका-झंझुके परे । जगदेवस्य जायाऽस्ति नगश्रीरिति संज्ञया ॥ १५॥ तस्याः कुक्षेस्तु संजातास्तनूजास्त्रय इहोत्तमाः । आद्यः क्षेमसिंहस्तु पांगुरश्च वयंजलः ॥ १६ ॥ पुत्रिकात्रितयं जज्ञे छाडि केलु च लीलुका । भार्याऽस्ति क्षेमसिंहस्य रूपिणीति सुविश्रुता ॥ १७ ॥ जातं तत्पुत्रचतुष्कं लक्ष्मणो हरदेवकः । तृतीयोऽरपति म चतुर्थो वेलुकाभिधः ॥ १८ ॥ ........................" | खूडा भार्या च चाडुल तत्पुत्रः पद्मनामकः ॥ १९ ॥ इत्थं कुटुंबेन समं विचिन्त्य संसारसर्वखमनित्यमेव । खकीयमातुः परिपुण्यहेतुः श्रीवीरवृत्तं परिलेखयित्वा ॥ २० ॥ पुस्तकं वाचयामास देवसिंहो महामतिः । नंदताद् यावच्चंद्रार्क संघेन सह सर्वथा ॥ २१ ॥ ॥ शुभं भवतु ॥ 15 [९३] 25 धर्कटवंशीय-श्रे० शांति-लेखित-उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । __ [ लेखनसमयो नोपलब्धः] श्रीश्रीमालपुरीय-धर्कटमहावंशः सुपर्वोज्ज्वलः, सच्छायः सरलः सुमूलसहितः ख्यातोऽस्ति भूमंडले । यक्षाख्योऽथ बभूव तत्र गुणभृद् मान्यः क्षितीशैरपि, ज्यायोवृद्धविभूषितोऽमलतनुर्मुक्ताफलप्रोज्वलः ॥ १॥ विहितविशदचित्तः पात्रविन्यस्त वित्तः, प्रतिदिनशुभचर्यः सूद्यतः शिष्टधुर्यः । निरुपमशमभूमिः सद्यशःश्रीनिधानं, नयविनयवरिष्ठः श्रावकः सत्प्रतिष्ठः ॥ २॥ * एतत्प्रशस्तिसंयुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... ___10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । प्रीत्या जिनस्त्रिभुवनप्रभुरेक एव चित्ते निवृत्तभवसंगतिहेतुदोषः । तच्छाशनोदितनयानुगता च वृत्तिर्वाक्काययोरुचितभाषणकृत्यपूता ॥ ३ ॥ उदारता दक्षिणता कृतज्ञता विवेकिता सज्जनसंगचित्तता । इत्यादयोऽत्र गुणातिराग............॥ ४ ॥ पत्नी बभूव सा तस्य यशोदेवी विवर्जिता । दूषणैर्गुणरत्नौघखानिधूितकुग्रहा ॥ ५॥ अथाभूवन् सुतास्तस्याश्चत्वारोऽपि विचक्षणाः । देवचन्द्र इति ज्येष्ठः प्रद्युम्नाख्यस्ततः परः ॥ ६॥ शांतेर्गेहमथ शांतियशोभूमिस्तथा जसः । प्रधानलोकपान.......................... ॥ ७ ॥ ............शीलाः विशिष्टलोकैरभिनंदनीयाः । ........................................ ॥ ८॥ अथासौ सा यशोदेवी संवेगात् सिद्धमानसा । एकदा चिन्तयामास संसारं वीक्ष्य दुस्तरं ॥ ९॥ आयुर्वायुविधूतचूतलतिकालोलं वयो विस्फुरद् विद्युद्दीप्तिचलं स्मराततरु शिवभंगुराश्रियः (४) । ............य सौख्यमोक्षकृदहो धर्मः परं सेव्यते ॥ १०॥ प्रभवति स च ज्ञानात् तच्चाहदागमतः स च, प्रतिकलगलत्प्रज्ञैज्ञेयो विना नहि पुस्तकं । इति तदमलचक्षुः पुंसां कुबोधविषौषधं, शिवसुखकरं लेख्यं लोकद्वयीहितकृत् परं ॥ ११ ॥ किंचकामोद्दामदवैकयोगसवराकीर्ण (!)..........."तां मूढानां दृढमंगिनां विषयतृट्खेदच्छिदे तन्यते । धन्यैर्येन मतं विलेख्य विधिना ज्ञानामृताम्भः प्रपा..." ........... ॥ १२॥ उक्तं चज्ञानदानं.. तदिह जिनपतिः केवलालोकमाप्य त्रैलोक्यं बोधयिष्यन् समवसृतिगतः पूर्वमेवाख्यदेवं । भो भव्या ! मोक्षसौख्यं. .......तायां सुकृतकृति सदा वर्तितव्यं क्रियायां ॥ १३ ॥ यतःअज्ञानतः कृत्यविधौ प्रवृत्तो न प्राप्नुयादैहिकमप्युपेयं । खर्गापवर्गोद्भवसौख्यरूपं पारत्रिकं किं पुनराहतोऽपि ॥ १४ ॥ ज्ञात्वा चित्रितमेतदस्तविविधव्यापद्वनं भक्तिवा (2) सेकादुत्कटकंटकोत्करमिषप्रोद्भूतपुण्यांकुरः। अर्हत्तारकसर्वसार्ववचनव्यालेखनाभ्युद्यतः शांतिः पुस्तकमेतदर्थमनघं व्यालेखयामास सः ॥ ॥ मंगलं ॥ [९४] ऊकेशवंशीय-सा०पार्श्वसंतानीय-लेखित-पंचप्रस्थानव्याख्या-पुस्तकप्रशस्तिः ।। [प्रशस्तेरपूर्णत्वात् निश्चितलेखनसमयो नोपलब्धः, वर्णनानुसारेण १४ शताब्दी निश्चीयते।] ऊकेशवंश एव हि जयतादिह कल्पपादपैः पूर्णः । कलिकालेऽपि सदा यः सर्वेषां पूरयत्याशा ॥ १ ॥ प्रगुणगुणमयोऽत्र पार्श्वनामा ध्वजकमलां कलयांचकार साधुः । स्म जयति मृगं मृगांकगं यो मधुरयशःकलकिंकिणीप्रगानैः ॥ २ ॥ 20 25 30 * एतत्प्रेशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानकोशे विद्यते । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । चत्वारो मानदेवः कुलधर-बहुदेवी यशोवर्द्धनोऽस्य श्रीभर्तुर्बाहुभूता अजनिषत सुता धर्मकर्मप्रवीणाः । सत्पुत्रा मानदेवाद् य इह धनदेवस्तथा राजदेवो निंबार्कश्चाविरासन् हिमगिरित इव खर्गसिंधुप्रवाहाः ॥ ३ ॥ 5 देवधर-लोहदेवी जातौ कुलधरांगजौ । यकाभ्यां कुंडलाभाभ्यां पुण्यश्रीः समभूष्यत ॥ ४॥ बिभेजे [मु.]निचंद्रमा जिनपतिः पुत्रो यशोवर्धन-क्षीराब्धेर्जिनचंद्रविष्णुपदमाक्रांतं नितांतं महत् । बालेनापि हि येन साधुषु बहुज्योतिष्षु राज्यं दधे, शेषानां शिरसि स्थितं पितृकुलं विश्वं च संप्रीणितं ॥ ५॥ संजज्ञे बहुदेवसाधुनृपतेः पद्माकरोऽस्यांगभूः, पद्माभो गुरुदेवपादकमलार्चाभिः कृतार्थ जनुः । कुर्वाणो जयदेवसाधुरमलो लक्ष्म्याख्यधुर्यप्रिया-व्याजेन ध्रुवमन्वहं तमभजल्लक्ष्मीः खयं देवता ॥ ६॥ 10 लक्षिका चापरा वल्लभा शोभते पंचपरमेष्ठिपदहेमपंचेष्टकैः । आरभत्यत्र यस्या रसज्ञा सदा लाहिनी चापि पुत्री रसज्ञा मुदा ॥ ७ ॥ लक्ष्म्यां वृषोव्या जयदेवसाधुरजीजनच्चाक्षतबोधबीजः । पुत्रप्रकांडौ वरदेव-धांधी शाखाकुलाधारकरौ सुसाधू ॥ ८॥ तत्राद्योऽजनि धार्मिको मतिमतां सीमा यतिप्रेक्षिणां, दीक्षादानगुरुर्मदोदयदवो लक्ष्म्याः प्रियो नंदनः । 15 श्रीजावालिपुरेऽत्र देवगृहिकां पार्श्वस्य वीरेशितु-श्चैत्ये यः समसूत्रयन्निजयशःश्रीकेलिशैलोपमां ॥९॥ देवा निपुणश्च पंचपरमेष्ठिध्यानदानक्षमा(?) हृन्नैर्मल्यपरोपकारमधुरालापादिकैः सद्गुणैः । यं लोकोत्तरमारचय्य नरराड् मान्यं व्यलोलुप्यत, श्रद्धा कार्तयुगेषु पुंसु विधिना धांधो द्वितीयस्त्वसौ ॥१०॥ आद्यासीद वरदेवसाध्वधिपतेः प्रल्हादनस्यांगजा, जाया चाहिनिका निकाममधुरालापा सुधायाः प्रपा । सैषाऽसूत सुतं......."विमलचंद्रं विश्वचंद्रोदयं, साऊ-रूयड नामिके च तनये श्रेयःश्रियःशेवधी ॥ ११ ॥ 20 हर्षाब्दो विमलो जिनेश्वरगुरोः पार्थे सुवर्धनैः, वर्षन्नृत्यति रनवृष्टि तनयां प्रव्राजयन्नुत्सवैः । श्रीप्रल्हादनपत्तने जिनपतिं शांति प्रतिष्ठापयन् , विष्ण्वादीन् पुरुषोत्तमान् किल दृशामद्यापि चक्रेऽतिथीन् ॥१२॥ श्राद्धाः सन्ति महर्द्धिका निजगुरोभक्तानुभक्ता घनाः, स्तोकोक्तिप्रविधायिनोऽप्यथ सदा तत्पर्युपास्त्याहताः । खप्राणान्नधिरोपयन्निजगुरोः कार्ये तुलायां तु यो-ऽबैकोऽयं विमलेंदुरेव स इति प्रोत्क्षिप्य बाहू ब्रुवे ॥ १३ ॥ प्रिया द्वितीयाऽस्य राजूर्दानशीलतपोगुणाः । यदंगजाः प्रणदंति भावनाः स्वसुराशिषा ॥ १४ ॥ षट् पुत्रा गुणचंद्रको भुवनचंद्रो हेमचंद्रस्तथा । .......... .. ..[ ॥ १५॥] ................[ अग्रे अपूर्णेयं प्रशस्तिः । ]........... [९५] ऊकेशवंशीय-श्रा० खेतू-लेखित-अभयकुमारचरित्रादि-पुस्तकपश्चकप्रशस्तिः । [लेखनसमयः १४ शताब्दीपूर्वभागः] श्रीचन्दनाशोकसुबन्धुजीवपुन्नागसन्तानकदम्बकश्रीः । माकंदकुन्दार्जुनजातिराम ऊकेशनामा बत भाति वंशः ॥ १ ॥ वीरदेववरभक्तिर्वीरदेव इहाभवत् । मुक्ताफल मिव श्राद्धः शुचिः साधुमनोहरः ॥२॥ 25 * इयं प्रशस्तिरेकस्मिन् त्रुटितताडपत्रे लिखिता लब्धाऽस्माभिः । अशुद्धिबहुला भ्रष्टपाठापीयमितिहासदृष्ट्या विशेषोपयोगिनी। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । पार्श्वाभिधः साधुरभूत्तदङ्गजोऽजिह्मं पटुः सद्गुणधर्मकर्मणि । प्रभूतलक्ष्मीर्गुरुरामरागभूः समुद्रमध्यस्थपरोपकारकृत् ॥ ३ ॥ 5 तत्पुत्रो मानदेवः समजनि धुरि यस्याख्यया प्रापि गोत्रं सर्व्वं प्राप्नोति सिद्धिं कुलधर - बहुदेवौ यशोवर्धनश्च । जज्ञुस्तस्यानुजास्ते जगति वरदृशां पूर्णचन्द्रप्रकाराः कीर्तिज्योत्स्नाच्छटाभिर्दिशि दिशि परमं ये प्रकाशं प्रचक्रुः ॥ ४ ॥ यशोवर्धनिरूपशील...सुवा भूखस्तरुनंदने खे पट्टे जिनचन्द्रसूरिहरिभिर्बाल्यान्मुदा रोपितः । साधुस्कन्धविशालपात्रसुमनः श्रेयः फलस्थापको लोके मर्त्यगणैर्न कैर्जिनपतिः सूरिः सदोपास्यते ॥ ५ ॥ मानदेवस्य साधोस्त्रयः स्मांगजाः सन्ति धनदेव साधुस्तदादिरपरः । राजदेवस्तदनु साधुनिंबाभिधः खकुलकुमुदाकरानंदपर्वेदवः ॥ ६ ॥ धनदेवस्य धनश्रीर्जिनपालादीनसूत सुतानष्टौ । जायाया गुर्जरीति परा वरायस्युताना तु ॥ ७ ॥ एषु स्मास्ति यशोधरो जिनपतेः सौवात् पितृव्याद्गुरोः साधुश्रेणिपतेः सुसाधुकमलाभागं समादाय यः । सद्धर्मे व्यवहारकोटिमकृतः शुद्धिहेतोस्तथा संलेभे नितरामयं मुनिजने साधूत्तमत्वं यथा ॥ ८ ॥ .........यः शरणश्च साधुरिदमीयः साहणश्चात्मभूवरीजानि जो गुरुरुचिः सोमः कलाभूरभूत् । यात्रास्तीर्थगणे विधाय निजसद्धर्म ... नु यत् प्रीत्या शीतलनाथदेवगृहिकां वीजापुरेऽचीकरत् ॥ ९ ॥ निम्बदेवस्य गेहिन्यावासातां प्रथमा तयोः । पद्मश्रीः सद्गुणावासा शीलहंस कृतादरा ॥ १० ॥ तद्भार्याऽन्याजसहिणिर्या नमस्कारकोटिकां । गुणयित्वोद्यापनकं चक्रे कोट्यक्षतादिभिः ॥ ११ ॥ पूर्वी जेहडसाधुमंगजवरं तेजःप्रतिमांसवः पद्मश्रीः श्रितहर्षमानसुमनोमार्गानिशावस्थितिं । एकामात्मभुवं च कंचनभिधां नक्षत्रमाला श्रियं नित्यै कक्रमचारिणीं कुलनभोलंकारशीलेन्दुगां ॥ १२ ॥ साधू लालण- खीम्बडौ स्म भवतः श्रेयः कलासंगतौ सोम्यौ चामृतवर्षिणौ कुलगुरूपास्ती परस्याः सुतौ । वाल्हीत्यस्ति सुता कृताऽनणुतपा साध्वी सुकेशी च या नित्यैकांतरभुक्तिकांतरमहो पक्षोपवासादिकृत् ॥ १३ ॥ स्थानेऽस्ति साध्वी वरपुण्यभाजनं लक्ष्म्यंगभूः खीम्बडसाधुपुत्रिका । जिनेश्वरैः सूरिभिरर्पितत्रतश्रीका गुणै सुंदरी ॥ १४ ॥ 25 आम्बश्री- प्रियसाधुलालणतनूजन्माऽसकौ विद्यते नाम्ना साधुकुमारपाल इति यः पित्रोः सुपुण्यश्रिये । श्रीपद्मप्रभनाथदेवगृहिकां वीजापुरेऽकार्यहो ! आँबी पुण्यतरंगिणीं त्रिपथगां कर्तुं वयं मन्महे ॥ १५ ॥ जिनप्रबोधसूरीणां पार्श्वे चाप्राहयद् व्रतं । खं सुपुत्रं स्थिरकीर्तिं सत्पुत्रं (त्रीं ? ) केवलप्रभां ॥ १६ ॥ युग्मम् । जेहडाधोर्धत बहुमाये शीलतपोजलगतमलकाये । षडुपधानमालास्ति शुभाये (?) लक्ष्मी - श्रीजाये ॥ १७॥ मोहिणिराद्यायास्तनया प्रत्यतिष्ठिपद् या निजगुरुभिः । सपरिकरौ जिनपार्श्वे सुतपःशीलाभरणरम्या ॥ १८ ॥ येन श्रीरात्मभूरत्नचतुष्कं कांतिबंधुरं । संपूरितवती लक्ष्म्या मांगल्यं खगृहागमे ॥ १९ ॥ तत्राभूद् धुरि नागपाल उरुधीः योऽचीकरत् सार्धं लालणसाधुना खजननीपुण्याय वीरप्रभोः । चैत्ये द्वादशदेवदेवगृहिकां सौवर्णकुंभध्वजां श्रीजावालिपुरे तथा द्विरकरोत्तीर्थेषु यात्रां मुदा ॥ २० ॥ वीजापुरे वासुपूज्यविधिचैत्ये शशिप्रभे । श्रीदेवगृहिकां यश्च खपुण्याय व्यधापयत् ॥ २१ ॥ जिनेश्वरगुरोः पार्श्वे महर्द्धा यो व्रतं ललौ । प्राज्ञः सुतापशक्ति (?) विद्याचन्द्रमुनिः परं ॥ २२ ॥ तीतीर्षुकः स नुरमतिर्बालचन्द्रोऽथ चक्रे । यः श्रीशत्रुंजयमुखमहातीर्थे समकार्षीत् ॥ २३ ॥ अजित-संभवयोरभिनंदन - सुमतितीर्थकृतो जिनगेहिकाः । विनिरमापयदत्र च यश्चतुर्विधसुधर्मरमानिलयानिव ॥ २४ ॥ १२ जे० पु० .... ८९ 10 15 20 30 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । यश्चैत्येऽत्र च दंडनालममलोधद्भूतपट्टोटं सन्मुक्तानिपुणं सहंसकनकश्रीकुंभवत् काश्रितं । तच्छत्रं वरपद्ममात्रदयितापुण्याय चाधापयल्लोलंती चमरेव येषु सुमनोहंसाविवास्याग्रतः ॥ २५॥ यात्रा रैवतकादिषु प्रकृतवांस्तीर्थेषु संघान्वितश्चैत्यार्चादिककार्यचिंतनमुनिसद्भक्तिवृत्तामलः । श्रेयःश्रीवरकीर्तिकांतिललितैः सत्यां स्वकीयाभिधां तन्वानः कुलचन्द्रसाधुऋजुधीस्तुर्यः समास्तेऽसकौ ॥ २६ ॥ 5 आदेशाच जिनेश्वरस्य सुगुरोः श्रीवासुपूज्यप्रभुप्रासादे वृषभादिदेवगृहिकाप्रारंभमारंभयन् । यस्तामादिजिनस्य देवगृहिकामाधापयद् वैक्रमे वर्षेऽष्टद्विशिखीन्दुमानविदिते माघे नवम्यां सिते ॥ २७ ॥ एषां सहोदरा भनी कुमारीत्यस्ति या व्यप्रधात् । श्रेयोमालां द्विधा लातुं तपः षडुपधानकम् ॥ २८॥ पद्मला नागपालस्य नागश्रीश्च प्रिये प्रिये । ......शीलतपसोः पालने नित्यव्यापते ॥ २९ ॥ खां श्वश्रू न्वनुकर्तुमत्र चतुरः पुत्रानसूतादिमा साधुर्मोहण आद्य एषु जनुषा श्रेयोगुणैश्चावरः । 10 पाताख्यः शुभमूर्तिकोऽथ लखमोऽन्यो देवसिंहो लघुर्ये...... खपराभवे कुलगतं गच्छंति तेजो निज(8) ॥३०॥ पद्मलाम्बाकृते साधुर्मोहणः सुविधीशितुः । कारयन् देवगृहिकामन्यूनकं यशो व्यधात् ॥ ३१॥ पाताख्यः श्रीसुपार्श्वस्य खाख्यया देवगेहिका । कारयामास यत्सूनुः पद्मः पाल्हणदेवीभूः ॥ ३२ ॥ नागश्रिया आत्मभुवौ सुपद्मौ ......... रम्यगुणाभिरामौ । श्रीमूलदेवो धणसिंह एतौ सद्धर्मबुद्धिस्तनया च नाही ॥ ३३ ॥ 15 श्रीवासुपूज्यपूज्यार्थे सघाटौ पीतलामयौ । प्रदीपप्रवरौ प्रादात् नागश्रीः सुकृताप्तये ॥ ३४ ॥ जंबूमुनिप्रमुखपूर्वयुगप्रधान-श्रीपार्श्वनाथजिनचारुचरित्ररम्या । ज्ञानप्रपा प्रविदधे किल पुस्तिकैषा नागश्रिया शुभधिया तु निजौरसाभ्यां ॥ ३५ ॥ सा बालचन्द्रदयिता घेलाभिधास्ति शीलतूलीया । अकृत षड्डुपधानांकं श्रेयस्तल्पे सुखं ललितुं ॥ ३६ ॥ एतस्यास्तनयौ साधू नेत्रवत्सरलाकृती । सुव्यापारौ सदा लोके स्तरेतौ हेम-जैत्रलौ ॥ ३७ ॥ राल्हणसाधुसुतावरवइजी-श्रेष्ठित्रिभुवनसिंहसुपुत्री।। साधोः कुलचन्द्रस्यास्ते जाया खेतू.......... धर्मशुभाशा ॥ ३८ ॥ साक्षादात्मनि वीक्ष्य सुकुलजनुरुपेत्यादर (?) दिव्यालङ्कृतिवस्त्रगन्धकुसुमाभोगं फलं श्रेयशः । तत्सर्वेश्वरदानशीलसुतपोभावेषु दानाद्यतः श्रेयः प्रीणयितुं विशेषत इयं योत्तिष्ठमाना ध्रुवं ॥ ३९ ॥ प्रासादे जिनवासुपूज्यसुविभोर्विद्युत्पुरेऽचीकरच्छीवीरप्रतिमांकखत्तकवरं मातॄश्चतुर्विशतेः। 25 तीर्थेशां च करात् जिनेश्वरगुरोस्तासां प्रतिष्ठामधाच्चैत्रैकादशीकादिने रस-कर-त्र्येकमिते वत्सरे ॥ ४० ॥ युग्मम् । श्रीशचुंजयमुख्यतीर्थनिवहे यात्रामकार्षीच या चैत्यानां निरमीमपञ्च कुसुमैर्लक्षेण पूजाधनः। श्रीश्रेयांस-जयाजदेवगृहिके श्रेयोनिधिप्राप्तयेऽभिज्ञाने धनसिंहनामकलघुभ्रातुस्तथा खस्य च ॥ ११ ॥ • ज्ञानार्चा कुलसाधुरिमका सत्पुस्तिकादीपिका पृथ्वीचन्द्रचरित्ररत्नघटितां खेतूप्रियायाः कृते । क्रीत्वा धाप्यव सौवसद्गुरुजनेभ्योऽदादियं येन तैस्ताभ्यां दर्शितमार्गतः ......श्रीभव्यसाथैः समः ॥ ४२ ॥ 30. श्रीतीर्थेशजयाभुवोऽभयकुमारर्षेश्चरित्रोत्तमे ........ त्रितये व्यलीलिखदियं खेतूः सुवर्णैध्रुवं । ज्ञानश्रीनिधिबीजकं .........ध्वसात्प्राकरोत्पधेनास्य बलात् क्षणादपि लभे श्रेयोवरं खश्रियः ॥ ४३ ॥ श्रीवासुपूज्यचैत्ये श्रीपार्श्वसुखत्तकं कवल्यंतः । व्यधापयत् कुलचंद्रः श्रेयोऽथ महणदेवि-पद्मलयोः ॥ १४ ॥ आस्तेऽन्या कुलचंद्रस्य प्रिया कांवलदेविका । भावेन याऽऽत्मधर्म च वर्धयत्यात्मबालकं ॥ १५ ॥ 20 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | श्रीमन्महावीरजिनेन्द्रबिम्बं कर्पूरखंडस्य च मानपिंडं । निश्रेयसेऽकारि यया स्वकीयं किं पुण्यपुत्रं हि भवांतरीयं ॥ ४६ ॥ भोः ! श्लाघ्यो न कथं सतां वृषवरोऽसौ मानदेवान्वयो येनानुत्तरभाग्यदेवगृहिकाभारः स्म निर्वाह्यते । श्रीबीजापुर वासुपूज्यभवने सार्धं वृषं ज्यायसा संघेनोत्तरपक्षदेवगृहिकाप्राग्भारमा बिभ्रता ॥ ४७ ॥ यावद् द्यौर्वरवर्णिनीव विमलच्छायाम्बर श्रीर्लसन्नातारार विभूषणा सुरसरिद् हीरोचरीयं दधिः । उच्चैः खेलति चंद्रनायकशुभेनक्षत्रमात्राविना तावत् पंचसुपुस्तके गृहमणीवोद्योतिका तादृशौ ॥ ४८ ॥ श्रीजिनेश्वरसूरीणां विनेयो लब्धिशालिनाम् । अस्यां प्रशस्तौ शस्तायां श्रीकुमारगणिः कविः ॥ ४९ ॥ [ ९६] ओकेशवंशीय श्रा० राजू -लेखित जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र- पुस्तकप्रशस्तिः * । [ प्रशस्तेरन्तिमभागविनष्टत्वात् लेखनसमयो न ज्ञातः । ] ॥ ॐ नमः ॥ ओकेशवंशे जगसिंहसाधोस्तनृद्भवोऽजायत साधुमुख्यः । वदान्यधुर्यः पद्माभिधानः ख्यातः पृथिव्यां गुणगौरवेण ॥ १ ॥ प्रियाऽस्ति तस्यामलशीलभूषणेनालंकृता पूनसिरीति नाम्नी । तत्कुक्षिपाथोरुहराजहंसी राजूः प्रसिद्धाऽस्ति सुता तु तस्य ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ..... भवत् साधुः श्रीमान् नरपतिर्गुणी । तस्याभवत्तनृजन्मा साधुर्गोलाभिधानतः ॥ ४ ॥ तत्प्रियाऽजनि पूनाहि पुण्यकर्मैकतत्परा । श्रीसर्वज्ञार्चने निष्ठा शीलरलैकमंडना ॥ ५ ॥ तस्याः कुक्षिविभूषणं विजयवान् श्रीआसधीराभिधः साधुः श्रीजिनशासनोन्नति ... । ........लं सर्वत्र यो मान्यते ॥ ६ ॥ मौनं पुण्यमिव प्रौढं चतुरक्षि ( २४ ) जिनालयं । योऽचीकरचमां शत्रुंजयभूधरमंडनं ॥ ७ ॥ स्तंभतीर्थे पुरे सोजींत्रिके कावीपुरे तथा । टींबाख्यपुरे हाथींदेणे (?) नगरकेऽपि च ॥ ८ ॥ अणहिल्लाभिधे दंगे तथा ग्रामे बलासरे । यः श्रीजिनगृहा ॥ ९ ॥ 'निजं जनुः सदापि यः ॥ १० ॥ तस्य संघपतेरस्ति सा राजूः प्राणवल्लभा । धर्मकर्मैकनिष्णाता शीलालंकारधारिणी ॥ ११ ॥ श्रीमज्जिनेंद्र पूजाद्यैर्दानाद्यैरपि नित्यशः । कृतार्थयति या जन्म खं नैकैः पुण्यकर्मभिः ॥ १२ ॥ इतश्च विश्वख्याततपागणा 1] ...... वित्खामिनः सूरीन्द्रा विहरंति केवलमिला जीवोपकाराय ये ॥ १३॥ तेषां श्रीयुतदेवसुंदर इति ख्याताभिधानां गुरूचंसानाममृतादतीव सरसां श्रुत्वा जवाद्देशनां । • • साऽलेखयत् ॥ १४ ॥ - युग्मं । ··[ ॥ १५ ॥ ] श्रीसंघनृपस्य वासव एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितज्ञान कोशे विद्यते । ९१ 5 10 15 20 25 30 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ 5 10 11 तस्मादेवं माहणः पद्मसिंहः सामंताख्यो माणिकिस्तु खसैका ॥ ३॥ अयं हि पुस्तकः स्वस्तिहेतावस्तु निरंतरं । सूरिभिर्वाच्यमानस्तु श्रीमदादिजिनेशितुः ॥ यतः कल्पद्रुमनिभश्चिन्तितार्थप्रदायकः । स एव भविनामस्तु सर्वदा सर्वसिद्धिदः ॥ ५ ॥ त्रिंशत् त्रयोदशे वर्षे विक्रमाद् भक्तितस्तया । श्रीजयसिंहसूरीणां पुस्तकोऽयं समर्पितः खःशैलखर्णदण्डोपरि खचित (?) ककुभशालभंजीसशोभं तारामुक्तावचूलं जलनिधिविलसज्झल्लरीसुन्दरान्तं । 15 यावद् व्योमातपत्रं तपनतपमथो बद्धगंगादुकूलं तावद् व्याख्यायमानो जगति विजयतां सूरिभिः पुस्तकोऽयं ॥ ७ ॥ ॥ शुभमस्तु सर्वजगतः परहित ६ ॥ ॥ 20 25 30 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [ ९७] | लेखनसमय १३३० विक्रमाब्द | वर्षे त्रयोदशात् त्रिंशे मार्गे श्वेतेऽह्नि पंचमे । वृषभस्य कृतं ( ? ) वृत्तं श्रीजयसिंह सूरिभिः ॥ धत्ते कुन्तलसन्ततिर्जिनपतेर्यस्मात्सदंशस्थितिः, वक्त्रांभोरुहसौरभा कुलमिलद्भृंगावलीविभ्रमम् । स श्रेयः श्रियमातनोतु जगतीनेता विनीतावनीपावित्र्य प्रथमावतारचतुरः श्रीनाभिसूनुर्जिनः ॥ १ ॥ श्रीमालान्वयसंभवः शुभमतिः श्रेष्ठी पुरा जेसलः, तत्पुत्रो विजयाभिधो गुणनिधिः सिंहावतारः पुरः । तत्पत्न्यस्ति त्रपलाऽऽसपसुता तत्कुक्षिसंभूतया लक्ष्म्याऽलेखि युगादिदेवचरितं श्रेयोऽर्थमत्रात्मनः ॥ २ ॥ जज्ञे यस्या आंबडो बन्धुराद्यः सोभाकाहः सालिगो भीमसिंहः । [९] ऊकेशवंशीय श्रा० लंबिका लेखित शब्दानुशासन-पुस्तकप्रशस्तिः । 1 [ लेखनसमय सं० १४७० विक्रमाब्द ] विघ्नावलीविफलवल्लिलवित्रगोत्रः पार्श्वः स वः शिवकृते पदपूतगोत्रः । श्रीअश्वसेननरराजगरिष्ठगोत्रचूडामणिर्गुणगजव्रजविन्ध्यगोत्रः ॥ १ ॥ केशवंशतिलको जनकोऽजयच्छिति (?) विश्रुतो जगति । व्यवहारिदेदाख्यः सोऽभूद् भूपालनिभविभवः ॥ २ ॥ तस्यापरा सुजाया शीलालंकार भूषितशरीरा । कल्हणदेवीनाम्ना धाम्ना भूम्ना च विश्रुता जगति ॥ ३ ॥ श्रीमद्विजे सीपितृ (?) नाम लंबिका पुत्र्या पवित्राशयया सविस्तरं । श्रीक[रा]वासिविशालवंशया तयेदमालेखितमात्मभूतये ॥ ४ ॥ श्रीजैनशासननभोऽङ्गणभास्कराणां श्रीमत्त पोगणमहाब्धिनिशाकराणां । श्रीसोमसुन्दरगुरुप्रथिताभिधानां धर्मोपदेशश्रवणाज्जगदुत्तमानां ॥ ५ ॥ ॥ संवत् १४७० आषा[ढ] व० १३ ॥ एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं जेसलमेरुनगरस्थतपागच्छीयभाण्डागारे विद्यते । जे० सू० पृ० ५१ ↑ पुस्तकमिदं जर्मनराष्ट्रे बर्लिनमहानगरे राजकीयप्रन्थागारे विद्यतेऽधुना । द्र० वेबर, केटेलॉगपुस्तक, भाग १, नं० १६८१. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [९९] नागरवंशीय-श्रे० धांधा-लेखित-पर्युषणाकल्प-पुस्तिकाप्रशस्तिः । __[लेखनसमय अनुल्लिखित] वंशे नागरसंज्ञे वाहडनामा बभूव सुश्रेष्ठी । सद्धर्मकर्मनिरतो विरतोऽपरदूषणग्रहणात् ॥१॥ आनंदो नंदनस्तस्य सद्धार्मिकशिरोमणिः । येन पिल्लाहिकामामे जैनमंदिरमुद्धृतं ॥ २॥ पत्नी ह्यनुपमा तस्य संजज्ञे गुणधारिणी । सद्धर्मवासितखांता कांता खजनसंततौ ॥ ३ ॥ तयोः पुत्रत्रयं जज्ञे जिनधर्मपरायणं । आयो धांधा द्वितीयस्तु सुश्रेष्ठी रत्नसंज्ञकः ॥ ४ ॥ तृतीयश्च जगत्सिहो न्यायवान् गुरुपूजकः । तत्र पूर्वसुतस्तस्य श्रेयोऽथ शुद्धभावतः ॥५॥ सार्वज्ञशुद्धसिद्धांतलेखनोद्यतबद्धधीः । श्रीपर्युषणाकल्पस्य लेखयामास पुस्तिकां ॥ ६ ॥ [१०.] 10 वणिक्-श्रीधरसुत आनन्द-लेखित-दशवैकालिकसूत्रवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः। [लेखनसमयांका विनष्टप्रायाः, वर्णनानुसारतः १३ शताब्दी परिज्ञायते] संवत् ............. दोषारुचि चंद्रकुलं प्रजनितबहुलक्षपापहरणत्वे । यच्चरिते सद्भासां तजयति महातपो हितं सकलं ॥ तस्मिन् बभूव भुवनत्रयगीतकीर्तिः श्रीमान् कृती सुकृतवान् मुनिचंद्रसूरिः । यस्याद्भुतैकचरितांबुनिधेर्गुणानां सद्ध्यानजातपरिमा गुरुणापि कर्तुः ॥ सूरिश्रीमानदेवाभिधान[त]स्तच्छिष्योऽभूद् भूषणं भूरमण्याः । बद्धस्पर्द्धा यद्गुणाः कीर्तिवध्वा सो ईगूर्वी (1) खकौतुकेन ॥ . शिष्यस्तस्याजनि बहुमतः श्रीयशोदेवसूरियस्यात्यर्था गुरुगुणगणाः प्रत्यहं वृद्धिभाजः । ब्रह्माण्डान्तर्निजनिवसनस्थानसम्बाधभीत्या शंके प्रेमुस्त्रिभुवनमदो वीक्षितुं सर्वदैव ॥ नागपालसुतः श्रीमान् श्रीधराख्योऽभवद् वणिक् । जगदानन्दनस्तस्याभूदानन्दाभिधः सुतः ॥ १ ॥ स इदं लेखयामास दशवकालिकाभिधं । पुस्तकं सूरये तस्मै श्रीमते शुद्धमानसः ॥ २ ॥ [१०१] कांकरिकागोत्रीय-सामोहणकीत-उत्तराध्ययनसूत्र-पुस्तकप्रशस्तिः । संवत् १४०१ वर्षे माघमासे शुक्लत्रयोदशीदिने सा० धींधासुत सा० मोहणसुश्रावकेण खमातु-25 धांधलदेविसुश्राविकापुण्यार्थ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिपुस्तकं मूल्येन गृहीत्वा श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनपद्मसूरिपट्टालंकारश्रीजिनलब्धिसूरिसुगुरुभ्यः प्रादायि । प्रतिदिनं च वाच्यमानं मुनिभिश्चिरं नंदतात् ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्ता पुस्तिका अहमदाबादे ऊजमबाईधर्मशालासंज्ञकस्थानस्थितभांडागारे विद्यते । + पुस्तकमिदं जेसलमेरुमहादुर्गस्थवृहद्भाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-जे. सू० पृ० १६ । पुस्तकमिदं पुण्यपत्तने राजकीयग्रन्थसंग्रहे विद्यते। द्र. कीलहोर्न, रीपोर्ट पुस्तक, पृ०५। 15 20 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । गोत्रे कांकरिकाभिधे भुवि बभूवोदाभिधानः सुधीः __ श्राद्धः शुद्धनयस्तदीयतनयो धींधाभिधः श्रीलयः । कांता धांधलदेविकास्य तनुजास्तत्का जयंति त्रयः ____पुण्या मोहण-कृष्ण-कांकुण इति ख्याताः सुता मुक्तिका ॥१॥ मोहणेन निजमातृसुपुण्यश्रीनिमित्तमिदमुत्तमं पुस्तं । ध्युत्तराध्ययनसूत्रसुवृत्त्योः संप्रगृह्य घनमूल्यधनेन ॥ २॥ श्रीजिनलब्धियतीश्वरगुरवे प्रादायि वाचनाविधये । यावजिनमतमेतन्नंदतु मुनिवाच्यमानमिह ॥ ३ ॥ युग्मम् ॥ [१०२] 10 ओकेशवंशीय-श्रा० वर्जू-लेखित-चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमय सं० १४४५ विक्रमाब्द ] ओकेशवंशे विशदे सौवर्णिकपुंगवोऽस्ति जयसिंहः। सुश्रावकगुणयुक्तश्चत्वारश्चाभवन् पुत्राः ॥ १ ॥ पुन्यौ पूनी वर्जू द्वितीयका साधुवइजपुत्रेण । लींबाकेन व्यूढा सद्भक्तिकृतादरा सुगुणा ॥ २ ॥ [श्रीदेवसुंदरगुरु ] सूरीणामुपदेशतः । सा वर्जूश्राविका पुण्यप्रभूतोद्भववासना ॥ ३ ॥ 15 श्रीस्तंभतीर्थे नगरे चंद्रप्रज्ञप्तिवृत्तिवरशास्त्रं । शर-वार्द्धि-श वर्षे (१४४५) शिवाप्तये लेखयामास ॥ ४ ॥ [१०३] पल्लीपालवंशीय-ठकुरधंधसन्तानीय-लेखित-सार्द्धशतकवृत्ति-पुस्तकप्रशस्तिः । [प्रशस्तेरपूर्णत्वात् लेखनमिति!पलब्धा] नम्रनाकिसुरशत्रुनरेन्द्रः स्थैर्यनिर्जितसुमेरुनगेन्द्रः । विश्वविश्वनयनो गततन्द्रो विष्टपे जयति वीरजिनेन्द्रः ॥ १॥ 20 भूभामिनीहारललाटपट्टललामकल्पं नगरं समस्ति । ख्यातं जने वीरपुराभिधानं धनाढ्यलोकाभिनिवासरम्यम् ।।२॥ पुण्यागण्यगुणान्वितोऽतिविततस्तुंगः सदा मंजुलच्छायाश्लेषयुतः सुवर्णकलितः शाखाप्रशाखाकुलः । पल्लीपाल इति प्रभूतमहिमा ख्यातः क्षितौ विद्यते वंशो वंश इवोच्चकैः क्षितिभृतो मूनोंपरिष्टात् स्थितः ॥ ३ ॥ तस्मिन्नभूत् ठक्करधंधनामा श्राद्धः सुधीः सर्वजनाभिमान्यः ।। तस्याभवद् रासलदेविकाह्वा जनी च दाक्षिण्यदयानिवासा ॥ ४ ॥ x x x [अग्रे अपूर्णा ] x x x 25 * पुस्तकमिदं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरस्थितभांडागारे विद्यते । + पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडावस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते। अन्तिमपत्रस्य विनष्टवात् त्रुटितेयमत्र प्रशस्तिः। . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [१०४] दीशापालवंशीय श्रे०आम्रदत्तसन्तानीय-लेखित [ हेमचंद्रकृत ] महावीर चरित-पुस्तकप्रशस्तिः । [ लेखनकाल १२९४ विक्रमाब्द ] परमगरिमसारः प्रोल्लसत्पत्रपात्रं स्फुरितघनसुपर्वा श्रेष्ठमूलप्रतिष्ठः । लसितविशदवों वर्यशाखाभिरामः समभवदिह दीशापालवंशः प्रसिद्धः ॥ १॥ आम्रदत्तोऽभवत् तत्र मुक्तामणिरिवामलः । तच्चित्रमेव यदसावच्छिद्रः........"॥२॥ श्रीदेवीनामतः ख्याता शीलसत्यादिसद्गुणैः । प्रेमपात्रं प्रिया जज्ञे तस्येंदोरिव रोहिणी ॥ ३ ॥ ......॥४॥ [१०५] ____10 ऊकेशवंशीय-साधुदेदाक-लेखित-व्यवहारसूत्रचूर्णि-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनसमयो नोल्लिखितः] ले० खीवडेन लिखितं पुस्तकं ॥ मंगलं महाश्रीः ।। ऊकेशवंशप्रभवः प्रसिद्धः वाछाकपुत्रो नरसिंहसाधुः । सोहीतनूजास्तनयास्तदीया सप्तैव कृप्तोज्ज्वलधर्मकृत्याः ॥ १ ॥ तत्राद्यः सांगण इति चीताकस्त्रिभुवश्च लाखाकः। रावण-देदाकावथ धानाक इति क्रमेणामी ॥२॥ व्यवहारचूर्णिमेनामलीलिखन्निजसुतस्य सोमस्य । देवश्रीतनुजस्य श्रेयो) साधुदेदाकः ॥ ३ ॥ जयति जिनशासनमिदं निर्वृतिपुरमार्गशासनं यावत् । मुनिभिरिह वाच्यमानस्तावदसौ पुस्तको नंद्यात् ॥ ४ ॥ [१०६] पल्लीवालवंशीय-साधुगणदेव-लेखित-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र-पुस्तकप्रशस्तिः। , [लेखनकाल अनुल्लिखित ] पल्लीवालकुले पुनात्मजो बोहित्थसंज्ञितः । साधुस्तस्य सुतो जज्ञे गणदेवः सुधार्मिकः ॥ १ ॥ 25 खंडं तृतीयं संलेख्य विषष्टेः पुस्तके वरं । ददौ पौषधशालायां स्तंभतीर्थे पुरे मुदा ॥ २ ॥ यावन्नंदति जिनमतमिदमसमं सकलसत्त्वहितकारि । तावत् सुपुस्तकं वाच्यमानमेतद् बुधैर्जयतु ।। ३ ॥ * पुस्तकमिदं पत्तने संघवीपाडावस्थितभाण्डागारे विद्यते। अन्तिमपत्रस्य नष्टखात् अपूर्णेयं प्रशस्तिः । 1 एतत्प्रशस्तियुक्तं पुस्तकं स्तम्भतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरगतभाण्डागारे विद्यते । द्रष्टव्यम्-पिटर्सनीपोर्ट, पुस्तक ३, पृ० १७१ । एतत्प्रेशस्तियुक्तं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रगतान्तिममहावीरचरित्रात्मकं पुस्तकं पत्तने संघसत्कभांडागारे विद्यमानमस्ति । 15 2. 5 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । [१०७] श्रा० कुलचंद्र-लेखित-उत्तराध्ययन-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [लेखनसमय अनुल्लिखित] आशाधरा-मृतदेव्योः सुतः सर्वजनप्रियः । ख्यातो जगति शाकल्ये कुलचंद्रेणेति नाम्ना ॥ १॥ 5 अंबिका तस्य संपन्ना पुत्रिका विनयान्विता । ""देशेन पुस्तिकेयं लिखापिता ॥२॥ नंदतु तावद् धरित्र्यामेषा भो पुस्तिका महा । यावन्निशीथिनीनाथो तथा मार्तडमंडलं ॥ ३ ॥ ॥ भद्रमस्तु । [१०८] पल्लीवालवंशीय-श्राविका जाऊका-लेखित-सामाचारी-पुस्तकप्रशस्तिः । [लेखनकाल १२४० विक्रमाब्द ] पल्लीवालकुलोत्तंसपेसलो वीसलोऽजनि । राजीमतीसुता तस्य जयश्रीरिति गेहिनी ॥ १॥ तयोः सुताऽभवद्देवगुरुपादांबुजालिनी। जाऊकेति पवित्रां सा सामाचारी त्वलीलिखत् ॥ २ ॥ संवत् १२४० चैत्रसुदि १३ सोमे लिखितं । [१०९] श्रावक-यशोदेव-लेखित-जीतकल्पसूत्रवृत्ति-पुस्तिकाप्रशस्तिः । [ लेखनसमय अनुल्लिखित ] बभूव लक्ष्मणः श्राद्धः सपुना तस्य गेहिनी । सिंहनामा तयोः पुत्रो रांभूनाम्नी च पुत्रिका ॥ १॥ सिंहसूनुर्यशोदेवः संतुकाकुक्षिभूः स च । पुस्तिकां जीतकल्पस्य श्रेयसेऽलिखत् पितुः ॥ २ ॥ 15 20 * पत्तने महालक्ष्मीपाटकावस्थितभांडागारे विद्यते पुस्तिकेयम् ।। + पुस्तकमिदं स्तंभतीर्थे शान्तिनाथमन्दिरावस्थितज्ञानभाण्डागारे विद्यते । इयं पुस्तिका पत्तने तपागच्छसंज्ञकभाण्डागारे विद्यते । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यबहुलं प्रशस्तिद्वयम् । [ ११० ] धवलक्ककादि - नगरवास्तव्य-श्रावकसंघस्थापित-मधुमतीनगरीय वाग्देवताभाण्डागार - सत्कप्रवचनसारोद्धारवृत्ति-पुस्तकपुष्पिकालेखः । [ लेखनसमय संवत् १३०६ विक्रमाब्द ] संव० १३०६ वर्षे माह सु १ गुरावद्येह श्रीमधुमत्यां प्रभुश्रीदेवेंद्रसूरि प्रभु श्रीविजयचंद्रसूरीणां 5 सद्देशनाश्रवणतः संजातशुद्धसंवेगैः श्रीश्रमण संघस्य पठनार्थं वाचनार्थं श्रीवाग्देवताभांडागारकरणाय धवलक्क कवास्तव्य ठ० साहर; द्वीपवास्तव्य ठ० मदन ठ० आल्हणसीह ठ० जयतसीह ठ० जयता ठ० रा जा ठ० पदमसीह, श्रीमधुमतीवास्तव्य महं जिणदेव भां० सूमा व्यव० नारायण व्या० नागपाल सौ० चयरसीह सौ० रतन ठ० रतन भां० जसहड वसा धीणा ठ० लेखक अरिसीह भां० आजड; टिंबाणक चास्तव्य श्रे० दो० सिरिकुमार ठ० आंबड ठ० पाल्हण तथा श्रीदेवपत्तन वास्तव्य सौ० आल्हण ठ० 10 आणंद प्रभृति समस्तश्राव कैर्मिलित्वा मोक्षफलावाप्तये स्वपरोपकाराय श्रीसर्वज्ञागमसूत्र तथा वृत्ति । तथा चूर्णि तथा निर्युक्ति | प्रकरण [ ग्रं ]थ सूत्र वृत्ति । वसुदेवहिंडि प्रभृति समस्त कथा - लक्षण - साहित्य-तर्कादि समस्तग्रंथलेखनाय प्रारब्धपुस्तकानां मध्ये प्रवचनसारोद्धारवृत्तितृतीयखंडपुस्तकम् । लिखितं ठ० अरिसिंहेन ॥ I ज्ञानदानेन जानाति जंतु स्वस्य हिताहितं । वेत्ति जीवादितवानि विरतिं च समश्नुते ॥ १ ॥ ज्ञानदानात्वाप्रोति केवलज्ञानमुज्वलम् । अनुगृह्याखिललोकं लोकाग्रमधिगच्छति ॥ २ ॥ न ज्ञानदानाधिकमत्र किंचिद् दानं भवेद् विश्वकृतोपकारम् । ततो विदध्याद् विबुधः स्वशक्त्या विज्ञानदाने सततप्रवृत्तिं ॥ ३ ॥ [ पाटण, संघवीपाडावस्थित भाण्डागार ] [ ११ ] पल्लीपालवंशीय श्रा० कर्पूरदेवी लेखित शतपदिका पुस्तिकाप्रशस्तिः * । [ लेखनसमय सं० १३२८ विक्रमाब्द ] ॥ नमो जिनागमाय । श्रीवीराय नमस्तस्मै ॥ यो दुर्जलधिसंस्थितः दुर्जाड्यानलस्थितिः (१) । यज्ज्ञानं पूज्यते पूज्यैस्तदक्षरश्रुतं स्तवे ॥ १ ॥ * एतत्प्रशस्तियुक्ता पुस्तिका वटपद्रनगरे प्रवर्तक श्रीमत्क ांति विजयशास्त्र संग्रहनामकज्ञानकोशे विद्यते । १३ जै० पु० 15 20 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । श्रीवागभट्टमेरुमहादुर्गे पल्लीपालवंशे श्रेष्ठिलाखणश्रावको बभूव । तत्पुत्राः श्रेष्ठिपालू-घणहुलवीरदेवनामानस्त्रयः । श्रे० पालू भार्या रूपिणि तत्कुक्षिसमुत्पन्नौ द्वो पुत्रौ झांझण-गुणदेवसंज्ञको । श्रेष्ठि वीरदेवपत्नी वीरमती-मोल्ही इति पैतृकं नाम । तस्याः सुतो गुणैर्विशालो गुणपालः । तस्य जाया गउरदेवी इति विनयज्ञा। 