SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .९ प्रास्ताविक विचार लख है,-कुमार पाल को 'सुश्रावक'के स्पष्ट विशेषणसे उल्लिखित किया है । इस विषयमें अधिक चर्चा करना यहां पर अप्रासंगिक होगी। यह तो सिर्फ इसलिये सूचित किया गया है कि इन प्रशस्ति-लेखोंमें किस किस प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्रीका उपादान संगृहीत है। ६१४, अब, एक और दूसरी ऐसी ही बड़ी प्रशस्तिका वर्णन देखें । ३ रे क्रमाङ्कवाली ३३ पद्योंकी बडी प्रशस्ति है। यह भ ग व तीसूत्रवृत्ति के पुस्तकके अन्तमें लिखी मिली है। पाटणके संघके भंडारमें यह पुस्तक उपलब्ध हुआ है। विक्रम संवत् ११८७ में, जब कि चालुक्य चक्रवर्ती सिद्धराज जय सिंह पाटण में राज्य कर रहा था, उस समय यह प्रशस्तिवाला पुस्तक लिखा गया है । इसका लिखानेवाला उसी वंशका सिद्ध नामक श्रावक है, जिस वंशका, उपर्युक्त ५ ३ क्रमाङ्कवाली प्रशस्तिमें वर्णित श्रावक राह ड था । राह डके उक्त पुस्तकके लिखानेके पूर्व ४० वर्ष पहले यह पुस्तक लिखाया गया था। इस प्रशस्तिमें जो वर्णन मिलता है वह इस प्रकार है . इसके प्रारंभके ३ पद्य मूल पुस्तकमें बिगड गये हैं- न जाने किसीने उन पंक्तियों पर पानी फेर कर उनको क्यों नष्ट कर दिया है - इससे इन विनष्ट पद्योंमें क्या उल्लेख था इसका ठीक ज्ञान नहीं हो सकता; पर उक्त ५ क्रमाकवाली प्रशस्तिके प्रारंभमें उपलब्ध उल्लेखसे अनुमान किया जा सकता है कि इनमें भी उसी सिद्ध नाग श्रावकका उल्लेख होना चाहिए जो प्राग्वा ट वंशका एक विशिष्ट प्रसिद्धिप्राप्त श्रेष्ठी था और जो सत्यपुर से निकल कर गुजरात में आ कर बसा था। क्यों कि इस प्रशस्तिके उपलब्ध ५ वें पद्यमें उसके उन्हीं ४ पुत्रोंके नाम निर्दिष्ट हैं जो उक्त राह ड की प्रशस्तिके ३ रे पवमें मिलते हैं। उस श्रेष्ठीके ये ४ पुत्र इस नामके थे-वोढ के, वीरड, बहुर्ड, द्रोणक । इन्होंने अपने हाथोंसे कमाये हुए धनसे तीर्थकरकी अनेक मूर्तियां आदि बनवाई थीं और ये सद्धर्ममें खूब निष्ठावान् थे। • इनमें जो वीरड नामक श्रेष्ठी था वह जैन मुनियोंका विशिष्ट भक्त था और उसकी पत्नी धन देवी थी सो भी जैन धर्ममें बडी श्रद्धावाली थी। इनका पुत्र वर देव श्रेष्ठी हुआ जो बहुत सरल खभावी हो कर बडा दयाल था और सदा धर्ममें चित्त पिरोनेवाला था । उसने महावीर तीर्थकरकी एक बहुत ही मनोहर ऐसी - पित्तलकी मूर्ति बनवाई थी और उसके साथ समवसरण भी बनवाया था। ज्ञानकी भक्तिके वश हो कर उसने अपनी मुक्तिके लिये उत्तरा ध्य य न सूत्र वृत्तिका पुस्तक भी लिखवाया था। इस तरह उसने और भी अनेक धर्मकार्योंमें बहुत कुछ द्रव्य व्यय किया था । उसकी लक्ष्मी नामकी पत्नी थी जो, साक्षात् विष्णुकी पत्नी लक्ष्मीके जैसी ही, रूपवती और हृदयको हरनेवाली थी । इनका प्रसिद्ध पुत्र सिद्ध नामक हुआ । यह बडा पुण्यशाली, गुणानुरागी, वीर, कामदेवके जैसा रूपवान् , जैन धर्ममें आदरशील, सदाचारपरायण, खीकृत कार्यके पूरा करनेमें दृढप्रतिज्ञ, दाक्षिण्यनिधि और राजलोकमें भी अपने गुणोंसे बहुमान्य बना। इसके चां पूश्री, अमृत देवी, जिन मति, य शोरा जी, पाजू और अम्बा नामकी बहिनें थीं। यह द धिपद्र का रहनेवाला था तो भी लोकोंमें, इसके पूर्व निवासस्थानके कारण, मड्डाह ड पुरी य के विशेषणसे प्रसिद्ध हुआ। इसको राजि म ती और श्रिया देवी नामकी दो पनियां हुई। इनसे इसको वीर दत्त, आम्ब, सरण आदि शुत्र और वीरका, जस हि णि आदि पुत्रियां उत्पन्न हुई। इसके ये सब सन्तान सदाचारी और सब जनोंके मनको प्रमोद देनेवाले हैं। १पहली प्रशस्तिमें यह नाम 'पोढक' के रूपमें मिलता है, जो 'प' 'व' के उच्चारणकी समानताका मात्र सूचक है। २ उक्त प्रशस्तिमें यह नाम 'बर्दन' ऐसा है जो या तो वह इस देशी 'वदुड' शब्दका संस्कृतीकरण है अथवा संस्कृत 'वर्द्धन'का वह अपभ्रंशरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy