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________________ जैन पुस्तक प्रशस्तिसंग्रह - प्रथम भाग एक समय सिद्ध के पिताने, जब उसका अवसान काल निकट आया तब, परलोकके लिये कुछ पाथेय ले जानेके निमित्त, अपने पुत्रको बुला कर यह कहा कि - पुत्र ! मेरे श्रेयके निमित्त तीर्थयात्रा आदि पुण्य कार्यमें तो तुम द्रव्य व्यय करोगे ही, परंतु विशेष करके पुस्तकोंके लेखन कार्यमें तुम यथेच्छ व्यय करो ऐसी मेरी इच्छा है। १० पिताकी इस पुण्य कामनाके अनुसार, उसके खर्गवासी होने पर, फिर उस सिद्ध ने एक लाख श्लोक ग्रंथ परिमाणवाले ऐसे १० पुस्तक लिखवाये जिनमें निम्न प्रकारके ग्रन्थोंका समावेश होता है - १. सुयगडंग सुत्त, निज्जुत्ती, वित्ती. २. उवासगदसाइ अंगसुत्त, वित्ती. ३. ओवाइयसुत्त, वित्ती; रायप्प४. कप्पसुत्त, भासं. ५. कंप्पण्णी. ६. दसवेयालियसुत्त, निज्जुत्ती, वित्ती. ७. उवएसमाल ९. पंचागमुत्त, वित्ती. १०. पिंडविसुद्धी - वित्ती, ( जसदेवसूरि रचित) पढमपंचासग चुन्नी, सेणइय सुत. ८. भवभावणा. लघु वीरचरिय, रयणचूडकहा. इस प्रकारके ग्रन्थोंका जिनमें समावेश होता है वैसे १० पुस्तक उसने अपने पिताके पुण्यार्थं लिखवाये । बाद में उस सिद्ध की एक पत्नी राजिमती भी अकालही में स्वर्गवासिनी हो गई । मरते समय उसने भी अपने पति से कहा कि - 'मेरे पुण्यके लिये भगवती सूत्रके दो सुन्दर पुस्तक तुम लिखवाना' । इससे उस सिद्ध ने तत्काल अपनी पत्नीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये, सुन्दर अक्षरोंसे युक्त, मोक्षमार्गकी प्रपाके जैसे ये दो पुस्तक लिखवाये - जिनमेंसे एक में भगवती सूत्र - मूल लिखा गया है और दूसरेमें उसकी वृत्ति लिखी गई है । विक्रम संवत् १९८७ में, जब कि जय सिंह देव ( सिद्धराज ) पृथ्वीका पालन कर रहा था, उस समय हलपुर पाटण में, यह पुस्तक- समूह तैयार किया गया है। शालिभद्रसूरि के शिष्य श्री व र्द्ध मा न सूरि के चरण-कमलमें भ्रमरके समान रहनेवाले श्री चक्रेश्वराचार्य को यह पुस्तक - समूह संशोधन और वाचनके लिये समर्पित किया गया है । उन्हीं पुस्तकों का यह एक [ भगवती वृत्ति का ] सुन्दर वर्णसे विभूषित पुस्तक है । जब तक आकाशमें रहे हुए सूर्य, चन्द्र और तारक गण पृथ्वीके अन्धकारको नष्ट करते रहें तब तक यह पुस्तक भी पढ़ा जाता हुआ विद्यमान रहो । इस वर्णनके साथ प्रशस्तिके ३३ पद्म पूरे हुए हैं। इसके बादमें एक गद्य पंक्ति है जिसमें लिखा है कि- - संवत् ११८७ के कार्तिक सुदि २ को सिद्ध श्रा व क और श्री चक्रेश्वर सूरि के लिये यह भगवती विशेष वृत्तिका पुस्तक लिखा गया । १५. सिद्ध और राह श्रेष्ठीकी इन दो पुस्तक प्रशस्तियों के परिचयसे हमें इस विषयका ठीक ज्ञान हो सकता है कि इन प्रशस्ति-लेखों में हमारे प्राचीन सामाजिक और धार्मिक इतिहासकी किस प्रकारकी बहुमूल्य और तथ्यभूत सामग्री छिपी पडी है। इन प्रशस्तिगत उल्लेखोंसे हमें यह ज्ञात हुआ कि सिद्धराज और कुमार पाल के राज्य समय में पाटण में कैसे कैसे धनिक और धर्मिष्ठ श्रावक कुटुम्ब वसते थे । उदयन, सान्तू, मुंजाल आदि कुछ राजकीय पुरुषोंका उल्लेख हमें प्रबन्ध चिन्तामणि आदि जैसे प्रबन्धात्मक ग्रंथोंमेंसे मिलता है, पर उनके अतिरिक्त जो हजारों धनवान् और धर्मनिष्ठ कुटुम्ब, उस समय पाटण और अन्यान्य स्थानोंमें रहते थे और जिनके कारण जैन धर्म और जैन समाज उस बडे गौरवको प्राप्त हुआ था, उनका कुछ भी परिचय हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । पर इन प्रशस्ति - लेखोंसे हमें ऐसे उन अनेक धर्मशील, दानवीर, लोकमान्य, सदाचारी श्रावकों और उनके कुटुम्बों का कितना ही महत्त्वपूर्ण और गौरवदर्शक, परंतु अद्यापि सर्वथा अज्ञात ऐसा, इतिहास प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002781
Book TitleJain Pustak Prashasti Sangraha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1943
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size14 MB
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