5 इतश्च-हम्मीरपतनवास्तव्य श्रेष्ठि वारय नाम । तस्यांगजः श्रेष्ठि साल्हडः। तस्य सहचारिणी सदा सदनुष्ठानविधानतत्परा श्रेष्ठि[ नी] सूहवदेवी सुश्राविका । तत्पुत्रो जिनशासनप्रभावकः सा० कडयाश्रावकः । तस्य सहोदरा भगिनी अनारतं दान-शील-तपो-भावनादिविशिष्टधर्मध्यानपरायणा मोल्ही श्राविका । तथा सा० कडुया भ्राता उदाकश्रावकस्तस्यांगजो हीलणः । तेन सा. कडुया श्रावकेण च उदाश्रावकश्रेयोऽर्थ श्रीमत्पार्श्वनाथबिंबं श्रीवाग्भमेरुमहादुर्गे महावीरचैत्ये सप्तविंशत्यधिके 10त्रयोदशशते (१३२७) स्थापितं । सा. कडुया भार्या करिदेवी । तत्सुतः पुण्यपाल दुहिता च नीतलाख्या । द्वितीया प्रेयसी कुर्मदेवी तस्यास्तनया धांधलदेवीति । एवं च कुटुंबे प्रवर्तमाने प्रवर्द्धमाने च भीमपल्यां; शुश्रुवेऽन्यदा धर्मदेशना यथा ज्ञानं दानवमानवासुरगणैः संपूजितं स्फुर्जितं ज्ञानाधिक्यसमृद्धिरूपसुकला नृणामिहामुत्र न । ज्ञानं चक्षुरिवांतरं वितिमिरं सौभाग्यभाग्यास्पदं कल्याणैकनिकेतनं तदथवा कल्पद्रुकल्पं सदा ॥१॥ 15 इत्येतद्गुरुमुखतो निशम्य श्रुतज्ञानफलं विज्ञा......[सा कर्पूरदेवी] श्राविका भक्तिभर".....तद्बिंबदर्शनात् संजातहर्षप्रकर्षा आत्मश्रेयसे सर्वसिद्धांतोद्धारसारां संदेहद्रुमच्छेदननिशितकुठारधारां भव्यजनमनःप्रमोदकारिकां श्रीशतपदिकाभिधानपुस्तिका लेखयित्वा वाचनाचार्यमिश्राणां वाचनाय प्रददौ इति । नंद्यान्मेरुगिरिर्यावत् तिलकद्युतिदो दिशां । तावदेषा गुरुप्राज्ञैर्वाच्यमाना सुपुस्तिका ॥१॥ संवत् १३२८ वर्षे आषाढ शुक्ल पक्षे श्रीअणहिलपाटणपत्तने ठ० वयजासुत ठ० सामंत20 सिंहेन पुस्तिका लिखितेति भद्रं ॥ छ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताडपत्रीयपुस्तकस्थाः संक्षिप्तपुष्पिकालेखाः । ९१. पंचमीकहा [ महेश्वरसूरिकृता ] • सं० ११०९ [ जेसलमेर, तपागच्छ भाण्डागार ] सं० ११०९ वर्षे लिखितं । ● सं० १११ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] कार्तिक शुदि ६ खौ उत्तराषाढनक्षत्रे षट्त्रिंशद्वेलाकूला भरण- 5 गौडान्वये प्रसूत कायस्थ गुंदलात्मज सुभच्छराजांगज सेड्डाकेन • ९२. भगवतीसूत्र [ मूलपाठ ] - समत्ता भगवती । संवत् १११ 'स्तंभतीर्थाभिधानवेलाकू लावासितेन . भगवती पुस्तकोऽयं समलेखि । ९३. कुवलयमालाकहा * सं० ११३९ * [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] इति कुवलयमाला नाम संकीर्णकथा । संवत् ११३९ आसु वदि १ रविदिने लिखितमिदं पुस्तकं । १४. निशीथसूत्र चूर्णि * सं० १९४५ * [ पूना, राजकीय ग्रंथसंग्रह ] 10 नमो सुदेवयाए भगवतीए । जिणदासगणिमहत्तरेण रइया ॥ छ ॥ नमस्तीर्थकृद्भ्यः ॥ संवत् ११४५ ज्येष्ठ वदि १४ लिखितमिदं ॥ छ ॥ कूरीजाग्रामे मुंधयसायेन श्रीतलवाटावस्थितेन । महाराजाधिराज श्रीकर्न देवराज्ये ॥ १५. योगदृष्टिसमुच्चय * सं० १९४६ [ पाटण, संघसत्कभां० ] 15 समाप्तोऽयं योगदृष्टिसमुचयः । कृतिः चेतभिक्षोराचार्यहरिभद्रस्य / संवत् १९४६ कार्त्तिक शुदि कर्णदेवकल्याणविजयराज्ये महामात्यमुंजाल यह कावस्थिते एवं का प्रवर्तमाने व श्रीमदणहिलपाटकावस्थि 1 ६. निशीथसूत्रभाष्य • सं० ११४६ * [ पूना, राजकीय ग्रंथसंग्रह ] समाप्तं चैतन्निषीथभाष्यमिति । संवत् १९४६ श्रावण शुदि ६ सोमे [I] एकैकाक्षरगणनया ॥ ८४०० ॥ १. ओघनिर्युक्तिसूत्र • सं० १९५४ [ पाटण, संघसत्कभां० ]20 ओहनिती समत्ता ।। ११३२ ग्रंथ० । संवत् १९५४ वैशाखशुक्लप्रतिपदायां रविदिने श्री अशोकचंद्राचार्यशिष्येण उदयचंद्रगणिना जिन भद्र लेखकहस्ताद् विमलचंद्रगणिहस्ताच्च ओघ निर्युक्तिसूत्रं लेखितं । मंगलं महाश्रीरिति ॥ निशीथसूत्र चूर्णि • सं० ११५७ [ पाटण, संघवीपाडा भां० ] - निसीहचुण्णी समत्ता । मंगलं महाश्रीः । संवत् ११५७ आखाढ वदि षष्ठ्यां शुक्र दिने श्रीजयसिंघ 25 देवविजयराज्ये श्रीभृगुकच्छ निवासिना जिनचरणाराधनतत्परेण देवप्रसादेन निसीथचूर्णि पुस्तकं • लिखितमिति ॥ .......... Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६९. उत्तराध्ययनसूत्र ® सं० ११५९ - .... - [पाटण, सं० पा० भाण्डा०] . संवत् ११५९ अश्विन सुदि ५ शुक्रे लिखितं । ६१०. उद्भटालंकार [लघुवृत्ति ] ® सं० ११६० ® [जेसलमेर, बृहद्भ(०] संवत् ११६० कार्तिक वदि ९ सोमदिने लिखिता। ® संवत् ११६१ ® [पाटण, सं० पा० भाण्डा०] संवत्सरसतेष्वेकादसैकषष्ठयधिकेषु [११६१] फाल्गुनसुक्ल द्वितीयायां सनिश्चरदिने । कर्मापनयनिमित्तं लिखितमिदं पंचवस्तुनः सूत्रं । श्रीवीरचंद्रसूरिभिर्लिखापितं ॥ श्रीवीरचन्द्रसूरिभ्यो दत्तेयं ज्ञानवृद्धये । पंचवस्तुकसूत्रस्य पुस्तिका गुणमतीश्रि(? च्छ्रि)या ॥ [पश्चादन्याक्षरेषु-] सं० १२६२ श्रावण वदि ६॥ 10६ १२. महावीरचरित्र [नेमिचन्द्रसूरिकृत, प्राकृत] ® सं०११६१ - [जेसलमेर, बृहद् भां०] संवत् ११६१ चैत्र वदि ११ सोमे । ६१३. काव्यादर्श [दंडीकृत] ® सं० ११६१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११६१ भाद्रपदे । ६१४. जीवसमासवृत्ति [मलधारिहेमचन्द्रकृत] ® सं० ११६४ - [खंभात, शान्तिनाथभां०] 15 संवत् ११६४ चैत्रशुदि ४ सोमेऽयेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलिविराजित महाराजाधिराज परमेश्वरश्रीमजयसिंहदेव कल्याणविजयराज्ये एवं काले प्रवर्त्तमाने यमनियमस्वाध्यायध्याना नुष्ठानरतपरमनैष्ठिकपंडितश्वेतांबराचार्यभट्टारकश्रीहेमचंद्राचार्येण पुस्तिका लि० श्री.॥ ६१५. आवश्यकसूत्र ® सं० ११६६ 8 [जेसलमेर, गृहद् भाण्डा०] संवत् ११६६ पोषवदि ३ मंगलदिने महाराजाधिराज त्रैलोक्यगंड श्रीजयसिंघदेव विजयराज्ये । 20 लिहवेहेन (१) लिखितं । १६. कथानककोश [ विनयचन्द्रसूरिकृत ] ® सं० ११६६ ७ [पाटण, सं० पा० भां०] संवत् ११६६ अश्वयुज् कृष्णपक्षे....."विनयचंद्रस्य कथानककोशः । ६ १७. संजमाख्यानक [ विजयसिंहाचार्य ] ® सं० ११६९ - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११६९......... । 25६१८. अणुवयविही ® सं० ११६९ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११६९ वर्षे अश्वयुजसुदि ४ शुक्रदिने लिखितेति । ६१९. उपदेशपद [हरिभद्रसूरिकृत] ® सं० ११७१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] __ संवत् ११७१ वर्षे......। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। १०६ ६२०. खरतरपट्टावली (2) ® सं० ११७१ (2) ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्रीजयसिंहदेवविजयराज्ये श्रीखरतरगच्छे योगीन्द्रयुगप्रधान वसतिवासिश्रीजिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्मचन्द्रगणिना लिखिता। ६२१. अनेकान्तजयपताकावृत्ति-टिप्पनक [मुनिचन्द्रसूरिकृत] सं० ११७१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] 5 संवत् ११७१ ज्येष्ठ वदि ४ शुक्रे लिखितं रामदेवेनेति । ६२२. आगमिकवस्तुविचारसारवृत्ति छ सं० ११७२ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डा०] [रचना संवत् ११७२ यथा-] अणहिल्लपाटकपुरे श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये । आशापुरवसत्यां वृत्तिस्तेनेयमारचिता ॥ ८ ॥ वर्षे शतैकादशके द्वासप्तत्यधिके नभोमासे । सितपंचम्यां सूर्ये समर्थिता वृत्तिकेयमिति ॥९॥ 10 संवत् ११७२ । ग्रं० ८५०। ६२३. शतकचूर्णि® सं० ११७५ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११७५ वर्षे कार्तिक वदि ४ रवौ । ६२४. काव्यालंकारवृत्ति ® सं० ११७८ ® [पाटण, सं० पा० भंडार] संवत् ११७८ चैत्रवदि ९ गुरौ । 15 उदकानलचौरेभ्यो मूषकेभ्यस्तथैव च । रक्षणीया प्रयत्नेन एवं वदति पुस्तिका ॥ ६२५. उत्तराध्ययनसूत्र(मूलपाठ) ® सं० ११७९ - [पाटण, संघवीपाडाभाण्डा०]. (१) संवत् ११७९ भाद्रपदवदि......... [अयेह श्री] (२) मदणहिलपाटकाभिधानराजधान्यां स्थित समस्तनिजराजावलीसमलंकृत महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिभुवनगंड श्रीसिद्धचक्रवर्ति श्रीमजयसिंहदेवक(३) ल्याण विजयराज्ये प्रवर्द्धमाने एतसात्परमवामिनः पूज्यपादद्वयप्रसादात् श्री श्री क[र]णे महामात्य श्रीआशुकः समस्तव्यापारन् करोतीत्येतमिन् काले इह (४) कर्णावत्यां श्रीकर्णेश्वरदेवभुज्यमान सुंयांतीज ग्रामनिवासी परमश्रावक प्रद्युम्न तथै तदीयभार्या वेल्लिका च [1] अपरं नेमि प्रभृति समस्तगोष्ठिकैः पर(५) व हेतवे निर्जराथं च आर्जका मरुदेविगणिनी तथैतदीय चेल्लिका वालमतिगणिन्योः 25 पठनाय उत्तराध्ययनश्रुतस्कंधो यक्षदेवपार्शल्लिखाप्य प्रदत्त (६) इति । यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृष्टं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥१॥ मंगलं महाश्रीः ॥ छ ॥ शिवमस्तु जिनशासनाय ॥ छ । ६२६. ओघनियुक्ति( सूत्रपाठ) ® सं० ११८१ ® [पाटण, संघसत्कभां०] ।-एकारसहिं सएहिं अट्ठहिं अहिएहिं सम्मत्ता । ग्रंथाग्रं प्रत्येकांकतः॥ गाथा ॥ 30 संवत् ११८१ ज्येष्ठ वदि १३ शनौ मुनिचन्द्रसाधुना लिखितेति ॥ 20 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। ६२७. अंतगडदशा छ सं० ११८५ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] सं० ११८५ वर्षे ज्येष्ठ शुदि १२ शुक्रदिने श्रीमदणहिलप(पा)टके ले० सोढलेन लिखितं । ६२८. ललितविस्तराख्या चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति । ® सं० ११८५७ [पाटण, संघवीपाडा भां०] -इति चैत्यवंदनटीका समाप्ता ॥ कृतिः चतुर्दशशतप्रकरणकर्तुविरहांकस्य चित्रकूटाचलनिवासिनः कलिकालांधकारावलुप्यमानागमरत्नप्रकाशनप्रदीपस्य सुगृहीतनामधेयस्य जिनेंद्रगदितसिद्धांतयथार्थवादिनः श्वेताम्बरकुलनभस्तलमृगांकस्य श्रीहरिभद्रसूरेः॥ ग्रंथाग्रं अक्षर संख्यया अनुष्टुभां तु ४८२॥ विक्रम संवत् ११८५ प्रथमाश्विनवदि ७ सोमे पारि० लूणदेवेन वपरोपकाराय लिखितेति ।। ६२९. जिनदत्ताख्यान ® संवत् ११८६ - [पाटण, संघसत्क भां०] -इति जिनदत्ताख्यानं समाप्तं ॥संवत् ११८६ अद्येह श्रीचित्रकूटे लिखितं माणिभद्रेण यतिना यतिहेतवे साधवे वरनागाय खस्य च श्रेयःकारणम् । मंगलमस्तु वाचकजनानाम् । ६३०. परिग्रहपरिमाणवतप्रकरण ® सं० ११८६ - [पाटण, संघसत्कभां०] एक्कारससु सएसुं छासीई समहिएसु वरिसाणं । मगसिरपंचमिसोमे लिहियमिणं परिगहपमाणं ॥ ८४ ॥ 15 परिगहपरिमाणं समत्तं । संवत् ११८६ मार्गसिर वदि ५ सोमे लिखितमिति ॥ ६३१. उपासकदशाचूर्णि® सं० ११८६ ७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डा०] संवत् ११८६ अश्विन सुद ३ सोमे अद्येह श्रीमदणहिलवाड......... । $३२. दशवैकालिकसूत्रवृत्ति [ सुमतिसूरिकृत] ® सं० ११८८ - [पाटण, संघवीपाडा भा०] लब्ध्वा मनुष्यकं जन्म ज्ञात्वा सर्वविदो मतं । प्रमादमोहसम्मूढा वैफल्यं ये नयंति हि ॥ जन्ममृत्युजराद्या' रोगशोकायुपद्रुते । संसारे सागरे रौद्रे ते भ्रमंति विडंबिताः ॥ ये पुनज्ञान-सम्यक्त्व-चारित्रविहितादराः । भवांबुधिं समुल्लंघ्य ते यांति पदमव्ययं । संवत् ११८८ मागसिरवदि ६ शुक्रे दशवैकालिक सूत्रं [लिखितं] । ६३३. जयदेवच्छन्दःशास्त्र ® सं० ११९०७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] इति जयदेवच्छन्दसि अष्टमोऽध्यायः समाप्तः। 25 संवत् ११९० मार्ग सुदि १४ सोमे दिने श्रीसर्वदेवाचार्यशिष्यस्य देवचंद्रस्यार्थे पं० श्रीधरेण जयदेवच्छंद(दो) मूलमलेखि । । ६३४. धर्मविधि ® सं० ११९० ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् ११९० पोष वदि ३ शुक्रे । नह-गु(गह ?)-रुदंकजुए काले सिरिविक्कमस्स वट्टते । पोसासियतइयाए लिहियमिणं सुकवारंमि ।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १०३ ६३५, काव्यादर्श [ महाकविदंडीकृत] ® सं० ११९० (?) ® [पाटण, सं० पा० भा०] संवत् १९० (११९० १ ) द्वितीये ज्येष्ठे ९ लिखितेति माणिकक्षुल्लकेन । ६३६. आवश्यकनियुक्ति ® सं० ११९१ - [पाटण, संघवीपाडाभां०] संवत् ११९१ फाल्गुन व(शु १)दि १ शनौऽद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीराजमंडण महाराजाधिराज परमेश्वर सिद्धचक्रवति श्रीमजयसिंहदेव कल्याणविजयराज्ये तस्मिन् काले 5 प्रवर्तमाने पुस्तिका लिखितमि(ते १)ति ॥ छ ॥ मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु ॥ [ पश्चादन्यहस्ताक्षरैः - ] श्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० पूनड तद् भार्या तेजू तत्पुत्र ठ० मंडलिकेन... ......ऽर्थ न्यायार्जितधनेन श्रीआवश्यकपुस्तिका गृहीता ज्ञानभांडागारे स्थापिता चेति । ६३७. भवभावना [मलधारि-हेमसूरिकृता] ® सं० ११९१ ® [ पाटण, सं० पा० भाण्डा०] संवत् ११९१ वर्षे वैशाष सुदि ४ शुक्रे । मंगलं महाश्रीः। 10 ६३८. पुष्पवतीकथा-आदिप्रकरणसंग्रह ® सं० ११९१ ७ [पाटण, सं० पा० भां०] संवत् ११९१ वर्षे भाद्रपद शुदि ८ भौमे अद्येह धवलकके समस्तराजावलीविराजित महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीत्रिभुवनगंड सिद्धचक्रवर्ति श्रीजयसिंहदेव कल्याणविजयराज्ये एवं काले वर्तमाने तत्पादप्रसादात् महं श्रीगांगिल श्रीश्रीकरणादौ व्यापारान् करोति । अथेह श्रीखेटकाधारमंडल राज० श्रीसोभनदेव प्रतिप [तौ] श्रीखेटकास्थानात् विनिर्गत [..."] वास्तव्य पंडित 15 वामुकेन गणिणि देवसिरियोग्य पुष्पवतीकथा लिखितमि(ते १)ति । शुभं भवतु लेखकपाठकयोः । ६३९. योगसार सं० ११९२ - [पाटण, संघवीपाडा भां०] श्रीजयकीर्तिसूरीणां शिष्येणामलकीर्तिना । लेखितं योगसाराख्यं विदा श्रीरामकीर्तिना ॥ संवत् ११९२ ज्येष्ट शुक्लपक्षे त्रयोदश्यां पंडित साल्हणेन लिखितमिदमिति । ६४०. नवपदप्रकरणलघुवृत्ति ® सं० ११९२ ® [पाटण, संघवीपाडाभां०] 20 (१) संवत् ११९२ ज्येष्ठ सुदि............... (२) ति अवंतीनाथ श्रीजयसिंघदेव कल्याण विजयराज्ये एवं काले प्रवर्तमाने । इहैव पा"ग्रामे............ (३) लिषिते साधु साध्वी श्रावक श्राविकाचरणाकृते । श्रीब्रह्माणीयगच्छे श्रीविमलाचार्य शिष्य श्रावक आवटि श.........." 25 (४) तिहइ साढदेव आंवप्रसाद आंबवीर श्रावक"""यक नवपदलघुवृत्ति-पूजाष्टकपुस्तिका श्राविका वाल्हवि जसदेवि दूल्हेवि श्रीयादेवि सरली बालमत...... (५) समस्त श्राविका नाणपंचमी तपकृत निर्जराथं च लिषापिता अर्पिता च अवस्थित साध्वी मीनागणि नंदागणि तस्य सिसिणी लषमी देमत........ (1) (1) पंत्रस्य बुटितखाद पंकयोऽपूर्णा लब्धाः । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____10 15 १०१ मैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६४१. छन्दोऽनुशासन [जयकीर्तिकृत] ® सं० ११९२ ® [जेसलमेर, पृहद् भाण्डा०] इति जयकीर्तिकृतौ छन्दोऽनुशासन................ । संवत् ११९२ आषाढ शुदि १० शनौ लिखितमिदमिति । ६४२. उपदेशपदटीका [ वर्डमानाचार्यकृत] ® सं० ११९३ - [जेसलमेर, वृहद् भाण्डा०] 5 संवत् ११९३ ज्येष्ठ सुदि २ रवौ। ६४३. भगवतीवृत्ति-द्वितीयखंड ® सं० ११९४ ७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डा०] संवत् ११९४ श्रावण सुदि ६ शुक्रे लिखितं च लेखक बंदिराजेन । ६४४. प्रमाणान्तर्भाव ® सं० ११९४७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] -प्रमाणान्तर्भावः समाप्तः । श्रीदेवानन्दगच्छान्वयशिशिरकरे काशिभव्यारविन्दे सूरावुद्योतनाख्ये प्रतपति तपने वादिकुमुदावलीनां । हा (१) राज्ये सानुभावा समभवदमला साधुकूर्चालवाणी ___ वंद्या विद्यारविन्दस्थितचरणयुगा सद्यशोवर्द्धनाख्या ॥ तत्पुत्रौ साधुशिष्यौ गुरुपरिचरणप्राप्त..... ___ ज्येष्ठोऽसौ देवभद्रोऽपरलघुकवयाः सद्यशोदेवनामा । एनामुन्नाम्यमानां कतिपयरचनां बौद्धमीमांसकानां व्यालेखिष्टां विशिष्टां निजगुरुपदवीमीप्समानौ प्रतीतां ॥ संवत् ११९४ भाद्रपद................। ६४५. शतकचूर्णि® सं० ११९६ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] 20 संवत् ११९६ श्रावण वदि २ गुरौ लिखितं पारि० देवराजेन । ६४६. महावीरचरित्र ® सं० ११९७ - [खंभात, शान्तिनाथज्ञानभां०] संवत् ११९७ आसोयवदि १० दिने मघानक्षत्रे शुक्रयोगे च महावीरचरितं लिखितं । ६४७. पउमचरिय ® सं० ११९८ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] सं० ११९८ कार्तिक वदि १३ महाराजाधिराजविजयराज्ये श्रीजयसिंघदेवे भृगुकच्छसमवस्थितेन 25 लिखितेयं बिल्हणेन । ६४८. आवश्यकनियुक्ति ® सं० ११९८७ [पाटण, खेतरवसहीपाटकमां०] समत्तं छबिहमावस्सयं । गाथा २५०० ॥ संवत् ११९८ माघ सुदि""भौमे पारि० मुणिचंद्रेण आवश्यकपुस्तकं समाप्तमिति ॥ आवश्यकसूत्रनियुक्ति ® सं० ११९८७ [पाटण, संघवीपाडाभां०] 30 पञ्चरखाणनिजुत्ती समत्ता । समत्तं छविहमावस्सयमिति । मंगलं महाश्रीः। संवत् ११९८ आषाढ सुदि २ गुरुदिने ॥ अघेह श्रीसमस्तराजावलीसमलंकृत परमभट्टारक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ झैमपुस्तकमशस्तिसङ्ग्रह। महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमदर्णोराजदेव विजयकल्याणराज्ये । श्रीमदजयमेरु अघास्थित श्रीपृथ्वीपुरे प्रतिवसति स ॥ आर्जिका बांधुमतिस्था(तिस्तस्या अ१)र्थे । नैगमान्वय कायस्थ पं० माढलेन आवश्यकपुस्तकोयं लिखितः । शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ ६५०. सांख्यसप्ततिभाष्य [गौडपादाचार्यकृत] ® सं० १२०० ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् १२०० श्रावण वदि ८ गुरौ अद्येह श्रीसिद्धपुरे श्रीमूलनारायणदेवीयमठावस्थितपरमभागवत तपोधनिक श्रीऋषिमुनीन्द्रशिष्यस्य नव्यदेशरत्नाकरकौस्तुभस्य परमार्थविदः श्रीसल्हणमुनेराल्हण [वि]नेयाज्ञया पंडितधारादित्येन सांख्यसप्ततिटीका भव्या पुस्तिका लिखिता। ६५१. प्रमालक्षण .. ® सं० १२०१७ [जेसलमेर, बृहद्भाण्डा०] संवत् १२०१ माहवदि ८ बृहस्पति लिखितेति । ६५२. न्यायप्रवेशटीका-हारिभद्रीया . ® सं० १२०१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्ड्य० ]10 संवत् १२०१ वर्षे माघमासीय चरमशकले तुरीयतिथौ तिमिरासहनवासरे श्रीभृगुकच्छे स्थितिमता पंडितेन यशसा सहितेन धवलेन पुस्तिकेयमलेखि । ६५३. संग्रहणीवृत्ति ® सं० १२०१ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् १२०१ माघवदि १४ भौमे विजयचंद्रगणियोग्या लिखितेति । ६ ५४. द्रव्यालंकारवृत्ति [ रामचन्द्र-गुणचन्द्रकृता] ® सं० १२०२ - [जेसलमेर, बृहद् भां०] 15 -इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां खोपझद्रव्यालंकारटीकायां तृतीयोऽकंपप्रकाश इति । संवत् १२०२ सहजिगेन लिखि । ६५५. दानादिप्रकरणसंग्रह .. ७.सं० १२०३ ®. [पाटण, सं० पा० भां०] संवत् १२०३ पोस सुदि ३ दिने मोहिणी लिखिता पुस्तिका दूली श्रीविका निर्जरार्थ । मंगलं महाश्रीः। ६५६. काव्यकल्पलताविवेक ® सं० १२०५ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डा०] समाप्तः काव्य[कल्प]लताविवेकाभिधानः श्रीकल्पपल्लवशेषः । संवत् १२०५ श्रावण सुदि १४ शनौ। ६५७. हैमलघुत्ति सं० १२०६ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] - संवत् १२०६ आषाढ वदि ५ सोमे (१)। 25 ६५८. रुद्रटालंकार-टिप्पन ® सं० १२०६ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२०६ आषाढ वदि ५ गुरुदिने (१) लिखितेति। ५९. पञ्चाशकवृत्ति ® सं० १२०७ ® . [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] सप्तोत्तर-सूर्यशते विक्रमसंवत्सरे त्वजयमेरौ । दुर्गे पल्लीभंगे त्रुटितं पुस्तकमिदमग्रहीतदनु ॥ 30 १४ जै. पु. 20 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । अलिखत्खयमत्र गर्ने श्रीमजिनदत्तसूरिशिष्यलवः । स्थिरचन्द्राख्यो गणिरिह कर्मक्षयहेतुमात्मनः ॥ ६६०. स्याद्यन्तप्रक्रिया सं० १२०७ ® [जेसलमेर, पृहद् भाण्डागार] -उपाध्याय सर्वधरविरचित स्याद्यन्तप्रक्रियायां त्रिलिङ्गकाण्डश्चतुर्थः समाप्तः । संवत् १२०७ माघ सुदि २ रवौ मंगलं । ६६१. संवेगरंगशाला ® सं० १२०७ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत १२०७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १० गुरौ अद्येह श्रीवटपद्रके दंड० श्रीवोसरि प्रतिपत्तौ संवेगरंग शालापुस्तकं लिखितमिति । ६६२. वासवदत्ता ® सं० १२०७ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १२०७ श्रावण वदि ४ सोमे रुद्रपल्लीसमावासे राजश्रीगोविन्दचन्द्रदेवविजयिराज्ये श्रीयशोधरेण श्रीआचार्याणां कृते लिखितेयं वासवदत्ता। शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखीभवंतु लोकाः ॥ ६६३. कातंत्रोत्तरापरनाम विद्यानंद [व्याकरण] ® सं० १२०८ ® [पाटण, खेतरवसहीपाटकावस्थित भाण्डागार] -इति विजयानन्दविरचिते कातंत्रोत्तरे विद्यानंदापरनाम्नि तद्धितप्रकरणं समाप्तं । । दिनकर-शतमिति संख्येऽष्टाधिकाब्दयुक्ते श्रीमद्गोविन्दचन्द्रदेवराज्ये जाह्वव्या दक्षिणकूलें श्रीमद्विजयचन्द्रदेव वडहरदेशभुज्यमाने श्रीनामदेवदत्तजह्मपुरीदिग्विभागे पुरराहूपुरस्थिते पौषमासे षष्ठयां तिथौ शौरिदिने वणिक् जल्हणेनात्मजस्यार्थे तद्धितविजयानंदं लिखितमिति । यथा दृष्टं तथा लिखितं । शुभं भवतु । पं०, विजयानंदकृतं कातंत्रसंबंधि कारक-समास-तद्धित-पाद पंजिकायाः कातंत्रोत्तरः॥ ६६४. पूजाविधान (रत्नचूडादिकथा) ® सं० १२०८ छ [पाटण, खेतरवसहीपाटक] संवत् १२०८ ज्येष्ठ सुदि ६ रवौ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृत महाराजा धिराज उमापतिवरलब्ध प्रसाद प्रौढप्रतापनिजभुजविनिर्जितरणांगणोपेत शाकंभरीभूपाल श्रीमत्कुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये तनियुक्त महामात्य श्रीमहा(१ वाहड) देवे श्रीश्रीकरणादौ समस्तव्यापारं कुर्वत्येवं काले प्रवर्तमाने ऊमताग्रामवास्तव्य लेखक जालेन पूजाविधानपुस्तिका लिखि तेति । लेखक-पाठकयोः शुभं भवतु ॥ ६६५. सत्तरीटिप्पन [ रामदेवगणिकृत ] ® सं० १२११ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] कृतिरियं श्रीरामदेवगणेः । संवत् १२११ अश्विनि वदि १ बुधदिने पूर्वभाद्रपदनाम्नि मूलयोगें 80 तृतीययामे पं० माणिभद्रशिष्येण यशोवीरेण पठनार्थ कर्मक्षयार्थं च लिखितं । 15 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ....... जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६६६.. बप्पभट्टीयचतुर्विशतिस्तुतिवृत्ति ® सं० १२११ - [सुरत, हुकुममुनि शानभंडार] (१) इति चतुर्विंशतिकावृत्तिः समाप्ता ॥ छ ॥ जैनसिद्धान्ततत्त्वशतपत्रमकरंदाखादमधुपेन देवानन्दितगच्छखच्छहृदयमुनिमुखमंडनेन श्वेतांबरव्रतिवातताराश्वेतरुचिना वाचनाचार्य पंडितगुणाकरेण इयं संसारार्णवनिमजमानजनपारनयनमंगिनी साहित्यविचारवैदग्ध्य हृदयोल्लासपंकजप्रबोधचन्द्रिका चतुर्विंशतिजिनानां स्तुतिवृत्तिर्लिंखापितेति ॥ छ ॥ 5 श्रीवैद्यनाथामकृतांतकस्य लानेन कमीरजकईमेन । खर्गायते दर्भवती सदा या तस्यां लिलेख स्थितराणकेन ॥ विक्रम संवत् १२११ पोष सुदि १४ सोमे ॥ शुभं भवतु ॥ मंगलमस्तु ॥ लेखक पाठकयोश्च ॥ छ । (२) शोभनस्तुतिवृत्तिप्रान्ते इति चतुर्विंशतिकावृत्तिः समाप्ता ॥ छ ॥ श्वेतांबरमहागच्छ महावीरप्रणीत देवानंदितगच्छोद्योतकर वाचनाचार्य पंडि० गुणाकरगणिना चतुर्विंशतिजिनानां स्तुति वृत्तिलिखापिता ॥ छ । श्रीवैद्यनाथेन जिनेश्वरैश्च तपोधनैर्दर्भवती....... ..........स्वयं पंडित राणकेन हेमंतकाले लिखिता समया ॥१॥ 15 विक्रम सं० १२११ पौष वदि ८ बुधे ॥ छ ॥ शवमस्तु ॥ मंगलमस्तु । ६६७. पुष्पमाला ®सं० १२१२ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १२१२ पोष वदि............ । ६६८. उपदेशपदटीका [वईमानाचार्यकृत ] ® सं० १२१२७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत १२१२ चैत्र सुदि १३ गुरौ अद्येह श्रीअजयमेरु दुर्गे समस्त राजावली विराजित परम-20 भट्टारक महाराजाधिराज श्रीविग्रहराजदेव विजयराज्ये उपदेशपदटीकाग्लेखीति । ६६९. पृथ्वीचन्द्रचरित्र ® सं० १२१२ - [खंभात, शांतिनाथ मन्दिरभांडागार] संवत् १२१२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १४ गुरावधेह श्रीमदणहिल्लनयर समतो (सामन्तोपनमना-) सेसमधिगत पंच महाशब्दवाद्यमानं चौलुक्यकुलकलिकाविकासं कर्नाटरायमानमर्दनकरं सपादलक्षराष्ट्रवनदहनदावानलं मालव राष्ट्रे निजाह्वया.""संस्थापनकरं मूलराजपाटोद्वहनधुराधौरेयं 25 पार्वतीप्रियवरलब्धप्रसादं इत्यादि समस्तराजावलीमालालंकार विराजमान श्रीकुमरपालदेवविजयराज्ये तत्पादावाप्तप्रसादमहाप्रचंडदंडनायक श्रीवोसरि लाटदेशमंडले मही-दमनयोरन्तराले समस्तव्यापारान् परिपन्थयतीत्येतस्मिन् काले जीणोरग्रामे [ तप] नियम संजमस्वाध्यायध्यानानुरत परमभट्टारक आचार्य श्रीमदजितसिंहमूरिकृते श्रावकसोढूकेन परमश्रद्धायुक्तेन पृथ्वीचन्द्रचरित्रपुस्तकं विशुद्धबुद्धिना लिखापितं । लिखितं च पंडित मदनसिंहेनेति ॥ मंगलं 30 महाश्रीः॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 20 25 2 जैन पुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | पश्चाल्लेखः-संवत् १४७८ वर्षे वैज्ञानिकशिरोमणिपूज्यपं० शान्तिसुन्दरगणिपादैः सर्व चित्कोश - कार्य मंजुषसमारचनादिकमकारि । भारुकच्छकशालायां । श्रीसंघस्य शुभं भवतु चित्कोशेन । श्री शान्तिसुन्दरगणिभिश्चित्कोशमंजुषसमारचनादि कृत्यं विदधे ॥ श्रीः ॥ [-जैनसाहित्य प्रदर्शन, प्रशस्ति सं० पृ० १६] ७०. सिद्धांतोद्धार ● सं० १२१२ [ खंभात, शान्तिनाथभाण्डागार ] सं० १२१२ आषाढ वदि १२ गुरौ लिखितेयं सिद्धांतोद्धारपुस्तिका लेखक देवप्रसादेनेति । ग्रंथाग्रं० १६७० द्वितीयखंडे ॥ ९७१. आवश्यकनिर्युक्त्यादि प्रकरणपुस्तिका • सं० १२१३ [ पाटण, संघसक्क भा० ] संवत् १२१३ वर्षे भाद्रवा शुदि १० बुधे पुस्तिकेयं लिखितेति । श्राविकाचांपलयोग्या लिखिता एषा पुस्तिका । उदकानलचौरेभ्यो मूषकेभ्यस्तथैव च । रक्षणीया प्रयत्नेन यस्मात्कष्टेन लिक्षितेति ॥ १ ॥ ९७२. सुकोशलचरित्र • सं० १२१३ * [ पाटण, खेतरवसही पाटक ] संवत् १२१३ भाद्रपद वदि ११ भौमे अद्येह "" ९७३. राक्षसकाव्यटीका * सं० १२१५ * I ९७६. काव्यमीमांसा संवत् १२१५. ७४. काव्यप्रकाश • सं० १२१५ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] - कृती राजानक-मम्मटालकयोः । सं० १२१५ अ ( आ )श्विन सुदि १४ बुधे अद्येह श्रीमद(ण) हिलपाटके समस्तराजावलीविराजित महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक उमापतिवरलब्धप्रसाद प्रौढप्रताप निजभुजविक्रमरणांगण निर्जितशाकंभरीभूपाल श्रीकुमारपालदेव कल्याण विजयराज्ये पंडितलक्ष्मीधरेण पुस्तकं लिखापितं । १७५. प्रकरण पुस्तिका ● सं० १२१५ [ (१) बोटिक निराकरण ( २ ) वीनति आदि ] संवत् १२१५ माघ सुदि ८ बुधे । $७७. कविरहस्यवृत्ति .................... • सं० १२१६ संवत् १२१६ फाल्गुन वदि १ सोमे दिने । * सं० १२१६ * संवत् १२१६ चैत्र सुदि ४ सोमे श्री अजयमेरुदुर्गे पुस्तकमिदं लिलिखे । ७८. चंद्रप्रभचरित्र [ यशोदेवकृत संवत् १२१७ चैत्र वदि ९ बुधे ] सं० १२१७ 1 [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] ......................... [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्कह। ६७९. कल्पचूर्णि ® सं० १२१८ ® [पूना, राजकीय ग्रंथसंग्रह] कल्पचूर्णी समाप्ता ॥ छ ॥ ग्रंथ १६००० अंकतोऽपि ॥ छ । संवत् १२१८ वर्षे द्वि० आषाढ शुदि ५ गुरावयेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजित समलंकृत महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक उमापतिवरलब्धप्रसाद महाहवसंग्रामनिवूढप्रतिज्ञाप्रौढ निजभुजरणांगणविनिर्जितशाकंभरीभूपाल श्रीमत्कुमारपालदेव कल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविमहामात्य श्रीयशोधवले 5 श्रीश्रीकरणादौ समस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयति सतीत्येवं काले प्रवर्द्धमाने ॥ गंभूता चतुश्चत्वारिंशच्छतपथके देवश्री भोपलेश्वर शासनारूढभुज्यमान राजश्रीवैजलदेवेन पट्टितचाहरपल्लियामे तद्वास्तव्यश्रे......... साउकउ व्यव० शोभनदेवेन कल्पचूर्णिपुस्तकं पुस्तकसत्कद्रव्यं वृद्धि नीत्वा तेनैव श्रीमजिनभद्राचार्याणामर्थे लेखक सोहडपार्शल्लिखापितेति ॥ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ 10 सुरसरि सुरगिरि सुरतरु सुरनाहो जाव सुरालया इंति । विउसेहि पदिजंतं ताव इमं पुत्थयं होउ ॥ ६८०. ओघनियुक्ति-पिण्डनियुक्ति ® सं० १२१९ - [पाटण, सं० पा० भंडार] -पिंडनिञ्जत्ति समत्ता ॥ छ । संवत् १२१९ वर्षे श्रावण वदि ५ बुधे ॥ ठ० मुंधिगसुत पास देवेन पुस्तिकेयं लिखितेति ॥ मंगलमस्तु ॥ ६८१. हैमव्याकरणलघुवृत्ति ® सं० १२२१ ७ [पाटण, सं० पा० भंडार] 15 हैमव्याकरणलघुवृत्तिपंचमोऽध्यायः समाप्तः । संवत् १२२१ वर्षे माघवदि ६ बुधेऽद्येह आशा[पल्यां ?] श्रीविद्यामठे लघुवृत्तिपुस्तिका पंडि० वयरसीहेन लेषिता ॥ शुभं भवतु लेखक पाठकयोः । मंगलं महाश्रीः॥ ६८२. सप्ततिकाटीका [ मलयगिरिकृता] ® सं० १२२१ ® [पाटण, सं० पा० भंडार] संवत् १२२१ वर्षे चैत्र शुदि ४ बुधे । ग्रंथाग्र ३७८० ॥ ६८३. ज्ञाताधर्मकथा तथा रत्नचूडकथा ® सं० १२२१ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] -इति रत्नचूडकथा । ग्रं० ३०८० ॥ सम्वत् १२२१ ज्येष्ठ सुदि ९ शुक्रदिने अयेह श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज जिनशासनप्रभावक परमश्रावक श्रीकुमारपालदेवराज्ये श्रीचड्डावल्यां च श्रीकुमारपालदेवप्रसादास्पद श्रीधारावर्षनरेन्द्रराज्ये श्रीचक्रेश्वरसूरि श्रीपरमानंदसूरिप्रभूपदेशेन श्रीचड्डावल्लीपुरीवास्तव्य श्रे० पूना श्रावकेण आशाभद्र आशा पाहिणि छाहिणि 25 राजप्रमुख मानुषसमेतेन इदं ज्ञाताधर्मकथाङ्ग-रत्नचूडकथापुस्तकं लेखितमिति शिवमस्तु । श्रीचक्रे श्वरसूरिश्रीपरमानंदमूरि-श्रीयशःप्रभसूरीणाम् ॥ ६८४. त्रिविक्रमकृत-पञ्जिकोद्योत ® सं० १२२१ ® [पाटण, संघसत्क भांडागार] इति श्रीवर्द्धमानशिष्य श्रीत्रिविक्रमकृते पंजिकोद्योतेऽनुषङ्गपादः ॥ छ ॥ छ । संवत् १२२१ ज्येष्ठ वदि ३ सुक्रे लिखिता। 20 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८९. जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६८५. कर्मप्रकृति [ संग्रहणीटीका] ® सं० १२२२ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२२२ वर्षे.....................। ६८६. चंद्रप्रभचरित्र [ हरिभद्रसूरिकृत ] ® सं० १२२३ ® [पाटण, सं० पा० भंडार] ग्रंथाग्रं० । ८०३२ । छ । संवत् १२२३ कार्तिक वदि ८ बुधे श्रीचंद्रप्रभखामिचरितं भोजदेवेन 5 समर्थितं ॥ ६८७. दर्शनशुद्धिप्रकरण विवरण [देवभद्राचार्यकृत] सं० १२२४ ७ [पाटण, सं० पा० भंडार] सं० १२२४ वर्षे...'शुदि २ गुरौ । ६८८. स्याद्वादरत्नाकरावतारिका ® सं० १२२५७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२२५ वर्षे कार्तिक सुदि ७ बुधे अद्येह वटपद्रके पंडित प्रभाकरगणिनात्मार्थे रत्नाकरावतारिकापुस्तकं लिखापितमिति । ज्ञाताधर्मकथादिषडङ्गविवरण ® सं० १२२५ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२२५ वर्षे पौषसुदि ५ शनौ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजित महा राजाधिराज परमेश्वर भट्टारक उमापतिवरलब्धप्रसाद प्रौढप्रताप निजभुजविक्रमरणांगणविनिर्जित 1 शाकंभरीभूपाल श्रीमत्कुमारपालदेव कल्याण विजयराज्ये तत्पादपरोपजीविनि महामात्य श्रीकुमर सीहे श्रीश्रीकरणादिके समस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयति सति..................। ६९०. नंदीदुर्गपदव्याख्या ...® सं० १२२६ ७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १२२६ वर्षे द्वितीय श्रावण सुदि ३ सोमे अद्येह मंडलीवास्तव्य श्रीजाल्योधरगच्छे मोढवंशे श्रावक आसदेवसुतेन श्रे० पल्हणेन लिखिता । लिखापिता च श्रीगुणभद्रसूरिभिः । ___20६९१. महापुरिसचरिय [ शीलाचार्यकृत ] ® सं० १२२७ ® [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२२७ वर्षे मार्गसिर सुदि ११ शनौ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृत महाराजाधिराज श्रीमत्कुमारपालदेव कल्याणविजयराज्ये तत्प्रासाद महं० वाधूयेन श्रीश्रीकरणादौ समस्तमुद्राव्यापारान् परिपन्थयति विषयदंडाज्य (व्य ?) पथके पालाउद्रग्रामे वास्तव्य ले० आणंदेन महापुरि(रु)प चरितपुस्तकं समर्थयति । 25 8 ९२. उपदेशमालाविवरण ® सं० १२२७७ [पाटण, खेतरवसही पाटक] संवत् १२२७ अश्विन वदि ५ गुरौ लिखितं पासणागेन । उपदेशमालाविवरणं समाप्तं । सा० धणचंद्र सुत सा० वर्धमान सुत सा० लोहादेव तत्पुत्र कुलधर साहारण हेमचंद्र भ्रात्रि (४) आसधर पुत्र रत्नसीह पासदेव कुमरसीह उभयोः सत्कं सिद्धव्याख्याबृहद्वृत्तिपुस्तकं ॥ ६९३. योगशास्त्र-वीतरागस्तोत्र ग्रन्थयुगल ® सं० १२२८ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १२२८ वर्षे श्रावण शुदि १ सोमे ॥ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावली समलंकृत महाराजाधिराज परमार्हत श्रीकुमारपालदेव कल्याणविजयराज्ये तत्पादपनोपजीविनि 30 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह १११ सामंत मंत्रिणि वलापद्रपथकं परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने श्रीप्राग्वाटवंसोद्भव ठ० कटुकराज तत्सुत ठ० सोलाक तत्पत्नी राजुका ताभ्यां पुत्रेण जगत्सिहनाना संताणु . .." *x x x x x द्रमायातेन पं० थूलभद्रयोग्यपुस्तिका...।। ६९४. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति [पार्श्वगणिकृत] ® सं० १२२८७ [पाटण, सं० पा० भंडार] __संवत् १२२८ अश्विनि शुदि १५ बुधे श्रीमदणहिलपाटकाधिष्ठितेन *लेखक सुमतिना लिखितेयं । पुस्तिका । । ६९५. उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति ® सं० १२२८ ®. [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] संवत् १२२८ वर्षे मार्गसिर सुदि ३ भौमे । ६९६. हैम-उणादिसूत्र-वृत्ति ® सं० १२३१ ®. [पाटण, संघवीपाडा भं०] संवत् १२३१ वर्षे मार्ग सुदि ८ रवौ ले० मुंजालेन उणादिवृत्ति-पुस्तिका लिखितेति ॥ छ ॥ 10 ६९७. भगवतीसूत्र [मूलपाठ] ® सं० १२३१७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२३१ वर्षे वैशाख वदि एकादश्यां गुरौ अपराह्ने लेखक वणचंद्रेण लेखितेति । ६ ९८. धर्मोत्तरटिप्पनक [ मल्लवादी-आचार्यकृत ] ® सं१२३१ - [पाटण, संघसत्कभं०] इति धर्मोत्तरटिप्पनके श्रीमल्लवाद्याचार्यकृते तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ मंगलं महाश्रीः॥ संवत् १२३१ वर्षे भाद्रपदशुदि १२ रवी अद्येह जंत्रावलिग्रामवास्तव्य व्य० दाहडसुत 15 व्य० चाहडेन धर्मार्थ धर्मोत्तरटिप्पणकं लिखापितं ।। जंत्रावलिग्रामवास्तव्य पं० प्रभादित्यसुत पं० जोगेश्वरेण पुस्तकं लिखितमिति ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ मंगलं महाश्रीः॥ हितं न वाच्यं अहितं न वाच्यं हिताहितं नैव च भाषणीयम् । ____20 कु....."डको नाम कपालभिक्षुर्हितोपदेशेन बिलं प्रविष्टः॥ ६९९. उत्तराध्ययनसूत्र-मूलपाठ सं० १२३२७ [पाटण, संघवीपाडा में०] संवत् १२३२ फाल्गुनि शुद्धि ५ सोमे । ६१००. शतकचूर्णि® सं० १२३२ ७ - [पाटण, खेतरवसहीभाण्डागार] शतकचूर्णी समाप्ता । संवत् १२३२ वर्षे चैत्र वदि ३ सोमे ।। ६१०१. उत्तराध्ययनसूत्र-मूलपाठ ® सं० १२३६ ® [खंभात, शान्तिनाथ भांडागार] मंडलि समावासिय लेखक सोहिय नामेण । । सुहिसज्जणिक वल्लभ ठक्कुर वेसट पुत्तेण ॥१॥ 25 * पत्रस्य त्रुटितत्वात् पंक्तिरपूर्णा । + अत्र भूलभूतानि पुरातनान्यक्षराणि प्रभृश्य तदुपरि नवीनरक्षरैरेषा पंक्तिलिखिता दृश्यते । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनपुस्तकाशस्तिसङ्ग्रह । संवत् वार छत्तीसए माघमास सुकिलपक्खंमि । तीयाए सुक्कवाराए फुड लिहिया पुत्थिया एसा ॥२॥ ६१०२. उपदेशमालादि-प्रकरण-पुस्तिका ® सं० १२३७ - [पाटण, संघवीपाडा भं०] - संवत् १२३७ माघ वदि ९ सोमे ॥ पं० महादेवेन प्रकरणपुस्तिका लिखितेति ॥ छ । 5 अं. १०१२॥ ६१०३. महावीरचरिय [ गुणचंद्रकृत] ® सं० १२४२ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२४२ कार्तिक सुदि १३ गुरौ । ६१०४. न्यायकन्दली [श्रीधररचिता] ® सं० १२४२ ७ [पाटण, संघवीपाडा भं०] (१)न्यायकन्दली समाप्ता । सं० १२४२ फाल्गुन शुदि १ शुक्रे । ग्रं० ६०००। 10 (२)-०पदार्थप्रवेशकाख्या कृतिराचार्यपादानां ॥ ग्रंथाग्रं ७७७ ॥छ । संवत् १२४२ फाल्गुनवदि ६ गुरौ । पं० परमचंद्रगणीना [ मा] देशमासाद्य पं० महादेवेन न्यायकंदलीवृत्तिसूत्रं समाप्तमिति ॥ छ । ६१०५. प्रत्याख्यानविवरण ® सं० १२४४ ® [खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार] संवत् १२४४ वर्षे ज्येष्ठ वदि ५ रवौ प्रत्याख्यानविवरणं लिखितमिति ॥ ४० लक्ष्मीधरेणेति ॥ 15६१०६. नेमिचरित [ भवभावनावृत्त्यन्तर्गत ] ® सं० १२४५७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] -इति नवभवप्रतिबद्धं श्रीनेमिजिनचरिताख्यानं समाप्तं । संवत् १२४५ वर्षे चैत्र सुदि १४ रवौ चरितमिदं लिखितं । ६१०७. जिनदत्ताख्यान ® सं० १२४६ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] -जिणदत्ताख्यानकं समाप्तं । अं० ७५० । संवत् १२४६ वर्षे श्रावण वदि ६ गुरावयेह श्रीमदणहिल्लपाटके श्रावक संवदेवेन निजपितृभ्यः श्रेयोर्थ श्रीमदरिष्टनेमिचरिती जिनदत्तकथासमं लिखापितं पुस्तकं । ६१०८. पर्युषणाकल्प ® सं० १२४७ ® [खंभात, शांतिनाथ भंडार ] संवत् १२४७ वर्षे आषाढ सुदि ९ बुधेऽघेह श्रीभृगुकच्छे समस्तराजावलीविराजित महाराजाधिराज उमापतिवरलब्धप्रसाद जंगमजनार्दन प्रतापचतुर्भुज श्रीमद्भीमदेव कल्याणविजयराज्ये एतत्प्रसादादवाप्त श्रीलाटदेशे निरूपितदंड श्रीसोभनदेवे अस्य निरूपणया मुद्राव्यापारे रनसीहप्रतिपत्तौ इह श्रीभृगुकच्छे श्रीमदाचार्य विजयसिंहमूरिपट्टोद्धरण श्रीमजिनशासनसमुच्चयआदेशनामृतपयःप्रपापालक अबोधजनपथिकाज्ञानश्रमपीलितकर्णपुटपेयपरममोक्षास्पदविश्रामश्रीमदाचार्य श्रीपद्मदेवसूरिशिष्याणां हेतोः परमार्थमंडपपhषणाकल्प [पुस्तिका ] पं० साजणेन लिखितेति ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ १२०० ॥ 20 25 * अस्मिन् पुस्तके जिनदत्ताख्यानमपि लिखितमस्ति । तत्प्रान्तभागस्थपुष्पिकालेखोऽधस्तने क्रमाङ्के द्रष्टव्यः ॥ 1 नेमिचरितान्तभागस्थः पुष्पिकालेख उपरितने क्रमाङ्के द्रष्टव्यः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ११३ ६१०९. दशवैकालिकसूत्र [लघु टीका ® सं० १२४८७ [पाटण, संघसत्क.भां०] संवत् १२४८ वर्षे श्रावण सुदि ९ सोमे । अघेह आशापहयां दंड. श्रीअभयड प्रतिपत्ती लघु दशवैकालिकटीका लिखिता ॥ ६११०. समरादित्यचरित्र [प्राकृत] ® सं० १२५० ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] सं० १२५० वर्षे लिखितं । ग्रं० १००००। ६१११. योगशास्त्रवृत्ति ® सं० १२५१ ® [खंभात, शांतिनाथ भंडार] खस्ति श्रीविक्रमनृपतेः संवत् १२५१ वर्षे कार्तिक सुदि १२ शुक्र रेवतीनक्षत्रे सिद्धयोगे महाराजश्रीभीमदेव विजयराज्ये अवनिवनिताप्रशस्तकस्तूरिकातिलकायमानलाटदेशालंकारिणि सकलजनमनोहारिणि विविधधार्मिकविराजमानदर्भवतीस्थाने श्रीमालवंशीय श्रे० सामानंदनेन जगदानंदनेन निर्मलतमसम्यक्त्वधरेण श्रे० देवधरेण सकलधर्मकर्मावहितेन ठ० आभड 10 नरसिंहादि सुतसहितेन निजपुत्र जगदेव श्रेयोनिमित्तं श्रीवटपद्रकपुरप्रसिद्धप्रबुद्ध पं० केशवसुत पं०वोसरिहस्तेनाशेषविशेषज्ञानवतश्चमत्कारीदमप्रतिमप्रतापश्रीजिनशासनप्रभावकश्रीकुमारपालभूपालविधापितस्य श्रीहेमचंद्रसूरिरचितस्य श्रीयोगशास्त्रस्य वृत्तिपुस्तकं लेखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक-पाठक-वाचकानामिति ॥ छ॥ ६ ११२. योगशास्त्रविवरण [प्रथमप्रकाशमात्र] ® सं० १२५५ ७ [पाटण, संघवीपाडा भं०] 15 संवत १२५५ वर्षे मार्ग शुदि १ रवौ अद्येह श्रीपत्तने श्रीदेवाचार्यवसत्यां श्रीधनेश्वरसूरीणां हेतोभदशसहस्र योगशास्त्रवृत्तिः परमश्रावक ठकुर वर्द्धमानेन सुदर्शनग्रामवास्तव्य पारि० वीशलपार्थात् लिखापिता ॥ छ ॥ प्रथम प्रकाशवृत्ति ग्रंथ १८०० अष्टादशशतानि ग्रंथसंख्या ॥ शिवमस्तु । ६११३. नागानन्दनाटक [श्रीहर्षकविकृत ] ® सं० १२५८ ® [पाटण, संघसत्क भंडार ] 20 समाप्तं चेदं नागानन्दं नाम नाटकं । संवत् १२५८ वर्षे ॥ श्रीमदणहिलपाटके ॥ मुनिचंद्रेण लोकानंदयोग्या पुस्तिका लिखिता ॥ शुभं भवतु ॥ मंगलं महाश्रीः॥ ६११४. आवश्यकटिप्पन ® सं० १२५८ ७ [पाटण, संघवीपाडाभंडार] ___ संवत् १२५८ वर्षे मार्ग वदि ५ शुक्रे । ६११५. षडशीतिप्रकरणवृत्ति [ मलयगिरिकृता] ® सं० १२५८ ® [ पाटण, संघवीपाडा भं०] 25 संवत् १२५८ वर्षे पौष वदि ५ रवावद्येह श्रीमदणहिलपाटके [ समस्त राजा-] वलीविराजित महाराजाधिराज श्रीभीमदेवराज्ये पडशीतकवृत्तिः । मलयचंद्र (?) विरचिता ॥ ग्रंथाग्रं २०००॥ छ॥ ६११६. पंचांगीसूत्रं ® सं० १२५८ ७ [पाटण, खेतरवसहीपाटक भं०] • संवत् १२५८ वर्षे माघ शुदि १५ बुधे पचांगीसूत्रं भ० श्रीकल्याणरत्नसूरियोग्यं । 30 १५ जे.पु. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ११. जैनपुस्तकमशस्तिसङ्ग्रह । ६११७. प्रकरणपुस्तिका ® सं० १२५८ ७ [पाटण, संघसत्क भा०] [पत्र ११२-] संवत् १२५८ श्रावण शुदि ७ सोमे । श्रीमदणहिल्लपाटके श्रीहर्षपुरीयगच्छे श्रीमलधारिसत्का अजितसुंदरगणिन्या पुस्तिका लिखापिता ॥ ६११८. उपमितिभवप्रपंचा कथा ® सं० १२६१ ® [पाटण, तपागच्छ भाण्डागार] संवत् १२६१ ज्येष्ठ शुदि ४ सोमे ले. सोहडेन समातेति । [पश्चाल्लेखः- स्वस्ति श्रीविक्रमतः संवत् १२७४ वर्षे नागसारिकायां श्रीमालवंशालंकारेण वरयुवतितारसारहा[ रेण] श्रे० छाडू-यशोदेवीनंदनेन निखिलविवेकिजनानंदनेन जिनवचनातिश्रावकेण श्रे० आंबूसुश्रावकेण पत्नी लक्ष्मी सुत आशापाल सहितेन ज्ञानार्थिसाधुहितेन एषा उपमितिभवप्रपंचा चरमचतुर्थखंडपुस्तिका गृहीतेति ॥ छ । शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ छ । 10६ ११९. जयन्तीवृत्ति ® सं० १२६१ ७ [खंभात, शांतिनाथ भंडार] खस्ति श्रीविक्रमनरेंद्रसंवत् १२६१ वर्षे अश्विनवदि ७ रवौ पुष्यनक्षत्रे शुभयोगे श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज श्रीभीमदेवकल्याणविजयराज्ये प्रवर्त्तमाने श्रीप्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठिघवल-मरूपुन्या ठ० नाऊश्राविकया आत्मश्रेयोथे पंडितमुंजालहस्तेन मुंकुशिकास्थाने जयंतीवृत्तिपुस्तकं लेखयित्वा श्रीअजितदेवसूरीणां निजभक्त्या समर्पितमिति ॥ शुभं भवतु ॥ मंगलमस्तु ॥ मंगलं महाश्रीः॥ ६१२०. गौडवहनाम महाकाव्य ® सं० १२६४ ७ [पाटण, संघवीपाडा भं०] -इति गौडवहनाम महाकाव्यं समाप्तमिति ॥ राज वीसलेन आत्मार्थे लिखितमिति ॥ छ । संवत् १२६४ कार्तिक शुदि पंचम्यां शुक्रदिने मूल नक्षत्रे धनस्से चन्द्रे लिखितमिति ॥ ६१२१. सिद्धहैम अवचूर्णिका . ® सं० १२६४ छ [संभात, शान्तिनाथमन्दिर] 20 संवत् १२६४ वर्षे श्रावण शुदि ३ रखौ श्रीजयानंदमूरिशिष्येण अमरचंद्रेण आत्मयोग्या अवचूर्णिकायाः प्रथमपुस्तिका लिखिता । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः ॥ छ । [जैनसाहित्य-प्रदर्शन, प्र० सं० पृ० ४८] ६ १२२. लीलावतीकथा [ भूषणभट्टतनयकृता, प्राकृत] ® सं० १२६५ ® - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 25 संवत् १२६५ वर्षे पोषसुदि द्वादश्यां शनौ लीलावती नाम कथा । ६ १२३. दशवैकालिकसूत्र ® सं० १२६५ - [अमदाबाद, ऊजमबाई धर्मशाला ज्ञानभंडार] संवत् १२६५ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ५ रखौ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ द्विगुणवप्रवास्तव्य श्रीमालवंशीय आशाभ्रातृ व्यव० चेला पौत्रेण व्य० बउला भ्रातृ धांधापुत्रेण देवकुमारेण निजमातुर्धनदेवीना मिकायाः श्रेयोनिमित्तं लेखयित्वा दशवकालिकपुस्तिका निजभगिन्यै जगसुंदरिगणिन्यै पठनार्थ 80 प्रदत्तेति ॥ [जैनसाहित्य प्रदर्शन, प्रशस्ति सं० पृ० ६] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६१२४. व्याकरणचतुष्कावचूरि ® सं० १२७१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] व्याकरणचतुष्कावचूर्णिकायां षष्ठः पादः। प्रथमपुस्तिका प्रमाणीकृता । संवत् १२७१ कार्तिकशुदि षष्ठयां शुक्रे श्रीनरचंद्रसरीणामादेशेन पं० गुणवल्लमेन समर्थितेयं पुस्तिका । ग्रं० २८१८। ६१२५, धर्मरत्नवृत्ति ® सं० १२७१ - [पाटण, तपागच्छ भाण्डागार]5 संवत् १२७१ वैशाष सुदि ८ गुरौ प्रीमति देवसिरि पूनमतिश्च । आत्मश्रेयोर्थ पुस्तिका कारिता । ६१२६. संग्रहणीसूत्र [श्रीचंद्रसूरिकृत ] ® सं० [१२]७१ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] सं० [१२१] ७१ द्वि० श्रा० शु० ३ गुरौ ठ० राजडेन लिखितं । ६१२७. बृहत्संग्रहणी-आदिप्रकरणपुस्तिका ® सं० १२७२ ® [पाटण, संघवीपाडा भं०] संवत् १२७२ वर्षे चैत्रवदि ८ शनौ पुस्तिकेयं लिखितेति । श्रीनाणकीय गच्छे हरीरोहवास्तव्य 10 गोसा भनी पवहणि श्रीजयदेवोपाध्यायपठनार्थ प्रकरणपुस्तिका दत्ता। ६१२८. लिङ्गानुशासन ® सं १२७३ ® [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] संवत् १२७३ श्रावण वदि ८ रवौ लिंगवृत्तिपुस्तिका लिखिता । ६१२९. न्यायबिन्दु-लघुधर्मोत्तरटीका ® सं० १२७४ ७ [पाटण, संघवीपाडा भ०] लघुधर्मोत्तरटीका समाप्ता । शुभं भवतु । भुवनकीर्तिना धर्मोत्तरटीका लिखिता। सं० १२७४ लिखितं । ६१३०. योगशास्त्रविवरण ® सं० १२७४ ® पाटण, संघवीपाडा मं०] संवत् १२७४ वर्षे मार्ग वदि ८ गुरावधेह श्रीप्रल्हादनपुरे । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखकपाठकयोः। शिवमस्तु । ६१३१. भगवती सूत्रवृत्ति ® सं० १२७४ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 20 संवत् १२७४ वर्षे प्रथम ज्येष्ठ वदि ७ शुक्रे प्रल्हादनपुरे भगवतीवृत्तिपुस्तकमलेखि । [पश्चात्कालीन-पुष्पिकालेखः-] .........."कर्मसिंहपुत्रेण सा दुसाक श्रावकेण निजपित व्य ?] सा० पाहणसिंह पुण्यार्थ श्रीजिनपनसूरिसुगुरूपदेशेन श्रीभगवतीवृत्तिसिद्धांतपुस्तकं संवत् १४०० वर्षे मोचायितं । ६१३२. क्षेत्रसमासटीका [सिद्धाचार्यकृत ] ® सं० १२७४ - [पाटण, संघवीपाडा भं०] 25 संवत् १२७४ ज्येष्ठ वदि ७ गुरौ पुस्तिका लिखिता । ६१३३. कर्मविपाकटीका ® सं० १२७५ ® [पाटण, संघवीपाडा भं०] • कर्मविपाकटीका समाप्ता ॥ संवत् १२७५ वर्षे श्रावण सुदि १५ भौमे । मंगलं महाश्रीः। . 15 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । $ १३४. बृहत्संग्रहणी सूत्रादिप्रकरणपुस्तिका सं० १२७८ [ प्रद्युम्नवरिकृत गुरुगुणकुलक प्रान्ते - ] संवत् [१२] ७८ वर्षे ९१३५. उपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका सं० १२७९ समाप्तेयं प्रकरण पुस्तिका । सर्वसंख्या ग्रं० ३२४० अ० १९ ॥ 5 संवत् १२७९ वर्षे चैत्र वदि ३ खौ अद्येह श्री चंद्रावत्यां श्रीसोमसिंहदेव विजयराज्ये पुस्तिकेंयं समर्थिता लिषिता । मलयचंद्रेण । पत्र संख्या लिखितपत्र १९५ ॥ छ ॥ ९ १३६. उपदेशमालाविवरण • सं० १२७९ [ पाटण, संघसत्कभाडागार - संवत् १२७९ वर्षे आषाढ शुदि ६ सोमे अद्येह श्रीवटपद्रके पंडि० सोहलेन । ९ १३७. निघण्टुशेष [ हेमचन्द्राचार्यकृत ] सं० १२८० [ पाटण, संघसत् भ० ], संवत् १२८० वर्षे कार्त्तिकवदि [...] गुरौ निधंदुशेष पुस्तिका लिखितेति ॥ ॥ शुभं भवतु ॥ लेखकपाठकयोः ॥ 10 20 [ पश्चादन्याक्षरैर्लिखिता पंक्ति: संवत् १३४३ वैशाख शुदि ६ सो० चांचलसुत भां० भीम भां० श्रीवाइड सुत भां० जगत्सिंह भां० खेतसिंहश्रावकैः श्रीचित्रकूटवास्तव्यैर्मूल्येनेयं पुस्तिका गृहीता ॥ 15 8१३८. कादंबरीशेष ( उत्तरभाग ) • सं० १२८२ [ पाटण, खेतरवसही पाटक ] इति बाणकविविरचितायां कादंबरीकथायां तत्सूनुविरचितः शेषः परिसमाप्तः । संवत् १२८२ वर्षे कार्तिक शुदि २ भौम दिने कादम्बरी पुनःसन्धानपुलिंद्रखंड समाप्तं । १३९. काव्यादर्श काव्यप्रकाशसंकेतात्मक, सोमेश्वरकृत ] संवत् १२८३ वर्षे आषाढ वदि १२ शनौ लिखितमिति । १४०. पंचाशकादिप्रकरणसंग्रह • सं० १२८४ [पाटण, खेतरवसही पाटक माघवदि ४ भौमे । [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] 25 ९१४२. दशवैकालिकादिसूत्र पुस्तिका ० सं० १२८४ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] वोच्छेयगंडिया समत्ता || संवत् १२८४ वर्षे माघ वदि ५ शुक्रे समर्थिता लिखिता पद्मचंद्रेण । ९१४१. जीतकल्पचूर्णि व्याख्या * सं० १२८४ * [पाटण, तपागच्छ भाण्डागार ] * संवत् १२८४ वर्षे फागुण शुदि ७ सोमे । मंगलं महाश्रीः । शुभं लेखक पाठकयोः । • सं० १२८३ * [ जेसलमेर, बृहद् भां० ] [ खंभात, शान्तिनाथ भंडार ] संवत् १२८४ वर्षे फाल्गुनामावस्यां सोमे अह श्रीमदाघाटदुर्गे समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराज श्रीजैत्रसिंहदेव कल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्य श्रीजगत्सिहे समस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्त्तमाने सा० उद्धरसूनुना समस्त सिद्धांतोद्धारैकधुरंधरेण * पुस्तकमिदं महामात्यवस्तुपालले खितज्ञानकोष सत्कं ज्ञायते । अग्रेतनपत्रस्योपरि वस्तुपालस्तुतिरूपाणि ३-४ पद्यानि लिखितानि लभ्यन्ते । द्रष्टव्यं, पाटण जैनग्रन्थसूचि, भा० १, पृ० ४०० । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । विशुद्धसिद्धांतश्रवणसमुद्भूतप्रभूतश्रद्धातिरेकेण परमाहत सा० हेमचंद्रेण दशवैकालिक-पाक्षिकसूत्र-ओपनियुक्तिसूत्रपुस्तिका लेखिता । लिखिता च ठ० साहडसुतश्रवणोपासक ठ० महिलण सुतखेमसिंहेन ॥ छ ॥ शिवमस्तु संघस्य ॥ ६१४३. योगशास्त्र [चतुर्थप्रकाशपर्यंत] ® सं० १२८५७ [छाणी, श्रीविजयदानसूरि ज्ञानभंडार] संवत् १२८५ वर्षे ज्येष्ठ शुदि ८ गुरौ श्रीदेवपत्तने साढलयोग्या खाध्यायपुस्तिका लिखिता 5 ॥ छ । मंगलं महाश्रीः ॥ छ । ६१४४. हम्मीरमदमर्दन [ नाटक] ® सं० १२८६ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] (१) हम्मीरमदमर्दन, (२) वस्तुपालप्रशस्ति, (३) वस्तुपालस्तुति । संवत् १२८६........................। ६१४५. गौडवधमहाकाव्य [वाक्पतिराजकृत] ® सं० १२८६ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] 10 संवत् १२८६ वर्षे........"रवौ गौडवधनाम महाकाव्यं समाप्तमिति । कहावीढं सम्मत्तं ॥ छ । गाथातः ११६८ श्लोकतः १४९० । मंगलं भवतु सर्वजगतः । तथा च लेखकपाठकाभ्यां ॥ ६१४६. प्रकरणपुस्तिका ® सं० [१२] ८६ - [पाटण, संघवीपा० भ० ] (पृ० ४७) श्रीश्रीमालीय दधिस्थलीवास्तव्येन विश्वलेन श्रीपद्मदेवसूरीणां कृते लिखापिता ॥ (पृ० २२७)-संवत् ८६ वर्षे चैत्र शुदि ९ सोमे अद्येह श्रीमदनहिल..."( अग्रेतनपत्रस्य 15 नष्टत्वात् अपूर्णोऽयं पुष्पिकालेखः ।) (अन्याक्षरैः पश्चाल्लेखः-) संवत् १३०९ वर्षे चैत्रसुदि गुरौ प्रल्हादनपुरे चतुर्विधसंघसमक्षं श्रीपअप्रभदेवसूरिभिः पठनाय नलिनप्रभायाः प्रदत्तेति ॥ ६१४७. कथारत्नकोश ® सं० १२८६ - [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] संवत् १२८६ वर्षे श्रावण सुदि ३ बुधेऽयेह प्रल्हादनपुरे कथारत्नकोशपुस्तकमलेखीति 20 भद्रमिति । ६१४८. धर्मशर्माभ्युदयकाव्य [हरिश्चन्द्रकृत] ® सं०१२८७ [पाटण, संघवीपाडा भं०] संवत् १२८७ वर्षे हरिचन्द्रकविविरचितधर्मशाभ्युदयकाव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरि-आदे शेन कीर्तिचन्द्रगणिना लिखितमिति भद्रं ।। ६१४९. लिंगानुशासन [वामनाचार्यकृत ] ® सं० १२८७ ® [खंभात शान्तिनाथ भंडार] 25 संवत् १२८७ वर्षे वैशाखसुदि.... 'गुरावधेह वीजापुरीयश्रावकपोषधशालायां पूज्यश्रीदेवेंद्रसूरि विजयचंद्रसूरि उपाध्याय श्रीदेवभद्रगणिसद्गुरूणां धर्मोपदेशतः सा० रत्नपाल सा० लाहड श्रे० वील्हण ठ० आसपाल परसूत्रपुस्तिका लिखापिता ॥ ६१५०. कर्मस्तवटीका [गोविंदगणिकृता] ® सं० १२८८ छ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] . (१) संवत् १२८८ वर्षे पोष सुदि.गुरौ पुनर्वसु नक्षत्रे । 30 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 20 25 ११८ 30 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । लिखिता शीलचन्द्रेण टीका कर्मस्तवस्य [वै] | गणिन्या जिनसुन्दर्या हेतवे विशदाक्षरैः ॥ (२) कर्मविपाकवृत्तिप्रान्ते संवत् १२८८ वर्षे [१] खौ सुकर्मा च योगे । • सं० १२८८ संवत् १२८८ वर्षे शाके ११५४ वैशाष शुदि ९ शुक्रदिने लेखकपाठकयोः । १५१. पंचाशकप्रकरण ९१५२. हैमव्याकरणटिप्पनक 15 ९ १५३. ऋषभदेवचरित्र [ वर्द्धमानाचार्यविरचित ] सं० १२८९ [ पाटण, संघसक्क भां०] संवत् १२८९ वर्षे माघवदि ६ भौमेऽद्येह श्रीप्रल्हादनपुरे समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराज श्री सोमसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये श्री ऋषभदेवचरित्रं पंडि० धनचंद्रेण लिखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीरिति भद्रम् ॥ * सं० १२८८ [ पाटण, संघसत्क भां० ] संवत् १२८८ वर्षे आषाढवदि अमावास्यादिने भौमे राणक श्री लावण्य प्रसाददेवराज्ये बटकूपके वेलाकूले प्रतीहारशाखाटप्रतिपत्तौ श्रीमद्देवचंद्रसूरिशिष्येण भुवनचंद्रेण क्षुल्लकधर्मकीर्तिपाठयोग्या व्याकरणटिप्पनकपुस्तिका लिखितेति ॥ पं० सोमकलसेन शोधिता च ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ शिवतातिरस्तु श्रीजिशासनस्येति ॥ [ पाटण, संघषीपाडा भंडार ] चंद्रावत्यां लिखितं । शुभं भवतु १५४. पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति [ मलयगिरिकृता ] सं० १२८९ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १२८९ वर्षे फाल्गुन शुदि ४ सोमे स्तंभतीर्थनगरनिवासी श्रीश्रीमालवंशोद्भवेन ठ० साढासुतेन ठ० कुमरसिंहेन मलयगिरिनिर्मिता सूत्रमिश्रिता पिंड नियुक्तिवृत्तिर्लेखयांचक्रे । ९१५५. दशवैकालिकसूत्र • सं० १२८९ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १२८९ वर्षे ..... [ सर्वमुपरितनलेखानुसारि; तदन्ते - ] दशवैकालिकश्रुतस्कंधवृत्ति १, निर्युक्ति २, सूत्र ३ पुस्तकं लेखयांचक्रे । ९१५६. ओघनिर्युक्तिवृत्ति [ द्रोणाचार्यकृता ] सं० १२८९ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] [ संवतादि सर्वमुपरितनलेखानुसारि । तत्पश्चात्, अन्यहस्ताक्षरै:- ] श्रीसो...पुत्र सं० पूर्णसिंह भ्रातृ सा० श्रीतरुणप्रभसूरिपादपद्मेभ्यः प्रादायि । 'साल्हणाभ्यां मूल्येन गृहीत्वा सुगुरु सं० १२९० १५७. देववंदन कादिप्रकरणपुस्तिका [ खंभात, शांतिनाथ मन्दिर ] देववंदनकं समाप्तं ॥ छ ॥ संवत् १२९० वर्षे माघ वदि १ गुरुदिने । वरहुडिया नेमड सुत साहु सहदेव पुत्र सा० पेटा गोसलेन मातृ सौभाग्यदेवी श्रेयोऽर्थं लिखापितं । शुभं भवतु लेखक- पाठकयोः ॥ लिखितं वीजापुरे । लिखापितं लाहडेन । लिखितं पंडित अमलेण ॥ छ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६१५८. संग्रहणीटीका [मलयगिरिसूरिकृता] ® सं० १२९०७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] इति श्रीमलयगिरिविरचिता संग्रहणीटीका समाप्ता । संवत् १२९० वर्षे माघ वदि १ रवौ पुस्तकमिदं लिखितं । ६१५९. धर्माभ्युदयमहाकाव्य ® सं० १२९० ® [खंभात, शांतिनाथमंदिर भं०] संवत् १२९० वर्षे चैत्र सुदि ११ रवौ स्तंभतीर्थवेलाकूलमनुपालयता महं० श्रीवस्तुपालेन 5 श्रीधर्माभ्युदयमहाकाव्यमिदमलेखि ॥ छ ॥ छ ॥ छ ॥ शुभं भवतु श्रोत-व्याख्यातां ॥ ६१६०. नीतिवाक्यामृत [सोमदेवसूरिकृत ] ® सं० १२९० ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १२९० वर्षे प्रथम श्रावण वदि १० शनावोह श्रीमद्देवपत्तने गंड श्रीत्रिनेत्रप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तौ महं सीहाकेन नीतिवाक्यामृतसत्कपुस्तिका लिखापिता ॥ मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः। ६१६१. बृहत्कल्पचूर्णि® सं० १२९१ ® [पाटण, संघसत्क भाण्डागार] संवत् १२९१ वर्षे पौष शुदि ४ सोमे । ६१६२. उपदेशमालाविवरण ® सं० १२९१ ७ [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] ठक्कुर जैत्रसिंहस्य......पूज्य.. सिंहेन निपुणेनार्पिता । संवत् १२९१ वर्षे अषाढ शुदि १३ शनी उपदेशमालायाः पुस्तकं लिखितमिति । 15 ६१६३. खंडन-खंडखाय [श्रीहर्षकृत] ® सं० १२९१ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२९१ वर्षे श्रावण वदि ७ बुधे पुस्तिका लिखितेति । ६१६४. जीतकल्पसूत्र ® सं० १२९२ ® [पाटण, खेतरवसही पाटक] संवत् १२९२ वर्षे माघ शुदि १ गुरौ अद्येह श्रीभृगुकच्छे श्रीमानतुंगसूरिशिष्येण पंडि० गुणचंद्रेण जीतकल्पविवरणपुस्तिका लेखयित्वा श्री अभयदेवसूरीणां प्रदत्ता ॥ शुभं भवतु ॥ 20 ६१६५. प्रकरणपुस्तिका ® सं० १२९२ - [पाटण, संघवीपाडाभं०] संवत् १२९२ वर्षे चैत्र शुदि ५ गुरौ स्तंभतीर्थनगरनिवासिना श्रीश्रीमालवंशोद्भवेन ठ० साढासुतेन ठ० कुमरसीहेन इयं प्रकरणपुस्तिका लेखयांचके ॥ छ ॥ छ । मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु ॥ ६१६६. नंदीसूत्रटीका [मलयगिरिकृता] ® सं०१२९२ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] 25 सं० १२९२ वर्षे वैशाख शुदि १३ अघेह वीजापुरे श्रावकपौषधशालायां श्रीदेवभद्रगणि पं० मलयकीर्ति पं० अजितप्रभगणिप्रभृतीनां व्याख्यानतः संसारासारतां विचिंत्य सर्वज्ञोक्तशास्त्रं प्रमाणमिति मनसि ज्ञात्वा सा० धणपालसुत सा० रत्नपाल १० गजसुत ठ० विजयपाल श्रे० देल्हासुत श्रे० वील्हण महं० जिणदेव महं० वीकलसुत ठ० आसपाल श्रे० सोल्हा ठ० सहज़ा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सुत ठ० अरसीह सा० राहडसुत सा० लाहड प्रभृतिसमस्तश्रावकैर्मोक्षफलप्रार्थकैः समस्तचतुर्विध संघस्य पठनार्थ वाचनार्थ च समर्पणाय लिखापितं ॥ छ ॥ छ । ६ १६७. उपदेशमाला ® सं० १२९२ - [पाटण, खेतरवसही पाटक] संवत् १२९२ वर्षे कार्तिक वदि १४ रवावयेह श्रीभृगुकच्छे आसदेव्या पुस्तिका लिखापितेति ॥ 58 १६८. उपदेशमालाटीका [ रत्नप्रभकृता] ® सं० १२९३ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथाग्रं० १११५० तथा सूत्रसमं ग्रंथाग्रं० ११७६४। सं० १२९३ वर्षे पौष सुदि ५ गुरौ अद्येह चंद्रावत्यां लिखितं पं० मलयचंद्रेण ॥ शुभं भवतु ॥ 8 १६९. प्रकरणपुस्तिका ® सं० १२९३ ® [पाटण, संघवीपाडा भं०] संवत् १२९३ वर्षे भाद्रवा शुदि १० बुधे ॥ पुस्तिकेयं लिखितेति श्राविका चांपल योग्या 10 लिखिता एष पुस्तिका ॥ ६१७०. हैमव्याकरणपुस्तिका ® सं० १२९३ - [खंभात, शान्तिनाथ मंदिर] संवत् १२९३ वर्षे अश्विन सुदि १५ सोमे स्तंभतीर्थे श्रीनरेश्वरसरियोग्या हैमव्याकरणपुस्तिका लिखापिता ॥ ६१७१. महावीरचरित्र [ त्रिषष्टीय ] ® सं० १२९४ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] सं० १२९४ वर्षे चैत्र वदि ६ सोमे लिखितमिदं श्रीमहावीरचरितपुस्तकं । लेख० महिलणेनेति भद्रं । मंगलं महाश्रीः। ६ १७२. निशीथचूर्णि [द्वितीयखंड ] ® सं० १२९४ ७ [पूना, राजकीय ग्रंथसंग्रह] चुण्णी विसेसनामा निसीधस्स ॥ ॥ संवत् १२९४ वर्षे वैशाख शुदि ३ वावधेह स्तंभतीर्थ निवासिना श्रीश्रीमालवंशोद्भवेन ठ० साढासुतेन ठ० कुमरसीहेन निसीथचूर्णिद्वितीयखंडपुस्तकं 20 लेखयांचक्रे॥ ६१७३. गणधरसार्द्धशतकवृत्ति ® सं० १२९५ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२९५ वर्षे श्रीधारापुरी-नलकच्छकादिकृतविहारक्रमेण सुमतिगणिना श्रीमंडपदुर्गे वृत्तिरियं समर्थितेति । विदुषा जल्हणेनेदं जिनपादाम्बुजालिना । प्रस्पष्टं लिखितं शास्त्रं वंद्यं कर्मक्षयप्रदं ॥ 25$ १७४. कर्मविपाकटीका सं० १२९५७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १२९५ वर्षे अद्येह श्रीमन्नल[कच्छ] के समस्तराजावलीविराजित महाराजाधिराज श्रीमजयतुगिदेवकल्याणविजयराज्ये महाप्रधान पंच० श्रीधर्मदेवे सर्वमुद्राव्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने श्रीऊपकेशवंशीय सा० आसापुत्रेण श्रीचित्रकूटवास्तव्येन चारित्रिचूडामणि श्रीजिनवल्लभसूरिसंतानीय-श्रीजिनेश्वरसारिपदपंकजमधुकरेण श्रीशत्रुञ्जयोजयंतादितीर्थसार्थयात्राकरणसफलीकृतसंघमनोरथने सुगुरूपदेशश्रवणसंजातश्रद्धातिरेकप्रारब्धसिद्धांतादि सॅमस्तजैन 15 30 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १२१ शास्त्रोद्धारोपक्रमेण अद्य सा० सल्हाकेन भ्रातृदेदासहितेन कर्मस्तव-कर्मविपाक-पुस्तिका लेखिता । पं० धरणीधरशालायां पं० चाहडेन [लिखितं ?]। ६१७५. प्रवचनसारोद्धार (मूलपाठ) ® सं० १२९५ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १२९५ वर्षे भाद्रपद शुद्ध ५ पंचम्यां सोमे समर्थिता ॥ छ । ___ आदर्शदोषात् मतिविभ्रमाद्वा यत्किचिन्यूनं लिखितं मयात्र । तत्सर्वमार्यैः परिशोधनीयं प्रायेण मुह्यंति हि ये लिखंति ॥ ६ १७६. षड्विधावश्यकविवरण [योगशास्त्रगत] ® सं० १२९५ - [पाटण, संघवीपा० भ०] संवत् १२९५ वर्षे भाद्रपद शुदि ११ रवौ स्तंभतीर्थे महामंडलेश्वर राणक श्रीविसलदेवविजयराज्ये तनियुक्तदंडाधिपति श्रीविजयसीहप्रतिपत्तौ श्रीसंडेरगच्छीय गणि आसचंद्र शिष्य पंडित गुणाकर सौवर्णिक पल्लीवाल ज्ञाती ठ० विजयसीह ठ० सलषणदेव्योस्तनुज सो० ठ० तेजः-10 पालेन लेखयित्वा आत्मश्रेयसे पुस्तिका प्रदत्ता ॥ छ । लिखिता ठ० रतनसीहेन । मंगलमस्तु । ग्रंथान १३००। ६१७७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र-तृतीयपर्व ® सं० १२९५ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] मंगलं महाश्रीः ॥ छ ॥ छ ॥ १२९५ वर्षे आश्विनवदि २ रवौज्येह श्रीवीजापुरपत्तने समस्तराजावलीपूर्वकं तपाकीय श्रीपोषधशालायां चरित्रगुणनिधानसमस्तसिद्धांतकलोन्मानेन पारगेन तपा-15 देवभद्रगणि-मलयकीर्ति-पंडितकुलचंद्र-पंडि०देवकुमारमुनि-नेमिकुमारमुनिप्रभृति समस्तसाधून् । तच्चरणकमलानुभक्त परमश्रावक साधु० रतनपाल समस्तसिद्धांतपुस्तकानां पौषधशालाभारनिर्वाहक परमश्रावक श्रेष्ठिवील्हण द्वितीयभारनिर्वाहक साधर्मिकानां वात्सल्यतत्पर परमश्रावक ठ० आसपाल तृतीयभारनिर्वाहक निरंतरं पुस्तकसिद्धांतनिर्विकल्पभक्त्या सारतत्पर परमश्रावक साधु० लाहडप्रभृति समस्तश्रावकैः त्रिषष्टिपुस्तकं समस्त साधु-श्रावकाणां पठनवाचनपुण्यश्रे-20 योर्थ लिखापितं ॥ छ ॥ छ । लेखकपाठकानां शुभं भवतु ॥ छ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ शिवमस्तु ॥ आचंद्रार्क अयं पुस्तकं नंदतु ॥ ॥..... मंगलं महाश्रीः ॥ छ ॥ छ । ६१७८. पिंडविशुद्धि ® सं० १२९६ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १२९६ वर्षे कार्तिकवदि ६ सोमे पिंडविशुद्धिपुस्तिका लिखिता ॥ शुभं भवतु ॥ ६ १७९. उपदेशकन्दलीवृत्ति [बालचन्द्रविरचित] ® सं० १२९६ ® [पाटण, संघसत्क भं०] 25 शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः॥ संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुणशुदि ९ शुक्र समस्तराजावलिपूर्व महाराजाधिराज श्रीमीमदेवकल्याणविजयराज्ये तनियुक्त महामात्य दंड. श्रीताते श्रीश्रीकरणं परिपंथयतीत्येवं काले पुस्तकमिदं लिखितमिति ॥ श्रीः ॥ ६१८०. पाक्षिकसूत्रचूर्णि-वृत्ति ® सं० १२९६ ७ [खंभात, शांतिनाथ भंडार] इति पाक्षिकप्रतिक्रमणचूर्णिवृत्ति । ग्रंथान ३१०० एकत्रिंश शतानि । १६ जै० पु. 30 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। संवत् १२९६ वैशाख सुदि ३ गुरौ इहैव वीजापुरे श्रीनागपुरीयश्रावकैः पौषधशालायां सिद्धांतशास्त्रं पूज्यश्रीदेवेंद्रसूरि-श्रीविजयचंद्रसूरि-उपाध्यायश्रीदेवभद्रगणेाख्यानतः संसारासारतां विचिंत्य सर्वज्ञोक्तशास्त्रं प्रमाणमिति मनसा विचिन्त्य श्रीनागपुरीय वरहूडियासंताने सा० आसदेव सुत सा० नेमड सुत सा० राहड जयदेव सा० सहदेव तत्पुत्र सा० षेढा गोसल सा० राहडसुत जिणचंद्र धणेसर लाहड देवचंद्र प्रभृतीनां चतुर्विधसंघस्य पठनार्थ वाचनार्थं च आत्मश्रेयोथं च लिखापितं ॥ ६१८१. संग्रहणीटीका [ मलयगिरिकृता] ® सं० १२९६ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १२९६ वर्षे आसोय सुदि ३ गुरौ अद्येह राजावलीसमलंकृत महाराजाधिराज श्रीमद्भीम देवकल्याणविजयराज्ये प्रवर्तमाने महामंडलेश्वर राणक श्रीवीरमदेव राजधानौ विद्युत्पुरस्थितेन 10 श्री............। १८२. उत्तराध्ययनसूत्र ® सं० १२९७ ® [पाटण, खेतरवसही पाटक] संवत् १२९७ वर्षे उत्तराध्ययनपुस्तिका लिखितेति ॥ ६१८३. हैमबृहवृत्ति (तद्धितप्रकरण) ® सं० १२९७ - [पाटण, तपागच्छ भाण्डागार] संवत् १२९७ वर्षे कार्तिक वदि ११ रवौ तद्धितबृहद्वृत्तिपुस्तिका लिखितेति । शुभं भवतु 15 मंगलं महाश्रीः ॥ ६१८४. आवश्यकटिप्पनक ® सं० १२९७७ [खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार] ___ संवत् १२९७ वैशाख वर्षे मार्ग वदि १ शनिवारे आवश्यक टिप्पन पुस्तिका ठ० आसपालयोग्या । ६१८५. आवश्यकनियुक्ति ® सं० १२९७ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् नृपविक्रम १२९७ वर्षे श्रावण शुदि ७ भौमे ........ । 20६ १८६. प्रशमरतिप्रकरणवृत्ति [ हरिभद्रकृता] ® सं० १२९८ छ [पाटण, संघवीपा० भ०] सं० १२९८ कार्तिक शुदि १० बुधवारे प्रशमरतिपुस्तिका लिखितेति । मंगलं महाश्रीः । ६१८७. भगवतीसूत्रवृत्ति सं० १२९८ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] ग्रंथाग्रं १८६१६ । शुभं भवतु ॥ संवत् १२९८ वर्षे मार्ग सुदि १३ सोमे अद्येह वीजापुरे सा० सहदेव सा० राहडसुत लाहडेन सा० देवचंद्रप्रभृति कुटुंबसमुदायेन चतुर्विधसंघस्य पठनार्थ वाचनार्थं च लिखापितमिति ॥ १८८. आवश्यकवृत्ति सं० १२९८ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] सं० १२९८ फागुण सु ३ गुरौ अद्येह वीजापुरे पूज्यश्रीदेवन्द्रमूरि-श्रीविजयचन्द्रमुरिव्याख्यानतः संसारासारतां विचिन्त्य सर्वज्ञोक्तं शास्त्रं प्रमाणमिति मनसि ज्ञात्वा सा० राहडसुत जिण चंद-धणेसर-लाहड सा० सहदेव सुत सा० पेढा संघवी गोसल प्रभृति कुटुंबसमुदायेन चतुर्वि30. धसंघस्य पठनार्थ वाचनार्थं च लिखापितमिति । 25 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १२३ ६१८९. श्रावकप्रतिक्रमणटीका ® सं० १२९८ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १२९८ वर्षे चैत्र वदि ३ गुरौ पुस्तिका लिषिता । शुभं ॥ ६१९०. हैमव्याकरणान्तर्गत-तद्धितप्रकरण ® सं० १२९८ ® [खंभात, शांतिनाथ भंडार] संवत् १२९८ वर्षे द्वितीयभाद्रपदवदि ७ गुरौ लिखितेयं ॥ शुभं भवतु ॥ वीजापुरे पोषधशालायां तद्धितप्रथमखंडं समस्तश्रावकैलिखापितं ॥ ६ १९१. देशीनाममाला [ हेमचन्द्रसूरिकृता] ® सं० १२९८ ® [ पाटण, संघवीपाडा भंडार] (१) सं० १२९८ वर्षे आश्विनशुदि १० रखौ अद्येह श्रीभृगुकच्छ महाराणक श्रीवीसलदे... (२) महं० श्रीतेजपालसुत महं० श्रीलूणसीहप्रभृति पंचकुल प्रतिपत्तौ आचार्य श्रीजिणदेव... (३) मसूरिकता देसीनाममाला लिखापिता लिखिता च कायस्थज्ञातीय महं जयतसीह सु... ६ १९२. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति [ श्रीचन्द्रसूरिकृता] ® सं० १२९९ ७ 10 [पाटण, संघवीपाडा भंडार] सं० १२९९ भाद्रपद शुदि १५ बुधे ॥ छ । ६ १९३. हैमव्याकरणान्तर्गत-कृबृहद्वृत्ति ® सं० १३०० ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] संवत् १३०० वर्षे वीजापुरपोषधशालायां समस्तश्रावकैः कृद्धृहद्वृत्तिपुस्तिका लिखापिता । सा० रत्नपाल श्रे० वील्हण० ठ० आसपाल सा० लाहडेन लिखापितं ॥ ६१९४. शतपदिका ® सं० १३००७ [पाटण, संघसत्क भां०] सं० १३०० वर्षे ज्येष्ठ सुदि ३ रवौ लिखिता ॥ ग्रंथाग्रं अंकतोऽपि ५२०० । इति शतपदिका ॥ ६१९५. पंचांगीसूत्रवृत्ति ® सं० १३०१७ [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] संवत् १३०१ वर्षे फाल्गुण वदि १ शनौ अद्येह वीजापुरे पंचांगी सूत्रवृत्ति पुस्तकं ठ० अरसीहेण लिखितं ॥ उभय ११२८० ॥ संवत् १३०१ वर्षे फाल्गुण वदि १३ (१) शनौ इहैव प्रल्हादनपुरे श्रीनागपुरीयश्रावकेण पोषधशालायां सिद्धांतशास्त्रं पूज्यश्रीदेवेंद्रसूरि-श्रीविजयचंद्रसूरि-उपाध्यायश्रीदेवभद्रगणेाख्यानतः संसारासारतां विचिंत्य सर्वज्ञोक्तशास्त्रं प्रमाणमिति मनसा विचिंत्य श्रीनागपुरीय वरहुडियासंताने सा० आसदेव सुत साहु नेमड सुत राहड़ जयदेव सा० सहदेव तत्पुत्र संघ० सा० पेढा संघ० सा० गोसल० राहड सुत सा० जिणचंद्र धरणेसर लाहड देवचंद्रप्रभृतीनां चतुर्विधसंघ-25 पठनार्थ वाचनार्थ आत्मश्रेयोर्थ पंचागीसूत्रवृत्तिपुस्तकं लिखापितमिति ॥ छ ॥ छ । ६१९६. अनुयोगद्वारसूत्र (मूलपाठ) ® सं० १३०१ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] सं० १३०१ वर्षे आषाढ शु० १० शुक्र धवलक्ककनगरनिवासिना प्राग्वाटवंशोद्भवेन व्य० पासदेवसुतेन गंधिकश्रेष्ठिधीणाकेन बृहद्धातासीद्धाश्रेयोऽर्थ सवृत्तिकमनुयोगद्वारसूत्र लेखयांचवे॥छ॥ 15 20 . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२१ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १९७. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति [ हेमचन्द्रसूरिकृता] ® सं० १३०१ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] संवत् १३०१ वर्षे आषाढ शुदि १० शुक्र अद्येह धवलककनगरनिवासिना प्राग्वाटवंशोद्भवेन व्य० पासदेवसुत गंधिक श्रे० धीणाकेन बृहद्भाता सीद्धाश्रेयोर्थ ससूत्रा मलधारिश्रीहेमचंद्रसरि विरचिता अनुयोगद्वारवृत्तिलेखयां चक्रे । मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु चतुर्विधश्रीश्रवणसंघस्य ॥छ। ६१९८. आचारांगसूत्रवृत्ति ® सं० १३०३ ७ [स्तंभतीर्थ, शान्तिनाथ भंडार ] आचारनियुक्तिः समाप्ता । सर्वगाथा संख्या ३६७ आचारांगवृत्तिः १२३०० आचारसूत्रं २५०० । नियुक्तिः ४४७। संवत् १३०३ वर्षे मार्गवदि १२ गुरौ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज श्रीवीसलदेवराज्ये महामात्य श्रीतेजःपालप्रतिपत्तौ श्रीआचारांगपुस्तकं लिखितमिति कल्याणमस्तु श्रीजिन शासनप्रवचनाय ॥ मंगलं महाश्रीः॥ ६१९९. योगशास्त्रादिप्रकरणपुस्तिका ® सं० १३०३ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३०३ वर्षे भाद्रवा वदि १०।। ६२००. वीतरागस्तोत्र ® सं० १३०५७ [पाटण, खेतरवसही पाटक] __15 संवत् १३०५ वर्षे श्रावण सुदि [११] बुधे धनिष्ठानक्षत्रे शोभनयोगे समर्थिता । सा० रत्नसिं हेन लेखितं स्तंभतीर्थपौषधशालायां ॥ ६२०१. नैषधमहाकाव्य [श्रीहर्षकविकृत ] ® सं० १३०५ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] इति शशांकसंकीर्तनं नाम । संवत् १३०५ श्रा० शु० ३ शुक्रे ठ० मधेन नैषधमलेखि । ६ २०२. निर्भयभीमव्यायोग [ रामचन्द्रकविकृत] ® सं० १३०६ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] संवत् १३०६ वर्षे भाद्रवा वदि ६ रवावद्येह श्रीमहाराजकुल श्रीउदयसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये निर्भयभीमनामा व्यायोगो लिखित इति शुभं भवतु । ६२०३. धातुपारायणवृत्ति [हेमचन्द्राचार्यकृता] ® सं० १३०७ ® [पाटण, संघवीपा० भं०] (१)-समर्थितं धातुपारायणमिति । संवत् १३०७ वर्षे चैत्रवदि १३ भोमे श्रीवीसलदेवकल्याण25 विजयराज्ये वाम.... (२)......महं श्रीधांधप्रभृतिपंचकुल प्रतिपत्तौ श्रीचंद्रगच्छीय श्रीचंद्रप्रभसूरिशिष्यैः आचार्य श्रीनेमिप्रभसू............ (३).......श्रीहेमचंद्रधातुपारायणवृत्तिपुस्तिका लेखिता । लिखिता च ठ० देवश...... ६२०४. उपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका ® सं १३०८७ [खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार] 30 संवत् १३०८ वर्षे वैशाख शुदि १४ बुधे गुणदा धारूभ्यां (?) महणू पुत्रिकया आत्मश्रेयोऽर्थ प्रकरणपुस्तिका ठ० देवशर्मपार्थे लेखिता इति भद्रं ॥ 20 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १२५ ६२०५. धन्यशालिभद्रचरित्रादिपुस्तिका ® सं० १३०९ ® [जेसलमेर, वृहद् भांडागार] -सप्तमांगचूर्णिः । ग्रंथाग्रं १०१ । मेदपाटे वरग्राम वास्तव्य श्रे० अभयी श्रावक पुत्र समुद्धर श्रावकभार्यया कुलधरपुञ्या साविति श्राविकया धन्य-शालिभद्र-कृतपुण्य [ अतिमुक्त ?] महर्षि चरितादिपुस्तिका खश्रेयोनिमित्तं लेखिता । सं० १३०९।। ६२०६. पाक्षिकसूत्रवृत्ति [यशोदेवसूरिकृता] ® सं० १३०९ - [खंभात, शान्तिनाथ भंडार ]5 मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ संवत् १३०९ वर्षे माघ वदि १४ सोमे । खस्ति श्रीमदाघाटे महाराजाधिराजभगवन्नारायणदक्षिणउत्तराधीशमानमर्दन श्रीजयतसिंहदेवतत्पद्दविभूषणराजाश्रिते जयसिंघविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महं० श्रीतल्हणप्रतिपत्ती श्रीश्रीकरणादिसमस्तव्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्त्तमाने ठ० वयजलेन पाक्षिकवृत्ति लिखितेति ॥ शिवमस्तु ॥ ६२०७. धर्मरत्नप्रकरणलघुवृत्ति ® सं० १३०९ - [जेसलमेर, तपागच्छ उपाश्रय भाण्डागार] संवत् १३०९ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १ बुधे अद्येह धवलक्कके श्रे० सीधा सुत सहजलेन धर्मरत्नप्रकरण पुस्तिका लिखापिता। ६२०८. उत्तराध्ययनसूत्रगतअध्ययन ® सं० १३०९ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] सं० १३०९ आषाढ वदि सोमे श्रीभद्रेश्वरे वीरतिलकेन भुवनसुंदरियोग्या पुस्तिका लिखिता । 15 ६२०९. उपांगपंचकवृत्ति ® सं० १३१० - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३१० वर्षे गंभूकायामुपांगपंचकस्य वृत्तिलिखिता ॥ छ ॥ भद्रं ॥ ६२१०. हितोपदेशामृतादिप्रकरण ® सं० १३१० ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार ] संवत् १३१० वर्षे मार्गपूर्णिमायां अघेह महाराजाधिराज श्रीविश्वलदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य श्रीनागडप्रभृति पंचकुलप्रतिपत्तौ एवं काले प्रवर्तमाने प्रकरण 20 पुस्तिका साधु चंदनेन लिखितेति । लेखिता च उ० सांगाकेनेति भद्रं । ६२११. उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति ® सं० १३१०७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३१० वर्षे माघशुदि १३ रवौ पुष्यार्के महाराजाधिराज श्रीवीसलदेवकल्याणविजयराज्ये महामात्य श्रीनागडमंडलेश्वर मुद्राव्यापारे अद्येह प्रल्हादनपुरस्थितेन ठ० नाग......श्रीकुमार सुत जींदडयोग्यमुत्तराध्ययनवृत्तिपुस्तकं लिखितं ॥ छ ॥ ... ... ... ... .... 25 व्यासतुल्योपि यो वक्ता नानाशास्त्रविशारदः । मुह्यति लिखमानस्तु किं पुनः स्वल्पबुद्धयः॥ ....... ... शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य ॥ ६ २१२. आवश्यकनियुक्ति ® सं० १३११ - [पाटण, तपागच्छ भाण्डागार] संवत् १३११ वर्षे लौकिक ज्येष्ठ वदि १५ रवावद्येह स्तंभतीर्थे महं श्रीकुम्वरसीह प्रतिपत्तौ संघ० वील्हणदेवियोग्या आवश्यकपुस्तिका लिखिता ॥ छ ॥ मंगलमस्तु समस्तश्रीश्रमणसंघस्य 80 ॥ गा० २५००॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 58२१४. ज्ञानपंचमीकथा [ महेश्वरसूरिकृता ] सं० १३१३ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १३१३ वर्षे चैत्र शुदि ८ खौ महाराजाधिराज श्रीश्रीवीसलदेव कल्याणविजयिराज्ये तनियुक्त श्रीनागडमहामात्ये समस्त व्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने पंचमीपुस्तिका लिखापिता । .........ज्ञान ९ २१५. वाराही संहिता • सं० १३१३ संवत् १३१३ वर्षे भाद्रपद वदि १५ खौ । मंगलं महाश्रीः । ९२१६. कुसुममालावृत्ति • सं० १३१३ ग्रंथाग्र० १३८६८ । सं० १३१३ वर्षे आश्विन सुदि १० शनौ ९ २१७. हैमी नाममाला [ अभिधानचिन्तामणि ] सं० १३१४ 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । * सं० १३१३ [ छाणी, श्रीदानविजयज्ञानभंडार ] संवत् १३१३ वर्षे पौष सुदि ७ सोमे अद्येह आशापट्टयां श्रीपद्मप्रभसूरिशिष्य नैष्ठिकशिरोमणि वाचनाचार्यविनयकीर्तियोग्य सार्द्धशतकवृत्तिपुस्तिका ठ० विल्हणेन लिखिता । इति भद्रं ॥ छ ॥ शुभं भवतु लेखक पाठकयोः ॥ 25 १२६ ६२१३. सार्द्धशतकवृत्ति 30 [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] कुसुममालापुस्तकं समर्थितं । [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १३१४ संजतसिरियोग्या पुस्तिका लेखिता । [ पत्रपश्चाद्भागे - अन्याक्षरैः - ] ९० ॥ पूज्य श्रीसुमेरु सुंदरिमहत्तरामिश्राणामुपदेशतः श्रीचित्रकूट महादुर्गे गंधीमाणिक्यमहं श्रीनीडा गृहिण्या महं श्रीशृंगार देविसुश्राविकया श्रीनाममालापुस्तिका पार्श्वस्थव्रतिनां शकाशात् गृहीत्वा तिलकप्रभागणिन्याः पठनकृते समर्पिता || शुभमस्तु || ९ २१८. हैमव्याकरणचतुष्क 20 $ २१९. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि [विजयसिंहसूरिकृता ] * सं० १३१५ * [ पूना, राजकीयग्रंथसंग्रहालय ] संवत् १३१५ वर्षे चैत्र वदि चतुर्थीदिने बुधवारे । स्तंभतीर्थे । पं० शीलभद्रेण । दशार्णभद्रस्य योग्या । व्याकरण चतुष्कपुस्तिका लिखिता || [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] - सावगपडिकमणसुत्तचुन्नी समत्ता | शुभं भवतु | संवत् १३१७ वर्षे माहसुदि ४ आदित्य दिने श्रीमदाघाटदुर्गे महाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारकउमापतिवर लब्धप्रौढप्रतापस मलंकृत श्री तेजसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य श्रीसमुद्धरे मुद्रा व्यापारान् परिपंथयति श्रीमदाघाटवास्तव्य पं० रामचंद्र शिष्येण कमलचंद्रेण पुस्तिका व्यालेखि ॥ ९ २२०. भगवतीसूत्रवृत्ति • सं० १३१८ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १३१८ वर्षे पौष शुदि ९ शनौ श्रीमरुकोटवास्तव्य सा० हरियडसुत सा० थिरपाल तत्तनय....... - वीर नेपाभ्यां कुटुंबश्रेयसे पितृष्वसा राल्ही श्रेयोर्थं इह वामनस्थले के... भगवतीवृत्ति पुस्तकं लिषापितं ॥ * सं० १३१७ * [ पाटण, संघसत्क भां० ] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १२७ ६२२१. त्रिषष्टिशलाकाचरित्र (सप्तमपर्व) ® सं० १३१८ ® [खंभात, शांतिनाथ भंडार] -ग्रंथाग्रंथ ३८८८ । सं० १३१८ वर्षे ज्येष्ठ शुदि २ रवावद्येह दंडा............ पति महाराजाधिराज श्रीअर्जुनदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहं श्रीसोम प्रतिपत्तौ ठक्कु० विकम्बसी........... लेखितेयमिति ॥ यादृशं० ॥१॥ शिवमस्तु सर्वजगतः ॥ मंगलं महाश्रीः॥ ६२२२. त्रिषष्टीय-महावीरचरित्र सं० १३१९ ® [जेसलमेर, बृहद् भांडागार] द्वियुग्माक्षीन्दुसंख्याने वर्षे श्रीसंघमध्यतः । व्याख्यानयच्च तं.. श्रीमद्देवेन्द्रसूरिभिः ॥९॥ संवत् १३१९ वर्षे माघ वदि १० शुक्रे ठ० विक्रमसिंहेन पुस्तकमिदं लिखितमिति । संवत् १३४३ आषाढ सुदि १ साधु वरदेवसुतेन सकलदिग्वलयविख्यातावदातकीर्तिकौमुदी विनिर्जिताम (भ्र ?.) चन्द्र साधु श्रीचन्द्रभ्रात्रा अमलगुणगणरत्नरोहणेन साधुमहणश्रावकेण 10 खेन श्रीयुगादिदेवचरित्रादिपुस्तकं गृहीत्वा श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरुभ्यः प्रदत्तं व्याख्यानाय । ६२२३. कथारत्नसागर [ नरचन्द्रसूरिकृत ] ® सं० १३१९ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३१९ वर्षे भाद्र शुदि ५ शुक्रेऽद्येह श्रीमत्पत्तने महाराजाधिराज श्रीमदर्जुनदेवविजयराज्ये तनियुक्त महामात्य श्रीमालदेव प्रतिपत्तौ महं० वीजाशालायां ठ० धनपालेन तरंगकथापुस्तिका लिखिता ॥ मंगलं ॥ छ । 15 ६२२४. महावीरचरित्र (हेमचन्द्रीय) ® सं० १३२४ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] सम्वत् १३२४ वर्षे मार्ग वदि १३ रखौ अद्येह श्रीमदुञ्जयिन्यां श्रीमहावीरचरित्रपुस्तकं सा० देवसिंहेन मातुःश्रेयोऽथं लिखापितं ॥ ६२२५, धर्मरत्नप्रकरण ® सं० १३२५ - [खंभात शान्तिनाथ भंडार] धम्मरयणपगरणं समत्तं ॥ छ ॥ ६०३ ॥ छ । मंगलं महाश्रीः ॥ छ ॥ शुभं भवतु लेखक-20 पाठकावधारणादिसमस्तश्रावकलोकजनानां ॥ छ । सं० १३२५ वर्षे माघ वदि ९ सोमेऽद्येह वीजापुरे महाराजश्रीमदर्जुनदेवकल्याणविजयराज्ये तनियुक्त महं० श्रीसोमप्रतिपत्ती मालवेत्य व्य० सा० रामचंद्र सुत सा० कुम्वराकस्य पठन श्रेयोऽर्थ खाध्यायपुस्तिका ठक्क० विक्रमसिंहेन लिखिता ॥ छ । यादृशं......॥ 8 २२६. दशवैकालिकसूत्रवृत्ति [हरिभद्रसूरिकृता] ® सं० १३२६ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३२६ वर्षे मार्ग शु० ४ गुरौ प्रभातेऽद्येह श्रीमदणहिल्लपाटके समस्तराजावलिसमलंकृत महाराजाधिराज श्रीमदर्जुनदेवराज्ये महामात्य श्रीमालदेवप्रतिपत्तौ श्राव०...... .....धिर्मार्थ सलषपुरेत्य ले० श्री........... श्रिीवीतरागप्र[सा]दात् श्रा० धणपाल सुश्रा० मुंजाकाभ्यां मनशुद्ध्या लिखितमिदं ॥ छ । - 30 + अत्र लिपिकाराभ्यामेव कस्यचिदातुर्नाम लिखनार्थ रिक्तं स्थानं मुक्तमनुमीयते । 25 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपद १२८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६२२७. वर्द्धमानखामिचरित ® सं० १३२६ ® [खंभात, श्रीविजयनेमिसूरिशास्त्र भंडार] सं० १३२६ वर्षे श्रावण सुदि २ सोमे अद्येह धवलकके महाराजाधिराज श्रीमद् अर्जुनदेवकल्याण विजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य श्रीमल्लदेवे स्तंभतीर्थनिवासिन्या पल्लीवालज्ञातीय भण० लीलादेव्या आत्मनः श्रेयोऽर्थ इदं महापुरुषचरित्रपुस्तकं लिखापितमिति । मंगलं महाश्रीः। शिवमस्तु सर्वजगतः परिहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ ६२२८. नवपदप्रकरणटीका [ देवगुप्तकृता] ® सं० १३२६ - [पाटण, संघवीपा० भां०] संवत् १३२६ वर्षे अश्वयुक् सुदि प्रतिपदायां बुधे । ग्रंथाग्रं २३०० । ६२२९. आचारांगसूत्र ® सं० १३२७ ® [खंभात, शान्तिनाथ भंडार] 10 संवत् १३२७ वर्षे पौषशुदि १० भौमे आचारांगपुस्तकं ठ० विक्रमसिंहेन लिखितमिदमिति ॥ मंगलमस्तु ॥ ६२३०. पाक्षिकसूत्रवृत्ति ® सं० १३२७ [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] संवत् १३२७ वर्षे माघ शुदि ९ बुधे । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु । ग्रंथाग्रं २७०० । ६२३१. अभिधानचिन्तामणिनाममाला सटीका ® सं० १३२७ 8 [पाटण, संघवीपाडा भंडार] (१) संवत् १३२७ वर्षे वैशाख शुदि ५ गुरौ अद्येह (२) श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज श्रीमत् अर्जुनदेव कल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य श्री गमा (माल ?). (३) देवे प्रवर्तमाने महाराजकुमार श्रीसारंगदेवेन भुज्यमान मुद्गवट्यां महं श्रीमहीपालप्रभृति20 पंचकुलप्रतिपत्तौ पूज्य परमा (४) ......ध्य' 'तमोत्तम परमपूजार्चनीय श्रीनरचंद्रसूरि तत्पट्टप्रतिष्ठित प्रभुश्रीमद[न]चंद्रसूरि तत्पप्रतिष्ठित प्रभु श्रीमलय(५) ..... चरणचंचरीकेन पं० सहस्रकीर्तिना आत्मपठनार्थ अभिधानचिंतामणिनाममाला पुस्तिका लिखापिता। 25 (६) [पंक्तिस्त्रुटिता । अत्रैव पुस्तकेऽन्यस्मिन् त्रुटितपत्रे-] (१) संवत् १३२७ वर्षे वैशाख शुदि (२) दशम्यां महाराजाधिराज श्रीमदर्जुनदेव...."विजयराज्ये मगउडिकायां स्थितेन... (३) “य रत्नसारगणिचरणकमलोपजीविना पंडि""आत्मपठनाय लिखापिता....... । ६२३२. सूयगडांगवृत्ति ® सं० १३२७ ७ [खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार] 30 सर्वसंख्याजात श्लोक १६६०० ॥ संवत् १३२७ वर्षे भाद्रपद वदि २ रवावधेह वीजापुरे ॥ 15 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह | १२९ १२३३. वासुपूज्यचरित्र [ वर्द्धमानसूरिकृत ] सं० १३२७ • [जैसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १३२७ वर्षे आश्विन वदि १० बुधे श्रीमदर्जुनदेवकल्याणविजयराज्ये श्रीवासुपूज्य - चरितं लिखितं । ६२३४. दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि * सं० १३२८ • [ खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार ] संवत् १३२८ वर्षे आषाढ शुदि १२ गुरावद्येह षयरोड ग्रामवास्तव्य ठ० चंडसुत ठ० लक्ष्मणेन 5 दशाश्रुतस्कंधस्य चूर्णिर्लिखिता । मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु लेखक पाठकयोः ॥ • सं० १३२९ * [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] सं० १३२९ वर्षे पौषवदि १२ भौमे अद्येह पयरोड ग्रामवास्तव्य गुर्जर - भिन्नवालज्ञातीय ठ० चंडत ४० लक्ष्मणेन लिखितं । इदं पुस्तकं पुतिलकश्री धर्मघोषसूरीणां ॥ ९ २३६ . उपदेशमाला [ मलधारिहेमसूरिकृता ] सं० १३२९ [ पाटण, संघवीपाडा भं०] 10 श्रीमलधारिहेमसूरिविरचितोपदेशमाला समत्ता ॥ सं० १३२९ वर्षे अश्विन शुदि १२ बुधे ह युवराजवाटके लिखिता ॥ ९२३५. संघाचारभाष्य ९२३७. निशीथन्चूर्णि ( प्रथमखंड ) * सं० १३३० [ पाटण, संघसत्कभाण्डागार ] संवत् १३३० वर्षे वैशाख शुदि १४ गुरौ निशीथ प्रथमखंडचूर्णी पुस्तकं लिखितमस्ति ॥ ९२३८. योगशास्त्रादिप्रकरणपुस्तिका • सं० १३३० यदक्षरपरिभ्रष्टं मात्राहीनं च यद् भवेत् । क्षंतव्यं तद् बुधैः सर्व कस्य न स्खलते मनः ॥ सं० १३३० वर्षे अश्विन शुदि ५ गुरौ अधेह आशापट्ट्यां । २३९ कर्मप्रकृतिवृत्ति [ मलयगिरिकृता ] सं० १३३१ ४ [ पाटण, तपागच्छ भाण्डागार ] संवत् १३३१ वर्षे प्रभुश्री विजयचंद्रसूरिश्रमणोपासक साहु रत्नपाल साहु सामंतसीह आत्मश्रे - 20 योर्थं कर्मप्रकृतिवृत्ति द्वितीयखंडं लिखापितं । वीजापुरीय पौषधशालायां । ग्रं० श्लो० ४५७७ ॥ ३ २४०. उपदेशमालावृत्ति [ सिद्धर्षिकृता ] • सं० १३३१ [ पाटण, संघसत्कभण्डार ] • महाश्रीः । उपदेशमालाविवरणं समाप्तं । ग्रंथाग्रं ९५०० मंगलं शुभं भवतु लेखक पाठकयोः । संवत् १३३१ वर्षे प्रथमज्येष्ठवदि १५ शनौ महं० अरिसिंह पुस्तकं लिखितम् ॥ १२४१. उपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका • सं० १३३२ ७ [पाटण, वाडीपार्श्वनाथ भाण्डा०] 25. संवत् १३३२ माघवदि शनौ श्रीभर्तृपुरीयगच्छे ईश्वरसूरिशिष्य पं० नरचन्द्रेण गृहीता पुस्तिका ॥ २४२. अनुयोगद्वारचूर्णि [ खंभात, शान्तिनाथमन्दिर ] * सं० १३३३ * संवत् १३३३ वर्षे चैत्र सुदि ११ बुधे अद्येह धवलकके । १७ जै० पु० [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ]15 - जैन साहित्य प्रदर्शन, प्र.सं. पू. ४८ ॥ 30 " 1. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनपुस्तकर्मशस्तिसङ्ग्रहः । ६२४३. कल्पसूत्र चूर्णि • सं० १३३४ [ पूना, राजकीयग्रंथसंग्रह ] संवत् १३३४ वर्षे मार्ग शुदि १३ गुरौ । कल्पचूर्णी समाप्ता शुभं भवतु सर्वजगतः ॥ ६ २४४. शतक टिप्पनक * सं० १३३४ * [ अमदाबाद, ऊजमबाई धर्मशाला भंडार ] 5 10 15 20 25 30 इति श्री सिताम्बर श्रीमुनिचंद्रसूरिविरचितं शतक टिप्पनकं समाप्तं ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य ग्रन्थमानं विनिश्वितं । शतानि नवपंचाशदधिका पंचभिस्तथा ॥ ग्रंथाग्र ९५५ ॥ यदक्षरं परिभृष्टं मात्राहीनं च यद् भवेत् । संतव्यं तद्बुधैः सर्वकस्य न स्खलते मनः ॥ संवत् १३३४ वर्षे द्वि० फागुण वदि ११ शनावद्येह श्रीमत्पत्तने महाराज श्रीसारंगदेवराज्ये श्रीसंघेन शतकटिप्पनकं लिखापितं । ठ० लाषणेन लिखितं । २४५. उपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका • सं० १३३४ * [ पाटण, संघसत्क भां० ] संवत् १३३४ वर्षे भाद्रवा शुदि १ शनौऽद्येह श्रीदेवपत्तने सकलराजावलीपूर्व परमपाशुपताचार्य महामहत्तर पंडित गंडप्रवर बृहस्पति अग्रा० पारि महं श्री अभयसीहप्रभृति प्रतिपत्तौ उसवालज्ञातीय साहु ० भावड तत्पुत्र साहु धेनसर तत्पुत्र गुणधरेण पितृभगिनी पुण्यार्थ प्रकरण पुस्तिका लिखापिता । मंगलं महाश्रीः ॥ ९२४६. कल्पसूत्र • सं० १३३५ • सं० १३३५ वर्षे आषाढ सुदिगुरौ प्रह्लादनपुरे लिखितः । ९२४७. ह्याश्रयमहाकाव्य [ हेमचन्द्रसूरिकृत ] ० सं० १३३५ [ पाटण, संघषीपाडा मं०] इत्याचार्य श्रीहेमचंद्रकृतौ चौलुक्यवंशे व्याश्रयमहाकाव्यं विंशः सर्गः ॥ छ ॥ क्षेमं भूयात् श्री श्रमण संघस्य ॥ छ ॥ संवत् १३३५ वर्षे श्रावण शुदि १५ सोमेऽद्येह श्रीपत्तने श्रीसारंद (ग) देवराज्ये याश्रयमहाकायं ठ० लाषणेन लिखितं ॥ ९ २४८. कल्पसूत्र • सं० १३३६ [ पाटण, संघसत्क भाण्डागार ] (१) संवत् १३३६ वर्षे ज्येष्ठ शुदि ५ खौ श्रीअणहिल्लपुरे महाराज श्रीसारंगदेवस्य विजयराज्ये लिखितं शुभमस्तु श्रीसंघभट्टारकस्य । (२) कालिकाचार्यकथाप्रान्ते पुनः संवत् १३३६ वर्षे ज्येष्ठ शुद्धि ५ खौ श्रीपत्तने महाराजाधिराजस्य श्रीसारंगदेवस्य विजयिनि राज्ये श्रीमत्पर्यूषणाकल्पोऽयं लिखितः । शुभं भवतु श्रीचतुर्विधसंघ भट्टारकस्य । मंगलं महाश्रीः । श्रे० बील्हणेन मातृमोहिणिश्रेयोऽर्थ श्रीपर्युषणाकल्पपुस्तिका लिखापिता । • प्रदत्ता पूज्य श्रीदेवसूरिभ्यः । [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। ६२४९. कथासंग्रहपुस्तिका सं० १३३९ ०. [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३३९ वर्षे द्वितीय कार्तिक व० [ ] भौ० । ६२५०. आदिनाथचरित्र [वईमानाचार्यकृत] ® सं० १३३९ ® [जेसलमेर, बृहद् भांडा०] सं० १३३९ वर्षे लौकिक आषाढ सुदि प्रतिपदिने रखौ पुष्यार्के दिकूलंकषकीर्तिकल्लोलिनीजलधि श्रीमहाराजाधिराज श्रीमत्सारंगदेव कल्याणविजयिनि तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य 5 श्रीकान्हे समस्तश्री......"चतुचतुरोत्तरमंडलकिरणव्यवस्थितबदरसिद्धिस्थानस्थितेन श्रीप्राग्वाट ज्ञातीय ठ० हीराकेन बृहत् श्रीयुगादिदेवचरितपुस्तकं लिखापितं । [ अन्यहस्ताक्षरैः पश्चाल्लिपिः-] श्रीआदिनाथदेवप्राकृतचरित्रपुस्तकं . नवलक्षकुलोद्भवेन सा० जीवड सुश्रावकेण द्रव्येण गृहीत्वा श्रीखरतरगच्छे प्रदत्तं । नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिशिष्यैः श्रीवर्द्धमानसूरिमिः कृतः। 10 ६२५१. चतुष्कवृत्तिसाधनिका ® सं० १३४० - [पूना, राजकीयग्रंथसंग्रह, की री० पृ० ४५] ॥ सं० १३४० वर्षे ज्येष्ठ शुदि ५ रवौ श्रीदर्भावत्यां परीक्षिधीणाकेन दत्तोपाध्याय पं० पद्मचंद्रेण पुस्तिका लिखिता ॥ ४ ॥ छ । - संवत् १३९३ श्रीजिनकुशलसूरिशिष्य श्रीजिनपद्यसूरिसुगुरूपदेशेन सा० केला. 'वकपुत्ररत्नेन सा. किरता सुश्रावकेण सत्पुत्र सा० विजमल सा० कर्मसिंह पौत्रजयसिंह प्रमुखसारपरिवारेण 15 अनेकपुस्तिका मूल्येन गृह्णता खभगिनीनायकसुश्राविकापुण्यार्थ चतुष्कवृत्तिसाधनिका पुस्तिका मूल्येन गृहीता ॥ वाच्यमाना नंदतात् आचंद्राकं ॥ ६२५२. उत्तराध्ययनसूत्र ® सं० १३४२ ७ [पूना, राजकीयग्रंथसंग्रह, की० री० पृ०५] संवत् १३४२ वर्षे वैशाष वदि दिने उत्तराध्ययनपुस्तं............चंद्रेण लिखितं ॥ ६२५३. न्यायकुसुमाञ्जलिनिबन्ध [पं० वामेश्वरध्वजकृत] ® सं० १३४२ ® 20 . [पाटण, संघवीपाडा भंडागार] खस्ति । परमभट्टारक परमेश्वर परमशैव सप्रक्रियोपेत महारायि राजाधिराज महासामन्ताधिपतिः राजा श्रीयुवराजदेव संभुज्यमान चौसा नगरावस्थिते । महामहोपाध्यायमिश्र शूलपाणि सुत उपाध्याय श्रीमहादेवस्य पाठार्थ । तीरभुक्ति सं। कर्णकुलालंकार ठकुर श्रीमाधवेन लिखितमिदं । यथादृष्टं तथा लिखितमिदं । गत विक्रमादित्य संवत् १३४२ । भाद्र शुदि ४ दिने । 25 शुभं भवतु ॥ ३२५४. उत्तराध्ययनवृत्ति [ शान्त्याचार्यकृता] ® सं० १३४३ ® [पाटण, संघसत्क भां०] संवत् १३४३ वर्षे लौकिककार्तिक शुदि २ रखावोह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराज श्रीमत् सारंगदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्य श्रीमधुसूदने श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्राव्यापारान् परिपंथयति सतीत्येवं काले प्रवर्तमाने तेनैव नियुक्तमहं श्रीसो- 30 मप्रतिपत्तौ बीजापुरे पुस्तकमिदं लेखक सीहाकेन लिखितमिति ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ श्रीश्रीमाल'वंशे श्रे० बूटडीसुत श्रे० तेजाश्रेयोऽर्थ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ जैनपुस्तकमेशस्तिसह । ६२५५. आगमिकवस्तुविचारसारवृत्ति ® सं० १३४३ - [पाटण, संघषीपाडा भंडार] संवत् १२८८ वर्षे..... शुभं । [पश्चाल्लेखः-] संवत् १३४३ वर्षे वैशाष शुदि [३] बुधे वडपद्राग्रामे शांतिनाथगौष्ठिक भे. बाहडी सुत खीमाकेन निजभार्या जासलश्रेयसे कर्मस्तववृत्तिपुस्तिका श्रीललितप्रभसूरीणां प्रदत्ता॥ ६२५६. विक्रमांककाव्यादि ® सं० १३४३ ® [जेसलमेर, वृहत् भाण्डागार] संवत् १३४३ वैशाख सुदि ६ सोमे धांधलसुत भा० भीम भा० छाहडसुत भा० जगसिंह मां० खेतसिंह सुश्रावकैः श्रीचित्रकूटवास्तव्यैर्मूल्येनेयं पुस्तिका पुनर्गृहीता। ६२५७. कर्मविपाकस्तववृत्तिपुस्तिका ® सं० १३४३ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] 10 संवत् १३४३ वर्षे वैशाख सुदि. बुधे वडपद्राग्रामे शांतिनाथगौष्ठिक श्रे० बाहड सुत खीमाकेन निजभार्या जासल श्रेयसे कर्मस्तववृत्तिपुस्तिका श्रीललितप्रभसूरीणां प्रदत्ता । ६२५८. मुनिसुव्रतचरित्र [पद्मप्रभकृत] ® सं० १३४३ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १३४३ आषाढ सुदि १ साधु वरदेवसुत दिग्वलयविख्यातकीर्तिकौमुदीविनिर्जित आस (१) चन्द्र साधुहरचंद्र प्रात्रा...... ___15६२५९. दमयन्तीकथा (चम्पू) ® सं० १३४४ ® [पाटण, संघसत्क भाण्डागार] श्रीत्रिविक्रमभट्टविरचितायां दमयन्तीकथायां सप्तम उच्छ्वासः समाप्तः ॥ स्वस्ति श्रीनृपविक्रमेण सततं पात्रप्रदानोदका मंदादेशवितीर्यमाणभुजसद्भावेन विद्याविदा । उद्दाम्नाहितहस्तिसिंहतरसा निष्पादितानां पुरा __ वर्षाणामखिलत्रयोदशशती संख्याव्यतिक्रांतितः॥१॥ चतुरधिकितचत्वारिंशवर्षेऽब्जयुक्ते तदनु महति मासे शुक्लपक्षेजिताहि । गुरुवरमगवारे स्वातिधिष्ण्ये तुलाथे शशिनि गिरिशयोगे वर्तमाने बवे च ॥२॥ मरालवारस्फुटवृत्तयुक्तां सल्लक्षणामंहि विभागसीनि। सालंकृति शब्दविचारणायां नलोपनीतक्रियया सुशोभा ॥३॥ सिद्धेश्वरो नागरविप्रवर्यस्तदात्मजः पंडितसाल्हणोऽस्ति । तदंगजः पंडितलिम्वदेवो भैमी लिखित्वा स तदा समाप ॥ ४ ॥ श्रीपरमखरूपिणो भगवदधोक्षजस्य महाप्रसादोऽस्तु । लेखकस्येति भद्रं । सदा यया व्याप्तमिदं जगत्त्रयं सरखती सा भवतु प्रसन्ना । कवेरिवेयं समचित्तमोदि कवेरिवेयं मम चित्तमोदि ॥५॥ नवीनकाव्यामृतदानशिक्षिता । शिवमस्तु सर्वतः ॥ ६२६०. कल्पसूत्रपुस्तिका ® सं० १३४४ ® [पाटण, संघसत्क भाण्डागार] संवत् १३४४ वर्षे वैशाख शुदौ अक्षयतृतीयां सोमे पर्युषणा कल्पपुस्तिका लिखिता। 25 30 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___10 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १३४ ६२६१. व्यवहारसूत्रटीका (प्रथमोद्देशक) ® सं० १३४४ ® [पूना, राजकीयग्रंथसंग्रह] श्रीमलयगिरिविरचितायां व्यवहारटीकायां प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥ सपीठिके प्रथमोद्देशके ग्रं. १०८७८ ॥ संव० १३४४ वर्षे अश्विन शु० ५ साकंभरीदेशे सिंहपुयां मथुरान्वये कायस्थ पंडि० सांगदेवेन लिखितमिति । पोडवालान्वये सा• गोगा संताने सा० सपून पुत्र सा० दुर्लभ आहड धनचंद्र वीरचंद्र ।। तत्पुत्र सा० मोल्हा सा० जाहड सा० हेमसिंह पेढा प्रभृतीनां तत्पुत्र सा० हूलण देवचंद्र कुमारपाल प्रमुषाणां पुस्तकमिदं । ___ सं० १३४४ श्रीकम्ह (न्ह ?) रिसि संताने श्रीपद्मचंद्रोपाध्यायशिष्य........."सिंहस्य श्रेयसे श्रीव्यवहारसिद्धांतस्य पुस्तकत्रयं सा० हूलणेन स्वपितृव्यभक्तिमता लिखापितं । यावच्चंद्रदिवाकरौ शिरि (!) गुरुर्यावच......। [अन्याक्षरैः पश्चाल्लेखः-] संवत् १४५१ वर्षे सा० तसिंहपुत्रिकया माल्हकुलकमलराजमराल सा० झांझण नंदनोत्तम सत्कर्माकर सा० क............'कादेविश्राविकया श्रीव्यवहारसिद्धांतपुस्तकं स्वकीयशुल्क खापतेयेन गृहीत्वा सुविचार श्रीखरतरगच्छे सुगुरु श्रीजिनराजसूरीणां समुपाहारितं वाच्यमानं चिरं नंदतात् ॥ शुभं भवतु ॥ ६२६२. उपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका ® सं० १३४५ - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] -सं० १३४५ वर्षे आषाढ वदि ९ भौमे पंडि० सावदेवेन....। ६२६३. कथासंग्रह ® सं० १३४५ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] खड्गकुमारकथानकं । ग्रंथान १३५३ । शिवमस्तु सर्वजगतः । संवत् १३४५ श्रावण शुदि १० गुरौ मं० रत्नेन [ लिखितं] ॥ ६२६४. स्थानाङ्गसूत्रटीका ® सं० १३४६ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथानं श्लोकाः १४२५ ॥ छ ॥ छ ॥ छ । संवत् १३४६ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १५ गुरावयेह वीजापुरे महाराजाधिराज श्रीसारंगदेव प्रतिबद्ध महं श्रीमुंजालदेव नियुक्त महं० श्रीसांगा प्रतिपत्तौ पुस्तकमिदं लिखितं ॥ यादृशं० । मंगलं महाश्री। [अन्याक्षरैः पश्चाल्लेख:-]..... वास्तव्य मोढ ज्ञातीय व्य० जसरासुत श्रे. जाल्हा तत्सुत श्रे० 25 ऊदाश्रेयोऽर्थ ठाणांग वृत्ति पुस्तकं लिखापितं । श्रे० ऊदापुत्र श्रे० छाडउ भ्रात देपाल जयतल वील्हणा। ६२६५. तत्त्वोपप्लव [जयराशिभट्टकृत] ® सं० १३४९ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] सं० १३४९ वर्षे मार्ग वदि ११ शनौ धवलकके महं० नरपालेन तत्त्वोपप्लवग्रंथपुस्तिका लेखीति ॥ भद्रं ॥ 30 ६२६६. समवायांगसूत्रवृत्ति सं० १३४९७ [संभात, शान्तिनाथ मंदिर भं०] 20 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १३. जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्कह । संवत् १३४९ वर्षे माघ सुदि १३ अग्रेह दयावटे श्रेष्ठि होना श्रेष्ठि कुमरसिंह श्रे० सोमप्रभृति समवायसमारब्धपुस्तकमांडागारे ले० सिंहाकेन समवायवृत्तिपुस्तकं लिखितं ॥ छ । . ६२६७. अनेकांतजयपताकावृत्ति ७ सं० १३५१ ७ [खंभात, श्रीविजयनेमिसूरिशास्त्रभंडार] सा० वरदेवकुलकमलमार्तड स्वगुर्वचिंतमाणिक्यालंकृतोत्तमांग सा. विमलचंद्र श्रावकरल सुतोत्तमाभ्यां श्रीवर्णगिरिशिखरालंकार श्रीचंद्रप्रभ-श्रीयुगादिदेव-श्रीनेमिनाथप्रासादविधापनश्रीशत्रुजयोअयन्तादि महातीर्थ सर्वसंघ यात्राकारापण उपार्जित पुण्यप्रासाद रोपित कलशध्वजाम्यां सा० क्षेमसिंह सा० चाहडसुश्रावकाभ्यां खश्रेयसे सं० १३५१ माघ वदि प्रतिपदि श्रीजिनप्रबोधसूरिपट्टोदयालंकार श्रीजिनचंद्रसूरिसुगुरु उपदेशेन श्रीप्रल्हादनपुरे व्याप्त त्रैलोक्यतलमिथ्यात्वमहीपतिविजयप्राप्तपताका श्रीअनेकांतजयपताका पुस्तकं मूल्येन गृहीतं । 10 आचंद्रार्क नंदतात् ॥ शुभं भवतु गच्छय ॥ ९००० ६२६८. उत्तराध्ययनसूत्र (मूलपाठ) ® सं० १४५२ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथान २००० शुभं भवतु । संवत् १४५२ वर्षे ज्येष्ठ वदि ८ भौमे । ६२६९. धर्मोपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका ® सं० १३५४ ® [पाटण, खेतरवसही पाटक] संवत् १३५४ वर्षे पोसवदि १२ श्रीश्रीमालवंशे सा० बाहडात्मज सा० रासल, पुत्रिकया मोहिणिनाम्या......... ६२७०. शतकटीका [ देवेन्द्रसूारकृता] ® स० १३५४ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १३५४ वर्षे कार्तिक वदि ८ भौमे ठ० सलषाकेन श्रेयसे लिखापिता। ६२७१. उपदेशपद ® सं० १३५४ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १३५४ वर्षे का० बुधे अद्येह श्रीपत्तने गूर्जर ज्ञातीय श्रावक महं देवा उठ (सुत ?) मालदेवेन श्रीखरतरगच्छे स्वगुरुप्रभुश्रीजिनचंद्रसूरिपादानां तपखिनां पठनाय धर्मोपदेशशास्त्र पुस्तिका पादौ प्रणम्य विधिना समर्पिता । ६२७२. स्याद्वादमञ्जरी ® सं० १३५७ ® . [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १३५७ वर्षे आखाढ शुदि १ गुरावधेह स्तंमतीर्थे इयं पुस्तिका लिखिता । शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य । मंगलं महाशुभं । 28६२७३. निशीथसत्रचूर्णी ® सं० १३५९७ [पूना, राजकीयग्रंथ संग्रह] इति विसेसनिसीहचुण्णीए दसमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ संवत् १३५९ वर्षे मार्ग वदि ५ सोमवारे वाचनाचार्य कनकचंद्रेण बाहुदं (१) सुपुस्तकं लिखितं ॥ ६२७४. प्रबोधचन्द्रोदयनाटक ® सं० १३६१ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १३६१ वर्षे.............। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । २३५ ६२७५. पर्युषणाकल्पपुस्तिका ● सं० १३६४ [ पाटण, संघसत्कभाण्डागार ] सं० १३६४ वर्षे वैशाख शुदि अक्षयतृतीयायां सोमे पर्युषणाकल्पपुस्तिका लिखापिता ॥ ९. २७६. आवश्यकचूर्णि • सं० १३६७ • [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १३६७ वर्षे पोष शुदि [ ] सोमे जंघरालायां श्री० आम्बड प्रभृतिभि अष्टादशसहस्रप्रमाण मावश्यकचूर्णि पुस्तकं नव्यं गृहीतं ॥ • श्रेयसे 5 ६-२७७. चैत्यवन्दनभाष्यादिप्रकरणसंग्रह • सं० १३६९ [पाटण, संघवीपाडा, भंडार ] संवत् १३६९ वर्षे श्रीपत्तने लिखितमस्ति । $ २७८. कुशलानुबन्धिप्रकरणादि • सं० १३६९ [ पाटण, महालक्ष्मीपाटकावस्थित भा० ] संवत् १३६९ फागण सुदि ८ रवौ स्तंभतीर्थे लिखितं ॥ ९२७९. पार्श्वनाथचरित्र [सर्वानन्दसूरिकृत ] सं० १३०६ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] 10 संवत् त्रयोदशषट'''''त्तरवर्षे श्रा० शुद्धि द्वितीया शुक्रवारे सम्वीग्रामे ध्रुव० नागार्जुन सुत लूणान श्रीपार्श्वनाथचरित्रं परिपूर्ण पुस्तकं सावधानेन लिखितं ॥ • सं० १३७० [ पाटण, संघसत्क भां०] (१) मलघुवृत्ति [ चतुष्कप्रांते ] तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । ग्रंथाग्र १६६५ । संवत् १३७० भाद्रपद वदि १४ चतुष्कवृत्तिर्ले० सागरेण समर्थिता । मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं 15 भवतु ॥ ; ९२८०. सिद्धहेमशब्दानुशासन (२) पंचमस्याध्यायस्य चतुर्थपादः समाप्तः । सं० १३७० आश्विनवदि ४ स्तंभतीर्थे पूज्यश्रीरत्नाकरसूरीणामादेशेन लें० सागरेण पुस्तिका लिषिता ॥ ग्रंथाग्रं ।। ३४०० ॥ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] २८१. महावीरचरित्र [ त्रिषष्ठीय ] • सं० १३७२ 20 संवत् १३७२ वर्षे मार्ग वदि १३ भौमे पुस्तकं लिखितमिदं ॥ ९ २८२. दशवैकालिकादिप्रकरणपुस्तिका • सं० १३७२ [ पाटण, तपागच्छ भाण्डागार ] संवत् १३७२ वर्षे आषाढ व० १४ शनौ स्तंभतीर्थे श्रीउपाध्यायमिश्राणां आगमिकगच्छे पुस्तिका ॥ छ ॥ ६२८३. कल्पसूत्र * सं० १३७७ * [ वडोदरा, श्रीमत्कांति विजयशास्त्र संग्रह ] प्रवर्तमाने अतीव दुष्पमाकाले सागरेण लिखिता श्रीरत्ना - 25 संवत् १३७७ कार्तिक सुदि १ कर सूरीणामादेशेन ॥ ६२८४. पर्युषणाकल्प-कालकसूरिकथा • सं० १३७७ • [ पाटण, तपागच्छ भण्डार संवत् १३७७ वर्षे कार्तिक सुदि १५ शुक्रे पेरंमद्वीप [ वास्तव्य ] संघ० लूणाकेन पर्युषणाकल्पपुस्तिका लिखापिता । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ९ २८६. बृहत्कल्पपीठिका [मलयगिरिकृता] सं० १३७८ • [ जैसलमेर, बृहद् भाण्डा०] संवत् १३७८ वर्षे मार्ग शुदि ९ दिने समाप्तम् । १२८७. ऋषिमण्डलवृत्ति • सं० १३८० 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । • सं० १३७८ * [ जेसलमेर, बृहद् भांडागार } संवत् १३७८ श्रीश्रीमालकुलोत्तंस श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणप्रवीणेन सा० देदापुत्ररलेन सा आना सुश्रावकेण सत्पुत्रउदारचरित्र सा० राजदेव सा० छजल सा० जयंतसिंह सा० अवराजप्रमुखपरिवारपरिवृतेन युगप्रवरागमश्रीजिनकुशलसरिसुगुरूपदेशेन नैषधसूत्र पुस्तिका मूल्येन गृहीता । 20 १६६ ९२८५. नैषधमहाकाव्य 108 २८८. महानिशीथसूत्र 25 संवत् १३८० आषाढ शुदि ५ भौमे । • सं० १३८२ • [ सुरत, हुकममुनि जैन ज्ञान भंडार ] महानिशीथं समाप्तमिति शुभं भवतु । चतुर्विधेन संघेन महानिशीथपुस्तिका लिखापिता । संवत् १३८२ वर्षे अश्विन शुदि १३ शुक्रे लिखिता । कल्याणमस्तु ॥ ९ २८९. उपदेशमालापुस्तिका * सं १३८३ [ खंभात, शान्तिनाथ भाण्डागार ] संवत् १३८३ वर्षे कार्तिक सुदि १३ शनौ । अद्येह श्रीदेवगिरौ साधु राजसिंहसुत साधु तिहुणसिंहेन श्रीमदुपदेशमाला लघुपुस्तिका लिखापिता ॥ २९०. शान्तिनाथचरित्र [ अजितप्रभसूरिकृत ] [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] सं० १३८४ संवत् १३८४ वर्षे श्रावण शुद्धि द्वितीयायां शनौ श्रीशांतिनाथचरितं क्षु० धर्मेण लिखितम् ॥ ९२९१. पर्युषणाकल्पटिप्पन [ पृथ्वीचंद्रसूरिकृत ] सं० १३८४ संवत् १३८४ वर्षे भाद्रवा शुदि १ शनौ अद्येह स्तंभतीर्थे वेलाकूले पुस्तिका तिलकप्रभागणिनीयोग्या महं० अजयसिंहेन लिखिता । मंगलं महाश्रीः । देहि विद्यां परमेश्वरि । शिवमस्तु सर्वजगतः । [ पाटण, संघवीपा० मं० ] श्रीमदंचलगच्छे श्रीकल्प [पाटण, संघसत्क भां०] श्रीनरदेवसूरीणां शिष्येण ९२९२. शान्तिनाथचरित्र [ अजितप्रभसूरिकृत ] सं० १३८४ [पाटण, संघवीपा० मं०] संवत् १३८४ वर्षे अश्विन सुदि १३ सोमे अद्येह श्रीश्रीमाले बृहद्गच्छीय श्रीवादीन्द्रदेवसूरिसंताने श्रीविजयसिंहरिशिष्य श्रीमाणिक्यसूरिशिष्य श्रीधर्मदेव सूरीणां शिष्यैराज्ञापरिपालकैः श्रीवयरसेणसूरिभिः साध्वी मसुंदरि विजयलक्ष्मी सा० पद्मलच्छि सा० चारितलक्ष्म्या अभ्यर्थनया स्वश्रेयोऽर्थ च श्रीशांतिनाथचरित्रं सर्वेषामाचार्योपाध्यायप्रमुखसाधूनां वाचनार्थ पठनार्थमलेखि लिलिखे लिख्यते स्म लिखितं । नंदतु श्रीशांतिनाथस्य चिरकालं यावत् पुस्तकं ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १३७ संघवीपाडा भंडार ] २९३. ज्ञातासूत्रवृत्ति • सं० १३८६ • [ पाटण, ग्रंथाग्रं ९८३० । संवत् १३८६ अश्विन वदि ४ सोमे लिखितमिदं पुस्तकं । मंगलं महाश्रीः । ९ २९४. प्रज्ञापनाटीका • सं० १३८७ * [ खंभात, शान्तिनाथ ज्ञान भंडार ] संवत् १३८७ वर्षे वैशाष वदि १५ गुरौ श्रीस्तंभतीर्थे प्रज्ञापनाटीकापुस्तकं लिखितं ॥ २९५. उपदेशमणिमालादिप्रकरणपुस्तिका सं० १३८८ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार 15 संवत् १३८८ वर्षे हारीजनगरवासं विमुच्य व्याघ्रपल्यां वासः कृतः । ततो व्यव० जसभद्र तत्सुत व्यव० अरिसिंह तदंगजो व्यव० सोहडस्तस्यांगजा व्यव० सलषणसीह व्यव० कूंरपाल व्यव० देपाल व्यव० षोषल । सर्वेषां भ्रातॄणां कुटुंबेन पुण्यकर्मणा ओसवाल वीशा विशेषेण विभूषितः । ततो व्यव० षोषलेन सुत धरणी" ... संग्राम प्रमुख कुटुंबयुतेन पितृष्वसुर्वा • शोषी श्रेयसे तस्या एव द्रव्येण स्वाध्यायपुस्तिका स्वीय सुत-सुतादि - कुटुंबस्य पठन - गुणनार्थं 10 पुस्तिका लिखापिता । नंदताच्चिरं पुस्तिकेयं ॥ • सं० १३८९ विक्रम संवत् १३८९ भाद्रपद सुदि चतुर्थी दिने लसूरियुगप्रवरागमोपदेशेन ना० कुमारपाल सुश्रावकेण श्रीकल्पचूर्णि पुस्तकमिदमलेखि । ९ २९६. कल्पचूर्णि ९ २९७. काव्यानुशासन- सवृत्तिक * सं० १३९० [ पाटण, तपागच्छ भाण्डागार ]15 संवत् १३९० वर्षे चैत्र सुदि २ सोमे श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमस्ति ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ छ ॥ ९ २९८. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र [ अष्टमपर्व ] * सं० १३९१ * [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] श्रीजिनचंद्रसूरिपट्टालंकार श्रीजिनकुश [ खंभात, शान्तिनाथज्ञानभाण्डागार ] समस्तनिर्ग्रथचक्रचूडामणि श्रीकृष्णर्षिराजर्षिगच्छे सुविहितशिरोमणि श्रीपद्मचन्द्रोपाध्यायान्वये भट्टारक श्री पृथ्वीचन्द्रसूरयस्तत्पट्टांबरदिनकर श्रीप्रभानंदसूरीणां सदुपदेशेन समस्त पृथ्वीतलाख्ये 20 सुचिंतितगोत्रपवित्रिते सा० क्षेमंधरपुत्राः सा० धनचन्द्र - मुनिचन्द्र-देपालाभिधाः । धनचन्द्रसुतौ पीम सिंह - कालाभिधौ । मुनिचन्द्रसुताः छाहिल- नोलू- सोमसीह - हालाभिधाः । षीमसिंहपुत्रौ लाहड - नरपालौ । सोमसीहपुत्राः सा० धरणिग- आसपाल- दूल्हण - कान्ह पार्श्वाभिधानाः । तैः सद्गुरूणामुपदेशलेशं निशम्य संसारासारतां विचार्य संवत् १३९१ वर्षे स्वमातुः सोमश्रीश्रेयोऽर्थं गृहीतमिदं नंदतादाचंद्रार्क वाचकग्राहकैः सदा || ३ २९९. अंतरंगसंधिप्रकरण * सं० १३९२ [ पाटण, तपागच्छभाण्डागार ] संवत् १३९२ वर्षे आषाढ शुदि २ गुरौ । ग्रंथाग्र श्लोक २०६ । श्रीधर्मप्रभसूरि[ शिष्य ] रत्नप्रभकृतिरियं ॥ 25 ३००. उपदेशमालावृत्ति [ रत्नप्रभकृता ] ० सं० १३९४ [ पाटण, संघसत्कभाण्डागार ] संवत् १३९४ वर्षे कार्तिक सुदि प्रतिपदायां शुक्रे श्रीयुगादिचैत्यमंडिते मडवाडाग्रामे श्रीउपदेश - 30 * मालावृत्तिः सुगुरुश्री सर्वदेवसूरिवाचनक्रियायोग्या पं० अभयकलसेन लिखिता ॥ शुभमस्तु ॥! १८ जै० पु० 2 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 १३८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ९ ३०१. नैषधमहाकाव्य * सं० १३९५ * [ पाटण, संघवीपाडा भंडार संवत् १३९५ वर्षे कार्तिक शुदि १० शुक्रे श्रीभारतीप्रसादेन जंघरालवास्तव्य उदीच्यज्ञातीय रा० दूदा सुत रा० केसव महाकाव्य नैषधपुस्तिका प्राप्ता । मंगलं भवतु | ९३०२. परिशिष्ट पर्व * सं० १३९६ * 20 [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १३९६ वर्षे आसोज सुदि १५ शुक्रे अश्विनि नक्षत्रेऽद्येह श्री अणहिल्लपुरपत्तने श्री परिशिष्टपर्व पुस्तकं संपूर्ण लिखितम् ॥ ९ ३०३. धनदेव धनदत्तकथा • सं० १३९८ • संवत् १३९८ वर्षे पो० शुदि ७ सोमे कथाद्वयं लिखितमिति ॥ • सं० १४०० ● ९३०४. आवश्यक निर्युक्ति संवत् १४०० वर्षे माघवदि १० ६३०५. हैमलघुवृत्ति-अवचूरिका 25 $३०९. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादि [ पाटण, तपागच्छ भाण्डागार ] पंडित धनचन्द्रेण लघुवृत्त्यवचूरिका । श्रुतोद्धृता च सुगुरोः श्रीमद्देवेन्द्रसूरितः ॥ संवत् १४०३ वर्षे मार्ग सु ११ खौ ॥ ग्रंथाग्र २२१३ ॥ 158 ३०६. पर्युषणाकल्प -कालिकाचार्यकथा • सं० १४०४ ४ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १४०४ वर्षे पोषवदि ३ भौमे । ९३०७. सामाचारी [ तिलकाचार्यकृता ] • सं० १४०९ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १४०९ वर्षे पोषसुदि १० खौ श्रीपूर्णिमापक्षीय प्रथमशाखीय श्रीसर्वाणंदसूरिपट्टे श्रीजयसमुद्रसूरिपट्टे श्रीगुणचंद्रसूरिपट्टे श्रीगुणप्रभसूरिशिष्य वीरचंद्रेण कावा (१) ग्रामे सामाचारीपुस्तिका लिखिता । ९३०८. कातंत्रवृत्तिविवरणपंजिका [ पाटण, मोदीसंशक भाण्डागार ] खौ आवश्यक सूत्र पुस्तिका लिखिता । • सं० १४०३ ● सं० १४११ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] सं० १४११ वर्षे पौषवदि ७ सोमे अद्येह श्रीमदणहिल्लपुरपत्तने खरतरगच्छीयभट्टारिक श्रीजिनचंद्रसूरिशिष्येण पं० सोमकीर्तिगणिना आत्मावबोधनार्थं वृत्तित्रितयपंजिका लिखा पिता लिखितं पं० महिया ( पा ? ) केन । यादृशं पुस्त.. 1 [ पाटण, संघसत्क भांडागार ] * सं० १४१२ [ जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १४१२ वर्षे ऊकेशवंशीय सा० जगदेव पुत्ररत्नस्य सा० मूलराज सुश्रावकस्य धर्मपत्या सा० रूदापुत्रिकया सा० चांपलसुश्राविकया निरयावलीसूत्र - जंबूद्दीवप्रज्ञप्तिसूत्र - चूर्णि - सिद्धप्राभृतसूत्रवृत्तिपुस्तकं स्वश्रेयसे मोचापितं । श्रीचंद्रगच्छालंकार श्रीखरतरगच्छाधीश्वर युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरीणां प्रत्यलाभि || Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १३९ ६३१०. शांतिनाथचरित्र ® सं० १४१२ ® [वडोदरा, श्रीमत्कान्तिविजयशास्त्रसंग्रह] संवत् १४१२ वर्षे पौषवदि १२ गुरौ अद्येह श्रीमदणहिलपट्टने श्रीसाधुपूर्णिमापक्षीय श्रीअभय चंद्रसूरीणां पुस्तकं लिखितं पंडित महिमा(पा ?)केन । शुभं भवतु । ६३११. धर्मविधिवृत्ति [ उदयसिंहाचार्यकृता] ® सं० १४१८ - [पाटण, संघसत्क भां०] संवत १४१८ वर्षे चीबाग्रामे श्रीनरचंद्रसूरीणां शिष्येण श्रीरत्नप्रभसूरीणां बांधवेन पंडितगुणभद्रेण 5 कच्छूलीश्रीपार्श्वनाथगोष्ठिकलींबा भार्यागउरी तत्पुत्रश्रावकजसा डूंगर तद्भगिनी श्राविका वीझी तीही प्रभृतिरित्येषां साहाय्येन प्रभुश्रीश्रीप्रभसूरिविरचितं धर्मविधिप्रकरणं श्रीउदयसिंहसूरिविरचितां वृत्ति श्रीधर्मविधिग्रंथस्य कार्तिकवदि दशमीदिने गुरुवारे दिवसपाश्चात्यघटिका द्वयसमये स्वपितृमात्रोः श्रेयसे श्रीधर्मविधिग्रंथमलिखत् ॥ ६३१२. कल्पपुस्तिका ® सं० १४२१ ७ [अमदाबाद, ऊजमबाई जैन धर्मशाला भंडार] 10 संवत् १४२१ वर्षे वैशाखसुदि पंचमी दिने श्रीमदणहिलपत्तने श्रीकल्पपुस्तिका पं० महिपा (या ?)केन लिखिता। ६३१३. शतकचूर्णि ® सं० १४२३ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४२३ वर्षे सा० मेहासुश्रावकपुत्र सा० उदयसिंहेन पुत्र सा० लूणा-वयराभ्यां युतेन खपुत्रिकायाश्चांपूश्राविकायाः पुण्यार्थ शतकवृत्तिपुस्तकं मूल्येन गृहीत्वा निजखरतरगुरु श्रीजिनो-15 दयसूरीणां प्रादायि । ६३१४. त्रिषष्टिशलाकाचरित्र [अष्टमपर्व] ® सं० १४२४ ® [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] सक्षमेन्दु-जलधि-क्षितिप्रमे वत्सरे सहजतो विचित्रिते। नेमिनाथचरितं ह्यदादसौ श्रीशशी स्वगुरवे विनेयकः॥ संवत् १४२४ वर्षे मार्ग सुदि ७ सप्तम्यां तिथौ अद्येह युवराजवाटके पुस्तकं श्रीनेमिनाथस्य 20 अलेषि ॥ शुभं भवतु ॥ ६३१५. उपदेशमाला [हेमचंद्रसूरिकृता] ® सं० १४२५ ७ [पाटण, संघसत्क भंडार] संवत् १४२५ वर्षे भाद्रपदवदि ५ भौमे पुष्पमालावृत्तिः संपूर्णा लिखिता ॥ छ ॥ स्वस्ति ॥ ग्रंथाग्र० १४०००॥ ऊकेशवंशे श्राद्धधर्माधुरीणोरीणदानादिपुण्यकृत्यकरणनिपुणः ठ० पूनाभिधानः श्रावकपुंगवोऽभूत् । 25 तत्पुत्रः पवित्रः ठ० धणपालः तस्य सहचारिणी सदाचारिणी पापप्रवेशवारणी ठ० धुंधलदेवीति जज्ञे । तत्कुक्षिसमुद्भवेनात्यद्भुतसुकृतप्रोद्भूतश्रीश्रीदेवताप्रसादसाधिताधिकतरसकलशुभकृत्यनिवहेन ठ० मोषाभिधेन श्राद्धवरेण पूज्यभट्टा० श्रीअभयसिंहमूरिसद्व्याख्यामृतवृष्टिसमुत्पन्नभावनाकल्पवल्लीप्रभावात् श्रीपुष्फमालावृत्तिपुस्तकं स्वपित्रोः श्रेयोर्थमलेखयत् । शुभवृद्धो वृद्धः पुत्रः ठ० *देपाल, लघुर्धनपालनामाभूत् । ठ० मोषा लघुभ्रातृ षेताक आसीत् ॥ . 30 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सं० १४३६ ९३१६. अजितजिनचरित्र (त्रिषष्टीय ) [ पाटण, संघसत्कभांडागार संवत् १४३६ वर्षे भाद्रपदवद ५ भूमे लक्ष ( लिखि) ता । पं० मलयचंद शिष्य साल्हान लिखितमिति भद्रं ॥ शुभं भवतु ॥ 5 ९३१७. आवश्यकबृहद्वृत्ति ( द्वितीयखंड ) सं० १४४२ ७ [ पाटण, संघसत्कभाण्डागार ] संवत् १४४२ वर्षे श्रीस्तंभतीर्थे पौषधशालायां आवश्यकवृत्तिद्वितीयखंड पुस्तकं लेखितं । ९ ३१८. पंचाशकसूत्र - वृत्ति • सं० १४४२ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १४४२ वर्षे भाद्रपद सुदि २ सोमे लिखितमिदं पुस्तकं श्रीस्तंभतीर्थनगरे लिखितं ॥ छ ॥ श्रेष्ठी ॥ ९३१९. सिद्धप्राभृतटीका 10 15 20 25 • सं० १४४४ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १४४४ वर्षे फागुण शुदि ५ बुधे अद्येह श्रीपत्तने । मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु । त्रिपाठ शर्मेण (र्मणा ? ) लिखितं ॥ छ ॥ • सं० १४४४ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] 30 ९३२०. जीवाभिगमसूत्र संवत् १४४४ वर्षे अश्विन वदि ८ बुधे । ६३२२. तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति ९३२१. आवश्यकलघुवृत्ति [तिलकाचार्यकृता ] सं० १४४५ [संभात, शान्तिनाथभं०] संवत् १४४५ चैत्र वदि ३ सोमे श्रीस्तम्भतीर्थे कायस्थज्ञातीय महं जाना सुत म० मालाकेन लिखितं । माल्हणदेवी सुतविक्रुद्धवासनावश्यकलघुवृत्तिम् । लेखयति स्म शैरांर्बुधि शाब्दे स्तंभतीर्थ पुरे ॥ • सं० १४४५ * [ खंभात, शान्तिनाथभण्डार ] संवत् १४४५ वर्षे अश्विन शुदि ४ गुरौ अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे तत्त्वार्थभाष्येण [ सह ] तवार्थवृत्ति पुस्तिका लिखिता । शुभं भवतु श्रीश्रमण संघस्य ॥ • सं० १४४६ * [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] सं० १४४६ वर्षे फागुण सुदि १४ सोमे भट्टारक श्रीसोमतिलकसूरिगुरूणां भण्डारे महं ठाकुरसीहेनालेखि ॥ ९० ।। प्राग्वाटज्ञातीय सा० षोषासुत सा० महणा भार्या म० गोनी पुत्र्या विहित श्रीयात्रादि बहुपुण्यकृत्य सं० हरिचन्द पितृखसा पारस भागिनेय्या वील्ल श्राविकया भट्टारकप्रभु श्रीदेवसुदरसूरिगुरूणामुपदेशेन अभयचूला प्रवर्तिनी पदस्थापना श्रीतीर्थयात्राद्यर्थ समागत सं० हरिचन्देन सह प्राप्तया श्रीस्तम्भतीर्थे सं० १४४७ वर्षे संमत्तिपुस्तकं लेखितमिति । भद्रं श्रीसंघस्य ॥ ३२४. कर्मग्रंथवृत्ति • सं० १४४७ ९३२३. सम्मतितर्कवृत्ति संवत् १४४७ वर्षे भट्टारक देवसुंदरसूर्युपदेशेन कर्मग्रंथवृत्तिपुस्तकं लेखयामास ।। [ खंभात, शान्तिनाथभंडार ] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 . जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १११ ६३२५. षट्कर्मग्रंथवृत्ति ® सं० १४४७ ® [खंभात, शान्तिनाथभंडार] ओकेशवंशभूषण पदम सुत सा० बीजड भार्या वीकमदे तत्सुता श्रीसारज (१) नाम्नी सा० आमसिंह सुत सा० धर्मसिंह भार्या सदा नानाविधपुण्यकृत्यपरायणा श्रीमत्तपागच्छमंडन सुविहितचक्रचूडामणि भट्टारक श्रीदेवसुन्दरसूरीणामुपदेशेन खश्रेयसे नव्यकर्मग्रंथवृत्तिपुस्तकं. श्रीविक्रमसंवत् १४४७ वर्षे लेखयामास । आचंद्राकं पुस्तकोऽसौ बुधैर्वाच्यमानो नन्दतात् ॥ 5 ६३२६. तित्थोगालिप्रकरण ® सं० १४५२ ® पाटण, संघवीपाडा भंडार] -श्रीयोगिनीपुरवासिभिर्महर्द्धिकै राजमान्यैः सकलनागरिकलोकमुख्यैः ठ० दूदा ठ० कुरा ठ० पदमसीहै। स्वपितुः सा० राजदे श्रेयसे अनुयोगद्वारचूर्णिः १ षोडशकवृत्ति २ तित्थोगाली ३ श्रीताडे; तथा श्रीऋषभदेवचरित्रं १२ सहस्रं कागदे; एवं पुस्तिका ४ तपागच्छनायक श्रीदेवसुंदरसूरिणामुपदेशेन सं० १४५२ श्रीपत्तने लिखिता इति भद्रं ॥ छ । ६३२७. उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति ® सं० १४५२७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४५२ वर्षे अश्विनशुदि १ प्रतिपत्तिथौ रविदिने श्रीउत्तराध्ययनवृहद्वत्तिपुस्तकं लिखितं ॥ ग्रंथाग्रं १८००० ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ ६३२८. विशेषावश्यकवृत्ति [ द्वितीयखंड ] ® सं० १४५३ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] -ग्रंथाग्रं २८०० । शुभं भवतु । संवत् १४५३ वर्षे भाद्रपदवदि १४ गुरौ । प्राग्वाट ज्ञातीय 15 व्य० आसा भार्यया श्रा० आसलदेव्या व्य० आका धर्मसीह वाछा देवादिपुत्रैः शिवादिपौत्रैश्च युतया तपागच्छनायक श्रीदेवसुंदरसूरिगुरूणामुपदेशेन श्रीपत्तने सं० १४५३ वर्षे श्रीविशेषाव श्यकद्वितीयखंडं लेखयति सेति भद्रं ॥ ६३२९. महानिशीथसूत्र सं ० १४५४ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ___ संवत् १४५४ वर्षे आसाढ वदि १० शनौ महानिशीथपुस्तकं लिखितं । 20 ६३३०. उत्तराध्ययनबृहवृत्ति सं० १४५४ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४५४ वर्षे अश्वनि (आश्विन) सुदि २ सोमे श्रीउत्तराध्ययनवृत्तिपुस्तकं लिखापितं । ६३३१. पंचकल्पभाष्य ® सं० १४५६ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४५६ वर्षे कार्तिक वदि १२ सोमवारे श्रीस्तंभतीर्थे पंचकल्पपुस्तकं लिखापितमस्ति । ६३३२. अनुयोगद्वारसूत्र-चूर्णि ® सं० १४५६ ७ [पाटण, संघसत्क भाण्डागार ] 25 [ मूलसूत्रपाठप्रान्ते-] सं० १४५६ वर्षे माघशुदि १० बुधे त्रुटिः पूरिता । श्रीस्तंभतीर्थे वृद्धपौषधशालायां तपागच्छीय भट्टारिक श्रीजयतिलकसूरि तत्पट्टे श्रीरत्नसागरसूरि तदुपदेशेन पुस्तकं लखापितं ॥ [चूर्णिग्रन्थप्रान्तभागे-] यावगिरिनदीद्वीपा यावश्चन्द्रदिवाकरौ । यावच्च जैनधर्मोऽयं तावनंदतु पुस्तकम् ॥ संवत् १४५६ वर्षे 30 • श्रीस्तम्भतीर्थे बृहत्पौषधशालायां भट्टारिकश्रीजयतिलकसरि अनुयोगद्वारचूर्णी उद्धारः कारावितः। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । * सं० १४५८ [ पाटण, संघसत्क भाण्डागार ] संवत् १४५८ वर्षे द्वितीय भाद्रपद शुदि ४ तिथौ शुक्रे दिने श्रीस्तंभतीर्थे बृहत्पौषधशालायां भट्टा० श्रीजयतिलकसूरीणां उपदेशेन श्रीकुमारपालप्रतिबोधपुस्तकं लिखितमिदं । कायस्थ ज्ञातीयमहं मंडलिक सुत घेता लिखितं । चिरं नंदतु ॥ छ ॥ 25 १४२ ९ ३३३. कुमारपालप्रतिबोध 30 [ अन्याक्षरैः पश्चाल्लिखिता पंक्ति:- ] उ० श्रीजयप्रभगणिशिष्य उ० श्रीजयमन्दिरगणिशिष्य भट्टा० श्रीकल्याणरत्नसूरिगुरुभ्यो नमः । पं० विद्यारत्नगणि । ९३३४. आचारांगसूत्रटीका • सं० १४६७ सं० १४६७ वर्षे आश्विन शुदि १० खौ पूर्व लिखितं । सं० त्रुटितं समारचितं । शुभं भवतु ॥ • सं० १४६८ ९३३५. सूत्रकृताङ्गसूत्र 15 ९३३६. शांतिनाथचरित्र [ माणिक्यचंद्रविरचित ] सं० १४७० [ पाटण, संघवीपाडा भं० ] संवत् १४७० वर्षे मार्गसिखादि १२ बुधे श्रीशांतिनाथचरित्रं लषितं । संपूर्णः । श्रीतपागच्छे लघुपोशालायां पुस्तकं लषितं । सहजसमुद्रगणिना लिखापितोऽस्ति । शुभमस्तु । अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे ॥ छ ॥ [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] १४८५ वर्षे मार्गवदि २ बुधे पद्मोपमं पत्रपरंपरान्वितं वर्णोज्वलं सूक्तमरंदसुंदरं । मुमुक्षुभ्रंगप्रकरस्य वल्लभं जीयाच्चिरं सूत्रकृदंग पुस्तकं ॥ १ ॥ संवत् १४६८ वर्षे ३ शुक्रे अद्येह श्रीपत्तने लिखितमिदं ॥ ९३३७. श्रेयांसचरित्र [ देवप्रभसूरिकृत ] सं० १४७० [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] सं० १४७० माघवदि ९ बुधदिने पुस्तकं भादाकेन लिलिखे ॥ 20 ९ ३३८. व्यवहारभाष्यवृत्ति [ त्रुटित ] * सं० १४७० [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १४७० वर्षे चैत्र वदि ३ तृतीया तिथौ वार खौ पुस्तकं लिखितं समाप्तं । सूत्रवृत्ति सर्वग्रंथ सहस्र [ ] एकत्र सूत्रांकः । ९३३९. अरिष्टनेमिचरित [ रत्नप्रभसूरिकृत ] सं० १४७० [पाटण, संघवीपाडा भंडार ] संवत् १४७० वर्षे आसोसुदि षष्ठीगुरौ तपागच्छ श्रीसोमसुन्दरसूरिगच्छनायकः । श्रीस्तंभतीर्थे सहजसमुद्रगणीना भंडारी लिखापित पुस्तक | ग्रंथाग्रं १३६०० शुभं भवतु । ९३४०. औपपातिकसूत्र - वृत्ति * सं० १४७३ * [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] ग्रंथाग्रं ३१२५ शुभं भवतु । संवत् १४७३ वर्षे फागणवदि ४ बुधे अद्येह श्रीपत्तने लिखितं । प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि लापा भार्या झबकू । तयोस्तनुजः श्रेष्ठि धर्माको धर्मकर्मपरायणः । तद्भार्या रतू धर्मकर्मनिरता । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । खद्रव्यं सप्तक्षेत्र्यां वपन् तपागच्छनायकश्रीदेवसुन्दरसरिशिष्य श्रीसोमसुन्दरखरीणामुपदेशेन श्रीजैनागमं लक्षमप्यलीलिखत् ॥ ६३४१. निरयावलीसूत्र ® सं० १४७३ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४७३ वर्षे...."सुदि १० गुरौ अद्येह स्तंभतीर्थे वृत्तिलिखिता ॥ ६३४२. कुमारपालप्रबन्ध [ अज्ञातकर्तृक ] ® सं० १४७५ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] 5 किंचिद्गुरुमुखाच्छ्रुत्वा किंचिदक्षरदर्शनात् ।। प्रबन्धोऽयं कुमारस्य भूपतेलिखितो मया ॥ इति श्रीकुमारपालप्रबन्धः समाप्तः । संवत् १४७५ मार्गशिरमासे कृष्णपक्षे सप्तम्यां तिथौ सोमदिने लिखितम् ॥ ६३४३. स्याद्वादरत्नाकर ® सं १४७६ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] 10 ॥ स्वस्ति ॥ संवत् १४७६ वर्षे वैशाष सुदि ५ गुरौ लिखितं श्रीमदणहिल्लपत्तने । शुभं भूयात् । देवगिरिवास्तव्य प्राग्वाट ज्ञातीय सा० सलषण भार्या धनू पुत्री माऊ नाम्या तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरीणामुपदेशेन स्याद्वादरत्नाकरप्रथमखंडं लेखितं । शिवमस्तु श्रीश्रमणसंघस्य । ६३४४. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र-वृत्ति ® सं० १४७८ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४७८ वर्षे श्रावणसुदि ५ रवौ लिखितं श्रीमदणहिल्लपत्तने । 15 ६३४५. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र ® सं० १४७९ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४७९ वर्षे ज्येष्ठ वदि दशम्यां गुरौ चंद्रप्रज्ञप्तिटीका । ६३४६. पंचप्रस्थानविषमपदव्याख्या छ सं० १४८० ® [ सुरत, हुकममुनिजी शानभंडार] ॥ स्वस्ति ॥ संवत् १४८० वर्षे अद्येह श्रीडुंगरपुरनगरे राउल श्रीगइपालदेवराज्ये श्रीपार्श्वचैत्यालये लिखितं पचाकेन ॥ ६३४७. अनयोगद्वारसूत्र-वृत्ति ® सं० १४८०७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथानं ५८८८ । संवत् १४८० वर्षे कार्तिक वदि १२ रवौ महं भीमासुत हरिदासेन लिखितं । शुभं भवतु । कल्याणमस्तु । मंगलमस्तु । श्रीसंघस्य भद्रं भूयात् ॥ ६३४८. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रटीका ® सं० १४८० ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] श्रीमलयगिरि विरचिता चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता । ग्रंथानं ९५०० श्लोकमानेन यथा 125 संवत् १४८० वर्षे पौष शुदि १३ बुधे लिखितं । ६३४९. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र ® सं० १४८० ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] . संवत् १४८० वर्षे फागुण वदि ११ शनौ । 20 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ११. जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६३५०. सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति ® सं० १४८१ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४८१ वर्षे वैशाख शुदि ८ बुधे लिखितं श्रीमदणहिल्लपत्तने । शिवमस्तु । ६३५१. आचारांगसूत्र-वृत्ति ® सं० १४८५ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] ॥ स्वस्ति ॥ संवत् १४८५ वर्षे ज्येष्ठ सु० द्वितीयायां गुरौ श्रीखतरगच्छे श्रीजिनभद्र [सूरि] राज्ये परीक्ष गूजरसुत धरणाकेन श्रीआचारांगसूत्र-नियुक्ति-वृत्ति-पुस्तकं लेखयांचक्रे ठा० सारंगेन । [अन्याक्षरैः पश्चाल्लिपिः-] सोमकुंजरगणिना... श्रीजयसागरमहोपाध्यायपादानां समीपे पठता पं० सोमकुंजरमुनिना यथायोगं शोधितं । पुनः..."शोधनीयं । सं० १४९२ वर्षे शोधि[तं] .......। ६३५२. व्याश्रयमहाकाव्य-सवृत्तिक [प्रथमखंड] ® सं० १४८५ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४८५ वर्षे श्रीडूंगरपुरे राउल श्रीगइपाल विजयराज्ये श्रावण वदि १५ शुक्रदिने श्रीधा श्रयवृत्तिप्रथमखंड लिखितं लींबाकेन ॥ ६३५३. ड्याश्रयमहाकाव्य-सवृत्तिक [ द्वितीयखंड] ® सं० १४८६ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] द्वितीयखंड ग्रंथाग्र ८८५८ । सकलग्रंथ १७५७४ । संवत् १४८६ वर्षे श्रीडूंगरपुरे लिखितं लींबाकेन । ६३५४. ठाणांगसूत्रवृत्ति सं० १४८६ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] ___ संवत् १४८६ वर्षे माधवदि पंचम्यां सोमे..... स्थानांगसूत्रवृत्तिपुस्तकं लिखापितं ।। ६३५५. आवश्यकचूर्णि ® सं० १४८७ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] 20 संवत् १४८७ वर्षे.......। ६३५६. ओघनियुक्तिवृत्ति ® सं० १४८७ ७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १४८७ वर्षे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टालंकार श्रीगच्छनायक श्रीजिनभद्रसूरिसुगुरूणामादेशेन पुस्तकमेतल्लिखितं शोधितं च । लिखापितं साह धरणाकेन सुत साईया सहितेन । 25६३५७. कथाकोशप्रकरण ® सं० १४८७ ® [खंभात, श्रीविजयनेमिसूरिशास्त्रसंग्रह] श्रीजिनेश्वरसूरिविरचितं कथाकोशप्रकरणं समाप्तमिति । शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य ॥ संवत् १४८७ वर्षे आषाढमासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां तिथौ रविदिने श्रीडूंगरपुरनगरे राउल श्रीगई पालदेवविजयराज्ये कथाकोशप्रकरणं लिखितं लींबाकेन मंगलमस्तु लेखकपाठकयोः । 8३५८. लघुकल्पभाष्य ® सं० १४८८७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 30 संवत् १४८८ वर्षे श्रीमत्खरतरगच्छनायकश्रीजिनराजसूरिपट्टप्रद्योतसहस्रकरकिरणानुकराणां श्रीजिनभद्रसूरीश्वराणामुपदेशेन परमदेवगुर्वाज्ञापालकपरोपकारक प० धरणासुश्रावकेण पु० साईया Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ । .. जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । सहितेन सा० महिराज..... विस्तरपरिवारकलितेन श्री....."सौवविभवव्ययेनैतत्पुस्त[क] लेखयांचके। ६३५९. विशेषावश्यक सं० १४८८७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] व्यतीते विक्रमादष्टाष्टाब्धीदुमितवत्सरे । विशेषावश्यकव्याख्याद्यखंडं लेखितं मुदा ॥ ६३६०. चंद्रप्रज्ञप्तिटीका [मलयगिरि ] ® सं० १४८८ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] 5 संवत् १४८८ वर्षे मार्गसुदि ५ गुरौ अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे......... रेषाप्राप्तसुश्रावकेण सा० उदयराज सा० बलिराजेन श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिटीका लिखापिता। ६३६१. भगवतीवृत्ति ® सं० १४८८ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८८ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि ५ गुरुदिने श्रीमति स्तंभतीर्थे ...... । ६३६२. कल्पवृत्ति [प्रथमखंड] ® सं० १४८८ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] 10 संवत् १४८८ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि पंचम्यां गुरुवारे श्रीकल्पवृत्तिप्रथमखंडपुस्तकं लिखापितं । ६३६३. (१) औपपातिकसूत्र वृत्ति छ सं० १४८८ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८८ वर्षे मार्ग सुदि ५ गुरुदिने । ६३६४. (२) राजप्रश्नीयसूत्र-वृत्ति ® सं० १४८८७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८८ वर्षे मार्ग सुदि ५ गुरुदिने उवाइयसूत्रवृत्ति-राजप्रश्नीयसूत्रवृत्ति पु० लिखापितं । 15 ६३६५. दशवैकालिकटीका [ सुमतिगणी] ® सं० १४८८ ® [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १४८८ मार्गसिरवदि २ (१) गुरौ । १३६६. नंदिसूत्रटीका ® सं० १४८८७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८८ वर्षे सत्यपुरे पौषवदि १० दिने श्रीपार्श्वदेवजन्मकल्याणके श्रीखरतरगणाधिपः [श्री] जिनराजसू रिपट्टालंकारैः प्रभुश्रीमञ्जिनभद्रसूरिसूर्यावतारैः श्रीनंदिसिद्धांतपुस्तकं खहस्तेन 20 शोधितं पाठितं च श्रीश्रमणसंघेन वाच्यमानं चिरं नंदतु । ६३६७. अंगविद्या ® सं० १४८८ [जेसलमेर, बृहद् भांडागार] संवत् १४८८ वर्षे वैशाख सुदि ३ अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे खरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिविजयराज्ये परिक्षि गूजरसुत परिक्षि धरणाकेन अंगविद्यापुस्तकं लिखापितं । ३३६८. उत्तराध्ययनचूर्णि® सं० १४८९ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 25 संवत् १४८९ वर्षे कार्तिक बदि ४ भौमे श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिपुस्तकं लिखापितं । ३३६९. जीवाजीवाभिगमवृत्ति-आदि ® सं० १४८९ ७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] - संवत् १४८९ वर्षे मार्गसुदि ५ गुरौ श्रीजीवाभिगमलघुवृत्ति-श्रीजंबूद्वीपसूत्र-जंबूद्वीपचूर्णीपुस्तिका । नदी १९ जै० पु. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। ६३७०. दशवैकालिकचूर्णि® सं० १४८९ - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८९ वर्षे मार्ग सुदि ५ गुरुदिने श्रीसिद्धान्तं भांडसालि लिखापितं आसा लिखितं । ६३७१. पिण्डनियुक्तिवृत्ति [मलयगिरिकृता] ® सं० १४८९ - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८९ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि ५ गुरौ "सुश्रावकेण साहबलिराजेन सा० उदयराजादि सपरिवारेण श्रीपिंडनियुक्तिसूत्रलघुवृत्ति-बृहद्वृत्तिपुस्तकं लिखापितं । ६३७२. बृहत्कल्पवृत्ति [ तृतीयखंड] ® सं० १४८९७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८९ वर्षे मार्गसुदि ५ गुरुदिने......."बृहत्कल्पवृत्तितृतीयखंडपुस्तकं लिखापितं ।। ६३७३. आवश्यकबृहवृत्ति ® सं० १४८९ छ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] खस्ति संवत् १४८९ वर्षे पौषवदि २ भौमे स्तंभतीर्थे पुस्तकं लेषिनीयी (१)। श्रीखरतरगच्छे 10 श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनभद्रसूरिविजयराज्ये सा० डूंगरसुत बलिराज उदयराज सुश्रावकयो (काभ्यां ?) निजपुण्यार्थ पुस्तकं लेखापितं ।। ६३७४. जीवाभिगमवृत्ति ® सं० १४८९ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८९ वै० सु० द्वितीयायां खरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरीणामुपदेशेन परीक्ष गूजरसुत साह धरणकेन जीवाभिगमपुस्तकं लिखापितं । 15६३७५. दशवैकालिकसूत्रवृत्ति ® सं० १४८९ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथाग्रं भाष्यसहित ७५५० । शुभं भवतु । सर्वकल्याणमस्तु । संवत् १४८९ वर्षे ज्येष्ठमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथौ गुरुदिने लिखितं । डुंगरपुरे पचाकेन ॥ ६३७६. उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति ® सं० १४८९ ® पाटण, संघवीपाडा भंडार] ग्रंथाग्रं १८००० । शुभं भवतु । सर्वकल्याणमस्तु । यादृशं०॥१॥ भनदृष्टि० ॥२॥ तैलाद् __रक्षेत् ॥ खस्ति संवत् १४८९ वर्षे श्रावणमासे शुक्लपक्षे द्वितीयायां तिथौ रविदिने अद्येह श्रीडूंगरपुरनगरे राउलश्रीगइपालदेवराज्ये लिखितं श्रीपार्श्वजिनालये पचाकेन । ६३७७. न्यायावतारटिप्पनक ® सं० १४८९७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] [श्रीराजशेखरसूरिविरचितं] न्यायावतारटिप्पनकं समाप्तं । संवत् १४८९ वर्षे श्रावण सुदि बुधे त्रयोदश्यां तिथौ लिखितं । 25६३७८. सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति [ मलयगिरि ] ® सं० १४८९ - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४८९ वर्षे भाद्रपद शुदि षष्ठी शुक्रे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिविजयराज्ये परिक्षि गूजरसुत परीक्षि धरणाकेन श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिपुस्तकं लिखापितं । ६३७९. न्यायबिन्दुसूत्रवृत्त्यादि ® सं० १४९० ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार ] संवत् १४९० वर्षे मार्गसिर शुदि ३ रवौ श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनभद्रसरिराज्ये परीक्ष गूर्जर सुत प० धरणाकेन न्यायबिन्दुसूत्रवृत्ति-न्यायावतारसूत्रवृत्ति-न्यायप्रवेशपंजिका पुस्तिका लिखापिता । पुरोहित हरीयाकेन लिखिता। 20 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । १४७ ३८०. बृहत्कल्पभाष्य ® सं० १४९० ® . [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० वर्षे मार्गशीर्ष सुदि पंचम्यां तिथौ गुरुवासरे वृहत्कल्पपुस्तकं लिखापितं ।। ३८१. व्यवहारवृत्ति ® सं० १४९०७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० मार्ग सु० ५ पंचम्यां तिथौ।। ३८२. व्यवहारवृत्ति [द्वितीयखंड ] ® सं० १४९०७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 5 संवत् १४९० वर्षे मार्गशीर्ष सुदि पंचम्यां तिथौ.........। ३८३. व्यवहारचूर्णि® सं० १४९० ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० वर्षे माघवदि ५ शुक्रे। ३८४. व्यवहारभाष्य-आदि ® सं० १४९० ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० वर्षे फा० वदि ९ गुरौ लिखितं श्रीस्तंभतीर्थ.........श्रीव्यवहारभाष्य-दशा-10 श्रुतस्कंधनियुक्ति-वृत्ति पुस्तकं लिखापितं । १३८५. दशाश्रुतस्कंधसूत्र-चूर्णि-आदि ® सं० १४९०७ [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० वर्षे चैत्रसुदि २ शुक्रे......। ३८६. बृहत्कल्पवृत्ति [द्वितीयखंड] ® सं० १४९०७ [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १४९० वर्षे वैशाष सुदि पंचम्यां तिथौ गुरु..... बृहत्कल्प द्वितीयखंड पुस्तकं । 15 ३८७. छन्दोऽनुशासनवृत्ति ® सं० १४९० - [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] सं० १४९० वर्षे आषाढ सुदि ६ शनिदिने श्रीमति स्तंभतीर्थे अविचलत्रिकालज्ञाज्ञापालनपटुतरे विजयिनि श्रीमत्रखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे लब्धिलीलानिलय बंधुरबहुबुद्धिबोधितभूवलय कृतपापपूरप्रलय चारुचारित्रचंदनतरुमलय युगप्रवरोपम मिथ्यात्वनिकरदिनकरप्रसरसम श्रीमद्गच्छेशभट्टारक श्रीजिनभद्रसूरीश्वराणामुपदेशेन प० गूजर सुतेन रेषाप्राप्तसुश्रावकेण धरणाकेन 20 पुत्र साईया सहितेन छन्दथूडामणिपुस्तकं लिखापितं पुरोहित हरियाकेन लिखितं ॥ ३३८८. उत्तराध्ययनवृत्ति [शान्तिसूरिकृता] ® सं० १४९१ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९१ वर्षे कार्तिक वदि ११ गुरौ । ३३८९. विशेषावश्यकलघुवृत्ति [कोट्याचार्यकृता] ® सं० १४९१ - [पाटण, संघवीपाडा भं०] संवत् १४९१ वर्षे द्वितीय ज्येष्ठवदि ४ भूमे श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमस्ति ॥ चैत्र वदि १२ शनौ 25 प्रभाते मंडितं ॥ छ । ३३९०. ओघनियुक्तिभाष्य ® सं० १४९१ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९१ वर्षे श्रावण सुदि १ बुधे श्रीमति स्तंभतीर्थे श्रीओघनियुक्तिभाष्यं लिखितं पुरोहित हरीयाकेन। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। ६३९१. आवश्यकबृहवृत्ति [मलयगिरिकृता] ® सं० १४९१ - [जेसलमेर, वृहद् भाण्डागार] संवत् १४९१ वर्षे श्रावण सुदि ८ भौमे श्रीमलयगिरिकृतश्रीआवश्यकबृहवृत्तिद्वितीयखंडपुस्तकं। ६३९२. उत्तराध्ययनटीका [ सुखबोधा] ® सं० १४९१ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] -इत्युत्तराध्ययनटीका[ यां] सुखबोधायां षट्त्रिंशमध्ययनं समाप्तं । संवत् १४९१ वर्षे श्रावण व० १३ रवौ श्रीस्तंभतीर्थे अविचलत्रिकालज्ञाज्ञापाल[न] पटुतरे विजयिनि श्रीमत्खरतरगच्छे श्रीजिनराज............ [क्रमाङ्क ३८७ सदृशो सबोंऽपि लेखः-] साईया सहितेन श्रीसिद्धांतकोशे श्रीउत्तराध्ययनलघुटीका सूत्रसहिता समाप्ता ॥ ६३९३. क्रियारत्नसमुच्चय [गुणरत्नसूरिकृत ] ® सं० १४९२ ® [ पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४९२ वर्षे श्रीपत्तननगरवास्तव्य सं० सांडा भार्या कामलदे सुत सं० कर्मणेन भार्या माईयुतेन स्वश्रेयसे स्वधनव्ययेन तपाश्रीसोमसुंदरसूरिगुरूणामुपदेशेन श्रीताडे क्रियारत्नसमुच्चयो लेखितो विबुधैर्वाच्यमानं चिरं नंद्यात् ॥ जयानन्दसूरीणां सत्कं ।। ६३९४. आवश्यकबृहद्वृत्ति [द्वितीयखंड ] ® सं० १४९२ ® [खंभात, शान्तिनाथभं०] संवत् १४९२ वर्षे आषाढ सुदि ५ गुरु श्रीमेदपाटदेशे श्रीदेवकुलपाटकपुरवरे श्रीकुंभकर्णराज्ये श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरिपट्टे श्रीजिनसागरसूरिराजानामुपदेशेन श्रीउकेशवंशीय नवलक्षशाखामंडन सा० श्री रामदेवभार्या साध्वीनी मेलादे तत्पुत्र राजमंत्रीधुराधौरेय साधु श्रीसजणपालस्तेन सा० रणमल्ल सा० रणधीर सा० रणवीर सा० भांडा सा० सांडा सा० रणभ्रम सा० चौंडा सा० कर्मसिंह प्रमुखसारपुत्रपरिवारपरिकलितेन निजपुण्यार्थ श्रीआवश्यक बृहद्वृत्ति द्वितीयखंडं भांडागारे लिखापितं ।। छ । शुभमस्तु ॥ चिरं नंद्यात् वाच्यमानं साधुवृंदैः । ६३९५. योगशास्त्रविवरण ® सं० १४९२७ [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] 20 संवत् १४९२ वर्षे पोष शुदि २ गुरौ अद्येह श्रीदर्भवत्यां......। ६३९६. सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय ® सं० १४९३ ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] संवत् १४९३ वर्षे श्रावण वदि १ गुरौ श्रीस्तंभतीर्थे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजमूरिपदे श्रीजिनभद्रसूरीश्वराणामुपदेशेन प० गूर्जरपुत्र प० धरणाकेन पुत्र साईया सहितेन श्रीसिद्धांतकोशे समस्तसिद्धांतविषमपदपर्यायपुस्तकं लिखापितं । 258 ३९७. प्रशमरतिप्रकरणवृत्ति छ सं० १४९७ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् १४९७ वर्षे कार्तिक शुदि १० गुरौ श्रीदेवलवाटकनगरे श्रीचंद्रगच्छे श्रीपूर्णचंद्रसूरिपट्टकमलहंसैः श्रीहेमहंससूरिभिः स्वयं पुण्यमेरुगणिभिश्च मुद्गलभंगे पं० हेमसारगणिमिलित पर्ण... पुस्तकस्यास्य हेममेरुगणिदर्शितादर्शकेन त्रुटितपूर्तिः कृता । चिरं नंदतु । साधुसाध्वीभिर्वाच्यमाना कल्याणमालां करोतु । ससूत्रस्यास्य ग्रंथस्य ग्रंथाग्रं श्लोक २५०० । अत्र तु पुस्तके असूत्रा वृत्तिरस्ति । एतद् ग्रंथानं सूत्रप्रमाणरहितं विचार्य कार्य बुद्धिमद्भिः । यादृशं पुस्तकं दृष्ट.... । 30 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह। १४९ ६३९८, कथावली [ भद्रेश्वरसूरिकृता] ® सं० १४९७ ७ [पाटण, संघवीपाडा भंडार] [प्रथमखंडप्रान्ते-] ग्रंथाग्रं १२६०० । संवत् १४९७ वर्षे वैशाष वदि १२ बुधे अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे महं माला सुत सांगा लिखितं ॥ छ । [ द्वितीयखण्ड प्रान्ते-] इय पढमपरिच्छेओ तेवीससहस्सिओ सअहमओ । विरमइ कहावलीए भद्देसरसूरिरइओ ति ॥ इति कहावलीसत्कस्य द्वितीयं खंडं समाप्तं ॥ छ । संवत् १४९७ । अवशिष्टलेखानुपूर्तिः। ६३९९. पर्युषणाकल्प ® सं० ९२७ ® (?) [अमदावाद, उजमबाई जैनधर्मशाला भंडार] पर्युषणा [कल्प ] ग्रंथाग्र १२१६ । संवत् ९२७ वर्षे आषाढ सुदि ११ बुधे । [जैनसाहित्यप्रदर्शन, प्रशस्तिसंग्रह पृ. ३] 10 ६४००. भवभावना [ मलधारी हेमचंद्रकृत] ® सं० ११९१ - [पाटण, संघवीपाडा भंडार] संवत् ११९१ वैशाष सुदि ४ शुक्रे ॥ मंगलं महाश्रीः॥ ६४०१. त्रिषष्ठिशलाकाचरित्र [१० म पर्व] ® सं० १२०८ ७ [खंभात, शांतिनाथ भं०] संवत् १२०८ वर्षे लिखिता। ६४०२. पिंडनियुक्ति ® सं० १२०९७ [खंभात, शांतिनाथ भंजर] 15 संवत् १२०९ कार्तिक वदि १२ सोमे पुस्तिकेयं लिखितेति ॥ छ । मंगलं महाश्रीः ॥ ६४०३. छड्डाश्रावक व्रतग्रहण प्रकरण ® सं० १२१६ ॐ [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १२१६ वर्षे कार्तिक सुदि १० तिथौ श्रीमानतुंगसूरिपार्श्वे ........ । ६४०४. सिद्धहेम [ अष्टमाध्याय] ® सं० १२२४ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १२२४ वर्षे भाद्रपद शुदि ३ बुधे । महं० चंडप्रसादेन सुत यशोधवलार्थे लिखितः। 20 ६४०५. रत्नदेवीश्राविका व्रतग्रहण प्रकरण ® सं० १२३२ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] संवत् १२३२ वर्षे दीवाली दिवसे गुरुवारे श्रीभद्रगुप्तसरिपार्श्वे व्रतप्रतिपत्तिः । ६४०६. भवभावनावृत्ति सं० १२४९७ [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १२४९ श्रावण सुदि ८ सोमे । ४०७. पाससिरिश्राविका व्रतप्रतिपत्ति ® सं० १२५९ ७ [खंभात, शांतिनाथ भंडार ] 25 संवत् १२५९ वर्षे शिवमूरिपार्श्वे व्रतग्रहणं । ६४०८. तपोरत्नमालिका ® सं० १२६५ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] - संवत् १२६५ वर्षे माघ शुदि ८ बुधे समर्थितमिदं । भरुअच्छे सम्मत्तं । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । ६४०९. योगशास्त्र-४ प्रकाश-मूलपाठ ® सं १२९४ [खंभात, शांतिनाथ भं०] संवत् १२९४ वर्षे माघ सुदि १५ रवौ पं० देवानंदस्य योग्यं लिखितमिति ॥ ६४१०. न्यायप्रवेशपंजिका ® सं० १३१८ ® [खंभात, शांतिनाथ भंडार] संवत् १३१८ वर्षे माघसुद १ रवौद्येह श्रीमद्पत्तने लिखितेति ॥ 5६४११. त्रिषष्ठीयमुनिसुव्रतचरित्र ® सं० १३१८७ [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १३१८ ज्येष्ठ शुदि २ रवौ लिखितं ।' ६४१२. शांतिनाथचरित्र ® सं० १३३८ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १३३८ वर्षे आषाढ शुदि १५ शनौ ॥ ६४१३. उत्तराध्ययनसूत्र ® सं० १३८१ ® [पाटण, संघवीपाडा भंडार] 10 सं० १३८१ वर्षे अद्येह श्रीअणहिल्लपुरपट्टने श्रीदेवसूरिगच्छे श्रीरामभद्रसूरिशिष्येण पं० महि चंद्रेण आत्मार्थ उत्तराध्ययनसूत्रपुस्तिका लिखिता। ६४१४. वसुदेवहिंडी ® सं० १३८८ ® [खंभात, शांतिनाथ भं०] सं० १३८८ वर्षे मार्गसुदि १३ भोमे स्तंभतीर्थे वसुदेवहिंडी लिखिता। ६४१५. उणादिविवरण ® सं० १४६०७ [खंभात, शांतिनाथ भं०] 15 संवत् १४६० वर्षे चैत्र वदि ९ गुरावशोधि । ६४१६. विशेषावश्यकवृत्ति (प्रथमखंड) ® सं० १५०८ (?) ® [पाटण, संघसत्क भं०] -साहुरतनसीह-साहुकुमरसीहाभ्यां लिखापितं ।""उपा० श्रीउदयधर्मेण सं० १५०८ वर्षे श्रीपत्तने वाचयां चके। ६४१७. उत्तराध्ययनसूत्र ® सं० १५१६ (?) [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] श्रीमत्श्रीवृद्धतपागच्छे भट्टारक श्रीरत्नाकरसूरिसंताने भट्टारक श्रीजयतिलकमरिपट्टप्रभाकरभट्टा० श्रीरत्नसिंहसूरिशिष्य भट्टा० श्रीउदयवल्लभसूरि श्रीज्ञानसागरसूरि महत्तरा श्रीधर्मलक्ष्मीगणिनी प्रमुखपरिवारस्य वाचनाय पुस्तकमिदं । श्रीउत्तराध्ययनसूत्र लघुवृत्तिश्च प्र१। [ पश्चाल्लेखः-] संवत् १५१६ वर्षे १५ रवी मृगशीर्ष नक्षत्रेऽयेह श्रीमदणहिल्लपुरपत्तने पात. श्रीमहिमूद विजयराज्ये पं० मुनितिलकगणि पं० उदयसारगणिभ्यां शोधितमिदं । परं तथापि 25 विद्वद्भिः शोध्यं ॥ ६४१८. निशीथचूर्णि® सं० १५४९ (?) [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] सं० १५४९ (१) वर्षे श्रीजिनसमुद्रसूरिविजयराज्ये महोपाध्याय श्रीकमलसंयमशिष्य श्रीमुनिमेरु उपाध्यायैर्ग्रन्थोऽयमधीयत । ६४१९. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति ® सं० १६३५ (?) ® [जेसलमेर, बृहद् भाण्डागार] 30 संवत् १६३५ वर्षे आषाढ शुदि नवम्यां पूर्णतां प्रापितं पत्रमदः प्रांतिमं श्रीजिनमाणिक्यसूरि पट्टांभोजभास्कर श्रीजिनचंद्रसूरिः (रिभिः ?)। 20 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मितिकाः कतिपया लेखाः । ९४२०. सिद्धहेमशब्दानुशासन रहस्यवृत्ति [ पूना, राजकीयग्रंथसंग्रहालय ] -इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां खोपज्ञसिद्धहेमचंद्राभिधानशब्दानुशासन रहस्यवृत्तौ चतुर्थस्य चतुर्थः ॥ चतुर्थोऽध्यायः । मंडलीमधिवसता यशोदेवांग यशोधवलेन लिखितेयमिति ॥ ९४२१. कलावती चरित्र ( प्राकृत ) [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] 5 सुविहितशिरोमणि श्रीमुनिचंद्रसूरि- प्रभुदेवसूरि- तच्छिष्य चारित्रचूडामणि श्रीविजयचंद्रसूरिशिष्यमाणिक्य चंद्रसूरि साधु जोग्या पुस्तिका श्रीविमलचंद्रोपाध्यायानां विमलतरपादान् ९४२२. द्व्याश्रयमहाकाव्य श्रीश्रीमालवंशीयव्यव० कपर्दिश्रावण श्रीजयसिंहसूरिभ्यः पुस्तिकेयं प्रदत्ता । ९४२३. हेतुबिन्दुटीका • सं० [ ] ७५ - हेतु बिंदुटीका समाप्ता । [...] ७५ वर्षे मार्गसिर"" [ पश्चाल्लेख:- ] ब्रह्माणगच्छे पंडित अभयकुमारस्य हेतुबिंदुतर्कः । 1 सं०.७१ सं०......७१ द्वि० श्रा० शु० ३ गुरौ ठ० राजडेन लिखितं । ९४२४. संग्रहणीसूत्र [ श्रीचंद्रसूरिकृत ] ९४२५. ललित विस्तरा सूत्रवृत्ति ९ ४२६. प्राकृतद्व्याश्रयकाव्य 1 [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ]15 अद्येह स्तंभतीर्थे पं० ज्ञानकीर्तिगणिना ललितविस्तरासूत्रवृत्ति पुस्तिका लिखापिता ॥ छ ॥ महं० मेधाकेन निजोद्यमेन लिखिता । यावचंद्रार्क पुस्तिका विजयिनी भवतु | [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] समाप्तं च । श्रीपृथ्वीचंद्रसूरिशिष्येण हरिचंद्रेण प्रह्लादनपुरे श्रीकुमारपालचरितं नाम प्राकृतव्याश्रयमहाकाव्यं । कार्तिक शुद्धि एकादश्यां खौ समर्थितं । सं० ॥ ग्रंथाग्रं श्लोकमानं ९५० ।। 20 ४२७. पंचांगीपुस्तिका......... [ पाटण, संघवीपाडा भंडार 110 [ पाटण, संघवीपाडा भंडार ] [ पाटण, खेतरवसहीपाटक ] श्रीमदूकेशवालीयवंशजातेन जिनप्रवचनप्रणीतधर्मवल्लभेन सिद्धांतप्रणीतानुष्ठानभावनायुक्तेन खीम्वडनाम्ना श्रावण, तथा तद्भार्यया शीलालंकारालंकृतया धर्मानुष्ठानकारिकया छा ( ? वा ) - च्छिनामिकया श्राविकया च खदुहितुर्गृहीतप्रव्रज्याया विनयश्रिया गणिन्याः पठनश्रवणादिनिमित्तं पंचांगीपुस्तिका स्वविभवेन एकादशांगीसूत्र लिखापनाभिप्रायमता लेखयित्वा सिद्धांतमहो- 25 दधिपारगामिभ्यः श्रीजयसिंहसूरिभ्यो वितीर्णा । सा वाच्यमाना नंदतु श्रीवर्द्धमानतीर्थं यावदिति ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह । $ ४२८. बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति (तृतीयखंड) [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] -ग्रंथ ९५५१ । साहु आसधर सुत साधु श्रीरतनसीह सुत तेजपालश्रेयोऽर्थ अयं कल्पवृत्तिपुस्तकं त्रित(? तृती)यखंडं कारापितं लिखापितं च ॥ शुभं भवतु ॥ ६४२९. पंचप्रमाणीपंचाशिका [श्रीककुदसूरिरचिता] [पाटण, संघसत्क भां०] 5 श्रीऊकेशगच्छे सुचिंतितगोत्रे श्रे० जसणागपुत्रराजदेवेन पितृमातृश्रेयसे दसवैकालिकसूत्रं पंच प्रमाणीपंचाशिका [च] लिखापिता । श्रीसिद्धसूरिगुरूणां प्रदत्ता च । ६४३०. कालिकाचार्यकथा [श्रीजैनानन्द पुस्तकालय, सुरत] इति श्रीकालिकाचार्यकथानकसमाप्तं । शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य । श्रीपूर्णिमापक्षीय भट्टारक श्रीपुण्यतिलकसूरिचरणकमलध्यानैकमनसां श्रीयतिशेखरसूरीणां ॥ श्रीः॥ [ जैनसाहित्यप्रदर्शन, प्र० सं० पृ० ३ ] ६४३१. उत्तराध्ययनसूत्र [पाटण, संघसत्क भां०] ४० धरणिगसुत लखमसीहेन उत्तराध्ययनसूत्रपुस्तिका व्यलेषि ॥ ६४३२. नवपदप्रकरण-सवृत्ति __ [पाटण, संघसत्कभाण्डागार] नवपदवृत्तिपुस्तक सो० जसवीर सुत श्रे० जसदेव । ग्रं० ९५०० लखित, पत्र २८०, पाठा २ 15 दोरि [सहित]। ६४३३. संग्रहणीप्रकरणादिपुस्तिका [पाटण, संघसत्क भां०] वरनागणि लिखितेयं खपठनार्थ कर्मक्षयार्थ च । वरनागगणि पुस्तिकेयं ॥ 10 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाक अजितनाथचरित्र ( १ ) [ त्रिषष्टीय ] १४३६ ९३१६ १४० (२) 33 ४० १४३७ ३८ १३०३ ११ १४ ११६९ ६१८ १०० 33 अजितनाथादिचरित्र अणुब्वयविही अनुयोगद्वारसूत्र अनुयोगद्वारचूर्णि (१) (२) 35 सूत्र - चूर्णि (१) "" अनुयोगद्वार सूत्र - वृत्ति ( १ ) (२) 33 अनेकान्तजयपताकावृत्तिटिप्पनक ( 1 ) 33 37 अभयकुमारचरित्रादि अभिधानचिन्तामणिनाममाला "" "" आचारसूत्र आचारांगसूत्र "" [after] अरिष्टनेमिपरित [ स्वप्रभसूरिकृत ] आख्यानमणिकोश [ समृत्तिक] आगमिक वस्तुविचारसारवृत्ति ( १ ) (२) 33 आचारांगसूत्रवृत्ति ( १ ) (२) (३) " 53 15 33 99 " " "" 33 "3 आवश्यकसूत्र (1) ,, (२) "3 29 33 १. परिशिष्ट । लिखित पुस्तकान्तर्गतबन्धानां नानामकारादिक्रमेण सनिः । 93 "" आवश्यक नियुक्ति (1) (२) 93 33 १४८५ ३५११४४ ” (४) आदिनाथचरित्र [ वर्द्धमानाचार्यकृत ] १३३९ २५१ १३१ २० २२ १५ १०० ८५ ७८ 39 33 "" " 33 33 33 33 33 (३) () (६) (७) २० जे० पु० १३०१ १३३३ १४५२ ३२६ १४१ १४५६ ३३२ १४१ ११७१ (२) १३५० १३०१ १९७ १२४ १४८० ९३४७ १४३ २१ १०१ १६० १३४ ९५ ८८ १९६१२३ २४२१२९ १३२७ २३१ १२८ १४७० ९३३९ १४२ ९० ८३ ११७२२२१०१ १३४३ २५५ १३२ ५५ ५६ २२९ १२८ १९८ १२४ १३२७ १३०३ १४५० ७८ ७३ १४६७ ३३४ १४२ ११६६ १३९१ १४४४ ४१ ४३ ११९१९३६ १०३ ११९८ ९४८ १०४ १९९८४९१०४ ७३ ७० १८५१२२ २१२१२५ ३०४ १३८ १२१२ १२९७ १३११ १४०० ग्रन्थनाम आवश्यक निर्युक्त्यादिप्रकरणपुस्तिका आवश्यकविशेषभाच्य सवृति [ कोव्याचार्यकृता ] आवश्यकचूर्णि (1) 23 ” (२) आवश्यकवृहद्वृत्ति [ हारिभद्री ] 33 "" 59 "" १४९२ ३९४ १४८ 33 आवश्यकवृत्ति (1) [तिखकाचा०] १४४५ ३२१ १४० ७७ ७३ (२) (३) आवश्यक सूत्रसवृत्तिक ( १ ) १४९२ १४४५ ८८ ११९२ ૨ 33 33 39 (२) १२९८ ९ १० १८८ १२२ १७११३ २५८ १२९७ १८४ १२२ १४६० ४१५१५० 39 " 33 आवश्यक टिप्पन (1) (२) 29 उणादिविवरण "" " "3 उत्तराध्ययन सूत्र ( 1 ) उत्तराध्ययन सूत्र (२) (३) (*) (५) 23 23 23 33 93 33 23 33 27 33 "" " 33 33 33 "" "" " 23 "" 33 33 33 ,, 33 33 उत्तराध्ययनपूर्णि उत्तराध्ययन] बृहद्वृत्ति ( १ ) [ शान्त्या - चार्यकृता ] " [ मलयमिरिकृता] [ द्वितीयखंड ] 39 33 33 (७) (१०) (99) (१२) (१३) 39 (२) (३) 22 (४) (५) लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क १२१३७११०८ १२९७ १८२ १२२ ( ८ ) गत अध्ययन १३०९ ६२०८ १२५ (९) 33 39 33 ११३८ १ ง १३६७ ६२७६ १३५ 22 १४८७ ९३५५१४४ १४८७ ९३७३ १४६ १४९१२१११४८ १४४२ ६३१७ १४० ६१०० ९६ ९४३११५२ ९ १०० ११५९ ११७९ २५१०१ १२३२ ९९ १११ FREE $101 111 १३४२ २५२ १३१ १३८१ १४१३ १५० १४०१ १०१ ९३ १४५२ २६० १३४ १५१६ ४१७ १५० १४८९३६८१४५ १३७२ २५४ १३१ १४५२ ९३२७ १४१ १४५४ १३३० १४१ १४९१३८८ १४७ ९३.८६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S " , वृत्ति .. १५४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-१. परिशिष्ट प्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क | ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क उत्तराध्ययनलघुवृत्ति [नेमिचन्द्रसूरिकृत]१२९६ ८१ ७५ ऋषिमण्डलवृत्ति १३८.६२८७ १३६ (१) , १३०८ २८ ३० ओधनियुक्तिसूत्र (1) ११५४ ६७ ९९ , , , (२) ११८१६२६ १०१ १२२८ ६९५ १११ ओघनियुक्ति-पिण्डनियुक्ति १२१९८० १०९ १३१०६२११ १२५ ओधनियुक्तिभाष्य १४९१ ६३९० १४७ १३५२ ३४ ३७ ओधनियुक्तिवृत्ति (१)[द्रोणाचार्य. १४८९ ६३७६ १४६ कृता] १२८९ ६१५६ ११८ , (सुबोधा) १४९१ ९३९२ १४८ , (२) १४८७ ६३५६ १४४ उत्तराध्ययनसूत्रसटीक औपपातिकसूत्र , , वृत्ति १४७३ ६३४० १४२ उद्भटालंकार ११५९ १० १०० १४८८ ६३६३ १४५ उपदेशकन्दलीवृत्ति [बालचन्द्र अंगविद्या १४८८ ६३६७ १४५ विरचित] १२९६ ६१७९ १२१ अंतगडदशासूत्र ११८५ ६२७ १०२ उपदेशपद [हरिभद्रसूरिकृत] (१) ११७११९ १०० अंतरंगसंधिप्रकरण १३९२ ६२९९ १३७ (२) १३५४ ६२७१ १३४ कथाकोशप्रकरण [जिनेश्वरसूरिकृत] १४८७ ६३५७ १४४ , टीका [वर्द्धमानाचार्यकृता] ११९३ ६४२ १०४ कथाकोश[विनयचन्द्रसूरिकृत] ११६६ १६ १०० १२१२ ६६८ १०७ कथारनकोश १२८६ ६१४७ ११७ उपदेशमाला (१) १२९२ ६१६७ १२० कथारत्नसागर [नरचन्द्रसूरिकृत] १३१९ ६२२३ १२७ उपदेशमाला (२) १३८३६२८९ १३६ कथावली [भद्रेश्वरसूरिकृता] १४९७ ६३९८ १४९ उपदेशमालादि-प्रकरणपुस्तिका (१) कथासंग्रहपुस्तिका १३३९ ६२४९ १३१ १२३७ ६१०२ ११२ कथासंग्रह [खड्गकुमारकथानक ] १३४५६२६३ १३३ ३) १२७९ ६१३५ ११६ कर्मग्रंथवृत्ति १४४७ ६३२४ १४० १३०८६२०४ १२४ कर्मविपाक टीका (1) १२७५ ६१३३ ११५ " , (५) १३३२ ६२४१ १२९ १२८८६१५० ११८ १३३४ ६२४५ १३० १२९५ ६१७४ १२० उपदेशमणिमालादिप्रकरणपुस्तिका १३८८ ६२९५ १३७ कर्मविपाक-स्तववृत्ति पुस्तिका १३४३ ६२५७ १३२ उपदेशमालावृत्ति [सिद्धर्षिकृता] १३३१ ६२४० १२९ कर्मस्तवटीका (१) [गोविंदगणिउपदेशमालाटीका [ रत्नप्रभकृता] १२२७ ६९२ ११० कृता] ११७९ ६५ ६५ १२७९ १३६ ११६ __, , (२) १२८८६१५० ११७ विवरण ,, १२९१ ६१६२ ११९ कर्मप्रकृति वृत्ति [मलयगिरिकृता] १३३१ ६२३९ १२९ १२९३ ६१६८ १२० , [संग्रहणी टीका ] १२२२ ६४८५ ११० १३९४ ६३०० १३७ कलावतीचरित्र [प्राकृत] - ४२११५१ उपदेशमाला [मलधारीहेमसूरिकृता] १३२९ ६२३६ १२९ कल्पवृत्ति [प्रथमखंड] १४८८ ६३६२ १४५ उपदेशमाला-पुष्पमालावृत्ति , १४२५ ६३१५ १३९ कल्पसिद्धान्त १४२७८७ ८१ उपमितिभवप्रपञ्चा कथा (१) कल्पसूत्र (1) १३३५ १२४६ १३० , , , (२) १२६१ ६११८ ११४ , (२) १३४४ ६२६० १३२ " " , सारोद्धार , (३) १३७७ ६२८३ १३५ उपमितिकथासमुच्चय ५० ५० १४२१ ६३१२ १३९ उपासकदशाचूर्णि ११८६ ६३१ १०२ कालकसूरिकथा (१) उपांगपंचकवृत्ति १३१०६२०९ १२५ १३३५ ६९ ६८ ऋषभदेवचरित्र (१) [वर्द्धमाना १३३६ १२४८ १३० चार्यकृत] १२८९ २४ २५ १३४४ ३१ ३५ " , (२) , १२८९ ६१५३ ११८ । १३६२ ३५ ३० " Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम कल्पचूर्णि (1) " (२) (३) 33 23 कविरहस्यवृत्ति कातंत्रवृत्ति विवरण पंजिका कातंत्रोत्तरापरनामविद्यानंद (व्याकरण) [ विद्यानंदकृत ] कादम्बरीशेष ( उत्तरभाग ) कालिकाचार्यकथा काव्यकल्पलताविवेक काव्यप्रकाश [ राजानक-मम्मटकृत ] काव्यमीमांसा [राजशेखरकृता ] काव्यादर्श (१ ) [ दंडीकृत ] (२) 23 23 काव्यानुशासनसवृचिक काव्यालंकारवृत्ति कुमारपाल प्रतियोध कुमारपालप्रबन्ध [ अज्ञातकर्तृक ] कुवलयमाला [प्राकृतकथा ] कुशलानुप्रकरणादि कुसुममालावृत्ति क्रियासमुचय [गुणरवसूरिकृत ] क्षेत्रसमासटीका [ सिद्धाचार्यकृता ] खरतरपट्टावली ( काव्यप्रकाश संकेतात्मक ) [ सोमेश्वरकृत ] खण्डनखण्डखाद्य [ श्रीहर्षकृत ] गणधरसार्धशतकवृत्ति " 33 गौडवधमहाकाव्य [ वाक्पतिराजकृत ] गोडवडोनाम चतुर्विंशतिस्तुतिवृत्ति [ बप्पभट्टीया ] चतुष्कवृत्तिसाधनिका चैत्यवंदन भाय्यादिप्रकरणसंग्रह चंद्रज्ञसूत्र (1) ” (२) चन्द्र प्रज्ञप्तिवृत्ति चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति 33 "" " " 33 93 39 (२) "" 33 (३) चंद्रप्रभचरित्र [ यशोदेवकृत ] लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाड १२१८ ९७९ १०९ १३३४ ९२४३ १३० १३८९ २९६ १३७ १२१६ ९७७ १०८ १४११ ९३०८ १३८ टीका ( १ ) [ मलय "" जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - १. परिशिष्ट १२०८ ९६३ १०६ १२८२ १३८ ११६ ई४३० १५२ १२०५ ६५६ १०५ ९७४१०८ ९७६ १०८ ११६१ १३ १०० ११९० ९३५१०३ १२१५ १२१६ 1963 $128 114 १३९० ६२९७ १३७ ११७८ २४ १०१ १४५८ ९३३३ १४२ १४७५ ९३४२ १४३ ११३९ ६३ ९९ १३६९ २७८ १३५ १३१३ २१६ १२६ १४९२ ९३९३ १४८ १२७४ १३२ ११५ ११७१२० १०१ १२९१ १६३११९ १२९५ ६१७३ १२० १२६४ १२० ११४ १२८६ १४५११७ १२११६६ १०७ १३४० २५१ १३१ १२६९ २७७ १३५ १४७९ ३४५ १४३ १४८०३४९ १४३ ७६ ७२ ९४ १४४५१०२ गिरिकृता ] १४८० ९३४८ १४३ १४८१ ७६ ७२ १४८८ ३६० १४५ १२१७ ९७८ १०८ See 330 [ हरिभद्रसूरिकृत ] १२२३ ग्रन्थनाम छड्डाआवकतग्रहणप्रकरण छन्दोऽनुशासन [ जयकीर्त्तिकृत ] छन्दोऽनुशासनवृति जयदेवच्छन्दःशास्त्र जयन्तीवृत्ति (१) 33 (२) जिनदत्ताख्वान (1) (२) 33 जीतकल्पसूत्र जीतकल्पसूत्रवृत्ति ११८६ २९ १०२ १२४६ १०७ ११२ १२९२ ४ १९ १०९ ९६ जीतकर चूर्णव्याख्या 3268 §101 114 जीवसमासवृति [म० हेमचन्द्रकृत ] ११६४ जीवाभिगमसूत्र १४४४ जीवाभिगमअध्ययन टीका जीवाभिगमवृत्ति जीवाजीवाभिगमवृत्ति-आदि जंबुद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र (1) १४ १०० १४४४ ६३२० १४० ७१. ६९ १४८९६३७४१४६ १४८९३६९ १४५ ९६ ९१ (२) ३४४ १४३ आदि ३०९ १३८ 29 "" ज्ञाताधर्मकथावृत्ति ज्ञातासूत्रवृति ज्ञाताद्यङ्गचतुष्टय ठाणांगसूत्रवृत्ति तपोरादिका 23 ज्ञाताधर्मकथादिषडंगविवरण ज्ञाताधर्मकथादिषडंगीवृत्ति ज्ञाताधर्मकथा तथा रवयूढकथा ज्ञानपंचमीकथा [ महेश्वरसूरिकृता ] ज्ञानार्णव 33 23 तत्वार्थ सूत्रवृत्ति [ भाष्यसहिता ] तत्त्वोपप्लव [ जयराशिभट्टकृत ] तिरयोगालिप्रकरण त्रिषष्टिशा कापुरुषचरित्र "" 23 27 ,, " 23 33 23 33 "" " 29 "" 23 "" "" "" " तृतीयपर्व ,, सप्तमपर्व " 39 "" 19 महावीरचरितात्मक दशमपर्व (1) (२) 33 33 १५५ लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क १२१६४०३. १४९ ११९२ ४११०४ १४९० ९३८७ १४७ ११९० ३३१०२ १२६१ २३ २४ १२६१११९११४ मुनिसुव्रतचरित्र नेमिचरित अष्टमपर्य "" १४७८ १४१२ ५७ ५७ १३८६ ९२९३ १३७ ११८९ २ ૨ १२९५ १२२५ ६८९ ११० २६ २८ १२२१ ६८३ १०९ १३१३ २१४ १२६ १२८४ ७९ ৩४ १४८६३५४ १४४ १२६५ ४०८ १४९ १४४५ ३२२-१४० १३४१२६५१३३ ९३२६ १४१ १०६ ९५ १२९५ ९१७७ १२९ १३१८२२११२० १२१८ ४३११५० १३७५ ७२. ७० १३९१ २९८ १३० १४२४ ९३१४ १३९ ९२ ८५ १२०८ ४०१-१४९ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-१. परिशिष्ट प्रन्यनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठा " " " (३) १३१९ ६२२२ १२७ धर्मोत्तरटिप्पनक [मल्लवादी आचार्यकृत] १२३१ ६९८ १११ दमयन्तीकथा (चम्पू) [त्रिविक्रमभट्ट धर्मोपदेशमालादिप्रकरणपुस्तिका १३५४ ६२६९ १३४ कृत] १३४४ ६२५९ १३२ धातुपारायणवृत्ति [हेमचन्द्राचार्यकृता] १३०७ ६२०३ १२४ दशवैकालिकसूत्र १२६५६१२३ ११४ नवपदप्रकरण वृत्तिसह - ६४३२ १५३ , , वृत्ति [नियुक्ति-सूत्र ] १२८९६१५५ ११८ , , टीका [देवगुप्ताचार्यकृता] १३२६ ६२२७ १२८ " ,चूणि १४८९९३७० १४६ ___" , लधुवृत्ति ११९२ ६४० १०३ , वृत्ति (१) [हरिभद्र नन्दीसूत्रटीका (१) [मलयगिरिसूरिकृता] १३२६ ६२२५ १२७ कृता] १२९२ ६१६६ ११९ , वृत्ति (२), - १०० ९३ १४८८ ६३६६ १४५ , , , (३), १४८९ ६३७५ १४६ नन्दीदुर्गपदव्याख्या १२२६ ९. ११० ,, (लघु) टीका १२४८६१०९ ११३ नन्द्यध्ययनटीका १४७९ ४९ ४८ ,, वृत्ति सुमतिसूरिकृता] ११८८ ६३२ १०२ नागानन्दनाटक [हर्षकविकृत] १२५८ ११३ ११३ , [सुमतिगणीकृता] १४८८६३६५ १४५ निघण्टुशेष [हेमचन्द्राचार्यकृत] १२८०६१३७ ११६ , , पाक्षिकसूत्र १३५२ ६३३ ३७ निरयावलीसूत्र १४७३ ६३४१ १४३ दशवैकालिकादिसूत्रपुस्तिका (१) १२८४ ६१४२ ११६ निर्भयभीमव्यायोग [ रामचन्द्रकविकृत ] १३०६ ६२०२ १२४ १३७२ ६२८२ १३५ निशीथसूत्रभाष्य ११४६ ६६ ९९ दशाश्रुतस्कंधचूर्णि १३२८६२३४ १२९ " , चूर्णि (१) [जिनदासगणि,,, आदि १४९०६३८५ १४७ महत्तरकृता] १९४५ ६४ ९९ दर्शनशुद्धिप्रकरणविवरण [देवभद्रा " , (२) , १९५७ ६८ ९९ चार्यकृत] १२२४ ६८९ ११० " , " (३) , १३५९ ६२७३ १३४ दानादिप्रकरणसंग्रह १२०३ ६५५ १०५ , (४) , १५४९ ६४१८ १५० देववंदनादिप्रकरणपुस्तिका , , , (५)प्रथमखंड १३३० ६२३७ १२९ १२९०६१५७ ११८ देशीनाममाला [हेमचन्द्रसूरिकृता] १२९८६१९१ १२३ , , , (६) द्वितीयखंड १२९४ ६१७२ १२० नीतिवाक्यामृत [सोमदेवसूरिकृत] १२९० ६१६० ११९ द्रव्यालंकारवृत्ति [रामचन्द्र-गुणचन्द्र नेमिचरित्र [हेमचन्द्रसूरिकृत] कृता] १२०२ ६५४ १०५ , [भवभावनावृत्यान्तर्गत] १२४५ १०६ ११२ व्याश्रयमहाकाव्य [हेमचन्द्राचार्यकृत] - ६४२२ १५१ नैषधमहाकाव्य (1)[श्रीहर्ष. १३३५ ६२४७ १३० कविकृत] १३०५ ६२०१ १२४ , , सवृत्तिक [प्रथमखंड] १४८५६३५२ १४४ १३७८ ६२८५ १३६ , ,, [द्वितीयखंड] १४८६ ६३५३ १४४ १३९५ ६३०१ १३० धनदेव-धनदत्तकथा १३९८६३०३ १३८ न्यायकन्दलीवृत्ति [श्रीधररचिता] १२४२ १०४ ११२ धन्यशालिभद्रचरित्रादिपुस्तिका १३०९ ६२०५ १२५ न्यायकुसुमाञ्जलि निबन्ध [वामेश्वरधर्मरत्रप्रकरण १३२५ ६२२५ १२७ ध्वजकृत] १३४२ ६२५३ १३१ , , वृत्ति १२७१६१२५ ११५ न्यायप्रवेश टीका [हारिभद्रीया] १२०१ ५२ १०५ " , प्रकरणलधुवृत्ति १३०९ ६२०७ १२५ न्यायप्रवेशपंजिका १३१८ ६४१० १५० धर्मविधि ११९० ६३४ १०२ न्यायबिन्दुसूत्रवृत्त्यादि १४९०६३७९ १४६ धर्मविधिवृत्ति [ उदयसिंहाचार्यकृता] १४१८ ८६ ७९ न्यायबिन्दु-लघुधर्मोत्तरटीका १२७४ ६१२९ ११५ १४१८६३११ १३९ न्यायावतार १४८९ ६३७७ १४६ धर्मशर्माभ्युदयकाव्य (१) [हरिश्चन्द्र पउमचरियं ११९८४७ १०४ कृत] १२८७६१४८ ११७ परिग्रहपरिमाणवतप्रकरण ११८६ ३० १०२ परिशिष्टपर्व (१)[हेमचन्द्रा. धर्मसंग्रहणीवृत्ति चार्यकृत] १३२९ १३ १५ धर्माभ्युदयमहाकाव्य १२९० ६१५९ ११९ , (२) " १३९६ ६३०२ १३० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मचरित्र (पउमचरिय ) पंचकश्पभाग्य पंचमीकहा [ महेश्वरसूरिकृता ] पंचमीकथा पंचवस्तुक पंचवस्तुसूत्र पंचप्रमाणी पंचाशिका ( ककुदसूरि रचिता] पंचप्रस्थान विषम पद व्याख्या पंचप्रस्थानव्याख्या पंचाशकप्रकरण 39 33 39 39 " पंचाशकादिप्रकरणसंग्रह पंचांगी पुस्तिका 39 पंचांगी सूत्र पंचांगी सूत्रवृत्ति (१) 39 93 33 (२) पंजिकोद्योत [ त्रिविक्रमकृत ] पर्युषणाकल्प (१) ( २ ) 33 12 39 ग्रन्थनाम 33 "" 39 39 39 ," 33 93 33 39 33 पर्युषणापटिप्पन [पृथ्वीचन्द्रसूरि कृत ] "" 99 "3 33 पाक्षिकसूत्र पूर्णिवृत्ति ," पाससिरिश्राविकावप्रतिपत्ति 33 35 35 25 पार्श्वनाथचरित्र वृति (१) (२) (३) 33 33 (2) ( ४ ) 33 (५) (६) "" (७) 23 33 " कालक सूरिकथा 33 वृत्ति (१ ) [ यशोदेव (२) लेखन संवत् कमाइ ठा १४५८ *& ४६ [ देवभद्राचार्यकृत ] [ सर्वानन्दसूरिकृत ] [ भावदेवसूरिकृत ] [ माणिक्यचन्द्राच्ययेकृत ] जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - १. परिशिष्ट १४५६३२१११ ६. ९९ 8 ११०९ १३१३ १२ १५ ६५ ६५ ११६१ ११ १०० ४२९ १५२ १४८० ३४६ १४३ ६९४ ८७ - १२८८ १२०७ १४४२ --- १५१11८ ५९१०५ ४२ ४० १४४२३१८१४० १२८४ १४० ११६ ६४२७ १५१ १२५८ ११६ ११३ १३०१ १९५१२३ १४५५ ४५ ४५ १२२१८४१०९ ९२७ ३९९ १४९ १० १२ ९९ ९३ १२४७ १०८ ११२ १३०० ८२ ७६ १३३० १४ १७ १३६४ २७५ १३५ १३८४२९१ १३६ १३७७ ६२८४१३५ १४०४ ९३०६ १३८ १२५९ ४०० १४९ १२९६ १८० १२१ सूरिकृता ] १३०९ २०६ १२५ १३२७ २३० १२८ १४३६ ३७ ४० १४५५ ४४ ४५ ११९९ ४ ५ १३०६ १७६ १३५ १३७९ १७ १९ ५९ ५९ ग्रन्थनाम पिंढनियुक्तिसूत्र "" 39 पिंडविशुद्धि "" 39 23 पुष्पमाला ११९१ १२९६ १०८ १२१ १२१२ ९६७ १०७ पुष्पवतीकथा आदिकरणसंग्रह 1191 824 202 १०३ पूजाविधान [रखचूडादिकथा ] ९६४ १०६ पृथ्वीचन्द्र चरित्र [भजितसिंहरिकृत ] १२१२ ६९ १०७ प्रकरणपुस्तिका ( १ ) ९७५ १०८ १२५८६११७११४ १२०८ १२१५ (२) (३) १२८६ १४६ ११७ (४) १२९२ १६५ ११९ (५) १२९३ १६९ १२० १३८० ६२९४ १३० १२४४१०५११२ " 39 " 23 33 प्रज्ञापनाटीका प्रत्याख्यान विवरण प्रबोधचन्द्रोदयनाटक प्रमाणान्तर्भाव " प्रमालक्षण प्रवचनसारोदार [ मूलपाठ ] वृत्ति " " प्रशमरति प्रकरणवृत्ति ( १ ) [ हरि भद्राचार्यकृता ] (२) 23 33 33 39 "3 प्राकृतव्याश्रयकाव्य बृहत्कल्प भाष्य चूर्णि वृत्ति [ द्वितीयखंड ] [ तृतीयखंड ] 39 " "" 32 33 33 " "" 25 29 33 33 32 भगवतीसूत्र (1) (२) (३) वृत्ति (१) 23 53 33 33 ४२८ १५२ 33 पीठिका [ मलयगिरिकृता ] १३७८ ६२८६ १३६ वृहत्संग्रहणी आदिप्रकरणपुस्तिका ( 1 ) १२०३ १२७ ११५ (२) १२७८ १३४ ११६ ०१११ ९२ ९९ ९९७ १११ १२३१ १३५२ १६ १८ ३ ४ १२७४१३१११५ १२९८ १८७ १२२ १३१८ ६२२० १२६ १४८८३६११७५ ११८७ Śરૂ ૧૦૨ १३. 33 " 22 "" 39 39 39 "" वृत्ति ( १ ) [ मलयगिरि "" " 33 23 33 कृता ] १२८९ १५४ ११८ (२),,,, १४८९६३७११४६ 33 95 33 93 "" १५७ लेखन संवत् फमा ठाड १२०९४०२१४९ 32 23 (२) (२) (v) (५) [ तृतीयखंड ] १३६१ ११९४ १२०१ ५१1०५ १२९५ १७५ १२१ १३०६ ११० ९७ २७४१३४ Ś૪૪ ૧૦૨ १२९८ १८६१२२ १४९७६३९७ १४८ ४२६ १५१ १४९० ९३८० १४७ १२९११६१११९ १४९० ९३८६ १४७ १४८९ ९३७२ १४६ - ११९४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-१. परिशिष्ट (३) " ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्टाङ्क | भवभावना (१) [मलधारी-हेमचन्द्र सूरि कृता] १९९१ ६३७ १०३ । , ,, (२) , ११९१ ६४०० १४९ ,, वृत्ति १२४९ ६४०६ १४९ भुवनसुन्दरीकथा १३६५ ८४ ७८ महानिशीथसूत्र (1) १३८२ ६२८८ १३६ १४५४ ६३२९ १४१ महापुरिसचरिय [शीलाचार्यकृत] १२२७ ६९१ ११० महावीरचरित्र (१) [नेमिचन्द्रसूरि कृत] ११६१ १२ १०० " " (२) , ११९७ ६४६ १०४ १२३६ ६ " " (४) , १२९४ ६१०४ ९५ १३६८ ३६ ३९ ,,, (त्रिषष्टीय)() १२९४ ६१७१ १२० ( , (२) १३२४ ६२२४ १२७ , , ( , )(३) १३७२ ६२८१ १३५ , , [गुणचन्द्रसूरिकृत] १२४२ ६१०३ ११२ मुनिसुव्रतचरित्र [पद्मप्रभकृत] १३४३ ६२५८ १३२ युगादिदेवचरित १३३० ९७ ९२ योगदृष्टिसमुच्चय [हरिभद्रसूरिकृत] ११४६ ५ ९९ योगशास्त्र [चतुर्थप्रकाशपर्यन्त मूल] १२८५ ६१४३ ११७ , , , , ] १२९४ ६४०९ १५० ,,, [प्रथमप्रकाश ] विवरण १२५५ ६११२ ११३ " , वृत्ति (१) [हेमचन्द्रा चार्यकृता] १२५१ २२ २३ " " " (२) , , १२५१ ६१११ ११३ ,, , (३) , , १२९१ २५ २७ " , विवरण (१) १२७४ ६१३० ११५ " " , (२) १४९२ ६३९५ १४८ , ,,-वीतरागस्तोत्र १२२८ ६९३ ११० योगशास्त्रादिप्रकरणपुस्तिका (१) १३०३ ६१९९ १२४ १३३० ६२३८ १२९ योगसार ११९२ ६३९ १०३ रत्नदेवीश्राविका व्रतप्रतिपत्ति १२३२ ६४०५ १४९ राक्षसकाव्यटीका १२१५ ६७३ १०० राजप्रश्नीय - ६६० ६० , सूत्र-वृत्ति ५४८८ ६३६४ १४५ रुद्रटालंकारटिप्पन १२०६ ६५८ १०५ लघुकल्पभाष्य १४८८६३५८ १४४ ललितविस्तरा चैत्यवंदनसूत्रवृत्ति [हरिभद्रसूरिकृता] ११४५ ६२८ १०२ ४२५ ११५ ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाक लिङ्गानुशासन १२७३ ११२८ ११५ , , [वामनाचार्यकृत] १२८७ ६१४९ ११७ लीलावतीकथा [भूषणभट्टतनयकृता] १२३५ ६१२२ ११४ वर्द्धमानस्वामिचरित १३२६ १२२७ १२० वसुदेवहिंडी १३८८ ६४१४ १५० वाराही संहिता १३१३ ६२१५ १२६ वासवदत्ता १२०७ ६६२ १०६ वासुपूज्यचरित्र [वर्द्धमानसूरिकृत] १३२७ ६२३३ १२९ विक्रमांककाव्यादि १३४३ ६२५६ १३२ विवेकमंजरीप्रकरणवृत्ति १३२२ ३० ३४ विशेषावश्यक प्रथमखंड १४८८६३५९ १४५ विशेषावश्यकवृत्ति [शिष्यहिता] १२९४ ६६ ६५ , , वृत्ति (प्रथमखंड) १५०८६४१६ १५० ,,, (द्वितीयखंड) १४५३ ६३२८ १४१ ,, लघुवृत्ति [कोट्याचार्य कृता] १४९१६३८९ १४७ वीतरागस्तोत्र १३०५ ६२०० १२४ व्यवहारसूत्रादि । १३०९ २९ ३२ , भाष्यादि १४९० ६३८४ १४७ ,, भाष्यवृत्ति (त्रुटित) १४७० ६३३८ १४२ , सूत्रचूर्णि (1) - १०५ ९५ " " , (२) १४९० ६३८३ १४७ १४९० ६३८१ १४७ ,, टीका [मलयगिरिकृता] (प्रथमोद्देशक) १३४४ ६२६१ १३३ , , वृत्ति (द्वितीयखंड] १४९० ६३८२ १४७ व्याकरणचतुष्कावचूरि १२७१ १२४ ११५ शतकचूर्णि (१) ११७५ ६२३ १०१ ११९६ ६४५ १०४ १२३२ ११०० १११ (४) १४२३ ६३१३ १३९ " , टिप्पनक २१ २२ ,, ,[मुनिचन्द्रसूरिकृत] १३३४ ६२४४ १३० शतकटीका [ देवेन्द्रसूरिकृता] १३५४ ६२७० १३४ शतपदिका (१) १३०० ६१९४ १२३ १३२८ १ ९७ शब्दानुशासन १४७० ९८ ९२ शान्तिजिनचरित्र (१) [हेमचन्द्रीय] - १८ २० शान्तिनाथचरित्र (२) १३३० ८३ ७७ १३३८ ६४१२ १५० " " (४) १४१२ ६३१० १३० (१)[देवचन्द्रसूरि ___ कृत] १२२७ ५ . " " " " , वृत्ति विवरण "" सूत्रवृत्ति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-१. परिशिष्ट १५९ ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क । ग्रन्थनाम लेखन संवत् क्रमाङ्क पृष्ठाङ्क (२) , , - ५१ ५१ सामाचारी १२४० १०८ ९६ (१)[अजितप्रभाचार्य [तिलकाचार्यकृता] १४०९ ६३०७ १३८ कृत] १३८४ ६२९२ १३६ सार्द्धशतकवृत्ति १३१३ ६२१३ १२५ , ,(२) ,, , १३८४ ६२९० १३६ सांख्यसप्ततिभाष्य [गौडपादाचार्यकृत] १२०० ५० १०५ सिद्धहेमशब्दानुशासन १३७०६२८० १३५ , [माणिक्यचन्द्रकृत ] १४७० ६३३६ १४२ ." " , रहस्यवृत्ति ४२० १५१ श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति सिद्धहैम अवचूर्णिका १२६४९१२१ ११४ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि [ विजयसिंह सिद्धहैम [अष्टमोऽध्याय] १२२४ ६४०४ १४९ सूरि कृता] १३१७ ६२१९ १२६ सिद्धप्राभृतटीका १४४४ ६३१९ १४० श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति [पार्श्वचन्द्र सिद्धान्तविचार १२१२ ८० ७५ गणिकृता] १२२८६९४ १११ सिद्धान्तोद्धार १२१२६७० १०८ श्रावकप्रतिक्रमणटीका १२९८ ११८९ १२३ सुकोशलचरित्र १२१३ ६७२१०० " , सूत्रवृत्ति [श्रीचन्द्र सुदर्शनाचरित्र १४५१ ४२ ४३ सूरिकृता] १२९९ ११९२ १२३ सूक्तरत्नाकर मन्मथसिंहकृत ] १३४७ १५ १७ १६३५९४१९ १५० सूयगडांगवृत्ति १३२७६२३२ १२८ श्रेयांसचरित्र [देवप्रभसूरिकृत ] १४७० ६३३७ १४२ सूत्रकृतांगसूत्र १४६८६३३५ १४२ षट्कर्मग्रन्थवृत्ति १४४७६३२५ १४१ ,,,,, टीका १४५४ ४२ ४४ षद्विधावश्यकविवरण [ योगशास्त्रगत ] १२९५६१७६ १२१ । सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति १४८१ ६३५० १४४ षडशीतिप्रकरणवृत्ति [मलयगिरिकृता] १२५८६११५ ११३ ,,, [मलयगिरिकृता] १४८९ ६३७८ १४६ समरादित्यचरित (१) (प्राकृत) स्थानाङ्गसूत्रटीका १३४६ ६२६४ १३४ [हरिभद्रसूरिकृत] - ५८ ५८ स्थाद्वादमंजरी १३५७ ६२७२ १३४ " , (२) , १२१९ २७ २९ स्थाद्वादरत्नाकर १४७६ ६३४३ १४३ __, , (३) , १२५०६११० ११३ स्याद्वादरत्नाकरावतारिका १२२५६०८११० समवायांगसूत्रवृत्ति १३४९ २६६ १३३ स्याद्यन्तप्रक्रिया [सर्वधरविरचिता] १२०७ ६६० १०६ सतरीटीप्पनक [रामदेवगणिकृत ] १२११ ६५ १०६ हम्मीरमदमर्दन [नाटक] १२८६ ६१४४ ११७ सप्ततिका टीका १२२१ ९८२ १०९ हितोपदेशामृतादिप्रकरण १३१० ६२१० १२५ , ,, [मलयगिरिकृता] हेतुबिन्दुटीका १४६२ ६८ ६७ ००७५ ६४२३ १५१ सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय १४९२ ६३९६ १४८ हैमव्याकरणपुस्तिका १२९४ ६१७० १२० सम्मतितर्कवृत्ति १४४६ ६३२३ १४० " , चतुष्क १३१५ ६२१६ १२६ संजमाख्यानक [विजयसिंहाचार्य] ११६९ ६१७ १०० ,, लघुवृत्ति १२०५ ६५७ १०५ संघाचारभाष्य ,,, अवचूरिका १३२९ ६२३५ १२९ १४०५ ६३०५ १३० संवेगरंगमाला " , अवचूरि १२०७ ६६१ १०६ टिप्पनक संग्रहणीसूत्र (१)[श्रीचन्द्रसूरि १२८८ ६१५२ ११८ " , लघुवृत्ति (पंचमोऽध्याय) १२२१६८१ १०९ कृत] १२७१६१२६ ११५ हैमबृहवृत्ति (तद्धितप्रकरण) १२९७ ६१८३ १२२ " " (२) , , ०७१ ६४२४ १५१ हैमव्याकरणान्तर्गततद्धितप्रकरण १२९८ ६१९० १२३ १२०१ ६५३ १०५ ,,, कृबृहद्वृत्ति १३००६१९३ १२३ " , टीका (1)[मलय हैमउणादिसूत्रवृत्ति १२३१ ६९६ १११ गिरिकृता] १२९०९१५८ ११९ हैमानेकार्थसंग्रह (सटीक) १२८२८० , , , (२) , १२९६ ६१८१ १२२ हैमी नाममाला (अभिधानसंग्रहणीप्रकरणादि पुस्तिका ६४३३ १५३ । चिन्तामणि) १३१४ ६२१७ १२६ " " " वृत्ति Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकस्थितग्रन्थकाराणां नाम्नामकाराद्यनुक्रमिकसूचिः । १०. १०६ १४८ - १२३ - २५| ११९ १३३ अजितप्रभ सूरि ६१,१३६ | बप्पभट्टि सूरि १०७ विजयसिंह सूरि १२६ आम्रदेव सूरि |बाण[महाकवि ११६ विजयसिंहाचार्य उदयसिंहाचार्य ७९,१३९ बाणकवि-सन ११६ विजयानंद ककुद सूरि १५२ भद्रेश्वर सूरि १४९ | विनयचन्द्र सूरि १०. कोव्याचार्य १,१४७ भावदेव सूरि १९ शान्त्याचार्य १३१ गुणचन्द्र [मुनि १०५ भूषण भट्टतनय ११४ शान्ति सूरि १४७ , [गणी] ११२ मम्मटालक १०८ शीलाचार्य ४४,११० गुणरत्न सूरि मलयगिरि सूरि ४८,६७,७२,१०९,११३, शुभचन्द्र गोविन्द गणि ११७ ११८,११९,१२२,१२९,१३३, श्रीचन्द्र सूरि गौडपादाचार्य १०५ १३६,१४५,१४६,१४८ श्रीधर ११२ चन्द्र सूरि ११५ मलयप्रभ सूरि श्रीप्रभ सूरि जयकीर्ति १०४ मल्लवादी [आचार्य] १११ श्रीहर्ष जयराशिभट्ट महेश्वर सूरि ९९,१२६ सर्वधर उपाध्याय १०६ जिनदास गणि [महत्तर] १९ माणिक्यचन्द्राचार्य ५९,१४२ सर्वानन्द सूरि १३५ जिनभर गणि [क्षमाश्रमण] मानतुंग सूरि २५ सिद्धर्षि ५३,५४,१२९ जिनेश्वर सूरि मुनिचन्द्र सूरि १०१,१३० सिद्धाचार्य ११५ तिलकाचार्य ७३,१३८,१४० यशोदेव (१) सुमति गणि १४५ त्रिविक्रम भट्ट १३२ यशोदेव (२)[सूरि] सुमति सूरि १०२ दंडी [ महाकवि] १००,१०३ रत्नप्रभ सूरि १२०,१३७,१४२ सोमदेव सूरि देवगुप्त १२८ ११९ देवचन्द्र सूरि राजशेखर सूरि १४६ सोमेश्वर ११६ देवप्रभ सूरि राजानक ११७ १०८ हरिचन्द्र देवभद्राचार्य रामचन्द्र कवि १०५,१२४ हरिभद् सूरि ७०,९९,१००,१०२,१०५, ५,११० देवेन्द्र सूरि रामदेव गणि १३४ ११०,१२२,१२७ द्रोणाचार्य ११८ वर्धमान सूरि १२९ हर्षकवि ११३,१२४ नरचन्द्र सूरि १२७ वर्धमानाचार्य हेमचन्द्र सूरि (1)(मलधारी) १००, नेमिचन्द्र सूरि ८,३०,५५,१०० १३१ १०३,१२४,१२९,१४९, पद्मप्रभ सूरि १३२ वाक्पतिराज [ कवि] ११७ हेमचन्द्र सूरि (२) १४,२०,२३,२४,४०, पार्श्वगणि १११ वामनाचार्य ५५,८२,९५,११३,१२३,१२४, पृथ्वीचन्द्र सूरि १३६ | वामेश्वरध्वज १३१ १२७,१३०,१३९,१५१ १४४ १०८ ११७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकोपलब्ध-लिपिकारनाम्नामकाराद्यानुक्रमिकसूचिः । १०६ १२१ १३३ ११५,१५१ १०७ १२३ १२९ ११२ १५२ १४६ १०१ लिन५५ १३२ १०० ४४,४५ १४४ १३५ ११८ AG - १०२ १११ १२५ अजयसिंह अभयकलस अमरचन्द्र अमल अरसींह अरिसीह आणंद आल्हाक आशादित्य [द्विज] आसा उमता [व्यास] कमलचन्द्र कीर्तिचिन्द्र गणि खीवड खेता [कायस्थ] खेमसिंह गुणभद् चन्दन चाहड जयतसीह [कायस्थ ] जल्हण जसदेव जिनभद्र जोगेश्वर ठाकुरसीह देवराज देवप्रसाद देवशर्मा धनचन्द्र [पं०] धनपाल धर्म धवल धारादित्य नरदेव १२५ मलयचन्द्र १३६ नागशर्मा ४३,४७ | यशोवीर १३७ ,, [त्रिपाठी] __७० रतनसीह ११४ नेमिकुमार [प्राग्वाट] १ रन [मं०] ११८ पचाक १४३,१४६ राजड [.] पद्मचन्द्र ११६,१३१ राणक ९७ पल्हण राम ११० पासणाग ११० लक्ष्मण ४१ पासदेव १०९ लक्ष्मीधर ६६ बंदिराज १०४ लखमसीह बिल्हण १०४ लावण्यसिंह [ब्राह्मण] ब्रह्मचन्द्र गणि लिम्बदेव भादाक १४२ लिहवेह ११७ भीम [कायस्थ ] लींबाक भुवनकीर्ति ११५ लुणाक भुवनचन्द्र लूणदेव मणिभद्यति १०२ वणचंद्र मदनसिंह १०७ वयजल ११६,१२० वरनाग गणि १२१ महादेव ११२ | वल्लिग [कायस्थ] महिलण १२० वामुक महीपाक १३८,१३९ विक्रमसिंह माढल [नैगमान्वय कायस्थ पं०] १०५ विमलचन्द्र माणिक क्षुल्लक १०३ विल्हण माधव १३१ वीरचन्द्र मालाक [कायस्थ ] ८२,१४० वीरतिलक १०४ मुणिचन्द्र १०४ वीरम १५,९९,१०८ मुनिचन्द्र १०१,११३ वीशल [पारि०] मुंजाल [पं०] २५,१११,११४ वोसरि २५,११८ | मूंजाल १०६ शीलचन्द्र १२७ मूंध . १२४ शीलभद् १३६ मेधाक १५१ श्रीधर १०५ मोखदेव ६५ सहजिग १०५ यक्षदेव १०१ सागर १७ यशोधर १०५,१०६ साजण . १२५/ यशोधवल १५१ सामंतसिंह १५२ १२३ १०६ १०३ १२७,१२८ १५२ १२६ 16. १३८ १२५ १२४ ७४,११३,११४ २४,११३ ११८ १२६ १०२ १०५ १३५ ११२ नाग.. २१ जै० पु. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-४. परिशिष्ट ११६ १११ सारंग साल्हण साल्हाक सावदेव सांगदेव [मथुरान्वय कायस्थ] सांगा सिंधुराज १०६ १४४ | सिंहाक १०३ सीहक १४० सीहाक १३३ सुमति सेड्डाक १४९ सोढल १२ सोहड १३४ | सोहल १३१ सोहिय [ ठक्कुर] स्थिरचन्द्र १११ हरिदास १०२ हरिपाल १०९,११४ हरीयाक १४३ १४६ ४. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकान्तोपलब्ध-राजादि-सत्ताधीशानां नामसूचिः । १२३ १०१ १२४ | १३१ १२५ १२७ 2 १०९ अभयड [दंडनायक] ... ११३ तात [ महं.] १२१ | लूगसिंह [ महं०] अभयसीह [ महं०] १३० तेजपाल [ महं०] वस्तुपाल [महामात्य] अर्जुनदेव [नृपति] १२७,१२८,१२९ तेजसिंहदेव [ नृपति] १२६ | वाधूय [महामात्य] ११० अर्णोराज [ ] १०५ धर्मदेव [ महाप्रधान ] १३० विग्रह [क्षितिप] आशुक [महामात्य] धारावर्षदेव [नृपति] १०९ विग्रहराजदेव [राजा] १०७ उदयसिंहदेव [ नृपति] १२४ धांध [ महं.] | विजयसिंह [ दंड.] १२१ कर्णदेव [, ] नरपाल [महं०] १३३ विश्वलदेव [राजा] कान्ह [ महं॰] नागड [महामात्य] १५ वीजा [ महं०] कुमरसीह [ महामात्य] ११० नागड [महं०, मंडलेश्वर] १२५,१२६ | वीरधवल [राजा] कुम्वरसीह [ महं०] १२५ नामदेव १०६ वीरमदेव [राणक] कुमारपाल [ नृपति] ८,२४,१०६, भीमदेव [ नृपति] २४,२५,२८, वीसलदेव [राजा] १५,१२१,१२३,१२६ है (परमार्हत) ८२ ११२,११३,११४,१२१,१२२ वैजलदेव [ग्रामस्वामी] कुमारपालदेव , १०७,११०,११३ | मधुसूदन [अमात्य ] सजणपाल [मंत्री] १४८ कुंभकर्ण [ नृपति] १४८ मलयसिंह [ महं०] गइपालदेव [] १४३,१४४ समुद्धर [ महं०] महा (बाहड?) देव [अमात्य ] १०६ गमा (माल?) देव (महं०) १२८ संतुक [महामात्य] गोविन्दचन्द्र [नृपति] महिमूद [पात.] १५० सामंत [मंत्री] १११ चंडप्रसाद [ महं.] मालदेव [ महं.] १२७,१२८ सारगंदेव [महाराजकुमार ] १२८,१३०, जगत्सिंह [ महामात्य] मुंजाल [महामात्य] ९९ १३१,१३३ जयतसिंह [ नृपति] १२५ मुंजालदेव [महं०] १३३ सांगा [महं॰] जयतुगीदेव [, ] १२० मूलराज [ नृपति ] १०७ सिंहबल [मरुकोहखामी] जयसिंघ,-देव (1)] २,५,६५,९९,१००, यशोधवल [महामात्य] १०९ सीहाक [महं०] ११९ जयसिंह,-देव । १०१,१०३,१०४ युवराजदेव [राजा] १३१ सोभनदेव (१) [राज.] जयसिंघ (२), रत्नपाल [ राजनियोगी] | , (२) [दण्ड०] ११२ जैनसिंह [ नृपति] ११६ लावण्यप्रसाद [राणक] ११८ सोम [ महं०] १२५,१३१ तल्हण [ महं.] १२५ | लूणप्रसाद [ ] ९ सोमसिंहदेव [नृपति] २५,११४ १३१ ८४ १२६ 0 १०६ 04. W A 0 १३३ 0 १० १२५ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकागतमुनिकुल-गण-गच्छानां नाम्नां सूचिः । ७०,८१,१३९ १५२ ३८ १५१ १५२ आगम गच्छ ६० | जाल्योधर गच्छ ११० | पूर्णिमापक्ष । भागमिक गच्छ १३५ तपा ) ४०,४१,४३,४६-४८,६७, " पक्षीय , अंचल गच्छ १३६ | तपा गच्छ। ६९,७२,८२,९१,९२,१२१, बृहद् गच्छ उपकेश [गच्छ] तपा गण १४१,१४३,१४८ | ब्रह्माण गच्छ उकेश गच्छ तपो गण) ब्रह्माणीय गच्छ कृष्णराजर्षि गच्छ १३७ देवसूरि गच्छ १६० भर्तृपुरीय गच्छ कोरंट गच्छ देवानन्द गच्छ मलधारी [गच्छ] खरतर ९३,१०१,१३१,१३३, देवानन्दित गच्छ राज गच्छ खरतर गच्छ १३४,१३८,१३९,१४४, नागेन्द्र गण वालभ गच्छ खरतर गण ) १४५,१४८ नाणकीय गच्छ विद्याधर कुल ११५ घोषपुरीय गच्छ २१ वृद्धतपा गच्छ | पल्लिका (?) चन्द्रकुल २७,४०,९३ वैरीशाखा चन्द्र गच्छ १२,३१,३२,५९,१३८,१४८ पल्ला ग ३९ संडेर गच्छ,-गण चान्द्र [कुल] ४१,६७ | पल्लीवाल [गच्छ ] ३८ हर्षपुरीय गच्छ १०३ १२९ १३,१४९ १०४ १५० ७६,८५,१२१ ११४ ६. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकोपलब्ध-यति-मुनि-गणि-सूरि-साध्वी-आर्यिका-महतरादित्यागि जनानां नामसूचिः। १५० शाभणी ).अच्छीय) ११३,१४२ ११७ १२१ १३९ भजितदेव सूरि २५,११४ | आनन्दप्रभ सूरि ७७ | कमलसंयम [ उपाध्याय ] अजितप्रभ गणी ११९ | आमदेव सूरि | कमलसिंघ सूरि अजितसिंह सूरि ९,१०७ | आम्रदेव सूरि कम्ह (न्ह ?)रिसि अजितसुंदर गणिनी ११४ आशाप्रभ [मुनि] २२ कल्याणरत्र सूरि अभयकुमार [ पण्डित] १५१ आसचन्द्र [गणी] कीर्तिचन्द्र गणी अभयघोष सूरि ८३ ईश्वरसूरि (१)[षंडरेगच्छीय] ७६,८५ | कीर्तिसमुद्र [ सूरि ] अभयचन्द्र सूरि , (२) [भर्तृपुरीग.] १२९ | कुकुदाचार्य अभयचूला [प्रवर्तिनी] १४० उदयचन्द्र गणी ९९ कुमारगणी [ कवि] अभयदेव सूरि (१) ९,१३१ उदयचन्द्र सूरि १६,६९ | कुलचन्द्र [पण्डित) , (२) ११९ उदयधर्म [ उपाध्याय ] कुलप्रभ सूरि अभयसिंह सूरि (१)[पूर्णिमापक्षीय] ७० | उदयवल्लभ सूरि कुलमण्डन सूरि १३९ उदयश्री [महत्तरा] कुंदकुंद [आचार्य] अमरचन्द्र ११४ उदयसागर गणी १५० कृष्णर्षि अमरप्रभ सूरि ३६,६८० उद्योतन सूरि [ देवानन्दगच्छीय] १०४ | केवलप्रभा [व्रतिनी] ,, मुनि ६. ककुद सूरि १५२ कोट्याचार्य अशोकचन्द्राचार्य ९९ कनकचन्द्र [वाचनाचार्य] १३४ क्षमार्षि आनन्द सूरि .३६,६८ कचकदेव सूरि ७८ क्षेमर्षि १५० १५० २८ . ८५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-६. परिशिष्ट १३६ ६२ १५० २८ क्षेमसिंह [व्रती] ८३ जिनपति सूरि १०,८५,८८,८९ देवेन्द्र सूरि २९,३३,३६,५६,७६, गुणचन्द्र [पण्डित] ११९ जिनपन सूरि ४३,६७,११५,१३१ ९७,११७,१२२,१२३,१२७ गुणचन्द्र [वादी, दिगंबर ] ६८ जिनप्रबोध सूरि ८१,१३४ | धनकुमार [गणी] गुणचन्द्र सूरि ८१,११०,१३८ जिनप्रभ सूरि १९,६० धनेश्वर सूरि २९,११३ गुणप्रभ सूरि ८१,१३८ जिनभट सूरि [ सिताम्बराचार्य] ११ धर्मकीर्ति [क्षुल्लक] ११८ गुणभद्र सूरि ___७९,८१ जिनभद्र सूरि १४४,१४८ धर्मघोष सूरि १२,३७,५६,७५,८३,१२९ गुणरत्न सूरि ४०,४३,१४८ जिनभद्राचार्य , [तपा०] ४० गुणवल्लभ [ पण्डित] ११५ जिनमाणिक्य सूरि १५० धर्मदेव सूरि गुणसमुद्र सूरि ६२ | जिनराज सूरि १३३,१४४-१४८ धर्मप्रभ सूरि १३७ गुणाकर [पण्डित] १२१ जिनलब्धि सूरि धर्मरन सूरि गुणाकर गणी [ वाचनाचार्य] १०७ जिनवल्लभ गणी (सूरि) १,५१,१२० | धर्मलक्ष्मी गणिनी १५० चक्रेश्वर सूरि २,३,८,१०९ जिनसमुद्र सूरि | धर्मसूरि चंदनबाला [गणिनी] जिनसागर सूरि १४८ धीरसिंह सूरि चन्द्रकीर्ति गणी जिनसुन्दर सूरि ५० नमसूरि ३१,४०,४१ चन्द्रप्रभ सूरि (1) जिनसुन्दरि गणिनी १५,१६,११८ नरचन्द्र सूरि ७९,११५,१२८,१२९,१३९ , (२) [चन्द्रगच्छीय ] १२४ जिनेश्वर सूरि १,६२,८५,८८-९१,१२० नरदेव सूरि । चन्द्रशेखर सूरि जिनोदय सूरि १३९ नरेश्वर सूरि १२० चारितलक्ष्मी [साध्वी] १३६ ज्ञानकीर्ति गणी २०,१५१ नलिनप्रभा [गणिनी] ११७ चारित्रश्री [ महत्तरा] ज्ञानसागर सूरि ४०,४३,१५० नन्दागणि [साध्वी] १०३ जगञ्चन्द्र सूरि २८,३६,८३ तरुणप्रभ सूरि ११८ निर्मलमति गणिनी २७,२८ जगसुंदरी गणिनी ११४ तिलकप्रभा गणिनी १२६,१३६ नेमिकुमार मुनि १२१ जयकीर्ति सूरि १०३ देमत [ साध्वी] १०३ नेमिप्रभ सूरि १२४ जयचन्द्र सूरि देवकुमार मुनि [पण्डित ] १२१ पद्मचन्द्र [ उपाध्याय ] १३३,१३७ जयतिलक सूरि १४१,१४२,१५० देवगुप्त सूरि ३८ पद्मचन्द्र सूरि [ नागेन्द्रग.] जयदेव उपाध्याय ११५ देवचन्द्र १०२ पद्मतिलक सूरि जयदेव सूरि १६,६२,६९ देवचन्द्र गणी पनदेव जयप्रभ गणी [ उपाध्याय] १४२ देवचन्द्र सूरि २७,११८ पद्मदेव सूरि (1)[मानतु शिष्य ] २८, जयप्रभ सूरि [घोषपुरीय] देवप्रभ गणी [ पण्डित] ११२,११७ जयमंदिर गणी [ उपाध्याय ] देवप्रभ सूरि (१) ,,,,(२)[बहुदेव-विजयसिंहशि०] जयश्री [ महत्तरा] ३४,३५,११२, जयसमुद्र सूरि देवभद्र [ सूरि] ३२,६६,१०४,१२२ पद्मप्रभ सूरि ६१,१२६ जयसागर [महोपाध्याय ] १४४ देवभद्र [ उपाध्याय ] १२३ पद्मप्रभदेव सूरि ११७ जयसिंह सूरि ५६,९२,१५१ | देवभद्र [गणी] ३३,११७,११९,१२१ पद्मलच्छि [ साध्वी ] १३६ जयानन्द सूरि (१) ४०,४१,४२,४६ देवमंगल गणी परमचन्द्र गणी १११ " (२) ११४ देवशेखर गणी परमाणन्द सूरि (1) २,१०९ जसदेव सूरि देवसिरि गणिनी जाहिणी [ संयतिका] ७४ देवसिंह [ व्रती] परमानन्द [ आचार्य] जिणदेवाचार्य १२३ देवसुन्दर सूरि ४०-४४,४६,४८-५०, पासमूर्ति [मुनि ] ३८ जिनकुशल सूरि ६७,१३१,१३७ ५८,६७,६९,७४,८२,९१,९४,१४०, पुण्यतिलक सूरि १५२ जिनचन्द्र सूरि १०,६७,८८,८९,१२७, १४१,१४३ पुण्यमेरु गणी १४८ १३४,१३७,१३८,१४८,१५० १,१२,६९,१३०,१३६ पूर्णचन्द्र सूरि (१) [देवचन्द्रशि०] जिनदत्त सूरि [हरिभद्रगुरु] ११ देवाचार्य ११३ २७,२८ जिनदत्त सूरि [खरतरगच्छीय ] १०,१०१, देवानन्द [ पण्डित ] १५० १०६ देवेन्द्रचन्द्र " , (३) [चन्द्रगच्छ०] १४८ १७ 1 ". १०३ १५० देवसूरि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीचन्द्र सूरि प्रज्ञातिक सूरि प्रद्युम्नसूर (१) "" (२) प्रभाकर गणी प्रभानन्द सूरि प्रभावती [ मदत्तरा] प्रभुदेव सूरि प्रमाणन्द सूरि प्रसन्नचन्द्र सूरि बंधुमति [ आर्जिका ] बुद्धिसागर [ सूरि ] ब्रह्मचन्द्र गणी भद्रगुप्त सूरि भद्रेश्वर [ सूरि ] भावदेव सूरि भावसुन्दरी [ साध्वी ] भुवनचन्द्र गणी भुवनचन्द्र सूरि भुवनरल सूरि भुवनसुन्दर सूरि भुवनसुन्दरि [ साध्वी ] मणिभद्र [ पण्डित ] मतिप्रभ [ यति ] मदनचन्द्र सूरि मनप्रभ सूरि मदनसुन्दरी [ साध्वी ] मरुदेवी ( १ ) [ गणिनी ] (२) " मलधारी सूरि (?) मलय मरुवकीर्त्ति मलयचन्द्र सूरि मलयप्रथ (?) महिन्द्र [ पण्डित ] महिमा गणिनी महेन्द्र सूरि महेश्वर सूरि माणिक्यचन्द्र सूरि माणिक्यप्रभ सूरि माणिक्य सूरि माणिभद्र [ यति ] मानतुंग सूरि १३७,१५१ | मानदेव सूर ६२,८० मीनाणि [ आर्यिका ] २७,२८,३५ मुनिचन्द्र सूरि ३१ मुनिमेद [ उपाध्याय ] ११० मुनितिक गणी १३७ | मुनिसुन्दर सूरि २८ यतिशेखरसूरि जैन पुस्तक प्रशस्तिसंमह - ६. परिशिष्ट १५१ यशःप्रभ सूरि २१ यशःप्रभाचार्य ५ यशश्चन्द्रसूरि १०५ यशोदेव दि २७ यशोभद्रसूरि १०१ यशोवीर रखतिलक ३२ रतमभावार्थ १४९ २१,६२ रजप्रभ सूरि १५ रत्नसार गणी ९ ११८ रत्नसिंह सूरि रखाकर सूरि राजशेखरसूरि ५० रामकीर्ति [ मुनि ] ७७ १२५ रामचन्द्र [ दि० मुनि ] 33 १०६ [ सूरि ] ८१ रामभद्र सूरि १२८ लक्ष्मीधर [ पण्डित ] १६ लखमी [ साध्वी ] ललितकीर्त्ति १५ ७२ ललितप्रभ सूरि १०१ | ललितसुन्दरि गणिनी १३,११४ | वयरसीह [ पण्डित ] १२८ वयरसेण सूर १२१ | वरनाग गणी ६२ वर्धमान सूरि १५ वादि सूरि १६० वालममति गणिनी 33 ९,१२ ३८,३९,९९ विजयचन्द्र गणी १५१ २७, २८, ३२, ३४ | विजयसिंह सूरि १०३ | विद्याकुमार [ मुनि ] ५२,९३,१५१ विद्याचन्द्र मुनि १५० विद्यानन्द सूरि १५० विचारखगणी 99 33 १२ विबुधप्रभ सूरि ३,३२,४३,१०४ विमलचन्द्रोपाध्याय ५१,५९,७६,८५ विमलप्रभ सूरि १०६ विमल सूरि २० विमाचार्य ३२ | विवेकसिंह सूरि ३०,३५,४५,००,१३९ विशालकीर्ति [ दि० आ० ] १२८ वीरचन्द्रसूरि १८,६०,१५० बीरदेव सूर २३२,११७,१३५,१५० शालिभद्र सूरि शादि सूरि २२ विजयचन्द्र [देवचन्द्रशि० ] [ प्रमाणंदशि० ] ५० विनयकीर्त्ति [ वाचनाचार्य ] १५२ | विनयचन्द्रसूरि १०९ | विनयश्री (१ ) [ गणिनी ] (२) ८० १३६ विजयचन्द्रसूरि १०२ विजयलक्ष्मी [सायी ] २७,२८,५९,११९, १४९ | विजयसिंह [ दि० विद्वान् ] १४६ १०३ ६३ ७० १५० १०८ | शीलगुण सूरि १०३ शीलचन्द्र १६ शीलभद्र २,५,१२,६४,१०९ १३६ १५२ १३२ शीलाचार्य १५ | शुभकीर्त्ति [ दि० आचार्य ] १०९ श्रीचन्द्र सूरि ३१ १०१ १७ शान्तिमुनि शान्ति सुन्दर मुनि शान्ति सुरि शिव रि सूरि २१ १०५ ३४,६२,११२,१३६ श्रीप्रभ सूरि श्रीमति गणिनी 5) सर्वाणन्द सूरि सहसमुद्र गणी सहस्रकीर्त्ति [पण्डित ] [ तपाग० ] ३३,९७,११०, सहस्रकीर्त्ति [ दि० राजकुल ] १२२,१२३ तसिरि] [सावी] ५१,१५१ सावदेवसूरि [ कोरण्डग ] १३६ | सिद्ध सूरि O ६३ | सिद्धसेनसूरि [ चन्द्रग० ] सर्वदेव सूरि (9) [ चन्द्र० ] सर्वदेव सूरि (२) सर्वदेवाचार्य १६५ ८३ ८९ ३६,४० १४२ १२६ ६२ ७२ १५१ ६२ १५१ ४० ७५ १०३ ७० ६३ १०० ७८ ५ ७६,८५ ८५ १०८ ३८,७६,१४७ १४९ २५ ११८ ३६ ४४ ६३ १५१ २,८० ५६ ३१ १३७ १०२ १३८ १४२ १२८ ७४ १२६ ४१ ३८,१५२ ३२ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९,७९ १०.. १६६ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-७. परिशिष्ट सिंहदत्त सूरि [ नागेन्द्रग.] ४५ | सोमप्रभ सूरि ४०। हर्षकीर्ति गणी [ पण्डित] सुमति गणी १२०,१४५ सोमसुन्दर सूरि ४७,४८,५०,७२,७३,९२, हेमचन्द्राचार्य सुमति सूरि १४२,१४३,१४८ | हेमप्रभ सूरि सुमेरुसुन्दरि [महत्तरा] १२६ स्थिरकीर्ति [ मुनि] हेममेरु गणी सोमकलस [ पण्डित] ११८ स्थिरचन्द्र [,] १०६ सोमकीर्ति गणी हेमसार गणी १३८ हरिचन्द्र [पृथ्वीचन्द्रशि०] सोमकुंजर गणी १४४ हरिप्रभु सूरि | हेमसूरि सोमतिलक सूरि १९,४०,४३,१४० | हरिभद् सूरि ९,३९ हेमहंस सूरि १४८ १४८ १४८ ७. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकोपलब्धदेशनगरप्रामादिनामानुक्रमणिका । " १m १३१ حیثیت ناناثث अजयमेरु दुर्ग १०५,१०७,१०८ | कंबलगिरि [ पर्वत] ८५ / डाहापद् [प्राम] अणहिलपाटक-अन-१२,५,८,२२,२८,४३, खयरोडु ग्राम १२९ डुंगरपुर [ ] १४३,१४४ हिल्लपाटक, अणहिल-४४,४७,६९,७३, | खेटक [ग्राम] १०३ तमालिनी [ अणहिल्ल-पत्तन, अण-९१,९८,९९,१०० खेटपुर [ , ] ६३ | तिमिरपुर । हिलपाटकनगर, अण-(१०३,१०६-११४, गूर्जर [ देश] ४९,६२ | तीरभुक्ति [१] हिलपुर, अणहिलपाट-(११७,१२४,१२५, णपत्तन, अणहिल्लन- दधिपद्र गेरंडक [ग्राम] [ ] २८,१३०,१३१, गर, अणहिल्लपुरप-१३८,१३९,१४३, गंभुता [ ] १२५ दधिपद् पत्तन [ ] त्तन १४४,१५० घोघा-घोघानगर ५७,७२ दधिस्थली [ ] ११७ अर्बुद [पर्वत] ४० घंघाणक [ संनिवेश] ५४ | दमन [,] १०७ अवन्ती [ नगरी] १०३ चाहरपल्लि ग्राम १०९ दयावट (धावड),] ५६,१३४,३६,३७ अष्टापद [पर्वत] | चित्रकूट [दुर्ग] १०२,११६,१२०,१२६, दर्भवती [,] २४,१०७,११३१३१, आघात-आघाट दुर्ग ११६,१२५,१२६ १३२ १४८ आशापल्ली [ग्राम] ५,१८,१०९,११३, चीबाग्राम ७९,१३९ देवकूप [ ] . १२६,१२९ चड्डावली [प्राम] १०९ देवकुलपाटक-पुर ४७,१४८ आशापुर [वसति] १०१ चौसा [ ] १३१ | देवगिरि [पर्वत, ग्राम] १३६,१४३ उजयंत [पर्वत] १२०,१३४ चंद्रावती [,] ३४,११६,११८,१२० देवपत्तन [प्राम] ९७,११७,११९,१३० उजयिनी [नगरी] १२७ जयंत [पर्वत ] दंडाव्य पथक [प्रदेश] ११० ऊमता [ग्राम] जह्मपुरी [ग्राम] | धावड (दयावड) [ग्राम] ३७ ओसलंब [,] जाल्योधर [ ] द्विगुणवप्र [,] ११४ कच्छूली-कच्छूलिका पुरी जावालिदुर्ग, पुर ७९,८४,८८,८९ द्वीप कर्णावती [गनरी] १०१ | जीणोर ग्राम १०७ धवलक्कक [, ]९७,१०३,१२३,१२४, कर्नाट [ देश] जंघराल [ग्राम] २९,१३५,१३८ १२८,१२९,१३३ कावीपुर [ग्राम] जंबूद्वीप [क्षेत्र] धान्येरक [ ] काशहद [,] | जंत्रावलि ग्राम धारापुरी [,] १२०,१०९ रिजा . [ ] टीबाणक [ग्राम] धीणाक [ ] १३१ कोलापुरी [,] टीबापुर [ ] ९१ नवहर [, १०६ १११ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलकच्छक [ ग्राम ] नागपुर [..] नागसारिका [] नृपुरी [, ] नंदाणिपुर [,] नोदिय [" ] पहरी [.] पतन (अणहिलपुर ) ४६, ४८,६७,७०, पतन (नीय ) पल्लीदुर्ग पादलिसपुर [ ग्राम ] पार्श्वचैत्यालय मंगलपुर मंडपदुर्ग १०१,१११,१२७,१३०,१३४,१३५, मंडली १४०-१४२, १४८, १५० ४०,४६ पालाउद ग्राम पृथ्वीपुर [ग्राम ] पेरंमद्वीप फीराणि [ग्राम ] बदरसिद्धि [., ] बलासर [,,] महेश्वर [.] भर्तृपुर [] मगउडिका [] मडवाडा [ मापुरी [,] " [, ] [,] [, ] मड्डाहत मधुमति मरुकोट १२० | मही [ नदी ] १२१,१२३ | मालव] राष्ट्र [देश ] ११४ | मुगवटी [ ग्राम ] ७४ | मेदपाट [देश, मंडल ] ] जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-७ परिशिष्ट ५९ ४० मेरु [पबैत] ८३ भारुकच्छशाला भीमपल्ली [ ग्राम ] भृगुकच्छ [,] १९,१०४, १०५११२, युवराजवाक १०५ योगिनी पुर संकुशिका स्थान ५८ राहूपुर १४३ रुद्रपल्ली -क ११. रेवत [ पर्वत] १०५ | रोहेला [ ग्राम ] १३५[सरोवर ] प्रल्हादनपुर, पत्तन १५,२५,६०,८८, लघुपोशाल [स्थान ] ११५,११७,११८,१२३, १२५, १३०, लाटदेश २४,६५,१०७,११२,११३ सुयांतीज [,] सोमीत्रिका [] ९७ [ ग्राम ] [, ] १२६ [,, ] ] [] [ ] ," [,, ] १०७ बीरपुर १०७ वृद्धग्राम १२८ वेलकू [] ३७,३९,१२५, " १३४ | वऊणा [ ग्राम ] ४४ वटकूपक [ ] १३१ षटपदकपुर [,] २४,६५,१०६, ११०, सम्पी 33 संडेरक ९१ ११३,११६१३२ १२५ बडहर [देश ] १२९ | वरप्राम [ ग्राम ] १०८ वर्धमान [] ९८ वलापद्र पथक १४८ | वैद्यनाथ ६१ व् ५८ शत्रुंजय [ पर्वत ] ४३,५८,८९,९०,९१, १२० - १४२ ११०,१११ श्रीमालपुरी [ ग्राम ] २५ सत्यपुर [,, ] १२९,१३९ सपादलक्ष [देश ] १४१ | सलषपुर [ ग्राम ] १०६ | साकंभरी [ग्राम, देश ] १०६ सांडसी [भाम ] ५८,९० सिद्धपुर [,] ७० सिद्धिशेल [ पर्वत ] ५८ सिंहपुर सुदर्शन [ ग्राम ] ३९ ११८ १०६ १२५ [ ग्राम ] [] [,, ] ५८,५९,९९, ११८,११,१२६ ६६ १११ स्वर्णगिरि पर्वत ] बाटी [ग्राम ] ६३ १२६ हडामनगर " ११९,१२०, १२३, १४९ वामनस्थल ] वाग्भमेरु [ महादुर्ग ] विद्युत्पुर [ ग्राम ] १२८ ९८ | हडापद्रपुर १३७ " ४ विमलाच [ पर्वत ] [,, ] ९०, १२२ इग्मीरपचन [ J ४२ दरिरोह [..] बीजापुर बीधापुर [ग्राम ] १९,६२,०९, हाथीदेणनगर [] ९१,११७-११९१२१-१२३, १२७, दारीज नगर [ 1 १२९,१३१,१३३ हिरण्य नगर [,] [, ] [] [,] [..] در १६७ [ग्राम ] ९४ ८० १०७ १३७ १२०,१३४ ८६ ७, १४५ १०७ १२७ १३३ [.] " [, ] सम्भनक, संभतीर्थ पुर ८,३०,४१,४६, ८२,९१,९४,९५,९९, ११८-१२१, |१२४१२६, १२८, १३४- १३७, १४०१४३, १४५, १४७ - १५१, ८४, १३४ ४७ ६७ १०५ ६७ १३३ ११३ १०१ ९१ १८ १३५ २१ ९८ ११५ ९१ १३७ ११ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकागतकुल-वंश-ज्ञाति-आदिनानामनुक्रमः । १४६ १३३ १३१ अवकेशवंश ८२ | धर्कट,-धर्कट [वंश ]. १०,२७,२८,३०, भद्रेश्वरगोत्र उदीच्यज्ञाति १३८ ३९,५१,५३,७६,८५,८६ भांडसालि [गोत्र ] उपकेश, उकेश वंश, ज्ञाति ३५,३७,३९, नवलक्षकुल १३१ मथुरान्वय ४१,६६-६९,८४,८७,८८,९२,९५, , शाखा १४८ महीरोलन [गोत्र] ३८ १३८,१४८,१५१,१५२ नागरवंश माथुर' [ ] उसवाल १३० नारायणीय शाखा माह्रकुल १३३ ओसवाल वंश १५,१३७ परीक्षि,-परीक्ष [ कुल ] ८१,१४४,१४५, मोढवंश २१,६५,११० ओकेशवंश ९१,९४,१४१ १४६ ,, ज्ञाति १३३ पल्लीवाल वंश] १४,२८,३२,४२,५६, | वरहुडि [ कुल, पल्लिवालशाखा ] ३२,१२२, कर्णकुल कांकरियागोत्र ५९,६०,६८,६९,९४-९८ ९३ १२३ क्षात्र [वंश] १२१,१२८ शौराणकीया [ऊकेशवंशशाखा] १,८२ ३५ पुरोहित १४६,१४७ गूर्जर वंश १९,७८ श्रीमाल ४१,४५,४८,५०,५३,६१,११३, पोडवालान्वय , ज्ञाति २०,१३४ ११७,१३१,१३६ प्रतीहार [वंश] ११८ , श्रीमाल [वंश] प्राग्वाट कुल १,१२,२१,२४,७७ , वंश १७,२२,२३,३८,५८,७०,७२, ,, भिन्नमालज्ञाति , वंश २,५,८,९,१५,१८,४५,५५, ___७३,७८,७९,९२,११४,११८,११९, चौलुक्य [वंश] १२०,१३४ ९,१३० ५६,७१,७३,७५,७६,७९,८१,८३,१११, १२३,१२४ २०,५७ झाला कुल , ज्ञाति २४,४३,४४,४६,४७,७०, सुचिान १५२ दीशापाल [वंश] २८,९५ ११४,१३८,१४१ हुंबड [वंश ] १०,११,६२,६३ " ज्ञाति १३३ १२९ , ज्ञाति १०८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परिशिष्टम् । लिखितपुस्तकप्रशस्तिस्थितानां श्रावक-श्राविकानाम्नां सूचिः । अंम ७६ अंमी १०९ ५३ आ १. अच्छुत अच्छुप्ता अजय आकड अजयराज आका अजयसिंह आजड अजितचूला [ साध्वी] ४७ आजुका अत्तु आनंद-आणंद अनुपमा आनलदेवी अभयकुमार १३,३३ आना अभयपालक आभड अभयश्री ५९,८०,८६ भाभा अभयसिंह १९,३५,६. | आभू अभयी १२५ आमण अमरसिंह आमिणि अमृतदेवी भामदेव अमृतदेवीका आमसिंह अमृतपाल आमाक अरपति आम्रकुमार भरसिंह-अरसीह ३३,१२० आम्रदत्त भरसिंहक आम्रदेव भरिसिंह १८,५८,५९,६०,१२९,१३७ आम्रप्रसाद भर्जुन १९,८१ आम्रयश अविधवा आम्रसिंह अविवहवदेवी | आल्ह अश्वदेव आल्हण अश्वदेवी आल्हणदेवी अश्वनाग । आल्हणसिंह- सीह भश्वराज आल्हाक अंदुक | आल्हादना अंबक आल्हू अंबकुमार | माल्हूका अवाक आवटि अधिका भाशा अंबिनी. | आशाराज अंबी ७५ आशादेवी २२ जै० पु. | आशाधर ८,३१,३७-४०,७९,९६ | आशापाल १०,३५,७६,११४ आशाभद्र आसक ७०,८० भासचंद्र ६०,१३२ | आसड ६०,९७ आसदेव २३,११०,१२२,१२३ भासदेवी ५२,१२० ९३,९७ | आसधर ४३,७६,११०,१५२ ५८ | आसधीर ९१ १३६ आसपाल २१,३४,३५,७७,११७,११९, २३,५९,७०,११३ १२१,१२२,१२३,१३७ ६६,६७ आसमति ३१,७६ ११,२३,३९,४२ | आसय - ३५ आसल १३,३१,५९ २३ आसलदेवी १४१ ६९ आसा ७७,१२०,१४१ १४१ मासिग २१,६९ आहड ८,१४,१५,१८,१३२ १५,६० आंब ५४,९५ आंबड २५,२६,२७,७०,९२,९७,१३५ १५,५३,५४ आम्बदेव आम्बप्रसाद ६६ आंबवीर ६४ आम्बश्री २१ आंबा ३,३४,५९,८१,९७ आम्बिग ६०,७० आंबी ३४,८९ ६०,९७ आंबु आम्बुदत्त ६१ आम्बुवर्धन ४०,४५,४६ | आंबू ११४ १५ १०३ भाम्ब्रकुमार १४,१०९,११४ १,१२ इन्दुमती १४. ईलक-ईलाक १२,११ १०३ १०३ १३६ ८६ आम्बो ७५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० उज्वल उजिल उदयपाल उदयराज उदयसिंह उदा उदाक उधरण उदर उद्धरण उसभ ऊदल ऊदा ऊदी ऊधिक शोकाक कटुक कटुकराज कडुदेवी कडया-अडुआ सिंह कटुवाक कपर्दि कपूरदेवी कमलश्री कर्पूर कर्पूरदेवी कर्पूरी कर्मण कर्म सिरि कर्मादेवी कर्मणि कर्मा कल्हण कस्मीरी कंचन ऊ ओ क काम ५१ कामलदे ५२ कामलदेवी ५८ कामी ५०,१४५ १४६ ला ८२,१३९ काडिया जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - ९. परिशिष्ट १९ १४८ ९४ | कालुक ९८ का ७५ v ३८,७० १३३ ३९ ७७ ११ १५ कांबलदेविका २२ कान्ह कांऊ ४२,५६,७२,१० किरता किसा कीर्त्तिश्री कीर्त्तिसिंह कल्हणदेवी कुमरसिंह (हक) ६७ कुमारसिंह कुमारदेवी - कुमरदेवी २०,२१ कुमारि कुमरी १२,१११ कुमारपाल सूप [ सुभावक ] ७९ कुमारपाल ७९ कुरा ४३,४४,८३ कुर्मदेवी २७ कु ६९,१५१ कुलधर कर्मसिंह ३८,३९,४९,११५, १३१,१४८ केलु कर्माक ८० केल्हण १३३ केल्हा २६,६८,७७०४ केव्हा १४,३९|कूंरपाल ५५ कुलसाधु- कुलचन्द्र ३१,८६ | कुंरदेवी - कुमरदेवी ९८ कुम्बरसीह [ महं ] २७,४२,९७ कुंवारक ४७,७३,१४८ कृष्ण ६९ ला ३९ के ५९ कोल्ही ३८ क्षेमसिंह ४९ समंधर खयरा ७३ खदिर " ८० | खांखण (पांषण) ४४,७७,१३७ खीमराज ८६ श्रीमसिंह ८० खीमाक ७७ श्री (पी) देवी ७२,७३ | खीम्बड ९४ खींबण ९० खीम्बाक १३७ खूढा १३१ |खे (पेढ ५७ वेढा १४ खेतसिंह ७८ खेता १३,९१ ताक ३६,३७,५७,११०, खेतुका ११८,११९,१२०,१३४, १५० खेत् ८४ खेत्र २३,५७,६०, ७७ खोखल (पोपल) ६४,९० || खोखा (घोषा ) खोखी १६,२७,३२,४२,८९, खोपो ताक १३२,१३७ ८ १४१ गउरदे गरदेवी २,१०,१३,१६,६८,९०, ९६ ८६,८८,८९, ११०, १२५ गउरि - गउरी गजसिंह ९० गजसुत ६० गजा १२५ गणदेव १२७] गणहर १३७ |गणियाक १९,६२,९४ गाक १३१ गंगादेवी ८६ गंधिक ११,२१ गागलदेवि ४९ गागी ८० मांगदेव ६५ गांगा - १५ गांगाक ५८, ७९, ८३, ८५, ८६, १३४ गांगिल १३७ गांगी ख ११ ३९ ४३ ४२, १३७ १३२ ३३ ८९, १५१ १६ ३७ ८६ ३३ ६८ ४३, ६४, ११६, १३२,१३३ ४७ ३९,१२९ ३५ १८,३३,४०,६४,८८, ९०, ६४ १३७ १४० ૬૪ ग १८ २१ ४४ ९८ ६०,७९,८०,१२९ ८५ ११९ ४९ ९५ ३६ २८ ८० ४४,५० १२४ ७४ ९ १५ ८१ ३१ १०३ १६ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट १७१ ७४ चंडप चंडप्रसाद चंदन गांधिक गुणचन्द्र गुणद गुणदत्त गुणदा गुणदेव १५ ४९ चंपला ० जइतसिंह जगत् सिंह १३,२७,३५,६७,९३,१११, ११६ जगदेव-देव २३,५५,५९,८६,११३,१३८ जगधर ३१ जगपाल जगसिंह ६४,६९,९१,१३२ ० - vs v ० गुणदेवी गुणधर MY जजिग W १३९ MY १२४ चंपल्लता ७१,९८ चाडुलु | चापदेव ३६,६८,७७,७८,८०,१३० चामिका ६४,७६,९८ चामी चारुभट चाहट चाहिणी-हिनी चाहिनिका चाहिणिदेवी २८,३६ चांचल १४५,१४६,१४, चांडसिंह गुणपाल गुणभद्र गुणमती गुणमल्ल गुणरत गुणराज गुणश्री V W चांग गुर्जरी गूर्जर-गूजर गोई चांडू गोधा गोना १३६ ९१ चेला चौंडा जणकू २३,५५,७०,१११,१३४ जयत ६,३३,७७,८४ जयतल १३३ ८८ जयतलदेवी १३,६३ जयतसिरि जयतसिंह ४३,६४,९७ जयता जयत्तुका- तुगा २९,३०,६४,७९ जयतू १४,३९ जयदेव ३२,३३,८४,८८,१२२,१२३ १६ जयदेविका ५३,५४ | जयपाल १० १६,३९,१०८,१२०,१३८ जयश्री ३१,३९,६९,८६,९६ ६४ जयसिंह ४२,१३१ १८,४६ जयसिंह जयंत. १८,२८ जयतसिंघ ११४ जयंती १४८ जयंतुका जल्लिका जल्हण जस जसडक जसणाग १५१ जसदिव जसदू १३३ | जसदेव २,१५२ जसदेवी १०३ जसपाल .. २९ ४०,११४ जसभद् १६,८०,१३२ जसरा ...१०९। जसवीर १५२ .जसहड .६९ जसहिणि .३९ जसा ४९,१३९ गोकर्ण चांदू गोगा चांद्राक गोगाक चांदिग गोगिल चांपल चांपला चांपलादेवी गोनी चांपूश्री गोरा चीताक गोला गोवल ४२,४३ गोविंद ४९,४८,५० गोसल ३३,३८,५२,७६,११८,१२२,१२३ गोसली छजल ११५ छडिका गौरदेवी-गौरिदेवी-गउरी १३,१८,२९, छडक छा(वा?)च्छि छाजल छाजड घणहुल घेऊय छाडा-डाक छाडि छाडू छाड चक्रेश्वर छाहिणि चतुर्भुज ... ६१ छाहिल चपलादेवी . १३ छीता चमु ..३७ छोहड गोसा १५२ ७९ १३३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जसाक जसिणी जाऊ ( उ ) का जाजाक जाला जालू जाल्हण जाल्हणदेवी जावड जासल जासलदेवी जासला जासी जासुका जाहड जाहिनी जोजण जिनचंद्र जिनदास जिनदेव जिनदेवी जिनपति जिनपाल जिनमति जिंदा जिंदिका जींदड जीवनसुंदरि जीवड जूठिल जेतळदेवी जेत्रल जेस जेडड जेहि क्षेत्रसिंह दलि सदकुलि सबकू झला अंतरण फ शंका ८० | झांझ ८१ क्षण ६,९६ २९,३० १३३ १५ झ १८,२८,५९,७६ डाहा १६,२७,२९,३३ | डाही ५१ बीडक ५६, ५८, ६४ २३,१९,७१ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - ९. परिशिष्ट ६३,१३२ | डुं (इं) गर १३,२१ टमु ८ १३२ तिहुणदेवी ७४ तिडुणपाल ६ तिणसिंह ३२,३५,८८,१२२,१२३ तिहुणा ५० तील्ही ४,७,७१ २३,७०,७१ २,८३,८४,९७,११९ तील्हीका ५१ तेजपा तेजला ८८ तेजसिंह ८९ ढा ९, १३, १४,५८, ११९ ८१ १६ २६ १२५ तेज-तेजू ६४ पला १३१ त्रिभुव ४३ त्रिभुवन ४३ त्रिभुवनसिंह ९० तेजा तेजाक तेजी १५,४९,६६,९१ थिरदेव २३,८९ | थिरपाल १६ चिरमति थेइड थेही येहिका ४७,१४२ दयमति ११ दशार्णभद्र ७९ दाद ६२,६३ दाद ८६ दिवतिणि १६,१८,४२,६४,७९,९८,१३३ दुर्लभ ट ण त ६० दुर्जनशस्य थ ४९ ३८ देउक ४२,७९,००,१३९,१४६ देवलि ४९७३ दूल्ह ७२ दूल्हेव देऊ ६५ / देदक देदल दुल्हादेवी दुसाक दूदा दूली १२ ५९ १२,१३६ ६९,२८ ७९,१३९ ८० ९,१७,१२१, १२३,१५२ १३ ५८ ४६,७२,१३१ देदा देदाक देदिका देदी देपाल - देवपाल देमति देल्हणदेवी ९२ | देवधर ९५ देवनाग ८० देवपाल ९० देवप्रसाद देवमति २६ देवराज १२६ | देवलदेवी ९ देवश्री ५२ देवसिरि ६८ देवसिंह ५२ देवा ५८ देश (स) ल १२६ दे ६२ देहवि. १६,१११ दोसल १६ द्रोणक ८२ ५१,१३२ ४२ ११५ ६९,१४१ १०३ १३७ १०३ देल्हा देवकुमार २६,२७,१३,११४ ३५८० देवचन्द्र ७,३३,५०,५४,७२,८७,१११, ७१ ८, १८ देवद २८ १६ ४३ ७१ ५९ ४३,६९,१२,१११,१३६ ३८,५६,५७,९५ ८० ४३ ४२,६२,६८,७०,८०, १३३,१३७,१३९ ७,१२ ८१ ११९ १२२,१३२ ४९ २३,३९,०८,११३ ५१ ७१,७७ ५५,९९ ८६ ७,४३ ४१ ८६,९५ १३,११५ १३,४१,२०,६९,७८,८१,८३ ८५,८६,१०,१२७ १२४,१४१ २,३, ७,३७,२८,१४,८० ३ २९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट १७३ २१,४२ ९० ६१,६९ 1111 ५३,५४ ७.नाडा ११ धांधू १३१ ८४ ५८,६० १३,२०,२९ ४२,५५,५६,९० धीधा २० निरया निर्मल धांधलदेवी १७,२७,६०,९३,९४,९८ | नागलदेवी धणिग धांधा ९३,११४ नागश्री धन ४२,१५ धांधाक १६ नागसिंह धनाक ४३,८१ धांधि ११ नागेन्द्र धनकुमार धांधिका | नाढी धणचन्द्र ११०,१३२,१३७ धांधी ३७ नामल धनदाक ६८,७७ नामधर धन(ण)देव ११,५२,७५,७९,८८,८९ धिज्जट (क्षात्रवंश) नामुत धनदेवी ४,२७,६०,११४ | घीणा ८३,८६,९७ नायक धनपाल २२,२८,५७,११९,१२७,१३९ धाणाक धीणाक-धीनाक ७५,७६,८३,१२३, नायकदेवी धनश्री ६९,७६,८६,८७ १२४ नायका धनसिंह २५,२९,३९,४७,९० धीधल ३१ नायकि-नायिकि १४३ धीधवर ८१ ,देवी धनेश्वर-धणेसर ३३,४७,१२२ ४२) नारायण धरण धीधी नालदेवी धरण(णा)क ७९,१४४,१४५,१४६,१४७ धींधा नाल्ही नावड धरणिग ५६,८६ धुंथुक नासण धरणी १३७ धुंधलदेवी नाहड नाही धरणेसर १०३ धर्म ४७,४८ नगराज भर्मण नगश्री निर्वाण धर्मिणि | नमिकुमार निंबा धर्मसिंह १४१ नयणसिंह निंबार्क धर्माक १४३ नयणाक नीडा धवल ७,९,२४,२५,६४,६६,११४ नयणादेवी १८,४१,८२ नीतला धंध [ठक्कुर] नयपाल नीतल्लदेवी धंधल नरदेव नीतादेवी धंधिका नरपति २०,२९,३१,९१ | नीनदेवी धंधक नरपाल ४७,७७,८०,१३७ नीमल नीहिल धान धानाक | नरसिंह १३,१८,२०,३६,४१,४२,४५, नृसिंह धारा-धाराक ६८,६९,७४,७६,७७,८२,८६,९५,११३ नेपा धारावर्ष नंदना धारू | नाइकि नेमि ३२,३३,६४ धाल्ही नाउलि नेमिचंद्र धाड नाऊ २४,३४,११४ नोलू भाहिणी नाउका नागड ५५ पउसिरि धांगा ४४,७२ नागदेव ६४ पउदेवी धांध ५७,८१,८८ | नागदेवी २२ पदम १४,३० नागपाल २०,३५,८९,९०,९३,९७ / पदमलदेवी धांधल ६०,६४,१३२ नागराज ४३,४८ पदमसिंह ०२,०३ १३,६९ नरवर्म नेमड १२६ ३२,११८,१२२,१२३ १०१ ५३,५४,७४ २४ चांई १४ धांधक. ११,१४१ १४,१४१ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट ४० ११५ | पेसल १६ पोढक १०९ पोयणी पोहणी प्रतापदेवी १८,५० प्रतापमल्ल ६१,६२ २३ प्रतापसिंह १०,१३ ७०,९८ प्रथम प्रथिमसिंह १६,१८ प्रद्युम्न २१,५४,६५,६६,८७,१०१ ३ प्रल्हाद-प्राल्हाद प्रल्हादन १२,१८,८४,८८ ५३,५४ प्रादू २८ ४२,७९ प्रियमति ११५ प्रीमलादेवी-प्रीमलदेवी १३,४२,४४ ११५ ६२,७० ११५ २३ २१ प्रीमति ९१ फदकू ४२,७७,९५,१०९,१३६ फेरुक [क्षात्रवंश] ४२ पात् पदमी २३,२९ पाहणसिंह ३९,४२,६२,६४,६७,८६,९० पाहला पद्मक ८१ पाहिणि पद्मदेव १०,७९ पांगुर पद्मल पांचा पद्मला १३,६४,९० पांचू पद्मश्री १५,२६,३१,७६,८९ पद्मसिंह १२,१४,३५,४६,५९,८२,९२ पुण्यपाल पद्माकर पुण्यमति पद्मावती पुण्यश्री पनी पुत्रिणी पमा पुहणीदेवी पल्हण ११० पुंडरीक पवहणि पूजी पाजड पूणाक पाजूका पूनड पात पूनमति पाता-पाताक ४३,४९ | पूनसिरि पाताल पूना पाती | पूनाक पातुक पूनावि १८,६९ पूनाहि पारस १४० पूनी पार्श्व ५४,८०,८७,८९,१३७ पूरी पार्श्वकुमार पार्श्वचन्द्र १६,८० पूर्णचंद्र पार्श्वदेव २६,६४ पूर्णदेव पार्श्वनाग १०,११,२३ पूर्णदेवी पार्श्वभट ७७ पूर्णपाल पालू ९० पूर्णमति पाल्हण २५,२६,२७,६४,९७ पूर्णसिंह पाल्हणदेवी-पाल्हणादेवी १६,४२, पूर्णा पूर्णादेवी. पाल्हणसिंह पूर्णिका .. पाहुका पासचन्द्र ७६ | पूर्णी पासड. ६४,६९,७२,७६,७७,८६ | पृथिमसिंह पार्श्वभट पृथ्वीदेवी पासणाग पृथ्वीभट पासदेव ३३,११०,१२३,१२४ पृथ्वीसिंह पासवीर पेथड पासिल. २३ पेथा पेथाक ६४ | पेथुका बउला ३९,५८,९४ बकल बकुलदेवी पूर्ण बडू ६० | पूर्णिनी १५,५९ बनुलू १६,६४,८३ बलिराज १४५,१४६ | बहुदा-बदुदाक १५,६४ | बहुदेव ३५,५५,८०,८८,८९ बादू-बादूक १५,१६ १३,२२,११८ बाबी ५२ बालचन्द्र ८९,९० बालप्रसाद बालमति १०३ बाला ५१ बासल | बाहड ७,१६,७७,९३,११६,१३२,१३४ २७ बाहडी १३२ १८ बांबा १२ बीज २८,१९,५५,६७,८० बीजड ६४,१४१ ६२ बीजाक ८. बील्हण - १३,२७ बूटडि . २९,३१ १६ १८ , ४२ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट बूटर ९,१३ मांकू ८८ १३७ My ३९ माल्हण १७ माल्हणदेव माल्हणदेवी १३,८२,१४० ८६ माल्हणि १३,६४,६९ २५ माल्हाक ३८,३९ माण ४३ माहू २३ १८,४१ मांई ७३,१४४ मांक . . ६० मीणलदेवी ३४ मुक्तिका १८,१२७ मुणाग १०,५४ ४२,६०,९० मुनिचन्द्र | मुहुणा-मुहुणाक . २१ १९,२०,६८,८३ मुंज २८,६४,६७,१४० मुंजाक १२९ २५,३१,१२४ मुंधय ३३ मुंधी ७/ मूंजल १०६ मंजाल १८,४१ ३१ , देव ८१,८२ ८. मूल ३९,४० ३,६५ मूलदेव ५२,५९,९० मूलराज | मेइणी १६,२२,४१,८२,११८ मेधा ४३,६२,७२,७३,७४,८२ ५२ मेला मेलादे मेलादेवी मेलिग - १८ ८. मनी बोडक-बोडाक ६४,८०,८१ मन्मथसिंह बोल्हाक ३१ मयणल बोहडि ८,३४,३५,६३,६५ मयणू बोहित्य ब्रह्मणाग मलसिंह ब्रह्मदेव १,३४,७७,८४,८५ मलयसिंह ब्रह्मा ६४ मल्ल (माला) ब्रह्माक ७९,८१ मल्लदेव ब्रह्मी मल्लसिंह मल्हण भधड महण भरत महणदेवी भल्लणी महणलदेवी भावड महणसिंह भावल महणाक भावलदेवी भावसुंदरी महधर भांडा १४८ महलच्छि भीणला २० महादेव ४२,११६,१३२ महाश्री भीमक ३९ महिचन्द्र भीमदेव ३३,८४ महिमा भीमसिंह १३,४६,५८,८३,९२ महिलण भीमा-भीमाक ३९,६२,६४,८० महीधर भीमिणि महीपाल भुवनचंद्र महेन्द्र भुवनपाल मंडन भूपति मंदोदरी भूमड भोज माउका भोपलदेवी भोपी माणिकि भोला. माणिक्य भोलाक माणिक्यदेवी भोली मादू माधल महणला माधला सणिभद्र मानदेव मणिसिंह ४२ मानू मदन १८,१९,३२,४२,५८,९७ | मरू मदनक ३९ मालक मदनसिंह. ६९ मालदेव मना ... ७३ माला भीम १४८ मांड माऊ ४०,४१,४६,१४३ ३८ मेहा मोखला २७,७९,९२ मोखल्लदेवी ३८,४९,१२६ मोखा २०,२१ ४३,१३९ १८,६४ मोखू ८,५८ मोधी मोढा १३ मोती ८८,८९,९१ मोल्हा मोल्ही १३२ . ४३ १४ मोहण-°न १४,३१,५५,९०,९३,९४ ८. मोहण (°न) देवी ४९,१३४ मोहिणि-नी - ११,१२,१३,१८,२८, ४१,७९, ८२ ३ ४,५४,८६,८९,१३६,१३४ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ यक्ष यक्षदेव यश यशकुमार यशधर यशहड यशोदेव यशोर्णव यशोदेवी यशोधन यशोधर यशोधवल यशोधर यशोनाग यशोभद यशोमति यशोराज यशोराजी यशोवर्धन यशोवीर यशःकर्ण यशश्रन्य यशः पाल यशः श्री योगदेव योधा रणधीर रणभ्रम रणमल्ल रणवीर रणसिंह रतधा य रत् रत्न - रतन रलदेवी - रतनदेवी जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - ९. परिशिष्ट स्तनिका ८६ रती ५३,५४, ७१ र रतनू रयणा देवी ७७ राघव २,३ | राज ९,२५,२९,५४,७१,७५,९६ राजदेव ७० २३ | रंभा राजपाल ११,२२,८७,११४ राजमति १५,२२ राजलदेवी ८,२३,५२,८७ राजश्री ९,२३ राजसिंह ८ राजा १२,१८ | राजाक ५२-८० राजिका ११,१२,५३,६५६६ राजिनी १२ राजी ४ राजीमति ८८,८९ | राजुका २६, ३१ राजू ८ राज्यश्री २६,५९,७२ | राणक २६ राजिका ७ राणिग ६९ राणी ७३ राणू राबा १४८ रामदेव ४० रामसिंह १४ रामाक ४८, १४३ | राहण १४,१६,४२,५९,६१,९३,९७, राल्हाक १३१,१३४ |रादी १८,२५,४२,६४, रावण १४८ राम १४८ | रामचन्द्र १४८ रामदे ६९,७७ रासचन्द्र रखपाल - रतनपाला १३,५६,११७,११९, रासदेव १२१,१२३, १२९ रासल रखी रखसिंह- नसीह - रतनसिंह ३८,७६ | रासलदेविका १८, २७, २९, राइड ५५,७७, ११०, ११२, १२४, १५०, १५२ शंभू ८० | रांवदेव ५१ १६,४७,७३ ७८ २१,३८ २४ रूदा १०९ रूपल ८८,८९,१३६, १५२ रूपला २९,५९ रूपलादेवी ४,५,३८,७७ रूपिणि १३,२७,७३ रूपी ५८, १३६ ९७ ७० रूयड ५३, ५४, ७२ १५ ८६ लक्ष २६ लक्षक लक्षण लक्षणा ६६,९६ लक्षमा ८,१११ लक्षिका ११,८८,९१ लक्ष्मण ३१,५१,५२, ५३ लक्ष्मसिंह १२,१३,१४ मणसिंह रविमणी रुमणी ६४ तस्मिणि-लक्ष्मिणी २९,४२ लमदेवी १३,२९ ८३ ७३ रुरिम ( क्ष्मि ? णी रूडी १२७ १४१ २,१,८,९,१२,५२,७२,१४८ ४२,४३ २९६९ ८१,९० २ लक्ष्मीनिका ४४,९५ लक्ष्मीवर लक्ष्मीश्री लखम ७७ लखमा १२६ | लखमाक म समसी खमादेवी ९ खलमिणि ९ लच्छी ३१,१३४ ९४ लडिका ७,३२,१२०, १२२, १२३ ला ९६ ११२ १३,१४,१४,१९, ३९,६४,६६,७१,८० लक्ष्मी ४,५,११,१४,१२,१६,२१,२२, ५२, ५३, ५८,६५,६६,८८,८९,९२, ११ ૪૨ १३८ ४६ ४० ૮૩ ३४,३५,०६,१० ६९ ૮૮ ४७ ૬૪ ૮૪ १६ १३ ૮૮. ६४,८६,९६ ४७ ८५ ३६,७७ ૪. ११४ ८५ १०,४०,५२,८६ ३२ १६,९० ૪૨,૪૨ ૪૪ ६७ २१ १३ १६,६८ १७ १६ ૪ ७७ १४ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट १७७ ८३ ९२ वट १२७ १८ वयजू ३१ व ३३ ललितादेवी ९,१३,१८ वइरा ४२ वाल्हावि लल्लक २६ वइराक ३९,४० वाल्हिवि लल्लिका २६ वइरुह ६५ वाल्ही लवणसिंह १३ वच्छिग ६५ वास्तू १४ लंबिका ११ वाहड लाखण २९,४५,९८ वज्रसिंह २०,४३,६९,८३ वाहिनी २६,५४ लाखणदेवी ४३ वड ४ विकमसी लाखा ४८,६९,१४२ | वदक ५५ विक्रमसिंह लाखाक २३,३९,६१,९५ वळू ६५ विजय लाखू ५६ वनराज ४३ विजयकर्ण लाच्छि ६४,८६ | वयज २३ विजपाल ४२,८२ लाडण १६,१७,१८ वयजा १३,२३,४६,७०,९८ विजमल १३१ लाडि १८ विजयपाल ३१,४२,११९ लाबू वयरसिंह २३,९७ विजयमति लालण वयरा ७७,१३९ विजयश्री लाला वयजल ८६ विजयसिरी लाली वरणिग २७,५९ विजयसिंह ५८,५९,७७,१२१ लावण्यसिंह-लूणसिंह ४,३४,३५,५९,८३,८६,८८, विजेसी लाहड ३२,३३,११७,११८,१२०,१२१, १२७,१३२,१३४ विद्यासिंह १२२,१२३,१३० वरनाग १०२ | विनयानंद [साधु] लाहिनी वरसिंह विमलचंद ७२,८८,१३४ लिषा (2) वर्जू विश्वल ११७ लीलाक वर्णक १९ | विकल ६९,१११ लीलादेवी १८,७९,१२८ वर्धन वीकमदे १४१ लीली-लीलीका ५०,५१,३१ वर्धमान ५२,११०,११३ वीझी ७९,१३९ लीलुका ८६ वल्लण वीदा लीलू ३१ वसा ४३,९७ वीर ११,२८,३९,६९ लिंबदेव ३१ वसुंधरि | वीरक १५,८० लिंबा ४७ वस्तिणि-नी १६,३९,७६ वीरचंद्र ७,३५,५९,७२,८०,१३२ लींबा ४२,१३९ वस्तुपाल [महामात्य] ९,११९ वीरड लींबाक-लिंबाक ७७,७९,८०,९४ वाग्धन १८ वीरणाग वाग्भट वीरदत्त लूणसिंह-लावण्यसिंह ३८,७९,१२३ वाछा वीरदेव १०,३३,७२,७५,८८,९८ वाछाक वीरदेवी ३४ लूणाक वाग्छिग वीरधवल ३३ लोलक-लोलाक वाजक वीरपाल वाधू ४६ लोहट वानू वीरमती (मोल्ही-पैतृकनाम) ९८ लोहदेव वामदेव ६२ | वीरा लोहादेव वारय वीराक ४२,४९,७७ वालिणि वीरिका वइज वालू ३५ वीरी ९,२३,३५,८१,८९ वइजा. वाल्हवि १०३ वीरूक वइजी ९. वाल्हाक १६ । वील्ल १४० २३ जै० पु० ४२,१४१ लूणा लोली वीरम ८८ ४०,४६ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट ७ . वेलिग वेल्लक वेल्लिका ५५ ६१ वेल्लिका M ३५ वील्लाक २८ शुकपुत्र सरणी ७१,७२ वील्ह शुभंकर सरली १०३ वील्हण-विल्हण ३४,३५,६०,११७, सरवण ५७,५८ ११९,१२१,१२३,१३३ शुराक सरस्वती १५,३९,४२,८०,८४ वील्हणदेवी १९,२७,१२५ शृंगारदेवी ५५,५७,१२६ सर्वदेव ३,११,२३,५२,५३,६३ विल्हुका १४,६४ शंगारमति सर्वदेवी ५१ वीशलदेवी शोखी सलक्ष वीशल-विसल ७,५२,७०,९६ शोभन-शोभनदेव १९,२०,२२,२३,२५, सलक्षणा ११,१३,२० वीझिका २६,१०९ सलक्षणी ३९ वूटडि शोभना सलख वूडाक शोभित सलखण-सलक्षण ८३,८४,१४३ शोभिनी सलखणदेवी १२१,५७ वेलुका २२,८६ श्यामल सलखणसीह श्रियादेवी-श्रीयादेवी ४,५७,८०,१०३ सलखाक ४२,१३४ २२,३१,४२,६६,८८,८९ सलखू वेल्लत्फल श्रीकुमार १५,५४,८०,११५ सलावणा श्रीचंद्र ५६,७४,१२७ सल्लक्ष वेसट श्रीदेवी १९,२४,८२,९५ सल्हा १२१ वैजल्लदेवी श्रीदेवीका सहज वैरसिंह ३४,५८, श्रीधर ५२,१०० सहजपाल ३८,७० वोढक श्रीपाल १४,२४ सहजमति १४ वोसक श्रीमति ५६ सहजल ५८,१२५ वोसरि [दंडनायक] ५८,१०८,१०७ श्रीवच्छ २२,८० सहजलदेवी-सहजल्लदेवी ३८,८१ व्याघ्रक श्रीशशी सहजला सहजल्हदेवी शंब | षेढा-षेढाक ३६,१२२,१२३,१३२ सहजा ११९ सहजाक शाणी सहजू सज्जणपाल १४८ शालिका सजन सहडू ७,३५,६२,७० शालिभद्र सजना शांत सजनी २१,३२,३३,४२,४३,८०, शान्ति ६५,८६,८७ | सत्यदेव ११८,१२२,१२३ शांतिका सदा सहलक शांतिग सद्मला १३ संगार शांतिमदेव सपुण्य ३५,३६ संग्राम ६० शितदेवी सपना संग्रामसिंह १३,५५ शिरपाल | सपून संघवी १२२ शिवराज सपौन संतुक शिवा सब्भा संतुक [महामात्य] शिवादेवी समताक ७६ संतुका २९,६३,९६ शीता समधर ७३,७७ संतोष शीलवती ३९ संतोषा शीलुका समुधर १०,३९,१२५ संधिक शीलू २०,७७ सरण ४,७ संधीरण - ६७ ६. ५४ शंबो स सहदे ८२ ५४ १३,२३ सहदेव १५ . ५२ १४१ १३२ ११ ६५ २७ समर ६३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधुल संपद् संपूर्णसिंह संपूर्णा संभलदेवी संयतिका संसारदेवी साईया साउ साउका साऊ सागर साजण सज्जन साजणदेवी साजिणि साढदेव साढल साढा साढाक साठी साढू सादू साभड साभा-साभाक सामदेव सामंत-सामत सामंतसिंह सायर सारंग सारू सालिग साल्हक साल्हड साल्हण साल्हा - साल्हाक सादु सावदेव साविति सावित्र साइड साहण साहर साहस जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह - ९. परिशिष्ट ३साहारण ८४ सांईआ ४६ सांग सांगाक ११ सांगण ४४ सांगा ७४ सांड ५८ सांडा १४४, १४७, १४८ सांताक १६,६५ सांतिका ६३ सांत् ४३,४५,८८ सत्का ६२ सांब १४ शितगुण ४२ | सिद्ध ७७ सिद्धनाग २९, १०३ | सिरिकुमार ८२,११७ सिरियादेवी ११८, ११९,१२० सिरी ६९,३१ सिंगारदे - "देवी ११ सिंघा [ मंत्री ] २९ | सिंधुका ३१ सिंधुल ५६ सिंह-सिंहाक २२,२४,१११ सीटला २२ सीता-शीता १८,३८, ४१, ४२,५६, सीतू ७०, ९२ सीद ९८,२९,१२९ | सीधा ४२ सीधू-सीधुक ४३ सीवा ४२,१४१ सीमंधर २२,७०,७३,७६,८२,९२ सी. ७९,८० सीहड ७०, ३७, १२५ सुहडाक २९,३८,५७,६०,६९,७०,९५ सुहडादेवी ९८ सीहाक [ महं ] १४,११८ | सुखमति ४२,४३,७३,७७, ७८ सुखमिणी ७७ सुगुणा ६५ सुदर्शना १२५ | दसदेवी ६५ | सुभगा ६६ सुभट ३८,४२,८९ | सुभटसिंह ९७ सुमदेव २ सुरलक्ष्मी ११० | सुवर्णनिका - सुवर्णिनी ७२ सुत ८१ सुहवा ५७ सुहागदेवी ७३,१४८ | सुंदरी ७० सूमला ७ सूमा ५६ सुरक २३ सूरा ८० सूराक ६४ सूलण ४,५ णि ७ सूहव ९७ हवदेवी १६ सूहवा ७ सेगा ७३ सेवक सेवाक ७२ सेढा २६ सेव्हण ७० सेवाक ४२,४३,९६ | सेसिका १८ सेहरि सेहरि ११,२२ सोखलदेवी १८ सोची २४ सोखू १२५ सोढक ३५ सोडल १२३, १२४ | सोडू ३७ | सोढुका- सोदूक १६ सोनणी ३९,७० सोनिका ११९ सोभाक १६ सोम १०,१६ सोमदेव ६१ सोमराज ४४ सोमलवा ५५ सोमधी ५५ सोमसिंह ६१ सोमा ७९,८० सोमाक १५ सोलक ७९ सोला १७९ ૮૪ ६५ ३७ १२,१३,१९ १४,६० १३,१८,५५,६० ६३,८९ ७७ ९७ ३१ ४२ ८२ २,३ ६८,६९ २५ १०,१२,१८,४९,७०,१८ ७६ ७२ ८०,८१ ७७ ५ १५,१६ ६६ ९ ४२ ७५,७९ २८ ६४ १९ २५,६४ १२, १०७ ३९ ८० ८०,९२ ९,१९,२०,६०,८९, ९५, १३४ ७७ १२,१३ १५ १३७ १३,१६,४०,१३७ ५२,७३ ३६,३७,८१ ८० १६८०,१११ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह-९. परिशिष्ट सोल्लाक सोली सोलुका सोल्हा १३२ १३७ ११९ सोही ३३,३९ हांसी २८ स्वर्णा हापाक हरचन्द्र हरदेव-हरदेवक २१,८६ हालाक हरपाल ४०,७७ हालू ३८,५८,६०,७० हरसिणि हांसला हरिचन्द्र १६,३३,५०,५२,७७,७८, २३,६४,८०,८१,१३७ ८६,१४० हांसिका २९,३५ हरिदेव हीमादेवी २२ हरिपाल १३,६४,६८ हीरल ३,२३,८६ हरिराज हीरा १३ हरियड १२६ हीराक हरिसणि-हरिसिणि ३६,६८ हीरादेवी हर्षदेव हर्षदेवी हीलण हर्षराज सोहग सोहगदेवी सोहड सोहरा सोहिग सोहिणि सोहिय सोही सौभाग्य सौभाग्यदेवी सौम्य स्थवीरपाल स्थिरकीर्ति स्थिरदेव स्थिरदेवी स्थिरपाल स्थाणी १३१ ४३,४९ ९८ १३२ १९ हूलण हर्षा ३३,८८,११०,११७ ४३ ६८ | हंस हंसक ६१,७९ हंसला ७३,७४ हादू हेमचन्द्र हेमराज हेमसिंह ५६,६४ होना ६७ / होनाक १३२ १३४ १०. परिशिष्टम् । कतिपयप्रकीर्णनामसंग्रहानुक्रमः । केसव (उदीच्यज्ञातीय रा० दूदासुत) | धरणीधर (नलकच्छपुरस्थित शालाध्यक्ष) महादेव (उपाध्याय, शूलपाणिसुत)* १२१ १३१ चंड (षयरोडुग्रामवास्तव्य ठ० लक्ष्मण मंडलिक (कायस्थज्ञातीय महं०) १४२ पिता) . नागार्जुन (सम्वीग्रामवासी ध्रुव, लिपिकर१२९ रामचन्द्र (पंडित) लूणाक पिता) . १२६ जाना (कायस्थज्ञातीय म. मालापिता) लोकानन्द (पण्डित) ११३ १४० बृहस्पति (देवपत्तनीय गंड) त्रिनेत्र (देवपत्तनीय गंड) १ १३० शूलपाणि (महामहोपाध्याय मिश्र) १३१ ११९ दूदा (उदीच्यज्ञातीय रा० केसवपिता) | भीमा (महं०, लिपिकरहरिदासपिता) साल्हण (पण्डित) १३२ १३८ १४३ सिद्धेश्वर (पण्डित, नागरविन) १३२ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला mom अद्यावधि मुद्रित ग्रन्थ moment मूल्य १प्रबन्धचिन्तामणि, मेरुतुङ्गाचार्यविरचित. ( इतिहासविषयक विश्रुत अन्य ) पाठभेदादि युक्त सुसंपादित, सुविशुद्ध संस्कृत मूल ग्रन्थ, तथा विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना समन्वित 3-1 2 पुरातनप्रबन्धसंग्रह, (संस्कृतमय, अज्ञातकर्तृक, ऐतिह्य तथ्यपूर्ण) प्रबन्धचिन्तामणि सदृश, अनेकानेक पुरातन ऐतिहासिक प्रबन्धोंका अपूर्व एवं विशिष्ट संग्रह 3 प्रबन्धकोश, राजशेखरसूरिरचिंत. (संस्कृत गद्य-पद्यमय 24 ऐतिहासिक निबन्धोंका संग्रह) अनेकविध पाठान्तरादियुक्त, विशुद्ध संस्कृत मूल अन्थ, विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना आदि सहित 4 विविधतीर्थकल्प, जिनप्रभसूरिकृत. (संस्कृत-प्राकृतभाषानिबद्ध पुरातनं तीर्थवर्णन) पुरातन कालीन जैन तीर्थस्थानोंका वर्णनखरूप अपूर्व एवं विशिष्ट ऐतिहासिक प्रन्थ ५देवानन्दमहाकाव्य, मेघविजयोपाध्यायविरचित. (माघ महाकाव्यका समस्यापूर्तिरूप) विजयदेवसूरिचरित्र-निरूपक सुन्दर, ऐतिहासिक, काव्य ग्रन्थ 6 जनतर्कभाषा, यशोविजयोपाध्यायकृत. (जैनतर्क विषयक पाठ्य ग्रन्थ ) मूल संस्कृत ग्रन्थ तथा पं० सुखलालजीकृते नूतन विशिष्ट संस्कृत व्याख्यायुक्त 7 प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्राचार्यकृत. (जैनन्यायशास्त्रविषयक मौलिक ग्रन्थ ) सुविशुद्ध मूल प्रन्थ तथा पं० सुखलालजीकृत विस्तृत हिन्दी विवरण और प्रस्तावनादि सहित 8 अकलङ्कग्रन्थत्रयी, भट्टाकलदेवकृत. (न्यायतत्त्व प्रतिपादक 3 मौलिक अन्योंका विशिष्ट संग्रह) न्यायाचार्य पं. महेन्द्र कुमारजी संपादित, विस्तृत प्रस्तावना और हिन्दी विवरण युक्त 9 प्रबन्धचिन्तामणि, संपूर्ण हिन्दी भाषान्तर हिन्दी भाषामें सर्वथा नवीन ऐतिहासिक ग्रन्थ, विस्तृत प्रस्तावनादि समलङ्कत 10 प्रभावकचरित, प्रभाचन्द्रसरिरचित. (प्राचीन जैन इतिहासका प्रौढ एवं प्रधान प्रन्थ) सुविशुद्ध संस्कृत मूल ग्रन्थ, हिन्दी प्रस्तावना, परिशिष्टादि समलत 11 Life of Hemachandracharya: By great Indologist Dr. G. Buhler. 312 भानुचन्द्रगणिचरित, सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित. (संस्कृत भाषामय आत्मचरित खरूप अपूर्व कृति) संस्कृत मूल ग्रन्थ, सुविस्तृत इंग्लीश प्रस्तावनादि समेत अनुपम ऐतिहासिक प्रन्थ 13 शानविन्दुप्रकरण, यशोविजयोपाध्यायविरचित. (ज्ञानतत्त्वनिरूपक प्रौढ शास्त्रीय प्रन्थ) पं० सुखलालजी संपादित एवं विवेचित, अनेक दार्शनिक विचार परिपूर्ण निबन्ध समन्वित 14 बृहत् कथाकोश, हरिषेणाचार्यकृत. (धर्मोपदेशात्मक 157 कथाओंका महान् संग्रह) डॉ. ए. एन, उपाध्ये संपादित, सुविस्तृत इंग्रेजी प्रस्तावनादि सहित . 15 जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. पुरातनसमयलिखित ताडपत्रीय पुस्तकोंकी अपूर्व ऐतिहासिक प्रशस्तिोंका अभिनव संग्रह प्राप्ति स्थान भारतीय विद्या भवन बंबई Published by the Secretaries, Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay! . Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Street, Bomba For Private & Personal Lise Only